परिप्रेक्ष्य : कश्मीर तीन साल पहले : यादवेन्द्र







जिन्हें हम आम समझ कहते हैं वे पूर्वग्रहों के गुच्छे ही तो होते हैं. धारणाएं बनती जाती हैं और फिर हम एक समझ विकसित कर लेते हैं. इन धारणाओं के निर्माण में कुछ प्रचारित घटनाएँ, बार–बार प्रस्तुत की जा रहीं छबियों आदि का बड़ा हाथ होता है.  

इस आम समझ से संचालित किसी व्यक्ति की टकराहट जब उस समूह से होती है तब कई बार वह विस्मय से भर उठता है. ‘टाइप’ और इकाई का अंतर प्रत्यक्ष हो जाता है. 

पूर्वग्रह दुराग्रह ही हैं. कश्मीर को लेकर भी हम इसी तरह के तमाम दुराग्रहों से भरे बैठे हैं. तीन साल पहले लेखक अनुवादक यादवेन्द्र कश्मीर की यात्रा पर थे तब उनके साथ कुछ इसी तरह के अनुभव हुए.

आज कश्मीर को खुले मन से समझने की बहुत जरूरत है. 


कश्मीर तीन साल पहले                                     
यादवेन्द्र 



तीन साल पहले अप्रैल 2014 में तेज बारिश और बर्फ़बारी के बीच होली कश्मीर घाटी में बीती सर्दियों की जकड़न के बाद फगुनाहट में मलमल का कुरता निकालने का सुख भूल कर बिलकुल नया अनुभव. श्रीनगर हवाई अड्डे पर पहुँचने से कोई बीस मिनट पहले से ही बर्फ़ीले पहाड़ दिखने शुरू हो गए थे और दूर दूर तक उनपर कश्मीरी पश्मीने की नहीं बल्कि बर्फ़ की सफ़ेद चादर बिछी हुई थी. हवाई पट्टी पर से बर्फ़ हटा दी गयी थी नहीं तो पूरा हवाई अड्डा किसी इग्लू (ध्रुवों के आसपास रहने वाले लोगों के बर्फ़ के घर) जैसा दिखाई देता. मेरे लिए उतनी बर्फ़ छू कर देखने का जीवन का पहला अनुभव था.

अपने साथ ले जाने वाले के आने में थोड़ी देर हो रही थी इसलिए हमें  हवाई अड्डे पर शीशे की खिड़कियों को लाँघ कर आते धूप के चकत्तों  की तलाश में यहाँ वहाँ टहलते देख कर सरकारी ड्यूटी पर तैनात एक कद्दावर पर खूबसूरत नौजवान पास आया और बिना माँगे सलाह दे गया कि हम बेंचों पर न बैठें नहीं तो ज्यादा सर्दी के कारण टाँगें अकड़ जायेंगी. चाय कॉफी हवाई अड्डे पर किधर मिलेगी, साथ में यह भी साथ ले जाकर दिखा गया. गर्मागर्म चाय ने शरीर और मन को जब जकड़ से मुक्त किया तब पहली बार समझ आया कि कश्मीरी गर्मजोशी से यह पहला साक्षात्कार है.

श्रीनगर में रहते हुए ज़ाहिर है हमारा पहला पड़ाव डल झील थी जो शहर के बीचों बीच फिसलती हुई निकल रही थी पर जिसका दूसरा किनारा बहुतेरी कोशिशों के बाद भी हमें दिखायी नहीं दे पा रहा था. मुझे अपने घर बनारस की गंगा याद गयी जो वास्तव में तंग गलियों से होकर तो नहीं बहती पर इन तंग गलियों से गुजरते हुए बिलकुल घरेलू स्त्री जैसी आपसे आँखें चार करती रहती है. पानी की अनेक धाराएँ इस शहर में बहती दिखती हैं और सड़क पर चलते फिरते इनके अंदर जैसे ही लकड़ी की बड़ी नाव (शिकारा या हाउसबोट) पर नजर पड़ती है आपको डल झील के साथ उसका जुड़ाव समझ आ जाता है. यानि रक्त वाहिनी शिराओं की तरह श्रीनगर के अंदर तक डल झील फैली हुई है.

इस यात्रा में मेरी छोटी बेटी मृदु साथ थी और कई बरसों से हम यह हिसाब किताब लगाते रहे थे कि देश के कितने प्रांतों में घूम चुके हैं. ऐसे में बार बार उत्तर पूर्वी राज्यों के अतिरिक्त कश्मीर घाटी छूट जाती थी. उत्तर पूर्वी राज्यों की बात करें तो असमसिक्किम और मेघालय सुरक्षित नजर आये. वैसे ही जम्मू और लेह का नंबर तो आ गया पर कश्मीर घाटी जाने के कार्यक्रम अचानक सुर्ख़ियों में आ जाने वाली किसी आतंकी घटना की वजह से बार-बार मुल्तवी होती रही. अख़बार पढ़ पढ़ के मन के अंदर श्रीनगर की छवि ऐसी बन गयी थी जैसे जान हथेली पर लेकर दीवाली के दनादन पटाखों के बीच से कोई लंबा सुनसान रास्ता तय करना हो, और हम थे कि सरफरोशी  की तमन्ना लेकर घूमने निकलने को तैयार नहीं होते.

टैक्सी वाले ने पहले तो ये कहा कि आप बिलकुल बेफ़िक्र रहोऔर अगली साँस में कह गया कि आज आज़ादी पसंद अनेक संगठनों ने एक मासूम नौजवान की हत्या के विरोध में कश्मीर बंद का  एलान किया हुआ है. तब हमें एक एक अदद दूकान बंद होने का सबब समझ में आया. हमें शाकाहारी खाने की जो दूकान बताई गयी थीउसमें बड़ा सा ताला  लटका देख हमारा मन और मुँह भी वैसे ही लटक गया. टैक्सी वाला हमें धीरे धीरे बाज़ार और आबादी से दूर लेता जा रहा था और हम दहशत के मारे प्रकट रूप में कुछ बोल नहीं रहे थे पर धड़कनों की बढ़ती हुई आहट को दबाना ना मुमकिन होने लगा. डरते डरते पूछने पर उसने बताया कि मैं आपको साफ़ सुथरे पानी और दूर से पूरे शहर का नज़ारा दिखाने के लिए ही ले जा रहा हूँ, आप घबराइये मत कोई कुछ नहीं करेगा.

निशात बाग़ से थोड़ा पहले उसने  एक जेटी पर रोका जहाँ एक भी सैलानी नहीं थापाँच छह शिकारे  वाले बैठे लूडो खेल रहे थे. जब टैक्सी वाले को सबने सलाम किया तो मन की आशंका और बलवती हो गयीएक दूसरे की पहचान वाले सब मिलकर कहीं कोई साजिश तो नहीं करेंगे. हम वयस्क तो चलो फिर भी आगा पीछा कुछ मुकाबला कर सकते हैं  पर ये बेचारा दो साल का मेरा नाती पलाश ? इतनी दूर चले आने के  बाद वापस लौटना न तो संभव था और न ही सुरक्षित. हम जितना ही अपने चेहरे मोहरे से निश्चिन्त दिखने की कोशिश करते उतने ही बदहवास नज़र आते. खैर डगमगाते कदमों (और मन से भी) से हम शिकारे  पर सवार हुए और वह बड़े शांत भाव से धीरे-धीरे पानी पर सरकते हुए आगे बढ़ने लगा. झील के पानी में हमारे मनों के अंदर दुबकी हुई आशंकाओं का कहीं कोई हिलोर नहीं थी. तट से दूर जाते हुए मनोरम नज़ारों की वजह से बहुत अच्छा लग रहा थापर मन था कि पल पल में ही लौट कर गहरे अविश्वास और आशंकाओं की गिरफ़्त में आ जाता. जहाज के पंछी सरीखा जो जल का असीमित विस्तार देख कर बार बार जहाज पर ही लौट आता है.

अभी सौ मीटर भी आगे नहीं चले होंगे कि एक शिकारा  चलते चलते आया और हमारे शिकारे से सट कर चलने लगाजाहिर है हमारी धड़कनें और तेज हो गयीं. उस शिकारे वाले ने हमारे शिकारे को पकड़ लिया. हमारी तो जान मुँह को आ गयी और अपनी निर्दोष मस्ती में खोये हुए बच्चे को सब ने मिलकर किनारे से दूसरी तरफ खींच लिया. नाव एकदम से डगमगा गयीदूसरे शिकारे वाले ने शायद हमारे मन की हलचल भाँप ली - बोला : बच्चे की कश्मीरी लिबास में फोटो खिंचवा लो शाब. हमने सामने आयी स्थिति के साथ दबे मन से समझौता करना ही उचित समझा और फोटो खिंचवाने को राजी हो गये.

साथ चलते चलते उसने सिल्क की रंग बिरंगी पोशाक निकाली और बच्चे को अपनी तरफ माँगने लगा. मैंने पलाश को अपनी गोद में पकड़ के बिठाया हुआ थाफोटो वाले से कहा कि जो पहनाना हो इसी नाव में मेरे पास बैठे बैठे पहना दो. मेरी उहापोह देखते हुए मेरे शिकारे वाले ने कहा शाब आप बच्चे को बेफ़िक्र होकर दूसरी नाव में जाने दोहमारा तो रोज का यही धंधा है. ऋचा से इजाजत ले कर मैंने पलाश को दूसरी नाव में जाने तो दिया पर मन की तसल्ली के लिए पूरा जोर लगा कर दूसरी नाव खुद पकडे रहा. हाँलाकि झील के शांत पानी और दोनों शिकारे  वालों के हाव भाव और वाणी ने अनकहे ही हमारे मन के अंदर सहजता का भाव भरना शुरू कर दिया था. बड़े इत्मीनान और शौक से उसने बच्चे को फिरन  पहनाया, कमर पर दुपट्टे जैसा कपडा बाँधा फिर पगड़ी बाँधी. अच्छी तरह सजाने के बाद बच्चे के हाथ में एक लम्बी भारी भरकम पतवार थमा दी. उसके बाद एक फोटो खींचने की बात तय होने के बावज़ूद उसने अलग अलग पोज़ में बच्चे की सात आठ फोटो खींची. सैर से लौटते हुए एक घंटे बाद  उसने फिर बीच रास्ते हमें पकड़ा और सारी फोटो दिखाते हुए बोला की आप जो चाहें चुन लीजिये शाब. बगैर किसी दबाव और आग्रह  के हमने उस से सभी फोटो ले लीं.

अलग अलग भंगिमाओं में पलाश इतना सुन्दर लग रहा था कि हमसे एक भी फोटो छोड़ते न बनी. पर उस अशांत समाज में मेहनत  मज़दूरी करके जीवन यापन करने वाले उस मामूली  फ़ोटोग्राफ़र ने सिर्फ हमारा दिल ही नहीं जीता बल्कि हमारे तमाम निराधार पूर्वाग्रहों को भी बिना कुछ बोले सफ़ाई दिए यूँ ही चुटकी बजाते हुए धराशायी कर दिया.  
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यादवेन्द्र
yapandey@gmail.com        

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  1. यह संक्षिप्त संस्मरण न केवल आज के परिप्रेक्ष्य में बहुत राहत देने वाला है बल्कि काश्मीर की आम जनता के रोजी रोटी के लिए किए जा रहे संघर्ष की बानगी भी है।

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  2. अच्छा वृतांत। पर आपकी भूमिका के उलट, आम लोगों के मन में आतंकवाद से त्रस्त-पस्त कश्मीर के प्रति भय और आशंका है, और जो बहुत हद तक सही है। अमरनाथ यात्रियों की गाड़ी पर अभी-अभी हुआ आतंकी हमला इसका ताजा प्रमाण है। लेकिन आम लोगों के मन में आम कश्मीरियों के प्रति या किसी आम मुसलमान के प्रति कोई दुराग्रह या पूर्वाग्रह नहीं होता। इक्का-दुक्का अप्रिय अपवादों और मोल-तोल के झोल को छोड़कर, कहीं की भी यात्रा में पर्यटक स्थानीय लोगों और बस/टैक्सी ड्राईवरों आदि पर पूरा भरोसा करते हैं और उन्हें ही स्थानीय गाइड मानते हैं। अमरनाथ यात्रियों पर हुए इस आतंकवादी हमले में बस ड्राईवर सलीम इसका टटका प्रमाण है। हाँ, कश्मीर में आतंक का तांडव मचा रहे अलगाववादियों पर कोई भरोसा नहीं कर सकता। न कश्मीरी और न ही हम।
    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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  3. यह मेरा तीन साल पहले का बेहद संक्षिप्त अनुभव है और इसको इसी रूप में देखा जाना चाहिए..हम भी बहुत सारी आशंकाओं के साथ वहाँ गये थे और एक मामूली मेहनतकश कश्मीरी ने हमारी आशंकाएँ दूर कर दीं।कोई समाज समग्र रूप में हिंसक और आत्मघाती हो जाये यह सम्भव ही नहीं - बस हमें आम कश्मीरी को बोलने के लिए सामने लाने का उपक्रम करना पड़ेगा।
    यादवेन्द्र

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  4. जो अपने रूमानी,sentimental भोलपन में मानते हैं कि कोई समाज समग्र रूप में हिंसक और आत्मघाती हो जाए यह संभव ही नहीं उन्हें 1996 में प्रकाशित और विश्व-भर में चर्चित डेनिअल गोल्डहागेन की पुस्तक ''Hitler's Willing Executioners" एक बार देख लेनी चाहिए.

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    1. जैसे एक सैलानी का संक्षिप्त अनुभव पूरी तस्वीर नहीं दिखा सकता वैसे ही एक फ़िल्म जर्मनी का पूरा हिटलरकालीन समय और समाज बयान कर दे यह कतई सम्भव नहीं - इंसानियत की सकारात्मकता पर सरल भरोसा रखना ज़रूरी है,इसको ध्वस्त करने में तो पूरी सत्ता लगी हुई है।
      यादवेन्द्र

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  5. मुझे श्री यादवेन्द्र उर्फ़ ''बतकही''जी पर दया आती है.वह लिखे हुए को या तो ठीक से पढ़-समझ नहीं सकते या किसी और से पढ़वाते हैं.मेरे वाक्य में स्पष्टतम रूप से कहा गया है :''1996 में प्रकाशित...डेनिअल गोल्डहागेन की पुस्तक ...'' - जिसका अनुवाद उन्होंने ''फ़िल्म''कर डाला.

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    1. दिखता कम है दिमाग भी शिथिल है विष्णु जी,क्या करूँ?
      आपको भी मेरा संस्मरण अनुवाद जो दिख गया...शायद आपकी 'दया' दुआ बन कर नज़र और समझ कुछ लौटा लाये।

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  6. समकालीन भारतीय समाज पर विष्णु जी की बात दूर तक लागू होती है.कश्मीर की त्रासदी भारत के इसी हिटलरी मिज़ाज की पैदाइश है .

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  7. नूतन गैरोला13 जुल॰ 2017, 10:43:00 am

    बहुत प्यारा यात्रा संस्मरण ... पूर्वाग्रहों से ग्रसित हम कभी कभी यात्रा का आनंद नहीं ले पाते और कुछ लोग खासतौर पर वहां के रहवासी ही हमें इस पूर्वाग्रह से बाहर निकाल पाते हैं .... यादवेन्द्र जी के इस संस्मरण से मुझे याद आया कि आल इंडियंस सर्जन्स कोंफ्रेंस जब कश्मीर में होनी निश्चित हुई ... तो हर साल की तरह कोंफ्रेंस अटेंड करने के लिए वहां जाने की बात हुई ... वहां उन दिनों आये दिन आतंकी हमले हो रहे थे ... मेरी बेटी जो उस वक्त काफी छोटी थी .. वह बहुत डर गयी .. उसने पापा को बहुत ज्यादा कसमे खिलाई .. मना किया रोई झींकी ... बच्चे कितने खौफजदा हो जाते है ये हम नहीं समझ पाते .. इन खबरों से उनके दिमाग में कितना गहरा असर बैठता है ... सो हम वहां नहीं गए ... और आज तक कश्मीर नहीं देखा ...

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  8. क्या वाक़ई आप साफ़ भाषा नहीं समझ पाते ? मैंने आपके संस्मरण को अनुवाद कहाँ कहा है ? आप मेरे द्वारा उल्लिखित पुस्तक को फ़िल्म समझ रहे हैं इसका कोई इलाज मेरे पास नहीं है.

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