सबद भेद : कात्यायनी : मीना बुद्धिराजा







वे
हमें
हमारे वजूद की
याद दिलाते है.
अहसास कराते हैं.
एक वजूद वाली औरत को
प्यार करने का,
उस पर क़ाबू पाने का
मज़ा ही कुछ और है.
(जादू नहीं कविता : कात्यायनी)



देवी प्रसाद मिश्र की कविता पर मीना बुद्धिराजा के लिखे आलेख की प्रशंसा हुई है. यह आलेख आप समालोचन पर पढ़ सकते हैं.

समकालीन महत्वपूर्ण कवयित्री कात्यायनी की कविताओं पर प्रस्तुत यह आलेख भी लगन से तैयार किया गया है. कात्यायनी ने हमारे समय के हिस्र, बर्बर, जन विरोधी' और कुटिल चेहरे को जिस तरह से अपनी कविताओं में प्रत्यक्ष किया है वैसा और किसी ने नहीं किया है. जीवट और उनकी जिद उन्हें प्रतिबद्धता से विचलित नहीं होने देती है.




प्रतिबद्धता और संघर्ष के मोर्चे पर स्त्री-कविता : कात्यायनी              

मीना बुद्धिराजा







नुष्य की अनंत स्वप्न-आकांक्षाओं की विविधतापूर्ण अभिव्यक्ति के रूप में कविता हर समय और हर समाज में अपनी आमद दर्ज कराती रहती है. मायकोव्स्की के शब्दों में  -

कवि हमेशा संसार का देनदार रहता है
व्यथाओं में ब्याज और जुर्माने अदा करता हुआ
और उन सबका
जिनके बारे में वह नहीं लिख सका

कवि के शब्द तुम्हारा पुनर्जीवन हैं.

कविता हमेशा वास्तविक दुनिया में रहते हुए भी इसे एक चुनौती के रूप मे स्वीकार करती है. प्रत्येक व्यवस्था में विसंगतियां हो सकती हैं, अपने को बहुत आदर्शवादी माननेवाली पंरपरावादी व्यवस्था में, पूंजीवादी व्यवस्था में और समाजवादी व्यवस्था में भी.  बाह्य यथार्थ में कई बार जो दिखायी देता है वह वास्तविक नहीं होता और जब आंतरिक सतहों से उसका टकराव होता है तो एक नया गहन अर्थ सामने आता है. वास्तव मे कवि या लेखक ही उस अर्थपूर्ण जीवन की खोज और समीक्षा करता है और उससे साक्षात्कार करता है. अपनी प्रतिबद्धता के कारण वह व्यवस्था की विकृतियों को, अन्याय, शोषण, विडंबनाओं  और यातनाओं को पहचान पाता है. जीवन की सार्थकता को खोजे बिना एक रचनाकार की तरह वह कभी नहीं जी  सकता. हिंदी कविता के वर्तमान परिदृश्य में अब वैचारिक प्रतिबद्धता, प्रगतिशीलता और जनवादी सरोकारों को लेकर कवि और रचनाकार अपने अनुभवों, सूक्ष्म अतंर्दृष्टि और निज़ी ईमानदारी पर ज्यादा भरोसा करता है, किसी दल या संगठन विशेष पर नहीं. कविता किस तरह अपनी वास्तविक अस्मिता और संघर्षशील भूमिका को पुन: अर्जित कर पायेगी और अपने समय के अधिकार- तंत्र व सत्ता संरचना की आलोचक बन सकेगी, यह प्रश्न आज कविता में सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है.


इक्कीसवीं सदी में सत्ता, राजनीति, समाज,संस्कृति और शक्ति तंत्र की संरचनाओं के सम्मुख मानव की नियति को अभिव्यक्त करने वाले जो कठिन प्रश्न और मुद्दे उठे हैं, उनकी सबसे सार्थक, ज्वलंत और सशक्त अभिव्यक्ति करने में समर्थ और सक्षम कवयित्रियों में कात्यायनी का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है.  समकालीन कविता में नि:संदेह वह  अकेली ऐसी रचनाकार हैं जो बदलाव के कई मोर्चों पर सक्रिय हैं. उन्होने इस समय और समाज का भयावह, निर्मम, त्रासद और क्रूर यथार्थ देखा है इसीलिये उनमें अपनी कविता के औचित्य, उपादेयता और उत्तरदायित्व को लेकर ऐसा आत्मसघंर्ष है जो मुक्तिबोध के बाद विरल कवियों में मिलता है. हिंदी के सुप्रसिद्ध और वरिष्ठ कवि विष्णु खरे जी ने उनकी कविता के विषय में कहा है- 


समाज उनके सामने ईमान और कविता कुफ्र है, लेकिन दोनों से कोई निजात नहीं है- बल्कि हिंदी कविता के रेआलपोलिटीक से वे एक लगातार बहस चलाये रहती हैं. यह दिलचस्प है कि उनकी चौंतीस कविताओं के शीर्षक में ही कविता शब्द आया है.’

चेहरों पर आंच, सात भाइयों के बीच चम्पा, जादू नहीं कविता, इस पौरूषपूर्ण समय में, फुटपाथ पर कुर्सी, राख अंधेरे की बारिश में जैसे महत्वपूर्ण कविता-संग्रहों में जहां एक तरफ कविता और उसमें क्रांतिधर्मी बदलाव के लिये संघर्ष के बीच तनावपूर्ण संबधो को लेकर वे कथ्य और कला- शिल्प को भी जोखिम में डाल देती हैं. वहीं आत्मसंघर्ष को रचना का केंद्रीय विचार मानते हुए व्यवस्था की विसंगतियों, कलावाद और कला की आत्मतुष्ट तटस्थता पर भी चोट करती हैं. निर्विवाद रूप से कात्यायनी हिंदी की समूची जुझारु, प्रतिबद्ध स्त्री-कविता में अपनी जागरूक और बेमिसाल उपस्थिति बना चुकी हैं-

इस पौरूषपूर्ण समय में
संकल्प चाहिये
अदभुत-अन्तहीन
इस सान्द्र,क्रूरता भरे
अँधेरे में
जीना ही क्या कम है
एक स्त्री के लिये
जो वह
      रचने लगी
कविता !

दरअसल विचारधारा और इतिहास के अंत की घोषणा के इस समय में सामाजिक न्याय की अवधारणा, विकल्प के स्रोतों की तलाश, जनतंत्र मे उत्पीड़ितों के अधिकार, स्त्री-अस्मिता,सांस्कृतिक-साम्राज्यवाद और बाज़ारवाद का वर्तमान संकट, नवउदारवाद और भूमडंलीकरण तथा दुनिया के भविष्य के साथ मानवता से जुडे‌ गंभीर प्रश्नों पर भी कात्यायनी की कवितायें यथार्थवाद का एक नया रूप प्रस्तुत करती हैं. जो सिर्फ एक देश में ही सच्चे समाजवाद की सीमा से आगे बढ़कर पूरे विश्व में समाजवाद की परिकल्पना को विस्तृत करते हुए हिंदी के पाठकों को वहां तक ले जाती हैं. उनकी कविताओं में प्रखर राजनीतिक चेतना है और व्यापक सामाजिक चिंताएं भी. कात्यायनी अपनी रचनाशीलता में प्रतिरोध और विचार का जो नैरेटिव तैयार करती हैं, उसमें उनकी मूल चिंता वर्चस्ववादी शक्तियों के हाथों वैचारिक प्रतिबद्धता के बिक जाने की त्रासद नियति की विडंबना और अंतर्विरोध हैं.

समकालीन कविता में चिंतनविरोधी-अमूर्तता, सरोकार विहीन शैली, वैचारिक प्रतिक्रिया रहित प्रवृत्ति, सुविधापरस्त लेखन, अन्याय के प्रति तटस्थता,  आत्ममुग्धता और विकल्पहीन रचनाशीलता के प्रति मुखर विद्रोह उनकी कविताओं का मुख्य केंद्र बिंदु है. सत्ता तंत्र के तमाम छ्द्म सिद्धातों, क्रूरताओं, प्रंपचोषड्यत्रों और कुटिल नृशंसताओं के सम्मुख वह मनुष्य की बुनियादी अस्मिता को बचा लेना चाहती हैं. जब तक व्यवस्था कमजोर, शोषित और पीड़ित मानव के अस्तित्व को उसका आत्मसम्मान नहीं देतीतब तक एक कवि के रूप में कात्यायनी मानती हैं कि कवि-कर्म उनके लिए जीवन युद्ध है और जीवन जीना किसी अथक संघर्ष से और किसी योद्धा के जीवन से कम नहीं है

यदि यह कविता बन सकी एक
थकी हुई मगर अजेय स्त्री की
पहचान तो यह कविता रहेगी
असमाप्त और यह दुनिया जब
तक रहेगी, चैन से नहीं रहेगी.

कात्यायनी अपनी रचना-प्रक्रिया के बारे मे कहती हैं कि- 

कविता जो स्वंय मानवीय जरूरत रही है मानवीय जरूरतों की तड़प पैदा करती हुई, वह प्रकृति से वर्चस्व विरोधी होती है और एक औजार भी होती है , राज्य के शक्तिशाली रहस्य को भेदने-समझने का, जैसे कि जीवन के तमाम भेदों को जानने- समझने का.’

आगे वे कहती हैं-

 कविता को रहस्य बनाना उसे राज्यसत्ता के पक्ष मे खड़ा करना है. कविता को कर्मकाण्ड बनाना उसे कर्मकाण्ड के पक्ष मे खड़ा करना है, जैसे कि कविता को विद्रोही बनाना उसे विद्रोह के पक्ष मे खड़ा करना है.पर आज कविता एक माल है और माल के रूप मे कविता के अंत का संघर्ष भी समाजवाद के लिये संघर्ष का एक एजेंडा है.’   
स्मृति स्वप्न नहीं
    आशाएं भ्रम नहीं
    जगत मिथ्या नहीं
    कविता जादू नहीं
    सिर्फ कवि हम नहीं.

कात्यायनी ने कविता की पारंपरिक संस्कृति को बदला हैकविता में भाषिक वर्चस्व और आभिजात्यपन को तोड़ कर उसके लोकतांत्रिक स्वरूप को बनाए रखने का अनथक प्रयास किया है. एक विद्रोही कवयित्री के रूप में उन्होनें अभिजातपूर्ण और तथाकथित सभ्रांत भाषा की स्थापित व्यवस्था पर शक्तिशाली प्रहार किया है. कविता सहित समस्त रचनाशीलता के लिये इतिहास का कोई भी समय सरल या निरापद नहीं रहा, यह समय भी जटिल है और उतना ही कठिन भी. जबसे बाज़ारवाद और उदार पूंजीवाद ने बहुत सी जन-आकांक्षाओं के स्वपनों पर आघात किया है, तब से स्थितियां बहुत बदल गई हैं.

मानवता के दीर्घ विकासक्रम मे जो मूल्य हमने अर्जित किये थे, आज उन पर सबसे बड़ा संकट है. इसीलिये मानव-मूल्यों के पक्ष में चाहे रचनाकार हो या कविता, दोनो ही चुनौतियों से घिरे हैं. ऐसे में कविता लिखना और साधारण मनुष्य के पक्ष में निर्भीक और निष्पक्ष खड़े होना कात्यायनी की कविताओं की विश्वसनीयता और जनप्रतिबद्धता का प्रमाण है. विवेक का सहचर होना  कवि को आत्मनिर्णय का अधिकार देता है जो अपने आप में एक चुनौती है. ऐसी विकट स्थितियों में कोई सच बोलने का जोखिम उठा रहा है और अपने समय के सरोकारोंको ठीक से पहचान रहा है , जटिलताऑ से जूझ रहा है तो सामाजिक परिवर्तन की दिशा मे यह रचनाधर्मी शक्तियों का सबसे ज्यादा योगदान हो सकता है. कात्यायनी इसलिये कविता को बदलाव के हथियार के रूप में ,निर्मम यथार्थ से संघर्ष करने की एक बहुत बड़ी उम्मीद मानती हैं. विचारशून्यता के इस कठिन समय में भी वे उन सभी के प्रति आशान्वित हैं जिन्होने-
 
धारा के विरुद्ध तैरते उन तमाम लोगों को
जिन्होंने इस अँधेरे दौर में भी
न सपने देखने की आदत छोड़ी है
और न लड़ने की.
                      
सम्यक विवेक और संवेदनशीलता के अभाव में मनुष्य होने की जो पहचान और सार्थकता आज हमने खो दी है.संवादहीनता के इस युग में कात्यायनी की कवितायें अपने क्रांतिधर्मी अभियान से यही आश्वस्त करती हैं कि उपभोगवाद और सत्ता के वैभव और चकाचौंध के पीछे जो सघन अंधेरा है,वह जरूर छंटेगा. सभी प्रतिकूल सामाजिक,राजनीतिक, आर्थिक व्यवस्था की आँधियों मे भी उनकी कविता उम्मीद और स्वपनों की लौ निरंतर जलाये रखती हैं-

आ रही है ताप
जल रही है कहीं कोइ आग
चिनगियाँ उड़ती-चिटखती हैं
लगेगी क्या आग जंगल में?
आंच चेहरों पर चमकती है !

वैचारिक आंदोलन की इस प्रक्रिया में उनका मूल उद्देश्य मानव मात्र को बचाने और उसकी अस्मिता को केंद्र में प्रतिष्ठित करने का है. अकादमिक विमर्शों और चिंतन- लेखन के काल्पनिक रोमानी आकाश से उतरकर दुख:, शोषण, अन्याय और हर तरह के दमन के खिलाफ विचार और कर्म की ईमानदारी को कात्यायनी अनिवार्य मानती हैं. जड़ीभूत काव्य रूढ़ियों को तोड़कर वे अपनी राह स्वंय बनाती हैं और नयी-नयी अभिव्यक्तियों का अविष्कार करती हैं . अपनी कविता 2010 में निराशा, प्रेम , उदासी और रतजगे की कविता के बारे में कुछ राजनीतिक नोट्समें उनकी यह चिंतायें और जन सरोकारों के प्रति उनकी जवाबदेही स्पष्ट दिखाई देती है-

चीज़ें बहुत बदल चुकी हैंपर इतना निश्चय ही नहीं
कि राज्यसत्ता , पूंजी,श्रम,उत्पीड़न, रक्त,मृत्यु,बदलाव
और उम्मीदों के अर्थ बदल चुके हों.
अभिव्यक्ति अपने नए रूपों का संधान करती हुई
कहीं यथार्थ के उदगम से ही दूर हो गई है.
और हम ठोस तर्कों के साथ यह कहना चाहते हैं
कि शब्द अगर अपने कर्तव्यों से किनाराकशी करने लगें
तो पियानो पर कोई संगीत-रचना भी
राजनीतिक घोषणा पत्र की भूमिका निभा सकती है.


कात्यायनी हिंदी मे एकमात्र कवयित्री हैं जिन्होने एक नई वर्ग-चेतना अर्जित करते हुए अन्याय ग्रस्त,संघर्षरत,सर्वहारा समाज को कविता से जोड़ा है. वे कविता में और अपने जीवन में सिर्फ नारी मुक्ति ही नहीं,मानव मुक्ति के सक्रिय आंदोलन से भी जुड़ी हैं . इस अर्थ में उनकी कवितायें काव्य सौंदर्य के चातुर्य के लिये नहीं, बल्कि जन सरोकारों के लिये पढ़ी और याद रखी जायेंगी .

यह समय है
या राख और अँधेरे की बरसात
बेहतर है
आग लगे
जंगलों की ओर मुड़ जाना !

उनकी बहुत सी कवितायें जैसे सहिष्णु आदमी की कविता, आशावादी नागरिक की कविता,निराशा की कविता,एक असमाप्त कविता की अति प्राचीन पाण्डुलिपि, शोक- गीत, क्या स्थगित कर दें कविताएक फैसला फौरी तौर पर कविता के खिलाफ  मुख्यत: अपनी रचनात्मकता में समसामयिक तौर पर तमाम राजनीतिक और सामाजिक पक्षों के अतंर्विरोधों और जटिल यथार्थ की विडंबनाओंका सशक्त बयान हैं. कला, साहित्य और बुद्धिजीवियों मे वैचारिक प्रतिबद्धता के विचलन पर ईमानदार आत्मचिंतन और समय से मुठभेड़ करने  मेंउनकी कवितायें अप्रतिम हैं

एक बर्बर समय के विरुद्ध युद्ध का हमारा संकल्प
अभी भी बना हुआ है और हम सोचते रहते हैं कि
इस सदी को यूं ही व्यर्थ नहीं जाने दिया जाना चाहिये
फिर भी यह शंका लगी ही रहती है कि
कहीं कोई दीमक हमारी आत्मा में भी तो
प्रवेश नहीं कर गया है.
अपनी शंकाओं, आशंकाओं,भय और आत्मालोचन को
अगर बेहद सादगी और साहस के साथ
बयान कर दिया जाये
तो कला और शिल्प की कमजोरियों के बावज़ूद
एक आत्मीय और चिंतित करने वाली
काम चलाऊ, पठनीय कविता लिखी जा सकती है
भले ही वह महान कविता न हो.

एक रचनाकार के रूप में कात्यायनी में अपनी कवितामात्र के दायित्व और वैचारिक प्रासंगिकता को लेकर ऐसा जोखिम भरा आत्मसंघर्ष है ,जो वरिष्ठ कवि विष्णु खरे जी के शब्दों में मुक्तिबोध और धूमिल के बाद उन्ही में दिखाई देता है .कात्यायनी स्वीकार करती हैं कि ईमानदारी एक बार फिर से कविता की बुनियादी शर्त बनायी जानी चाहिये. उनकी कविता विचार शून्यता, संवेदनहीनता और शुष्कता के  यातना-शिविर में  उम्मीदों और स्वप्नों को बचाकर अपने वक्त की तमाम सरगर्मियों और जोखिम के एकदम बीचोबीच खड़ी है. कठिन से कठिन शर्तों पर भी आदमी बने रहने का प्रश्न हमेशा उन्हें तभी निरुत्तर कर देता है, जब भी वे कविता को स्थगित करने के बारे मे सोचती हैं. वर्तमान दौर के महत्वाकांक्षी, अवसरवादी,आत्ममुग्ध और सुविधा के नियमों से परिचालित समय में उनकी कवितायें अपनी वास्तविक अस्मिता, संघर्षशील और समझौता विहीन भूमिका के साथ भविष्य के लिये आश्वस्त करती हैं

ऐसा किया जाये कि
एक साज़िश रची जाये.
बारूदी सुरंगे बिछाकर
उड़ा दी जाये
चुप्पी की दुनिया.

कात्यायनी मानती हैं कि कविता मे एक उद्विग्न भावाकुल निराशा घुटन से भरे दु:स्वपन सरीखे दिनों से हमे बाहर लाती है और जीवित होने का अहसास कराती है. समय का इतिहास सिर्फ रात की गाथा नहीं,उम्मीदें यूटोपिया नहीं .आम सहमति पर पहुंचे हुए तथाकथित उच्च बुद्धिजीवी वर्ग पर वे कलावाद और उनकी आत्मतुष्ट तटस्थता पर निरंतर चोट करते हुए  एक  जुझारु और जागरूक कवयित्री के रूप मे बेमिसाल बनकर उपस्थित होती हैं. कविता के लिये संकट के समय में मुक्तिबोध की तरह वे इसे आवेग त्वरित काल-यात्रीमानती हैं और नेरुदा,नाज़िम हिकमत ,लोर्काब्रेख्त  जैसे कवियों की परंपरा से जोड़ते हुए इसे जनता के संघर्ष का प्रतिनिधि मानती हैं

दुनिया के तमाम देशों के तमाम आम लोगों तक
पहुंचेगी कविता
अलग अलग रास्तों से होकर
अलग अलग भेस में
और बतायेगी उस सबसे सुंदर दुनिया के बारे में
जो अभी भी हमने देखी नहीं है .

एक स्त्री कवि के रूप में स्त्री विमर्श का मामला उनके लिये व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है. कात्यायनी मे यह विमर्श सतही ढ़ंग से नहीं , बल्कि स्त्री की अस्मिता, पह्चान, स्त्री का संघर्ष और पुरुषसत्तात्मक समय में तमाम स्तरों पर स्त्री- आबादी की जटिल संरचना से जुड़े सवालों  को लेकर भी है. उनकी कविताओं मे विद्रोह की आकांक्षा की ऐसी अभिव्यक्ति है, जो नये सिरे से स्त्री के स्वाभिमान और स्वाधीनता को स्थापित करती है. घोषित नारीवाद से अलग उनमें हमेशा समाज के बीच एक जीती-जागती संघर्ष करती स्त्री है. पुरुष मात्र को शत्रु या स्त्री विरोधी मानने के विपरीत वे स्त्री को भी पुरुष के समकक्ष मनुष्य का दर्ज़ा देने की बात कह्ती हैं . उनका मानना है कि इस समाज में कोई अंतिम सर्वहारा है तो वह नारी ही है. कात्यायनी ने स्त्री के अस्तित्वपरक और नियति संबधी प्रश्नो को सामाजिक- राजनैतिक चेहरों में पह्चाना है और उसे शेष संपूर्ण समाज से जोड़ा, जो उनकी एक अभूतपूर्व कोशिश है-

देह नहीं होती है
एक दिन स्त्री
और
उलट-पुलट जाती है
सारी दुनिया
अचानक !

इसी बीच उनकी कविता निरंतर विस्तृत और बुनियादी होती गई है और उसने नारी विमर्श के बंधेऔर स्वीकार्य ढ़ाचे को तोड़ा है . उनमें स्त्री गरिमा और संवेदना के रिश्ते और भी गहरे हुए हैं. कात्यायनी की अनेक कवितायें जैसे सात भाइयों के बीच चम्पाहाकी खेलती लड़कियां, इस स्त्री से डरोस्त्री का सोचना एकांत में,अपराजिता,देह ना होना, वह रचती है जीवन, भाषा मे छिप जाना स्त्री का  विविध स्तरों परनैतिकताओं  और पंरपराओं की आड़ मे स्त्री की मेधा , श्रम और शक्ति को अनदेखा करने वाली वर्चस्ववादी पौरुषपूर्णसत्ता की मानसिकता और विचारों से लगातार टकराती हैं

चैन की एक सांस लेने के लिये
स्त्री
अपने एकान्त को बुलाती है .
संवाद करती है उससे.
जैसे ही
वह सोचती है
एकान्त में
नतीजे तक पहुंचने से पहले ही
खतरनाक
       घोषित
         कर दी जाती है !

हिंदी के सुप्रसिद्ध और अप्रतिम कवि मंगलेश डबराल जी नें उनके जादू नहीं कविता संकलन के बारे में कहा है-

कात्यायनी नारीवाद और मार्क्सवाद के बीच एक जटिल रचनात्मक रिश्ता कायम करती हैं , इसीलिये वह मूल रूप से एक स्त्री स्वर हैं लेकिन उनकी वैचारिक प्रतिबद्धता और समाज को बदलने की बेचैनी भी उतनी ही सच्ची है और इसीलिये यह एक प्रतिबद्ध आवाज़ हैं लेकिन उनमें एक स्त्री की पीड़ा भी उतनी ही मूलभूत है.

उनमें एक उत्पीड़ित मनुष्यता का संघर्ष है जिसे एक स्त्री के शिल्प मे व्यक्त किया गया है और इस शिल्प मे एक गहरी लोकतांत्रिक चेतना है जो स्मृति और स्वपन के पारम्परिक बिंबों को भेदती हुई , कविता को ज़्यादा आमफहमज्यादा सामाजिक बनाती है .

समकालीन स्त्री कवियों में कात्यायनी की कवितायें एक अलग और विशिष्ट पह्चान रखती हैं. हमारे समय की त्रासदियों-विसंगतियों से भरे अँधेरे में निरंतर संघर्ष करते हुए वे यथास्थिति की निर्मम आलोचना और प्रतिगामी शक्तियों का कड़ा प्रतिरोध करती हैं , लेकिन उनके व्यापक दायरे  में प्रेम,दुख, उदासी और रोज़मर्रा के मानवीय जीवन के बहुविध रंगों की उपस्थिति भी है

प्यार है फिर भी
जीवित हठ की तरह
जैसे इतने शत्रुतापूर्ण माहौल में कविता
जैसे इतनी उदासी में विवेक.

उनकी कविता उनका अपना अविष्कार है. वह लिखती हैं

“हम रोज़ रोज़ के अपने जीवन में अपने समय के संकट से टकराते हैं,इसकी चुनौतियों को स्वीकारते हैं और उनसे जूझते हैं, एक कवि के आत्मसंघर्ष की व्याख्या मै इसी रूप मे करती हूं. यह दुर्निवार आत्मसंभवा अभिव्यक्ति की एक साहसिक खोजी यात्रा है . इसमें हताशा और थकान के कालखण्ड भी आते हैं तथा आह्लाद और उपलब्धियों के क्षण भी आते हैं. कभी एक कविता जन्म लेती है तो कभी सहसा सब कुछदृश्य पटल से ओझल हो जाता है और हमारे भीतर कभी तो एक कविता शुरू हो जाती है और कभी त्रासद विफलताओं के खाते में कुछ नयी प्रविष्टियाँ दर्ज़ हो जाती हैं . यूं जीवन चलता रहता है और कविता भी.

वे जो भाषा को बदलकर , शब्दों को मनमाने अर्थ देकर हमसे चीज़ों की पहचान छीनने की कोशिश कर रहे हैं,इतिहास उन्हे भीषण शाप देगा .कविता तो फिर भी हमेशा रहेगी .सच्ची कविता निजी स्वामित्व के खिलाफ है और सच्चा कवि भी . इसीलिये कवि को कभी कभी लड़ना भी होता है , बंदूक भी उठानी पड़ती है और फौरी तौर पर कविता के खिलाफ लगने वाले कुछ फैसले भी लेने पड़ते हैं . ऐसे दौर आते रहे हैं और आगे भी आयेगें.”


कात्यायनी की कवितायें तनाव , दुविधा, जोखिम और चुनौती से भरी सभी बीहड़ स्थितियों में अपने सृजन-कार्य को जीवन के सघन- सान्द्र दबावों के बीचों- बीच ही पूरा करती हैं. उनके जीवननुभव उनकी राजनीतिक- सामाजिक सक्रियता की देन हैं और उनकी कवितायें भी. वे अपनी कविता का कच्चा माल स्मृतियों और कल्पना की खदानों से लाती हैं, जिसके लिये उन्हीं के शब्दों मे उस खौलते हुए तरल धातु की नदी में उतरना होता है जो हमारी आसपास की ज़िंदगी है. अपूर्ण कामनाओं ,विद्रोहों ,हार- जीत से भरी हुई,  सुंदर-असुंदर के द्वद्वांत्मक संघातों से उत्तप्त और गतिमान, यही हमारी उर्जा जैसी होती है .’  

कात्यायनी की कवितायें न केवल विषय-वैविध्य की दृष्टि से,बल्कि क्षितिज के विस्तार, संवेदना एवं चिंतन की गहराई तथा समाज के संश्लिष्ट भौतिक -आत्मिकयथार्थ के कलात्मक पुनर्सृजन की दृष्टि से भी हिंदी की समकालीनकविता मे विशिष्ट और सशक्त उपस्थिति हैं.
______

मीना बुद्धिराजा
हिंदी विभाग
अदिति महविद्यालय, बवाना , दिल्ली विश्वविद्यालय

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  1. A powerful and analytical write up! This helps to widen the readership of Katyayini, a modernist ,feminist verse writer. Dr Buddhiraja's exploration of and commentary on the poetry is sharp, balanced and deeply humane.

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  2. Bahut accha aur gambhir lekh hai katyayni ji ki kavitaon par.

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  3. मिहनत कर अच्‍छा लिखा है मीना बुद्धिराजा ने।

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  4. बहुत स्वागत
    कात्यायनी बड़े रेंज की कवि हैं।

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  5. यह मेरी प्रिय कवयित्री पर लिखा बहुत सारगर्भित और जरूरी आलेख है। इसमें उद्धृत सभी कवितांश मुझे भी विशेष प्रिय हैं। मीना जी को हार्दिक बधाई इस आलेख के लिए।

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  6. Mene aaj pura lekh pdha,
    Meena ji ne katyayni ji ki anek kavitaon par bauht acha likha hai
    Unhe shubh kamnaye

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  7. कात्यायनी पर बहुत गहनता के साथ लिखा मीना जी ने। कात्यायनी हमारे समय की संवेदनशील और जुझारू कवयत्री हैं।

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  8. मीना बुद्धिराजा7 फ़र॰ 2018, 9:02:00 am

    mai is lekh ko padhne aur apni vishesh pratikriya dene ke liye kavyitri katyayani ji ke sabhi vishisht paathkon ka hardik dhanywad karti hun. ..samalochan aur prasidh kavi-aalochak ,sampadak arun dev ji kaa vishesh aabhar vyakt karti hun, sahitya ke is mahatvpurn manch par phir se avasar dene ke liye.

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  9. *आ रही है ताप
    जल रही है कहीं कोइ आग
    चिनगियाँ उड़ती-चिटखती हैं
    लगेगी क्या आग जंगल में?
    आंच चेहरों पर चमकती है*


    कात्यायनी की और अनामिका की कविता ने मुझे इस संवेदनहीन खराब समय में ढेर सारी उम्मीदें दी हैं । इस कठोर समय में स्त्री का जी लेना ही एक सिंबालिज़म है । कविता रचने की जुर्रत तो भला है ही एक उपलब्धि। इन प्रेरणा स्रोतो का आभार प्रकट करते हुए जिंदा हूं ।

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  10. कात्यायनी जी उन रचनाकारों में से हैं जिनकी कविता का मर्म और शिल्प मैं अपने करीब पाता हूँ। कात्यायनी जी को प्रणाम। मीना जी और समालोचन को धन्यवाद।

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