अच्युतानंद मिश्र की बीसवीं शताब्दी के मुख्य चिंतकों पर आधारित चिंतनपरक किताब ‘बाज़ार के अरण्य में’ इसी वर्ष आधार प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. पश्चिमी के आधुनिक और उतर-आधुनिक दार्शनिकों को समझते हुए उन्हें भारतीय परिवेश में देखते हुए इसे लिखा गया है. जिन्हें इस समय को समझने में रूचि है वे जरुर इसे पढ़ें.
अच्युतानंद
मिश्र कवि हैं और २०१७ का युवा कविता का भारत भूषण भी इन्हें प्राप्त है. उनकी कुछ
कविताएँ यहाँ प्रस्तुत हैं.
कलाएं अपनी
संवेदना और सृजनात्मकता के साथ प्रतिपक्ष निर्मित करती चलती हैं, वे यथास्थितिवादी
नहीं होती हैं उनमें अक्सर एक रचनात्मक असंतोष रहता है. लेखन वर्तमान में चुक जाए तो
वह कैसे कालजीवी होगा, कालजीवी होने का रास्ता पर काल से होकर जरुर जाता है. कुछ
रचनाएँ भविष्य के लिए भी अपनी अर्थवत्ता
बचाकर रखती हैं.
कलाओं से सपाट
और एकरेखीय ढंग से समकालीनता का सच उद्घाटित करने की मांग खतरनाक है, यह अंतत:
नारे में बदल जाने या प्रतिबन्ध की मांग की तरफ ले जाता है. एक सभ्य समाज को
सृजनात्मक भाषा के साहस को समझना चाहिए और उसे सहना भी चाहिए.
अच्युतानंद
मिश्र की कविताएँ डर से मुठभेड़ करती हैं यह डर मुक्तिबोध के ‘अँधेरे’ से ज्यादा
घना और ज़ालिम है. पर उम्मीद तो कविताएँ खोज़ ही लेती हैं.
अच्युतानंद
मिश्र की कविताएँ
ये दिन
हत्याएं होती
हैं, रक्तहीन
मृतक के सिरहाने
हम रख जाते हैं फूल
कोमल सुंदर
चुप रहकर फूल
बढाते हैं
मृतक का सम्मान
एक बेचैन पक्षी
तोड़ता है सन्नाटा
एक मृत्यु में
छिपी होती है कई मृत्यु
हम करते हैं
रक्तदान
दिन कोमल और
सुंदर
नवजात शिशु के
रुई से बाल जैसे
कोई नहीं है इस
वक्त
कोई बात नहीं
यह उदास-शिशु से
दिन
खामोशी की तीव्र
भागदौड़
टूटता सन्नाटा
एक और मृत्यु
रक्तहीन
रंगहीन यह
दुनिया.
चटक लाल पक्षी
प्रतिक्षाहीन
शिशु भविष्य
स्थगित वर्तमान
ठहराव के कंटीले
तारों से
उलझी हर सांस
फंसावट में
हर रेशमी उलझन
हर उलझन के
कई-कई नाम
खून में लिपटी
चादर
काले स्याह
धब्बे से
स्मृतियों में
बढ़ गए दुख के फफोले
एक चीख भर
प्रतिरोध
फेफड़े में भर
देते हैं सांस
कौन कहाँ इस
वक्त
एक हल्की सी आहट
की तरह
प्रवेश करता
स्वप्न में
स्वप्न के सारे
राज छिपाती
एक चमकीली सुबह
में खुल सकता है कुछ भी
खरगोश के मुलायम
कानों की ऐठन की तरह
खुलता है सुबह
का दरवाजा
भीतर प्रवेश
करता है एक दिन
चौकन्ना हिरण
कुलांचे भरता है.
वसंत उस बरस
हमने अपने वसंत
को चूमा
और खो गये
कुछ पत्तियां थी
निष्पाप
टंगी रह गयी
कुछ पतंगे
उड़े और मर गये
एक कांच का आइना
टूट गया
वह सड़क पर
बेतहाशा
दौड़ती रही
सबकुछ इतना
स्वाभाविक था
कि हवा चली और
दुप्पट्टा लहरा गया
शहर से दूर
एक जोर की लहर
उठी
सीटी बजाती बस
दूर चली गयी
बस की खिड़की से
कोई रुमाल लहराता रहा
स्मृतियाँ धूल
बनकर उड़ने लगी हर ओर
उस बरस वसंत
ने पागल कर दिया
फिर जीवन में
आते रहे
शीत और ग्रीष्म
अविराम.
बंजारे
बालकनी से देखा
तो
सामने गुमसुम सा
बैठा मैदान
अचानक रंगीन
होता नज़र आने लगा
खच्चरों से जुती
चार गाड़ियाँ
खोली जा रही थी
लाल -पीले -नील
घाघरों में उड़ती औरतें
इधर-उधर बच्चों
के पीछे दौड़ रही थीं
और मर्द खुले
बदन तम्बू बांध रहे थे
पानी के ग्लास
में एक बूंद खून की
तरह फ़ैल रही थी
शाम
कुछ देर इधर उधर
करता मैं
दुबारा बालकनी
में गया तो
रात घिर आई थी
बेहद उमस भरा
मौसम था
खुले में उनके
तम्बुओं को फड़फड़ाता देखकर
मैं तारों की
छांव तले रात
गुजार सकने के
सुख से वंचित
मध्यवर्गीय
कुंठा और आत्मघाती
हिंसा से भर आया
पत्नी से थोड़ी
नोंक झोंक के बाद
जब मैं फिर
पंहुचा बालकनी की तरफ
मैंने देखा वहां
लाल नीली आग की
लपटें उठ रही
हैं
और आग के पास
बैठी औरतें
रोटियां सेंक
रही हैं
बच्चे मैदान का
चक्कर लगा रहें हैं
और मर्द आग के
पास बैठकर ताश के पत्ते फेंट रहे हैं
साथ मिलकर खाने
के बाद
वे देर रात तक
बैठे रहे
बुझी हुयी आग के
पास
और फिर चले गए
अपने-अपने
तम्बुओं के भीतर
उमस और गर्मी से
बुरा हालथा
कि बीच रात
अचानक उचट गयी नींद
पानी का ग्लास
हाथ में लिए
मैं पहुंचा
बालकनी की तरफ
तम्बू हलके-हलके
इस तरह हिल रहे
थे
जैसे लय में
चलते चाक से
हिलता है
कुम्हार का बदन
यह सृजन की
थरथराहट थी
सिरजा जा रहा था
जीवन
दो -तीन दिन बाद
वे तम्बू नहीं थे
बस उनके धुंधले
पदचिन्ह बचे हुए थे सड़क तक
वे निकल पड़े
होंगे
किसी और खाली
मैदान की तरफ
चीटियों के
पुरखे वे
आदिम पृथ्वी की
तलाश में
छान मारेंगे
समूची पृथ्वी
और गुस्से में
भरकर एक दिन
वे मार देंगे
अपने खच्चरों को
सारे तम्बुओं को
वे उलट देंगे
सब कुछ झुलसा
देंगे
वे आग में
खाली परात सी
पृथ्वी पर
वे नृत्य करेंगे
आदिम लय से गूंज
उठेंगी सारी धरती
वे गुलेल के
पत्थर से तोड़ देंगे सारा सीसा
औरतें बुहार कर
ले जाएँगी सबकुछ समुद्र तक
अनथक यात्री वे
एक दिन चले
जायेंगे पृथ्वी के बाहर
अपने साथ लिए
समुद्र का नमक
और आँखों में
सूरज की चमक.
पागल होने से ठीक पहले
पत्ते उड़कर वापस
आ रहे थे पेड़ों
की तरफ
हवा का इरादा
मैं जान नहीं पाया
कम निकलता हूँ
इन दिनों
मुझे डर रहता है,
कहीं बरसात न हो
जाए
हर अकेला आदमी
मेरी ही तलाश में
पकड़ा जाऊं मैं
बारिश के बीच
अकेला
सड़कों पर
मैं भागता रहूँ
और बरसात होती
रहे
गली से एक बच्चा
निकले
और साइकिल के
छूटे पहिये की तरह
घूमता हुआ लौट
आये
सब देखें मेरी
ओर
उनकी हंसी मेरे
चेहरे पर कीचड़ की मानिंद
उभर आये
मैं सोचता हूँ
और
बिजली गुल हो
जाती है
पंखों की आवाज़
सुनकर
भाग चुकी होती
है छिपकलियाँ
कभी-कभी इस कदर
अकेला होता हूँ
कि मुझे खुद को
साबित करने के लिए
नींद का सहारा
लेना होता है
सपने में मैं
एक सफ़ेद मेमने
के पीछे भाग रहा होता हूँ
मैं गिर जाता
हूँ मेरे घुटने छिल जाते हैं
और पानी के जहाज़
और रेलगाड़ियाँ
और हवाई जहाज़
कहीं से चले आते हैं
तीनों पर एक साथ
बैठता हूँ
और पंखा चलने
लगता है
तेज़ रौशनी के
छीटों से
साफ़ करता हूँ
आँखें
मैं हड़बडाकर बैठ
जाता हूँ
कान लगाकर सुनता
हूँ
घड़ी ठीक समय बता
रही है
लेकिन मेरे भीतर
एक आवाज़
आती है
कोई भरोसा नहीं
घड़ी हो या बिजली
रास्ता हो या
नदी
कोई भरोसा नहीं
दरवाजे की तरफ
जाता हूँ
हालाँकि अब तक
कोई
दस्तक नहीं हुयी
मैं अनसुनी किसी
आवाज़ की तरफ बढ़ रहा हूँ
मुझे लगता है उस
तरफ से
कुछ लोग अभी
पुकारेंगे
मुझे लगता है वे
किसी मुसीबत में हैं
उनकी आवाज़ गले
में फंस गयी है
उनके पैर जमीन
में धंस गये हैं
उनके हाथों को
लताओं ने बाँध लिया है
मैं उनकी तरफ
जाना चाहता हूँ
मैं ठीक ठीक कह
रहा हूँ
मैंने अपने
कानों से उनकी आवाज़ नहीं सुनी
मैंने अपनी
आँखों से नहीं देखा उनका चेहरा
मैंने हाथों से
नहीं छुई उनकी उलझन
मुझे लगता है उस
तरफ से ही
हाँ उसी तरफ से
जहाँ कुछ दिखाई नहीं दे रहा है
उनकी आवाज़ आएगी
मुझे अपनी आँखों
पर भरोसा नहीं करना चाहिए
मुझे अपने कानों
से परे
सुनने की आदत
डालनी होगी
मेरे हाथ
इच्छाओं को छूने में
लगातार असफल रहे
2.
वे लोग खो गये
हैं
वे उन अखबारों
के साथ
कहीं चले गये
वहाँ उनके नाम
छपे होने चाहिए थे
पीले पन्नों की
रौशनी में
उनके रंगहीन
चेहरे छिप गये
मुझे शब्दों से
बाहर आकर
उन्हें पुकारना
होगा
शब्दों में अब
वे नहीं बचे
बहुत दिनों तक
वे
शब्दों की खुरचन
बनकर
भटकते रहे यहाँ
वहां
फिर वे सिमटे
रहे
शब्द और पूर्ण
विराम के बीच
खाली जगहों पर
वर्षों तक
पूर्ण विराम के
ठीक पहले के संगीत की
मद्धिम धुन पर
सवार वे कहीं चले गये
उनकी गलती थी कि
वे इतना कम शोर
करते थे कि
कुत्ते के कान
तक उन्हें सुन नहीं सके
और जब पैर
मिट्टी की ठंडक को छू रहे थे
वे उसी मिट्टी
को मुलायम कर रहे थे
वे पैर और
मिट्टी के अलिखित
सम्बन्ध के बीच
बचे रह गये
वे भोर से ठीक
पहले की हवा की नमी में
और देर रात काम
करते
बच्चे की झपकी
में घुल चुके हैं
वे एक एक कर हर
जगह
पहुँच रहें हैं
वे एक एक कर हर
चीज़ को
छू रहे हैं
हर चीज़ पर मौजूद
ठंडक उन्हीं की है
थोड़ी देर पहले
तक वे पत्तों के टूटने में शामिल थे
वे बच्चों की
रुलाई के ठीक पहले की कचोट
में शामिल थे
वे चीखने के ठीक
पहले की
दरार में कहीं
छिप रहे थे
लेकिन अब वे नज़र
नहीं आ रहे
3.
चीज़ें गोल गोल
घूम रही हैं
पत्ते नाच रहे
हैं
लोग ठहाका लगा
रहे हैं
हवाई जहाज़ उड़
रहे
पानी के जहाज़
पानी से थोडा
ऊपर चल रहे हैं
सबकुछ एक पुरानी
रफ़्तार में
मैं उस मेमने
में बदल गया हूँ
उसकी आँख से ही
देखता हूँ सबकुछ
एक देश सिकुड़
रहा है
समंदर घेर रही
है उसे
ऊँची उठती लहरों
में घुल चूका है मानचित्र
पानी के जहाज़ अब
पानी की नोंक पर तैर रहें हैं
हवाई जहाज़ के ऐन
सामने
पानी के जहाज़
हैं
धमाका कभी हो सकता है
दोनों दरवाज़े
खुले हैं
लोग जल्दी जल्दी
में इधर से उधार आ रहे हैं
कुछ लोग हवाई
जहाज़ से कूदकर
पानी के जहाज़ पर
आ गये हैं
वे बेहद पढ़े
लिखे और जहीन लोग हैं
वे पानी और हवा
के नियमों में फर्क कर रहे हैं
अब कुछ भी देखना
नहीं चाहता
इससे पहले की
लहर
उस सफ़ेद मेमने
को बहा ले
मैं पत्ते में
बदल रहा हूँ
जहाज़ डूब कर
रहेंगे
कोई नहीं जानता
कौन सा जहाज़
डूबेगा पहले
दरवाज़े पर दस्तक
हुयी बाहर कोई नहीं है
शायद वही लोग
आये थे
सिटकनी की ठंडक
से जानता हूँ
दीवार घड़ी अब भी
ठीक समय बता रही
है.
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(फोटोग्राफ गूगल से आभार सहित)
(फोटोग्राफ गूगल से आभार सहित)
anmishra27@gmail.com
अच्युतानंद मिश्र जितने अच्छे कवि हैं ,उससे अच्छे आलोचक हैं।बहुत विचारशील और अपने समय की अद्यतन खबर रखने वाले हैं।
जवाब देंहटाएंBehtrin kavitayen hain ..aur achuyutanan ji bahut gambhir aur vaicharik bhi likhate hain..Badhayi.��
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