सआदत हसन मन्टो (११ मई १९१२- १९५५) उर्दू ही
नहीं विश्व के कुछ बड़े कथाकारों में से एक हैं, बटवारे के बाद पाकिस्तान चले गये, जहाँ
मुफलिसी और गुमनामी में उनकी मौत हुई. आज भी उन्हें हिंदुस्तान का ही कथाकार समझा
जाता है. युवाओं में उनके प्रति दिलचस्पी कभी कम नहीं हुई. फ़िराक गोरखपुर ने ठीक
लक्ष्य किया है कि ‘मन्टो ग़ालिब की तरह हर एक बात में अपने को दूसरों से अलग रखना
चाहते थे.’ जिस कथा-परम्परा में अभी सुधारवाद और सामजिक- चेतना के अंकुर फूट रहें
हों उसमें एकदम से नग्न यथार्थवाद की उनकी स्थापना बड़ी छलांग थी.
उनके जीवन पर आधारित नंदिता दास की फ़िल्म मंटों
इधर चर्चा में है. यादवेन्द्र ने इस फ़िल्म को दो बार देखा है. यह विवेचना आपके
लिए.
मंटो : जल बिच मीन पियासी रे
यादवेन्द्र
मंटो का कश्मीरी कनेक्शन अक्सर दरी के नीचे दबा छुपा दिया जाता है - उनकी आंतरिक बेचैनी और उबाल को इसके साथ जोड़ कर भी देखा जाना चाहिए .... देश के बँटवारे के गवाह रहे मंटो की कश्मीर के राजनैतिक हाल पर कोई राय न रही हो यह विश्वास करना मुश्किल है. यदि कोई ऐसा सन्दर्भ न मिलता हो जिसमें वे कश्मीर के बारे में अपनी राय बतायें तो फ़िल्म उसपर चुप न रहे तो क्या करे- पर मंटो के बोलचाल में थोड़ा कश्मीरी ऐक्सेंट डाल दिया जाता तो मुझे लगता है इस चरित्र की नाटकीयता थोड़ी और बढ़ जाती.
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बहुत लंबी प्रतीक्षा करने के बाद नंदिता दास की फ़िल्म
"मंटो" देखने को मिली- बतौर लेखक मंटो और बतौर फ़िल्म कलाकार नंदिता
दास मेरे प्रिय लोग हैं. मंटो को वैसे मैं
उनकी कहानियों के माध्यम से ही जानता हूँ - यह स्वीकार करने में मुझे कोई शर्म
नहीं कि उनके निजी जीवन के बारे में थोड़ी सी जानकारी मुझे इस्मत चुगताई की आत्मकथा
से हुई जिसमें वे खुद की और मंटो की कहानियों पर लगे अश्लीलता के मुक़दमे के बारे
में बड़े खिलंदड़ अंदाज़ में पाठकों को बताती हैं कि मुक़दमे के बहाने उन्हें चाट पकौड़े
खाने के भरपूर मौके मिले. इसके अलावा मैंने उनके जीवन के बारे में और कुछ नहीं
पढ़ा- हाँ, राजकमल प्रकाशन से
प्रकाशित उनकी रचनाओं में बंबई की फ़िल्मी
दुनिया के कुछ जाने माने नामों के बारे में लिखे उनके शब्दचित्रों में कहीं कहीं
वे स्वयं उपस्थित हो जाते हैं- जैसे श्याम, नरगिस,अशोक कुमार
इत्यादि के साथ साथ.
इन किरदारों में से दिल्लगी के "तू मेरा चाँद मैं तेरी
चाँदनी" की ख्याति वाले श्याम नंदिता दास की फ़िल्म में एकाधिक बार अपनी अमिट
छाप छोड़ते हुए प्रकट भी होते हैं. उनकी इतनी गहरी
दोस्ती को दोनों के अपनी अपनी संस्कृतियों की दकियानूसी जीवनशैली के प्रति
विद्रोही होना कहा जा सकता है. वास्तविकता जाने क्या है पर यह फ़िल्म श्याम के एक
वाक्य को ही मंटो के अंततः भारत छोड़ कर पाकिस्तान चले जाने का जिम्मेवार मानती है-
उनका परिवार पहले से पाकिस्तान जा चुका था पर वे स्वयं बंबई की जबरदस्त मुहब्बत
में गिरफ़्तार थे. जब भी उनसे कोई पाकिस्तान जाने के बारे में पूछता तो उनका सधा
हुआ जवाब होता : "मैं चलता फिरता बंबई हूँ. हो सकता है अगर बंबई पाकिस्तान चला जाए तो उसके
पीछे पीछे मैं भी चल पडूँ."
इतिहास गवाह है कि बंबई तो पाकिस्तान नहीं गया पर मंटो
लाहौर चले गए और तंगहाली और अपमान झेलते-झेलते वहीँ
सुपुर्दे ख़ाक हो गए. जिस शहर का नाम जपते जपते मंटो दुनिया से चले गए कोई अचरज
नहीं कि जब उनका इंतकाल हुआ बंबई के किसी अखबार ने यह खबर छापना मुनासिब नहीं
समझा- यह मेरा नहीं "हिंदुस्तान टाइम्स" की एक कॉलमिस्ट का कथन है- और
जिस गली में कभी मंटो रहा करते थे उसका नाम बंबई कभी न आये मिर्ज़ा ग़ालिब के नाम पर
रख दिया गया है, मंटो मार्ग रखने
पर कहीं कोई अश्लील न कह दे. विभाजनकारी
शक्तियाँ इंसानी भावनाओं को कैसे मार डालती हैं इसका इस से वीभत्स सबूत और क्या हो
सकता है.
नंदिता दास की फ़िल्म 1946 - 1950 के बीच के पाँच सालों का बयान करती है- जाहिर है ये साल
मंटो नामक इंसान के ही नहीं भारतीय उपमहाद्वीप के लिए सबसे ज्यादा उथल पुथल वाले
थे ....
वास्तविकता यह है कि सौ सालों बाद भी आज मंटो को जिन
कहानियों के कारण याद किया जाता है वे उसी दौर की खुरदुरी जमीन से उपजी थीं. सरहद
के दोनों तरफ़ गैरबराबरी, गरीबी और मजहबी
नफ़रत का सैलाब उमड़ रहा था और इनके बीच बार बार अपनी बेवाकी और समझौता विरोधी रुख
के कारण मंटो तरह तरह से जलील किये जाते हैं- एक तरफ़ लेखकीय दायित्व था तो दूसरी
तरफ़ परिवार की रोजाना की जरूरतें (उनकी पत्नी साफ़िया का भेस धारण करने वाली रसिका
दुग्गल ने अपनी लाचार निगाहों के बीच पति के लिए प्यार और जिम्मेदारी की जो छवियाँ
पेश की हैं वे महीनों तक दर्शकों का पीछा करती रहेंगी) और इनके बीच कोर्ट कचहरी के
चक्कर काटता बे नौकरी बे सहारा लेखक .... और तो और फ़ैज जैसा तरक्कीपसंद शायर भी
उनका हाथ थामने को सामने से तैयार नहीं होता (छुपछुप के वह अपनी सहानुभूति जरूर
प्रदर्शित करता है)
हालिया सालों में मिर्ज़ा ग़ालिब का किरदार सबसे असरदार ढंग
से निभाते हुए नसीरुद्दीन शाह ने जो ऊँचा पैमाना कायम किया था मुझे लगता है
नवाज़ुद्दीन सिद्दीकी ने उसको छूने की बहुत अच्छी और सफल कोशिश की है.....
उन्होंने अपने फ़िल्मी करियर में इससे
ज्यादा भावपूर्ण और पारदर्शी अभिनय नहीं किया होगा. पर लगे हाथ यह बात मैं पूरी
जिम्मेदारी के साथ रेखांकित करना चाहूँगा कि रसिका दुग्गल अपनी भूमिका में जरा सा
भी लडख़ड़ातीं तो मंटो का किरदार ऐसा सितारों जैसा चमचम न चमक पाता - इसका न्यायोचित
श्रेय उन्हें जरूर दिया जाना चाहिए.
विडंबना देखिये कि कबीर की तरह अपने विचारों के लिए किसी भी
हद तक जाने का जोखिम उठाने वाले आग्रही मंटो भी दो विरोधी ध्रुवों के बीच नींबू के
फाँक की तरह आधा आधा बँटे रहे - सांस्कृतिक समझ रखने की छवि वाला अखबार "जनसत्ता" फिल्म के बारे में लिखते
हुए बार बार मंटो को पाकिस्तानी लेखक कहता है और उधर पाकिस्तान का प्रमुख अखबार
"डॉन" एक साहित्यिक आलोचक असलम फ़ारुकी के हवाले से कहता है कि उनके देश
में मंटो को हिंदुस्तानी लेखक माना जाता है. बकलम मंटो : "मैं चाहे कितनी भी
कोशिश कर लूँ, हिंदुस्तान को
पाकिस्तान से और पाकिस्तान को हिंदुस्तान से अलग नहीं कर पाता हूँ." फिल्म में हिन्दू टोपी और मुस्लिम टोपी का रूपक
इस सांस्कृतिक विभाजन का प्रभावशाली वक्तव्य है.
नंदिता कहती हैं कि 2012 में वे पहले पहल मंटो की कहानियों पर फ़िल्म बनाने को उद्यत
हुईं पर धीरे धीरे लगने लगा कि मंटो की कहानियों को समझना है तो उनकी कहानियों के
बीच से दर्शकों को गुजारना होगा- आखिर हर दर्शक मंटो की कहानियाँ पढ़ कर तो फ़िल्म देखने नहीं आएगा. सही, पर मंटो के इंसानी किरदार के साथ कहानियों को
बस आड़े तिरछे जोड़ दिया गया है जबकि दरकार महीन और कलात्मक तुरपाई की थी- यहाँ
निर्देशक से बड़ी और अक्षम्य भूल हो गयी जिसको किताब की तरह अगले संस्करण में
सुधारना शायद सम्भव नहीं होगा. हॉल में मेरे आसपास बैठे कई दर्शक अंतिम दृश्यों में
टोबा टेक सिंह के बिशन सिंह को मंटो का आख़िरी रूप समझ बैठे थे- इस से एक तो यह हुआ
कि उस कहानी का मारक प्रभाव भोथरा हो गया और दूसरा यह कि दर्शक पूरी फ़िल्म का गलत
निष्कर्ष ले कर बाहर निकला.
"ठंडा गोश्त" वाला हिस्सा बेहद प्रभावशाली था पर
आसपास बैठे दर्शकों की बातचीत से मालूम हुआ वे मंटो के जीवन से इसका क्या ताल्लुक
था यह समझ नहीं पाए. फ़िल्म देखते हुए मुझे कोई पन्द्रह साल पहले फणीश्वर नाथ रेणु
की कहानियों को उनके जीवन की विभिन्न अवस्थाओं के साथ जोड़ कर दिल्ली के श्रीराम
सेंटर में प्रस्तुत संजय उपाध्याय का यादगार नाटक (शीर्षक याद नहीं आ रहा) याद आता
रहा - कहानियों के बीच एक वाचक के तौर पर रेणु की उपस्थिति इतनी सहज थी कि कब नई
कहानी शुरू हो गयी यह पता नहीं चलता था. इतना ही नहीं
लतिका जी की सहज आवाजाही भी बनी रहती थी. उम्मीद है मेरी इस बात को प्रकारांतर
नहीं समझा जाएगा.
वैसे नंदिता दास एक इंटरव्यू में कहती हैं कि जो कुछ भी
उन्होंने फ़िल्म में दिखलाया वह 95 फ़ीसदी प्रामाणिक
है- मंटो और साफ़िया अपने अंतरंग पलों में
क्या बात करते थे उनकी तफ़सील छोड़ दें तो- पर इस्मत चुगताई की "लिहाफ़"
कहानी की चर्चा वाला जो जो प्रसंग है मुझे याद आ रहा है कि उसके बारे में पूर्व
प्रकाशित विवरण कुछ और कहते हैं - "इस्मत, तुम तो बिल्कुल औरत निकलीं", तथ्यात्मक हो या नहीं पर मंटो का यह जुमला लोक मानस में बसा
हुआ है. उनका बार बार यह कहना है कि यथासंभव उन्होंने फिल्म स्क्रिप्ट की
प्रमाणिकता के साथ कोई गड़बड़ी न हो इसके लिए मंटो की बेटियों, सफ़िया की बहन और अन्य परिजनों के साथ निरंतर
संपर्क बनाये रखा.
जब नवाजुद्दीन यह कहते हैं कि उनके पास मंटो के चाल ढाल या
बात करने की शैली को जान पाने का कोई जरिया नहीं था और अपने और निर्देशक के विवेक
से हमने जो सही समझा उसी को परदे पर उतार दिया तो बाज़ार का वह दर्शन एक बारगी
स्पष्ट हो जाता है जिसके चलते राजकमल
प्रकाशन की मंटो की कहानियों के नए संकलन के आवरण पर मंटो की वास्तविक तस्वीर
छापने के बदले संवेदनशील पाठकों की भावनाओं की अनदेखी करते हुए नवाजुद्दीन
सिद्दीकी की तस्वीर छापने का फ़ैसला किया जाता है. आम जन अब मंटो को नवाजुद्दीन की
बॉडी लैंग्वेज से जाने पहचाने तो इसमें किसी को अचरज नहीं होना चाहिए बल्कि फ़िल्म
की सफलता माना जाना चाहिए. इसका उदाहरण हाल
में बंगाल की पाठ्यपुस्तक में मिल्खा सिंह के स्थान पर फ़रहान अख़्तर की तस्वीर छपने
से मिल चुका है.
मंटो को कहानीकार के साथ साथ बंबई की फ़िल्मी दुनिया और उसके
आसपास की दुनिया के शाब्दिक छायाकार के रूप में जाना जाता है और इस फ़िल्म में तमाम
फ़िल्मी कलाकार(अभिनेता, संगीतकार,
लेखक इत्यादि) परदे पर उपस्थित भी होते हैं-
दर्शक की यह अपेक्षा अनुचित नहीं है कि मंटो की लिखी किसी फ़िल्म के बारे में कुछ
देखे सुने. यदि उन दिनों उन्होंने रेडियो के लिए कुछ लिखा तो वह भी फ़िल्म में
समेटा जाता तो अच्छा होता. इसी तरह जिन कालजयी कहानियों की चर्चा होती रही है उनके
लिखने के कच्चे माल और उनको लिखने के लिए मजबूर करने वाले वास्तविक किरदारों के
बारे में जानना मंटो को ज्यादा समग्रता के साथ जानना होता.
निर्देशक ने फ़िल्म की संकल्पना लगभग पूरी की पूरी दीवारों
के अंदर (कुछ अपवादों को छोड़ दें तो) की है इसीलिए
इसका निर्माण भी इसी पैटर्न पर किया गया है- पर 1946 से लेकर 1950 का कालखंड अभूतपूर्व बाहरी उथल पुथल का ज्यादा रहा, सरहद के इधर हो या
उस पार. आज़ादी की लड़ाई के दौरान बंबई की सड़कों पर देश के अन्य भागों की तरह ही
निश्चय ही राजनैतिक आंदोलनों और सांप्रदायिक लपटों का बोलबाला रहा होगा- मालूम
नहीं यह फ़िल्म उन सभी तीखी क्रियाओं प्रतिक्रियाओं को समेटने से जानबूझ कर बचती
रही है या अनजाने में ऐतिहासिक भूल हो गयी है. पूरी फ़िल्म में मंटो ऐसी किसी ऐतिहासिक घटना, आंदोलन या शक्ख्सियत का ज़िक्र नहीं करते हैं- भारत या
पाकिस्तान के- जो उनके साहित्यिक या व्यक्तिगत निर्माण में बड़ी भूमिका निभाए.
आखिर अपने जन्म और कर्म के देश से उखड़ कर धार्मिक उन्माद के
धरातल पर बने दूसरे देश चले जाने का फैसला मंटो जैसे अधार्मिक इंसान के लिए आसान
कभी नहीं रहा होगा- व्यावहारिकता कहती है कि अंतरंग मित्र श्याम का एक वाक्य इतने
बड़े और जानलेवा फैसले का आधार कभी नहीं बन सकता. फ़िल्म में विभाजन की भयावहता और
अमानवीयता ज्यादा वीभत्स रूप में उभर कर
आनी चाहिए थी - हाल के वर्षों में "तमस","पिंजर" और
"भाग मिल्खा भाग" इस वहशीपन को ज्यादा असरदार तरीके से उभार पाए थे. इस
फ़िल्म में अशोक कुमार के साथ मंटो के दंगाइयों से घिर जाने वाला प्रसंग भी दर्शकों
को ज्यादा विचलित नहीं करता.
पाकिस्तान में अपने जीवन के अंतिम दिनों में मंटो ने अंकल
सैम को जो चिट्ठियाँ लिखी हैं वे इस बात की ताकीद करती हैं कि वे गहरी राजनैतिक सोच और रुझान वाले
बुद्धिजीवी थे- उन्होंने भारत पाकिस्तान बँटवारे पर "टोबा टेक सिंह"
जैसा आख्यान लिखा तो इस विभाजन पर हमला करते हुए सीधी राजनैतिक टिप्पणियाँ भी जरूर
की होंगी. उनकी सोच का खुलासा करने के लिए
यह उद्धरण ही काफ़ी है : यह मत कहो कि दस हजार हिन्दू मरे या दस हजार मुसलमानों का
कत्ल कर दिया गया - सीधे सीधे यह कहो कि बीस हजार इंसान मौत के घात उतार दिए गए
.... आज के देश के साम्प्रदायिक माहौल को
देखते हुए मंटो के राजनैतिक वक्तव्यों को ज्यादा जगह मिलती तो ज्यादा प्रासंगिक
होता.
मंटो का कश्मीरी कनेक्शन अक्सर दरी के नीचे दबा छुपा दिया जाता है - उनकी आंतरिक बेचैनी और उबाल को इसके साथ जोड़ कर भी देखा जाना चाहिए .... देश के बँटवारे के गवाह रहे मंटो की कश्मीर के राजनैतिक हाल पर कोई राय न रही हो यह विश्वास करना मुश्किल है. यदि कोई ऐसा सन्दर्भ न मिलता हो जिसमें वे कश्मीर के बारे में अपनी राय बतायें तो फ़िल्म उसपर चुप न रहे तो क्या करे- पर मंटो के बोलचाल में थोड़ा कश्मीरी ऐक्सेंट डाल दिया जाता तो मुझे लगता है इस चरित्र की नाटकीयता थोड़ी और बढ़ जाती.
फ़िल्म जहाँ खत्म होती है और परदे पर क्रेडिट्स लिखे दिखाई
देने लगते हैं तब महत्वपूर्ण गीत "बोल के लब आज़ाद हैं तेरे" (फ़ैज अहमद फ़ैज की कालजयी रचना) सुनाने का कोई
मतलब नहीं रह जाता- क्रेडिट्स देख कर लोग बाग अपनी
कुर्सियों से उठ कर बाहर निकलने लगते हैं. मेरा मानना है कि पूरी फ़िल्म को
अभिव्यक्ति की आज़ादी पर होते हमले के सन्दर्भ में व्याख्यायित करने वाली निर्देशक
को इस गीत को प्रमुखता से फ़िल्म का महत्वपूर्ण ही नहीं अनिवार्य हिस्सा बनाना
चाहिए था- या तो छोड़ देना चाहिए था. और स्वयं दीपा
मेहता की फिल्मों के खिलाफ़ हिंसक विरोधों का सामना कर चुकी नंदिता अपनी इस फ़िल्म
को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर हमले का प्रतिरोध बताती हैं पर अफ़सोस, यह प्रतिरोध इतना शाकाहारी और भद्र है कि हुड़दंगियों को
इसकी आवाज़ सुनाई नहीं देगी- समय का तकाज़ा है कि उन्हें अपनी बात लोगों तक पहुँचाने
के लिए ज्यादा आक्रामक और थोड़ा हिंसक (कलात्मक तौर पर) होना जरुरी है.
बुरा लगता है यह देख कर कि नंदिता दास जैसी बेहद सजग व मुखर
ऐक्टिविस्ट की यह फ़िल्म तमाम ईमानदारियों
और सदिच्छाओं के बावजूद मजहबी जुनूनियों
और हिंसक भीड़तंत्र को चेता नहीं पाती कि यह देश सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है नालायकों,
तुमसे बिलकुल इत्तेफ़ाक न रखने वाले हम भी इसी
धरती के लाल हैं.
अंत में मैं यही कहना चाहता हूँ कि मंटो सिर्फ़ एक इंसान या
कहानीकार नहीं थे, ख़ास कालखंड की
निर्मिति और उसको प्रतिनिधि स्वर देने वाली प्रवृत्ति थे- काल और समाज में व्याप्त
गैरबराबरी और पाखंड की प्रतिक्रिया से बनी एक क्रांतिकारी और विद्रोही निर्मिति थे
जो हुकूमत की असीम शक्ति की परवाह किये बिना असहमति के झंडे सबको दिखाई दे इतने
ऊपर ले जाकर लहराने से बाज नहीं आते थे और
सबकुछ जानते बूझते हुए असमय मौत के पाले में कूच कर जाते हैं.
उनकी गुर्राहट, ललकार, प्रताड़ित किये जाने पर
निकलती चीख पुकार उनके हर शब्द से निकलती है- यह उनके अक्षर-अक्षर का सिग्नेचर
ट्यून है. फिल्म की सबसे बड़ी विडंबना यह है कि मंटो की यह इंकलाबी चीत्कार फ़िल्म
का मुख्य स्वर बनने से रह गई .... कुछ दृश्यों में दर्शक थोड़े हाथ पाँव हिला कर
असहज होता है पर फ़िल्म दर्शकों के मन पर हथौड़े जैसी बजती नहीं- प्रतिगामी
प्रवृत्तियों को पटखनी देने वाला सकारात्मक आक्रोश फ़िल्म का स्थाई भाव बनता तो
ज्यादा अच्छा होता .... नंदिता, आपको दर्शकों को
हँसते बतियाते हुए हॉल से बाहर नहीं जाने देना चाहिए था.
रचनाओं के माध्यम से हमलोग जिस मंटो को जानते हैं वे इतने सट्ल प्रतिरोध के नायक तो नहीं थे- बेतरतीबी, रुखड़ापन, शोरशराबा और बदलाव के लिए बेसब्री तीखे प्रतिरोध के "मंटो हथियार" थे. जो मरने से पहले ख़ुदा को चुनौती दे दे कि बताओ कौन बड़ा अफ़साना निगार है- तुम या मैं ? उसकी फ़ितरत ही इंसान और समाज के मन में उथल पुथल करने की है.
रचनाओं के माध्यम से हमलोग जिस मंटो को जानते हैं वे इतने सट्ल प्रतिरोध के नायक तो नहीं थे- बेतरतीबी, रुखड़ापन, शोरशराबा और बदलाव के लिए बेसब्री तीखे प्रतिरोध के "मंटो हथियार" थे. जो मरने से पहले ख़ुदा को चुनौती दे दे कि बताओ कौन बड़ा अफ़साना निगार है- तुम या मैं ? उसकी फ़ितरत ही इंसान और समाज के मन में उथल पुथल करने की है.
यादवेन्द्र
(विश्व साहित्य से अनुवाद, संपादन और स्वतंत्र लेखन)
yapandey@gmail.com
yapandey@gmail.com
सुचिंतित ,तार्किक ,जानदार और गहरे पानी की ओर ले जाने वाली समीक्षा .
जवाब देंहटाएंएक फ़िल्म की समीक्षा उस फिल्म की बारीकियों के विश्लेषण से होते हुए मंटो के रचनाकर्म और उनके लेखकीय क़िरदार के चित्रण और आज के राजनैतिक और सामाजिक परिदृश्य में उस किरदार की प्रासंगिकता के स्थापन तक विस्तार पा गयी। सुंदर दृष्टि। बधाई।
जवाब देंहटाएंमैंने अभी फिल्म नहीं देखी, शायद अब देखूँगा | लेकिन फिल्म के कंटेंट और प्रस्तुति का एक अंदाज़ तो इस समीक्षात्मक लेख से मिलता ही है | मंटों ने खुद अपने बारे में लिखा है - सच कहूं तो मैं खुद अपना किरदार हूँ | हम दोनों एक साथ जन्मे, और शायद साथ ही मरें भी. और ये भी मुमकिन है स'आदत हसन के मर जाने के बाद भी मंटो जिंदा रहे | मंटों बम्बई से ज़्यादा उसकी फ़िल्मी दुनिया का बाशिंदा रहा | तबके संस्मरण उसके लेखन का एक अहम् हिस्सा हैं |फिल्म देख कर मैं तय करूंगा मंटो की वह फ़िल्मी ज़िन्दगी किस हद तक इस फिल्म में उतर पाई है | मंटो क्या था इसको जानने के लिए उसके फ़िल्मी संस्मरण काफी हैं | मंटो का नंगा यथार्थ ही कलात्मक यथार्थ है | यह एक और तरह का जादुई यथार्थ है |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-10-2018) को "जय जवान-जय किसान" (चर्चा अंक-3112) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद सधी हुई समीक्षा । सभी पहलुओं को समेटते हुए । कुल मिलाकर शानदार काम ।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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