परख : लेखक का सिनेमा (कुँवर नारायण) : आशुतोष भारद्वाज




















‘बढ़ती हुई व्यावसायिकता और स्पर्धा
से जो अभी भी बचे हुए हैं
उनको समर्पित’

-          कुँवर नारायण

कुँवर नारायण हिंदी के जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े वह फिल्मों के आलोचक होंगे, यह मान लेना ज्यादती होगी. एक सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व  की रूचि और गति के वृत्त में साहित्य, सिनेमा, संगीत आदि होते ही हैं.  ‘लेखक का सिनेमा’  कुँवर नारायण की एक ऐसी ही कृति है जिसमें १९७६ से लेकर २००८ तक के लिखे उनके लेख शामिल हैं,जिसका सुरुचिपूर्ण संपादन कवि गीत चतुर्वेदी ने किया है.  ज़ाहिर है इससे कवि के ‘अंतर्ध्यान’प्रवाह’ का पता तो चलता ही है, उनके कवि को समझने में मदद भी मिलती है.

आशुतोष भारद्वाज का लेखन हिंदी की उस रूढ़ और मुखापेक्षी तथाकथित आलोचनात्मक  लेखन से अलहदा है जो आलोच्य कृति में सबकुछ खोज़ लेता है और एकतरफा बयाँ में घिरकर अप्रमाणिक बन जाता है.  इस कृति की परख वह सिनेमा की शर्तों पर करते हैं.



संकोची समीक्षक का सिनेमा                                      
आशुतोष भारद्वाज





ब कोई पाठक किसी वरिष्ठ कवि की किताब के पास जाता है जिसका नाम लेखक का सिनेमा है तो सहज ही यह उम्मीद बनती है कि यह किताब उस कवि के सिनेमा से सम्बन्ध को बतलाएगी और यह भी कि सिनेमा ने किस तरह उसकी लेखनी को प्रभावित या समृद्ध किया. चूँकि तमाम मशहूर फिल्मकारों ने विख्यात कहानियों और उपन्यासों पर फिल्में बनायीं है, पाठक को उम्मीद होती है कि यह किताब, जो उस वरिष्ठ रचनाकार के जीवन के अंतिम वर्ष में आयी है और जिसमें तमाम फिल्मकारों का जिक्र है, कला की एकाधिक विधाओं को समेटते हुए एक विरल रचनात्मक दस्तावेज होगी. एक ऐसा दस्तावेज जिसके पन्नों में पाठक गहरी फिल्म आलोचना से रूबरू होगा, यह हासिल करेगा कि किस तरह कोई फ़िल्मकार किसी कृति से इस कदर चमत्कृत हो जाता है कि वह उस कथा को कैमरे की आंख से देखना चाहता है. साथ ही वह पाठक यह भी देख सकेगा कि वह कवि अपने रचनाकाल के किस मोड़ पर कौन सी फ़िल्में देख रहा था, उसके शब्दों में, उसकी कविताओं की पंक्तिओं में कौन सी फिल्मों के किन किरदारों की परछाईं उतर आयी थी.

कुँवर नारायण की लेखक का सिनेमा के साथ लेकिन यह उम्मीदें अधूरी रह जाती हैं. युवा लेखक गीत चतुर्वेदी द्वारा सम्पादित दो खण्डों में विभाजित इस किताब के पहले भाग में उन लेखों, फिल्म समीक्षाओं और फिल्म महोत्सवों की रपटों का संकलन है जो कुँवर नारायण ने कभी पत्र-पत्रिकाओं के लिए लिखीं थीं. दूसरे खंड में आठ पाठ हैं, जिसमें एक के सिवाय सभी सत्यजित राय पर केन्द्रित है.

सबसे पहले पहला खंड. इसमें लेखक और उसकी लेखनी का सिनेमा के साथ सम्बन्ध का कोई खास उल्लेख नहीं है, कुछेक अंशों को छोड़कर सिनेमा विधा या चुनिन्दा फिल्मों की आलोचना या गहरा विश्लेषण भी नहीं है, यह निरा समीक्षाई लेखन है जो अमूमन अपने विषय से सम्बंधित सिर्फ कुछ तथ्यों को जुटा देने में ही चुक जाता है. यह लेखक का नहीं, बहुत हद तक समीक्षक का सिनेमा है. इन रपटों का बहुत बड़ा हिस्सा इस तरह की जानकारी में खप गया है कि किस साल, कहाँ कौन सी फ़िल्में दिखाई गयीं, कौन निर्देशक और कौन किरदार थे. कुछेक स्थलों के सिवाय यह किताब सिनेमा के बारे में समझ नहीं सूचना देती है, अंतर्दृष्टि नहीं जानकारी देती है. इसकी भाषा एक कवि की नहीं किसी अखबारी समीक्षक की नजर आती है जहाँ संवेदना लगभग अनुपस्थित है.

मसलन सलाम बॉम्बे पर धर्मयुग के लिए उनकी यह समीक्षा जो फरवरी १९८९ में छपी थी. सलाम बॉम्बे में कथ्य को कथानक से ज्यादा महत्व दिया गया है...वृत्तचित्र शैली इसलिए इस फिल्म पर अपनी पक्की छाप छोडती है. इस मामले में मीरा नायर के वृत्तचित्रों के उनके पिछले अनुभव उनका अच्छा साथ देते हैं. कहानी को शायद इसलिए भी गौण रखा गया है कि विषय की गंभीरता ज्यादा उभर सके. फिल्म में जगहों और लोगों का भी न केवल विश्वसनीय विवरण है, दोनों के बीच अनिवार्य रूप से चलती रहने वाली अंतर्प्रक्रियाओं को भी सटीक बिम्बों और प्रतीकों द्वारा व्यक्त किया गया है. प्रत्येक द्रश्य व प्रसंग अपने आप में एक सम्पूर्ण वक्तव्य भी लगता है और फिल्म की पूरी योजना में एक मजबूत कड़ी भी. टूला गोयनका द्वारा इस फिल्म का सम्पादन कुशलतापूर्वक किया गया है. कृष्णा, सोलासाल और मंजू की कोमल भावनाएं जिस कठोरता से बार-बार टकराकर आहट होती हैं, उसका दृश्य-संयोजन बहुत अर्थपूर्ण ढंग से किया गया है.

क्या उपरोक्त अंश कहीं से यह गुमान कराता है कि यह किसी फिल्म-आलोचक या फिल्म रसिक ने लिखा है? कथ्य को कथानक से ज्यादा महत्व”,  “जगहों और लोगों का विश्वसनीय विवरण”,  अर्थपूर्ण दृश्य-संयोजन जैसी सूखी, रंगहीन और झुर्रीदार पदावलियाँ किसी अखबारी पत्रकार को भले जंचे, एक कवि की कलम से उतरी नहीं लगतीं.

श्याम बेनेगल की फिल्म त्रिकाल पर वे लिखते हैं:  बेनेगल की त्रिकालमें कुछ बहुत अच्छे प्रसंग हैं और कुछ उतने ही ख़राब और कमजोर प्रसंग भी. गोवा की पृष्ठभूमि पर पुर्तगाली वातावरण का रंग-रोगन एक अतीत की याद दिलाता है, लेकिन अगर त्रिकालका मतलब उस अतीत तक ही सीमित रह जाना नहीं था, तो यह फिल्म वर्तमान या भविष्य के लिए कोई बहुत उद्देश्यपूर्ण संकेत नहीं देती. आजादी के लिए लड़ाई के आदर्श को जरुर बीच-बीच में डाल दिया गया है... एक नयी तरह की फिल्म होते हुए भी बहुत सफल या सशक्त फिल्म नहीं कही जा सकती.

इसी तरह एक अन्य लेख में यह वाक्य --- जज की भूमिका में प्रसिद्द अभिनेता फीलीप न्वारे का अभिनय अपनी स्पष्टता और सादगी से आकर्षित करता है.

और इस किताब के पहले लेख सात फ्रेंच फ़िल्में का यह अंश: क्लोद सोते की फिल्म विन्सेन्त, फ्रांस्वा, पॉल एंड अदर्सकुछ पात्रों तथा उनके अन्तर्सम्बन्धों को केंद्र में रखकर मनुष्य के जटिल आपसी रिश्तों की छानबीन प्रस्तुत करती है. व्यापार में अचानक घाटा, ऋण की समस्या, मदद की जरूरत, वैवाहिक सम्बन्ध की असफलता आदि अनेक व्यावहारिक प्रसंगों को छूते हुए भी फिल्म एक कलात्मक सौष्ठव और बारीकी बनाये रखती है.

अच्छे प्रसंग”, “कमजोर प्रसंग”, “वर्तमान या भविष्य के लिए कोई बहुत उद्देश्यपूर्ण संकेत नहीं देती”, अभिनय की स्पष्टता और सादगी”, “मनुष्य के जटिल आपसी रिश्तों की छानबीन प्रस्तुत करती है” ---- यह निपट समीक्षाई भाषा है जो हफ्ते का कॉलम भरने के लिए लिखी गयी प्रतीत होती है. यह लगभग बुझे हुए शब्दों में अपने को कहती है जिसमें ताप है न आंच.

समीक्षा का निश्चित ही महत्व है, मसलन लेखक का सिनेमा किताब पर यह लिखत भी खुद एक समीक्षा ही है, किसी आलोचना होने के मुगालते में नहीं है, लेकिन यह लिखत अपने को लेखक का सिनेमाया सिनेमा विमर्श जैसे भारी विश्लेषणों के तले लाने से न सिर्फ परहेज करेगी, बल्कि यह भी स्पष्ट बतलाएगी कि यह एक किताब पर एक पत्रिका के लिए लिखी गयी काम-भर की, तात्कालिक पढ़त हेतु महज समीक्षा थी, अरसे बाद भी पढ़े जाने वाली आलोचना होने का स्वप्न कतई नहीं देखती थी.
कुँवर नारायण

कुँवर नारायण की किताब सतह से थोड़ा ऊपर तब उठती है जब वे सिनेमा में गहरे उतरते हैं (ऐसे प्रसंग बहुत अधिक नहीं हैं), मसलन जब वे यूरोपीय सिनेमा की तुलना अमरीकी और लैटिन अमरीकी सिनेमा से करते हैं:

आज भी यूरोप के राजनीतिक मन पर हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन का भूत मंडरा रहा है. इस दहशत को हम बराबर उनकी फिल्मों में पाते हैं. कभी द्वितीय महायुद्ध की यादों के रूप में तो कभी तृतीय महायुद्ध की सम्भावना के रूप में...अमेरिकी फिल्मों में अगर आतंक का शोर है तो यूरोपीय फिल्मों में उसकी आत्मा को कंपा देने वाली वाली ठंडी सिहरन.

बुनुएल ( स्पेनिश फ़िल्मकार लुई बुनुएल) और साउरा (स्पेनिश फ़िल्मकार कार्लोस साउरा) की फिल्मों में अगर गहरी अंतर्द्वन्दात्मकता, आत्मनिरीक्षण, विक्षोभ और लगभग एक अपराध बोध -सा व्याप्त लगता है, तो लातीनी अमेरिकी फिल्मों में उसके बरक्स एक क्रुद्ध प्रदर्श्नात्मकता दीखती है. ब्राजील, क्यूबा, आर्हेंतीना, मिस्र आदि देशों की फिल्मों में एक स्पष्ट प्रतिहिंसात्मक उग्रता है --- लगभग जुलूसी उग्रता...इन फिल्मों में वैसा आत्मनिरीक्षण नहीं, जो अपनी गुलामी के ऐतिहासिक कारणों को बाह्य के साथ-साथ अपने भीतरी सन्दर्भों से भी जोड़े.

बहुत कम और सधे शब्दों में वे दक्षिणी अमेरिकी फिल्मों की अस्तित्वगत समस्या को रेखांकित कर देते हैं. इसी पाठ में वे यूरोप के महान फिल्मकारों की राजनीतिक चेतना को भी बारीकी से उकेर देते हैं.

गोदार, एन्जेलोपुलोस, कोस्ता-गावरास की राजनीतिक फिल्मों की त्वचा ऊपर से अपेक्षाकृत स्थिर रहते हुए भी गहरे राजनीतिक इरादों, आशयों और मानसिकताओं की पेचीदगी और आतंक की कला है. उनमें उपरी उथल-पुथल की अतिनाटकीयता या मेलोड्रामा भले ही न हों, परन्तु भीतर-भीतर चलने वाले महाभारत का जो विकट आभास है, वह न केवल आदमी के निजी व सामूहिक मनोविज्ञान, बल्कि सीधे उन कारणों तक जाता है, राजनीति जिसकी एक शाखा है. वे राजनीति के नाटक को जिंदगी के नाटक से बड़ा नहीं मानते, उसी का एक हिस्सा मानते हैं. रूसी फ़िल्मकार आंद्रेई तारकोवस्की पर उनकी टिप्पणियां इस किताब के बेहतरीन अंशों में है. उनके पात्र विचारों के वाहक की तरह ठोस नहीं लगते, विचारों के भोक्ता की तरह उन्हीं में घुले हुए लगते हैं. इसलिए शायद तारकोवस्की की फिल्मों को सिर्फ देखना नहीं, एक किताब की तरह पढना, समझना और व्याख्यित भी करना पड़ता है --- तभी हम उनके उस एकांत चिंतन में हिस्सेदारी बरत पाते हैं....तारकोवस्की की फ़िल्में खुली जगहों से भरी पड़ी हैं और कितना अजीब है यह अनुभव कि यह खुलापन भी कभी तो एकदम संकुचित और दमघोंटू हो जाता है और कभी इतना उदात्त और सरल.

उनकी प्रसिद्धि के साथ कोई धूमधाम, भीड़भाड़ नहीं जुड़ी है --- एक अनुत्तेजिक, एकान्तिक गरिमा है --- लगभग एक निष्कासित मन की उदासी लिए.

क्या उपरोक्त अंश की ध्वनियाँ और त्वचा पिछले उदाहरणों से एकदम अलहदा सुनाई और महसूस होती हैं? अगर हाँ, तो जैसाकि कहा यह लेखक के अपेक्षाकृत बेहतर अंश हैं. लेकिन इसके साथ ही यहाँ तारकोवस्की की आत्मकथा स्कल्पटिंग इन टाइम के इन अंशों पर ध्यान देना ठीक रहेगा: महान कलाकृतियाँ अपने नैतिक आदर्शों को अभिव्यक्त करने के लिए कलाकार के भीतर चलते संघर्ष से जन्म लेती हैं. उसकी संवेदनाएं और प्रत्यय निश्चय ही इन्हीं आदर्शों द्वारा रेखांकित होते हैं.  अगर वह जीवन से प्रेम करता है, वह अपने भीतर इसे समझने, बदलने, बेहतर बनाने की घनघोर जरुरत महसूस करता है...तब उसकी रचना अनिवार्यतः एक आध्यात्मिक कर्म होगी जो मनुष्य को अधिक सम्पूर्ण बनाने की हसरत लिए रहेगी: सृष्टि की एक ऐसी छवि जो हमें अनुभूति और विचार के समन्वय व अपने संयम और कुलीनता द्वारा सम्मोहित करेगी.
क्या फ़िल्मकार तारकोवस्की का गद्य कुँवर नारायण के उन पर लिखे शब्दों से कहीं बड़े धरातल पर स्थित नहीं है? इसकी क्या वजह है? इसकी चर्चा थोड़ी देर में. 


***
कुँवर नारायण के साथ समस्या यह है कि दुनिया भर की फिल्मों के रसिक दर्शक होने के बावजूद (उनकी किताब उनके सिनेमा प्रेम को पुरजोर बतलाती है) वे फिल्म समीक्षा विधा में कोई हस्तक्षेप करते नहीं दिखाई देते. फिल्म के तमाम तकनीकी पक्ष मसलन कैमरे का कोण, संगीत, सम्पादन इत्यादि का विश्लेषण लगभग नहीं हैं.

हिंदी अख़बार-पत्रिकाओं में समीक्षा की स्थिति अमूमन दयनीय रही है. किसी फिल्म या उपन्यास पर लिखते वक्त समीक्षक अक्सर उसकी कहानी सुना देते हैं, एकदम घिस चुके शब्दों में दो-चार मरियल टिप्पणियां बेबस-से स्वर में कर देते हैं. कुँवर नारायण की किताब बतलाती है कि उस समय की बड़ी पत्रिकाओं मसलन सारिका, घर्मयुग इत्यादि के बड़े संपादकों ने उन पर भरोसा किया था. वे कलकत्ता, हैदराबाद, दिल्ली इत्यादि तमाम शहरों में हो रहे अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में जाकर फिल्म देख रहे थे, उन पर रपट लिख रहे थे. कुँवर नारायण के पास यह अवसर था कि वे फिल्म पत्रकारिता में एक बड़ा हस्तक्षेप कर जाते, लेकिन ऐसा नहीं होता.

यहाँ यह भी जोर देना चाहिए कि अखबार या पत्रिका की रपट अपने में कोई कमतर या कमजोर लेखन नहीं है. यहाँ चुनौती यह है कि आपको रातोंरात ही लिख देना है, किसी कृति के मर्म को बींध देना है. अगर इस चुनौती के समक्ष अमूमन लेखक धराशायी हो जाते हैं, तो कुछ बड़ी प्रतिभाओं के प्रतिमान भी हमारे सामने हैं. मसलन रिचर्ड बार्थलोम्यु (कला), जे स्वामीनाथन ( कलाकारों पर लिखी समीक्षाएँ), नेमिचन्द्र जैन (रंगमंच), शामलाल (किताबों और लेखकों पर समीक्षा) इत्यादि. असल मसला यह है कि आप इस "तात्कालिक लेखन को बरतते कैसे हैं.


जब कुँवर नारायण की यह समीक्षाएं तीस-चालीस साल पहले प्रकाशित होती होंगी तब निश्चय ही इनका उन अख़बार-पत्रिकाओं के पाठकों के लिए महत्व रहा होगा कि इन्टरनेट-विहीन दौर में यह उस दौरान चल रहे फिल्म महोत्सवों से पाठक को परिचित कराती होंगी. लेकिन आज इनमें से कई सारी रपटों का महत्व अमूमन ऐतिहासिक ही है कि यह एक बड़े रचनाकार का पुराना लेखन है. लेकिन सभी लिखा तो सहेजने योग्य शायद नहीं होता. काफी सारी लिखत भूल जाने या पीछे छोड़ कर आगे बढ़ जाने के लिए होती है.

किसी वरिष्ठ रचनाकार से यह अपेक्षा बेमानी नहीं थी कि उम्र के नवें दशक में जब वे अपनी पिछली लिखत को समेटने बैठेंगे तो अपने हरेक लिखे शब्द को शायद किसी संकलन में शामिल करने से थोड़ा संकोच करेंगे. इसमें से आधे को भी अगर शामिल नहीं किया होता तो शायद कुछेक सूचनाओं में भले कमी आई होती, मसलन यह कि किस वर्ष कौन सा फिल्म महोत्सव हिंदुस्तान के किस शहर में हुआ और कौन सी फ़िल्में वहाँ दिखाई गयीं, लेकिन फिल्मों की समझ के बारे में कोई खास फर्क नहीं पड़ता, बल्कि किताब कहीं मुकम्मल और मजबूत होती.
सत्यजित राय

जब हम पहले खंड को पार कर दूसरे में पहुँचते हैं तो उम्मीद फिर जागती है कि चूँकि यहाँ अखबारी रपटों के बजाय लेखक के डायरी अंश और निबंध है, और चूँकि लेखक की सत्यजित राय के साथ मित्रता थी, वे शतरंज के खिलाड़ी के फिल्मांकन के दौरान राय के साथ थे, इसलिए अब हमें एक महान फ़िल्मकार के काम के बारे में अंतर्दृष्टि हासिल होगी. दो बड़े कलाकारों यानि एक कवि और एक फिल्मकार के आपसी संवाद की अंतर्ध्वनियां सुनायीं देंगीं. लेकिन यह उम्मीद भी पूरी नहीं होती. यह खंड पहले से थोड़ा बेहतर है, लेकिन कई जगहों पर कुँवर नारायण राय के सिनेमा के बारे में वही परिचित बातें दोहराते दीखते हैं, मसलन यह वाक्य: गहरी भावनाओं के चित्रण में राय लगभग सटीक हैं और उन्हें चरित्रों व चेहरे को पढने में अचूक महारत हासिल है.

उनकी डायरियां और संस्मरण राय के जीवन में गहरे उतरते नहीं दिखाई देते. वे पर्याप्त संकेत तो देते हैं अपनी करीबी का, मसलन किस तरह राय पत्रों के जवाब खुद ही लिखते थे और अंत तक उनकी लिखावट आश्चर्यजनक रूप से दृढ़ और सधी हुई थी”; एक मर्तबा जब सईद जाफरी के कहने पर कुँवर नारायण को डबिंग के दौरान कमरे से बाहर आना पड़ा तो सत्यजित राय ने कलकत्ता पहुँच कर उन्हें पत्र लिख इस घटना पर अपना क्षोभ प्रकट किया”. कुँवर नारायण यह तो बतलाते हैं कि उनके घर पर राय के साथ लम्बी, विविध और बहुत ही रोचक बातचीत होतीं थीं लेकिन उन रोचक और विविध रंगों को उजागर नहीं करते.

क्या यह संकोच कुँवर नारायण का स्वभाव है? मसलन उनकी किताब दिशाओं का खुला आकाश जो कहने को तो लेखक की डायरियों का संकलन है लेकिन यह किताब लेखक के अंतर्द्वंदों से लगभग अछूते गुजर जाती है, जिसकी किसी डायरी से अमूमन अपेक्षा होती है. कलाकार का यह संकोच जीवन में निश्चय ही बड़ा मूल्य है, लेकिन अगर यह संकोच उसके लेखन की अंतड़ियों, मांसपेशियों और धमनियों में उतर कर बहने लगता है तो इसकी वजह से अक्सर लेखक उन दरवाजों के भीतर जाने से हिचक जाता है जहाँ से कला का तिलिस्म शुरू होता है. क्या कुँवर नारायण के साथ यही होता है? क्या उनकी संवेदनात्मक बुनावट में, भाषा के प्रति उनके बर्ताव में कुछ ऐसा अन्तर्निहित है कि सिनेमा के प्रति प्रेम के बावजूद, कवि दृष्टि की उपस्थिति के बावजूद उनके शब्द बीच रास्ते में ही ठिठक जाते हैं

मसलन पहले खंड में वे एक जगह संकेत देते हैं कि सिनेमा और टीवी  ने उपन्यास की विधा को परिवर्तित किया है, आगे जोड़ते हैं कि साहित्य और सिनेमा के संबंधों को एकतरफा न मानकर आपसी मानना मुझे ज्यादा ठीक लगता है”. वे लेकिन इन आपसी संबंधों को नहीं टटोलते कि किस तरह सिनेमा ने साहित्य को सींचा है, अपने निशान शब्दों की देह पर अंकित किये हैं.

उनकी शक्ति वहाँ दिखती है जब वे राय की बारीक़ और सटीक आलोचना करते हैं. मसलन जाति प्रथा पर प्रेमचंद की कहानी सद्गति पर राय की बनायी फिल्म पर वे लिखते हैं - हमारे राजनीतिक व सामाजिक रूप से विभाजित जीवन में इस समस्या की इतनी विविध व बनैली जटिलताएं विद्यमान हैं कि उनके सामने सद्गतिएकायामी लगती है...(यह फिल्म) अपेक्षाओं पर पूरी खरी नहीं उतर पाती, इसलिए नहीं कि यह समस्या अब यथार्थ जीवन में नहीं रही, बल्कि इसलिए कि समस्या जितनी बड़ी होगी, उसे गल्प या किंवदंती में तब्दील हो जाने से बचाने की कोशिशें भी उतनी बड़ी होनी चाहिए”.

एक अन्य जगह वे लिखते हैं: पाथेर पांचाली या अपूर संसार में राय के गुण जितने विलक्षण जान पड़े हैं, दूसरी फिल्मों में जहाँ फिल्म का विषय एक अलग किस्म की छवियों की आक्रामकता की मांग करता हो, वहाँ वह उतना सफल नहीं हो पाते. छवियों व दृश्यों का क्रम आपस में टकराता नहीं, उनमें कोई विस्फोट नहीं होता, बल्कि यह क्रम सिर्फ प्रतीक्षा करता है. अशनि संकेतऔर जन अरण्यमें भी राय उस सटीक फॉर्म की खोज  नहीं कर पाए हैं, जो उनके विषय के लिए अनिवार्य था.

अगर यह बेबाकी उनके स्वर में सर्वव्याप्त रही होती तो यह किताब कहीं बड़ी और महत्वपूर्ण हो सकती थी. साहित्य और सिनेमा के संबंधों पर एक अच्छा पैराग्राफ इसी खंड में है: कई फिल्मकारों के लिए प्रेमचंद पराभव की भूमि साबित हुए हैं, या शायद इसलिए कि एक साहित्यिक महाकृति दूसरे कला माध्यम में पहुँचने के प्रति थोड़ा कम सहनशील होती है. यह एक महाकृति को एक दूसरी भाषा की एक दूसरी कला में अनुवाद करने जैसा है. मूल जितना मजबूत होगा, उसका अनुवाद या पुनर्सृजन उतना ही मुश्किल होगा.

लेकिन यहाँ यह देखना भी ठीक होगा कि उनके प्रिय फ़िल्मकार ने साहित्य और सिनेमा के अंतर्संबंध पर क्या लिखा था, जिसके जरिये कुँवर नारायण के गद्य की भी पड़ताल हो सकेगी. तारकोवस्की स्कल्पटिंग इन टाइम में लिखते हैं:

हरेक गद्य रचना स्क्रीन पर रूपांतरित नहीं हो सकती. कुछ कृतियों में एक सम्पूर्णता का भाव होता है, वे एक मौलिक और अचूक साहित्यिक छवि से अभिसिंचित होती हैं; इनके किरदार अतल गहराइयों के भीतर रचे जाते हैं; रचना अपने भीतर सम्मोहित कर देने की असाधारण क्षमता लिए रहती है; रचयिता का अद्भुत और अद्वितीय व्यक्तित्व पन्नों के दरमियाँ बहता चलता है; इस तरह की किताबें मास्टरपीस होती हैं, और सिर्फ वही उन्हें स्क्रीन पर लाने की इच्छा अपने भीतर ला सकता है जो असल में बेहतरीन गद्य और सिनेमा दोनों के प्रति बेरुखी रखता हो. 


क्या इन दोनों अंशों में कोई साम्य है? क्या यह कह सकते हैं कि लेखक होते हुए भी कुँवर नारायण जहाँ रुक जाते हैं, फ़िल्मकार तारकोवस्की का गद्य वहाँ से शुरू होता है? अगर हाँ, तो इसके बीज कवि के संकोच में निहित हैं या यह उनकी दृष्टि की सीमा है? यह प्रश्न बड़ी आलोचना की अपेक्षा करते हैं. 

लेखक का सिनेमा को कहाँ रखा जायेगा? अगर दुनिया भर की फिल्मों की जानकारी हासिल करना ही ध्येय हो (हालांकि यहाँ उल्लेख लगभग उन्हीं फिल्मों का है जो कुंवर नारायण ने फ़िल्म महोत्सवों में देखीं, कई बड़े निर्देशक जो शायद उनके प्रिय भी रहे होंगे, उनका जिक्र इसमें लगभग नहीं है), तो यह किताब एक बार पढ़ी जा सकती है, लेकिन अगर सिनेमा विधा और विभिन्न सिनेमा कृतियों पर अंतर्दृष्टि हासिल करने की उम्मीद हो तो शायद यह किताब बहुत दूर तक नहीं ले जाएगी.  

इसी किताब में कुँवर नारायण मृणाल सेन की फिल्म खंडहर पर जो लिखते हैं उसे पलट कर खुद इसी किताब के बारे में लिखा जा सकता है लेखक का सिनेमा विफल किताब नहीं है लेकिन उतनी सफल भी नहीं है कि मैं उसे बेधड़क कुँवर नारायण की उत्कृष्ट कृतियों में गिन सकूँ. मेरी ज्यादती हो सकती है कि मैं इस किताब के पास बड़ी उम्मीद लेकर आया था लेकिन अगर एक वरिष्ठ कवि के पास उम्मीद लेकर नहीं जायेंगे तो आखिर कौन ठौर खोजेंगे?   
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पत्रकार, कथाकार. आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रह, कुछ अनुवाद, आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं. कथादेश के विशेषांक कल्प कल्प का गल्पका  संपादन किया है.
अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेस' में कार्यरत हैं
ई पता : abharwdaj@gmail
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आशुतोष के आलेख यहाँ पढ़ें
१. अज्ञेय और मैं 
२. उत्तर - अशोक 

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  1. ज़रूरी हस्तक्षेप. खरी-खरी. पर मुझे न जाने क्यों लगा कि केवल एक ख़ास चश्मे से ही इसे देखा गया है. बहरहाल, एकबारगी पढ़ने में बहुत सी बातों पर सहमत. शुक्रिया आशुतोष जी, अरुण जी इस लेख के लिए ��

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  2. रुस्तम सिंह3 जन॰ 2018, 9:25:00 pm

    अच्छा लेख है. आशुतोष भारद्वाज शायद अकेले ऐसे युवा लेखक और आलोचक हैं जो तथाकथित "बड़े" लेखकों के बारे में भी खरी-खरी बात करने से डरते नहीं. इसमें कोई शक नहीं कि हिन्दी सम्पादन की स्थिति खराब है. सम्पादित पुस्तकों में अामतौर पर वो सब भी डाल दिया जाता है जिसे वहाँ नहीं होना चाहिए. वैसे भी हिन्दी के सम्पादक बड़े लेखकों से डरते हैं और उनके कहने पर निम्नस्तरीय चीजें भी पुस्तक में रख लेते हैं. पत्रिकाओं में भी यही स्थिति है. हिन्दी के किस सम्पादक में यह हिम्मत है कि वह किसी "बड़े" लेखक को कह सके कि श्रीमान यह लेख या रचना छपने लायक नहीं है?

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  3. अंग्रेजी में यह स्थिति नहीं है. इसीलिए अंग्रेजी की सम्पादित पुस्तकों की हालत बेहतर होती है. अंग्रेजी प्रकाशन और सम्पादन हिन्दी के मुकाबले कहीं ज़्यादा "प्रोफेशनल" है. हिन्दी वालों को वहां तक पहुँचने में दशकों लगेंगे. उसके लिए ज़रूरी है कि सबसे पहले "जी, जी" की संस्कृति को छोड़ा जाए.

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  4. यह घ्यातव्य हो कि आशुतोष 'किताब' पर प्रतिक्रिया दे रहे हैं जो कुंवर जी ने नही लिखी बल्कि गीत चतुर्वेदी ने बनाई है। उनका एक भी शब्द उस निर्माता पर नहीं है।
    यह बहुत धीरज से सोचने का वक्त है कि वे विलम्बित के वक्त से द्रुत में किस तरह आरम्भ कर गए। कुछ है जो यहां उस से अधिक कम है जिसकी अपेक्षा वे उस लेखक से करते हैं जिसने ये किताब बनाई ही नहीं।

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  5. दिनेश सिंह4 जन॰ 2018, 9:39:00 am

    मैं कई वर्षों से नेट पर साहित्य को देखता रहा हूँ. आज समालोचन ही वह जगह है जहाँ साहित्य जीवित है. किसी का प्रचार नहीं है, स्तरहीनता नहीं है.निरन्तरता है. प्रस्तुति में कलात्मकता है. आज नेट पर साहित्य का पर्याय है समालोचन. समालोचन आरम्भ से ही तटस्थ रहता है और बड़े से बड़े रचनाकार की तार्किक आलोचना को सम्मानजनक जगह देता है. इस सेवा के लिए आपको पद्म श्री मिलना चाहिए :-). पर यह हिंदी है. आपको कोई नहीं पूछेगा. आपको नववर्ष की शुभकामनाएं

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  6. किताब औसत से बेहतर है लेकिन लगा जैसे बहुत जल्दी में लिखा गया लेख है। फिर तो इसे भी अखबारी कहा जा सकता है। हालांकि कुंवर नारायण की समीक्षाऐं भी अखबार से ऊपर हैं। वैसे भी किताब लेखक का सिनेमा है वह उसे किसी भी तरह देखे। वह फ़िल्म के बारे में ही बताएगा फिल्मों की तकनीके,फिल्मांकन इत्यादि पहलुओं पर वह बात करने का दावा भी नहीं करता। कुछ बातें आपकी ठीक हैं उसमें सबसे महत्वपूर्ण यह कि इस किताब के पास आप फिल्मों के लिए जा सकते फ़िल्म के अकादमिक ज्ञान के लिए नहीं।

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