सबद - भेद : मित्रो मरजानी का मर्म: नंद भारद्वाज













कृष्‍णा सोबती के  लेखन पर समालोचन पर आपने रवीन्द्र त्रिपाठी  का आलेख पढ़ा - 'पहले दिल-ए-गुदाख़्ता पैदा करे  कोई. इसी क्रम में आज प्रस्तुत है नंद भारद्वाज का आलेख – ‘मरजानी मित्रो की मर्म-कथा’.

नंद भारद्वाज ने इस चर्चित उपन्यास पर लेखकों-आलोचकों के मतान्तर को दृष्टि में रखते हुए इस कृति के मन्तव्य को सलीके से उद्घाटित किया है.  

फरवरी  कृष्णा सोबती के जन्मोत्सव का महीना है.



मरजानी मित्रो की मर्म-कथा                  
नंद भारद्वाज





कृष्‍णा सोबती के अधिकांश समानधर्मा रचनाकारों, समालोचकों और हिन्‍दी के बड़े पाठकवर्ग ने जहां अपने समय-समाज में उनकी रचनात्‍मक भूमिका को मुक्‍त मन से सराहा है, वहीं उनके कुछ समकालीन रचनाकारों और भिन्‍न सोच रखनेवाले आलोचकों ने उनके स्‍त्री चरित्रों की वैयक्तिक छवि, उन्‍मुक्‍त आचरण और उनकी बेबाक बयानी पर सनातनी शंकाएं उठाते हुए उन पर मनमाने आरोप भी लगाए हैं. 


मसलन, लेखक-संपादक राजेन्‍द्र यादव को जहां ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में कृष्‍णा सोबती की नारी एक खतरनाक दिशा की ओर मुड़ती दिखाई दी और उन्‍हें यह लिखना जरूरी लगा कि ‘डार से बिछुड़ी’ में आदमी ने औरत को ‘चीज’ की तरह इस्‍तेमाल किया था, यहां औरत आदमी को एक दूसरी दृष्टि से इस्‍तेमाल करती है. (औरों के बहाने, पृष्‍ठ  43) 
वहीं कृष्‍णा सोबती के इन्‍हीं उपन्‍यासों को हवाले में लेते हुए उन पर अपनी तंजभरी टिप्‍पणी ‘कौन-सी जिन्‍दगी कौन-सा साहित्‍य’ में अमृता प्रीतम यह कहती दिखीं कि “आधुनिक हिन्‍दी साहित्‍य के यौन आचरण का एक बड़ा खूबसूरत हवाला कृष्‍णा सोबती के उपन्‍यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ में मिलता है." इसी क्रम में हिन्‍दी कथाकार और लेखक कमलाकान्‍त त्रिपाठी ने ‘दस्‍तावेज’ पत्रिका के अंक 138 में प्रकाशित अपने एक लेख में हिन्‍दी की स्‍त्री कथाकारों में मुक्‍त-यौनवाद का मसला उठाते हुए कृष्‍णा सोबती, मृदुला गर्ग, और मैत्रेयी पुष्‍पा के कुछ उपन्‍यासों की कथावस्‍तु और उनके नजरिये को निशाने पर लेते हुए काफी तीखी टिप्‍पणियां की हैं. 


कृष्‍णा सोबती के दो लघु उपन्‍यासों ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ और ‘मित्रो मरजानी’ के प्रमुख स्‍त्री-चरित्रों की चीर-फाड़ के बहाने उन्‍होंने लेखिका के मंतव्‍य (नीयत) पर ही सवाल उठा दिये हैं.

‘मित्रो मरजानी’ की पूरी कथा की अपनी मनमानी व्‍याख्‍या करते हुए कमलाकान्‍त त्रिपाठी लिखते हैं-  “ऐसे घोर व्‍यक्तिवादी, बल्कि  देहवादी, दांपत्‍य-विरोधी और समाज-विरोधी पात्र को उपन्‍यास का केन्‍द्रीय चरित्र बनाने के पीछे लेखिका का क्‍या मंतव्‍य हो सकता है. अंत के बेहद नाटकीय दृश्‍य का निहितार्थ बहुत गोलमोल है. कोई संकेत नहीं है कि पति को लेकर मां से भय और असुरक्षा का क्षणिक बोध रातों-रात उसमें कोई दिव्‍यांतर ला देता है और वह अपने स्‍वभाव से ऊपर उठकर घर-परिवार के प्रति अनुरक्‍त हो जाती है. इस दृश्‍य को छोड़ दें तो मित्रो में कहीं कोई मानवीय स्‍पंदन नहीं है." (दस्‍तावेज 138, पृष्‍ठ 9) और इसी रौ में उनके दूसरे उपन्‍यास ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ पर ‘सॉफ्‍ट पॉर्न’ की चत्‍ती लगाते हुए अपनी मनोगत व्‍याख्‍या में वे लिखते हैं – “पूरी कथा घोर दैहिकता पर टिकी होने के बावजूद एक अयथार्थ, स्‍वप्निल दुनिया में विचरती है, जहां आर्थिक-सामाजिक विसंगतियां, जीवन की आपा-धापी, ऊहापोह सिरे से गायब है." (वही, पृ 10) और अंत में वही खीझ-भरा निष्‍कर्ष कि “उपन्‍यास स्‍त्री–चेतना और स्‍त्री-विमर्श को एक सूत भी आगे बढ़ाता नहीं लगता." (वही, पृ 11)


जहां तक राजेन्‍द्र यादव और अमृता प्रीतम की टिप्‍पणियों का सवाल है, उन पर महिला एवं बाल कानून के विशेषज्ञ और नारी-लेखन के समाजशास्‍त्रीय अध्‍येता अरविन्‍द जैन ने कृष्‍णा जी के लेखन पर इस तरह की आपत्ति उठाने वालों को अपनी पुस्‍तक ‘औरत : अस्तित्‍व और अस्मिता’ में विस्‍तार से सटीक जवाब दिया है. ऐसे सभी आक्षेपों का तार्किक और शालीन उत्‍तर देते हुए वे लिखते है - “मैं इसे दुर्भाग्‍य ही कहूंगा कि उपन्‍यास को सिर्फ ‘मांसल धरातल’ पर ही पढ़ा और ‘पूजा’ गया. ‘सूरजमुखी अंधेरे के’ मुख्‍य पात्र रत्‍ती के बचपन में बलात्‍कार से जुड़ी कहानी है, जिसमें रत्‍ती एक लंबी लड़ाई लड़ती है. हारती है, पर हार मानती नहीं. हर बार सिर उठा आगे बढ़ती है. रत्‍ती के लिए भविष्‍य वह अंधी आंखोंवाला वक्‍त बना रहा, जिससे रत्‍ती ने कभी साक्षात्‍कार नहीं किया, मगर रत्‍ती का बार-बार सिर उठा आगे बढ़ना देखना ही रत्‍ती की ताकत हैहिम्‍मत है." (औरत : अस्तित्‍व और अस्मिता, पृ 29)

बहरहाल, राजेन्‍द्र यादव और अमृता प्रीतम की टिप्‍पणियों पर अपनी बात फिर कभी. यहां जरूरत फिलहाल इस बात की है कि ‘मित्रो मरजानी’ के संबंध में कमलाकान्‍त त्रिपाठी की इन आपत्तियों को इस कथा-कृति की अंतर्वस्‍तु, मूल संरचना और कृष्‍णा सोबती की कथा-संवेदना के साथ मिलान कर जांचा-परखा जाना चाहिए, ताकि ऐसी भ्रान्त धारणाओं का निराकरण किया जा सके. बेहतर है कि पहले हम इस कथा-कृति की कथावस्‍तु को उसके मूल स्‍वरूप और निहितार्थ में ठीक से जान-समझ लें.  

‘मित्रो मरजानी’ शहरी निम्‍न-मध्‍यवर्ग के काम-काजी परिवार की ऐसी कथा है, जिसमें एक भिन्‍न वातावरण (रमणी की हवेली) में जन्‍मी-पली उन्‍मुक्‍त मिजाज वाली युवती मित्रो के बहू रूप में आ जाने से पारिवारिक वातावरण और घरेलू रिश्‍तों में जो नई स्थितियां और टकराव पैदा होते हैं और घर के बड़े किस तरह संतुलन बनाये रखने की कोशिश करते हैं, यह इसी जद्दोजहद की कहानी है. दिलचस्‍प बात यह है कि यहां खुद मित्रो भी अपने खुले मिजाज के बावजूद उसी बदले हुए वातावरण में ढलने का प्रयास करती है. जिन बातों का उसे अभ्‍यास नहीं है, उन्‍हें  अंगीकार करने का प्रयत्‍न करती है, परिवार और रिश्‍तों की मर्यादा समझने लगती है और इस तरह हिन्‍दी का पाठक पहली बार रूप में एक ऐसे स्‍त्री-चरित्र से रूबरू होता है, जो सामाजिक दायरे में वर्जित समझी जाने वाली दैहिक आकांक्षाओं और बुनियादी मानवीय भाव-वृत्तियों को बहुत सहज ढंग से अभिव्‍यक्‍त करती है. यह उपन्‍यास ऐसे ही घर में रहने-जीने वाले चरित्रों की मार्मिक कहानी के रूप में आगे बढ़ता है. इस घर के सदस्‍य हैं - मुखिया गुरूदास, उनकी पत्‍नी धनवंती, बड़ा बेटा बनवारीलाल, मंझला सरदारीलाल और एक छोटा गुलजारी. तीनों शादीशुदा हैं, जिनकी पत्नियां हैं – सुहागवंती (सुहाग), समित्रावंती (मित्रो) और फूलावंती (फूलां). मित्रो की मां बालो अपनी हवेली और रसूख के भुलावे में इस मध्‍यवर्गीय परिवार में अपनी बेटी मित्रो की शादी करवा तो देती है, लेकिन  जब उसका पति सरदारीलाल इस असलियत को जान लेता है तो पति-पत्‍नी के बीच का रिश्‍ता सहज नहीं रह पाता. उन दोनों के बीच तकरार बढ़ने लगती है और घर का वातावरण अशान्‍त होने लगता है, जिसे घर के बड़े (सास-ससुर, जेठ-जेठानी) किसी तरह संतुलित बनाए रखने का प्रयास करते हैं. 

पति-पत्‍नी के बीच की इसी आपसी तकरार के बाद रात में धीमे स्‍वभाव वाली जिठानी सुहाग देवरानी मित्रो को समझाने का प्रयास करती है तो वह कह उठती है - “जिठानी, तुम्‍हारे देवर सा बगलोल कोई और दूजा न होगा. न दुख-सुख, न प्रीत प्‍यार, न जलन-प्‍यास – बस आए दिन धौल-ध्‍प्‍पा --- लानत मलामत."  फिर एकाएक अपनी ओढ़नी, कुरता और सलवार उतार हंसते हुए सुहाग से बोलती है – “बनवारी कहता है, मित्रो तेरी देह क्‍या, निरा शीरा है शी-रा." इस बात पर सुहाग का चेहरा स्‍याह पड़ जाता है. वह कानों पर हाथ रख कहती है – “हाथ जोड़ती हूं देवरानी, मेरे सिर पाप न चढ़ा." मित्रो को उसी तरह अनावृत्‍त लेटी देख उसके बदन में सुइयां-सी चुभने लगती हैं और सोचती है - ‘इस कुलबोरन की तरह जनानी को हया न हो तो नित-नित जूठी होती औरत की देह निरे पाप का घट है.' कपड़े उतारकर पास बैठी मित्रो अपने हाथों से छातियां ढक मगन हो कहती है – “सच कहना जिठानी, क्‍या ऐसी छातियां किसी और की भी हैं?"  

अपना सिर पीटते हुए सुहाग उसे फटकारती है – “दिन-रात घुलती इस औरत की देह पर तुझे इतना गुमान? अरी, लानत तुझ पर! घर-घर तेरे जैसी काली-मकाली औरतें हैं, उनके तुझ जैसे ही हाथ-पांव हैं, आंखें हैं और यही तुझ जैसी दो छातियां! क्‍या तू ही अनोखी इस जून पड़ी है?” जिठानी का गुस्‍सा देख मित्रो ने हंसते-हंसते लीड़े पहन लिये, जिसे देख सुहाग अपने से ही कहती चली – ‘ऐसा पाप वरत गया है कि डोले में लाई, परणायी बहू के ये हाल-हीले! हे जोतोंवाली देवी, इस घर की इज्‍जत-पत रखना.' फिर मित्रो से कहती है – “देवरानी, तेरी किस्‍मत बुरी थी जो तू आज इन भाइयों के हाथों से बच निकली. मर-खप जाती तो इस जंजाल से छूटती और वे भी सुर्खरू हो जाते ! फिर अचरज से पूछती है – “सच सच कह देवरानी, तू इस राह-कुराह कैसे पड़ी?” 

इस पर मित्रो बेझिझक बोल उठती है – “सात नदियों की तारू, तवे-सी काली मेरी मां, और मैं गोरी-चिटृी उसकी कोख पड़ी. कहती है, इलाके बड़भागी तहसीलदार की मुंहादरा है मित्रो. अब तुम्‍ही बताओ, जिठानी, तुम जैसा सत-बल कहां से पाऊं–लाऊं ? देवर तुम्‍हारा मेरा रोग नहीं पहचानता. --- बहुत हुआ हफ्‍ते पखवारे --- और मेरी इस देह में इतनी प्‍यास है, इतनी प्‍यास है कि मछली सी तड़पती हूं." सुहागवंती फटी आंखों से देवरानी को तकती रहती है, जैसे पहली बार देखा हो, फिर सिर हिला फीके गले से कहती है – “देवरानी, इन भले लोगों को भुलावा दे, तुम्‍हारी मां ने अच्‍छा नहीं किया !” 

इस पूरी कथा में स्‍त्री देह और यौनिकता को लेकर कुल जमा इन्‍हीं संवादों को लेकर सनातनी लोगों में जो कुहराम मचा है, वह वाकई आश्‍चर्यजनक है. वे यह तक मानने को तैयार  नहीं कि दो हमउम्र पारिवारिक स्त्रियों (देवरानी-जिठानी) के बीच अकेले में इस तरह के हंस-बोलों अनैतिक या अस्‍वाभाविक कहना, एक तरह से अपनी कुंद-जेहनी और तंगदिली का ही इज़हार करना है. क्‍या इतने मात्र से मित्रो जैसी नवयौवना ‘निर्लज्‍ज’, ‘कामुक’, ‘कामोद्मादिनी’ या ‘स्‍वैरिणी’ स्‍त्री हो गई? और वह भी उस हमउम्र जिठानी के सामने जो बराबर उसके बेलिहाज बोलों और उन्‍मुक्‍त दैहिक हास-परिहास पर आत्‍मीय लगाव और चिन्‍ता के साथ उसे डांट-फटकार तक लगाने में कोई संकोच नहीं करती.

देवरानी-जिठानी के बीच हुए इस हास-परिहास भरे संवाद के बाद अगली सुबह जब सास धनवंती उन्‍हें यह बताने के लिए जगाती है कि छोटी बहू फूलावंती की तबियत ठीक नहीं, उसके लिए कुछ दवा-पानी का इंतजाम करना है, तो वही पारिवारिक वातावरण फिर से सजीव हो उठता है. यही मुंहफट मित्रो एक संजीदा गृहस्थिन की तरह अपनी सास से कहती है कि उसकी देवरानी बहाने कर रही है, उसे कुछ भी नहीं हुआ, बस घर के बाकी लोगों से उसका तालमेल नहीं बैठ रहा, इसलिए ऐसे हालात पैदा कर रही है. इतना ही नहीं, फूलावंती ने जब सीधे-सरल स्‍वभाव वाली जिठानी सुहाग पर यह आरोप लगाया कि वह उसके गहने दबाए बैठी है तो इस झूठे आरोप के कारण सुहाग के मन को भारी ठेस लगती है. मित्रो सुहागवंती का पक्ष लेते हुए फूलावंती को समझाने का पूरा प्रयत्‍न करती है कि उसकी ऐसी धारणा न परिवार के हित में है और न खुद उसके. जबकि देवर गुलजारी इस विवाद में अपनी बीबी फूलां को कुछ भी समझाने में असमर्थ रहता है. विवाद के दौरान जब परिवार के और लोग बीच में आ गए तो वह सुलझने की बजाय और उलझ गया. परिवार के प्रति ऐसी दूरन्‍देशी और व्‍यापक सोच रखने वाली मित्रो पर अगर कोई ‘घोर व्‍यक्तिवादी और ‘समाज विरोधी’ होने का आक्षेप लगाए तो ऐसी मनोगत धारणा रखने वालों की मानसिकता पर तरस ही खाया जा सकता है.   

उधर मित्रो और पति सरदारी के बीच की तकरार को सुलझाने के लिए घर के मुखिया गुरूदास अपने दोनों बेटों और बहुओं को बुलाते हैं. तकरार की मूल वजह यही थी कि जब मित्रो की पारिवारिक पृष्‍ठभूमि और उसके चाल-चलन को लेकर कुछ अवांछित बातें सरदारी के कानों तक पहुंची तो उसने परिवार में इसकी चर्चा कर दी. बड़े भाई और पिता सचाई जानने के लिए मित्रो से ही इसका खुलासा करना उचित समझते थे, इसी मकसद से जेठ बनवारी ने अपने मां-बाप और छोटे भाई की मौजूदगी में उसी से पूछ लिया – “बहू, मालिक को हाजर-नाजर जान के कह दो कि जो तुम्‍हारे घरवाले ने देखा सुना है वह झूठ है." लेकिन मि‍त्रो ने इसका तुरंत कोई सीधा उत्‍तर नहीं दिया तो थोड़ी तीखी जुबान में वही सवाल फिर दोहरा दिया गया.

आखिर मित्रो ने इस का जवाब कुछ यों दिया – “सज्‍जनो यह सच भी है और झूठ भी. जब और पूछा तो खुलासा करते हुए कहा – “सच तो यूं जेठ जी कि दीन-दुनिया बिसरा मैं मनुक्‍ख की जात से हंस-बोल लेती हूं. (इसमें काहे की लाज-शरम और किस बात की नाराजगी?)  झूठ यूं कि खसम का दिया राजपाट छोड़ मैं कोठे पर तो नहीं जा बैठी?” मित्रो के इस बेबाक उत्‍तर पर गुरूदास की प्रतिक्रिया काबिले गौर थी, जिन्‍होंने बहू की जगह लड़कों को डांटकर कहा - “बोधे जवानो, बेमतलब तिल का ताड़ बना रखा है." जबकि इस पर सरदारी की प्रतिक्रिया कुछ इस तरह की रही. वह चीखकर बोला – “तू छिनालों की भी छिनाल ! आज न माने बापू, पर एक दिन इसके यार और याराने……

इस बात पर मित्रो ने ससुर की ओर उलाहने से ताका और मनुहार से कहा – “सुन लिया न बापू? कोई मां-जाई ऐसी गालियां सुन चुप रहेगी?”

जवाब में गुरुदास ने ही अपने बेटे को फटकारते हुए कहा – “लानत है, सरदारीलाल ! तेरी मत को सधाने का ढंग-अकल नहीं और ऊपर से यह गुनहगारी !

ससुर से ऐसी तरफदारी पाकर मित्रो ने उनके पांव छू लिये और कहा – “पांव पड़ती हूं बापू जी ! आज जो ओट आपसे पाई है, वह मित्रो के लिए सुरगों से बढ़कर है ! कहना न होगा कि इस नये पारिवारिक माहौल में मित्रो के लिए बड़ों की ओट और उनका स्‍नेह कितनी अहमियत रखता है, इसे वही समझ सकता है जो मित्रो जैसी परिवार-सुख से वंचित युवती के प्रति सच्‍ची सहानुभूति रखता हो. 

गुरूदास के बेटे मंडी में व्‍यापार का काम देखते थे. वे बाजार के कर्जे के कारण परेशान थे. उधर छोटा गुलजारी दुकान की जो भी उधारी उगाह कर लाता, वह दुकान के खाते में जमा करने की बजाय खुद ही हजम कर जाता. बनवारी और सरदारी इस बात से परेशान थे. घर में फूलावंती ने अलग तनाव का वातावरण बना रखा था, मित्रो ने बीच-बचाव कर उसे हर तरह से  समझाने की कोशिश की, लेकिन बात नहीं बनी. मित्रो ने जब बाजार के कर्जे के कारण पति के चिंतित होने की बात जानी तो उसने मदद के लिए पेशकश की, अपनी बचत में से पति को कुछ देना चाहा, इस सरदारी ने सवाल किया कि वह कहां से मदद कर देगी? यही सोच कर वह बोला, क्‍यों सिर खपाने बैठी हो, मर्दों के फिकर मर्दों के लिए. तेरे बस का नहीं है." 

मित्रो को बुरा तो लगा, लेकिन अपने पर काबू रख इतना ही बोली – “महाराज जी, न थाली बांटते हो, न नींद बांटते हो, दिल के दुखड़े ही बांट लो."

और जब यह जाना कि उन्‍हें तीन हजार की तुरंत जरूरत है तो अपनी पेटी से निकाल कर पति के सामने कर दिये. सरदारी हक्‍का-बक्‍का देखता रह गया. फिर जब मित्रो से पूछा कि ये धन कहां से आया, तो मित्रो ने सहजता से उत्‍तर दिया – “अम्‍मा के भोले भुलक्‍कड़, आपकी धन्‍नो सास की मैं इकलौती बिटिया हूं." जब सरदारी कुछ और कहने को हुआ तो उसने अपने शरबती होठों से मुंह पर सांकल लगा दी. यह प्रसंग और संवाद अपने आप में मित्रो के चरित्र में आए सकारात्‍मक बदलाव और परिवार के प्रति उसकी जिम्‍मेदारी की भावना को बेहतर ढंग से व्‍यक्‍त करता है. आश्‍चर्य है त्रिपाठी जी के लिए मित्रो के इस पारिवारिक अनुराग और मानवीय गुण की कोई कीमत नहीं !   

कथा में गुरूदास की शादीशुदा बेटी जनको के पहली जचकी के बाद पीहर आने का रोचक प्रसंग है, जो प्रकारान्‍तर से मित्रो के उस चारित्रिक पक्ष को ही उभारता है, जहां एक अलग तरह के माहौल से बहू के रूप में आई मित्रो कितनी सहजता से अपनी ननद के प्रति गहरा लगाव व्‍यक्‍त करती है, जिसे पारिवारिक रिश्‍तों को जीने-बरतने का कोई अनुभव नहीं है. इसी तरह गुरूदास के छोटे बेटे गुलजारी और उसकी तुनक-मिजाज स्‍वार्थी पत्‍नी फूलावंती की अलगाववादी प्रवृत्ति को ही उजागर करती है, जबकि मित्रो फूलावंती को भी समझा-बुझाकर परिवार के साथ बनी रहने की ही सलाह देती है.

मित्रो के समझाने-बुझाने के बावजूद फूलावंती आखिर ससुराल में तनाव के हालात पैदा कर पति के साथ अपने पीहर पहुंच ही गई, जहां उसकी मां ने अपनी बहुओं के सामने पहले ही बेटी के पक्ष में माहौल बना रखा था. लेकिन भाभियां उसकी हकीकत पहले से जानती थीं, पर खुलकर किसी ने कुछ भी नहीं कहा. खुद गुलजारी को भी ससुराल में कुछ दिन गुजारने के बाद अपनी भूल का अहसास हो जाता है, लेकिन उसे तुरंत सुधार लेने का कोई संभव रास्‍ता उसे नहीं नजर आता. यही वह निम्‍नमध्‍यवर्गीय पारिवारिक माहौल है, जिसमें स्त्रियां अपने छोटे-छोटे स्‍वार्थों के लिए आपसी मन-मुटाव, जोड़-तोड़ और खींच-तान में पूरी उम्र गुजार देती हैं.

सास धनवंती को एक सुबह जब रसोई में मित्रो को चूल्‍हा सुलगाते देखती है तो सुखद आश्‍चर्य होता है, क्‍योंकि मित्रो इस तरह के पारिवारिक काम की आदत नहीं थी, लेकिन उसी के मुंह से जब यह जानकारी मिलती है कि उसकी जिठानी सुहागवंती गर्भवती है, ऐसे में चूल्‍हे–चौके के काम में उसका हाथ बंटाना अब जरूरी हो गया है. सास धनवंती मित्रो के मुंह से यह खबर सुनकर फूली नहीं समाती, जा इन शब्‍दों में व्‍यक्‍त होता है - “तेरा ही मुंह मुबारक हो समित्रावंती, तेरे मुंह में घी-शक्‍कर.” और फिर दोनों बहुओं को आशीष देने लगती है.

सुहाग के गर्भवती होने की जितनी खुशी थी धनवंती को, मित्रो और सरदारी की अनबन से उतनी ही चिंतित. वह अपने बड़े बेटे बनवारी को मित्रो की खुशी के लिए उसे उपहार स्‍वरूप झुमके बनवाने का सुझाव देती है, ताकि परिवार में सौहार्द्र का माहौल बना रहे. जब मित्रो को अपने लिए झुमके बनवाने की बात पता लगी तो वह अचरज से भर गई. उसने यही कहा कि यह सब करने की क्‍या जरूरत है, यह तो जेठानी सुहाग के लिए करना चाहिये, जिसकी कोख खुलनेवाली है.

धनवंती ने अपनी मंझली बहू का मन रखने के लिए यह भी सुझाव देती है कि वह दो-महीने अपनी मां के पास रहकर व्रत-उपवास करे, जिससे विधाता खुश होंगे और उसके मन की मुराद पूरी करेंगे. मित्रो को सास का यह सुझाव पसंद आया. वह खुशी से सास के आगे माथा टेक इठलाकर कहती है – ‘बड़ी सरकार, तुम्‍हारा कहा सिर माथे. जो कहोगी, वैसा ही करूंगी. अपने कान्‍त से आनंद पाने महीना-दो क्‍या, मैं पूरे चौबीस पख व्रती रह लूंगी.' 

मित्रो की पीहर रवानगी के बाद सास धनवंती और सुहागवंती के बीच जो दिलचस्‍प संवाद हुआ, उसमें मित्रो के प्रति उनका गहरा लगाव ही प्रकट हुआ है. धनवंती को मित्रो अच्‍छी तो लगती है, लेकिन उसके बेबाक बरताव और इधर-उधर की चर्चाओं के कारण वह तय नहीं कर पाती कि दुनिया जिस तरह उसके बारे में अलाय-बलाय बात करती है, क्‍या उसमें कुछ सचाई भी है? यही बात जब वह अपनी बड़ी बहू से पूछती है तो सुहाग का ईमानदार जवाब होता है – “हम बिचके जन अपनी छोटी बुद्धि से दूसरों के छल-छिद्र, दोष-विचार क्‍या पड़तालें अम्‍मा? खुली-डुली देवरानी एक घड़ी स्‍याह, दूसरी घड़ी सफेद. उसके मन में क्‍या है, वही जाने, पर तन उसके तो ऐसी प्‍यास व्‍यापती है कि सौ घट भी थोड़े."  

सुहाग सास के पूछने पर कहने को तो यह बात कह बैठी, लेकिन उसके मन को तसल्‍ली  नहीं हुई. इसलिए रवाना होती सास को रोककर उसने अपनी बात और साफ करके कहा – “कहने को तो कह बैठी हूं पर एक बात मेरे चित्‍त में आती है अम्‍मा, कि मंझली को तौलने-परखने वाली मैं कौन?” सुहाग की इस निर्मल बात पर धनवंती भी रीझ गई, उस पर ऐसा प्‍यार उमड़ा कि आंखें छलछला आई. उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बोली – “तेरे मन में कोई द्वैत मैल नहीं सुहागवंती, मालिक तुझे बड़े भाग लगाए !” 

घर में मित्रो के व्‍यवहार और घर के प्रति उसके दायित्‍वबोध को लेकर धनवंती और सुहाग ही नहीं, ससुर गुरूदास के मन में भी मित्रो के प्रति गहरा लगाव है. धनवंती से बात करते हुए आखिर उन्‍हें कहना पड़ा – “सच पूछो तो इस घर की रौनक है मंझली बहू! भले बोली-ठोली में तेज-तर्रार, पर उठते-बैठते चहकती-कहकती तो है ! 

मित्रो अपने पति सरदारीलाल के साथ जब अपने पीहर नूर महल पहुंची तो चारों तरफ हलचल-सी मच गई. मित्रो की मां ने बेटी और दामाद का जी खोलकर स्‍वागत किया. दामाद ने भी सास के पांव छुए तो बालो ने आशीष बरसाए. मित्रो और उसकी मां के संवाद इतने बेतकल्‍लुफ और बेबाक कि जैसे दोनों मां-बेटी नहीं कोई सहेलियां हों. तभी तो मित्रो ने मां की ओर हंसकर कहा था – ‘अपने कबूतर से दिल को किस कैद में रखोगी बीबो, यह तो नित नया चुग्‍गा मांगेगा.' और इस पर मां का यह जवाब – ‘तेरी यही शीरीं बातें सुनने को मैं तरस गई मित्रो !' रात को जब वही सास सज-धज कर जमाई को भोजन परोसने बैठी तो ‘सरदारी को मित्रो की मां अपनी सास-सी नहीं कोई धंधेवाली व्‍यापारिन-सी लगी.

मां-बेटी के बेतकल्‍लुफ संवादों को सुनकर सरदारीलाल शर्म से पानी-पानी हुआ जा रहा था – एक दूसरे को उखाड़ती-पछाड़ती ये कैसी मां-बेटियां ! बाहर जाते सरदारी का बांका लाचा देख बालो के मन में जो मरोर उठी तो मित्रो ने आंखों से ही समेट ली और गेंदे के फूल-सी घुटी-घुटी आवाज में बोली – “बीबो, मुझ गरीबनी से क्‍या होड़? तुम्‍हें तो नित नए रास-रंग और मित्रो बेचारी हर दिन अपने इसी एक निठल्‍ले के संग !” 

खसम पर घमंड करनेवाली की बात से बालो के पपोटे जल उठे, पर ऊपर से लाड का फन फैलाकर बोली – “मेरी भोली मित्रो, मुझे तो अंग-अंग प्‍यासी तिरसाई जापती है! अरी, लहर हो तो बुलाऊं तेरी बगीची के लिए कोई माली?”

मित्रो के मुंह पानी भर आया. घरवाले के मान-गुमान सब उड़न-छू हो गए. सजरी आंखें चमकने लगी और ओढ़नी तले दो पंछी मचलने लगे. मां पर आंख गड़ा हौले से कहा – “अह-हय बीबो, तुम्‍हारे मुंह गुलाब. पर घोड़े-से लद्धड़ तुम्‍हारे इस जमाई का क्‍या करूं?” 

बालो ने हमजोलियों की नाईं लड़की को चिकोटी काटी – “ये झमेला तू छोड़ मुझ पर. अरी, तेरी मां खिलाड़िन ने बड़े बड़े बाघ छका डाले ! दरअसल यही वह पारिवारिक माहौल था, जिसमें पलकर मित्रो बड़ी हुई थी और उसकी मां की यही इच्‍छा थी कि उसकी बेटी किसी इज्‍जतदार घर में ब्‍याही तो जाए, लेकिन वहां से इज्‍जत और कुछ सुख-सुविधाएं बटोर कर वापस उसी माहौल में लौट आए.

और फिर इस खिलाड़िन मां ने अपने बुढ़ापे और अकेलेपन से उबरने के लिए बेटी मित्रो को फिर से अपने धंधे में खींच लाने के लिए आखिरी दांव खेला – उसने मित्रो को बना-संवारकर सरदारी लाल के पास इस हिदायत के साथ भेजा कि वह उसे रिझाकर इतनी शराब पिला दे, जिससे वह बेसुध हो जाए. फिर वह उसे अपने जाने-परखे डिप्‍टी बग्‍घा के पास रंगरेलियां मनाने भेज देगी और इस तरह मित्रो वापस उसी के धंधे में लौट आएगी.

मित्रो मां के इस जाल में फंसकर उस ग्राहक के पास जाने ही वाली थी कि अचानक मां बालो का मन पलट गया, उसे यह अच्‍छा नहीं लगा कि ‘जो डिप्‍टी सौ-सौ चाव कर उसकी शरणी आता था, आज वही इस लौंडिया से रंगरेलियां मनाएगा. थू री बालो, तेरी जिन्‍दगी पर !’ और उसने रोने का स्‍वांग कर मित्रो को वापस बुला लिया.

जब मित्रो ने मां से पूछा कि ‘बीबो, खैर तो है? धुर दहलीज से बुला लिया?’ लेकिन बार-बार पूछने पर भी जब बालो कुछ न बोली और रोती रही तो उसी ने फिर दिलजोई की – ‘बीबो, डिप्‍टी अगर तेरा इतना ही प्‍यारा है तो इस घुग्‍घुचिया को क्‍यों उससे मेल-ठेल करने भेजा?’ 

वह बड़ी मुश्किल से इतना ही कह पाई – तेरी मां के जमाने लद गये री मित्ती ! अब कौन उसका मित्र-प्‍यारा और कौन संगी-साथी !

भौंचक्‍की मित्रो ने रुककर कहा – ‘तेरे दिलगारों की गिनती तो सैकड़ों में थी, बीबो!’ इस पर बालो ने रोते हुए कहा – “न न री, अब इस ठठरी ठंडी भट्टी का कोई वाली-वारस नहीं!" वह आख्रिर अपनी मूल बात पर आते हुए लड़की को अपनी ओर खींचकर बोली – ‘बेटी ! अब अकेले छोड़कर मत जाना ! मैं सरदारीलाल को मना लूंगी.‘

अंधेरे में दमदमाते नीले पपोटोंवाले मां के काले चेहरे पर दो चील की-सी आंखें देखीं तो चीख मार मित्रो परे जा छिटकी. - “क्‍यों री, क्‍यों?” गहरा फुंकार भर मां को अपनी ओर बढ़ते देख पहले तो मित्रो की घिग्‍घी बंध गई. फिर जाने किस जोर-जाम से संभली और तड़पकर चीखी – “तू सिद्ध भैरों की चेली, अब अपनी खाली कड़ाही में मेरी और मेरे खसम की मछली तलेगी? सो न होगा बीबो, कहे देती हूं!’ फिर तीर-सी छलांग मार ओसारे से देहरी कुलाची और मां के ठेलते-ठेलते सरदारीलाल वाली बैठक की कुंडी चढ़ा ली.

दिन चढ़े सरदारी ने जब आंख खोली तो पास में लेटी मित्रो ने अपने सैंया के मुंह पर चुम्‍मे जड़ दिये. फिर पूछा – “गिरदौर जी, पिछली रात कहां कहां हुए दौरे, पड़ाव?” सरदारी ने घरवाली को घूरा और सिर पर छोटी-सी चपत दे कहा – “रात तो न कहीं ढुकाव हुआ न पड़ा पड़ाव. बस, बैठ हवा के घोड़े बांटे, कहां की कहां निकल गई !” 

मित्रो ने इतना ही कहा – “मेरे हरमन मौला! यही बीता तुम्‍हारी मित्रो के साथ ! फिर बाहों में अंगड़ाई ली, हाथों को चटखा-मुरका उठ बैठी. सैयां के हाथ दाबे, पांव दाबे, सिर-हथेली होठों से लगा झूठ-मूठ की थू कर बोली – “कहीं मेरे साहिब जी को नजर न लग जाए इस मित्रो मरजानी की !और इसी निर्णायक मोड़ पर पहुंचकर कृष्‍णा सोबती ने अपनी इस कथा को विराम दिया, जहां से उनके जीवंत चरित्र मित्रो की मुख्‍य धारा के सामाजिक जीवन में लौटने की साध पूरी होती है और यहीं से एक स्‍त्री की सहज जीवन-यात्रा आरंभ होती है.

कितनी विचित्र बात है कि कृष्‍णा सोबती ने जिस गहरी मानवीय दृष्टि से यौन-व्‍यवसाय से जुड़ी एक स्‍त्री की कोख से पैदा हुई और उसी माहौल में पली-बढ़ी उन्‍मुक्‍त स्‍वभाववाली युवती की वैयक्तिक उूर्जा और उसके मानवीय गुणों को उभारते हुए उसे एक मध्‍यवर्गीय परिवार की जिम्‍मेदार बहू के रूप में चित्रित किया है, और जो विषम परिस्थितियों से संघर्ष करते हुए हर कदम पर अपने सास-ससुर, जेठ-जिठानी और परिवार के सदस्‍यों से गहरा लगाव अनुभव करती है, कमलाकान्‍त त्रिपाठी को उसमें कोई ‘मानवीय संवेदन’ ही नहीं दिखाई देता. कहीं ऐसा तो नहीं कि मानवीय संवेदन देखने की यह दृष्टि ही किन्‍हीं और कारणों से बाधित हो गई हो. 


कृष्‍णा जी की व्‍यापक मानवीय दृष्टि की खूबी यह है कि वे सामाजिक दृष्टि से बुरा या वर्जित समझे जाने वाले किसी कर्म में परिस्थितवश घिरे इन्‍सान से घृणा नहीं करतीं, बल्कि उसे उस परिस्थित से उबारने में सभी से सहयोग की अपेक्षा करती हैं, जो स्‍वयं उबरने के लिए संघर्ष करता है, उसका हौसला बढ़ाती हैं और अपनी सर्जना में ऐसे संघर्षशील चरित्रों को बल प्रदान करती हैं, जिन पर कलम चलाने से सनातनी लेखक संकोच करते हैं. मित्रो ऐसा ही जीवंत चरित्र है, जिसकी मां देह-व्‍यापार में मुब्तिला थी. जो मां अपनी बेटी को एक सोची-बूझी चाल के तहत ऐसे मध्‍य-वर्गीय परिवार में ब्‍याह कर उसे वापस अपने धंधे में खींच लाने की कामना रखती है, यह मरजानी मित्रो की अपनी हूंस, विवेक और सूझ-बूझ का ही परिणाम रहा कि वह उस दुष्‍चक्र से उबरकर एक जीवंत चरित्र के रूप में विकसित हो सकी. निश्‍चय ही इस अर्थ में मित्रो की मर्म-कथा को कृष्‍णा सोबती ने जिस मनोयोग से रचा है, वह अपने आप में अनूठी उपलब्धि है.  
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नंद भारद्वाज
1/247, मध्‍यम मार्ग
मानसरोवर, जयपुर – 302020
Email : nandbhardwaj@gmail.com

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  1. नंद भारद्वाज जी को धन्यवाद कि उन्होंने उद्धृत किया. आपको भी धन्यवाद कि टैग करके ध्यान दिलाया. शिकायत इतनी ही कि नंद जी ने मेरे द्वारा उठाए गए बिंदुओं का समग्र आलेख के आलोक में कोई अकादमिक समाहार देने के बजाए व्यक्तिगत क्षमता और नीयत पर सवाल उठाकर किनारा कर लिया. अस्तु, बहुत ध्यान से उनका आलेख पढ़ने के बाद मैं अपने को वहीं पाता हूँ, जहाँ था. किंतु उनके भिन्न मत का आदर करता हूँ. समय और अवसर हो तो असहमति के कारणों के अकादमिक विस्तार में जाया जा सकता है. किंतु कभी, किसी भी सूरत में उनकी क्षमता और नीयत पर सवाल नहीं उठाऊँगा. तथ्यों को लेकर भूल हो सकती है किंतु आवश्यक नहीं कि सभी मस्तिष्क उन्हीं तथ्यों को एक-सी रोशनी में देखें और एक-सा निष्कर्ष निकालें. और न निकालें तो उनकी क्षमता और नीयत में खोट हो. मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ, बशर्ते वे दोनों आलेखों का सम्पूर्णता में और संदर्भित रचनाओं के साथ मुक्त पाठ करें.

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    1. जहाँ तक मैं समझता हूँ सोबती जी ने केवल एक स्त्री पक्ष को उभारा है ,और वो है सैक्स ।नायिका कोई अपराध बोध करती प्रतीत नही होती सिवाय अपने अंधकार पूर्ण भविष्य से डरने के सिवाय। वो शारीरक प्यासी स्त्री अपनी मां के बुलाने पर वापिस आती है।,और 'ठंडी ठठरी'को जीने वाली एक औरत दूसरी को ठंडी ठठरी होने से बचा लेती है। कहानी के अंत मे प्यास पर परिवार हावी हो जाता है । सामाजिक मर्यादा का रक्षण लेखिका के द्वारा कर लिया जाता है।

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  2. मित्रो मरजानी अद्भुत मनोवैश्लिक उपन्यास है एक महिला की कामनाओं का सम्मान होना जरूरी है पुतली की तरह उसकी कामनाओं से छेड़छाड़ उसे किस स्थिति तक ले जा सकता है कृष्णा सोबती ने इसे बहुत ही मार्मिक ढ़ंग से उकेरा है।

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  3. रचना गहरा समुद्र है जिसमें मोती भी हैं तो कंकड़ पत्थर भी हैं जिसकी जो चाहत उसे वही मिल जाता है

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  4. चाहत का असर तो निश्चित ही पड़ता है और वह जुदा-जुदा भी होती है। लेकिन रचनाएं भी सब एक-सी नहीं होतीं। किन्हीं में कंकड़-पत्थर नहीं होते या कम होते हैं। और मोती भी सब में नहीं मिलते। सब धान बाइस पसेरी नहीं जा सकता। तब तो पूर्ण अराजकता हो जाएगी और उम्दा और घटिया का फर्क ही खत्म हो जाएगा। किसी के बारे में सार्थक ढंग से कुछ कहा ही नहीं जा सकेगा। असल सवाल है, अंतिम रूप से तय कौन करेगा। सब अपने-अपने लिए, या उनके दिए गए तथ्य और तर्क के गुणावगुण पर विवेचना से कुछ सार्वभौम निकल सकता है। वैसे विद्वान समीक्षक कुछ भी लिखें, हर पाठक तो स्वायत्त ही रहेगा।

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  5. Satik vivechna.nice to read.

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  6. Laxman Singh Bisht Batrohi22 फ़र॰ 2018, 8:16:00 am

    पचास साल पहले पढ़े इस उपन्यास की आत्मीय चर्चा ने उस साहित्यिक राजनीति को बेनकाब किया है जिसने हिंदी के जातीय गद्य को हाशिए में धकेल दिया।

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  7. कृष्णा सोबती कृत मित्रो मरजानी की शिल्पगत तथा समीक्षा के बारे में जानकारी है तो मुझे भेजिए

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