परख : नये शेखर की जीवनी (अविनाश मिश्र) : प्रचण्ड प्रवीर



























युवा कवि अविनाश मिश्र की गद्य कृति ‘नये शेखर की जीवनी’ वाणी प्रकाशन से अभी-अभी प्रकाशित हुई है. अविनाश मिश्र ने अपनी कविताओं और आलोचना से सबका ध्यान खींचा है और उन्हें उम्मीद से देखा जा रहा है. ऐसे में इस किताब में पाठकों की रूचि स्वाभाविक है. कथाकार प्रचण्ड प्रवीर ने इसे पढ़कर यह रचनात्मक प्रतिक्रिया दी है.  


निराले  शेखर  की  नयी  जीवनी                           
प्रचण्ड प्रवीर










मारे समय के चर्चित और प्रशंसित युवा कवि अविनाश मिश्र की नवीन पुस्तक नये शेखर की जीवनीअब समग्रता में उपलब्ध है. बकौल नये शेखर -

“उसने पाया कि वह जब से पैदा हुआ तब से ही रो रहा है. सम्पादकों ने रचनाएँ लौटा दीं तो रोया, छाप दीं तो भी रोया, कवि माना गया तो रोया कि कथाकार को तवज्जोह नहीं मिली, कथाकार माना गया तो कवि न माने जाने पर रोया, कवि-कथाकार कहा तो विचारक और क्रान्तिकारी न कहे जाने पर रोया.” (पृष्ठ १३३)

इस पुस्तक की पृष्ठभूमि पर ग़ौर करें.



पृष्ठभूमि :

शेखर: एक जीवनी’ (पहला खण्ड: १९४१, दूसरा खण्ड: १९४४) की भूमिका में अज्ञेय यह लिखते हैं कि  
शेखर कोई बड़ा आदमी नहीं है, वह अच्छा भी आदमी नहीं है. लेकिन वह मानवता के संचित अनुभव के प्रकाश में ईमानदारी से अपने को पहचानने की कोशिश कर रहा है. वह अच्छा संगी नहीं भी हो सकता है, लेकिन उसके अन्त तक उसके साथ चलकर आपके उसके प्रति भाव कठोर नहीं होंगे, ऐसा मुझे विश्वास है. और, कौन जाने, आज के युग में जब हम, आप सभी संश्लिष्ट चरित्र हैं, तब आप पाएँ कि आपके भीतर भी कहीं पर एक शेखर है, जो बड़ा नहीं, अच्छा भी नहीं, लेकिन जागरूक और स्वतन्त्र और ईमानदार है, घोर ईमानदार!’

यद्यपि शेखर: एक जीवनी प्रतिष्ठित कृति है, किन्तु यह प्रतिष्ठा उसकी पठनीयता और वैचित्र्य से अधिक है. जिस तरह चौबीस वर्षीय गोएटे का पहला और अत्यधिक सफल उपन्यास द सॉरो आफ यंग बर्दर’ (१७७४) ने गलत प्रतिमान स्थापित किये जिसे बाद में गोएटे ने भी स्वीकारा, जिससे बहुत कुछ सीखा नहीं जा सकता, उसी तरह मूल शेखर की जीवनी से हम मानसिक क्लेशों और व्यवहारों का अध्ययन करके सचेत हो सकते हैं. हालांकि ईमानदारीपर बहुत जोर दे कर बहुत कुछ हासिल नहीं किया जा सकता, वहीं अज्ञेय जागरूकता और स्वतन्त्रता पर भी जोर देते हैं.

उनका शेखर अपने समय के मूल्यों जैसे साम्यवाद और क्रान्ति पर विचार करता है और वैसा जीवन जीने का प्रयत्न भी करता है. जेल में बंद होने पर उसकी मुलाकात एक कैदी से होती है जो उसे एक सूत्र देता है, अभिमान से भी बड़ा एक दर्द होता है, लेकिन दर्द से बड़ा एक विश्वास होता है.  इस सूत्र के पीछे सामी विचारधारा की चेतना जैसी बात नज़र आती है, जिसमें दर्द सहना और विश्वास कायम रखने को सर्वोच्च महत्ता दी जाती है. यहाँ कहना चाहूँगा कि विश्वास की छलांग को भारतीय दर्शनों में हेय ही माना जाता है. न तो यह तंत्र सम्मत है, न ही यह वेदांत सम्मत है. न ही बौद्ध, जैन यहाँ तक कि लोकायत भी किसी विश्वासको इस तरह की महत्ता देते हैं. पूर्ण सत्य तक पहुँचना (या नहीं पहुँच पाना) सम्बन्धित जो वैचारिक द्वंद्व रहा है, वही चिन्तन की पराकाष्ठा है.


अज्ञेय के उपन्यास की मूल्यात्मक समीक्षा में यह बात सबसे अधिक ध्यान देनी चाहिये कि यह एक अंहाकारात्मक आख्यान है. यहाँ स्वऔर ममसे होते हुये, शेखर का दर्द, शेखर की पीड़ा, शेखर का छला जाना, शेखर का माता-पिता से कड़वी बातें सुनना, शेखर को शशि के पति से अपमानित होना- सब कुछ शेखर के इर्द-गिर्द है. बदले में शेखर क्या कर रहा है? वह सौन्दर्य की खोज कर रहा है टैगोर की कविताओं में, टेनीसन की कविताओं में, नीत्शे के दर्शन में, नये शहरों में, पहाड़ों में देवदार की छाँव में. कुछ इस तरह से कि जो शेखर के साथ हो रहा है बहुत कुछ अन्यायपूर्ण है, पर शेखर इतना प्रतिभाशाली है कि वह सत्य की खोज कविताओं और प्रकृति में कर के अपने बेईमान साथियों और धोखेबाज लोग से जीत जाएगा या उन्हें बदल देगा.

कहने का अर्थ है कि अज्ञेय के उपन्यास में न तो व्यवहार और नीति सम्बन्धी सत्य है, न ही किसी धर्म संकट पर चिन्तन है, न ही किसी विचार व्यवस्था में अनुराग. वे अस्तित्ववादीऔर भातिवादियोंकी तरह भटकना चाहते हैं और पूरे उपन्यास में लगभग भटकते ही रहते हैं. वह इस तरह से कि एक मनुष्य को (जो कि गुण-दोषों दोनों से युक्त है), क्यों सताया जा रहा है? जैसे कि केवल उपन्यास के नायक के साथ बहुत कुछ हुआ हो और शेष का जीवन बड़ा सुखद बीता हो जो नायक पर सहानुभूति दर्ज़ करें.

किन्तु इस आरोपित वैचारिक विफलता की आलोचना में हमें काल का ध्यान रखना होगा कि उस समय कैसी किताबें, परिवेश, सामाजिक परिस्थितियाँ उपलब्ध थी. साहित्य का मूल्यांकन भले ही हम विचार की गहराई, भाव की तीव्रता, और संकल्पता की प्रेरणा से लें; किन्तु साहित्य अपने साथ बहुत से चीजें साथ ले कर चलता है जैसे कि शिल्प के आयाम जो कि पठनीयता, सम्प्रेषणात्मक क्षमता आदि कारयित्री प्रतिभा से अनुसंग हैं.




शिल्प :

अविनाश अगर कवि बनना चाहते थे और कवि बनने का दावा करते हैं तो उनके साध्य और सिद्धि में बहुत फर्क नहीं कहा जा सकता है. इस तरह उनका कथा साहित्य काव्यात्मक अधिक है, जो भाव सम्प्रेषित करना चाहता है. अविनाश मिश्र का यह मानना हो सकता है कि साहित्य में भाषा ही सब कुछ है. इसलिये वह बड़े प्रभावी और मारक भाषा का प्रयोग करते हैं. अज्ञेय के शेखर का अनुसरण करते हुये नया शेखर भी अपने जीवन को बहुत से अनुच्छेदों में देखता है. यहाँ वह अपने काल को ले कर कहीं ज्यादा सजग है. इस सजगता दिनांकों, शहर के प्रवासों, मकान बदलने के क्रमों में उभर कर आती है. ये अनुच्छेद रैखिक क्रम में नहीं हैं, जो कि सूक्ष्मदृष्टि वाले कवि की पहचान है. भावों के प्रवाह को ले कर भी वह बहुत सावधान रहे हैं.

हालांकि शिल्प की समस्या किताब के दीर्घजीवी हो जाने से गहरा जाएगी. जनवरी १९९० से शुरु होने वाले संस्मरण काल में इतनी दूर तक जाते हैं कि वह प्रकाशन तिथि (जून २०१८) का अतिक्रमण कर जाते हैं. मसलन कुछ अनुच्छेद २०१९, २०२२, २०२५ और २०२६ तक के हैं.

इसी क्रम में यदि कवि २०१९ में (जिस समय उसकी आयु ३३ साल की होगी) यह लिखता है कि –

अनुशासन अयोग्यों के लिये होता है
सारी समझदारी अतीत हो जाती है
बहुत समझदारी बहुत मूर्खता का निष्कर्ष है
आत्ममुग्धता एक अच्छी चीज़ है, अगर वह मूर्खों के बीच बरती जाए

तब इसे कवि को ग़ैर जिम्मेदाराना लेखक कहा जाएगा, जहाँ न इसके पक्ष में तर्क है न इसे निषेध करने के लिये इशारे हैं. शायद इसे लड़कपन की बदमाशी जैसे अनदेखा या कुछ संवेदना सा पैदा करने के लिये चुहल ही कहा जा सकता है. यह इसलिये कि बहुत से साहित्यकार बहुत अनुशासित और मेहनती रहे हैं. समझदारी न जाने किन अर्थों मे ली जा रही है. आत्ममुग्धता जैसे दोषों को मानवीय कह कर मानवीय गरिमा को घटाना अपराध कहा जाना चाहिये.

जहाँ अज्ञेय टेनीसनऔर टैगोरपर टिकते हैं, नये शेखर के लिये हिन्दी के बहुपुरस्कृत और शीघ्र विस्मरणीय कवियों की चर्चा आवश्यक लगती है. नयी कविता के आस्वाद के लिये और कविता के लिये मज़दूरी की चाह में बहुत सी ऐसी कविताओं का उल्लेख है जो कि भुला दी जाएँगी. हम आशा कर सकते हैं कि कवि भविष्य में अपने इस आस्वाद के लिये कभी लज्जित हो सकेगा. कवि के लिये आशा इसलिये है कि तमाम संदर्भों से गुज़रते हुये वह अंत में कालिदास और बाणभट्ट के पास विनम्रतापूर्वक पहुँचता है. सम्भव है कि हिन्दी कविताओं के प्रतिमान जिसे कविता कम, ललित निबंध, व्यङ्ग्य, अकविता, एकालाप, भड़ास, कुंठित मन का विषाद कहना श्रेयस्कर है, वे सभी कालिदास, भारवी, बाणभट्ट, भास, श्रीहर्ष, भवभूति के शिल्प, कथ्य और वार्णिक संयोजन अलंकार को देखें और अपनी अक्षमता पर विलाप करें.

हाँ, ये अपराध उनके लिये क्षम्य हैं जो कि खुद को कवि नहीं मानते, और श्रेष्ठता से विनम्रता के साथ परिचित हैं. 

नये शेखर के लिये काल वर्तमान के अर्थ में नहीं समकालीन अर्थ में है. इसलिये वह रेखा-अमिताभ, रजनीकांत, यहाँ तक कि अजय देवगन की फ़िल्म का भी जिक्र कर बैठते हैं. इतनी समकालीनता से बचा जा सकता था क्योंकि वह निरर्थक सिद्ध हो जाएँगी. उदाहरण के लिये अब न कोई कुंदन लाल सहगल को याद करता है, न उनके नशे को, न देव-आनंद और सुरैय्या की प्रेमकथा में कोई रस लेता है.

नया शेखर बहुत सी बातों से आहत हो कर प्रतिक्रियावादी हो जाता है. इस अर्थ में कि वह आत्मघाती भी हो जाता है. जब वह यह कहता है कि माँ-बापहीन और बेरोजगार होना सच था और इस वजह से शेखर जीवनियाँ लिखने की पात्रता खो चुका था या फिर अयोग्य इतने दयनीय हैं उसके करीब कि अपनी जीत अक़्सर उसे बेहद अश्लील लगती है. यह आत्मघाती इसलिये है कि शेखर अपने प्रतिद्वंदी और पैमाने, शत्रु और शिकार, इतने साधारण लोग को चुनता है जिससे वह खुद की प्रतिष्ठा कम करता जाता है. यह वह स्वयं भी जानता है युवा होना कोई छूट नहीं है और यह शेखर तब से जानता है, जब वह युवा नहीं हुआ था.

यह द्वंद्व रेखांकित करने योग्य है क्योंकि बहुत से वाक्य और अनुच्छेद इस तरह की हेगेल की द्वंद्वात्मक तर्कपद्धति (थीसिस’,‘एंटीथीसिसऔर सिंथिसिस) की तरह, या जैन दर्शन के स्यादवादकी तरह समझने, समझाने और अभिव्यक्त करने का सापेक्षिक सिद्धांत पर चलता है, जो कि बहुत स्पष्ट न होते हुये भी विचारधारा की तरह अंदर ही अंदर प्रवाहित होता है.

मूल्य: नये शेखर की जीवनी का मूल्य आत्म-दया या सहानुभूति बटोर लेना कदापि नहीं है. विद्रोहसे शुरु होती यह किताब अतीत’,‘प्रतिशोध’,‘संघर्ष’, स्वतन्त्रतासे होते हुये एक कवि की साहित्यिक यात्रा का भी आख्यान है. नया शेखर के लिये संस्कृतिको जड़ता से बचाये रखने के लिये कृत संकल्प है. इसके लिये वह हिन्दी साहित्य का विधिवत अध्ययन करता है, और उसी परम्परा में निबद्ध भी होना चाहता है. अविनाश हिन्दी भाषा में स्नातक कर रहे विद्यार्थियों के लिये एक ऐसा प्रतिदर्श तैयार करते हैं जो कि एक उपलब्धि कही जा सकती है. अपने समस्त काम के बावजूद वह यह कहते हैं कि 


बी.ए. के बाद शेखर ने एम.ए. नही किया. इसलिये वह उसके साथ कैसे होता जो एम.ए. के बाद होता है. बड़े राजनीतिक बदलाव हुये समाज में, लेकिन उसने खुद को खबरों से दूर रखा. घुस गया अजायबघरों में और देखता रहा ज़ंग लगी हुई तलवारें. पुस्तकालयों से वह वैसे ही गुज़र जैसे वेश्यालयों से एकदम बेदाग. उसने कुछ भी जानना नही चाहा. उसने कुछ भी बदलना नहीं चाहा. उसने नहीं किया मतदान....

यह कहना बेवकूफाना होगा कि लेखक अभिधा में कुछ कहना चाह रहा है. क्योंकि यह सब कुछ दूसरी तरह से खुलता है जहाँ शेखर का एक विशिष्ट राजनैतिक दृष्टिकोण भी है, पुस्तकालयों से पढ़ी पुस्तकों का विवरण भी है, और गहरा इतिहासबोध भी है.

हम अक्सर कवि को उसके कर्मों से भी तौलते हैं. निराले शेखर ने जिस तरह अपना जीवन साहित्य साधना में लगाया है, वह हिन्दी के लिये ऐसा उदाहरण बन गया है जो कि आने वाले समय में एक आदर्श की तरह स्थापित होगा. इस तरह काव्यात्मक मूल्य जब जीवन के कर्मों के मूल्यों के साथ संगति में हो तो वह शोभा देता है. वरना मोहम्मद इकबाल का विवादित उदाहरण सबके सामने है ही.





भाषा :
अविनाश की भाषा प्राजंल है और वह ध्वन्यात्मक लय लिये हुये है. वह हिन्दी में अंग्रेजी और विदेशज शब्दों का प्रयोग बड़े स्वभाविकता के साथ करता है. सामाजिक मीडिया पर भारी टिप्पणियाँ उसके भाषीय कौशल का प्रमाण है. अविनाश की भाषा बहुत से आलोचकों और लेखकों ले लिये एक चुनौती जैसी है. वह अपनी भाषा साधना से अपने समकक्षों के बहुत आगे, और प्रतिष्ठितों को आक्रान्त करने का माद्दा रखते हैं.

“दिल्ली में बस समुद्र नहीं है, बाक़ी वह सब कुछ है जो शेखर को चाहिए- अकेलापन. आर्द्रता. गिरगिट.

उदाहरण:
कुछ उद्धरण जो इस किताब में शामिल कर लेने चाहिये थे, वह इस तरह से हैं:




कानपुर, जुलाई १९९९ :

शेखर जब साढ़े तेरह साल का हुआ तब उसे उपन्यास पढ़ने की तलब हुयी. इसके कुछ दिनों के बाद उसने अपने भाई की दोस्तों से शरतचंद्र चट्टोपाध्याय के देवदासकी तारीफ़ सुनी. इसके कुछ दिनों के बाद उसने इस उपन्यास के विषय में अपनी बड़ी बहन से पूछा. बड़ी बहन का उत्तर था- देवदास एक मूर्ख आदमी था. उसे पढ़ कर तुम क्या करोगे?” शेखर अपनी बहन की आलोचना से सहमत नहीं हुआ और उसने भाई के उस दोस्त से देवदासके विषय में पूछा जिसका वह बेहद सम्मान करता था. उसके भाई के दोस्त ने चोरी-छुपे सिगरेट पीते हुये पकड़ने जाने पर उसका मुँह बंद रखने के एवज़ में बताया कि देवदासएक सोलह साल के लड़के की कहानी है, जो कि अपने प्रेम से भागते हुये घर से भाग कर महानगर कलकत्तापहुँचता है और वहाँ एक वेश्याउसके प्रेम में पड़ जाती है.

शेखर ने पूछा, “क्या देवदास बहुत सुन्दर था?”
 मालूम नहीं.
शेखर की कल्पना ने दूसरा प्रश्न किया – “स्त्रियाँ उसे ही क्यों प्यार करती थीं, उसके बड़े भाई को क्यों नहीं?”

उसके भाई के दोस्त ने सिगरेट उसकी तरफ़ आगे बढ़ा कर कहा –“इसे जानने के दो ही तरीके हैं. पहला, या तो तुम महानगर चले जाओ और खुद इस सच का पता लगाओ. दूसरा, इसका कश लगा कर दुनिया को भूल जाओ."

शेखर को सिगरेट के धुएँ से नफ़रत थी. इसलिये शेखर के दिल में उसके भाई के दोस्त के लिये रहा सम्मान नष्ट हो गया. कानपुर के फुटपाथ पर देवदास की पुरानी प्रति किराये पर पढ़ने के बाद शेखर ने तय किया कि वह दिल्ली जाएगा.

बात बेवजह बढ़ रही है, कहना बस इतना ही था कि शेखर जब साढ़े तेरह साल का था उसे प्रेम की ज़रूरत महसूस हुयी. इस कारण से वह देवदास को दोषी नहीं मानता था. शेखर ने जाना कि संसार में इच्छा करना दोष नहीं है.




दिल्लीअगस्त २०१७ :

शेखर जब तक गोष्ठियों में औसतताओं के साथ बैठा रहता था,  उसे स्वीकृतियाँ मिलती रही. इसके लिये उसने मूर्खों को नासमझ, अकवियों को प्रयत्नशील, सनकियों को उन्मादीअशिष्टों को साहित्यकार, भ्रष्टों को निर्णायक, गिरोहों को मंच कहा. एक दिन ये सारी स्वीकृतियाँ उसकी एक असहमति पर अश्लीलहोने के आरोप से कम पड़ गयीं.

इसलिये उसने गिरोह को गिरोह’, मूर्खों को मूर्ख, अशिष्टों को अशिष्ट, भ्रष्टों को भ्रष्ट कहा. उसने महसूस किया कि गोष्ठियाँ दरअसल सफेदपोशों का गिरोह थीं, स्वीकृतियाँ नारेबाज़ियाँ थीं, और साहित्यकार अविवेकी ही नहीं अशिष्ट भी थे. जब उसने इसे जाना, तभी उसने उन सब का निषेध किया जो उसके मेहनतकश हाथ में लकीरें ज्यादा देखते थे, और नसीब कम; जो उसके फटे जूते देखते थे और पिंडलियों की थकान कम, जो उसका मौन देखते थे और विषाद कम.

शेखर के लिये वह सब कुछ वरणीय था जो औसत के लिये अकल्पित था. इसलिये शेखर निराला था.

इसलिये हमें निराले शेखर की नयी जीवनी पढ़नी चाहिये, जो मार्गदर्शक बनेगी उन सब का जो समझे हुये सत्य पर ईमानदारी से डँटे रहते हैं. उन सब के लिये जो गलती का अहसास होने पर भूलसुधार में लज्जित होते हुये भी सत्य की टेक नहीं छोड़ते.

साहित्य ही मूल्यों का वाहक है. निराले शेखर ने जिया भी है, लिखा भी है, और लिखता रहेगा. इसके लिये उससे आशाएँ बहुत ज्यादा है और उसके पास अवकाश बहुत कम.

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prachand@gmail.com




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  1. प्रचंड प्रवीर , अविनाश , अरुण देव तीनों को बधाई

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  2. कृष्ण कल्पित18 जुल॰ 2018, 7:35:00 pm

    यह समीक्षा या प्रतिक्रिया न केवल अविनाश मिश्र के आख्यान (fiction) 'नये शेखर की जीवनी' की सुचिंतित व्याख्या है बल्कि ये अज्ञेय के क्लासिक ठहरा दिये गये उपन्यास 'शेखर एक जीवनी' की भी निर्मम आलोचना है । बधाई 'समालोचन' और आचार्य प्रचंड प्रवीर को ।

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  3. मनोरमा सिंह19 जुल॰ 2018, 9:17:00 am

    मुझे "नए शेखर की जीवनी" का इंतज़ार था, जल्दी पढूंगी, फेसबुक पर ही अविनाश मिश्र ने जब नए शेखर को टुकड़ों टुकड़ों में शेयर किया था तभी से इस शेखर के बारे में पूरा पढ़ने की तीव्र लालसा हुई, नई पीढ़ी के लेखकों में फिक्शन और गद्य लेखन में अविनाश मिश्र जैसा लिखने वाला पिछले 5-6 साल में कोई नहीं लगा, इनके गद्य को पढ़ते एक अलग दुनियां खुलती है, पहले के पढ़े वो सब लेखक और किताबें याद आती हैं जिन्हें पढ़ते हुए हम कई बार ठहर कर कई कई बार पढ़ते थे एक ही लाइन, एक ही पैरा और एक ही पेज को..और अज्ञेय की शेखर एक जीवनी तो खैर है ही संदर्भ में, जिन्हें वो शेखर पढ़ने के बाद हमेशा याद रहा शायद उन्हें इस नए शेखर को लेकर एक अलग दिलचपी तो होगी ही !

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  4. समीक्षा का एक उद्देश्य मूल कृति को पढ़ने के लिए पाठकों को उत्सुक करना भी माना गया है.प्रचंड प्रवीर की यह समीक्षा हिन्दी में लिखा साहित्य पढ़नेवालों को 'नये शेखर की जीवनी' से एक बार गुजरने के लिए बाध्य कर देने में समर्थ है.रचनाकार की कल्पनाशीलता एवं भाषिक बुनावट के जैसे उदाहरण इस लघु-आलेख में मौजूद हैं,उससे स्पष्ट है कि अविनाश मिश्र के लिखे को ज़ल्दबाजी में नहीं पढ़ा जाना चाहिए.
    लेखक के साथ ही इस बेहतर समीक्षा के लिए प्रचंड प्रवीर को साधुवाद.

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