२०२० में अंकित नरवाल (जन्म: ६ अगस्त १९९०) को ‘यू आर अनन्तमूर्ति: प्रतिरोध का विकल्प’ पुस्तक के लिए साहित्य अकादेमी का युवा पुरस्कार मिला था, इस वर्ष आधार प्रकाशन से ‘अनल पाखी: नामवर सिंह की जीवनी’ शीर्षक से उनकी नयी क़िताब प्रकाशित हुई है.
नामवर सिंह हिंदी आलोचना
में केन्द्रीय व्यक्तित्व रहें हैं. उनके जीवन को जानने समझने की कोशिशों का यह प्रतिफल
है. ख़ासकर जो नयी पीढ़ी इधर साहित्य में सक्रिय हुई है, उसके लिए भी यह बहुत उपयोगी
है.
नामवर सिंह का जीवन
विराट और बहुआयामी रहा है. उनके सम्पर्क में आए हर व्यक्ति के पास नामवर सिंह की इतर
कथाएं हैं. यह उनके जीवन की शाखाएं प्रशाखाएं
हैं.
यूरोप में लेखकों की
अनेक जीवनियाँ लिखीं और प्रकाशित होती हैं. हिंदी में नामवर सिंह पर यह शुरुआत है, और अच्छी शुरुआत है.
इस जीवनी की विस्तार से
चर्चा कर रहें हैं केवल कुमार.
अनल पाखी
संवादी
आलोचक की जीवन गाथा
केवल कुमार
केवल कुमार |
हिन्दी साहित्य में जीवनी लेखन लंबे समय तक
सबसे विवादास्पद व उपेक्षित विधा रही है. इस विधा के प्रति साहित्यकारों में उपेक्षा का
भाव देखा जाता रहा है. साहित्य के इतिहास
में जितनी उपन्यास, कहानी व नाटक आदि विधाएँ प्रफुलित हुई हैं, उतना जीवनी लेखन अपना
फलक नहीं फैला पाया है. सृजनात्मक लेखन
में लेखक की कल्पना शक्ति को विशेष महत्त्व दिया जाता है, उसमें यथार्थपरकता का
अंश अगर न भी हो तो भी उपन्यास या कहानी उत्कृष्ट हो सकती है, किन्तु जीवनी लेखन
में चरितनायक के जीवन प्रसंगों को जीवनीकार अपनी प्रतिभा के माध्यम से इस प्रकार
प्रस्तुत करता है कि वह यथार्थ से भटक न पाए. इतिहास के व्याख्यात चरित्रों एवं
साहित्यकारों के सन्दर्भ में यह ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है. श्रेष्ठ जीवनी, जीवनीकार के विशुद्ध ज्ञान,
उत्कृष्ट भाषा-शैली, कल्पनाशीलता और निष्पक्षता पर आधारित होती है. जीवनी और जीवनी लेखन के विषय में विष्णु
प्रभाकर लिखते हैं, ‘जीवनी अनुभवों का श्रृंखलाबद्ध कलात्मक चयन है. इसमें वह ही घटनाएँ पिरोई जाती हैं, जिनमें
संवेदना की गहराई हो, भावों को आलोड़ित करने की शक्ति हो, घटनाओं का चयन लेखक किसी
नीति, तर्क या दर्शन से प्रभावित होकर नहीं करता. वह गोताख़ोर की तरह जीवन-सागर में डूब-डूबकर मोती
चुनता है. सशक्त और सच्ची संवेदना की हर
घड़ी, वही मोती है. श्रेष्ठ जीवनी–जीवनी
लेखक, काल, देश, व्यक्ति और घटना की सीमाओं को तोड़कर अनुभूतियों का सौन्दर्यमय
विक्षेपण करता है. विशुद्ध कला और
मानदंडों के बीच संतुलन और सामंजस्य का प्रणयन करता है. ’
जीवनीकार का कार्य कठिन तब हो जाता है, जब वह किसी साहित्यकार
की जीवनी लिख रहा हो, क्योंकि उसमें उसे जीवन के विभिन्न पहलुओं के साथ-साथ
साहित्यिक-संघर्ष, यात्रा एवं अवदान को भी नितांत यथार्थ तरीके से प्रस्तुत करना
होता है. लेखक को अपने पूर्वाग्रह और
विशेष विचारधारा से मुक्त होकर जब किसी साहित्यकार की जीवनी पर कार्य करना होता है,
तब उसे ऐसी घटनाओं से बचना पड़ता है, जो लेखन की प्रक्रिया को मूलभत तत्त्वों से
भटका दें. अगर लेखक की विचारधारा या
धार्मिक मान्यताएँ चरितनायक से मेल नहीं खातीं तो लेखक को उन्हें त्यागकर
निष्ठापूर्वक अपना कार्य करना होता है. क्योंकि ‘जीवनी लेखन कोरा इतिहास-मात्र नहीं है,
बल्कि उसमें लक्षित व्यक्ति के जीवन की उन घटनाओं व अनुभवों का भी कलात्मक चयन
होता है, जिससे उसकी सौम्यताओं और सीमाओं का सहज ही अंकन हो सके. ’
हिंदी भाषा में साहित्यकारों की जीवनियाँ कम लिखी गयी हैं. पहले-पहल संतों, महात्माओं एवं इतिहास प्रख्यात
चरित्रों की जीवनी लेखन से यह परम्परा शुरू होती है. इस परम्परा में सबसे पहले गोपाल शर्मा
शास्त्री कृत दयानन्द दिग्विजय (1881 ई.), राधाकृष्णदास लिखित आर्यचरितामृत
बाप्पारावल (1884 ई.), आदि जीवनियाँ मिलती हैं.
इसके बाद हिंदी साहित्य में हिंदी साहित्यकारों के जीवनी लेखन
का सफर बाबू राधाकृष्ण दास कृत भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र का जीवन चरित्र
(1904 ई.) से आरम्भ होता है. बाबू
शिवनन्दन सहाय कृत हरिश्चन्द्र चरित्र (1905 ई.), आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
कृत बाबू राधाकृष्ण दास चरित्र (1913 ई.), शिवरानी देवी लिखित प्रेमचन्द घर
में (1944 ई.), विष्णु प्रभाकर कृत आवारा मसीहा (1974 ई.) के बाद दो-तीन
वर्षों के अन्तराल पर किसी-न-किसी साहित्यकार की जीवनी प्रकाशित होने का सिलसिला
आरंभ हो गया. इसी क्रम में 2011 में
प्रकाशित आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जीवनी व्योमकेश दरवेश (डॉ. विश्वनाथ
त्रिपाठी) प्रकाशित हुई है.
अब जीवनी-लेखन भी एक सशक्त विधा बन गयी है. इस विधा के इस मुकाम का श्रेय अमृतराय और मदन
गोपाल को जाता है. अमृतराय और मदन गोपाल
दोनों ने जीवनी लेखन में प्रेमचंद की चिट्ठी-पत्रों का उपयोग किया और साथ ही उनकी
रचनाओं को भी आधार बनाया. इसी कोटि का एक
प्रयत्न भगवतीप्रसाद सिंह ने ‘कविराज गोपीनाथ जी की जीवनी’- मनीषी की
लोकयात्रा (1968 ई.) प्रस्तुत करके किया है. इसी कोटि में अंकित नरवाल द्वारा लिखित ‘अनल
पाखी’ भी आती है.
‘अनल पाखी’ हिंदी के प्रख्यात संवादी आलोचक नामवर सिंह की जीवनी
है. नामवर ने हिंदी में संवाद पर अधिक बल
देकर अपनी ‘संवादी परम्परा’ को विकसित किया है. हिंदी आलोचना को शास्त्रीय बन्धनों से मुक्त कर
व्यावहारिक आलोचना तक लाने का श्रेय भी नामवर को जाता है. नामवर की इस ‘वाचन-संवादी’ परम्परा की प्रशंसा 1988 ई.
में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में हुए प्रगतिशील लेखक संघ के समारोह की
अध्यक्षता करते हुए नागार्जुन ने मुक्त कंठ से की है-
‘अपने देश में आम जनता तक बातों को ले जाने की दृष्टि से, पुस्तकों से दूर कर दिए गए लोगों तक विचारों को पहुँचाने के लिए लिखना जितना ज़रूरी है, उससे ज़्यादा ज़रूरी है बोलना. स्थापित और स्थावर विश्वविद्यालयों की तुलना में यह जंगम विद्यापीठ ज़्यादा ज़रूरी है. नामवर इस जंगम विद्यापीठ के कुलपति हैं. इस विद्यापीठ का कोई मुख्यालय नहीं होता. यह जगह-जगह जाकर ज्ञान का वितरण-सत्र आयोजित करता है. ’
अत: नामवर संवादी आलोचक बने और अपनी वाचन परम्परा को आगे बढ़ाते
रहे.
प्रस्तुत पुस्तक जहाँ नामवर के जीवन-संघर्षों को प्रस्तुत करती
है, वहीं उनकी साहित्य साधना को भी उजागर करती है. यहाँ कवि नामवर से लेकर आलोचक नामवर तक के सफ़र
को बड़ी सटीकता से प्रस्तुत किया गया है. यह
जीवनी नामवर के सम्पूर्ण साहित्य और साहित्यिक अवदान को प्रकट करती हुई उनके जीवन
के अकादमिक एवं शैक्षिक उलट-पलट को यथा रूप में वर्णित करती है. नामवर की इस जीवनी का अध्ययन तीन विशेष भागों
में किया जा सकता है- संघर्षमय जीवन, शैक्षिक जीवन और साहित्य साधना.
संघर्षमय जीवन
जीवनी में चरित नायक के चरित्र की विशेषताओं को स्पष्ट करने के
लिए उसका परिवेश अत्यधिक महत्त्वपूर्ण होता है. प्रस्तुत पुस्तक नामवर के जीवन के विविध संघर्षो
को बड़ी सटीक ढंग से प्रस्तुत करती है. लेखक ने नामवर के गाँव के परिवेश का इतनी सरलता
से वर्णन किया है कि पाठक स्वयं को उसी परिवेश में पाता है. ऐसा प्रतीत होता है कि एक छवि आँखों के समक्ष
उभर आई हो. ‘यह वही ‘जीयनपुर’ है, जिसे उस
जमाने में ऊसर गाँव बोलते थे. इस गाँव को
पास-पड़ोस के धोबी जानते थे, जिन्हें रेह की ज़रूरत पड़ती थी, कपड़े धोने के लिए. गिद्ध भी जानते थे, जिनके बैठने के लिए एक ही
कतार में दस-पंद्रह ताड़ के पेड़ थे. देव भी
जानता था. जाने क्या बात थी, जब आस-पास के
सारे गाँव पानी में डूब कर त्राहि-त्राहि कर रहे थे, यह गाँव प्यासा-का-प्यासा रह
जाता था. नाम ‘जीयनपुर’ और जीवन का पता
नहीं. हो सकता है, जीवन की चाह में ही इसे
‘जीयनपुर’ नाम दिया गया हो, लेकिन यह ‘पुर’ नहीं ‘पुरवा’ था- किसी गाँव का पूरक. ना-मालूम एक छोटी-सी बस्ती.
यह उस समय के भारत के अधिकांश साधनहीन व पिछड़े हुए गाँवों की ही
तरह था, जिसमें धार्मिक मान्यताएँ कहीं ‘संस्कृति’ के हवाले से और कहीं ‘आस्था’ के
वेग से लोक में ख़ूब प्रचलित थीं. इस गाँव
के उत्तर की दिशा में गाँव वालों का आराध्य तालाब पड़ता, जिसे ‘महादेव’ मान कर पूजा
जाता. ... दक्षिण की ओर एक बावली थी, जिसे अधिकतर पशुओं को पानी पिलाने के लिए
उपयोग में लाया जाता. पश्चिम की ओर फैली
ऊसर धरती पर ‘गाँवडीह’ अर्थात् ग्रामदेवता का पूज्य स्थान रहता. पूर्व की दिशा की ओर एक ताड़वन, जिसके नीचे एक
अखाड़ा निरंतर चला करता. इसे पार ‘काली माई
का औरा’ पड़ता, जिस पर अकसर गाँव की औरतें पूजा-अर्चना करने जाया करती थीं. ’
नामवर ने अपना बचपन इस गाँव के वातावरण में व्यतीत किया, जहाँ
सुविधा के नाम पर कुछ नहीं था. गाँव के
सरल स्वभाव के लोगों के बीच पला यह असाधारण प्रतिभा-सम्पन्न व्यक्तित्व बचपन से
कठिन जीवन जीने का आदी था. अनेक कठिनाइयों
से उभरकर खुद को तराशने और ज्ञान को विकसित करने का गुण हम ‘अनल पाखी’ के नामवर से
सीख सकते हैं. बाद के दिनों में नामवर
सिंह अपने जीवन-संघर्ष से जोड़कर इस गाँव को याद करते हैं कि, ‘अपने जीवन के बारे
में मैं नहीं कह सकता यह सरल सपाट है. भले
ही इसमें ऊँचे पहाड़ न हों, बड़ी गहरी घाटियाँ न हों. मैनें ज़िन्दगी में बहुत जोख़िम न उठाए हों. ...जहाँ
मैं पैदा हुआ, उस पूरे जवार में उससे छोटा कोई दूसरा गाँव नहीं था. ...हमारे गाँव
के पास गौरव की कोई चीज़ नहीं थी. छोटा-सा
ऊसर गाँव. खपरैल और फूस के मकान. रहने वाले बहुत साधारण लोग. ’
नामवर का पुस्तक प्रेम अद्भुत था, बचपन में ‘हनुमान चालीसा’ के
माध्यम से पहली बार जो पुस्तकों से परिचय हुआ, वह अंत समय तक छूट नहीं पाया. अंत समय तक भी कोई नई किताब दिखाई पड़ जाए तो उनके मन में वही ललक होती थी,
जो बचपन में उस ‘हनुमान चालीसा’ के लिए हुई थी. उनका यह अगाध पुस्तक प्रेम, उनको निरंतर आगे पढ़ने
के लिए प्रेरित करता रहा. उनके इस प्रेम
में उन्हें किसी भी प्रकार का कोई खलल ना-बर्दास्त था. जब परिवार ने उनकी शादी की बात चलाई तो उन्होंने
मना कर दिया, क्योंकि उन्हें लगा कि शादी के बाद उनका किताबों से रिश्ता टूट जाएगा.
किन्तु परिवार ने एक न मानी और उनकी शादी
करवा दी गयी, किन्तु कई वर्षों तक नामवर इस रिश्ते को स्वीकार नहीं कर पाये. अपनी शादी के विषय में नामवर कहते हैं, ‘घर में
तय हुआ कि मेरी शादी कर देनी चाहिए. मैं
पढ़ना चाहता था और चूँकि मुझको शहर कि हवा लग चुकी थी, मैंने कहा, ‘मैं शादी नहीं
करूँगा. ’ पिताजी सोचते थे कि कहीं वह मर जाएँ और इसकी शादी ही न हो. जल्दबाजी में उन्होंने मेरी शादी तय कर दी. मैं घर से भाग आया. लेकिन पकड़कर लाया गया. हाईस्कूल का इम्तिहान खत्म हुआ था- मेरी शादी कर
दी गई. यू.पी. से लगा हुआ बिहार का बॉर्डर
है, दुर्गावती नदी के किनारे बसा हुआ, गाँव मचखिया, वहीं मेरी शादी हो रही थी और
मैं रो रहा था. बहुत दिनों तक इस शादी को
मैंने स्वीकार नहीं किया.... ’
नामवर ने अपने जीवन में अधिकतर समय आर्थिक अभाव में गुज़ारा है, ऐसा
नहीं था कि नामवर के पास आय का कोई साधन नहीं था किन्तु किस्मत ने उन्हें कभी
स्थिर नहीं होने दिया. दो
विश्वविद्यालयों से थोड़े समय की नौकरी के बाद निकालने के कारण उनकी आर्थिक स्थिति
सुधर नहीं पाई. उनके इस आर्थिक अभाव का
अंत हुआ 1966 में, जब वे राजकमल प्रकाशन के सलाहाकार बने. उन्हें एक हज़ार रुपए वेतन दिया जाने लगा, किन्तु
यह भी ज्यादा समय नहीं चला. राजकमल से
मिलने वाले मासिक एक हज़ार रुपए की राशि को तीन सौ कर दिया गया. नामवर पूर्ण तरह आर्थिक रूप से सम्पन्न तब हुए,
जब उन्हें नियमित रूप से जे.एन.यू. में नौकरी मिली. आर्थिक अभाव के हालातों को इस पुस्तक में इस
प्रकार प्रस्तुत किया गया है, ‘नौकरी छूटने से पहले भी नामवर सिंह के हालात कुछ
ज़्यादा अच्छे नहीं थे. उन दिनों उनकी हालत
यह थी कि उनके पास एक ही कुर्ता था, उसी को धो कर, सुखा कर, पहन कर वे विभाग आया
करते थे. उन्हें तनख्वाह भी नहीं मिल रही
थी. उनके पास फूटी कौड़ी तक न थी. घर से सहायता लेना उन्होंने पहले ही बंद कर दिया
था. उन्होंने अपने खाने की व्यवस्था मेस
में कर रखी थी. विभाग तक वे पैदल ही चलकर
जाया करते थे. ’ इस प्रकार जीवनी में नामवर के आर्थिक संघर्ष को यथा प्रस्तुत किया
गया है.
नामवर के जीवन में संघर्ष अधिक रहा है और सुख और ख़ुशी के पल कम.
नामवर सिंह के लिए जीवन के कुछ सुखद पलों
में एक था- बेटी गीता का जन्म और दूसरा बेटे विजय की शादी. बेटे विजय ने उनके 30 वर्षों के मित्र कवि
केदारनाथ की बेटी को पसंद किया था, नामवर भी यही चाहते थे. बेटे की शादी के समय के खुशमिजाज़ नामवर के विषय
में काशीनाथ लिखते हैं, ‘भैया की आँखों में आँसू देखे मैंने- जीवन में पहली बार और
वह भी बेटे की शादी के समय. वे ख़ुशी के
आँसू थे. ...बेटे ने वह किया था जो उनके नसीब में नहीं था. विजय ने बेटी पसंद की थी कवि केदारनाथ जी की. उनके तीस साल पुराने मित्र और देखे भाले. दिल्ली में उनके पडोसी... .
उनकी दौड़-धूप, उछल-कूद और सक्रियता देख कर सारे बाराती चकित थे.
इतनी दिलचस्पी उन्होंने घर की बेटियों की
शादी में नहीं ली थी. वे रात भर मंडप में
बैठे रहे. पहली बार विवाह की सारी विधियाँ
सम्पन्न होते हुए देखीं, रात भार जाग कर. ...कोई ठिकाना नहीं था उनकी ख़ुशी का. रिसेप्शन के दौरान चहकते फिर रहे थे यहाँ वहाँ. ’
यह सम्पूर्ण जीवनी नामवर के जीवन के सुखों-दुखों को व्यक्त करती,
खुशियों-गमों को समेटती, पारिवारिक कलह को उजागर करती, दाम्पत्य जीवन के यथार्थ को
प्रस्तुत करती जीवन के विभिन्न पक्षों को यथार्थ रूप में प्रस्तुत करती है. इतने विस्तृत वर्णन के बाद भी जीवनी में नामवर की
बेटी संबंधी (शिक्षा, विवाह आदि) अधिक जानकारी न देकर सिर्फ यह बता कर छोड़ दिया गया
है कि वह दिल्ली के किसी कॉलेज में प्रवक्ता है, थोड़ा असहज लगता है. इसका भी विस्तृत वर्णन किया जा सकता था.
शैक्षिक जीवन
नामवर सिंह ने अपनी प्राथमिक शिक्षा अपने गाँव के स्कूल से
आरम्भ की, जहाँ उनके पिता जी अध्यापक थे और डिग्री-शिक्षा का अंतिम सोपान था,
आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी जी के निर्देशन में 1956 में सम्पन्न पीएचडी की
डिग्री से. नामवर ने ‘पृथ्वीराज रासो की
भाषा’ पर अपना शोधकार्य किया था. लेकिन
व्यावहारिक शिक्षा का सिलसिला अंतिम पल तक चलता रहा और इसका प्रमाण है- अस्पताल
में भर्ती होने पर अंतिम पलों में पुस्तकों के दीदार की लालसा. यह उनके इसी ज्ञान पिपासु रूप को वर्णित करती है.
नामवर सिंह जितने अच्छे कवि थे, आलोचक थे, वक्ता थे, उतने ही
अच्छे अध्यापक भी थे. इनकी कक्षाओं में
विद्यार्थियों का सैलाब इस तथ्य को स्पष्ट करता है. नामवर ने अपनी शिक्षा पद्धति में व्यावहारिक
ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया था, जिसका परिणाम यह हुआ कि परम्परावादी अध्यापक हमेशा
इनके विरोध में खड़े रहे. नामवर के इस
सम्पूर्ण सफ़र को बड़ी स्पष्टता से जीवनीकार द्वारा वर्णित किया गया है :-
नामवर सिंह ने अध्यापन का सफ़र काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से
आरम्भ किया था, 1953 में विभाग में कुछ अस्थाई पदों के आवेदन मांगें गये, सौभाग्य
से एक पद पर नामवर का चयन हो गया. नामवर
की इस पहली नौकरी से अध्यापन के क्षेत्र में पदार्पण किया. किन्तु उन्हें अपने गुरु आचार्य हजारीप्रसाद के
परम शिष्य होने के कारण बहुत आक्षेपों का सामना करना पड़ा. उन्हें इस नौकरी के दौरान हमेशा ‘अनुकम्पा से
मिली नौकरी’ की बात को सहना पड़ा. यह विरोध
नामवर का नहीं था, बल्कि उनके गुरु द्विवेदी का था. द्विवेदी जी विभागाध्यक्ष थे. नामवर नयी पंचवर्षीय योजना के तहत मिली इस
अस्थाई नौकरी के विषय में लिखते हैं, ‘मैंने दो योजनाएँ बनाकर आचार्य द्विवेदी जी
से भिजवायीं. किसी को उम्मीद नहीं थी कि
वे स्वीकृत होंगी. एक योजना हिन्दी
साहित्य के बृहद इतिहास से जुड़ी थी, दूसरी ऐतिहासिक व्याकरण की थी. इतिहास वाली तो नहीं, मगर व्याकरण वाली स्वीकार
हो गयी और लेक्चरर के दो पद मिले. ... एक पद पर रामदरश मिश्र की नियुक्ति हुई. ...दूसरे
पर मुझे विश्वविद्यालय में पढ़ाने को मिला. लेकिन विडम्बना यह हुई कि मेरी नियुक्ति को
लोगों ने अस्थाई मान लिया. यह समझा गया कि
पंचवर्षीय योजना के अन्तर्गत मिलने के कारण यह पद केवल पांच वर्षों के लिए है. अन्त: मैं अस्थायी ही रहा. ’
नामवर का यह सफ़र छह वर्ष चला, उतार-चढ़ावों के साथ. इसी सफ़र के बीच नामवर ने अपनी पीएचडी की उपाधि
पूर्ण की. अध्यक्ष गुरु से निकटता के कारण
इन्हें हमेशा कोप का भाजन बनना पड़ा और 1959 में इनके इस सफ़र पर पूर्ण विराम लग गया.
इस वर्ष विश्वविद्यालय द्वारा एक
रिव्यूइंग कमेटी का गठन किया, जिसने द्विवेदी पर लगे आरोपों की जाँच करनी थी. उन पर पांच आरोप लगाये गये थे. इन्हीं दिनों नामवर का विरोध भी तेज़ हो गया और
अत: उन्हें 1959 में नौकरी से निकाल दिया गया. इनके बाद ही 1960 में द्विवेदी जी को भी
निष्काषित कर दिया गया. कारण अब इसका
नामवर खुद हों या द्विवेदी जी स्पष्ट नहीं होता.
जीवनी नामवर के अध्यापन पथ के उतार-चढ़ावों को बड़ी सूक्ष्मता से
वर्णित करती है, नामवर के पुन: ‘सागर विश्वविद्यालय’ के हिंदी विभाग के वर्तमान
अध्यक्ष नन्ददुलारे वाजपेयी के विरोध के बावजूद लगने पर और उनसे हुए मन-मुटाव के
कारण नौकरी से निष्काषित होने का वर्णन अच्छे ढंग से किया है, ‘उन दिनों कहानीकार
विजय चौहान और मैं एक ही घर में रहते थे. उन्होंने बताया कि सब गड़बड़ हो गया है. मुझे कन्फर्म होना था और कन्फर्मेशन के लिए
विभागाध्यक्ष की रिपोर्ट जाती है. वाजपेयी
जी ने रिपोर्ट में लिख दिया था कि कन्फर्म न किया जाय. वाजपेयी जी विभागाध्यक्ष होने के साथ-साथ
एग्जीक्यूटिव कौंसिल के मेम्बर भी थे. वहाँ
उनका बहुमत भी था. ’
नामवर जिस भी विश्वविद्यालय में गए उनकी मुसीबतें भी उनके
साथ-साथ कदमताल करती चलती गयीं. पुस्तक
में नामवर के ‘जोधपुर विश्वविद्यालय’ में बतौर अध्यक्ष पद संभालाने, उनकी नियुक्ति
में शिवमंगल सिंह ‘सुमन’ की भूमिका, पाठ्यक्रम में बदलाव और इस बदलाव का विरोध आदि
घटनाओं को बड़ी संजीदगी से वर्णित किया गया है. विभाग में अध्यक्ष बनकर जाने से विभाग के
प्राध्यापक शर्मा द्वारा उन पर किए केस और शर्मा के विषय में जीवनीकार ने लिखा है, ‘उन्हें वहाँ एक शर्मा जी मिले, जिन्हें कष्ट था कि यह
बाहर का आदमी यहाँ कैसे आ गया? वह भी कम्युनिष्ट. वह यह भी सोचते थे कि यदि यह यहाँ न आता, तो वह
विभागाध्यक्ष हो जाते. ...वह आनन्दमार्गी जनसंघी थे. उनके सूत्र दूर-दूर तक फैले हुए थे, दिल्ली तक. दक्षिणपन्थी विचारधारा के जो लोग हिन्दी में
होते हैं, उनकी पहुँच दूर-दूर तक होती है. शर्मा जी भी ऐसे ही थे. बहुत से लोगों को मिठाइयाँ पहुँचाया करते थे, फल
लेकर जाया करते थे. वह हिंदी के ठेठ
अध्यापक थे. उनको दूसरे लोगों ने भी
कोंचा, उकसाया था. इसी कारण उन्होंने
हाईकोर्ट में रिट कर दिया. ’ इसके साथ ही लेखक ने नामवर के यहाँ रहते, किए गये
विभिन्न साहित्यिक कार्यों, व्याख्यानों, मिली उपलब्धियों आदि का भी सुन्दर वर्णन
किया है.
जीवनी के अनुसार नामवर के 1974 में जवाहर लाल नेहरु
विश्वविद्यालय में नौकरी मिलने के बाद उनका अध्यापन जीवन का संघर्ष समाप्त होता है.
लेखक ने नामवर के इस विश्वविद्यालय में
रहते हुए दिए साहित्यिक अवदान पर खुलकर चर्चा की है. नामवर की संवादी परम्परा यहाँ रहते हुए विशेष
रूप से उभर कर आई, जिसने साहित्य जगत को एक नयी दिशा दी. नामवर और इस विश्वविद्यालय के संबंध की गहराई का
पता हम उनके विदाई समारोह में दिए उनके वक्तव्य से लगा सकते हैं, ‘इन अठारह वर्षों
में जो कुछ किया, जो कुछ हुआ, जो कुछ लिखा; उसमें साल भर की सबेटिकल छुट्टी के
दौरान लिखी हुई ‘दूसरी परम्परा कि खोज’ मेरे लिए जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय की
सबसे बड़ी उपलब्धि है. ...इस नई दुनिया में आने पर मेरे भीतर एक नया इंसान बना और
पैदा हुआ, जिसका अहसास इन अठारह वर्षों में तो नहीं हुआ, लेकिन अब इस
विश्वविद्यालय को छोड़ते हुए महसूस करता हूँ. ’
ख़ैर लेखक ने नामवर के अध्यापन के लम्बे सफ़र को (जो 1953 से
आरम्भ होकर 1992 तक) तथ्यों और प्रमाणों के आधार पर व्यक्त किया है. जीवनीकार ने नामवर को प्रत्येक विश्वविद्यालय
में मिली नौकरियों, उसमें सहायक विद्वानों, मिले दोस्तों, हुई घटनाओं आदि का वर्णन
यथारूप किया है. किसी भी तथ्य को छुपाने
या बदलने का प्रयत्न नहीं किया गया है, जिससे जीवनी में स्वाभाविकता का समावेश हुआ
है.
साहित्य साधना
ज़िन्दगी के इस लम्बे और संघर्षपूर्ण जीवन में किताबें ही थीं, जिन्होंने
कभी नामवर को अकेला नहीं छोड़ा. नामवर को
बचपन से ही किताबों से अगाध प्रेम था और यही किताबें थी जो हर मुश्किल घड़ी में
इनका सबल बनी. ‘अनल पाखी’ में जहाँ लेखक
ने नामवर के जीवन-वृत्तान्त को प्रस्तुत किया है, वहीं पर नामवर के साहित्यिक सफ़र
के उत्कर्ष को भी बड़ी सरलता से प्रस्तुत किया है.
पुस्तक में नामवर की साहित्यिक यात्रा के आरम्भ (कविता – तुम हो
जवान- हंस जनवरी-फरवरी 1945) से लेकर अंत (पुस्तक- तुम्हारा नामवर- 2019) तक के
वर्णन के साथ-साथ उनकी कविताओं, लेखों के अंशों, पत्रों के अंशों, पुस्तकों के
सृजन की कथाओं और दिए व्याख्यानों और साक्षात्कारों को समेटा गया है. कवि नामवर से आलोचक नामवर तक के सफ़र की विभिन्न
घटनाओं को उद्घाटित करती पुस्तक आगे बढती है.
पुस्तक नामवर के कवि रूप को साकार करती है और उनकी सहित्य साधना
के आरम्भ में की गयी काव्य रचनाओं को भी प्रस्तुत करती है. नामवर एक उत्कृष्ट कवि बनना चाहते थे, किन्तु
समय के साथ-साथ रुचि बदली और आलोचक के रूप में विख्यात हुए, इस सन्दर्भ में नामवर
खुद लिखते हैं, ‘मैं सरस्वती के मन्दिर में पूजा का थाल लेकर आया था. कविता के द्वारा सरस्वती की पूजा करना चाहता था,
लेकिन मन्दिर इतना गन्दा हो गया कि झाड़ू बुहारने लगा. अपने इतिहास के बारे में आलोचनात्मक दृष्टि बने
और उसके विकास के लिए जड़ीभूत दृष्टि को तोड़ना, मुझे जरूरी लगा. और हुआ यह कि झाड़ू हाथ से छूटती ही नहीं. ’
प्रस्तुत पुस्तक नामवर की उन कविताओं को समेटे है, जो आरम्भ में
पत्रिकाओं में छपी थीं. तुम हो जवान (49),
क्रांतिचंड (54-55), आदित्य पुरुष गांधी (61), फागुनी शाम (103), नभ के नीले
सूनेपन में (112) और आज तुम्हारा जन्मदिवस (138) आदि कविताओं को लेखक ने यथा पृष्ठों
पर जीवनी में स्थान दिया है जिससे पाठक नामवर की काव्य प्रतिभा से भी अवगत हो जाता
है. नामवर ने अपने बेटे के जन्मदिन पर
लिखी कविता ‘आज तुम्हारा जन्मदिवस’ में अपने दुःख को प्रकट किया है, यह कविता
निराला की ‘सरोज स्मृति’ की भांति कवि के दुःख को प्रकट करती है-
‘आज
तुम्हारा जन्मदिवस, यूँ ही यह संध्या
भी
चली गई, किन्तु अभागा मैं न जा सका
सम्मुख
तुम्हारे और नदी तट भटका भटका
कभी
देखता हाथ कभी लेखनी अबन्ध्या.
... ... ... ... ... ...
हर
सुन्दर को देख सोचता क्यों मिला हाय
यदि
उससे वंचित रह जाता तुम्हीं-सा सगा
क्षमा
मत करो वत्स, आ गया दिन ही ऐसा
आँख
खोलती कलियाँ भी कहती हैं पैसा. ’
नामवर ने विविध विषयों पर केन्द्रित बड़ी मात्रा में लेख लिखे. इन्हीं लेखों ने नामवर को नामवर बनाने में अहम भूमिका का निर्वहन किया है. पुस्तक नामवर के विविध समय लिखे 36 लेखों से हमें अवगत करवाती है. नामवर का यह सफ़र 1948 तुलसीदास के जीवन पर लिखे उनके पहले लेख से शुरू होता है. उसके बाद 1949 में संस्कृति का तात्पर्य लेख से नामवर इस परम्परा को आगे बढ़ाते हैं. लेखक ने पुस्तक में प्रत्येक लेख के विशेष बिन्दुओं, स्थापनाओं एवं निष्कर्षों को अंकित किया है. अपने लेखों के माध्यम से नये प्रतिमानों को गढ़ते नामवर आगे बढ़ते गये.
पुस्तक में पाँचवे दशक की कविता (80) , नयी कविता में लोकभाषा (81), छायावादी आलोचना (99), कामायनी के प्रतीक (101), सामाजिक संकट और साहित्य (106), अनुभूति और वास्तविकता (102) , व्यापकता और गहराई (122), हिंदी साहित्य के इतिहास पर पुनर्विचार (139) आदि लेखों की स्थापनाओं और विशेष बिन्दुओं को उजागर किया गया है. नामवर ने नलिन विलोचन शर्मा द्वारा प्रसाद की काव्यभाषा को ‘फीलपाँवी’ कहने पर उनके इस मत का खंडन करते हुए ‘प्रसाद की काव्यभाषा’ (100) लेख लिखा और सहित्य में प्रसाद की भाषा के अतुलनीय स्थान को उजागर किया. उनके अनुसार, ‘आज के यथार्थवादी लेखक यदि कोशिश भी करें तो भी ऐसी मुग्ध चित्रकारी और मोहक शब्द-योजना वह नहीं दिखा सकते. यदि वह किसी तरह नक़ल करके कुछ कर भी डालें, तो प्रसाद की भाषा से उसकी भाषा अधिक उपहासस्पद होगी. उसमें वह जादू, वह तन्मयता, वह सजीवता न आ पायेगी. यही नहीं, प्रसाद के पहले के लेखक और कवि भी यह भाषा न लिख सकते थे और न लिख सके. भारतेन्दु ही नहीं, आचार्य भी ऐसी भाषा न लिख पाये, इससे यह मालूम होता है कि प्रसाद की जिस भाषा को नलिनजी ने ‘फीलपाँवी’ कहा है, वह एक ऐतिहासिक आवश्यकता का परिणाम है. ’
नामवर अपने लेखों के माध्यम से पुरानी रूढ़िगत परम्पराओं पर आघात
करते नई परम्परा को प्रफुलित कर रहे. लेखों के साथ-साथ पुस्तक में नामवर द्वारा लिखी
गई, सम्पादित की गयी और उनके सहित्य पर सम्पादित पुस्तकों का विवेचन भी मिलता है.
नामवर की पहली पुस्तक ‘बकलम खुद’ 1951 में साहित्य सहकर, बनारस
से प्रकाशित हुई. तत्पश्चात् कविता संग्रह
‘नीम के फूल’ की पाण्डुलिपि तैयार हुई, किन्तु प्रकाशित न हो सकी. लेकिन इसके बाद ‘हिन्दी के विकास में अपभ्रंश का
योग’ से यह सफ़र फिर से शुरू हो गया. नामवर
के साहित्यिक जीवन में तीन पुस्तकों का विशेष महत्त्व रहा है, पहली पुस्तक 1955
में प्रकाशित ‘छायावाद’, दूसरी 1968 में प्रकाशित ‘कविता के नये प्रतिमान’ और
तीसरी 1982 में प्रकाशित ‘दूसरी परम्परा की खोज. ’ इसके इलावा नामवर ने कई
पुस्तकों का सम्पादन किया और अनेक लेखकों ने इनके लेखों, व्यक्तव्यों और
साक्षात्कारों को सम्पादित करके पुस्तक रूप प्रदान किया, जिनमें वाद-विवाद-संवाद
(20 वर्षो के लेखों का संग्रह), कहना न होगा, बात बात में बात (संपादक समीक्षा
ठाकुर), नामवर के विमर्श (सुधीश पचौरी), आलोचक के मुख से (खगेन्द्र ठाकुर), हिंदी
का गद्य पर्व, प्रेमचंद और भारतीय समाज, आलोचना और विचारधारा (आशीष त्रिपाठी),
हिंदी समीक्षा और आचार्य शुक्ल, आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की जययात्रा,
रामविलास शर्मा (ज्ञानेन्द्र कुमार संतोष) आदि प्रमुख हैं.
प्रस्तुत पुस्तक में नामवर की विभिन्न पुस्तकों पर भी विस्तार
से मंथन किया गया है. जीवनी में नामवर की
पुस्तक ‘छायावाद’ की स्थापनाओं को पूर्ण रूप से व्याख्यायित किया गया है. नामवर सिंह ने इस पुस्तक में छायावाद पर उपलब्ध
तत्कालीन सम्पूर्ण समाग्री के अध्ययन के बाद छिपे विभिन्न पहलुओं को उजागर किया है.
तत्कालीन लेखकों की छायावादी काव्य के
प्रति उदासनीता और आलोचना पर बात करते हुए नामवर कहते हैं, 'वास्तविकता यह है कि
पूर्व पीढ़ी के साहित्यकार स्वयं तो प्रेम-काव्य लिखने से कतराते रहे, लेकिन जब
छायावादी कवियों को प्रेम की राशि लुटाते देखा तो और कुछ न पाकर उसका उपहास करके
ही अपनी तृप्ति करने लगे. ’
प्रस्तुत पुस्तक में नामवर द्वारा गुरु आचार्य जी की स्मृति में
लिखी पुस्तक ‘दूसरी परम्परा की खोज’ के नामकरण के विषय पर भी जीवनीकार ने विशेष
दृष्टिपात किया है. इस पुस्तक में नामवर
सिंह ने हजारीप्रसाद द्विवेदी के जीवन के सम्पूर्ण संघर्ष को सरल शैली में लोगों
के समक्ष रखा है. नामवर इस पुस्तक का नाम
‘आचार्य हज़ारीप्रसाद द्विवेदी : कृति और तत्त्वान्वेषी’ रखना चाहते थे, किन्तु
नंदकिशोर नवल ने इसका शीर्षक सुझाया जिसके विषय में नवल जी लिखते हैं, ‘मैं यह
सुनकर हँसने लगा. उन्होंने जानना चाहा कि
मैं क्यों हँस रहा हूँ? मैंने उनसे कहा- इस नाम से ऐसा लगता है कि यह कोई
शोध-प्रबंध है. इस पर उन्होंने मुझसे कहा-
आप कोई दूसरा नाम सुझाइए. मैंने उनसे कहा-
द्विवेदी जी पर आपके कई लेख ‘पूर्वाग्रह’ में निकले हैं, उनमें से एक लेख का
शीर्षक है- ‘दूसरी परंपरा की खोज’. आप
पुस्तक का यही नाम क्यों नहीं रखते? वे मुझसे सहमत हो हुए और इसी नाम से विज्ञापित
होकर ये पुस्तक प्रकाशित हो गई. ’
आलोच्य पुस्तक नामवर के साहित्य के संबंध में प्रत्येक पक्ष को उद्घाटित करने में सक्षम है. नामवर की पुस्तकों के विषय-वस्तु, आधार, सृजन प्रक्रिया और स्रोतों के विषय में अनल पाखी भावी पीढ़ी का हमेशा मार्गदर्शन करती रहेगी.
पुस्तकों के अलावा जीवनीकार ने समय-समय पर विभिन्न व्यक्तियों
को लिखे पत्रों (जिनमें हजारीप्रसाद द्विवेदी, काशीनाथ सिंह, मुक्तिबोध, सरोज,
शिवमंगल सिंह ‘सुमन’, विजय, राम जी, आदि) को विशेष स्थान दिया है. जीवनीकार ने इन पत्रों को पुस्तक में यथा स्थान देकर
इनकी मौलिकता को सहेजा है. इसके साथ ही पुस्तक
में नामवर के दिए गये संवादों एवं साक्षात्कारों के साथ, भाषणों, यात्राओं, यात्रा
वृतांत एवं डायरी के कुछ अंशों को भी अपने अभिमत के स्पष्टीकरण के लिए प्रयोग किया
गया है. पुस्तक में जहाँ नामवर के
राजेन्द्र यादव और रामविलास शर्मा के साथ हुए संवादों को स्थान मिला है, वहीं अशोक
वाजपेयी, नन्द भारद्वाज, सुधीर रंजन, लीलाधर मंडलोई, राजकुमार राकेश, अनामिका,
महावीर अग्रवाल एवं रवीन्द्र त्रिपाठी के नामवर सिंह के साथ स्थापित संवादों को भी
वर्षानुसार लेखक द्वारा स्थान दिया गया है.
भाषा-प्रवाह कि बात करें तो जीवनीकार ने बिलकुल सरल-स्पष्ट भाषा
का प्रयोग किया है. वर्तमान में
साहित्यकारों में प्रचलन है कि किसी विशेष साहित्यकार के विषय में लिखते हुए भाषा
को कठिन करके उसका घटाटोप बना देते हैं जो समान्य पाठक के लिए बोझिल बन जाती है. किन्तु यहाँ इससे बचा गया है और लेखक ने अपनी
बात, विचारों तथा भाषा की स्पष्टता के साथ वागाडंबर से बचकर, साधारण साहित्यिक
भाषा में की है.
नामवर के साहित्यिक अवदान के साथ-साथ पुस्तक में लेखक ने नामवर
के कुछ विशेष विचारों को भी स्थान देकर रेखांकित किया है. पुस्तक में वाद-विवाद-संवाद पुस्तक के माध्यम से
लेखक ने नामवर के भारतीय विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों के सत्य को उद्घाटित किया
है, ‘भारतीय विश्वविद्यालयों के हिंदी-विभाग सबसे दकियानूस और प्रतिक्रियावादी
विचारों के गढ़ हैं. कारण, हिंदी की विशेष
स्थिति. एक तो हिंदी प्रदेशों में
प्रतिक्रियावादी राजनीतिक शक्तियों का गहरा प्रभाव और दूसरी ओर कांग्रेस के
दक्षिणपंथी पक्ष और जनसंघ जैसे राजनीतिक दलों का हिंदी के हितैषी रूप में सामने
आना. ...गुरु की चितन-परम्परा का विकास उत्तरदायित्वपूर्ण असहमति का साहसी शिष्य
ही कर सकता है, सतत सहमति का भीरू सेवक नहीं और स्थिति यह है कि अब के आचार्य सेवक
चाहते हैं, शिष्य नहीं. इस वातावरण में
जहाँ कोई कुमारिल ही नहीं, वहाँ कोई प्रभाकर क्या होगा. ’ नामवर का यह मत वर्तमान
में किसी के गले नहीं उतरेगा और इसका यथा वर्णन करके लेखक ने निष्पक्षता का प्रमाण
दिया है.
जीवनीकार ने नामवर के दलित एवं स्त्री विमर्श संबंधी विचारों को
भी प्रस्तुत किया है. दलित और दलित
साहित्य एवं विमर्श के संबंध में नामवर हमेशा संवेदनशील रहे हैं, वह उन पाखंडियों
के विरुद्ध थे जो दलित विमर्श के नाम पर अपनी रोटियाँ सेकतें हैं. नामवर के अनुसार जो एक दलित व्यक्ति की पीड़ा है
वो सिर्फ वो ही समझ सकता है दूसरा नहीं. इसके संबंध में वह कहते हैं, ‘दलित होना एक
व्यक्ति की ऐसी हकीकत है, जन्मता दलित होने के कारण अनुभव के जिन आसंगों से एक
आदमी को गुज़रना पड़ता है, उसका प्रत्यक्ष अनुभव स्वयं एक दलित को जैसा है, अपनी
पूरी अनुभूतियों व कल्पना का विस्तार करने के बावजूद मैं, जो एक गैर-दलित हूँ, उस
अनुभव को उसी तीव्रता और तनाव से आपको अनुभव नहीं करा सकता. इस बात को समझते हुए अगर साहित्य में उनका अनुभव
उसी तीव्रता से व्यक्त होता है, जैसा कि मराठी की अनेक दलित रचनाओं को पढ़कर अनुभव
होता है तो वह सच्चे अर्थों में दलित साहित्य है. ’
राजकुमार राकेश के नामवर सिंह के हुए संवाद में नामवर ने स्त्री विमर्श पर गहरी चिन्ता प्रकट की है. राकेश द्वारा पूछे प्रश्न क्या स्त्री विमर्श मात्र सेक्स-मुक्ति है? का जवाब देते हुए नामवर ने स्पष्ट किया है, ‘अधिकांश स्त्री लेखन में मैं दो ही बातें देखता हूँ. एक तो ज्यादातर चर्चा सेक्स की होती है, जैसे स्त्री का यौन शोषण ही सबसे बड़ा शोषण है. शरीर को इतना महत्त्व देना और उसकी आत्मा, उसका हृदय, उसकी भावनाएँ, उसके विचार इन सबका जो शोषण होता है, उस पर चर्चा नहीं होती. ...स्त्री विमर्श में यह समझा जा रहा है कि दुस्साहस सबसे बड़ा मूल्य हो गया है. कुछ वर्जित शब्द हैं, उनका प्रयोग अगर कोई स्त्री कर देती है, तो समझते हैं, बड़ी साहसी है. स्त्री शरीर के जिन अंगों का नाम नहीं लेते हैं, जिन क्रियाओं का वर्णन नहीं करती है, कोई स्त्री अगर कर दे तो...मृदुला गर्ग ने पहली बार उपन्यास लिखा-‘चित्तकोबरा’ तो उसी कारण लाइमलाइट में आ गई क्योंकि कुछ वर्जित क्रिया-क्रम और शब्दों का प्रयोग उन्होंने कर दिया था. ’ नामवर स्त्री विमर्श को मात्र शारीरिक मुक्ति तक न मानकर आत्मिक मुक्ति तक का सफ़र मानते हैं.
पुस्तक में इसके अलावा नागार्जुन, हजारीप्रसाद द्विवेदी और
नामवर सिंह की स्वीकृतियों के साथ-साथ नामवर सिंह के छवि-चित्रों एवं जीवन के
घटना-क्रम को पाठकों की सुविधा के लिए स्थान दिया गया है. लेखक ने अंत में नामवर के इस 93 वर्ष के सफ़र की
अंतिम वेला को भी बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है. अंतिम समय में मृत्यु के निकट होते हुए भी अपनी
पुस्तकों को देखने की लालसा नामवर के उच्च कोटि के पुस्तक प्रेम को अभिव्यंजित
करती है. 19 फरवरी 2019 का वह दिन जिस दिन
हिंदी आलोचना का वटवृक्ष इस दुनिया को अपने साहित्य की अमूल्य निधि के साथ छोड़ परम
सत्ता में विलीन हो गया. यह समय साहित्य
में एक परम्परा के अंत का था.
समग्र रूप में देखें तो कि अंकित नरवाल द्वारा लिखित ‘अनल पाखी : नामवर सिंह की जीवनी’ साहित्य के क्षेत्र में नामवर सिंह पर हुआ पहला ऐसा सशक्त कार्य है जो उनके संघर्षमय जीवन के साथ शैक्षिक जीवन के उतार-चढ़ावों को तो वर्णित करता ही है साथ ही उनके साहित्य, उनके विचारों, उनके वक्तव्यों, संवादों, पत्रों, भाषणों एवं साक्षात्कारों पर गहन रूप से दृष्टिपात करता है. जीवनी के तत्त्वों के आधार पर भी एक सशक्त रचना के रूप में उभरती है. नामवर के जीवन के प्रत्येक पहलु को वर्षों के अनुसार वर्णित करने का लेखक का ढंग सराहनीय है. जीवनीकार के वर्णन की उत्कृष्टता के कारण ऐसा प्रतीत होता है जैसे नामवर के जीवन का छायाचित्र चित्रपट पर चल रहा हो और यही इस पुस्तक का महत्त्व निर्धारित करता है. पुस्तक भविष्य में नामवर पर कार्य करने वाले जिज्ञासुओं को पथ-प्रदर्शक सिद्ध होगी. निस्संदेह पुस्तक भविष्य में इसी प्रकार प्रासंगिक बनी रहेगी, क्योंकि यह हमें सोचने पर मजबूर करेगी कि इसके बाद क्या नया किया जा सकता है. नामवर भी ऐसा ही सोचते थे, ‘कोई प्राचीन कृति हमारे आज के सभी प्रश्नों का सही उत्तर देकर अथवा देने के कारण प्रासंगिक नहीं होती, बल्कि एक सर्वथा भिन्न परिप्रेक्ष्य से हमारी आज की नियति को आलोकित करने के कारण हमें नए सिरे से सोचने के लिए मजबूर करने के कारण और हमारी आत्मतुष्टि को तोड़ने के कारण प्रासंगिक होती है. ’ ठीक इसी प्रकार यह पुस्तक भी भविष्य में पथ आलोकित करती रहेगी.
केवल कुमार
हिन्दी विभाग, पंजाब यूनिवर्सिटी कांस्टीचूएंट कॉलेज
(सिक्खवाला, श्री मुक्तसर साहिब)
kumarkewal1989@gmail.com
पुस्तक : अनल पाखी :नामवर सिंह की जीवनी, लेखक : अंकित नरवाल
प्रकाशक : आधार प्रकाशन, पंचकूला, पृष्ठ : 360, मूल्य :350/
सुव्यवस्थित शब्दों में बांधा गया है
जवाब देंहटाएंबहुत खूब
लेखक की जीवनी इस मायने में भी महत्वपूर्ण होती है कि इससे न केवल भौतिक जीवन अपितु उसके मानस की निर्माण की प्रक्रिया के विषय में भी ज्ञात होता है ।
जवाब देंहटाएंआवश्यक यह है कि उसे केवल गद्य या फिक्शन के रूप में ना पढ़ा जाए बल्कि एक व्यक्ति के निर्माण की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया के रूप में उसे समझा जाए।
यह जीवनी के लेखक पर भी निर्भर करता है कि उसके लेखन का उद्देश्य क्या है, व्यक्ति का महिमा मंडन , कार्यों का बखान अथवा उसके आंतरिक या बाह्य संसार का वास्तविक चित्रण ।
यह तय करना थोड़ा कठिन भी होता है।
जीवनी इन बातों का ध्यान रखते हुए ही पढ़ी जानी चाहिए।
शरद कोकास
हिन्दी साहित्येतिहास में दूसरी परंपरा की खोज एक अहम मोड़ है।रूढ़ आलोचना की शास्त्रीय परंपरा में जिस साहित्य की जाने-अंजाने उपेक्षा होती रही, उसे हाशिए से उठाकर मुख्यधारा में प्रतिष्ठित करने का काम हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया और इसे दूर तक ले जाने का नामवर सिंह ने। साहित्य में एक तरह से यह जनवादी चेतना की स्थापना थी। सदियों से घोर उपेक्षित कबीर जिन्हें कवि से अधिक एक अक्खड़-फक्कड़ उलटबासियाँ बोलनेवाला साधू कहकर नज़रअंदाज किया जाता रहा,उस नायाब हीरे को रास्ते के किनारे पड़े पत्थरों से उठाकर साहित्य में उचित स्थान देना-दिलवाना, हिंदी साहित्य की प्रगतिशील परंपरा का एक प्रस्थान बिंदु है। आलेख के लिए लेखक और समालोचन को बधाई !
जवाब देंहटाएंसुव्यवस्थित आलेख
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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