बुकर पुरस्कार से सम्मानित ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ (१९९७) के बीस साल बाद अरुंधति रॉय का दूसरा
उपन्यास प्रकाशित हुआ है. – ‘दि मिनिस्ट्री ऑव अटमोस्ट हैप्पीनेस’. ज़ाहिर है इसकी
खूब चर्चा है. कश्मीर पर आधारित इस
उपन्यास के राजनीतिक मन्तव्य भी हैं.
हिंदी के चर्चित कथाकार चन्दन
पाण्डेय ने इस उपन्यास को गम्भीरता से परखा है, एक वैचारिक संवाद आपको यहाँ मिलेगा.
दि मिनिस्ट्री ऑव अटमोस्ट हैप्पीनेस
यह शोर है कि
देती नहीं कुछ सुनाई बात
चन्दन पाण्डेय
अरुंधति रॉय के नए
उपन्यास की नायिका तिलोत्तमा अपने ही लिखे कुछ पुराने पन्ने देख रही है, एक जगह उसे कश्मीर के महमूद नामक दर्जी के बारे में लिखा
हिस्सा मिलता है. महमूद को बड़ा शौक है कि बंदूक के साथ अपनी एक तस्वीर उतरवाए.
उन्हीं दिनों उसके स्कूली दिनों का एक मित्र मिलता है जो आतंकवादी बन चुका है, वो महमूद की इच्छा पूरी करता है. अपनी बंदूक देकर महमूद के
शौक पूरे करता है. उस तस्वीर का नेगेटिव धुलने के लिए दिया है और जिस दिन महमूद
उसे लेने के लिए स्टूडियो जाता है, वहाँ सीमा सुरक्षा बल के
लोग छापा डाल देते हैं. महमूद गिरफ्तार कर लिया जाता है.
उसके पास से बंदूक नहीं, बंदूक की तस्वीर बरामद होती है. यातनाओं की सघन परंपरा के
तहत उसे यातना दी जाती है और उसे दस साल की कैद हो जाती है.
बात इतने पर थम जाती तो
इस उपन्यास के अन्य आयामों पर चर्चा महत्वपूर्ण हो जाती. इसका कलेवर, इसका शिल्प, तमाम. बात आगे बढ़ती है.
एक दिन महमूद का वह आतंकी
साथी भी गिरफ्तार कर लिया जाता है. उसके पास से दो एके फोर्टी सेवन और बहुत कुछ
बरामद होता है. सेना के लोग उसे भी सजा देते हैं. दो महीने की सजा. और दो महीने
बाद वह छोड़ दिया जाता है.
इस तरह यह साहसिक उपन्यास
भारत के अभिन्न हिस्से कश्मीर में आपका स्वागत करता है. अगर एक वाक्य में कहना हो
तो यह कि, अरुंधति रॉय का यह नया उपन्यास
वर्तमान के टीले पर खड़े होकर अतीत के दूरबीन से भारत का भविष्य देखने की कवायद है.
इतिहास पढ़ते हुए हमें कई
बार यह भ्रम हो जाता है कि उस पूरे समय में एक मात्र यही घटना घट रही थी, बाकी कोई चीज अस्तित्व में थी ही नहीं. मसलन, जिस वर्ष अंग्रेजों ने दिल्ली पर हमला किया, क्या उस वर्ष सिर्फ इतना ही हुआ होगा कि अंग्रेजों ने
दिल्ली पर हमला किया? इससे इतर तो इस हमले ही
बहुत कुछ हुआ होगा: देशप्रेम हुआ होगा, शहीदी हुई होगी, ग़द्दारी हुई होगी. कई मर्तबा वर्षों या दिनों को एक खास
स्मृति से भी जोड़ दिया जाता है. वह कई बार सोची समझी घटना भी हो सकती है. जैसे 6
दिसम्बर जो कि डॉ भीमराव अम्बेडकर का परिनिर्वाण दिवस है, उसे अयोध्या के मस्जिद विध्वंस से जोड़ दिया गया. 1984 में
मकबूल भट्ट की फाँसी भी ऐसी ही एक घटना थी,
जिसने
कश्मीर की लड़ाई को एक नई साँस दे दी.
इतिहास, अगर दर्ज न हो तो, करवट बदलने में माहिर है.
जनता उसके सच झूठ होने का अंदाजा अपनी सहूलियत से मापती है. मसलन जिसकी सहूलियत
दवाईयों के व्यवसाय में है, वो अतीत के दयालु
डॉक्टरों को ढोंगी भी मान सकता है. जिसकी सहूलियत धर्म में है, वो विज्ञान को समाज पर मंडराता हुआ खतरा मान सकता है. और
जिसकी सहूलियत हिंसा में है, रक्तपात में है, वो कश्मीर के भूगोल को अपना मान सकता है लेकिन कश्मीरियों
को पराया.
मिनिस्ट्री ऑव अटमोस्ट
हैप्पीनेस 1984 की इस घटना से लेकर आजतक का भारतीय इतिहास है. एक हिस्से में नायक
मूसा कहता भी है. 1984 का कोई दिन है. वह तिलोत्तमा के साथ बैठा है और जब मकबूल की
फाँसी हो जाने की खबर उस तक आती है तो वह तिलो से कहता है, हमारे लिए इतिहास आज से शुरू हो रहा है.
कश्मीर के बारे में हम
कितना कम जानते हैं?
कश्मीर में जो संघर्ष चल
रहा है, उसकी नियामक शक्तियाँ कौन हैं, उसमें कठपुतलियां कौन हैं, किन
किन प्रकार की आतंकी शक्तियाँ शामिल हैं, भारतीय सैनिक बलों का
क्या किरदार है, कौन है जो आतंकियों को हथियार
मुहैया कराता है, कौन है जो बीस रुपये की दर से गोलियाँ
मुहैया कराता है, कौन है जो चाक चौबंद चौतरफा बंद
सीमा पर रिश्वत लेकर आतंकियों को पाकिस्तान से भारत में घुसने देता है, कौन है जो निर्दोष नागरिकों को सिर्फ इसलिए मार देता है
क्योंकि उसने दो आतंकी घुसने का भय बताकर गांव पर छापा मार तो दिया है, घर जला तो दिए हैं लेकिन वो आतंकी कहीं थे ही नहीं जो मिलते
इसलिए उन निर्दोष युवकों को पेट्रोल पंप से उठाकर गोली मार देता है, कौन है यह सब करने वाला? कौन
है? कौन है जिसने टॉर्चर सेंटर खोल
रखें हैं? कौन है जो आतंकियों की हत्या करने
के बाद भी आतंकियों से नफरत नहीं करता, लेकिन मानवाधिकार
कार्यकर्ताओं से घनघोर नफरत करता है, कौन है? आपको कोई क्यों नहीं बताता कि ये सब कौन हैं? आतंकी और अवाम की इच्छाओं में फर्क न कर पाना, अवाम की इच्छाओं और संघर्षों को सम्मान न देना, अवाम पर ही सारे जुल्म कर देना, कौन करता है यह सब?
इतनी जरूरी
बातों को यह उपन्यास बताता है. कुछ इस तरह निसंग भाव से चार पांच पन्ने लगातार पढ़
जाने के बाद लगता है, खून के कनस्तर में हमारे
भी पाँव डूबे हैं. आपको उपन्यास के पन्नों से निगाह चुरानी पड़ सकती है.
यह बहुआयामी उपन्यास
कश्मीर के शुरुआती बहुलतावादी राष्ट्र वाले संघर्ष को एक इस्लामिक संघर्ष में
बदलने की प्रक्रिया को जिस बेहतरीन ढंग से पेश करता है, वह हैरतअंगेज करने वाला है. जिस कश्मीर की शुरुआती लड़ाई इस
नारे के इर्द-गिर्द थी, 'जिस कश्मीर को खून से
सींचा/ वो कश्मीर हमारा है', उसी कश्मीर की लड़ाई भयानक
धार्मिक नारे की डोर थामें आगे बढ़ती है: आजादी का मतलब क्या/ ला इलाह इल्लिलाह. यह
विडंबना ही है कि कट्टर आतंकी कश्मीर के जिन सिनेमाघरों को धर्म के नाम पर बंद
कराती हैं, दमनकारी शक्तियाँ उन्हें
यातना-गृह में बदल देती हैं. जो ऊपरी लड़ाई है वह जेकेएलएफ से होते हुए लश्करे-तैयबा
के हाथों में तक जा पहुंचती है. लेकिन इन सबके बीच वहाँ की पीढ़ियों से दमित अवाम
है. नायक मूसा की पत्नी और तीन वर्षीय बेटी अपने घर की बालकनी पर होने के बावजूद
मशीनगन की गोली का शिकार बन जाती हैं. मूसा तिलो से कहता है, मैं यह नहीं कहूंगा कि यह लड़ाई व्यक्तिगत है, लेकिन यह भी नहीं कह सकता कि यह व्यक्तिगत नहीं है. जिसने
अपनी पत्नी और तीन वर्षीय बेटी फौजी बूटों के तले खो दी हो, वो और कह भी क्या सकता है भला?
कश्मीरी संघर्ष के
अंधधार्मिक होते जाने की प्रक्रिया मूसा समझता है. तिलो के पूछने पर कहता है, विरोधी ताकतें इस कदर मजबूत हैं कि उनसे लड़ने के लिए हमें
हर स्तर पर एक होना होगा. हमें आंतरिक भेद मिटाने होंगे. हमें अपना अंतर्मन मजूबत
करना होगा और इसके लिए रास्ते सीमित हैं. हालांकि मूसा यह भी कहता है कि इससे हम
नष्ट हो जाएंगे: पहले हम जीतेंगे, फिर नष्ट होंगे और फिर पुनर्निर्माण
होगा...प्रक्रिया ही यही है. उपन्यास के जिस हिस्से में मूसा का यह संवाद है, उसे पढ़ते हुए रीढ़ में सिहरन हो गई थी. एक आम जन, न्यूज चैनल की फिल्मों को सूचना समझने वाला, भारतीय, कश्मीर के संघर्ष को
जितना मामूली समझे बैठा है, उसके मन-मस्तिष्क पर यह किताब
हथौड़े की तरह पड़ेगी.
मूसा का चरित्र इस
उपन्यास की उपलब्धि है. वह सचमुच में कश्मीर का योद्धा है. वह न किसी धार्मिक
संगठन का मुलाजिम है ना ही किसी दमनकारी सत्ता का पिट्ठू. संघर्ष ने उसके विचारों
को पैना कर दिया है. एक घटना से शायद उसके व्यक्तित्व का यह पहलू खुले: वह इनामी
आतंकी हो चुका है. उसके कॉलेज का परिचित और लगभग रकीब बिप्लब दास सूचना विभाग में
बड़ा अधिकारी रह चुका है. कश्मीर में ही नौकरी पर रहा है. कहानी के बड़े मुहाने पर, कॉलेज के तीस वर्षों बाद, वो
दोनों मिलते हैं. दोनों ने जीवन की शुरुआत अलग अलग स्थितियों से की. ये दोनों ही, बिप्लब और मूसा, क्रमशः सफलता और असफलता
के आधुनिक पैमानों के रूपक हैं. बिप्लब ने शुरुआत सरकारी अधिकारी के बतौर की और
अंत में वह इस हालात में पहुंच जाता है कि पत्नी ने उसे छोड़ दिया, बेटियाँ उससे बात तक नहीं करतीं, उसे नौकरी से निकाल दिया गया है और वह केवल शराब पीते रहता
है. दूसरी तरफ मूसा है, कश्मीर के अंधेरे साये
में पला बढ़ा, पत्नी और बेटी को खो चुका, इनामी आतंकी तीस वर्षों बाद न जाने कितनों का चहेता बना हुआ
है. तो होता यह है कि कहानी के एक मुहाने पर वो मिलते हैं. बिप्लब् दोस्ताना लहजे
में कहता है, तुम लोग सही हो लेकिन तुम शायद
कभी जीत न पाओ. मूसा, नायक मूसा, कहता है, यह संभव है कि हम लोग गलत
साबित हो जाएं लेकिन जीत हमारी हो चुकी है.
लेकिन इस्लामिक स्टेट
जैसी किसी संकल्पना का शिकार भी कश्मीरी ही होते हैं. एक गैर-मुस्लिम पात्र है, जो कश्मीर का ही रहने वाला है और अपने कश्मीर को उतना ही
प्यार करता है, जितना बाकी के लोग. लेकिन उस
गैर-मुस्लिम बार बार अपनी कश्मीरियत साबित करनी पड़ती है. जब एक उसका परिचित उसे यह
खबर सुनाता है कि उसे भी आतंकवादी मान कर उसके सर पर इनाम रखा गया है तो उस पात्र
की खुशी का ठिकाना नहीं रहता. वह उस सूचना देने वाले को खिलाता पिलाता है. उसे
लगता है कि अब वह काश्मीरी मान लिया जाएगा. कुछ दिनों बाद वह मार दिया जाता है.
किसके द्वारा मार दिया जाता है, आतंकी संगठनों द्वारा या
सेना द्वारा या पुलिस द्वारा, यह भेद नहीं खुलता.
क्योंकि तीनों ही दल यही चाहते हैं कि कश्मीरियों के बीच एका न हो.
उपन्यास के अनूठे आयामों
में से एक भारतीय सेना भी है. सैन्य अधिकारियों ने क्या कुछ कर डाला है इसे तो आप
उपन्यास में ही पढ़िए लेकिन एक सिपाही की आतंकियों द्वारा हत्या और उसके बाद की
लोमहर्षक प्रक्रिया का वर्णन काबिले गौर है. सैनिक दलित है. आपने अंदाजा तो लगा ही
लिया होगा कि क्या हुआ होगा, फिर भी सुनिए. शहीद सैनिक
के गाँव पर अंतिम संस्कार होना है. गाँव के उच्च जाति वाले उसके बलिदान से व्यथित
तो हैं लेकिन गांव के श्मशान में उसका अंतिम संस्कार वो होने नहीं देते. खैर, जिसका बेटा मर गया हो,
जिसका पति
शहीद हो गया हो, वो गांव के बाहर संस्कार कर लेते
हैं. उसकी सैनिक की मूर्ति गाँव के बाहर लगाई जाती है और मूर्ति के हाथ में बंदूक
बना दी जाती है. उच्च जातियों को दलित सैनिक का यह सम्मान बर्दाश्त नहीं होता और
धीरे धीरे वो मूर्ति तोड़ दी जाती है.
उपन्यास में एक मजबूत
दलित चरित्र और भी है: सद्दाम हुसैन. मरी हुई गाय को उठाने गए उसके परिवार को
पुलिस ने इसलिए बंद कर लिया है क्योंकि वह तीन गुना रिश्वत देने में सक्षम नहीं है.
दशहरा में रावण फूंक कर लौट रही 'मासूम' जनता उसके पिता और चाचा को पीट-पीट कर मार डालती है. लेकिन
सद्दाम का सबसे बड़ा दुःख यह है कि अपनी जान बचाने के लिए वह बालक उसी हत्यारी भीड़
में शामिल हो गया था. इस घटना के बाद वो सबसे पहले अपना नाम बदलता है.
उपन्यास के कलेवर पर बात
करने के लिए कश्मीर वाले हिस्से पर लौटना होगा. तिलो इकत्तीस की हो चुकी है और
वर्षों बाद मूसा से मिलने आई है. मूसा का मिलने आना भी एक साहसिक कार्य है. वो आता
है. कश्मीरी संघर्ष में शामिल होने की बात पर बात ही बात में तिलो कहती है, मैं अपने देश को बहुत प्यार करती हूँ, जहां कहीं भी तिरंगा दिखता है, मारे खुशी के मैं झूम जाती हूँ, मैं भला क्यों तुम्हारा साथ देने लगी? मूसा बताता है, कुछ दिन हमारे साथ रहो, कश्मीर को देखो, खुद-ब-खुद निर्णय लोगी.
अंततः वही होता है. वह कश्मीरियों की होकर रह जाती है. यह उपन्यास पढ़ते हुए आप भी
चेतना के स्तर पर खुद को तो वहाँ पाएंगे ही पाएंगे, यह
इस उपन्यास की सबसे बड़ी ताकत है.
आप खुद को यह सोचते हुए
पाएंगे कि क्या श्रीलंका सरकार ने जाफना में जो किया वह सही था? वह तो गलत था. स्पेन सरकार ने बास्क में जो किया वो सही था? वह भी तो गलत था. इंग्लैंड ने जो आयरलैंड में किया, वो? सब गलत था. सब अपराध है.
तो फिर उन दमनकारी शक्तियों को क्या कहा जाए जो लोगों से नफरत और जमीन के टुकड़े से
प्यार करती हैं! आप अपने आप को बहुत कुछ सोचते हुए पाएंगे.
इस उपन्यास का वह हिस्सा
जो दिल्ली में चलता है, जिसमें एक दूसरी दुनिया
है, आफताब से अंजुम बने मनुष्य की, जिसे शब्दहीनता के कारण हिंजड़ा कहा जा सकता है. अंजुम जिन
झूठी खुशियों में जी रही होती है, या वैसे मनुष्य अपने जीने
के लिए, जीते चले जाने के लिए, जिन खुशियों को ईजाद करते हैं, उनसे वह खुद भी एक दिन उकता जाती है, आत्महंता होने की हद तक उकता जाती है. और एक नई दुनिया ईजाद
करती है.
दरअसल, वही दुनिया इस उपन्यास की शरणस्थली है, जहाँ स्वाभाविक एका जन्म लेता है: हिंजड़े, स्त्रियाँ, दलित और गरीब अल्पसंख्यक, कश्मीरी संघर्ष में शामिल और सबसे बड़ी उम्मीद, एक छोटी बच्ची, जो इस उपन्यासरूपी माला
की सुंदर गाँठ है. उपन्यास के दोनों छोर उसी बिंदु पर मिलते हैं, और नए जीवन की शुरुआत करते हैं. एक तरफ कश्मीर में
कब्रिस्तानों में लाशों बाग लगाए जा रहें है तो दूसरी तरफ दिल्ली में यह नया बना
समूह एक कब्रिस्तान आबाद कर रहा होता है.
अंजुम की दुनिया शुरू से
ही समानान्तर रही है. वह जो एक जैविक बिलगाव उसे प्रकृति ने दिया है, वो उसे अलग थलग कर देती है. उसका लंबा और मार्मिक वृतांत
लेखिका ने पेश किया है. अंजुम के पिता के बहाने जो हिस्सा लेखिका ने पेश किया है, उससे पता चलता है कि अरूंधति ने भारत की हर परंपरा, हर रवायत के अनुरूप खुद को ढाल लिया है. यही शायद सच्ची
नागरिकता है. उर्दू और विशेषकर 'मीर' से उनका लगाव झलकता है.
अंजुम के पिता एक इंटरव्यू में मीर का एक शे'र पढ़ते हैं: जिस सर को
ग़ुरूर आज है याँ ताज-वरी का/ कल उस पे यहीँ शोर है फिर नौहगरी का. और फिर
साक्षात्कारकर्ता उस पर वाह, वाह करते हैं तो अंजुम के
पिता, और उस बहाने से लेखिका, यह बताना चाहते हैं कि यह शे'र
किसी एक सल्तनत के लिए नहीं लिखा गया है, यह सब पर, हम पर, आप पर, मौजूँ होगा. इसी ग़जल का एक और महान शे'र अरुंधति आखिर में पढ़ती हैं: ले साँस भी आहिस्ता की नाजुक
है बहुत काम/.... कम से कम दो बार, जाहिर है कहानी की रवानगी
में ही,कोई न कोई पात्र अंजुम के लिए
कहता है: वो कितना अच्छा उर्दू बोलती है, यार!
एक बात जो भारतीय पाठकों
को शुरुआती हिस्से में नागवार लग सकती है,
वो है
वर्तमान से उपन्यास की नजदीकियां. जिनने उदय प्रकाश को पढ़ रखा है, वो इस पैटर्न को समझ सकते हैं. दरअसल अरूंधति ने इसे बतौर
शिल्प इस्तेमाल किया है. भारत की वर्तमान स्थिति से अनजान पाठक शर्तिया ही उपन्यास
में आये सत्य को गल्प और गल्प को सत्य समझ लेगा. अब दुनिया में कौन ऐसा पाठक होगा, अनजान पाठक, जो इसे गल्प नहीं मानेगा
कि एक देश ऐसा है, जहाँ भीड़, मरी गाय की खाल उतारने वालों की हत्या कर देती है.
अरुंधति ने शिल्प के स्तर
पर बहुत सारे प्रयोग किये हैं. उपन्यास की नायिका, एस.
तिलोत्तमा, के बचपन, शिक्षा आदि का वर्णन बार बार यह आभास कराता है कि वह
अरुंधति की ही लंबी होती हुई परछाईं है. या खुद अरुंधति हैं. लेकिन नहीं, वास्तव में वह एक उम्मीद है. यह उम्मीद कि जैसे इस देश में
अरुंधति हैं, वैसे ही जुझारू तिलोत्तमा है, वैसे ही कई अन्य होंगे.
कुछेक बातों की तरफ ध्यान अगर लेखिका ने दिए
होते तो बात और बनती. मसलन, मकबूल भट्ट की फाँसी के
पहले म्हात्रे की हत्या उन जेकेएलएफ के वीर-बहादुरों ने की थी. वह एक ट्रिगर पाईंट
था, जिसने भारतीय व्यवस्था को नए
तौर-तरीके आजमाने पर मजबूर कर दिया. दूसरी बात, आखिर
यह कौन सा भाई चारा है कि लश्करे-तैयबा आदि हर उस जगह पहुँच जाते हैं, जहां आग लगानी होती है? और
सबसे बड़ी बात कि कौन सी वो ताकतें हैं, जो कश्मीर में आग लगाने
के ईंधन मुहैया कराती रहती हैं. इन सब अनुत्तरित प्रश्नों के बावजूद यह उपन्यास
कश्मीर की जनता के पक्ष खड़ा होता है, जो हाथी के पांव तले
कुचली हुई घास हो गई है.
शैली वही अंग्रेजी
उपन्यासों वाली है. विस्तृत वर्णन. एक घटना और इसके इर्द गिर्द बने पाँच छह जीवन
और जो जीवन जितना कम प्रभावित है उसका वर्णन सबसे पहले करना. हालाँकि लेखिका ने
संपादकों को बड़ी आत्मीयता से शुक्रिया कहा है लेकिन सम्पादन की जरूरत शुरुआत में
दिखती है.
अपने कश्मीरी भाई बंधुओं
के बारे में जानने के लिए यह एक अवश्य पठनीय उपन्यास है.
______________________________
लेख का शीर्षक मीर के इस
शे'र से लिया गया है:
आलम सियाह-ख़ाना है किस का कि रोज़ ओ शब
ये शोर है कि देती नहीं कुछ सुनाई बात.
चन्दन
पाण्डेय अपनी पीढ़ी के प्रतिनिधि कथाकार हैं. उनके तीन कहानी संग्रह ‘भूलना’, ‘इश्कफरेब’ और ‘जंक्शन’
प्रकाशित हैं. ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार, कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप, और शैलेश मटियानी
कथा पुरस्कार से सम्मानित हैं.
chandanpandey1@gmail.com
अरुंधति का नया उपन्यास नहीं पढ़ा लेकिन बहुत सारे रिव्यूज ज़ाहिर है राहों निगाहों में आते रहे और क़रीब आठ दस पढ़े होंगे तो कुछ कुछ तस्वीर सी बनती रही कि यह दस बारह बिंदु है जिनके संदर्भ में बात चीत हो रही है।
जवाब देंहटाएंचंदन पांडे के लेख में बड़ा ठहराव है। मासूम ज़िम्मेवारी से लिखा हुआ कि पढ़ने वाले को कहानी के contours भी समझ आएँ और निहितार्थ भी और विश्लेषण भी। यह लेख आलोचना के pre decided यंत्रों से उपन्यास तक पहुँच बनाता नहीं दिखायी पड़ता बल्कि उपन्यास को 'सुनकर' उसे समझने का प्रयास करता है। ऐसा उनके विवरणों से प्रतीत हुआ।
यह समीक्षा ख़ुद किसी कहानीकार ने लिखा है यह भी सहज पता चलता है क्यूँकि वे गूँथी हुई कहानी को लेख के आख़िरी पैराग्राफ़ में फिर से कहानी के सिरे जोड़ने की कोशिश कर रहे हैं।
मुझे यह लेख बहुत अच्छा लगा।
इस सधी हुई समीक्षा को पढ़ कर उपन्यास पढ़ने का मन हो गया है। चन्दन की समीक्षा बड़ी संतुलित और अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंलगता है उपन्यास ही पढ़ लिया
जवाब देंहटाएंलगता है उपन्यास ही पढ़ लिया
जवाब देंहटाएंचन्दन पाण्डेय की इस नायाब समीक्षा ने कथाकार अरुंधती राय के नये उपन्यास 'द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनैस' के बारे में पढ़ने की इच्छा को तो तीव्र बनाया ही है, उन्होंने इस कृति को महत्वपूर्ण पहलुओं को बहुत खूबसूरती से उभारकर सामने कर दिया है, न केवल उसकी खूबियों को बल्कि उसकी सीमाओं को भी बेहतर ढंग से रेखांकित किया है। इस त्वरित और नायाब समीक्षा के लिए चंदन और समालोचन को बधाई।
जवाब देंहटाएंsuch an insightful review
जवाब देंहटाएंचंदन पाण्डेय ने अरुंधती राय के सद्य: प्रकाशित उपन्यास में कुछ अनुत्तरित प्रश्नों को रेखांकित करते हुए खुद लिखा है कि "आखिर यह कौन सा भाईचारा है कि लश्करे-तैयबा आदि हर उस जगह पहुँच जाते हैं, जहां आग लगानी होती है? और सबसे बड़ी बात कि कौन सी वो ताकतें हैं, जो कश्मीर में आग लगाने के ईंधन मुहैया कराती रहती हैं."
जवाब देंहटाएंइनके अलावा उपन्यास इस्लाम धर्म का राजनीतिक इस्तेमाल करते हुए कश्मीरी हिन्दुओं का नरसंहार करनेवाली ताकतों,जमायते इस्लामी के बढ़ते प्रभाव के तहत मुस्लिम बच्चों को सरकारी स्कूलों के बजाए केवल मजहबी तालीम हासिल करने के लिए बाध्य कर देने की साजिश के तहत इस्लामी चरमपंथयों द्वारा स्कूलों में आगजनी,अलगाववाद को अपना उद्योग बना चुके हुर्रियत के कथित नेताओं के आर्थिक हित आदि ज्वलंत मुद्दे को जानबूझकर नज़रंदाज़ किया गया है.
कहना न होगा कि अरुंधती राय शुरु से ही कश्मीरियों के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन करती रही हैं.उनका यही विचार वह मूल सूत्र हैं जिसे कला के धरातल पर उपन्यास के माध्यम 'कश्मीर की आज़ादी'का पक्ष और भारत सरकार की नीतियों का प्रतिपक्ष रचा गया है.
जार्ज लुकाच की शब्दावली में यह एक 'स्कीमेटिक लेखन' है.
याद रहे कि जिस दिन 'कश्मीर की आज़ादी' के लिए चलाया जा रही हिंसक परियोजना दुर्भाग्यवश पूरी हो जाएगी उस दिन से पंजाब के नए सिरे से ऐसे ही अभियान का आगाज़ होगा.
भारतीय बुद्धिजीवियों के को यह उपन्यास पसंद आएगा, क्योंकि यूरोपीय बुद्धि का आकर्षण एक ऐसा अस्त्र है जो उन्हें तो अच्छा लगता ही है जो इससे अपने विरोधियों को धूल चटाते हैं,यह उन्हें भी बहुत अच्छा लगता है जो खुद इसका शिकार बनते हैं.
शुरू में महमूद के बारे में पढ़ कर आपकी कहानी 'भूलना' याद आ गयी। बहुत दिलचस्प तरीके से आपने समीक्षा की है, ऐसा की किताब पढ़े बिना रहा न जाएगा!
जवाब देंहटाएंअरुंधति या कश्मीर को लेकर आजकल लोगों के मन में या तो अत्यधिक झुकाव दिखता है या पूर्वाग्रह। लेकिन समीक्षक ने बेहद संतुलित समीक्षा की है। मैं खुद भी अभी यही किताब पढ़ रहा हूँ और मेरी अब तक की राय कमोवेश ऐसी ही बन रही है। वैसे अरुंधति ने जिस तरह से समाज में उपेक्षित वर्गों को एक एक कर अपनी कहानी में जगह दी है और जिन राजनीतिक घटनायों की पृष्ठभूमि तैयार की है, उससे उपन्यास के स्टीरियोटाइप्ड होने का खतरा है। पढ़ कर देखता हूँ आगे क्या होता है।
जवाब देंहटाएंचंदन! बहुत क्रिएटिव समीक्षा है। किरदारों स्थितियों घटनाओं तथा अतीत और वर्तमान पर अरुंधती राय की पकड़ साथ ही निहितार्थों पर क़ायम रह कर कथा कहने की उनकी प्रविधि को बेहतर तरीके से देखा है तुमने। कुछ प्रसंग डरा रहे हैं मगर पढ़ना पड़ेगा यह उपन्यास।
जवाब देंहटाएंचंदन की इस समीक्षा ने किताब पढ़ने की ओर झुकाव पैदा कर दिया।
जवाब देंहटाएंA nice review it is an appetite to read the history of our time in light of fiction created by Arundhti and her purpose for hedging or unveiling the Truth
जवाब देंहटाएंलगता है पाठक devide हो गए हैं, पसंदगी और नापसंदगी को लेकर। आपकी समीक्षा वैसी ही है, जैसी होनी चाहिए थी। आपने महत्वपूर्ण बिंदुओं को छुआ भर है लेकिन अति महत्वपूर्ण बिंदुओं को आपने विस्तार दिया है जिससे उपन्यास को समझने में मदद मिलती है। दूसरा पक्ष उन बिंदुओं को गोल कर जायेगा जो आपके लिए अति महत्वपूर्ण हैं। अरुंधति का लेखन मुझे पसंद है। कश्मीर मेरी चिंता बढ़ाता है लेकिन एक्सट्रेमिस्म मुझे स्वीकार नही, चाहे वो दक्षिणपंथी करे या अरुंधति। आपने जिस खूबसूरती से ये लेखन किया है, उससे मैं भी आपका कद्रदान हो गया हूँ। जैसे arundhiti का हूँ।
जवाब देंहटाएंबेस्ट wishes!!
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