तुम कहाँ गए थे लुकमान अली : (दो)






सौमित्र मोहन विष्णु खरे के शब्दों में ‘वह ऐसा देसी कवि है जो एलेन गिन्सबर्ग के पाए का है’ के साथ कुछ ऐसा हुआ कि उन्हें पिछले कई दशकों से साहित्य के तलघर में दफ़्न कर दिया गया. एक ‘कल्ट’ कवि और ‘लुकमान अली’ कविता से चर्चित/ प्रशंसित/ निंदित जो अब ८० वर्ष का है, पर क्या इधर कोई किसी ने उनपर आलेख लिखा है?  उनपर केन्द्रित किसी पत्रिका का कोई अंक प्रकाशित हुआ है ?  किसी विश्वविद्यालय ने  क्या उनपर कोई लघु शोध भी  पूरा कराया है? जब दिल्ली के ही संदिग्ध कवियों के पास उनके तथाकथित संग्रहों से अधिक तमगे हैं और जिनपर बे-हया कारोबारी ‘आलोचकों’ ने किताबे संपादित भी कर रखी हैं, और मतिमन्द शोध निर्देशकों ने कूड़ा शोध करा रखा है, सौमित्र मोहन के पास ‘सम्मान/पुरस्कार’ की भी जगह ख़ाली है.  

स्वदेश दीपक कहा करते थे कि ‘सौमित्र मोहन का लेखन अपने आपसे लड़ाई का दस्तावेज़ है.’  बाहर लड़ने के लिए पहले आत्म से लड़ना होता है, इसे ही मुक्तिबोध आत्मसंघर्ष कहते हैं. और यह भी कि ‘एक जनवादी – प्रगतिशील’ और मर्यादित माने जाने वाले केदारनाथ अग्रवाल ने लुकमान अली के लिए कहा है “फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है”.

विष्णु खरे ठीक ही कहते हैं “सौमित्र मोहन की कविताओं को पढ़ना, बर्दाश्त करना, समझ पाना आदि आज 60 वर्षों बाद भी आसान नहीं है.”

सौमित्र मोहन पर समालोचन के इस दूसरे अंक में आप उनकी पंसद की नौ कविताएँ, लुकमान अली के चार हिस्से और इस कविता पर केदारनाथ अग्रवाल का आलेख पढ़ेंगे.
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            तुम कहाँ गए थे लुकमान अली :  (दो)        





कवि   ता  एँ




पैटर्न

मेरे पहले आने के पहले वह आएगा।

सूखी घास पर रेंगते कीड़े का कोई अर्थ नहीं है
वह गीली भी हो सकती थी या नहीं भी हो सकती थी

कुर्सी पर बंद पड़ी पत्रिका में किसी की भी कविता हो;
चाय पीते हुए मौसम की याद आ जाए या रविवार या शुक्रवार की
[ट्राम बंद होने की खबर ही तो है]

दीवार पर बच्चों ने कितनी लकीरें खींच दी हैं
                                   उनकी गिनती नहीं है।
सारंगी भी नहीं है, हिरन भी नहीं है, पतंग भी नहीं है
एक दीवार हैउस पर लकीरें हैं : ख्एक कौवा अभी-
अभी उड़ कर गया था अलगनी पर टँगे कपड़ों के ऊपर,

एक पेड़ है; उसकी छाल दिन-ब-दिन उतरती जा रही है
कल कोई आएगा और उसके चिकने हिस्से पर अपना
                      नाम लिख चला जाएगा।
कोई किसी की आँखों में क्यों देखता है स्वीकृति के लिए...
[एक बिस्तर है जो यूँ ही पड़ा रहेगा बिना सलवटों के]

मेरा घरनिबंध पर ब्लेड रख मैं अभी बाहर गया हूँ
बिना उढ़का दरवाजा बिना उढ़का ही है
न उसका रंग उड़ा है, न वह पुराना हुआ है, न गणेश
                     की खुदी तस्वीर खंडित हुई है
एक दरवाज़ा है, एक निबंध है, एक ब्लेड है; है;
[अन्दर से निकल कर कोई बाहर गया है अन्दर आने के लिए]







भागते हुए 

देर तक चलने वाली बातचीत में
एक चुप्पी    घुल गई थी और
उसके चुंबनों में
आने वाले दिनों की उदासी थी।

वह तपते हुए
आलोक में भी   अकेली थी
                       और भविष्य की
अँधेरी सुरंग तक पहुँच कर रुक गई थी।

अपने चारों ओर की तेज़ आवाज़ों में
एक हल्की सरसराहट की तरह
वह आकर्षित कर गई थी।

उसका शरीर संयम-तरंगों पर
झूल रहा था।
स्पर्श की ऊष्मा में       वह
                         अस्थिर खड़ी थी।
निर्वसन होकर भी         वह स्वप्नों से
                              ढंकी हुई थी।

वह उजाले में भी निपट अँधेरा थी;
और लंबी चुप्पी में
          टिकटिकाती घड़ी की
                   सुई थी।

समय के साथ भागते हुए वह थक गई थी।






देशप्रेम-1

लोग बैंडबाजे की इंतज़ार में खिड़कियाँ खोलकर चुपचाप खड़े हैं।
कोई करतब नहीं हो रहा।
देश ठंडी हवा को सूँघ कर उबासियाँ ले रहा है।
भीतर ही भीतर कोई उतर कर खो जाता है कहीं।

हमारे लिए आने वाला कल घिसे हुए उस्तरे की तरह धूप में पड़ा है।
सफर शुरू नहीं होता, खत्म होता है।
एक कमीने आदमी की तलाश में नामों का क्रम बदलता
रहता है और दुखती आँखों में गंदगी भर जाती है।
सिर्फ़ एक अहसास बाकी रह जाता है छलाँग का... कपड़े बदलने
में तारीखें और वार, खरगोश और हिन्दी, पीढ़ी और ढोल
जगह बदलते हुए एक घपला बन जाते हैं। अश्लीलता
सिर्फ़ रह गई है परिवार नियोजन के पोस्टरों में या घरों से
जा कर घरों में घुसते हुए या दल बदलने के साहसपूर्ण कार्यों में।

खाली मनिआर्डर लेकर अवतार आकाश से उतर रहे हैं। उन्हें सेवाएँ
चाहिए सारे देश की। लोग हैं कि चुपचाप खड़े हैं बैंडबाजे की
इंतज़ार में खिड़कियाँ खोल कर।
जुलूस में शामिल होकर एक रेडक्रॉस-गाड़ी उठा रही है :
पत्थर
फटे हुए झंडे
छुटी हुई चप्पलें
और लाशें पिछवाड़े पड़ी हैं; मकानों के दरवाज़ों में दीमकें व्यस्त हैं।






देखना-2                  

एक बहुत लंबी सफेद दीवार के पीछे से आधा दिखता 
वह आदमी       अपनी उपस्थिति को
                                     बेपर्द कर रहा है
साँझ की ताँबई रोशनी में
कठफोड़वे की बेधक गवाही के साथ।

बाल्कनी से दिखता
कपड़े प्रेस करता हुआ धोबी     पत्ते की तरह
                                                   हिलता है।
कई छोटे बच्चे और आवारा कुत्ते
                                   मनकों की तरह यहाँ वहाँ
                                   बिखरे हैं
किसी फिल्म का एक चाक्षुष बिंब बनाते हुए।      

सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में
एक खड्डी मौन खड़ी है अपने परिवेश से
                                                   कट कर।
किसी ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी की सीढ़ियाँ
                                                   चढ़ते/उतरते
                                                   दो औरतें
अपनी-अपनी एनजीओ  के बारे में सूचनाओं का  
आदान-प्रदान करते हुए सरकार को कोस रही हैं।

                                                   हिमालय पर छोड़े गए टनों कबाड़ के
इस ऐतिहासिक दौर में      कई दिनों से उदास रहे
                        एक पाठक ने
सज्जा-विहीन सादे कमरे में बैठ कर
कविता-पुस्तक का पन्ना
उँगली पर थूक लगा कर पलटा है।  
कुछ देर पहले तक
वह किलों के परकोटों के साए में
घूम रहा था     पीछे छूटी हुई जिंदगी को
           कोई तरतीब देने के लिए।

दीवार के पीछे से आधा दिखता आदमी
इस आश्चर्य को देख रहा है
कि भीड़ कैसे प्रतीक्षा को भर देती है!








चरागाह

एक सफेद घोड़ा दौड़ता हुआ नदी में कूदता है और पानी की
उछाल लेती झालर में छिप जाता है चरागाह और धोती
सुखाते हुए आदमी का पाँव।

जंगल जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      पाँव हट रहे
हैं जमीन से। बंद मुँह से निकलती हुई आवाज़ में भाषा
बन रही है। आहिस्ता से आदमी घर में घुस रहा है।

नहीं, अभी नहीं बदलना है हमें!एक नारा
फटे हुए झंडे के बीच में से सरक जाता है बिना किसी गुल के।
डर के।

फिर वही दृश्य है। घोड़े के पीछे से दिखता हुआ आदमी है।
दृश्य नहीं है : आदमी है। और प्रेम से खुले
होंठों में मक्खियों की कतार है। शब्द हैं; जिसके लिए
किसी को फिक्र नहीं है।

पानी जगह बदल रहा है। धीरे-धीरे2      शरीर-धर्म
भूलता जा रहा है। आपे में नहीं कोई और केवल
एक सूँघ है जानवर के आसपास मँडराने की, जंगल
में खोए हुए आदमी के लिए तलाशी लिए जाने
की।

एक चरागाह और धोती में लिपटे पाँच इंच लंबे पाँव में
ठंड बस गई है।





 उर्फ़ की भाषा :

आज की ख़बरों पर ध्यान करें, न करें;
सेहत का ख्याल रखें : सिद्ध आसन

जब मैंने अपना हाथ परदे के पीछे छिपा लिया था तब
तुमने पान की बेगम मेज़ पर रख दी  थी  और उस
बात के लिए मुस्कराए थे जब हम दोनों कमरे
में हाथों का खेल खेलते रहे थे। आपने जामा
मस्जिद की वह गली नहीं देखी होगी जहाँ धूप
सबसे पहले बाँहों पर पड़ती है : यह अहसास
है। आप नाड़ा ढीला करें तो आपको भी होगा।
या आपको इस अँगूठी पर अभ्यास करना होगा
जिससे जमादार, छिड़काव, दरी का बिछना, दिल्ली
के मेयर का कुर्सी पर बैठना और आपकी पत्नी का
फालतू बाल साफ करते हुए दिखाना होता है।
हमारे लिए आसान है होना






षष्ठि पूर्ति

28 मई 1968 को दिल्ली में आयोजित
देवेंद्र सत्यार्थी की षष्ठि पूर्ति के अवसर पर


बासी    फल।। फल   में   कीड़ा।। कीड़े में चमक।।
चमक में घोड़ा।। घोड़े  पर  सवार।। सवार  पर  तोप।।
तोप पर सत्यार्थी।। सत्यार्थी का झोला।। झोले में कहानी।।
कहानी का नायक।। नायक की टाँग।। टाँग में जोड़।।
जोड़ में शतरंज।। शतरंज की चाल।। चाल में मात।।
मात में गुस्सा।। गुस्से में खून।। खून में पहलवान।।
पहलवान की चीख।। चीख में अँधेरा।। अँधेरे में गुम।।
बासी फल।।






झील

दिन बिल्कुल वैसा ही नहीं है
जैसाकि उसने सोचा था।
वह अपने बेचैन होने के सबब को
घंटों (हाँ, घंटों तक!) आलमारी में ढूँढ़ता रहा था।

क्या तुम उस दृश्य के साक्षी थे
जब पानी झील में बदल रहा था?

यह झील पौराणिक नहीं थी। बल्किनहीं है।
कविता के रूपक की सलाखें तोड़ी जा रही हैं
और मृत शब्दों की अर्थियाँ भारी होती जा रही हैं।

वह अपने दोस्त के आँसू पोंछने लगा है
और अपने पसीने की नमकीन हवा के साथ
कैमरे के सामने खड़ा हो गया है।
खटाखट फोटो उतर रहे हैंहवा के।
वह खुद कहाँ चला गया है?

वह वही है
जो कवि और कविता के दरवाज़ों पर
पहरेदार की तरह खड़ा है...





यथार्थवाद

मैंने सिर्फ देखा था।

एक गंध कई गज के घेरे में बसी हुई है।
तौलिया मुचड़ा हुआ है।
चादर अपने स्थान से हट कर
एक तरफ ज्यादा लटक गई है।
शिथिलता हवा को दबोचे है।

क्या अभी-अभी कोई
कमरे से बाहर गया है?

शायद!
मैंने तो सिर्फ देखा था।





लुक   मान     अली   




पेंटिग
Salman Toor : Humiliated Ancestor #1 (2016)



[1]

झाड़ियों के पीछे एक बौना आदमी पेशाब करता हुआ गुनगुनाता है और सपने में
देखे हुए तेंदुए के लिए आह भरता हुआ वापिस चला जाता है। यह लुकमान
अली है : जिसे जानने के लिए चवन्नी मशीन में नहीं डालनी पड़ती।

लुकमान अली के लिए चीज़ें उतनी बड़ी नहीं है जितना उन तक पहुँचना।
वह पीले, लाल, नीले और काले पाजामे एक साथ पहन कर जब खड़ा होता
है तब उसकी चमत्कार शक्ति उससे आगे निकल जाती है।
वह तीन लिखता है और लोग उसे गुट समझने लगते हैं और
प्रशंसा में नंगे पाँव अमूल्य चीज़ें भेंट देने आते हैं : मसलन,
गुप्तांगों के बाल, बच्चों के बिब और चाय के खाली डिब्बे।
वह इन्हें संभाल कर रखता है और फिर इन्हें कबाड़ी को बेच
अफीम बकरी को खिला देता है। यह उसका शौक है और इसके
लिए वह गंगाप्रसाद विमल से कभी नहीं पूछता।

लुकमान अली कहाँ और कैसे है?’
अगर आपने अँगूठिए की कथा पढ़ी हो
तो आप इसे अपनी जेब से निकाल सकते हैं। इसका नाम
लेकर बड़े-बड़े हमले कर सकते हैं, पीठ पर बजरंग बली के चित्रा दिखा सकते हैं,
आप आँखें बंद करके अमरीका या रूस या चीन या किसी
भी देश से भीख माँग सकते हैं और भारतवासी कहला सकते
हैं : यह भी मुझे लुकमान अली बताता है।




[3]

लुकमान अली के लिए स्वतंत्राता उसके कद से केवल तीन इंच बड़ी है।
वह बनियान की जगह तिरंगा पहनकर कलाबाजियाँ खाता है।
वह चाहता है कि पाँचवें आम चुनाव में बौनों का प्रतिनिधित्व करे।
उन्हें टाफियाँ बाँटें।
जाति और भाषा की कसमें खिलाए।
अपने पाजामे फाड़कर सबके चूतड़ों पर पैबंद लगाए। वह गधे की
                           सवारी करेगा।
                           अपने गुप्तचरों के साथ सारी
                           प्रजा पर हमला बोल देगा।
वह जानता है कि चुनाव
लोगों की राय का प्रतीक नहीं, धन और धमकी का अंगारा है
जिसे लोग        अपने कपड़ों में छिपाए पानी
          के लिए दौड़ते रहते हैं।

वह आज
नहीं तो कल
नहीं तो परसों
नहीं तो किसी दिन
फ्रिज में बैठ कर शास्त्रों का पाठ करेगा।
         रामलीला से उसे उतनी चिढ़ नहीं है जितनी
         पुरुषों द्वारा स्त्रियों के अभिनय से।
वह उनकी धोतियों के नीचे उभार को देखकर नशा करने लगता है।
वह बचपन के शहर और युवकों की संश्स्था के उस लौंडे की याद करने
लगता है। वह अपने स्केट पाँवों से बाँध लेता है।
प्रेमिका के बाल जूतों में रख लेता है। वह अपने बौनेपन में लीन
हो जाता है।
वह तब पकड़ में नहीं आता क्योंकि वह पेड़ नहीं है।
वह पेड़ नहीं है इसलिए लंबा नहीं है।
वह लुकमान अली है : वह लुकमान अली नहीं है।




[6]

लुकमान अली की त्रासदी में वे सभी शामिल हैं जो पाँचवें सवार हैं।
चार्ली चेपलिन से लेकर जगदीश चतुर्वेदी तक के कपड़ों में भूसा भर कर वह एक
फिल्म बनाता है और संवादों तथा शॉट्स की एडिटिंग में व्यस्त हो जाता है :

‘‘जनाब, आप अपने जूतों को संडास की तरह मत बरतें। पैसे इंग्लैंड में रख
कर बारिश का मज़ा आप हिन्दुस्तान में ले रहे हैं।’’ कट।। ‘‘आपकी
कोहनी पर बैंगन उग आए हैं। आप कार्श से तस्वीर खिंचवा रहे
हैं।’’ कट।। ‘‘डाली की मूँछों की कीमत एयर इंडिया का महाराजा है। आप
चाहें तो सौदा कर सकते हैं।’’ कट।। ‘‘मेरी ज़ुल्फें किसने काट लीं?
मैं तो कामयनी की गंजी नायिका हूँ। हाय, मेरे स्तनों को
चूसते हुए तुम हीरो लगते हो।’’ कट।। ‘‘धरती अब भी नहीं घूम
रहीगैलीलियो, तुम अपना अपराध स्वीकार कर लो।’’ कट।। ‘‘मैं खुद
को ढूँढ़ रहा हूँ। मेरी बाईं पसली पर आड़ू लगे हुए हैं। क्या आप
मेरी सहायता करेंगे।’’ कट।।

(शॉट् चौथा) सड़क पर जाते-जाते उसे अचानक लगता है कि वह अकेला है।
उसके चेहरे पर मासूमियत उतर आती है। मासूमियत उसे आदमीबना
देती है और वह घबड़ा कर भागने लगता है। वह आदमीहोने के
अहसास से अपरिचित है। सामने से आती हुई मोटर उलट जाती है।
उसमें लपटें उठने लगती हैं। उसे राहत मिलती है और वह फिर से
लुकमान अली बन जाता है। वह अपने पाजामे कसने लगता है।।

(शॉट् सत्ताइसवाँ) वह एक सपना देखता है। दो दोस्तों के साथ वह पटरे पर
बैठकर उसे सड़क पर घिसट रहा है। एक महिला सड़क के नियम भंग करने
की बात कह कर उनका चालान करना चाहती है। ग  ग  ग एक कोठे पर वे तीनों
चढ़ रहे हैं। सीढ़ियों पर संगमरमर का एक शिल्प है जिसमें भग की
आकृति में बालक कृष्ण का अभिप्राय खुदा है। (शिल्प और वहका
क्लोज़ अप) ग  ग  ग नाच हो रहा है। इतने में भगदड़ मच जाती है। एक
कारिंदा घबड़ा कर कहता है : ‘‘चिड़िया उड़ गई। अब तो नकली हार बचा
है।’’ ग  ग  ग वह भाग रहा है। उसका दोस्त उसे बताता है कि असली हार
उसके पास है। वह हैरान होकर उसकी तरफ देखने लगता है क्योंकि नकली हार
उसके पास होता है। (दोनों के चेहरों का तीस सेकैंड तक फ्रीज़ शॉट्)।।

(शॉट् बत्तीसवाँ) नाली के पास एक कुत्ता खड़ा होकर नंगी नहाती हुई
औरत को देख रहा है। एक कौवा औरत की ब्रॉ नीचे फेंक देता है।
लुकमान अली उसे जेब में रखकर पत्थर से कुत्ते को भगा रहा है और
ठीक कुत्ते की मुद्रा में नंगी नहाती हुई औरत को देखने लगता है।।

(शॉट सत्तरवाँ) काफी हाउस की हर मेज़ पर काफी रखी है। लोगों के कपड़े
उनकी कुर्सियों पर पड़े हुए हैं। वे केवल अंडरवियर पहन कर इस दृश्य को
बाहर खड़े देख रहे हैं। (लोगों की इस भीड़ पर कैमरा कुछ समय तक घूमता है)।।




[7]

सरकस के कुत्ते की तरह
लुकमान अली कूदता है और एक गुफा में दाखिल हो जाता है।
यहाँ वह उस औरत को जातक कथाएँ सुनाएगा।
                           जो महीने में केवल चार दिन के लिए
                           उसे संरक्षक मान लेती है : और बाकी
                           दिनों के लिए
अपने ज़िस्म के हवामहल में , , धीरेकराहती हुई आसन
बदलती रहती है।

लुकमान अली गुदा और मुख और दरवाज़ों में मोमबत्तियाँ जलाकर
                                       दिन कर लेता है। वह अपने पाजामे
उतार कर जब लेटता है तो उसे प्रेमशब्द का अर्थ धातुयाद आने
लगता है। वह मुरदा-घर के बाहर खड़ी गौओं और सीढ़ियों पर टंगे
कफ़न में तिस्तु बनकर प्रवेश कर जाता है।
उसे हरी रोशनी का जंगल अपने पाँवों के चारों ओर घेरता हुआ
लगने लगता है।                               वह अंधा होकर आसनों
का अभ्यास करने लगता है। वह लुकमान अली का पॉप आर्टबन जाता है।

वह कंधों पर माओ के चित्रा और कैनेडी के हत्यारे की बंदूक
रख लेता है और अपने पाजामों को
पैराशूट बनाकर किसी पेशाबघर में उतर जाता है।
वह दिल्ली के बीचोंबीच संजीवनी बूटी बो कर
बेहोश लोगों की तलाश में है या लावारिस लाशों की खोपड़ियाँ चुराने
की तैयारी में उँगलियाँ ठोकता रहता है।

                           लुकमान अली
                           अंडा पकड़कर बचपन
                           के शहर में घूम रहा होता
                           है। वह
गश्त लगाता हुआ सोता है और घोड़े की पीठ पर उलटा बैठकर
अपनी गोलियों को मसलता रहता है।

तारकोल में धागा बाँध कर लुकमान अली खबर भेजता है :
                                       ‘‘विएतनाम और नक्सलवाड़ी
                                       बर्ट्रेण्ड रसेल और ज्याँ पाल सार्त्रा
   के संबंधों को हवा-मुर्ग से जाँच कर मैं घोषित करता हूँ :
युद्ध का कोई पर्यायवादी शब्द नहीं अगर शिश्न तोप नहीं है। मेरी बेकारी
के लिए कोई जिम्मेदार नहीं है। मेरे पाजामों को
टिनोपाल की जरूरत नहीं : शांति कपोत को है। उसे उड़ते हुए धोना होगा।

**
लुकमान अली चौंसठ जोकरों की ताश बाँटता है। वह उन लोगों की प्रतीक्षा में है
जो जनगणना में शामिल नहीं हैं
और किसी भी खेलमें पूरे नहीं हैं।
वह हर तरफ से     पंद्रह गिनकर लुकमान
   अली नहीं है। वह वही है। आसमान
   के रंग और घास के कीड़ों का
जोड़ करते हुए वह तीस करोड़ नब्बे लाख दो सौ उन्नीस आदमियों के एक्स-रे का
अध्ययन कर रहा है। वह उसके पाजामों का गणित हैहिन्दुस्तान की
आबादी का नहीं।

लुकमान अली प्रजातंत्रा की हंडिया में महापुरुषों की डाक टिकटें, सिक्के और
वीरताचक्र इकट्ठे करता हुआ भीख माँग रहा है। वह अंगूठे में फ्रेंचलेदर पहन कर
सलाम करता है।                                वह उँगली वहाँ रखता है, जहाँ
                               सुरसुरी होती है।
और हीजड़े बिच्छू को पकड़ने के लिए भरी महफिल में फुदकने लगते हैं।
लु। क। मा। न। अ। ली। को। पी। ठ। की। त। र। फ। से।
                                           जा। ते। हु। ए। दे। ख। ना।

लुकमान अली अपने टखनों में कीलें ठोंकता हुआ धीरे से पूछ रहा है :
मीदास, तुम कहाँ हो?’



___________

लुकमान अली
केदारनाथ अग्रवाल


अक्टूबर-नवम्बर, सन् 1968, के कृति परिचयके युवालेखन विशेषांक : 1’ में छप कर सामने आया लुकमान अलीसौमित्र मोहन के दुःस्वप्न का पुत्र है. नाम मुसलमानी है. एक साथ लाल, नीले, पीले और काले पाजामे पहनता है. लोगों की जेबों में रहता है. वहाँ से बाहर निकाला जा सकता है. इसका नाम लेकर रूस, चीन, अमरीका या किसी भी देश से भीख माँगी जा सकती है और वह भी आँख मूँद कर (यानी बिना प्रयास के) और भारतवासी कहलाया जा सकता है.

वैसे तो लुकमान अलीमात्र प्रतीक मालूम होता है जो खोजने पर भीकहीं भीसमूचे भारत में आदमी के एक शरीर के रूप में नहीं मिलता. लेकिनकरोड़ों आदमियों का भारतविसंगतियों के परिवेश का आज का भारतअनचाही यंत्रणाओं का भारतदुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँच चुका भारत है और इसी भारत का प्रतिनिधि लुकमान अलीहै. अपनी फन्तासी की सत्तामें व्यक्ति विशेष होकर भी यह व्यक्ति विशेष नहीं हैसाधारण हैअति साधारण हैजिसे देखकर-समझकर पूरे भारत को देखा और समझा जा सकता है.

दुःस्वप्न की मनोदशा में पहुँचे अब के भारत को हाड़-मांस के किसी एक जाने-माने व्यक्ति के चरित्र-चित्रण के द्वारा आंशिक रूप में भी व्यक्त नहीं किया जा सकता था. अनेकों व्यक्तियों का एक जगह चित्रण भी असम्भव था. व्यक्ति या समूह एक रचना में एक साथ पकड़ में न आ सकते थे. सौमित्र मोहन ने लुकमान अलीको फन्तासी की सत्तादे कर असम्भव को सम्भव किया है और एक के माध्यम से अनेक के भारत को एक स्थान पर यथासाध्य शाब्दिक जामा दिया है जो व्यक्त हो रही विसंगतियोंअनिच्छित यंत्रणाओं कोतीखे और पैने तरीके से उभारता और दरसाता है.

‘फन्तासीकी यह कविता हिन्दी की पहली बेजोड़ दुःस्वप्न की सार्थक कविता है. इसलिए भी इस कविता का विशेष महत्व है.

दस खंडों में छपी यह एक लम्बी कविता है. युगीन और आधुनिक कथ्य कोजन-मानस में व्याप्त विसंगति कोजो अब तक की लिखी छोटी-बड़ी कविताएँ न कह सकीं उसको इसने कहा और भरपूर कहा और ऐसा कहा कि भरपूर impact पड़ा. इसका कथ्य उतना ही युगीन और आधुनिक है जितना इसका शिल्प. न कथ्य में रोमान हैन सौन्दर्यात्मक प्रवृत्ति हैन शाब्दिक अलंकरण हैन दार्शनिक आरोपित चिंतन हैन पलायन-प्रेरणा हैन भ्रम और भ्रांति है. न शिल्प में पारम्परित वाक्यांश हैंन स्वीकृत काव्यांगी उपमाएँ हैंन रूपकों का आइना है,  न भाषा की गढ़न हैन छंदों की छलन और छुअन हैन कथ्य को शोभित करने की लालसा हैन कुरूप को विकृत करने की उत्कंठा हैंन यथार्थ का दमन हैन आदर्श की चाल-चलन है. जैसी नंगी विसंगति है और जैसा नंगा उसका कथ्य है वैसा नंगा उसका शिल्प है. गद्य और पद्य इसी कविता में कविता हुए हैं और दोनों यहीं अपना-अपना अस्तित्व एक कर सके हैं और एक होकर भारतीय जन-मानस की विसंगति की मनोदशा को अभिव्यक्ति दे सके हैं.


मुक्तिबोध और राजकमल की मृत्यु के समय तक हिन्दी कविता जहाँ तक पहुँची और ले जायी गयी थी वहाँ से आगे पहुँची और ले जायी गयी यह कविता— ‘लुकमान अली’— है. इसकी पहुँच का यह स्थान हिन्दी कविता की वर्तमान उपलब्धि का विशेष महत्व का स्थान है. इस स्थान पर परम्परा और प्रगति का अविच्छन्न सम्बंध टूटा हैकाव्य की समस्त स्वीकृत मान्यताएँ तिरोहित हुई हैंमानसिक गुहाओं की रोमांचक यात्राएँ समाप्त हुई हैंस्वर से संगीत विलग हुआ हैयथार्थ को विसंगति के साथ अभिव्यक्ति मिली हैश्लील की मृत्यु हुई है और अश्लील को साहित्यिक स्वीकार्य मिला हैऔर गद्य को भी कविता कहलाने का गौरव मिला है. 



        "मेरी प्रगतिशीलता कइयों की प्रगतिशीलता से भिन्न रही है. मैंने अपने दार्शनिक सिद्धांतों को कविता के कसने की कसौटी नहीं बनाया. वह 'पार्टी-वाद' होता और उस 'पार्टी-वाद' से परखना इस अपने युग की काव्य-उपलब्धियों के साथ न्याय-सम्मत न होता. यही सोच कर और समझ कर मैंने, 'पार्टी-वाद' से बाहर निकल कर, 'आदमीवाद ' अपनाया और कविता को आदमियत की परख से परखा. 
('समय-समय पर : केदारनाथ अग्रवाल' की भूमिका से  )



यह वास्तव में युगबोध की आधुनिक साहसिक कविता है. यह विश्वविद्यालयी स्वर से अछूती है. यह सड़क के स्वर की,  हरेक नगर के ऊबे-डूबे परिवेश की, करोड़ों-करोड़ साधारण-जनों की सही अर्थों में कविता है. तभी तो यह राजनीति को पास नहीं फटकने देती. प्रतिबद्धता इसका स्वभाव नहीं है. नेताओं को यह नियामक नहीं मानती. उन पर चोट करती है. आदमियों कोनकली बने आदमियों को निरावरण करती है. अपना सब कुछ न पाकर विपन्न जीने वालों की आज की यह कविता उतनी ही वैयक्तिक है जितनी सामूहिक है. इसमें न व्यक्ति की अवज्ञा हैन भीड़ की. व्यक्ति और भीड़ इसी कविता में विसंगति के स्थल पर पहुँच कर अपना-अपना निजी महत्व खो सके हैं और दोनों एक दूसरे के पूरक बन गए हैं. सभ्यता और संस्कृति की परतें यहीं उखड़ी हैं और उनके उखड़ने पर दुःस्वप्न पैदा हुआ है और वही दुःस्वप्न आज के भारत का दुःस्वप्न है जिसे, भारतीय जी रहे हैं असहाय, असमर्थ और चिंतनीय.


(‘समय-समय पर’, केदारनाथ अग्रवाल, परिमल प्रकाशन, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 6 जुलाई, 1970)
_______________________



सौमित्र मोहन
१९३८ लाहौर

चाक़ू से खेलते हुए (कविता संग्रह , १९७२)
निषेध (संकलित कवि, १९७२)
लुकमान अली तथा अन्य कविताएँ (कविता संग्रह, १९७८)
आधा दिखता वह आदमी (सम्पूर्ण कविताएँ, २०१८)

दूर के पड़ोसी (अनुवाद १९७३)
बाणभट्ट (अनुवाद, १९७८)
कबूतरों की उड़ान (अनुवाद,१९९६)
देहरी में आज भी उगते हैं हमारे पेड़ (अनुवाद, २०००)
राष्ट्रवाद (अनुवाद, २००३)
भारत की समकालीन कला (अनुवाद, २००६)

अकविता (१९६५-१९६७)पत्रिका के विशेष सहयोगी
कृति परिचय के दो अंकों का अतिथि संपादन
अथवा पत्रिका (१९७२-७३) का संपादन प्रकाशन


कविताओं का भारतीय और विदेशी भाषाओँ में अनुवाद.

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  1. रीना मल्होत्रा10 जून 2018, 9:28:00 am

    यह सब जो हो रहा है यहाँ वह ऐतिहासिक है. सौमित्र जी को समुख करने के लिए आभार नहीं कहूँगी.

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  2. बहुत वर्ष हो गुज़रे हैं लेकिन एक क्षण के लिए भी लुक़मानली भूला नहीं है , न उसके आस पास की लिखी गयी कविताएं हालांकि भूल गया हूँ कि एक कोई समीक्षात्मक लेख जिससे पूरी तसल्ली भी नहीं ही हुई थी मेरी , मैंने लिखा था और चंडीगढ़ में ही शायद किसी गोष्ठी में उनकी मौजूदगी में पढ़ा था। उसे कोई दूसरा ही ले उड़ा है और कहता है कि वः उसका लिखा हुआ है। .. अब क्या किया /कहा जाए जब वः लेख खुद सौमित्र ही के हाथों उस तक पहुंचा हो। यहां चंडीगढ़ के हिंदी विभाग में मै कभी रहा होता तो ऐसे ऐसे कवियों ,कथाकारों , उपन्यासकारों पर शोध प्रबंध आ गए होते जिन्हें पूरा सम्मान कभी नहीं दे पाएंगे यहां के 'गरीब ' लोग। हालांकि जिस तरह आज भी सौमित्र ज़िंदा हैं , उससे तो यही दीखता है कि नहीं हुआ उनपर कोई काम तो यह भी एक उपलब्धि ही है। उनकी कविताओं में जो दैनिक हादसे , खुराफातें , राजनीति , इतिहास और मनुष्य की सादा , अवसाद भरी , उल्लास भरी यकायक उत्सव की तरह बीत गयी और भूले से चली गयी , याद आ गयी हरकतों में छुपी हुई रोज़मर्रा ज़िन्दगी का क्षणिक खुलासा और ब्यौरा जिस तरह आ जुटता है अचानक , और फिर ऐसे स्पंदित होता है जैसे कभी बीत ही नहीं पायेगा , उँगलियों के पोरों पर कविता की किताब के सफे उलटने के लिए इस्तेमाल में लायी गयी जिह्वा के गीलेपन के अहसास की तरह आ बैठेगा बार बार कागज़ की धार को दर्ज करता हुआ। ऐसे कवि किसी आलोचना के मुहताज नहीं होते न पुरस्कार ही के। उनका पुरस्कार उनका पाठ होता है। लुक़मानली या आधा दिखता आदमी हमारे समय का एक जागृत दस्तावेज़ है जिसे कविता अपनी खोयी हुई शिनाख्त के हेतु सुरक्षित रखना चाहेगी।

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  3. I can never forget those long talks with Swadesh Deepak about Soumitra Mohan,his poetry and person right from mid 80s to the last time were together in 2004.

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  4. आभार सौमित्र मोहन की याद दिलाने के लिए। ज़माने बाद आज उनकी कविताएं औऱ उनपर केदार जी का आलेख पढूंगा।

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  5. समकालीनता के शोरगुल में लगभग भुला-से दिए गए कवि सौमित्र मोहन और खासकर उनकी बहुचर्चित विवावादास्पद 'लुकमान अली'के साथ ही उसके बारे में केदारनाथ अग्रवाल की टिप्पणी प्रकाशित करने के लिए साधुवाद.मेरे ख़याल से इस कविता के सारे अंश एक साथ छपने चाहिए और उसपर कुछ और सुचिंतित एवं सार्थक टिप्पणी की दरकार है.

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  6. शिव किशोर तिवारी10 जून 2018, 2:55:00 pm

    एक जीनियस से साक्षात्कार कराने का आभार। मैंने नाम ही सुना था।
    समझ में कुछ ख़ास नहीं आया अभी, पर बीस तीस बार पढ़ने से ताला खुलेगा ऐसा विश्वास है।

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  7. संपादक बंधु, आपने सौमित्र को , समालोचन में उनके हिस्से का इतना आकाश // स्पेस सौंंप दिया ,अच्छा लगा।
    कितने ही कवि -भावक -मुरीद उनके प्रति आज भी //
    एक अरसे बाद भी //मुनहमिकी और ललक का इजहार कर रहे हैं। फिर भी ...कहीं कुछ को ऐसा भी लगता है...

    "सभी खु़़श फ़ ह मि यों में मुब्तला हैं
    कोई तुझको अभी समझा नहीं है।।
    अलबत्ता,
    मैं तो इसी नतीजे पर पहुंचा हूं कि...

    "उसके नुक़ूश इतने भी तीखे न थे मगर
    चेहरों की भीड़ में भी वो यकता लगा मुझे ।।"

    {अपनी बात कहने के लिए पहली बार मुझे शाइरी का
    मुमासिल //सदृश alike रास्ता ठीक जान पड़ा। इसके लिए मिदहतुल अख़्तर और शौकत मेहदी के ये शेर यादावरी में अब तक थे। } सो खर्च कर देना मुनासिब लगा।
    ~~~~~~~~~
    नुक़ुश-नक्श /चित्र.
    यकता-अनुपम,अद्वितीय, unique.

    ~~~~~~~~~~~~```~~~~~~~~~.

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  8. सुधार
    ====नुक़ूश होगा//नुक़ुश नहीं।
    ऊपर जो लघु टिप्पणी की गई है। उस पर भी विचार किया। "बीस-तीस बार पढ़ने पर ताला खुलेगा ।।"
    तब भी क्या गारंटी है ...सोचिएगा विचारक जी ।।

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  9. अग्निशेखत10 जून 2018, 7:14:00 pm

    भुला दिए गए एक बड़े कवि को केंद्रीयता देने से
    बड़ा काम क्या हो सकता है अरुण देव जी !
    मैं व्यक्तिगत रूप से भी उनका आभारी हूँ क्योंकि मेरे पहले कविता संग्रह "किसी भी समय" के मुखपृष्ठ पर उनका दिया छायाचित्र छपा है।
    सौमित्र मोहन एक बड़ी उपस्थिति हैं और रहेंगे।

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  10. केवल गोस्वामी10 जून 2018, 7:15:00 pm

    तुम कविता मे फिरसे लौटे स्वागत है तुम्हारे पाठको को भी
    फिरसे सामने आना होगा कि संवाद स्थापित हो सके महज
    आलोचको के सहारे नैया ठेली नही जा सकती | नमस्कार

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  11. शुक्रिया यह ऐतिहासिक जानकारी साझा करने केलिए..

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  12. 'समालोचन' पर पिछले दिनों से सौमित्र मोहन की सद्यप्रकाशित सजिल्द सम्पूर्ण रचनाओं और विशेषतः उसकी अतिकविता 'लुकमान अली' तथा उसके जीवन और कृतित्व को लेकर जो महान्मथ मचा हुआ है उसी के तारतम्य में विष्णु खरे एक नई जानकारी देना चाहता है.इस पूरी बहस और उसमें सौमित्र को दिए जा रहे महत्व से उसी पीढ़ी के एक वरिष्ठ कवि बहुत क्षुब्ध हैं.उन्होंने विष्णु खरे से फ़ोन पर कहा कि 'लुकमान अली' का जो कथित ऐतिहासिक महत्व हो सो हो,वह एक छितरी हुई,निरर्थक और अंततः अश्लील रचना है.उन्होंने सौमित्र को बतौर कवि कोई भी तूल देने का विरोध किया.उन्होंने कहा कि वह स्वयं 50 वर्ष पहले इस सम्बन्ध में एक टिप्पणी लिख चुके हैं और शायद अब उसे दोबारा छपवाएँ.कवि और कविता को लेकर उनके मन में जो रोष और बुग्ज़ तब था वह अब भी कम हुआ नहीं लगता.वह वरिष्ठ हैं और उनके कहने-करने का असर साहित्य,शिक्षा-जगत और पाठकों पर पड़ता है.ऐसे में जब विष्णु खरे लिखता है कि इन 50-60 वर्षों के बाद भी सौमित्र की कविता को पढ़ना,समझना,सराहना और स्वीकार्य बनाना आसान नहीं है तो वह एक त्रासद और क्रुद्ध करने वाला सत्य ही लगता है.

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  13. यह एक प्रतिरूपी (टिपिकल) हिंदी जहालत से भरा सवाल है.उन्होंने क़रीब 50 साल पहले की अपनी जिस टिप्पणी के लिखने का दावा किया है उसके बारे में कुछ और नहीं बताया और विष्णु खरे को न उसका पता था न उसने पूछना उचित समझा.वह इंतज़ार कर रहा है कि वह फिर प्रकाशित होकर सामने तो आए.हिंदी में ऐसी गीदड़भभकियाँ बहुत दी जाती हैं जिनपर अमल बहुत कम होता है.विष्णु खरे ने उनसे उनका नाम देने की अनुमति भी नहीं ली थी.हो सकता है वह इस बहस में ख़ुद शामिल हो जाएँ.विष्णु खरे सिर्फ़ यह दिखाना चाहता था कि सौमित्र और उसकी इस रचना को लेकर या किसी भी अन्य कवि/रचना को लेकर कोई-कोई पूर्वग्रह कितना गहरा और दीर्घायु हो सकता है.विडंबना यह है कि इससे यह भी ज़ाहिर होता है कि कविता हिंदीवालों की स्मृति में किसी तरह से बनी तो हुई है.आधी सदी हो गई.

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  14. अपनी टिप्पणी हटाने के लिए टिप्पणीकर्ता स्वतन्त्र है। अभी लौटकर मैंने इसे देखा है। इसे इसका संचालक नियंत्रित नहीं कर सकता है। कृपया मेरे संदर्भ में की गयी टिप्पणी हटाने पर विचार करें।

    जवाब देंहटाएं
  15. प्रिय अरुण देव जी,

    'समालोचन' कुल मिलाकर इतना सार्थक निकल रहा है कि आपको कोई नसीहत देना बहुत मुनासिब नहीं लगता.लेकिन इस 'कुलदीप कुमार' काण्ड से कुछ सीखें तो मिलती ही हैं.

    1.टिप्पणी हटाने के लिए टिप्पणीकार कब और कहाँ तक आज़ाद है ? फ़र्ज़ कीजिए कि वह कोई मानहानिपरक या सांप्रदायिक घृणा आदि उपजानेवाली बात लिखता है और उसे कुछ वक़्त तक लटकाए रखने के बाद चालाकी से हटा लेता है तो भी उसके और ब्लॉगस्वामी के पास कोई निजी caveat या दूसरा क़ानूनी बचाव नहीं है.इन सभी मीडिया पर जो भी छपता है वह देश के दीवानी, फौजदारी और साइबर कानूनों की ज़द में आता है जो बहुत सख्त भी हो सकते हैं.आप कोई मनमाना गेर्रिला युद्ध नहीं खेल सकते.इसे लेकर कोई ख़ुशफ़हमी नहीं होनी चाहिए.

    2. ब्लॉगस्वामी अपनी अनुपस्थिति,मजबूरी या आज़ादी या लेखक की स्वायत्तता आदि की दुहाई नहीं दे सकता.वह प्रकाशक है और सर्वाधिक नैतिक और क़ानूनी ज़िम्मेदारी उसकी है.लेखक उसे बेवक़ूफ़ या बलि का बकरा नहीं बना सकते.

    3.ब्लॉगस्वामी के पास यह रिकॉर्ड होता ही है कि किसने क्या भेजा क्या हटाया है.कु.कु.अपनी टिप्पणी हटा लें लेकिन ब्लॉगस्वामी का यह फ़र्ज़ है कि वह अपने पाठकों को कम-से-कम यह बताए कि विष्णु खरे जिस अज्ञात टिप्पणी को इतना तूल दे रहा है वह किन्हीं कु.कु.की थी और अब उन्हीं ने हटा ली है.यह जानना और शायद उसे पढ़ पाना भी पाठकों का हक़ है.

    यदि आप मेरे द्वारा दिए तथ्यों को सही मानें और घोषित करें तो मैं आपके सन्दर्भ में की गई मेरी टिप्पणी
    को सहर्ष हटाता हूँ.'समालोचन' की रक्षा करें.

    जवाब देंहटाएं
  16. आदरणीय विष्णु खरे जी

    समालोचन आपका सम्मान करता है और वह दृढ़ता से यह मानता है कि आज विष्णु खरे महत्वपूर्ण के घटित होने की सतत संभावना हैं. वह आपको एक अभिभावक के रूप में देखता है.

    वह बिना किसी शर्त के आपकी सभी कही बाते स्वीकार करता है. अगर उसे कहने दिया जाए तो वह कुछ कहना चाहता है.

    अरुण देव हमेशा समालोचन के सम्मुख नहीं रहता है उसे दीगर दुनियावी कामों से भी निपटना होता है. जैसे आज ही वह सुबह ७.३० से ११.३० तक परीक्षा ड्यूटी पर था.
    जब वह लौटता है और इस बीच वह घृणा/ धमकी/ निंदा/ कटुता/ फैलाने वाले किसी टिप्पणी को पाता है तब वह उन्हें हटा देता है.
    अक्सर देखने में कई बार यह भी आता है कि किसी टिप्पणी कर्ता को अपनी टिप्पणी में तथ्य या भाषा सम्बन्धी कोई भूल दिखती है तो वह पहले को हटा कर दुबारा टिप्पणी करता है भले ही पहली टिप्पणी पर दूसरों की टिप्पणीयां आ गयी हों.
    यह भी देखा गया है कि अपनी टिप्पणी पर बात बिगडती देख टिप्पणी कर्ता अपनी टिप्पणी के साथ ही अंतर्ध्यान हो जाता है.
    कई बार अपनी किसी टिप्पणी पर सख्त प्रतिक्रिया से भी टिप्पणी कर्ता अपने को वापस लौटा लेता है.
    अगर टिप्पणी पोस्ट करने पर यांत्रिक बंदिशे (जिसका अधिकार समालोचन के पास है) लगा दिए जाएँ तो पाठकों को टिप्पणी करने में बहुत जटिलताओं का सामना करना पड़ता है. और यह लगभग नामुकिन ही हो जाता है.

    दरअसल समालोचन यह समझता है कि अगर कोई टिप्पणी कर्ता अपना नाम परदे में रखकर भी कोई आलोचनात्मक टिप्पणी करता/करती है ब- शर्ते वह बे – शऊर न हो तो उसे यह कहने का हक होना चाहिए.
    अगर प्रतिउत्तर कर्ता अपनी टिप्पणी में ही जिस पर वह टिप्पणी कर रहा है उसे उद्धृत कर दे तब उस टिप्पणी को हटाना उस टिप्पणी कर्ता के लिए संभव नहीं होगा.

    समालोचन इस प्रकरण में खेद व्यक्त करता है. इस प्रकरण को कृपया यही समाप्त समझा जाए.

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  17. बहुत धन्यवाद,भाई.मैंने मोगैम्बो को बताया तो वह ख़ुश हुआ.

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  18. शैलेंद्र श्रीवास्तव23 जून 2018, 7:15:00 pm

    सौमित्र मोहन के अस्सी पार के लिए हार्दिक शुभकामनाएं ।सौमित्र जी अकविता आन्दोलन के अकेले सशक्त कवि हैं जो आज भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रहे है ।लम्बी कविता "लुकमान अली " उनकी सर्वाधिक चर्चित कविता है जिसकी धार से उनके समकालीन कवि प्र भावित हुये बिना नहीं रह सके थे । मैंने स्वयं इस कविता से प्र भावित होकर एक कविता मे प्र योग करते हुये लिखा है , '" वहम का इलाज लुकमान अली के पास भी नहीं है , औऱ वह क्नाट प्लेस के पेसाब घर मे धार छोड़ता हुआ सोच रहा था,
    फिर संसद मार्ग पर आगे बढ़ गया ।"
    सौमित्र मोहन न सिर्फ विशिष्ट कवि के रूप मे अपनी पहचान बनाई ,बल्कि फोटोग्राफी मे अच्छी पहचान बनाई है ।उनकी कई फोटोग्राफी चित्र साहित्यिक पुस्तकों के आवरण चित्र के रूप मे चर्चित हुये है।
    इधर सौमित्र मोहन की कविता मे वापसी हुई है ।उनकी चुनी हुई कविताओं का संग्रह ," आधा दिखता आदमी " आईं है ,जिसे पढकर ही कहा जा सकता है कि वे अकविता के प्रतिनिधि कवि हैं अथवा सातवें दशक के प्रतिनिधि कवि हैं ।लुकमान अली एक लम्बी कविता है ,मुक्तिबोध की कविता "चांद का मुँह टेढा है " ,की तरह फंतासी मे आम आदमी के कई चेहरे अपने मे समेटे हुये ।

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  19. सुरेश सलिल10 जून 2019, 6:48:00 pm

    सही है सौमित्र पर चर्चा अस्सी के कवियों की तुलना में बहुत कम ,कहें न कुछ सी हुई,लेकिन यह कहना भी कुछ लीपापोती करना जैसा ही होगा कि उन्हें बिलकुल भुलाए रखा गया । अकविता वाले दौर में अधिकांश नये कवियों के संग्रह निजी खर्च से छपते थे,तब अशोक वाजपेई ने "पहचान" सीरीज में उनकी पहली काव्यकृति"चाकू से खेलते हुए" प्रमुखता से प्रकाशित की थी ।केदारनाथ अग्रवाल के लेख का उल्लेख पोस्ट में हो चुका है । १९७०,७१के आसपास"आधार"का एक अंक ज्ञानरंजन के संपादन में आया था उसमें अजय सिंह ने लुकमान अली पर एक लेख लिखा था ।सौमित्र अदेखे कभी नहीं रहे ,बेशक अस्सी के कवियों ने काव्यचर्चा का लगभग सारा स्पेस कुछ इस तरह छेक लिया कि यह भ्रम जरूर होने लगा कि बस अल्टीमेट कविता और युग के प्रतिनिधि कवि यही हैं,यही हैं,यही हैं।

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  20. विमल कुमार10 जून 2019, 9:05:00 pm

    1980 के आसपास सबसे अधिक चर्चा सौमित्र मोहन और वेणु गोपाल की थी।उस दौर की पत्रिका देख लें।विष्णु खरे से पहले उन्हें बतौर कवि मान्यता मिल चुकी थी।लुकमान अली अंधेरे में और मुक्तिप्रसंग के बाद तीसरी चर्चित लम्बी कविता थी।धूमिल की पटकथा से अधिक महत्वपूर्ण इसलिए यह कहना कि सौमित्र की उपेक्षा हुई हास्यास्पद है ।अज्ञान का सूचक भी।खुद 40 या 45 साल के बाद उनका दूसरा संग्रह आया।एक दिन सौमित्र जी कहा भी कि आप अपनी किताब नही लाएंगे तो नई पीढ़ी कैसे जानेगी।86 में उनपर एक कविता मेरी प्रकाशित हुई थी।अगर कवि खुद लिखे या छपवाएँ नही तो पाठक या अगलोचक क्या करे।जो लोग साहित्य का इतिहास नही जानते और तथ्यों से परिचित नही वे फेसबूक पर नई पीढ़ी को भ्रमित न करें।विश्विद्यालय में शोध का क्या हाल सब जानते है।सौमित्र मोहन से बड़े लेखकों पर शोध नही हुए।और तो और हिंदी के प्रथम गद्य लेखक सदल मिश्र कौशिक जी सुदर्शन गोपाल सिंह नेपाली , शैलेन्द्र , निर्गुण आदि पर कितने शोध हुए ।रामचन्द्र वर्मा धीरेंद्र वर्मा पर कितने शोध हुए।सौमित्र मोहन की तो एक ही किताब आई थी।अब दूसरी आई है।हमारे एक मित्र कवि की किताब की 45 समीक्षा आई शमशेर जी की कितनी किताबों की इतनी आई

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  21. सुरेश सलिल10 जून 2019, 9:08:00 pm

    Vimal Kumar आपकी चिंताएं और मेरी चिंताएं लगभग समान हैं ।कोई दो पीढियां कविता में ऐसी आ गयी हैं जिनके लिए मुक्तिबोध लगभग अंतिम बिदु और फैशन बन गये हैं ।मुक्तिबोध से पहले की कविता से तो उन्हैं दूर रखा ही गया ,रघुवीर सहाय तक की कविता से बस रस्मी सा रिश्ता रहा ।वही आज साहित्य पढा रहे हैंउनही में से कुछ लिख रहे हैं और कुछ आलोचना के नाम पर अहो रूपम् अहो ध्वनिम् कर रहै हैं ।

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  22. वाह बेजोड़ कविताएँ ...इनका आस्वाद ही कुछ और है...

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