सेवादार : पॉवर प्ले की कविता : आशुतोष कुमार














समालोचन पर सदाशिव श्रोत्रिय की सेवादार (देवी प्रसाद मिश्र) की प्रकाशित व्याख्या ने सबका ध्यान अपनी तरफ खींचा है. हिंदी के अलावा दूसरी भाषाओँ में भी इस पर बहस ज़ारी है. आलोचक आशुतोष कुमार ने इस कविता और इस पर आधारित विमर्श को फिर से परखा है. वह इसे ‘पॉवर प्ले’ की कविता मानते हैं. क्या यह स्त्री-पुरुष के बीच का पॉवर प्ले’ है या मालिक और मातहत के बीच का. आइए पढ़ते हैं.  



सेवा  करना  हिंदी  की  सबसे ख़तरनाक  क्रिया  है        
आशुतोष कुमार







देवी प्रसाद मिश्र की कविता सेवादारपर समालोचन पर एक बहस हो गई है. पुरस्कारों और लेखकों के चरित्र-चित्रण से अलग किसी रचना पर बहस हो तो अच्छा ही लगता है. लेकिन इस बहस को अधिक ध्यान से यह जानने के लिए देखना चाहिए कि कविता के गम्भीर पाठक भी कविता पर बात करते हुए कितनी असावधानी से काम लेते हैं.

सारी उठापटक इस कविता पर सदाशिव श्रोत्रिय की टिप्पणी से शुरू हुई. कविता के संवेदनशील पाठक-आलोचक श्रोत्रिय जी इस कविता की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं. युगचेतना की काव्यात्मक अभिव्यक्ति के कारण और एनजीओ संस्कृति की गर्हित वास्तविकता को रोमांचक और आह्लादकारी ढंग से व्यक्त करने के लिए. इस टिप्पणी में कविता की प्रशंसा तो है, लेकिन कविता के साथ न्याय नहीं. लेकिन इस पर कुछ देर में लौटेंगे. पहले यह देख लें कि इस पर विवाद क्या हुआ.

पहला विवादी स्वर आया शिव किशोर तिवारी की ओर से. तिवारी जी कविता के अनन्य प्रेमी, संग्राहक, आलोचक और अनुवादक हैं. उन्हें कविता के चुनाव पर ही आपत्ति है. यानी कविता टिप्पणी करने लायक नहीं है. कहते हैं-
इस कविता में कोई गहराई नहीं है. व्यंग्य छिछला है क्योंकि चरित्र अतिरंजित हैं. उनकी बातें अस्वाभाविक हैं. बीच-बीच में अंग्रेज़ी के (अशुद्ध) वाक्य बेतुके हैं. आख़िरी पंक्तियों में पता ही नहीं चलता कि 'सर' ने क्या कहा -"यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़" (इसका अर्थ? कोई किसी को रैविशिंग स्टफ़ कहता है क्या?) या " संजीवनी सूरी क्यों है इतनी दूरी"?

कविता में सर ने जो कहा साफ-साफ ही कहा. वाचक ने उसे साफ-साफ दर्ज भी किया. हालांकि सर ने किसी को सुनाने के लिए नहीं, बुदबुदाते हुए अपने आप से कहा. कोई किसी को रैविशिंग स्टफ या दिलकश चीज उसके मुंह पर भी कह सकता है, बशर्ते उनके ऐसे सम्बंध हों. संजीवनी सूरी से सर के सम्बन्ध ऐसे नहीं हैं, इसीलिए वे बुदबुदाकर रह जाते हैं. आख़िर इसमें न समझ में आने वाली कौन सी बात है? क्या तिवारी जी को यह समझ नहीं आ रहा सर के मन में अपनी युवा कलीग के लिए ऐसे पापी विचार कैसे आ सकते हैं? क्या यह स्थिति ही उन्हें अस्वाभाविक लग रही है? और क्या इसी कारण कविता भी अस्वाभाविक, अतिरंजित और बेतुकी लग रही है?


सर के इन पापी खयालों में अस्वाभाविक जैसा तो कुछ है नहीं. अगर हो भी तो सवाल यह है कि क्या कविता का काम केवल स्वाभाविक, सांस्कारिक और नैतिक का बयान करना है? ज़ाहिर है तिवारी जी ने इस कविता कुछ अधैर्य के साथ पढा और जहां उलझने की गुंजाइश नहीं थी, वहीं उलझ गए.

बहस में तिवारी जी को सबसे जोशीला समर्थन मिला हमारे प्रिय कवि विष्णु खरे से. उन्हें यह कविता इतनी ख़राब लगी कि वे समीक्षा के लिए इस कविता को चुनने के लिए श्रोत्रिय जी को, इसके पहले जलसा पत्रिका में इसे छापने के लिए जलसा वालों को और इसे छपने देने के लिए कवि की सख़्त मज़म्मत करते हैं. आगे इस बात को यहां तक ले जाते हैं कि ऐसी कविताओं के छपने औऱ उन पर चर्चा होने से केवल देवी प्रसाद जैसे श्रेष्ठ कवि की छवि ही ख़राब नहीं होती,  हिंदी कविता के समूचे पर्यावरण के नष्ट हो जाने का खतरा है.

लेकिन विष्णु जी देर तक इस बात का खुलासा नहीं करते कि आख़िर उन्हें यह कविता इतनी ख़राब क्यों लगी. खुलासा तब करते हैं,  जब कवि आलोचक कात्यायनी इस कविता के पक्ष में अपने तार्किक विश्लेषण के साथ उतरती है और विष्णु जी को लगता है कि उन्होंने ऐसी बमबारी कर दी है कि कविता की समूची पृथ्वी झुलस गई है. मामला स्कॉर्च्ड अर्थ में तब्दील हो गया है.

अब जाकर वे साफ-साफ  कहते हैं कि 


कविता इसलिए भी संदिग्ध और आपत्तिजनक है कि मूलतः वह pathalogically स्त्री-विरोधी है और संजीवनी को एक भावी महँगी, बड़े पैकेज वाले casting couch पर स्वेच्छा से बिछ-बिछ जाने वाली slut दिखाने पर आमादा है. इस लिहाज़ से यह पोर्नोग्राफी-उन्मुख है.
आगे भी जोड़ते हैं-
मैं देवी प्रसाद का तब से प्रशंसक हूँ जब वह और भी ज़्यादा युवा थे. उनकी और उस स्तर के कई रचनाकारों की कविताओं में स्वयं को एक stakeholder समझता हूँ. लेकिन मैं उनकी ''सेवादार'' से बहुत निराश हूँ कि उसमें एक अभागी युवती को लेकर सिर्फ़ घृणा और तिरस्कार है, उसकी वैसी ज़िन्दगी को समझने की कोई कोशिश नहीं है. मैं अभी-अभी समझ नहीं पा रहा हूँ कि देवी प्रसाद से ऐसी reactionary और cliche कविता संभव कैसे हुई.

कविता में क्या सचमुच ऐसा कुछ है, जैसा विष्णु जी बता रहे हैं? इसकी जांच करने के पहले कहना जरूरी है कि इस कविता पर इस इल्जाम के बीज ख़ुद श्रोत्रिय जी के प्रशंसात्मक भाष्य में मौज़ूद हैं.
उन्होंने लिखा है-

सेवादारी के इस खेल की असलियत को देवी प्रसाद इस कविता की अंतिम पंक्तियों में जिस तरह खोलते हैं वह सचमुच अनूठा है. संजीवनी अंततः  अपने सर से जो कहती है वह इस बात को प्रकट करने के लिए पर्याप्त है कि उसे भी अब इस बात का पूरी तरह अनुमान हो  गया है कि उसके सर असल में उससे चाहते क्या हैं. उसका नाटकीय ढंग से कुत्ते के गले में लिपटते हुए  कर दूंगी सर कर दूंगी कहना इस बात को स्पष्ट कर देता है कि पैसे और पवित्रता के बीच सौदेबाज़ी के इस खेल में संजीवनी ने 10 लाख के सालाना पैकेज के लिए अपने आप को समर्पण के लिए तैयार कर लिया है. विडम्बना यह है कि वर्तमान परिस्थितियों में  अपने  मध्यवर्गीय परिवार की बाहर टीमटाम को बचाए  रखने के लिए शायद उसके पास इसके अलावा कोई विकल्प  नहीं  बचा  है.

जो बात सदाशिव श्रोत्रिय जी और विष्णु जी के सामने इतनी स्पष्ट है,  वह कविता में ख़ुद सर के सामने साफ नहीं है. अगर होती तो वे ‘संजीवनी सूरी क्यों है इतनी दूरी’ जैसी बातें बुदबुदाते वहां से फूट न लेते.

आश्चर्य की बात है कि कविता असल में संजीवनी सूरी और उसके सर के बीच ताक़त की जिस खींचतान या पावर प्ले को चित्रित करती है, उसकी ओर किसी का ध्यान ही नहीं गया.

सर की पापी  बुदबदाहटों से उनकी मंशा तो साफ है,  लेकिन यह भी साफ है कि वह अभी पूरी नहीं हुई है. कविता पाठक को यह अनुमान लगाने का मौका देती है कि हो सकता है मीटिंग में जान बूझकर देर की गई हो. यह भी कि इसके पीछे नीयत यह रही हो कि दिल्ली जैसे असुरक्षित शहर में लड़की को घर छोड़ने का बहाना मिल जाएगा. इसके आगे पाठक के लिए कयासबाजी की गुंजाइश नहीं है, क्योंकि इसके आगे की कहानी कविता ख़ुद कहती है.

देर रात के उस वक़्त छोड़ने आए सर को संजीवनी सूरी घर के भीतर चलने का न्यौता जरूर देती है, लेकिन उसी सांस में यह भी कह देती है कि घर के भीतर माँ मौज़ूद है, जो पिता के मरने के बाद से काफी अकेलापन महसूस कर रही हैं. मतलब सर भीतर तभी तशरीफ़ लाएं जब उन्हें इस वक़्त बूढ़ी अम्मा के साथ ढेर सारा वक़्त बिताना मंजूर हो.

सर इस पर अगली बार देखेंगे के सिवा कहते भी तो क्या कहते?

लड़की जानती है कि अब वह सुरक्षित है. बाज़ी पूरी तरह उसके हाथ में है. अब वह अपनी जीत और सर के मंसूबों की हार का मज़ा लेने के मूड में आ चुकी है. सर के घावों पर पूरी तरह नमक छिड़कते हुए कहती है- अगर आप अंदर नहीं आ रहे तो कम से कम मेरे कुत्ते से मिल लीजिए!

इतना ही नहीं, सर के सामने ही अपने कुत्ते से लिपट भी जाती है. कितना मारक तरीका है यह एक स्त्री के यह जताने का कि सर की तुलना में कुत्ता उसे कहीं अधिक प्यारा लगता है! अगर सर के मंसूबों के बारे में पाठक का अनुमान सही है तो अब वह अच्छी तरह जानता है कि इस पावर प्ले में सर पूरी तरह नेस्तनाबूद हो चुके हैं. उनके अरमानों की कम से कम फ़िलवक्त मिट्टी पलीद हो चुकी है.

इस हश्र से बचने के लिए अपना एकमात्र तुरुप का पत्ता वो पहले ही चल चुके हैं. नौकरी का आश्वासन और वेतन वृद्धि की गोली पहले ही दी जा चुकी है. लड़की पर इन चालों का कुछ ख़ास असर नहीं हुआ. क्यों? क्या इसलिए कि ग्रेटर कैलाश में रहने वाली दिल्ली यूनिवर्सिटी में शोध कर चुकी छात्रा को भरोसा है कि नौकरी तो मिल ही जाएगी? एनजीओ सेक्टर की ऐसी ही किसी नौकरी के लिए माता पिता ने  शुरू से ही उसे तैयार किया है. इतने दूरदर्शी और सक्षम माता पिता की इस तेज तर्रार संतान के लिए जीवन इतना असुरक्षित और अभावग्रस्त शायद नहीं है. वह अपनी युवा देह के आकर्षण की कीमत पहचानती है. कुत्ते के बहाने सर को दूर से ललचा कर आजमाती भी है. लेकिन उसका काम इतने भर से चल सकता है, यह भी जानती है.

लेकिन यह सब, जाहिर है, अनुमान का विषय है. कविता स्वयं इन प्रश्नों के उत्तर नहीं देती.  इतना जरूर बताती है कि सूरी और सर के बीच शिकार और शिकारी जैसा इकतरफा मामला नहीं है. दोनों ही एक दूसरे का शिकार कर लेने की फ़िराक़ में हैं. कविता इन दो चरित्रों के बीच ताक़त की रस्साकशी को नाटकीय ढंग से किंतु बिना तमाशा बनाए दिखा देती है.

सर भी जानते हैं कि आज के दिन वे भले ही मात खा गए हों, लेकिन बाजी अभी खत्म नहीं हुई है. इस पावर प्ले को लम्बा चलना है और इसमें अंततः जीत उनके हाथ लग सकती है, क्योंकि वे पुरुष हैं. संजीवनी के लिए सिली गर्ल या बेवक़ूफ़ लड़की जैसे विशेषण इसी सोच से निकले हैं.

कविता जो रचती है, वो यही पावर प्ले है. इसे श्रोत्रिय जी के अंदाज़ में शुद्ध सौदेबाजी समझना या विष्णु जी की तरह स्त्री के दारुण शोषण के प्रति कवि की क्रूरता का नमूना मानना कविता पढ़ने में बरती गई असवाधानी का नतीजा है.

सौदेबाजी और शोषण पर बहुत साहित्य रचा गया है, लेकिन देवीप्रसाद की कविता इंसानी सम्बंधों में शक्ति के जिस खेल को पकड़ती है, वह हिंदी कविता में ख़ास उनका इलाक़ा है. इस इलाक़े की खोज करने वाला शुरुआती प्रमुख कविता संग्रह प्रार्थना के शिल्प में नहींथा.

सूरी और सर के रिश्तों में भावुकता अथवा सामान्य मानवीय संवेदना की भी कोई गुंजाइश नहीं है. यह पावर प्ले ऊपर से बहुत शिष्ट और मासूम दिखता है, लेकिन इसके  भीतर विशुद्ध हिंसा भरी हुई है. यह शत प्रतिशत निश्चित नहीं है कि इसमें आखिरकार किसका वध होगा, लेकिन पलड़ा निश्चय ही सर की तरफ झुका हुआ है. उन्हें पितृसत्तात्मक सामाजिक- आर्थिक संरचना का  मजबूत समर्थन हासिल है.

कविता पाठक को जहां छोड़ती है,  वहां कोई आवेश नहीं है, कोई उत्ताप नहीं है, कोई उत्तेजना नहीं है. जहां सरलता से कोई मूल्य निर्णय नहीं किया जा सकता.  वह कत्लगाह की तरह एक ठंढ़ी क्रूर जगह है. कविता पाठक को इस ठंढ़ी क्रूरता के सामने निष्कवच खड़ा कर देती है. उसे इसका सामना करना है, बिना किसी भावुकता या मूल्य निर्णय के. यह निचाट सामना ही देवीप्रसाद की कविता की ताकत है. यह निचाट सामना ही स्थितियों की विडम्बना को बिना किसी काट- छांट के उजागर कर सकता है.  हिंदी में कितनी ऐसी कविताएँ होंगी, जो ऐसा कर सकती हैं?

सेवादार कविता के अंदाज़े बयां में धोखेबाज किस्म की सरलता है. जरा ठहर कर पढ़ें तो इसमें पावर प्ले के अनेक स्तर दीख पड़ेंगे. सर और सूरी के बीच एक तरह का पावर प्ले है तो  यूरोपीय फंडिंग एजेंसियों और भारत जैसे विकाशील देशों में काम करनेवाले ग़ैर सरकारी संगठनों के बीच दूसरे तरह का. एक और पावर प्ले है जो इन संगठनों और उन लोगों के बीच चल रहा है, जिनके कल्याण के  नाम पर  यह सारा तामझाम खड़ा हुआ है.

कविता में साफ संकेत है स्त्रियों के लिए काम करने के नाम पर फंड लेने वाले सर स्त्री को सिर्फ़ उपभोग की नज़र से देख पाते हैं. खरिआर की गरीब औरतें भी उनके लिए महज फंड जुटाने का जरिया हैं. वे अपनी शिष्या संजीवनी सूरी को भी यही शिक्षा दे रहे हैं, और उसे भी इससे कोई ख़ास दिक़्क़त नहीं है. दिक़्क़त है तो महज पैकेज आशानुरूप न होने से.

खरिआर की औरतें शोषण का शिकार होती रहेंगी तभी सर और सूरी धंधा चलेगा. वे फंडिंग एजेंसियों को रिपोर्ट भेजते रहेंगे, लेकिन उन शोषित स्त्रियों को वाजिब मज़दूरी दिलाने की कोई कोशिश नहीं करेंगे. एजेंसियां भी रिपोर्ट लेकर संतुष्ट रहेंगी. क्या इसलिए कि उनकी दिलचस्पी भी मुख्यतः प्रामाणिक आंकड़ों में है न कि सूरतेहाल को बदलने में. सम्पत्ति और सत्ता का वैश्विक साम्राज्य आखिरकार खरिआर जैसे पिछड़े इलाकों के औरतों-आदमियों-बच्चों के श्रम की नृशंस लूट पर ही टिका हुआ है. औरतों का शोषण दुगुना होता है, क्योंकि वे औरतें हैं.

हर स्तर पर शक्ति का यह खेल उतने ही  क्रूर हिमशीतल ढंग से चलता है. सर और सूरी के बीच घर के बाहर देर रात की यह बातचीत इस बहुस्तरीय हिमशीतल क्रूरता को पाठक की नसों तक ले जाने का एक बहाना भर है. अगर आपने उसे महसूस किया तो यह सवाल बेमानी हो जाएगा कि इस कविता में गहराई है या नहीं. वैसे गहराईकी खोज भावप्रधान कविताओं के लिए ठीक हो सकती है, लेकिन वैसी कविताओं के लिए शायद नहीं, जिन्हें मुक्तिबोध अनुभव-प्रेरित फैंटेसी के रूप में देखते थे, जो अनुभव के गहन क्रियाशील साक्षात्कार से निर्मित होती हैं. इन कविताओं में गहराई की जगह गहनता, जटिलता, व्यापकता और विडम्बना की खोज करना अधिक सार्थक हो सकता है.

सदाशिव श्रोत्रिय के भाष्य की बुनियादी समस्या यह है कि वो कविता को विषय आधारित रचना के रूप में विश्लेषित करते हैं.  इस कविता को इस रूप में पढ़ना कि यह एनजीओ सेक्टर पर लिखी गई हिंदी की पहली कविता है, पाठक के भटकाव की शुरुआत है. कविता निबंध की तरह या उसकी जगह नहीं लिखी जा सकती. ह कविता एनजीओ सेक्टर पर किसी निबंध का स्थानापन्न हरगिज नहीं है. कविता के सामूहिक कुपाठ से खिन्न कवि देवीप्रसाद भले स्वयं ऐसा घोषित करते फिरें!

सो यह बहस भी प्रासंगिक नहीं है कि कविता एनजीओ सेक्टर के समूचे यथार्थ को उद्घाटित करती या उसकी एक प्रवृत्ति को. हर कविता किसी यथार्थ से ही उपजती है, और किसी न किसी ढंग से उसे उद्घाटित करती है, लेकिन वह अख़बारी यथार्थ का रजिस्टर नहीं हो सकती. कुछ एनजीओ अच्छे और कुछ ख़राब हो सकते हैं. कुछ लोग भले और बुरे हो सकते हैं. लेकिन सम्बंधों में शक्ति का खेल हमेशा सक्रिय रहता है. निजी स्तर पर भी,  सामाजिक स्तर पर भी और अंतरराष्ट्रीय सम्बंधों के स्तर पर भी. शक्ति के इस खेल को, इसकी क्रूरता को और  विडम्बना को  मानवीय अनुभव के स्तर पर पर पकड़ना कविता है, निबंध नहीं. इस प्रक्रिया में समकालीन यथार्थ का एक  टुकड़ा लगा लिपटा चला आता है, यह और बात है.

इस कविता का शीर्षक सेवादारहै. शीर्षक की व्यंजकता पर ही ध्यान दिया गया होता तो शायद पढ़ने में इतनी लापरवाहियां न होतीं. सेवादार कहने से लगता है जैसे सेवा करने का ठेका लेने वाले ठेकेदारों  की बात हो रही है. सेवा करना शायद हिंदी की सबसे खतरनाक क्रिया हो. इसके ख़तरों का दायरा सेवादार से प्रधान सेवक तक फैला हुआ है!
__________
आशुतोष कुमार
प्रोफेसर  (हिंदी विभाग), दिल्ली विश्वविद्यालय
ashuvandana@gmail.com



सेवादार और उसका भाष्य यहाँ पढ़ें.
ख़ राब कविता का अंत:करण  : देवी प्रसाद मिश्र

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  1. Tewari Shiv Kishore17 मई 2018, 8:37:00 am

    मैं इस बात से दुःखी हूं कि हिंदी में अंग्रेज़ी से इतने अनुवाद होते रहते हैं फिर भी एक आदमी न मिला जिसे यह दिखाई दे कि कविता में प्रयुक्त कोई भी जुमला अंग्रेज़ी का मुहावरा नहीं है। रैविशिंग स्टफ़ पर आपत्ति यह नहीं थी कोई मुंह पर ऐसा कहता है क्या। आपत्ति यह थी की कोई ऐसा नहीं कहता याने ऐसा कोई मुहावरा नहीं है। इसी तरह शी इज़ डेड एलोन मुहावरा नहीं होता। ऐसे तीनेक और जुमले हैं। आप इन जुमलों से क्या दिखाना चाहते हैं कि दोनों पात्र अंग्रेज़ी में बोलते रहते हैं पर उन्हें बेसिक अंग्रेज़ी भी नहीं आती? यह तो संभव नहीं लगता। फिर कवि की असावधानी है। एक छोटी कविता में इतनी ग़लतियां जो मुझ पाठक को ही संकुचित कर गईं !
    मैं समीक्षक नहीं हू। आशुतोष कुमार ने मुझे नासमझ बताने के पहले न जाने क्या क्या तारीफ़ की जो झूठी है, इसलिए धन्यवाद भी नहीं कह सकता।
    दिल्ली में ही रहते होंगे। किसी अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर से दिखा लें।

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  2. आशुतोष भाई से सहमत . यार हमे कविता की व्ंयंजना न पकड कर अंग्रेजी की शुद्धता क्यों परखनी है ?

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  3. Devi ji ki kavitayen power structure ki un visangtiyo ko ubhaarti hain jo hamare samaaj ki jatil saranchna mei badi baarikee se vyaapt aur buni gayin hain..bahut gambhir vivechan hai..abhaar samalochan

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  4. Tewari Shiv Kishore
    अच्छा सुझाव है, सर। आजमाएंगे।
    यह जानकार और भी अच्छा लगा कि आपकी असली आपत्ति यह थी कि कवि को बेसिक अंग्रेज़ी नहीं आती, कि उसके पात्र ग़लत अंग्रेज़ी बोलते हैं।
    हालांकि आपने उसी सांस में हिंदी के एक जुमले पर भी आपत्ति की थी- संजीवनी सूरी , क्यों है इतनी दूरी।
    जाहिर है, यह भी भाषा के अशुद्ध प्रयोग के कारण ही होगी!��
    हिंदी के कवियों आलोचकों को अपनी हिंदी और अंग्रेज़ी सुधारने के लिए कुछ करना चाहिए।����

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  5. शिव किशोर तिवारी17 मई 2018, 10:30:00 am

    (संशोधित)मैं इस बात से दुःखी हूं कि हिंदी में अंग्रेज़ी से इतने अनुवाद होते रहते हैं फिर भी एक आदमी न मिला जिसे यह दिखाई दे कि कविता में प्रयुक्त कोई भी जुमला अंग्रेज़ी का मुहावरा नहीं है। रैविशिंग स्टफ़ पर आपत्ति यह नहीं थी कोई मुंह पर ऐसा कहता है क्या। आपत्ति यह थी की कोई ऐसा नहीं कहता याने ऐसा कोई मुहावरा नहीं है। अडोरेबल थिंग कहते हैं, कोई पगला जाय तो रैविशिंग थिंग भी कह ले पर स्टफ़ नहीं। इसी तरह पिता की मृत्यु के बाद "शी इज़ डेड एलोन" मुहावरा नहीं होता। पिता की मृत्यु के बाद "लोनली" होंगी अलोन नहीं। डेड अलोन इस संदर्भ में और भी निरर्थक है। "शी इज़ जर्मन शेपर्ड"। तीसरी क्लास के बच्चे जानते है " शी इज़ अ जर्मन शेपर्ड" बोलते हैं। " कीप इट द नेक्स्ट टाइम" अंग्रेज़ी भाषा का वाक्य नहीं है। "सम अदर टाइम" "ऐनदर टाइम" साधारणतः काफी होता है। यह वाक्य बोलना ही हो तो " कीप इट फ़ाॅर द नेक्स्ट टाइम" कहेंगे। कोई नाम उच्चारण करने में कठिन हो तो " वाट एन अनप्रोनाउंसेबल नेम!" कहेंगे, " हाऊ टेरिबल द प्रोनंसियेशन इज़ " का मतलब है कि कोई व्यक्ति शब्दों का शुद्ध उच्चारण नहीं करता।
    आप इन जुमलों से क्या दिखाना चाहते हैं ? कि दोनों पात्र अंग्रेज़ी में बोलते रहते हैं पर उन्हें बेसिक अंग्रेज़ी भी नहीं आती? यह तो संभव नहीं लगता। फिर कवि की असावधानी है। एक छोटी कविता में इतनी ग़लतियां जो मुझ पाठक को ही संकुचित कर गईं !
    मैं समीक्षक नहीं हूं। आशुतोष कुमार ने मुझे नासमझ बताने के पहले न जाने क्या क्या तारीफ़ की जो झूठी है, इसलिए धन्यवाद भी नहीं कह सकता।
    दिल्ली में ही रहते होंगे। किसी अंग्रेज़ी के प्रोफ़ेसर से दिखा लें।

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    1. आप को बहुत अच्छी अंग्रेजी आती है . आप ऐसा कीजिये कि संजीवनी सूरी और उस के सर को अंग्रेजी ग्रैमर का ट्ढायूशन पढाईए। लेकिन इस कविता को ऐसा ही रहने दीजिये अने हाल पर . मुझे अंग्रेजी नहीं आती , लेकिन यह कविता अच्छे से कम्युनिकेट हो रही है ।

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  6. बेनामी17 मई 2018, 11:11:00 am

    बिचारे हिंदी के कवियों को अब कहाँ इतनी शुद्ध अंग्रेज़ी आती है जब भारतीयों को अंग्रेजों से पढ़ना ही नसीब न रहा !

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  7. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (18-05-2018) को "रिश्ते ना बदनाम करें" (चर्चा अंक-2964) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  8. बेनामी17 मई 2018, 12:53:00 pm

    मैं फिर दुहराता हूँ कि 'सेवादार' बहुत औसत कविता है। पावर-प्ले देखना ही है तो बच्चों की कविता - "Ba ba black sheep..." में भी देखा जा सकता है! यह 'रंगभेद' की कविता नहीं है क्या? ऊन देने का काम सिर्फ 'काली' भेड़ें क्यों करें? वह भी "One for the master , and one for the dame (मालिक/राजा और मालकिन/रानी के लिए)"? क्या यह 'गोरों' द्वारा 'काले गुलामों' पर लिखी 'पावर-प्ले' वाली सांकेतिक कविता नहीं है??

    और हाँ, शिव किशोर तिवारी जी की आपत्तियाँ गलत नहीं हैं और उनकी यह सहज शिनाख्त भी कि इस कविता में इन अंग्रेजी शब्दों/वाक्यांशों को बहुत कृत्रिम ढंग से जोड़ा गया है! यह तो हिन्दी कविता और हिन्दी साहित्य में एक अँग्रेज़ीदाँ फ़ैशन ही बन गया है कि कुछ अंग्रेजी घुसेड़कर अपने लिखे को कुछ अलग-अनूठा बता दिया जाए!

    कविता के शीर्षक 'सेवादार' को पाठक आरंभ में ही उसी व्यंजना के साथ पढ़ता है जिसकी ओर इशारा किया गया है। पर इसके बावजूद यह कविता मेरी नजर में औसत ही ठहरती है! भले इस पर साल भर तक व्याख्याएँ लिखी और प्रकाशित की जाती रहें!

    और यह सामर्थ्य सिर्फ इसी कविता में नहीं, किसी भी कविता में हो सकती है!

    - राहुल राजेश।

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  9. बेनामी17 मई 2018, 1:15:00 pm

    और हाँ, इस कविता में पावर-प्ले है तो इस कविता पर भी पावर-प्ले नहीं चल रहा है क्या? कविता को श्रेष्ठ साबित करने के उपक्रम में?

    - राहुल राजेश।

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  10. आशुतोष कुमार की टिप्पणी बहुत ही तर्कपूर्ण और सुचिंतित है | देवी प्रसाद मेरे प्रिय समकालीन कवि हैं | सेवादार एक नए यथार्थ को सामने लाती है|

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  11. कृष्ण कल्पित18 मई 2018, 8:29:00 am



    एक तो ख़राब स्वास्थ्य से और कुछ स्थानीय कवियों से उलझा हुआ था इसलिये मेरी नज़र नहीं गई । आज देखा तो पता चला 'समालोचन' पर देवी प्रसाद मिश्र की असद ज़ैदी के सम्पादन में प्रकाशित 'जलसा' के प्रथम अंक में प्रकाशित एक कविता 'सेवादार' पर बहस चल रही है, जिसमें विष्णु खरे, मंगलेश डबराल, शिव किशोर तिवारी, कात्यायनी, असद ज़ैदी इत्यादि कई महारथियों ने अपने विचार व्यक्त किये हैं ।

    बहुत निराशा हुई यह बहस पढ़कर । लगता है हम कविता पढ़ना भूल चुके हैं । विष्णु खरे तो ख़ैर दुर्जेय प्रतिभा हैं , वे किसी के भी पक्ष या विरोध में एक-से आवेग से लिख सकते हैं । उन्होंने कहा कि यह घटिया कविता है और स्त्री-विरोधी है । उससे अधिक निराशा मंगलेश डबराल की टिप्पणी से हुई । लगता है मंगलेश डबराल कविता लिखना ही नहीं, कविता पढ़ना भी भूल चुके हैं । उनका कहना है कि कविता NGO संस्कृति के ख़िलाफ़ है और इस विचार का साधारणीकरण करती है जबकि बहुत से ऐसे NGO हैं जो अच्छा काम कर रहे हैं । पता नहीं किस मूर्ख ने इस कविता का विषय खोज निकाला ।

    कोई भी सच्ची कविता विषयाधीन नहीं हो सकती । किसी विषय पर कोई कविता नहीं लिखी जा सकती । लिखी जायेगी तो वह सन्दिग्ध कविता होगी । देवी की कविता में एक शाम का वर्णन है, जो कहीं का भी हो सकता है । यह खुद को बुद्धिजीवी मानने वालों की एक शाम है । यह हिंदी के कवियों की भी बैठक हो सकती है । जहाँ पाखंड है, शराब है , ख़ुद को समाजसेवी मानने का ढोंग है । देवी की कविता इसी पाखंड, ढोंग और विडम्बना को उजागर करती है ।

    असद ज़ैदी विष्णु खरे और मंगलेश डबराल के बीच की कड़ी नज़र आते हैं जहाँ वे अपनी बंकिम अदा में वह बात कहते हैं जिसका कोई अर्थ नहीं निकलता । देवी अच्छे कवि हैं लेकिन यह कविता ख़राब है ।

    देवी प्रसाद मिश्र हमारे समय के ऐसे कवि हैं जो कविता को नष्ट करके कविता लिखते हैं । देवी कविता विरोधी कवि हैं । वह इस देश के सामान्य नागरिक की बात अपनी ख़ास शैली में कहते हैं । ये सब देवी की उलटबांसियां हैं जिसे सीधे ढंग से नहीं समझा जा सकता । NGO सेक्टर के लोग निराश न हो यह कविता उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकती, वे इस देश के गरीब-गुरबों के नाम पर मौज़ मारते रहें ।

    देवी ने नई कविता नहीं लिखी है उसने तो अकबर इलाहाबादी की कविता का अनुवाद भर किया है :

    रँज़ लीडर को बहुत है मगर आराम के साथ !

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  12. ओम निश्चल18 मई 2018, 1:51:00 pm

    एक बात समझ में आई कि वे उलटवासियों के कवि हैं। बहुत सपाट दिखने का भ्रम रचते हुए कटाक्ष के सरलीकरण तक -----लोगों की जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि को मुक्तिबोध की तरह ही मुँह चिढाते हुए जब देवीप्रसाद कविताएं लिखते हैं तो वसुंधरा पर फैली हरी भरी कविता की चटनी बना कर उसे हाजमे के वास्ते मुफीद बताने वाले कवियों की कौम पर एक तंज भी करते हैं कि ससुर के नाती तुम और तुम्हारा सौंदर्यबोध, तुम्हारी उपमाएं तुम्हारे उपमान और बिंबविधान कितने भोथरे हो चुके हैं।

    जनवादी दिखने के हर ढोंग और होठों और हथेलियों की भंगिमाएं रच कर किसी दोयम दर्जे के आलोचक की तरह गंभीर हुए बिना वे कविता के स्वीकृत ढांचे का निषेध करते हैं ----यह विट अवध का विट है, जो उन्हें सहज ही विरासत में मिला है। कविता मैंने भी पढी है। समय न मिला कि इस कोलाहल में स्वर मिलाऊूं पर कल्पित की यह टिप्पणी गौरतलब है। उनकी उलटवासियों वाली बात उन जैसे कवियों की सरलीकरण साधती-सी लगती कविता के भीतर की जटिलताओं को समझने के लिए उत्प्रेरित करती है।

    देवीप्रसाद मिश्र ने हर बार अपनी कविता के चेहरे मोहरे में बदलाव किया है। वे न केवल कथ्य के बल्कि शिल्प और किसी भी रीतिबद्धता के विद्रोही कवियों में हैं तभी तो हर इबारत में रहा बाकी जैसी नई शिल्प संरचना से कवियों की एक बड़ी टोली कविता के प्रति तमाम असमंजसों से घिर गयी थी। एक कवि ने तो अपने संपादकीय में इसे कवि की आत्महत्या का सबब बताया था।

    अच्छे कवि निस्संदेह संवाद प्रवाद विवाद पैदा करते ही हैं।

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  13. बहुत अफ़सोस के साथ लिख रहा हूँ कि मैं ''सेवादार'' की ''अंग्रेज़ी'' को लेकर शिव किशोर तिवारी से पूर्णतः सहमत हूँ.मैं शुरू से ही इससे आगाह था लेकिन बदक़िस्मती से तरह दे गया.लेकिन अब इस कविता का कोई बचाव नहीं बचा.ग़नीमत है कि यह देवीप्रसाद मिश्र की एकमात्र ऎसी रचना है.

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  14. दिलचस्प है कि इतनी चर्चा के बाद बात अंग्रेज़ी पर आ टिकी है। मान लिया जाए कि कविता को बनावटी, वाहियात, स्त्रीविरोधी और पोर्नोग्राफिक आदि होने के इल्ज़ाम से बरी कर दिया गया है।

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  15. त्रिलोचन जो 'कविता की भाषा' 'गद्य कविता' पर बात करते हैं। उनके जीवट का उत्तर है:
    "भाषा की लहरों म जिवन की हलचल है
    गति में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।"
    ×××××××××××××××××××
    "भाषाओं में अगम समुद्रों का अवगाहन
    मैं ने किया.....
    शब्दों में देखा सब कुछ ध्वनिरूप हो गया
    मेघों में आकाश घरे कर जी भर गाया
    मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग, तत्काल खो गया
    सब कुछ सब कुछ सब कुछ सब कुछ भाषा।"

    शब्द वह जो ध्वनिरूप होकर हमें संप्रेषित करे। शब्दों के प्रयोग से हम मुद्रा, चेष्टा, भाव, वेग सबकुछ को उन्हीं शब्दों की गति में गतिशील करते जाते हैं। इसलिए त्रिलोचन कहते हैं "गति में क्रिया भरी है और क्रिया में बल है।" हमारी गति में शब्दों की क्रिया ही भरी है, इसलिए सम्प्रेषणीय शक्ति को बल देने के लिए अगर अंग्रेजी के शब्दों का प्रचलन कविता में आती है तो वह कविता की गतिशीलता को ही बढ़ाती है न कि कविता को नग्न करने में सहायक होती है। इसलिए 'सेवादार' कविता में अंग्रेज़ी के शब्दों का प्रयोग क्रिया की गति को बढ़ाने के लिए हुआ है।

    ~ रविरंजन

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  16. आदरणीय आशुतोष जी,

    चार जन बैठे हों और आत्मीय अथवा औपचारिक वार्तालाप चल रहा हो, तो किसी साथी द्वारा गलत हिन्दी और अँग्रेज़ी बोलने पर हँसता कोई नहीं , पर उसकी भाषा की अनभिज्ञता खामोशी से हम पर बुरा प्रभाव छोड़ती है । उसी तरह मंजी हुई और सलीकेदार भाषा बोलने वाला हम पर अपनी बढ़िया छाप "अनायास" ही छोड़ता है । यह नहीं कि वह क्लिष्ट भाषा बोलता हो - ऐसे से तो कोसो दूर । पर व्याकरण, उच्चारण आदि सभी मानकों पर खरी, प्रवाह और प्रभावपूर्ण 'सहज' भाषा बोलने वाले के हम मन ही मन मुरीद तो अवश्य हो जाते हैं ।

    जैसे गायन में सही सुर और गलत सुर अपना प्रिय और अप्रिय प्रभाव छोडते हैं । पूरे विश्व में सही सरगम एक ही है ।वह देशों या प्रान्तों के अनुसार बदला नहीं करती । उससे इतर जो गायेगा, वह कनसुरा / बेसुरा गायन होगा । उसे सुनकर हम हँसेगें नहीं , पर यह अवश्य जान लेगें कि इस व्यक्ति को सुर का ज्ञान नहीं ।

    हमारे देश की विश्वभर में प्रख्यात, सम्मान प्राप्त, हिन्दी गीतो को सही और शुद्ध उच्चारण के साथ, सुर देने वाली गायिकाएँ - लता मंगेशकर, आशा भोंसले महाराष्ट्र की हैं , तो गीता दत्त बंगाल से थी । उनके हिन्दी Diction और Pronunciation पर कोई अँगुली नहीं उठा सकता, उनके सुर-ताल की ख़ामी नहीं निकाल सकता । जिनका सही भाषा सीखने का सहज स्वभाव और अन्दर से एक पकड़ और विवेक होता है, वह खुद-ब-ख़ुद भाषा की हर स्तर की बारीकियाँ पकडेगा, सीखेगा । जिसे भाषा के सही रूप से कोई लेना-देना नहीं, वह हिन्दी पट्टी का होकर भी गलत हिन्दी बोलेगा ।
    यही बात अँग्रेजी के साथ है । सही और हर तरह से शुद्ध, स्वच्छ अँग्रेज़ी, United Kingdom की British English है । अब उसे भले ही अमेरिकन अपने ढंग से, जर्मन अपने ढंग से बोले, या भारत में बंगाली, मद्रासी, मराठी अपने स्टाइल में बोले, पढ़े और लिखें, लेकिन, मान लीजिए कभी उनके अँग्रेज़ी ज्ञान को कसौटी पर कसने की नौबत आ जाए, तो उसका मानदण्ड "ब्रिटिश इंगलिश' ही होगी ।

    जब साहित्य जगत से जुडा एक कवि अपनी 'रचना' में हिन्दी और साथ ही अँग्रेज़ी के कुछ वाक्य लिखता है, तो उससे 'स्वच्छ ' और 'सही' भाषा, उसकी सही अभिव्यक्ति की अपेक्षाएँ अधिक होती हैं । क्योंकि आने वाले समय में हर रचनाकार का ' लिखा' हुआ, 'साहित्य में योगदान' का दर्ज़ा पाता है । ऐसे में, सँस्कारहीन भाषा वाली कविता - चाहे सँस्कारहीन हिन्दी हो या सँस्कारहीन अँग्रेज़ी - उसकी आलोचना तो होगी ही होगी ।

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  17. प्रिय Deepti, आप जो कह रही हैं, उसे हमारे ख़याल से भाषा के प्रति शुद्धतावादी/कुलीनतावादी नज़रिया कहते हैं। इसमें यह मान लिया जाता है कि भाषा का कोई एक पूर्वनिर्मित शुद्ध स्वच्छ रूप होता है। भाषा का इस्तेमाल करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को इसके निकट आने की कोशिश करनी चाहिए।
    दूसरा नज़रिया मानता है कि भाषा बिगड़ कर ही बनती है। नए बोलनेवालों के बीच या जरूरतों के नए इलाके में जाकर भाषा नए रूपों में बिगड़ती रहती है और इन्हीं में से कुछ रूप धीरे धीरे व्यापक रूप से प्रचलित हो जाते हैं। भाषा का विकास इसी तरह होता है।
    यूके की ब्रिटिश इंग्लिश ही शुद्धतम है, इसे कोई अमरीकी स्वीकार नहीं करेगा। ख़ुद ऑक्सफोर्ड वाले हर साल हजारों नए शब्दों, अभिव्यक्तियों और यहाँ तक कि कुछ स्लैंग को भी अपनी भाषा में जोड़कर गर्व महसूस करते हैं।

    ख़ैर, यह बहस पुरानी है और हमेशा चलती रहती है। जहां तक इस कविता का सवाल है, जिन वाक्यों पर आपत्ति है, उन्हें कविता के वाचक या नैरेटर ने अपनी ओर से इस्तेमाल नहीं किया है। वाचक द्वारा अपनी ओर से इस्तेमाल किए गए वाक्यों में भाषा की खटकने वाली गलती हो तो कवि की भाषिक क्षमता पर सवाल उठेंगे ही, उठने चाहिए भी।

    लेकिन ये वाक्य जिन पात्रों द्वारा कहे गए हैं, उनसे यूके की शुद्ध ब्रिटिश इंग्लिश बोलने के आग्रही होने का कोई कारण नहीं है। वे दिल्ली में तेजी से अमीर हुए उन नए तबकों के लोग हो सकते हैं, जिन्हें यूके की शुद्ध ब्रिटिश इंग्लिश के संस्कार न मिले हों। जो हो सकता है हमारी तरह जीवन भर हिंदी मीडियम वाले रहे हों, लेकिन अब दिल्ली आकर जब तब अंग्रेज़ी के दो चार वाक्य बोलने का दबाव महसूस करते हों।

    वे लाख कोशिश करके भी ब्रिटिश इंग्लिश नहीं बोल सकते । कवि उनसे बुलवाए भी तो अत्याचार ही होगा।

    Tewari Shiv Kishore की समस्या यह है कि उन्हें इस कविता में आए कुछ वाक्यों का कुछ मतलब ही समझ में नहीं आया। इस कारण यह कविता उनकी समझ में ही नहीं आई। यह बात उन्होंने 'साहसपूर्वक' ख़ुद ही कही भी है -- आख़िरी पंक्तियों में पता ही नहीं चलता कि 'सर' ने क्या कहा -"यू आर सच अ रैविशिंग स्टफ़" (इसका अर्थ? कोई किसी को रैविशिंग स्टफ़ कहता है क्या?) या " संजीवनी सूरी क्यों है इतनी दूरी"?

    अंग्रेज़ी ग़लत हो, सही हो, लेकिन इन वाक्यों का आशय क्या है, यह स्पष्ट है। क्या आपको स्पष्ट नहीं है? क्या आपको पता नहीं चला कि तथाकथित सर क्या बुदबुदा रहे हैं?

    मैं तिवारी जी के साहस की कद्र करता हूँ। कविता उनकी समझ में नहीं आई , तो वाहियात लगेगी ही। यह बात वे एक नहीं हर जगह घोषणापूर्वक कहते फिर रहे हैं। उन्हें अधिकार है। हर कविता हर किसी की समझ में नहीं आ सकती। कविता न समझना और उसे वाहियात मान लेना कोई अपराध नहीं है। बहुत से लोग नहीं समझते, लेकिन अपनी नासमझी को छुपाना चाहते हैं। तिवारी जी ऐसा नहीं करते।असहमति के बावजूद मैं उनकी इस बौद्धिक ईमानदारी का कायल हूँ ।

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  18. Sadashiv Shrotriya19 मई 2018, 11:10:00 am

    मैं इस बारे में आपसे पूरी तरह सहमत हूँ कि लोग अब कविता को कविता की तरह पढ़ना और उसका लुत्फ़ उठाना भूलते जा रहे हैं।यह वैसा ही है जैसे अधिकांश भारतीयों का अब भारतीय शास्त्रीय संगीत का आनंद लेने में असमर्थ होते जाना।

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  19. आशुतोष कुमार का विश्लेषण भी उतना ही अच्छा है, जितनी अच्छी ’सेवादार’ कविता ख़ुद है। यह कविता बेहद अच्छी है। तथाकथित एनजीओ संस्कृति पर एक बड़ा व्यंग्य। कैसे इन एनजीओ में काम करने वाले लोग दस लाख रुपए साल का वेतन पाकर भी उसे कम बताते हैं और चालीस पैसे रोज़ की आय का विश्लेषण करके एक रिपोर्ट तैयार करके भेजते हैं ताकि सालाना तीन करोड़ की यूरोपीय ग्राण्ट मिल सके। तीन करोड़ में से उस ग़रीब जनता तक दस-बीस लाख भी मुश्किल से पहुँचते होंगे। इन तीन करोड़ रुपयों में दस-पन्द्रह लोग ही मौज़-मस्ती करते हैं। ग़लत या ख़राब अँग्रेज़ी को लेकर बहस करना बेमानी है। भारतीय मध्यवर्ग की यही भाषा है, जिसका कविता में इस्तेमाल किया गया है। यथार्थ तभी उभरता है, जब भाषा भी यथार्थवादी हो। कुल मिलाकर यह कविता एनजीओ संस्कृति के विरोध में है, और ठीक विरोध कर रही है।

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  20. इस कविता का थोथा विरोध करने वालों को दरअसल कविता की समझ ही नहीं है, चाहे वे कितने भी बड़े कवि क्यों न कहलाते हों और ख़ुद को कितना भी महान् कवि-आलोचक-अनुवादक क्यों न मानते हों। यह विरोध भोथरा है, थोथा है।

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  21. जहाँ तक NGOs का सवाल है, यहाँ लोगों ने उनके बारे में तरह-तरह की बातें कीं। मैंने खुद एक प्रतिष्ठित NGO में 10 साल काम किया है जिसका ज़्यादातर काम आदिवासी गांवों में है। कुछ वर्ष मैं वहाँ सबसे वरिष्ठ व्यक्ति था और मेरा पद एक सीनियर प्रोफेसर के बराबर था। लेकिन जब मैं वहां से रिटायर हुए तब भी मेरी तनखा कॉलेज के एक जूनियर लेक्चरर से भी कम थी। मैं यह नहीं कह रहा कि सभी NGOs में इतनी कम तनखाह होती है। पर ज़्यादातर NGOs में यही स्थिति है। मैं यह भी नहीं कह रहा की सभी NGOs पूरी मुस्तैदी से काम करती हैं पर जहां तक मैं जानता हूँ उनमें से अधिकतर ठीक ढंग से काम करती हैं। दूसरी बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के अनुसार अब सभी संस्थाओं को, जिनमें NGOs भी शामिल हैं, एक समिति बनानी होती है जो इस बात का ख्याल रखती है कि महिलाओं के साथ गलत व्यवहार न हो। इस समिति में 50 % से ज़्यादा संख्या महिलाओं की होती है और इसकी मुखिया भी एक वरिष्ठ महिला ही होती है। इसलिए NGOs में महिलाओं को एक खास तरह से तंग करना उतना आसान नहीं जितना कुछ लोग समझते हैं। इसे विशाखा समिति कहते हैं। पहले किसी ने लिखा कि NGOs समझौतावादी संस्थाएँ हैं, कि ऐसा होने के कारण वे पूँजीवाद को बल देती हैं, बल्कि उसी का हिस्सा हैं, और कि वे समाजवाद लाने के काम में बाधा बनती हैं। इसके जवाब में मैं यही कह सकता कि समाजवाद तो आप ला नहीं सकते, वो पता नहीं कब आएगा। पर आप चाहते हैं कि जब तक वो नहीं आता, तब तक गरीब, आदिवासी और दलित लोगों के लिए कुछ न किया जाए। यदि कोई ऐसा करेगा तो वह पूँजीवाद को बल दे रहा है, उसका मोहरा है। यह एक बड़ा विचित्र तर्क है जिसमे कोई दम नहीं। यहां यह कहना भी ज़रूरी है कि भारत में जबसे वर्तमान सरकार आयी है, वह तरह तरह से अच्छा काम करने वाली NGOs को परेशान कर रही है, उन्हें बन्द करना चाहती है। एक कारण यह है कि ज़्यादातर अच्छी NGOs प्रगतिशील विचार रखती हैं। दूसरा यह कि कई NGOs इस सरकार का भंडाफोड़ करती हैं। यदि सभी NGOs पूँजीवाद का हथियार हैं, तो एक घटिया पूंजीवादी सरकार उन्हें बन्द क्यों करना चाहती है?

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