भारतीय
फ़िल्म निर्देशकों में ऋत्विक घटक (4 नवम्बर, 1925 - से 6 फ़रवरी,
1976) का महत्वपूर्ण स्थान है. उन्होंने बांग्ला में कुछ
कहानियाँ भी लिखीं हैं, जिनमें से सात का अनुवाद चंद्रकिरण राठी ने किया है जिसे संभावना
ने अब प्रकाशित कर दिया है. ऋत्विक के चाहने वालों के लिए यह अच्छी खबर है. इन कहानियों से घटक के अंतरमन में उठने
वाले झंझावातों का पता चलता है.
चंद्रकिरण राठी (अब स्वर्गीया) ने इसकी बहुत सुन्दर भूमिका लिखी है- ऋत्विक घटक का व्यक्तित्व और उनका योगदान उभरकर सामने आता है. बेहद आत्मीय.
यह भूमिका, इस संग्रह से एक कहानी और इस किताब पर श्रद्धा श्रीवास्तव की समीक्षा यहाँ दी जा रही है.अनुवादक की
ओर से
सन् 1970 की सर्दियों में हम बिहार के सांसद श्री भोला प्रसाद के फ़्लैट नंबर 166 साउथ एवेन्यू में रह रहे थे. वह फ़्लैट हमें मेरे पति गिरधर राठी के ‘जनयुग’ साप्ताहिक में काम करने की वजह से मिला था. भोला प्रसाद जी बहुत सुलझे हुए सलीक़ेदार व्यक्ति थे. लक्खीसराय से दिल्ली वह केवल संसद सत्र शुरू होने के एक या दो दिन पहले आते और सत्र समाप्त होते ही वापस लक्खीसराय लौट जाते. एक बार उन की पत्नी भी आई थीं जो बेहद सहज और समझदार महिला थीं. हम ने उन के साथ अच्छा वक़्त बिताया था. उन का बेटा नरेश प्रसाद आज भी हमसे संपर्क रखता है.
उसी फ़्लैट
में रहते हुए 1 सितम्बर 1970 को हमारे बेटे विशाख का जन्म हुआ. अब वह लगभग 50 वर्ष
का है.
एक दुपहर
मेरे पति गिरधर राठी का फ़ोन आया, ‘‘कुछ
रसगुल्ले और नमकीन मँगवा लो. ऋत्विक घटक आज शाम घर आएँगे.’’
मैं ने नाथू
स्वीट हाउस फ़ोन कर रसगुल्ले और समोसे मँगवाए. मैं बेहद उत्साह में थी. उन की फ़िल्म
‘मेघे ढाका तारा’ मैं
ने कोलकाता में लोटस सिनेमा हॉल में देखी थी, जो
हमारे घर के पास ही था. इतनी अच्छी फ़िल्म का निर्देशक आ रहा है,
यह सोच कर मैं कुछ नर्वस भी थी. आख़िरकार मेरे पति,
ऋत्विक घटक, मंगलेश
डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा और अजय सिंह के साथ आए,
कुछ और भी मित्र भी थे जिन की मुझे याद नहीं आ रही. अजय सिंह
लगातार उन से सवाल किए जा रहे थे, जिस से वे
परेशान हो गए, लेकिन उन्होंने अपना आपा नहीं खोया था.
उन्होंने सिनेमा की तकनीक पर भी कई बातें की थीं.
मुझे उन से
बातचीत करने की क्या, उन की बातें सुनने का भी समय नहीं मिला
था. जाते हुए उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा, लेकिन
तमाम आग्रह के बावजूद खाया कुछ भी नहीं. उन की उस गरिमामयी उपस्थिति से मैं अभिभूत
थी.
दिसम्बर सन्
1989 में मेरे पति अपने कार्यालयी सहयोगी के बेटे के स्कूटर पर बैठ कर उन के
कैंसरग्रस्त पिता को अस्पताल देखने जा रहे थे. तुग़लक रोड पर स्कूटर किसी मोटर गाड़ी
से टकरा गया. चालक को तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन राठी
जी सड़क पर गिर पड़े. उन के पैर की हड्डी टूट गई थी. इस दुर्घटना के बाद वे लगभग
आठ-नौ महीने बिस्तर पर ही रहे. इस दौरान एक-एक कर उन के सभी सहयोगी और लेखक मित्र
उन से मिलने आते रहे.
इस दौरान
हमारी सहायता की दृष्टि से एक दिन मंगलेश डबराल ऋत्विक घटक के पुत्रा ऋत्वान घटक
के साथ आए और ‘ऋत्विक घटकेर गल्प’
नामक कहानी-संग्रह दे कर उस के अनुवाद का प्रस्ताव मेरे सामने
रखा, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार किया. यह प्रस्ताव
मेरे पास शायद इसलिए आया क्योंकि मैं सत्यजित राय की पुस्तक ‘एबारो
बारो’ का अनुवाद कर चुकी थी और वह ‘जहाँगीर
की स्वर्ण मुद्रा’ नाम से राजकमल प्रकाशन से छप भी चुका
था.
रितवान अपने
पिता की तरह ही सहज और सरल लगे थे. अनुवाद की स्वीकृति उन्होंने डाक से भेजने की
बात कही और अपने वायदे के अनुसार शीघ्र ही डाक से स्वीकृति भेज भी दी.
अब एक ऐसे
फ़िल्मकार की कथा लिखना मुझे आसान नहीं लग रहा जिस की सहज-सरल उपस्थिति उन के
सृजनात्मक और महान होने का तनिक भी आभास नहीं देती थी. उन के उठने-बैठने,
चलने-फिरने में अहम कहीं रत्ती भर भी न था. अलबत्ता जिस शाम का
जिक्र मैं ने ऊपर किया उस शाम जब वे अपनी फ़िल्मों पर बोल रहे थे तब अहम तो नहीं
लेकिन आत्मविश्वास फूटा पड़ रहा था. मैं अपने बेटे की व्यस्तता के बीच अचंभित
उन्हें सुन रही थी.
इस फ़िल्मकार
का जन्म 4 नवम्बर 1925 को अविभाजित बंगाल के ढाका में हुआ था. उन के पिता
सुरेशचंद्र घटक कवि और लेखक होने के साथ-साथ ढाका में जिला मजिस्ट्रेट थे. माता
इंदुबाला देवी एक सुगृहणी थी. उन की नौ संतानें थी जिन में ऋत्विक सब से छोटे थे.
उन की
ख्याति ‘मेघे ढाका तारा’ (1960),
मधुमती (1958) और जुक्ति तक्को आर गल्पो (1974) से हुई. उन का
विवाह वामपंथ के सक्रिय कार्यकर्ता साधना राय चौधरी की पुत्र सुरमा घटक से हुआ था.
लेकिन उन का विवाह विच्छेद हुआ और सुरमा अपने पिता के घर लौट गईं. उन के तीन
संतानें हुईं रितवान और दो बेटियाँ संहिता और सुचिस्मिता. रितवान अपने पिता की तरह
ही फ़िल्मकार हैं और ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट के संचालक भी. रामकिंकर पर जो फ़िल्म
ऋत्विक घटक अधूरी छोड़ गए थे उसे पूरा किया रितवान ने. रितवान ने अपने पिता पर Unfinished
Ritwik. नाम से फ़िल्म भी बनाई है. विभूतिभूषण बंदोपाध्याय की ‘इच्छामती’
पर भी काम किया है. पता नहीं वह फ़िल्म पूरी हुई या नहीं.
ऋत्विक घटक
की बड़ी बेटी संहिता ने ‘नव नागरिक’ नाम
की फ़िल्म बनाई. उन की छोटी बेटी सुचिस्मिता की 2009 में मृत्यु हो गई. उन के बड़े
भाई मनीष घटक अपने समय के बड़े लेखक थे और अंग्रेज़ी के सफल अध्यापक भी. इप्टा से उन
का गहरा जुड़ाव था. उत्तरी बंगाल के तेभागा आंदोलन में बढ़-चढ़ कर काम किया था. मनीष
घटक की पुत्र महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के बीच रह कर काम किया.
इस के पहले
कि मैं उन की कहानियों पर कुछ कहूँ, जिस की
जानकारी हमें बहुत बाद में हुई कि वे कहानियाँ भी लिखते थे,
हम मूलतः उन्हें फ़िल्मकार के रूप में ही पहचानते हैं,
इसलिए मेरी इच्छा है कि एक झलक उन के सिनेजगत की दिखाऊँ.
1948 में
उन्होंने ‘कालो सायर’( The Dark
Lake)नामक नाटक लिखा और नबान्न (Nabanna)
नाटक में भाग लिया. 1951 में उन्होंने नाटक लिखे और नाटक निर्देशित भी किए.
उन्होंने जर्मन लेखक बेर्टोल्ट ब्रेख्ट और रूसी लेखक गोगोल के नाटकों का अनुवाद भी
बांग्ला में किया. उन्होंने ‘ज्वाला’
नामक नाटक लिखा और स्वयं ही उस का निर्देशन भी किया.
संगीत
निर्देशक दरबार भादुड़ी बांग्लादेश के राजशाही में उन के घर के बगल वाले घर में
रहते थे. ऋत्विक उन्हें ‘दादा’ या ‘गुरु’
कहा करते थे. वे उन के प्रेरणास्रोत थे.
1958 में ‘अजांत्रिक’
फ़िल्म ऋत्विक घटक की पहली प्रदर्शित फ़िल्म थी जो एक वैज्ञानिक
हास्य कथा थी, जिस का प्रधान चरित्र एक मोटर गाड़ी थी.
1958 में ही रिलीज़ ‘मधुमती’ नाम
की हिन्दी फ़िल्म घटक की पहली सफल फ़िल्म थी. जिसकी उन्होंने कथा और स्क्रिप्ट लिखी
थी और निर्देशन स्वर्गीय विमल राय ने किया था. ‘मधुमती’
के लिए उन्हें फ़िल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ कथा लेखन पुरस्कार भी
मिला था. ऋत्विक घटक ने आठ लंबी फ़िल्मों का निर्देशन किया. उन की सब से चर्चित
फ़िल्में थी ‘मेघे ढाका तारा’ (1960),
‘कोमल गांधार’ (1961) और ‘सुवर्णरेखा’
(1965). ये तीनों फ़िल्में विभाजन की त्रासदी की कथा कहती हैं
लेकिन ये तीनों ही फ़िल्में विवादास्पद रहीं. इनके दृश्य कटु सत्य कहते हैं.
1966 में घटक
पुणे स्थित फ़िल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट के अध्यापक हो कर पुणे गए. मणि कौल और
कुमार शाहणी जैसे फ़िल्मकार उन के विद्यार्थी थे. उन्होंने विद्यार्थियों के लिए दो
फ़िल्में बनाई Fear
and Rendezvous.
1970 में एक
बार फिर वह फ़िल्म निर्देशन की ओर लौटे. एक बांग्लादेशी फ़िल्म निर्माता ने ‘तिताश
एकटी नदीर नाम’ फ़िल्म के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की
लेकिन टीबी और अत्यधिक शराब का सेवन उन के काम में आड़े आता रहा. श्रीमती इंदिरा
गांधी उन की फ़िल्मों की प्रशंसिका थी. जब उन्हें उन की बीमारी की सूचना मिली तब
उन्हें वापस कोलकाता लाने के लिए हेलीकॉप्टर भेजा गया.
‘जुक्ति
तक्को और गल्पो’ उन की आत्मकथात्मक फ़िल्म है. ‘तिताश
एकटी नदीर नाम’ (1973) उन कुछ पहली फ़िल्मों में से एक
हैं जिन में Hyperlink Format (भिन्न-भिन्न
चरित्रों को एक कथा सूत्र में बांधने की कला) का प्रयोग किया गया.
ऋत्विक घटक
अपनी लेखनी का जादू हिन्दी फ़िल्म ‘मधुमती’
में दिखाते हैं. यह उन की सर्वाधिक सफल फ़िल्म थी जिस की कहानी
उन्होंने ही लिखी थी. माना यह जाता है कि पूर्वजन्म पर बनी यह फ़िल्म भारतीय और
विश्व सिनेजगत के लिए प्रेरणा स्रोत रही है. अमेरिकी फ़िल्म The
Reincarnation of Peter Proud (1975) और हिन्दी फ़िल्म ‘कर्ज’
(1980) उन की ही कहानी से प्रेरित दिखाई देती हैं.
बांग्ला
फ़िल्म जगत और देश-विदेश के तमाम फ़िल्मकारों पर घटक का प्रभाव पड़ा है. ऋत्विक घटक
ने मणि कौल, कुमार शाहणी, अडूर
गोपालकृष्णन और केतन मेहता जैसे फ़िल्मकारों पर अपना प्रभाव छोड़ा है. मीरा नायर ने
ऋत्विक घटक और सत्यजित राय को अपने फ़िल्मकार होने का श्रेय दिया है.
ऋत्विक घटक
की निर्देशकीय क्षमता को पहचान काफ़ी देर से, तक़रीबन,
1990 के शुरुआती दशक में, भारत
और भारत के बाहर, देश-विदेश में मिलनी शुरू हुई और तभी
उन की फ़िल्मों को पुनर्जीवित करने का काम शुरू हुआ. उन की फ़िल्मों के
अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन हुए और विश्व भर के तमाम दर्शकों ने उन की फ़िल्मों की
प्रशंसा की.
सन् 2007
में ब्रिटिश फ़िल्म संस्थान द्वारा लिए गए एक सर्वे में दस प्रमुख बांग्लादेशी
फ़िल्मों को चुना गया जिन में ‘तिताश एकटी
नदीर नाम’ सर्वोपरि रही. बांग्लादेशी फ़िल्मकार शहनवाज़
काकुली घटक को अपना आदर्श मानती हैं और उन की फ़िल्मों से बेहद प्रभावित हैं. वे
कहती है कि सभी बंगालियों की तरह मैं भी ऋत्विक घटक और सत्यजित राय की फ़िल्में
देखती हुई बड़ी हुई हूँ. लेकिन मैं सत्यजित राय से अधिक ऋत्विक घटक से प्रभावित हूँ
और शायद इसीलिए मेरी फ़िल्म ‘उत्तरेर सुर’
(Northern Symphony)) भी ऋत्विक घटक से ही प्रेरित है.
ऋत्विक घटक
केवल फ़िल्मकार ही नहीं थे. वे बड़े सिद्धांतकार भी थे. फ़िल्मों पर उन के विचारों और
उन की टिप्पणियों का विद्वानों के बीच बहुत महत्व है. वे जीवन भर मार्क्सवादी
विचारधारा से प्रेरित रहे और कम्युनिस्ट पार्टी को अपना सक्रिय योगदान देते रहे,
हालाँकि उन के स्वतंत्र विचारों के कारण भारतीय कम्युनिस्ट
पार्टी की जिला समिति ने 1955 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया था.
ऋत्विक घटक
भारतीय व्यावसायिक फ़िल्मों से दूर रहे. केवल उन की सफल फ़िल्म मधुमती ही अपवाद रही.
उन के समकालीन सत्यजित राय और मृणाल सेन की फ़िल्मों के दर्शक दुनिया भर में थे
लेकिन घटक को अपने जीवन काल में वह सौभाग्य नहीं मिला. वे विद्यार्थियों और
विद्वानों के बीच ही चर्चित रहे. सत्यजित राय की अबाध प्रशंसा भी उन्हें साधारण
जनों के बीच ख्याति नहीं दिला पायी.
उन की पहली
फ़िल्म ‘नागरिक’ थी
जो सत्यजित राय की ‘पाथेर पंचाली’ से
तीन बरस पहले 1952 में बनी थी. ‘नागरिक’
संभवतः बांग्ला कला फ़िल्मों में पहली फ़िल्म थी लेकिन उसे उस का
देय नहीं मिल पाया क्योंकि वह फ़िल्म बनने के चौबीस वर्ष बाद ही थियेटर का मुँह देख
पायी. (घटक के निधन (1976) के बाद, 1977 में!)
सन् 1958
में ऋत्विक घटक की फ़िल्म ‘बाड़ि थेके पालिये’
बनी और 24 जुलाई 1959 को रिलीज़ हुई. इस फ़िल्म में घटक ने एक
ग्रामीण बच्चे की नज़र से कोलकाता जैसे महानगर को देखा था. परंतु घटक की यह फ़िल्म
भी चर्चा से बाहर रही, हालाँकि उसी जैसे कथानक पर आधारित
प्रसिद्ध फ्रेंच निर्देशक फ्रांस्वा त्राफ़ो की फ़िल्म The Four
Hundred Blow ;1959) को फ्रेंच न्यूवेव सिनेमा का जनक माना गया.
उन की
फ़िल्मों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. अपने यौवन में घटक शराब छूते तक नहीं थे
लेकिन इस गहरी उपेक्षा से जन्मी असफलता के कारण वे शराब पीने लगे थे. हालाँकि
उन्हें ‘जुक्ति तक्को और गल्पो’
के लिए सन् 1974 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार रजत कमल अवार्ड
से नवाजा गया. बांग्लादेशी सिने जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने ‘तिताश
एकटी नदीर नाम’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का
पुरस्कार दिया. भारत सरकार ने कला के लिए उन्हें 1970 में पद्मश्री प्रदान की.
अब एक नज़र
उन की कहानियों पर. रितवान ने जो संग्रह मुझे दिया उस में 16 कहानियाँ थी. मैं
सिर्फ़ सात कहानियों का अनुवाद कर पायी. 1989 में कहानियों का अनुवाद शुरू किया.
1990 तक केवल सात कहानियों का अनुवाद कर सकी. कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं में छपती
रहीं. फिर घरेलू व्यस्तताओं और आलस्य के कारण संग्रह किताबों में दबा पड़ा रहा.
संभावना प्रकाशन के अभिषेक अग्रवाल को जब पता चला तो उन्होंने उसे छापने की इच्छा
ज़ाहिर की. काग़ज़ों से ढूँढ कर कहानियाँ निकाली और कहानियाँ उन्हें थमा दीं. उन की
इच्छा थी कि मैं ऋत्विक घटक पर एक लंबा लेख लिखूँ जिसे मैं नहीं कर पायी.
चूंकि मैं
सत्यजित राय की कहानियाँ पढ़ चुकी हूँ और उन का अनुवाद भी कर चुकी हूँ इसलिए इन
दोनों महान् फ़िल्मकारों की कहानियों पर अपनी तुलनात्मक राय रख देना चाहती हूँ. राय
की कहानियों के अधिकतर पात्र असफल हैं उन की कहानियाँ पाठकों को पात्रों के
मनोजगत् से परिचित कराती हैं. पाठक को सोचने के लिए विवश करती हैं. लेकिन घटक की
कहानियाँ साधारण जन के संघर्ष की कहानियाँ हैं जो पाठक को स्तब्ध करती हैं.
विभाजन की
त्रासदी से कभी मुक्त न हो सके ऋत्विक घटक अपने इर्द-गिर्द हो रहे अत्याचारों का
वर्णन करते हैं. यहाँ तक कि अत्याचार, दुर्व्यवहार
से उकता कर प्रकृति की गोद में सहज, सरल जीवन
व्यतीत करने की इच्छा रखते हैं. उन के पात्र अत्याचार सहन करते हुए इस क़दर अपना
आपा खो बैठते हैं कि हिंसक हो कर हत्या तक कर डालते हैं.
‘राजा’
नामक कहानी का नायक राजा, जिस
का विद्यार्थी जीवन उज्ज्वल था लेकिन कवि और लेखक बनने की इच्छा उसे उद्दंड बना
देती है. बरसों बाद जब कॉलेज के मित्र उसे खोज निकालते हैं और मिलते हैं तब वह
मनगढ़ंत कहानी सुना कर उन्हें चकमा देता है. कॉलेज के सभी मित्र सफल हैं. असफल है
तो केवल वह, जिस के संबंध में सब की धारणा है कि वह निश्चय
ही सफल होगा. अपनी असफलता छुपा कर वह एक मनगढ़ंत सफल जीवन की कथा कह डालता है और
गहरी निद्रा में सोए हुए एक साथी का पर्स निकाल कर चला जाता है. इस तरह मानवीय
कमज़ोरियों को उजागर करती हुई यह कहानी पाठक को स्तब्ध करती है.
पौराणिक
कथाओं को आधुनिक संदर्भ में देखने के प्रयास में वे समाज को पुरातन भूमिका दिखाते
हैं. अर्जुन द्वारा अपहरण की जा रही सुभद्रा का बचाव समाज करता है,
बग़ैर इस की पड़ताल किए कि सुभद्रा को अपहरण किए जाने पर कोई
आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह अर्जुन से प्रेम करती है और
रथ की बागडोर स्वयं थाम कर अर्जुन की सहायता करती है.
जिस प्रकार
सिनेमा में दृश्य चित्रित करने की अदभुत क्षमता घटक में थी,
उसी तरह वे अपनी कहानियों में शब्द के माध्यम से पाठक के सामने
चित्र उभारते चले जाते हैं.
अंत में मैं रितवान घटक को धन्यवाद देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अनुवाद करने की स्वीकृति प्रदान की. मंगलेश डबराल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन आवश्यक है, जो इस के कारक बने. खेद है कि रितवान से फिर मुलाक़ात नहीं हो सकी. हालाँकि पत्रिकाओं में छपी कहानियों की कटिंग्स उन्हें भेजी थी, लेकिन उन की कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली. उम्मीद है इस संग्रह के आने पर शायद उन से संपर्क हो सके. संभावना प्रकाशन के अभिषेक अग्रवाल और उन की पत्नी वरुणा को धन्यवाद देना औपचारिकता होगी. हृदय से उन का आभार. यह संग्रह जब पाठकों के हाथ में होगा तब चाहती हूँ कि मुझे सच्ची प्रतिक्रिया मिले.
चंद्रकिरण राठी
ऋत्विक घटक
कहानी एक्सटैसी
भाग आया हूँ. यहाँ जीवन का कोई अस्तित्व नहीं,
यहाँ क्षण-प्रतिक्षण सैकड़ों हज़ारों समस्याएँ सिर उठाए खड़ी नहीं
रहती.
एक ज़माने में देश के कार्यकर्ता के रूप में जाना जाता था. अगस्त
आन्दोलन में एक बार जेल गया था. तब दृढ़ प्रतिज्ञा की थी. आज यह सब सोच कर भी
आश्चर्य होता है. उस के बाद न मालूम कैसे कुछेक वर्ष भारी यंत्रणा में गुज़र गए.
धीरे-धीरे मेरे मन में क्षोभ और वेदना जागने लगी. वह क्रन्दन और सहन नहीं कर पा
रहा था. भीतर ही भीतर अधीर हो उठा था. उस के बाद पहला अवसर मिलते ही कापुरुष की
तरह भाग आया.
पल-प्रतिपल यहाँ चिन्ता और समस्याओं के जाल में नहीं बीतता.
मेरा अन्तर्मन यहाँ आ कर कितना शांत हो गया है. मन में अलस कल्पना बसा कर यहाँ एक
कुटिया बनायी. इस मध्यप्रदेश के मध्यतम प्रदेश में जंगल की रुक्ष प्रकृति और
विस्तृत नीले आकाश के निकट रह कर मैं ने निश्चित किया, अब
मैं उन समस्याओं की बात और नहीं सोचूँगा. मैं क्षण-प्रतिक्षण जीऊँगा,
निश्चिंत हो कर. पल-प्रतिपल रस निचोड़ कर आनन्द लूँगा,
एक क्षण भी बर्बाद नहीं होने दूँगा.
वसंत ऋतु है. यहाँ महुआ और पलाश के पेड़ों ने कैसा अद्भुत
सौन्दर्य बिछाया है. मोहित नज़रों से उन की ओर देखूँगा. भूख से सूख कर मर जाना,
कुछ न समझ आने पर छुरी मार कर आत्महत्या कर लेना,
बीभत्सता और दैनन्दिन जीवन की सैकड़ों हज़ारों वेदनाएँ और उसी सब
के बीच धनिक वर्ग की धन के बल पर समस्त शासनतंत्रा की अधीनता मेंµ
उल्लसित उद्दाम पैशाचिकता, इस
सब के विरुद्ध मैं क्या कर सकता हूँ. मैं बहुत थका हारा हूँ. क्या होगा वह सब सोच
कर.
उस से अच्छा यही है. अभी शाम का वक्त है. झरने के किनारे बैठा
हूँ. पत्थर के टुकड़े धूप में चमक रहे हैं; सामने
टीले पर हवा महुओं की गन्ध से भरी रहती है, वन
के किनारे पलाश फूल झरते रहते हैं, वन की सज्जा
वन के फूल ही होते हैं और निर्मल जल ढलढल करता हुआ नाले से बहता रहता है,
पत्थर की चोट खा कर कहीं-कहीं सफ़ेद हो उठता है. अद्भुत!
दूर जहाँ नीला आकाश मेरी नज़रों से ओझल हो
चला था, वहाँ लम्बे-लम्बे पहाड़ दिखते हैं. कैसे-कैसे
अस्पष्ट आकार वाले. सब कुछ मिल-जुल कर न मालूम कैसे एक रहस्य का संकेत दे रहा है.
कितना ख़ूबसूरत लग रहा है, बता
नहीं सकता.
यह वही कालिदास के मेघ दूत का देश है. हमारा सुन्दर देश.
निर्विकार ग्राम वधुओं की याद आ जाती है.
साथ ही याद आती है अपने वास्तविक और काल्पनिक मिश्रण से तैयार
मानुषी की. जीवन के अलग-अलग अध्यायों में मैं ने उसे अलग-अलग तरीक़े से आँका है. वह
कैसी होगी, जैसे-जैसे मेरे जीवन का दृश्यपट बदला है उस के
साथ ही साथ इस का उत्तर भी बदला है. कभी शांत स्निग्ध साधारण लड़की,
कभी दहकते अंगारों की तरह दृढ़प्रतिज्ञ एक गौरी.
लेकिन इस क्षण जिसे देखा वह तो इन में से किसी भी कोटि की नहीं
और कल्पना में तिल भर भी उस के लिए स्थान नहीं. वह मेरे सामने झरने से जल ले रही
है. उसे निर्विकार कहा जा सकता है, लेकिन वह
आर्यावंश की नहीं, वह तो एक गोंड लड़की है.
मुझे मालूम था सामने टीले पर गोंडों का एक गाँव है,
वह शायद उन्हीं की लड़की होगी. तेल से सराबोर काले बाल,
बीच में माँग निकाल कर पीछे बाँधे हुए, शरीर
का रंग कांतियुक्त काला, बड़ी-बड़ी दो आँखें. लाल-सफ़ेद डोरिया की
साड़ी कस कर कमर में बाँधी हुई. किसी शिक्षित सभ्य समाज की सन्तान को शायद उस में
कुछ भी आकर्षक न लगे, फिर भी उस श्यामायमान अन्धकार में,
उस विचित्रा परिवेश में, जिस
क्षण उसे नीचे झुक कर जल लेते देखा उस क्षण वह एक अनिन्दनीय रूप में मेरे सामने
प्रकट हुई. मानो वह इस वन प्रदेश में पृथ्वी की आदि नारी के रूप में अवतरित हुई है.
संध्या धीरे-धीरे गहराती गई. लड़की जल ले कर गाँव की ओर चली गई.
जाने से पहले स्वच्छ कपड़े पहने विजातीय व्यक्ति की ओर एक चकित दृष्टि डाल गई. उस
दृष्टि में सिर्फ़ कुतूहल था.
वह चली जा रही है. उस की चाल मुझे इतनी आकर्षक लग रही है कि मैं
उस पथ की ओर तब तक निहारता रहा जब तक वह उतराई से उतर कर मेरी नज़रों से ओझल नहीं
हो गई.
मेरी दूसरी सब विचार-विवेचनाओं का क्या होगा?
सब दूर हो जाएँ! कल मैं वहाँ जाऊँगा, उन
के उस गाँव में. मैं अगर उस से विवाह कर सारा जीवन उन सब के साथ नाच कर महुआ का रस
पीकर बिता दूँ तो मेरे सर्वस्व की हानि कैसे होगी? मेरा
सारा जीवन वहाँ बीत जाएगा, चिन्ता का कोई स्थान नहीं रहेगा,
पग-प्रतिपग बड़ी-बड़ी समस्याएँ दिखाई नहीं देंगी. उन का ही एक
व्यक्ति बन कर साधारण किसान के रूप में उन के बीच अगर मैं रहना चाहूँ तो उस में
क्या अपराध होगा? मानव गोष्ठी जिस अनुसंधान में निकली है,
शांति, वह क्या वहाँ नहीं मिलेगी?
आदिम मनुष्य का धर्म और विश्वास ले कर वहाँ जीऊँगा,
उस में बहुत-सी समस्याएँ होंगी ही नहीं. आज इस मुहूर्त में ‘अनजाने
ही आशीर्वाद’ की बात एक विशेष अर्थ ले कर मेरे सामने आ खड़ी
हुई है.
उस लड़की का नाम शायद मूंगरी हो शायद रँगीलो हो या शायद मैना है.
मैं दिन भर उस बड़े पहाड़ के नीचे वाली ऊँची नीची ज़मीन जोतता रहूँगा,
दुपहर को खाने के वक़्त उस चढ़ाई पर से उसे आता हुआ देखूँगा. शाम
होने पर घर लौटूँगा, गाँववालों के साथ नाचूँगा आदिम नाच पृथ्वी पर मानव का सर्वप्रथम नाच. बंशी बजेगी
जैसी सदा से बजती है. ढोलक की थाप पर नृत्य का नशा चढ़ेगा.
तब शायद क्रन्दन के शोर से पृथ्वी फट जाएगी. निविड़ अन्धकार में
भी वह छटपटाएगी, तृतीय महायुद्ध हो तो रक्त-ताण्डव से
दसों दिशाएँ काँप उठेंगी. मैं कुछ भी नहीं जान पाऊँगा. खेत के पास से मोटर चला कर
जो बाबू निकलेगा मैं अवाक उस की तरफ़ देखता रहूँगा.
शाम ढल गई रात हो आई. सामने के दृश्यपट पर न मालूम किस ने
अदृश्य तूलिका चला दी, गहन अन्धकार छा गया. शाल,
शैल, महुआ और पलाश के पेड़ स्याह अँधेरे में
डूब गए और धीरे-धीरे जंगल के सहयोगी जीव-जंतु जाग उठे. पेड़ों की छाया तले पकने लगा
भोजन, न मालूम कौन फुसफुसा कर बातें कर रहा है,
न मालूम किस की चुपके-चुपके पैर रखने की आवाज़ आ रही है,
समस्त बन भूमि चुपके-चुपके हँस रही है, दूर
से आ रही है ढोलक की थाप.
चाँद निकल आया. पीला गोल चाँद. झरना आत्मविभोर झरता रहा;
उस के वक्ष पर चमकने लगे हज़ारों चाँद. पूरब की ओर से वायु के
मन्द झकोरे उठने लगे. उसी के पास झाँक कर देखें तो ध्यानमग्न पिंगल मुनि का भग्न
स्तूप. गहन अन्धकार में घास की ख़ाली जगह पर चन्द्रमा का प्रकाश बिखरा पड़ा है.
सारे दृश्य को न मालूम किस ने पोंछ-पोंछ कर धुंधला बना दिया. सब मिलजुल कर प्रतीत
हो रहा है मानो यह कमल-भक्षियों की भूमि हो (द लैंड ऑफ लोटस ईटर्स). शब्द कहीं
बहुत दूर से आते प्रतीत हो रहे हैं. यहाँ ज़रा-सा हाथ हिलाओ तो बड़े-बड़े वृक्षों की
बाढ़ थम जाएगी, इस विशालतर का ध्यान भंग होगा. आज इस
झरने के किनारे बैठे हुए मन के भीतर बात उतरती जा रही है; परिश्रम
निष्फल, चेष्टा का अन्त निराशा में. इस परिवेश में
असीम अनन्त शांति है. शांति के इस महाराज्य में और कुछ नहीं,
सिर्फ़ विश्राम, गहरा
विश्राम. अलस अलसाई नज़रों से प्रकृति को देखना और प्रकृति के महासंगीत को सुनने की
चेष्टा करना.
नहीं, उस लड़की के जूड़े में पलाश फूलों का
गुच्छा लगाने मैं कल अवश्य जाऊँगा. वहीं रहूँगा. खोया हुआ बालक घने जंगल और समुद्र
फाँदकर बहुत दिन पहले छोड़े हुए आँगन में आ कर खड़ा हुआ है. समूची पृथ्वी की मनोहरता
सहन करने लायक़ यहाँ कुछ भी नहीं. इस वनप्रांत में जो स्वाद चखा है,
जो रस रिस रहा है, उस में लीन
हो कर मैं पागल हो जाऊँगा. फिर भी उस लड़की से विवाह कर सर्वदा सुखी तो रह सकूँगा!
समीक्षा
ऋत्विक घटक की कहानियाँ श्रद्धा श्रीवास्तव
सत्यजित राय ने ऋत्विक घटक को इस देश की सिनेमा की सबसे मौलिक प्रतिभाओं
में से एक माना था. उनका कहना था कि “घटक की करीब सभी फिल्में गहरे भाव को दर्शाते
हुए फिल्म निर्माण तकनीक की गहरी समझ दिखाती हैं. टेक्सटाइल के रूप में दृश्य फिल्मांकन
की उनकी क्षमता भारतीय सिने जगत में सबसे असाधारण थी संपादन के भी प्रत्येक पक्ष
पर उनकी पूरी पकड़ थी."
सत्यजीत राय, ऋत्विक घटक और मृणाल सेन सामानांतर सिनेमा के अगुआ
माने जाते हैं. सामानांतर सिनेमा वे यथार्थपरक सिनेमा होते हैं जिनका उद्देश्य कोई
व्यावसायिक लाभ कमाना नहीं होता. लिहाज़ा खालिस मनोरंजन की बाध्यता वाली मिलावट भी
उसमें नहीं होती. ऋत्विक घटक सिनेमा के कला-माध्यम के विरल साधकों में शुमार होते
हैं. सत्यजित राय एवं मृणाल जैसे फिल्मकारों से ऋत्विक इस मायने में भिन्न थे
क्योंकि उन्होंने अपनी फिल्मों में मेलोड्रामा का प्रभावपूर्ण इस्तेमाल किया.
फिल्मों में वो मेलोड्रामा वे लेकर आए, वह ट्रीटमेंट दरअसल रंगमंच से आता है.
गौरतलब है फिल्मों से पहले वो रंगमंच से जुड़े थे. उन्होंने नाटकों का लेखन व उसमें अभिनय दोनों ही काम किए. उनका अंतिम
नाटक ज्वाला (द बर्निंग) खासा चर्चित रहा.
उन्होंने पुणे के फिल्म एंड टीवी
इंस्टिट्यूट ऑफ इंडिया में अध्यापन किया और अपनी अमिट छाप छोड़ी. उन्होंने मणि कौल,
अलेक पदमसी और अडूर गोपाल कृष्णन,केतन मेहता,मीरा नायर जैसे युवाओं को दृष्टि दी.
“ऋत्विक घटक की कहानियाँ” का मूल बंगला से अनुवाद चन्द्रकिरण
राठी ने किया है. कहानियाँ पढने के बाद उनकी फ़िल्में देखने से आप अपने को रोक नहीं
पाएंगे और जिन्होंने फ़िल्में देखी है वो कहानियाँ जरूर पढ़ना चाहेंगे. संग्रह की सात
कहानियाँ उन तक पहुँचने का सात द्वार हैं. संग्रह की कहानियाँ एक विरोधी, प्रतिबद्ध, अतीतजीवी और एक डिस्ट्रक्टिव जीनियस
से आपको रूबरू कराती हैं.
बांग्ला में रूपकथा परियों की कहानी को कहा जाता है. “रूपकथा ” पत्रकार
के अपने मालिक से प्रतिरोध की कहानी है. उसके मालिक हरनाथ मिजाज़ से प्रदर्शनकारी
है, लाट साहबों के साथ घूमते है. झूठ छल कपट और बेईमानी का रास्ता अपना कर पैसा
कमाया है और पत्रिका जगत के सम्राट है. वह इस आदमी की स्वार्थ रक्षा की खातिर बीस
साल से झूठी मनगढ़ंत खबरें बनाता रहा. आज जब उसने अपने सम्पादकीय में सोनपुर काटन
मिल का सच लिख दिया, तस्करी और चावल छुपाने की बात उजागर कर दी तो अंजाम क्या होना
है- तत्काल बर्ख़ास्तगी, लेकिन जाते-जाते
ये निर्विरोधी अल्पभाषी पत्रकार हरनाथ को छड़ी से पीट पीटकर कर खून की नदी बहाकर
बहार निकल जाता है. कहानी स्तब्ध करती है.
इसी प्रकार ‘गवाही कहानी’’ के नायक से अपनी बचपन की सखा जया का
शादी के बाद का दुःख देखा नहीं गया. जया रूपवान, सुशील मधुर लड़की थी तो वह बदसूरत.
वो अठारह की तो वह चालीस से ऊपर, बात-बात
पर लांछन, शराब पी कर मारना, कलंकित, तिरस्कृत करना. नायक को उसका तिल-तिल कर मरना
देखा नहीं जाता. वह अपने साथ चले चलने का
विकल्प भी रखता है किन्तु जया अपनी पतिव्रता बने रहने की शिक्षा का वास्ता देती
है. पहले वह गला दबाकर जया को मारता है उसके बाद चौधरी को जघन्य कुत्सित व्याधि को
जया में संचारित कर देने के कारण चौधरी को मार देना चाहता है. दूसरी ओर “एक्सटैसी”
कहानी का नायक अगस्त आन्दोलन के बाद कापुरुष की तरह जीवन की आपा-धापी से पलायन कर
प्रकृति गोद में एक कुटिया बनाकर रहने लगता है. वह आदिवासी लड़की से ब्याह कर लेना
चाहता है. “
‘जीवन में कितनी मिठास है. दुःख भी मिठास से भरा हुआ है. आज से
शुरू होगी जीवन यात्रा -यह द्वंद्व राजा का
है. राजा अशांत समय के युवा का प्रतिनिधित्व करता है जिसको व्यवस्था ने निकम्मा
बना दिया. वो जीवन में असफल है वो अपनी सफलता की झूठी कहानी अपने दोस्तों को
सुनाता है. अंत में अपने दोस्त का बटुआ मार लेता है. राजा शाही राजा की तरह व्यवहार करता है; लेकिन उसका जेबकतरा होना सच है. प्रायः उनके कहानी के नायक नायक-विरोधी
होते है.
‘शिखा’ कहानी सुख के मिथ्याभास की कहानी है. मामा की ओर से अपनी
भांजी की कहानी है. बचपन की सरल सहज सम्वेदनशील ‘शिखामयी’ जीवनी शक्ति से भरी हुई
थी. यह उसके बुझ जाने की कहानी है. यह कहानी एक सवाल करती है कि
हम अपने मूल स्वभाव से क्यों दूर जा रहे है?
नीत्शे साहित्य में मिथक के प्रयोग को एक औज़ार के रूप में देखते है जो लोगों को सांस्कृतिक रूप से जोड़ने का माध्यम होता है. कहानी ‘मार’ में महाभारत काल की सुभद्रा और अर्जुन की कथा को वर्तमान सन्दर्भ में प्रस्तुत किया गया है. उनकी फिल्मों में भी मिथक शास्त्रीय सेतु का काम करते हैं. नचिकेता उनका प्रिय पात्र रहा. है.
ऋत्विक की मूल दृष्टि मानवतावादी थी. उनका विश्वास था कि तमाम त्रासदियों के बाद मनुष्य आगे बढ़ता रहेगा. उनका कहना था कि सभ्यता कभी नहीं मरती, वह बदल सकती है.
shraddha.kvs@gmail.com
किताब: ऋत्विक घटक की कहानियाँ
अनुवादक: चंद्रकिरण राठी
प्रकाशक: संभावना प्रकाशन, रेवातिकुंज, हापुड़-245101,मूल्य-100/
अति सुन्दर अनुवाद। मैं चाहूंगा लोग यह पुस्तक पढ़ें और ऋत्विक घटक की लेखकी के एक इस पक्ष से भी वाबस्ता हो जाएं
जवाब देंहटाएंऋत्विक घटक के कितने ही संदर्भ प्रसंग,जानकारी चन्द्रकिरण जी ने जिस आत्मीयता से साथ हमारे सम्मुख रखी हैं उतनी ही आत्मीयता से ऋत्विक जी भी हैं ( थे, नहीं)
जवाब देंहटाएंचन्द्रकिरण जी ने अत्यंत सरल शैली से जो कहा है जैसे उनके सामने बैठकर उन्हें सुन रहे हैं. इतनी पारदर्शी, साफ़गोई भाषा तो कम ही मिलती है, पांडित्य की छँटा, अलंकृत छवि, प्रतीकों की बौछार, जो सहज है उसे किस तरह क्लिष्ट बनाया जाये जैसी होड़ लगी होती है, यहाँ तो कोई दुराव-छिपाव नहीं,जो आ गया कह दिया ‘ रसगुल्ले और नमकीन ले आना ‘ किस कदर का पवित्र भाव है इस तरह की सुलभता
लुभाती है, यही वजह है कि चन्द्रकिरण जी के अनुवाद ही नहीं जो भी लिखा हो उसे पढ़ जाने की घनघोर लालसा उदित हो जाती है.
घटक जैसे विराट व्यक्तित्व जिनके शिष्य मणि कौल, कुमार साहनी जैसे दिग्गज हो जिन्होंने कला फ़िल्म का चेहरा ही बदल दिया और आज वे महानतम हैं,अचानक घर आ जाये तो फिर लिखने और कहने में जो शेखी और तीस मारखापन आ जाता है वह यहाँ विलुप्त है , वहाँ है अन्त:करण का खुला नील भरा आसमान.
चन्द्रकिरण जी जिनके यहाँ पारदर्शिता रोम-रोम में हो , भाषा की सादगी लबरेज़ हो , पहचान की गहरी अन्तर्दृष्टि हो, जहां मनगढ़न्त नहीं मन का गढ़ना हो वे कृति ही क्यों जीवन के साथ भी सदैव न्याय करेंगी. घटक जी की कहानियों की आत्मा को उल्था करते उसे जस-की-तस ले आई हैं .
घटक जी हिन्दी में कहानी लिखते ( कमोबेश नहीं) ऐसी ही लिखते .
चन्द्रकिरण जी की अचानक विदा साहित्य के लिये तो क्षति है ही, लेकिन ये मेरी निजी, गहरी क्षति है, असंख्य वर्षों से मैं उनके ( मेरा भी ) घर रहा हूँ कितनी ही बार वे पिपरिया आई हैं.
मेरे कैनवास पर उनके अनगिनत चित्र बने हैं, बनते रहेंगे- अंतहीन.
श्रद्धा जी की समीक्षा व उनका कहना भी सहज भाषा की कड़ी है , मैं चाहूँगा कि वे इस कड़ी को बढ़ाती जायें .
हमेशा की तरह अरुण जी कुछ खोजकर ले आते हैं, ये तभी संभव है जब निरापद भाव से वे इसमें तल्लीन हो जाते हैं.
आभार.
वंशी माहेश्वरी.
स्व चन्द्रकिरण राठी जी का यह अनुवाद प्रकाशित हो चुका। इसे अगले संस्करण में सुधारने लिए वे इस दुनिया में नहीं हैं। परंतु पाठकों को बताना पड़ेगा कि यह अनुवाद अच्छा नहीं है। अंतिम दो पैराग्राफों में ऐसी भूलें हैं कि कथा ही अर्थहीन लगने लगती है। ईश्वर ही जाने कि 'पिंगल मुनि का स्तूप' और 'पेड़ों की बाढ़ रुक जायेगी' जैसी अभिव्यक्तियां अनुवाद में कहां से आईं और उनका अर्थ क्या है। अनुमान और कोश के सहारे अनुवाद किया गया है ऐसा प्रतीत होता है।
जवाब देंहटाएंमैं अनुवादक की आकस्मिक अकालमृत्यु से बड़ा दुखी हुआ। उनके मेरे बीच में कामन इंटरेस्ट सुकुमार राय थे। हम दोनों ने उनका अनुवाद किया, यद्यपि मेरे अनुवाद छपे नहीं हैं।
ऋत्विक घटक की कहानियों के साथ उनकी फिल्मों का भी बेहतरीन आकलन। एक दृष्टिवान प्रकाशक ऐसे श्रेष्ठ कृतियों को सामने लाता है और एक समर्थ संपादक उन्हें रेखांकित करता है।
जवाब देंहटाएंचंद्रकिरण जी की सीधी-सहज, बेहद सादगी और संवेदनशीलता से लिखी गई भूमिका, उनके द्वारा अनूदित ऋत्विक घटक की कहानी 'एक्सटैसी' और श्रद्धा श्रीवास्तव जी की एकदम बेबनाव समीक्षा--ये तीनों चीजें मिलकर ऋत्विक घटक को इस कदर सजीवता से हमारे आगे उपस्थित कर देती हैं, कि लगता है, हमारे मन और आँखों में वे समा गए हैं और अब कभी हमसे दूर न होंगे।
जवाब देंहटाएंऔर यह सब पढ़ लेने के बाद मन की जो हालत है, वह मैं कैसे कहूँ? किन शब्दों में?...अब आज का दिन मैं ऋत्विक घटक जी के साथ बिताऊँगा। आज पूरे दिन ऋत्विक घटक जी मेरे साथ रहेंगे और मैं उनके साथ जाने कहाँ-कहाँ भटकता फिरूँगा। आज दिन भर ऋत्विक घटक मेरे प्राणों को प्रकंपित करते और फिर सुकून भी देते रहेंगे। आज बरसों पहले देखी और कई-कई दिनों तक टूटकर सराही फिल्म 'मधुमती' को फिर से देखूँगा--इस बार मन की आँखों से, और पूरे दिन उसके दृश्यों और उनके पीछे छिपी उत्साही निर्देशक ऋत्विक की लरजती कलाकार उँगलियों को स्मृतियों में टोहता रहूँगा।
और यह इसलिए कि चंद्रकिरण जी ने बड़ी सहजता से यह सब कुछ संभव कर दिया है।
यों इसे पढ़ते हुए गिरधर राठी जी के साथ बिताए पलों के साथ-साथ राठी जी के बड़े ही दोस्ताना किस्म के घर और वहाँ चंद्रकिरण जी से हुई इतनी सारी बातें एक साथ याद आ रही हैं कि मैं विह्वल हूँ, कुछ-कुछ अवाक भी।
बहुत कुछ...बहुत कुछ, बहुत कुछ एक साथ ताजा हो गया, जिसे शब्दों में बाँधने की कूवत मुझमें नहीं।
बहुत-बहुत धन्यवाद भाई अरुण देव जी, चंद्रकिरण राठी जी के स्नेहिल व्यक्तित्व के साथ-साथ उस अद्भुत जादुई शख्स से मिलवाने के लिए, जिसका नाम ऋत्विक घटक है, और जिसकी बात चलते ही अंदर बहुत कुछ उमड़ पड़ता है।
सस्नेह,
प्रकाश मनु
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