कला के सामाजिक सरोकार – १ : अमिताव घोष : यादवेन्द्र

(Photo courtesy: Sattish Bate/Hindustan Times)











भारत के प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक अमिताव घोष की २०१६ में प्रकाशित किताब ‘The Great Derangement: Climate Change and the Unthinkable’ ने जहाँ प्रकृति और संस्कृति की आपसी निर्भरता पर ध्यान खींचा वहीँ कला की सामजिक ज़िम्मेदारी को भी बहस में ला दिया है. आज हिंदी के कितने लेखक हैं जो समाज/प्रकृति पर कथा से इतर भी लिख रहे हैं ? 

यादवेन्द्र कला के सामजिक सरोकार की इस पहली कड़ी में अमिताव घोष की चर्चा कर रहे हैं.



कला  के सामाजिक सरोकार – १ :  अमिताव घोष
जलवायु    परिवर्तन  संस्कृति  का  संकट है
यादवेन्द्र



मैंने अंग्रेजी के साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त प्रतिष्ठित लेखक अमिताव घोष को ज्यादा नहीं पढ़ा है पर 2004 के विनाशकारी सुनामी ने जब अंडमान को पूरी तरह से ध्वस्त कर दिया था तब अमिताव ने प्रभावित इलाकों में जा कर देश और दुनिया के बड़े अखबारों में तथ्यों पर आधारित तथ्यों और मनुष्यता के सरोकारों से भरे बेहद भावपूर्ण वृत्तांत लिखे. मैंने तब पहली बार उन्हें पढ़ा और उनके सामाजिक सरोकारों का कायल हुआ. पिछले साल कोलकाता यात्रा पर गया था तो समय चुरा कर मित्रों ने मुझे सुंदरबन घुमाया था, लौट कर सुंदरबन पर केन्द्रित अमिताव घोष की किताब 'द हंग्री टाइड' पढ़ी. उत्तर भारत के हिंदी समाज के लिए सुंदरबन लगभग अछूती अपरिचित दुनिया है जो बदलते मौसम के चलते बड़ी तेजी से नष्ट हो रही है, भूमि के तौर पर और अपनी अनूठी और  विशिष्ट प्रकृति और जीवन शैली  के तौर पर भी. पर इस किताब का वास्तविक नायक है ईमानदारी से जीवन जीने के लिए किसी भी तरह का खतरा उठा कर संघर्ष करने वाला दीन हीन इंसान. वैसे अपने अन्य उपन्यासों में अमिताव ने हिंदी लेखकों के लिए आमतौर पर अस्पृश्य रहे विषयों पर गहन अध्ययन के बाद कलम चलाई है, शायद यही प्रवृत्ति उन्हें भारतीय लेखकों में विशिष्ट बनाती है.

पिछले सालों में उनकी वैचारिक किताब 'द ग्रेट डीरेंजमेंट: क्लाइमेट चेंज एंड द अनथिंकेबल' आयी थी जो अमिताव घोष की प्रकृति और विशेष तौर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर वृहत्तर चिंताओं का संकलन है. प्रकृति विमर्श में अनेक वैचारिक स्कूल हैं और एक दूसरे को परस्पर खंडित भी करते रहते हैं, संभव है उनकी स्थापनाओं  से सब सहमत न हों पर इस किताब में रेखांकित की गयी चिंताओं की अनदेखी करना न सिर्फ़ अदूरदर्शिता होगी बल्कि अपने समय से गैर जिम्मेदाराना तौर पर विच्छिन्न होना भी होगा. इस किताब के प्रकाशन के बाद 'लॉस एंजेल्स रिव्यू ऑफ बुक्स' ने लेखक से उनकी किताब को केन्द्र में रख कर विस्तृत बातचीत की, आज के संकटपूर्ण समय में वृहत्तर मानवीय सरोकारों के अनेक बिंदुओं को छूती हुई इस बातचीत के प्रमुख मुद्दे कहीं ज्यादा प्रासंगिक लगते हैं.

जलवायु परिवर्तन को सिर्फ़ वैज्ञानिकों, टेक्नोक्रेट्स और राजनीतिज्ञों की चिंता का विषय मान कर नहीं छोड़ा जा सकता. यह संकट छोटा मोटा मामूली संकट नहीं है बल्कि समग्र संस्कृति का संकट है, इसीलिए यह हमारी सम्पूर्ण कल्पना शक्ति, सूझ बूझ और ख्वाहिशों का संकट है. विज्ञान हमें जलवायु परिवर्तन के लक्षणों से अवगत करा सकता है और हमने यह विषय क्योंकि वैज्ञानिकों को सौंप रखा है इस लिए आपने इर्द गिर्द इस तरह के लक्षण ही लक्षण दिखाई देते हैं. इस सोच की निर्मिति के लिए अमिताव पश्चिमी ज्ञान की परम्परा को जिम्मेदार ठहराते हैं जिसमें आज़ादी को प्रमुखता दी गयी पर उनके लिए आज़ादी का मायना मुख्य रूप से प्रकृति से मुक्ति बताया गया है. हमें बार बार यह समझाया गया कि जो समाज प्रकृति से मुक्त और निरावलम्बी है वही अपना इतिहास और अपनी कला रच सकता है. जो समाज पल-पल प्रकृति के साथ साझेपन और निर्भरता का रिश्ता बना कर जीने की कोशिश करते हैं उनकी न तो कोई चेतना होती है, न इतिहास और न ही अपनी कोई कला होती है. इस स्थापना को समझाने के लिए वे दो ऐसे उदाहरण देते हैं जो हमारी स्मृति में अभी ताज़ा हैं.

2012 में हरिकेन सैंडी ने अमेरिका के बड़े हिस्से में - ख़ास तौर पर न्यूयॉर्क महानगर में अप्रत्याशित तबाही मचाई थी. प्रभावित इलाकों में अमेरिकी बुद्धिजीवियों का बड़ा तबका रहता है और उनमें से अधिकांश ने उस विभीषिका को निजी तौर पर झेला – लेखक, कवि,चिंतक,समाजशास्त्री,कलाकार,फ़िल्मकार इत्यादि. इस सिलसिले में अमिताव ने कई नामी गिरामी लोगों से बातचीत भी की पर उन्हें अचरजभरी हताशा हुई जब इस संकट पर न कोई कहानी, उपन्यास आया, न किसी बड़े कलाकार ने कोई  कलाकृति बनाई और न ही किसी फ़िल्मकार ने कोई फ़िल्म बनाने की सोची.
(“Suffocation” by Rachael Amber)



उन्होंने दूसरा उदाहरण मुंबई का दिया जहाँ न्यूयॉर्क की तरह ही देश के लेखकों, कलाकारों  और फ़िल्मकारों का बड़ा तबका रहता है और जो पिछले दस पंद्रह वर्षों से कई दिनों तक अनवरत वर्षा के चलते बार बार तबाह हो रहा है. वे बगैर नाम उजागर किये किसी मित्र बड़े कलाकार दम्पति का हवाला देते हैं जिनका स्टूडियो पानी घुस जाने से बर्बाद हो गया और जो कई दिनों तक अपनी बेटी की खोज खबर लेने में असफल रहे, उनसे जब अमिताव ने पूछा कि क्या कोई कालकृति उस विभीषिका को स्मरण करते हुए बनाई तो उन्होंने पलट कर इस तरह भौंचक्का हो कर देखा जैसे कोई बेतुका सवाल पूछा जा रहा हो.

वे दोनों आपदाओं को कुदरती कहर मानने से इनकार करते हैं. इस तरह के विध्वंसक चक्रवात के निर्माण में वही मनुष्य केंद्रित अव्यवहारिक सोच काम करती है जिसके लिए पर्यावरण और पारिस्थितिकी मनुष्य से इतर कोई कमतर तंत्र है.

अमिताव का मानना है कि इन घटनाओं पर स्पष्ट तौर पर मनुष्य के फिंगरप्रिंट्स हैं और वे बार बार हमारी तरफ लौट कर आते हैं, और आते रहेंगे.


संस्कृति के संकट की बात करते हुए वे मध्य पूर्व के रेगिस्तान बहुल देखों और ऑस्ट्रेलिया के कुछ सूखे प्रदेशों का हवाला देते हैं हैं जहाँ बड़े बड़े लॉन उगाने  फैशन चल पड़ा है. खाड़ी देशों के पास तेल से कमाया अकूत पैसा है जिससे वे बहुत ऊँची कीमत पर खारे पानी को मीठा बनाते हैं और अधिकांश इन लॉन में उड़ेल देते हैं. अमिताव कहते हैं कि इन समाजों में लॉन उगाने की परिपाटी कभी रही नहीं. पानी की कमी के  चलते उन्होंने कभी इसकी जरूरत भी नहीं समझी, सौंदर्य का उनका अपना अलग हरियाली से इतर मानदंड रहा. मिसाल के तौर पर वे जेन ऑस्टेन के उपन्यासों को याद करते हैं जिसमें हरे भरे बाग बहुतायाद में आते हैं...अंग्रेजी के प्रचार-प्रसार और बड़ी संख्या में यूरोपीय अमेरिकी लोगों के खाड़ी के देशों में जाने और रहने ने इस प्रवृत्ति को हवा दी है.

अमिताव घोष को मीडिया जिस तरह आज़ादी का  मिथक गढ़ता है उसपर सख्त एतराज है - साहित्य की तुलना में दृश्य माध्यम किसी बात को ज्यादा विश्वसनीय बना देता है. वे उदाहरण देते हैं बाइक के विज्ञापनों का जिसमें हवा में केश लहराते हुए तेज गति से दौड़ते दोपहिये को आज़ादी का प्रतीक बताया जाता है. पर वास्तविकता इससे बिल्कुल परे है - तेज रफ़्तार निर्भर करती है अच्छी चौड़ी सड़क पर...तेज रफ़्तार निर्भर करती है बाइक रूपी मशीन पर...तेज रफ़्तार निर्भर करती है तेल पर. यानि तेज रफ़्तार को आज़ादी का रूपक घोषित करते ही हम सड़क बनाने, मशीन बनाने और तेल बेचने वाले बड़े उद्योगों को खुली छूट दे देते हैं. लेखक का मानना है कि आज़ादी का मतलब उपयोग करने और खरीदने की मनमानी छूट नहीं, इसके अवयव आपके मन, शरीर और आत्मा के अंदर बसे हुए होते हैं. हमें इस मुगालते में रखा गया है कि सभी समस्याओं का निदान टेक्नोलॉजी के पास है...इतिहास बताता है कि टेक्नोलॉजी किसी प्रक्रिया की एफिशिएंसी बढ़ाती जरूर है पर उसके बाद संसाधनों की खपत और बढ़ जाती है. अमिताव कम्प्यूटर और इंटरनेट के चलन में आने के बाद कागज़ की खपत में कोई कमी न आने की मिसाल देते हैं जबकि सपना पेपरलेस ऑफिस दिखाया गया था...उनका मानना है कि इंसानी इच्छाओं और जीवन शैली का आसन्न संकट पर पार पाने में सबसे बड़ी भूमिका है.

साहित्य और फिल्में जलवायु परिवर्तन की बात कभी कभार करती भी हैं तो इसके लिए आज का परिदृश्य नहीं चुनतीं, वे हमेशा दशकों बाद के समय (भविष्य) की बात करती हैं. जबकि वास्तविक परिवर्तन के ढेरों लक्षण आज के समय में हमारे इर्द गिर्द दिखाई देते हैं. विडम्बना यह है कि जलवायु परिवर्तन विमर्श गम्भीर साहित्यिक रचनाओं में नदारद है,यह सिर्फ़ साइंस फ़िक्शन और फैंटेसी के हवाले छोड़ दिया गया है.
यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com 

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  1. मैंने कुछ महीने पहले ही यह पुस्तक पढ़ी है। जल्दी ही यह लेख पढ़ता हूँ। अभी-अभी मैंने Bill Mckibben की क्लासिक पुस्तक The End of Nature खत्म की है जो उन्होंने 1987 में लिखी थी। अब मैं Pope Francis की प्रसिद्ध हो चुकी पुस्तक Encyclical on Climate Change and Inequality शुरू कर रहा हूँ जो 2015 में प्रकाशित हुई थी। Climate Change और उसको लाने में मनुष्यों की भूमिका के बारे में और भी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं।

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  2. लेख और लम्बा और गहरा हो सकता था। अभी तो यह एक संक्षिप्त समीक्षा जैसा ही है। जलवायु परिवर्तन अपनेआप में अब एक बड़ा विषय है। फिर जब उसे साहित्य से जोड़कर देखा जाये तो विषय और भी विचारणीय हो जाता है। भारत के वामपंथ ने लंबे समय तक पर्यावरण से सम्बंधित आंदोलनों को गम्भीरता से नहीं लिया, बल्कि कई बार तो उनका विरोध भी किया। उनको लगता था कि इस विषय का मज़दूर वर्गों से कुछ लेना-देना नहीं है। इसीलिए उनसे जुड़े हुए लेखक संघों ने -- जो पिछले 40 सालों में हिन्दी में सबसे ज़्यादा प्रभावी रहे हैं -- भी यही रवैया अपनाये रक्खा और काफी हद तक अब भी उनका यही रवैया है, जबकि अब जलवायु परिवर्तन -- जिसे लाने में मनुष्यों का सबसे बड़ा हाथ है -- का संकट सिर पर आ चुका है।

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  3. तब भी मुझे याद आ रहा है कि कुछ पहाड़ी लेखकों ने इस विषय को लेकर कुछ लेखन किया है। जैसे, मुझे दीनू कश्यप की कुछ सुन्दर कविताएँ याद आ रही हैं जो पहाड़ों पर पेड़ों के काटे जाने को लेकर 80 के दशक में उन्होंने लिखी थीं। दीनू हिमाचल के बेहतरीन कवियों में हैं, हालाँकि मेरा ख़्याल है कि उनका एक भी संग्रह अब तक नहीं छपा है। समालोचन को उनकी कुछ नयी पर ज़्यादातर पुरानी कविताएँ मंगवानी चाहिए। (वे मंडी में रहते हैं। शायद मेरे पास उनकी कुछ पुरानी कविताएँ हों।) उन्हें सामने लाने की ज़रूरत है। इसी तरह समालोचन को हिमाचल से रेखा की कविताएं भी छापनी चाहिए। तुलसी रमण भाई को तो सब जानते ही हैं।
    प्रसंगवश, हिमाचल के प्रगतिशील लेखक संघ ने, जिसके संचालक उस वक्त दीनू कश्यप थे, 1987 के अपने सालाना कविता पाठ में मुझे भी बुलाया था। सौभाग्य से, उस कविता पाठ में त्रिलोचन जी भी थे। वहाँ मैं पहली बार उनसे मिला।

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  4. Kalpana Tripathi Pant30 जून 2018, 3:28:00 pm

    लेख पढ़ कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा जाग गई है

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (01-07-2018) को "करना मत विश्राम" (चर्चा अंक-3018) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. it was quite an important writeup for me... will say something on it in hindi. right now dont have the font in my system

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  7. हिंदी के लोग अपनी दुनियां से बाहर आए। उसी में उनका भला है। अमिताव जी को ज्ञानपीठ के लिए मुबारक

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