कथा - गाथा : अ स्टिच इन टाइम : सुभाष पंत

























  
पूंजी के वैश्वीकरण ने किस तरह पारम्परिक पेशे और उससे जुड़े समूहों को  बर्बाद किया है, इसे समझना हो तो वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’ जरुर पढ़ना चाहिए. ऐसे समूहों की कथा आपको किसी इतिहास की किताब में  दर्ज़ नहीं मिलेगी. जिसे इतिहास नज़र अंदाज़ करता है उसे साहित्य सहेज लेता है.

यह कहानी  दर्ज़ी उसके एक कद्रदान  और  मल्टी ब्रांड की एक कमीज़ के इर्द गिर्द बुनी और सिली गयी हैं. नज़र अहमद का यह कहना अंदर तक हिला देता है – ‘यह आखिरी कमीज़ तो नहीं लेकिन यहाँ सिला कोई भी कपड़ा अब आखिरी कपडा़ हो सकता है.’


अ स्टिच इन टाइम                                          
सुभाष पंत


मेरी बेटी टीना ने मुझे जन्मदिन पर एक कमीज़ उपहार में दी. यह एक्सेल गारमेंट् मल्टीनेशनल की शर्ट थी और सलीके से खूबसूरत कार्डबोर्ड के कार्टन में पैक थी.

उस वक्त, याने जब वह ऐसा कर रही थी, उसके चेहरे पर एक आभिजात्य गरिमा थी और वह मुस्कुरा भी रही थी.

मेरे लिए यह समझना काफी मुश्किल था कि उसके व्यवहार में जन्मदिन की खुशी कितनी थी और मुझे युद्ध में हराने का उल्लास कितना था.

पर्दे के पीछे से लतिका झांक रही थी. उसकी उत्फुल्ल उत्सुकता से मेरे कान गर्म हो गए. यह एक भयानक किस्म का अपराध था. मेरे साथ सात फेरे लेने और अग्नि को साक्षी मानकर जीवनभर साथ निभाने का वचन भरने के बाद वह मुझे पराजित देखना चाहती थी. पति-प्रेम में व्याकुल स्त्रियाँ भी अपने पतियों को हारते हुए देखने की महान चाह से भरी रहती हैं. मुझे उसके चेहरे पर भी वही चाहत दिखाई दी.

दरअसल हम एक युद्ध लड़ रहे थे. टीना और मैं. वैसा ही जैसा दो पीढ़ियाँ निरन्तर लड़ रही होती हैं.

लड़ाई के कई मुहाने थे. इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.

मैं दर्जी से कपड़े सिलवाकर पहनता था. अमन टेलर्ज के मास्टर नज़र अहमद से. मेरी नज़रों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं, फनकार थे. कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं.... हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था.

यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.   
टीना दर्जी से सिले कपड़ों से सख़्त नफ़रत करती.
उसका ख़याल था कि कपड़े विचार हैं...

यह बात मुझे सांसत में डाल देती. लेकिन वह मुझे इस तर्क से ठंडा कर देती कि तिलक-घोती-कुर्ताधरी कभी भी बिग बैंग या ब्लैकहोल के बारे में नहीं जान सकता. वह सिर्फ वेद-पुराणों में महदूद रहता है, जो हजारों साल छोटे दिमागों के सोच की अभिव्यक्तियाँ हैं.

उसने मुझे एक महीन और शालीन चालाकी से परास्त कर दिया. उपहार को अस्वीकार करके उसका दिल तोड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. बेटी का नाज़ुक दिल. कमीज़ मुझे पहननी ही थी. यह उसकी विजय थी और नज़र अहमद के विश्वास का आहत होना था.

वह कभी नज़र अहमद को नहीं जान सकती. फैशन डिजाइनिंग के सिलेबस में नज़र अहमद नहीं पढ़ाया जाता. मैरिट में आने और हमारे समझाने के बावजूद टीना ने मैडिकल ज्वाइन नहीं किया था. उसके पास मैंडिकल में सात-आठ साल बर्बाद करने का वक्त नहीं था. उसे दो साल के बाद चार लाख एनम का पैकेज़ चाहिए था.

वह फैशन डिजाइनिंग में डिप्लोमा कर रही थी. उसकी उम्र तेईस थी और उसके पास वक़्त नहीं था.

उसकी नज़रें मेरे चेहरे पर टिकी हुई थीं और मेरे हाथ में गिफ्ट पैक था. वह चाहती थी कि मैं उसे आक्रामक उत्कंठा के साथ खोल कर देखूँ और उसके चुनाव की प्रशंसा करूँ. जाहिर है, मैं ऐसा करना भी चाहता था. तभी यह मानसिक दुर्घटना हो गई और मुझे कार्टन पर नज़र अहमद का चेहरा दिखाई दिया. धुएँ की लकीर से बनाया हुआ-सा.

कार्टन पर उतरा यह वही चेहरा था जिसे मैंने छै एक महीने पहले तब देखा था जब टेलर मास्टर कमीज़ सिलने के लिए मेरा नाप ले रहे थे. अफ़सोस. यह एक थका हुआ भयभीत चेहरा था. उनके वर्कशाप में भी वैसी रौनक नहीं थी, जैसी अमूमन रहा करती थी. सिलाई मशीन और कारीग़रों की संख्या बहुत कम हो गई थी. शहर भव्य हो रहा था और अमन टेलर्ज के छत की कड़िया झुक रही थीं. काउंटर की पॉलिश फीकी पड़ गई थी और दीवारें बदरंग हो रहीं थी. हवा बेचैन थी. मानों कोई पका फोड़ा फटने के लिए धपधपा रहा है...

इच्छा हुई. मालूम करूँ. क्या है, जो अमन टेलर्जं को भीतर ही भीतर खा रहा है. वे कान में खोंसी पैंसिल निकालकर कापी में उर्दू में नाप लिख रहे थे. उसे पढ़ना मुमकिन नहीं था. लगा वे पेंसिल की घिसी नोक से ग़लत नाप उतार रहे हैं. उनके हाथ काँप रहे थे और आँखें भावहीन थी. वे अपने क़द से कुछ छोटे भी लग रहे थे.

पूछना मुनासिब नहीं लगा.

‘‘क्या सोचने लगे पा...? आपने तो अब तक इसे देखा ही नहीं.’’ टीना ने कार्टन पर उभरे नज़र अहमद के धुएँले चेहरे से मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा.
‘‘दरअसल कार्टन ही इतना अट्रैक्टिव है...’’ मैंने कहा और कार्टन से कमीज़ बाहर निकाला. वह एक महीन गत्ते पर आलपिनों से बंधा हुआ था और उसकी कालर प्लास्टिक की टेक पर अकड़ी हुई थी.

टीना ने सलीके से पिन निकाल कर कमीज़ मेरे सीने पर सजाते हुए पूछा, ‘‘कैसी लगी?’’
‘‘थैंक्यू बेबी. अच्छी क्यों नहीं लगेगी. महानायक इसके ब्रांड ऐम्बेसेडर हैं और यह वुड बी फैशन स्पेशलिस्ट की च्वाइस है.’’

‘‘बर्थ डे पार्टी में यही शर्ट पहनिएगा.’’ टीना ने आग्रह किया.

मैं पार्टी में अमन टेलर्ज़ से सिली वही कमीज़ पहनना चाहता था जिसके सही नाप के बारे में मुझे तब शक हुआ था जब नज़र अहमद ने उसे घिसी पेंसिल और काँपते हाथ से कापी में उतारा था. नियत तारीख को मैं कमीज़ लेने गया तो नज़र ने अलमारी से निकालते हुए कहा कि मैं उसे पहन का देख लूँ. मुझे अचरज हुआ. उन्हे अपने सिले कपड़ों, खा़स कर कमीज़-पैंट वगैरह पर पूरा विश्वास रहता था और वे कभी ट्रायल नहीं लेते थे. क्या उन्हें अपने पर विश्वास नहीं रहा या उन्हें खुद शक था कि उनसे नाप ग़लत लिया गया है. यह एक तैराक के पानी में डूबने की तरह था.

मैंने कमीज़ पहनी और मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उसमें कहीं कोई झोल या अटक नहीं थी. वह पूरे परफैक्शन के साथ सिली गई थी. नज़र ने ऊपरी बटन बंद करके उसके कॉलर का मुआइना किया और मेरी कॉख के नीचे हाथ डालकर उसका फाल देखा. उसे निर्दोष पाकर उनका चेहरा खुशी से चमकने लगा.

‘‘मास्टरजी आप इसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह आपकी बनाई आखिरी कमीज़ हो.’’ मैंने कमीज़ उतारते हुए कहा.

उनका चेहरा फक्क हो गया. उन्होंने कमीज़ तहाकर पॉलीथीन के कैरीबैग में डाली और बिना कुछ बोले उसे काउंटर पर रख दिया.

‘‘आपकी तबीयत तो ठीक है? बहुत उदास और थके दीख रहे हैं...’’ मैंने काउंटर से बैग उठाते हुए कहा.

सूखी-सी हँसी से उनके चेहरे की झुर्रियां काँपने लगी. झुर्रियों के काँपने से मैंने जाना कि उनका चेहरा बेतहाशा झुर्रियों से भर गया है. उनकी कमर झुक चुकी है और उनका क़द छोटा हो गया है. यह अजीब बात थी. वे वक्त के साथ छोटे होते जा रहे थे....

‘‘तबीयत ठीक है,’’ उन्होंने कहा, ‘‘जैसा आपने फरमाया...यह आखिरी कमीज़ तो नहीं लेकिन यहाँ सिला कोई भी कपड़ा अब आखिरी कपडा़ हो सकता है...’’

‘‘क्या कह रहे हैं मास्टरजी? अमन टेलर्ज़ तो शहर की शान है...’’ मैंने आश्चर्य और खेद के साथ कहा.

‘‘दरअसल अब रेडीमेड गारमेंट्स का जमाना है. इन्हें बनाने के लिए आई बड़ी कम्पनियों ने दर्जियों के कारोबार को मंदी में धकेल दिया है. कारीग़रों का मेहनताना निकालना ही मुश्किल हो गया. हमारा यह धंधा बंद होने के कगार पर है. बच्चों का मन दुकान से पूरी तरह उचट गया है. बड़ी मछली के सामने छोटी मछली बहुत दिन टिकी नहीं रह सकती...कभी हमारे भी दिन थे. आपने ठीक फ़रमाया, खुदा की मेहरबानी से हमने एक शानदार वक्त बिताया है...लेकिन अब तो जनाब हम हाशिए में हैं...’’ उन्होंने कहा और कमज़ोर-सी खाँसी खाँसे, जो गले से नहीं दिल से उठ रही थी.

मुझे धक्का लगा. लेकिन अर्थ और बाज़ार के समीकरण के बारे में कुछ भी न जानने की वजह से मैं उन्हें कोई दिलासा नहीं दे सका. वैसे भी वे उम्र और अनुभव में मुझसे बड़े और समझदार थे.

अमन टेलर्ज़ की सीढ़ियाँ, और शायद अंतिम बार, उतरते हुए मैं अफ़सोस से भरा हुआ था. शानदार विरासत टूट रही थी. एक धड़कती हुई कहानी का यह त्रासद अंत था.

‘‘दरअसल मैं चाह रहा था कि नज़र अहमद से सिलवाई कमीज़ पहनूँ...’’
‘‘हैल नज़र! पता नही ये मरदूद देसी दर्जी आपका पिंड कब छोड़ेंगे....’’ टीना ने कहा. उसके चेहरे पर तिरस्कार के ठोस अक्स उतर गए.
‘‘बहुत जल्दी...’’ मैंने कहा, ‘‘शायद नज़र अहमद की सिली मेरी यह कमीज़ आखिरी कमीज़ है. अमन टेलर्ज़ मर रहा है और मुझे इसका अफ़सोस है.’’

‘‘युर वेरी सैंटी पापा. यह फ़ैशन बाज़ार है...इसमें वही टिकेगा जिसके पास एस्थोटिक है, जो इमेजिनेटिव है और इनोवेटिव है.’’
‘‘नही, जिसके पास पैसा और ताक़त है. वह बाकी चीजें ख़रीद लेगा और उन्हें कूड़ेदान में फेंक देगा जिनसे वह उन्हें ख़रीदेगा.’’

लतिका उत्सव की तैयारी में जुटी हुई थी. यह मेरे जन्मदिन का उत्सव था, जिसमें मेरे नहीं लतिका और टीना के मेहमान आने वाले थे. वह हमारी ओर मुखातिब हुई और टीना के पक्ष में सन्नद्ध हो गई. उसने हाथों से हवा को छुरी की तरह काटते हुए कहा, ‘अमन टेलर्ज़ का मरना, जैसा कि तुमने कहा, एक अफ़सोस की बात है. लेकिन उसकी सिली कमीज़ पहनने से...और खासकर ऐसे मौके पर जब फैशन जगत की हस्तियाँ हमारे उत्सव में शामिल हो रही हैं...उम्मीद है रितु बेरी भी...तुम्हे कपड़े तो कायदे के पहनने ही चाहिएँ.’’

मेरे पास कमीज़ पहनने के अनेक तर्क थे. मसलन नज़र अहमद की सिली आखिरी कमीज़ को मैं वह सम्मान देना चाहता था, जिसकी वह हकदार थी. वे कभी शहर का क्रेज थे और अब रद्दी की टोकरी में फेंके जा रहे थे. मैं उसे एक प्रतिरोध के रूप में भी पहनना चाहता था. महात्मा गांधी की तरह जिन्होंने मानचेस्टर की मिलों से आए कपड़ों से मरते जुलाहों को जिन्दा रखने के लिए खादी और चर्खे को आजादी का प्रतीक बनाया था. और सबसे बड़ी बात कि अपने जन्मदिन पर मुझे अपने हिसाब से कपड़े पहनने का अधिकार था.

मैं चुपचाप लेकिन गम्भीरता से उन्हें चित्त करने का धांसू तर्क खंगालने लगा. विचार काल के इस मौंन को लतिका ने मेरी कमज़ोरी माना और मुझ पर जज्बाती हमला बोल दिया, ‘‘तुम्हारी बात अपनी जगह सही हो सकती है...फिर भी तुम्हे बेटी का दिल तोड़ने का अपराध नहीं करना चाहिए...उसने कितनी चाहत से इसे खरीदा है. आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप को धेले के लिए भी नहीं पूछते. अपनी टीना...वह तुम्हे अपने दोस्तों के बीच एक दकियानूस पिता की तरह पेश नहीं करना चाहती. पहनावे का दकियानूसी से सीधा ताल्लुक है.’’

भावनात्मक आक्रमण ने मुझे धकेलकर विवश कोने में खड़ा कर दिया.
टीना मौके का फायदा उठाकर मुझ पर छा गई, ‘पा...माई ग्रेट पा...’’

 मैं माँ-बेटी की घेराबंदी में फँस गया. वहाँ सिर्फ हार थी. मैं यह लड़ाई हार चुका था. उसी तरह जैसे ऐसी लड़ाइयों में पिता हारते ही हैं. निर्मम-भावुक विवश्ता में मुझे अपने जन्मोत्सव पर टिना की लाई कमीज़ ही पहननी थी.

यह हत्याओं का मामला था. ऐसी, जिसमें हत्यारों को हत्यारा नही माना जा सकता और उन्हें सजाएँ नहीं दी जा सकतीं. ये बहुत नफ़ीस हत्याएँ थीं. शानदार उत्सव की तरह...

बाजार अमन टेलर्ज़ को छीन रहा था और टीना उसकी बनाई अंतिम कमीज़ मुझसे छीन रही थी....


उत्सव की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकीं थी और फिनिशिंग टच दिया जा रहा था. दो मिनट पहले ही रितु बेरी का फ़ोन आया था. वे करीब पौन घंटे के बाद यहाँ आने वाली थीं. एक लड़का ब्रश औेर रंगों के साथ ड्राइंग शीट पर झुका हुआ था. मैंने अंदाज लगाया. वह रितु बेरी के स्वागत में पोस्टर या प्लेकार्ड तैयार कर रहा होगा, जिसे टीना स्वागत द्वार पर सजाएगी या उस वक्त हाथ में हिलाती रहेगी जब रितु बेरी आएँगी.

मैं टलते हुए उसके पास गया और मेरा अनुमान उसी तरह गलत निकला जैसे अमूमन वे निकलत रहे. ड्राइंगशीट पर रितु बेरी नहीं, मेरा कैरीकेचर था और उसके नीचे लड़का आपको पचासवें जन्मदिन की शुभकामनाएँलिख रहा था. कैरीकेचर में एक मशहूर मसखरे नेता की नजदीकी झलक दिखाई दे रही थी. मुझे टीना का यह मज़ाक अच्छा लगा. उसकी निगाह में मैं देश के नीति निर्धारको की बराबरी का था, भले ही वे मसखरे हों. लेकिन एक मायने में यह सदमा देने वाला भी था क्योंकि इस मौलिक किस्म की रचनात्मक सोच के पीछे जाहिर है कि लतिका का शातिर दिमाग काम कर रहा होगा. वह प्रेमिका रहने के बाद मेरी पत्नी बनी थी. 

टीना रैपअप जीन और फरहरा पहने और गले में मोबाइल लटकाए पर्दे ठीक कर रही थी. उसने मेरी ओर नज़र घुमाकर बनावटी रोष से कहा, ‘ये क्या? आप अब तक तैयार नहीं हुए. रितु बेरी आनेवाली हैं. उनके पास बीसेक मिनट का टाइम है और उसी दौरान केक काटा जाना है.’’

मेरी इच्छा यह पूछने की हुई. क्या इतने बड़े केक भी होते हैं जिसमें पचास बर्थ डे कैंड़िल भोकी जा सकें. लेकिन ऐसा पूछने से टीना रुष्ट हो जाती. वह फक्कड़ मस्ती और जन्मदिन उत्सव के दारुण उत्साह से लबरेज थी. मैंने जिज्ञासा को काबू किया. मुस्काया और बोला, ‘‘ओके बेबी. मैं वक्त से तैयार हो जाऊँगा. वैसे, तुम्हारा यह कलाकार मजेदार लड़का है.’’

‘‘हाँ, पिंटू में महान कार्टूनिस्ट की अपार संभावनाएं हैं.’’

मुझे इस बात से खुश होना चाहिए था और मैं हुआ भी. भविष्य का एक महान कार्टूनिस्ट मेरे कैरीकेचर से अपने व्यावसायिक जीवन की शुरूआत कर रहा था. मैंने उसे शुभकामनाएँ दी और वापिस हो गया. अब मुझे तैयार होना था. इस मामले में भी मैं लतिका से पीछे रह गया था. वह काफी देर पहले पारलर जा चुकी थी और अब लौटने ही वाली थी.

मैंने कमरा भीतर से बोल्ट कर लिया. पौन घंटे का यह वक्त मेरा था, जिसे मैं इसे अपनी तरह से बिता सकता था. बाहर खिड़की के सामने पेड़ की शाख पर एक चिड़िया बैठी थी.

यह समझना काफी मुश्किल था कि उसे मौसम ने थका दिया था और वह सुस्ता रही थी, या फिर वह आसमान को चीरने वाली लम्बी उड़ान भरने के लिए अपने भीतर विश्वास पैदा कर रही थी. यह एक प्रेरक दृश्य था लेकिन मेरी चिन्ताएँ दूसरी थीं. मैंने फौरन अमन टेलर्जं से सिलवाई कमीज़ निकाल कर मेज पर फैला दी. यह सिर्फ मेरे लिए सिली गई कमीज़ थी, जो ऐलानिया बाज़ार में ख़रीदी या बेची नहीं जा सकती थी और मेरी एक अलग पहचान कायम करती थी.

क्मीज़ पहनकर मैं आइने के सामने खड़ा होकर अपने को निहारने लगा. वैसे ही जैसे लतिका तैयार होकर मुग्धभाव से अपने को निहारते हुए कैसी लग रही पूछती है. नाजुक दिल का सवाल फिर आड़े आ जाता. बाध्य. बहुत खूबसूरत लग रही हो कह कर मुझे ज्यादातर प्रमाण में उसे चूमना पड़ता. औरतें चालाक होती हैं. वे अपने को चुमवाने के सारे तरीके जानती हैं और चुपचाप उन्हें अमल में भी लाती हैं.

मैं सुखद अनुभूति से भर गया. भीतर तक अपनेपन के अहसास से मेरी आत्मा भींग गई. कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं. कमीज़ के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे. आस्तीन के कफ ठीक वहीं थे जहाँ उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. कांख पर न कोई कसाव था और न वह ढीली झूल रही थी. पल्ले का फाल उतना ही था, जितना मैं चाहता था. और सबसे बड़ी बात यह थी कि कमीज़ का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहाँ मेरा दिल धड़कता है....

विजय के आनन्द की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट सुलगाकर धुएँ के छल्ले उड़ाने लगा. मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी. मैं इन क्षणों को, जो बहुत देर मेरे साथ नहीं रहने वाले थे, पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहता था. कुछ देर बाद कभी भी दरवाज़ा खटकने वाला था और मुझे दरवाज़ा खोलने से पहल अपनी प्यारी बेटी की लाई शर्ट पहन लेनी थी.

मेरे कान चैकन्ने थे और कमरे में बंद रहने के बावजूद बाहर की सम्पूर्ण गतिविधियों की टोह ले रहे थे. सरगर्मी बढ़ गई थी. आवाज़ें और चहलकदमी थी. शायद बेकर्स से बर्थ डे केक आ चुका था, जिस पर पचास बर्थ डे कैंडिल लगाई जानी थीं. जिन्हे लतिका और टीना लगाएँगी और मुझे एक फूंक में बुझाने के लिए कहा जाएगा. उनके बुझते ही, जो एक से ज्यादा फूंक में बुझेगी, लतिका मेरे हाथ को सहरा देकर केक काटने में मेरी मदद करेगी. इसी के साथ तालियों की गड़गाहट और हैप्पी बर्थ डे टू यूका संगीत गूँजने लगेगा और मैं सदी का एक और वर्ष पिछड़ा आदमी हो जाऊँगा. एक और वर्ष जिद्दी बूढ़ा, जिसे अपने दर्जी की व्यवसायिक मौत बर्दाश्त नहीं होती....

मैंने पता नहीं कब धुएँ के छल्ले बनाने बंद कर दिए. धुआँ अब काँपती लकीर की तरह ऊपर उठ रहा था. हवा से टूटकर और उसकी मर्जी से आकार बदलते हुए. ये ऐसे रूपाकार थे जो मैं या कोई भी चाहकर नहीं बना सकते थे. प्रकृति असंभव कल्पनाओं की कलाकार है. सिगरेट जलते हुए छोटी पड़ गई थी और मेंरी उंगलियों को जलाने की कोशिश में थी. मैंने सिगरेट झटकी और जूते से मसल दी. पी कर फेंकी हुई सिगरेट मसली ही जाती है. ऐश ट्रे में, ज़मीन पर या कहीं भी.

कमीज़ पहने हुए एक सिगरेट वक्त गुजर चुका था. मैं एक और सिगरेट वक्त की रियायत चाहता था. यह संभव नहीं था. बाहर टीना अधीर थी और लतिका उससे भी ज्यादा. वह पारलर से तैयार होकर आ चुकी थी और उत्सव शुरु होने की बेचैनी से भरी हुई थी. अजीब बात थी. जन्मदिन मेरा था और बेचैन दूसरे लोग थे.

मैंने बुझे मन से कमीज़ उतारी. उसे तहाया और कपड़ों के इतने नीचे रख दिया कि उसे दफना दिया गया हो...एक अफसोस के साथ. मैंने उसके साथ एक कहानी भी दफना दी थी.    

टीना की कमीज़ मेरी नाप के अनुसार नहीं थी. ऐसी कमीजें किसी की भी नाप के मुताबिक नहीं होतीं. ये पहनने वाले से रिश्ता कायम करके नहीं बनाई जातीं. इनका नाप स्टेटिटिस्क्स की मोस्ट अकरिंग फ्रिक्वेसीज़ है. बहरहाल, ढीली फिटिंग के बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी. शोख, गुस्सैल पर मोहक लड़की की तरह. उसके साथ समझौता करना होता है मैंने भी किया और कमीज़ पहनली. उसे पहनते ही मैंने महसूस किया कि मैं बदल गया हूँ. मैं ज्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया. बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गई. सीना गदबदाने लगा और आँखों की झिल्लियाँ फैल गईं. मेरे पीछे ताकतें थीं. आला दिमाग, श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे. मैं सतह से ऊपर उठ चुका था.

मैंने डान क्विग्जोहट के वीरोचित साहस में दस्तक होने से पहले दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया.

टीना ने मेरी ओर देखा. अंगूठे और तर्जनी को मिलाकर छल्ला बनाकर मेरे कान में चिहुँकी, ‘‘मस्त...पा एकदम मस्त...’’

हॉल टीना और लतिका के मेहमानों से भरा हुआ था. पारलर की मेहरबानी से दस बरस छोटी हुई लतिका चहकती हुए किसी से बात कर रही थी. मुझे कमरे से निकलते देखकर उसने प्रसंग बीच में ही काटा, फुर्ती से लपकी और उस कुर्सी तक ले जाने के लिए, जिस पर बैठकर मैंने केक काटना था, मेरा कंधा थाम लिया. वह छात्रजीवन में नाटकों में अभिनय करके खासी ख्याति अर्जित कर चुकी थी. उसने माहौल में सहजरूप से ईर्ष्या योग्य आदर्श दाम्पत्य निर्मित कर लिया था. कुर्सी के पीछे की दीवार पर ऐन मेरे सिर के ऊपर मेरा कैरीकेचर टांगा जा चुका था. मेरा खयाल है कि इसके पीछे माँ-बेटी का मकसद उत्सव में हास्य रस पैदा करना रहा होगा क्योंकि अमूमन ऐसे उत्सवों पर संजीदा किस्म का आदमी होने के गरूर में मेरा थोबड़ा लटका रहता था. उत्सव में शामिल लोगों में वह खासी दिलचस्पी पैदा कर रहा था और वे उसे देखकर प्रसन्न थे.

मेज पर ट्रे में केक रखा था. वह बहुत बड़ा तो नहीं था, लेकिन मेरी आशंका को निर्मूल करते हुए उसमें पचास बर्थ डे कैंडिल सजी हुई थीं, जिन्हें लतिका और टीना ने खासे कौशल से लगाया था. वे अभी जलाई नहीं गईं थी. उसकी बगल में लेटे हुए आयताकार आधार पर हत्थे में गुलाबी रंग के फूलवाला एक खूबसूरत चाकू टिका हुआ था.

एक गोलमटोल, गाबदू और उत्सुक बच्चा अपनी काली और चमकीली आँखों वाली नुकीली माँ से पूछ रहा था कि वहाँ वैसे गुब्बारे क्यों नहीं लटकाए गए हैं, जैसे गुब्बारे उसकी पार्टी में लटकाए जाते हैं और अंकलजी ने रंगीन कागज का बना लम्बी चोटी का जोकरों वाला वैसा टोप क्यों नहीं पहना जैसा वह और उसके दोस्त अपने जन्मदिनों पर पहनते हैं.

उसकी माँ का चेहरा गरूर भरी शर्मिदंगी से आरक्त हो गया. उसने हीरे की अंगूठी पहनी उंगली वाले हाथ से बाल सहलाते हुए बच्चे को शांत करने के लिए कुछ कहा, लेकिन उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि वह सुनाई नहीं दी. बच्चा फूटते गुब्बारों से झरते फूलों में टाफियाँ लूटना और लम्बी चोटी की टोपी पहनना चाहता था. वह नाराजगी में माँ की कमर में घूसें से मारने लगा. माँ मोहित उसके गुस्से को चूम नही थी. मुझे बच्चे की नाराजगी प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद लगी. मैंने तुरन्त फ़ैसला ले लिया कि लतिका के जन्मदिन पर उसके वास्ते रंगबिरंगे कागज का लम्बी पूंछ वाला टोपा बनवाऊँगा. उसके अभिकल्प में टीना की सहायता लूंगा, जो फैशन की दुनिया की होनहार छात्रा है और एक पिता के रूप में उसकी प्रतिभा को निखारना मेरा दायित्व है.

मोमबत्तियाँ जलाने-बुझाने और केक काटने वगैरह जन्मदिन की सारी रस्में रितु बेरी के आने पर शुरु हुईं और उनके जाने से पहले खत्म हो गईं. उन्होंने मुझे बधाई दी, और इस बात का खेद जाहिर किया कि उनके पास समय का अभाव है, वरना वे खाने पर जरूर रुकतीं. कागज की उपयोग-फेंक रकाबी में सजाए केक का टुकड़ा खाते हुए उनकी निगाहें कैरीकेचर पर थी. उन्होंने मुस्कुराते हुए टीना के कान में कुछ कहा. मेरा खयाल है कि उन्होंने इस मौलिक सोच के लिए उसे बधाई दी होगी. लेकिन यह सिर्फ मेरा अनुमान था. हो सकता है उन्होंने कुछ दूसरी ही बात की हो. वे सिर्फ पंद्रह मिनट रुकीं. लेकिन ये मिनट बहुत क़ीमती थे. मीडिया ने उन्हें अपने कैमरे और शब्दों में कैद करके अमरत्व प्रदान कर दिया था. मेहमानों में खलबली मची हुई थी और वे यह जानने को बेचैन थे कि यह क्लिपिंग कब और किस चैनल पर आएगी. दरअसल वे सब अपने को टीवी स्क्रीन पर देखना चाहते थे.

आयोजन का सूत्रधार टीना का व्यवसाई मामा नरेश सफल आयोजन की खुशी में झूम रहा था. ‘‘रितु जी को स्टेशन छोड़ कर आता हूँ. फिर शिवाज रिगेल के साथ आपके जन्मदिन का जश्न मनाया जाएगा. यह कोई छोटा अवसर नहीं, आपका पचासवां जंमदिन है. भगवान करे अगले और पचास साल आपके ऐसे जश्न मनते रहें. बस, गया और आया. मेरा इंतजार करना.’’ उसने कहा और तेजी से जिम्मेदार आदमी की तरह बाहर निकल गया.

टीवी शूटिंग के बाद मेहमानों की रुचि भोजन में थी. मेरे साथ उनकी कुछ औपचारिकताएँ थी जिन्हे वे शालीनता से निभा चुके थे. वे भोजन के प्रति आग्रही न होने के कांइयां चैकन्नेपन के साथ लॉन में निकल गए. वहाँ व्यवस्था थी. मैं कमरे में अकेला रह गया. मेरे साथ सिर्फ मेरा कैरीकेचर था. एक बार इच्छा हुई गौर से कैरीकेचर को पहनाए कमीज़ को देखूँ. लेकिन मैंने अपना यह विचार मुल्तवी कर दिया. हमारी जिज्ञासाएँ अनेक बार हमें संकटों में उलझा देती हैं. मेरी समझ में नहीं आया कि मैं वाकई नरेश का इंतजार कर रहा था या उस फालतूपन को झेल रहा था जिसे अमूमन आयोजनों के प्रथम पुरुषों को झेलना होता है...बहरहाल गहरे फालतूपन के साथ मैंने उस कुर्सी की टेक पर सिर टिकाया, जिस पर बैठकर मैंने केक काटा था, और आँखें मूंद ली. कुछ देर बाद किसी काम से टीना कमरे में आई. उसने मेरा कंधा झिंझोड़ते हुए आहत स्वर में कहा,

‘‘पा...आप यहाँ अकेले...’’
‘‘बस ऐसे ही...’’ मैंने उबासी लेते हुए कहा.
वह कुर्सी खींचकर मेरी बगल में बैठ गई. आपका कोई भी दोस्त दिखाई नहीं दे रहा...’’
‘‘मैंने किसी को बुलाया ही नही.’’ मैंने निरपेक्ष-सा उत्तर दिया.
आप आपने जन्मदिन तक से नाराज़ रहते हैं...किसी दोस्त को भी नहीं बुलाया.’’
बस ऐसे ही...’’ मैंने थके स्वर में कहा.
‘‘लेकिन मैं आपके एक दोस्त को बुलाने गई थी...आप से बिना पूछे.’’

मैंने कुछ नहीं पूछा लेकिन उसके चेहरे पर अपने दोस्त को टटोलने लगा लेकिन मैं वहाँ अपना कोई दोस्त नहीं ढूँढ सका.

‘‘नज़र अहमद को...’’ उसने मेरे चेहरे पर आँखें गड़ाते हुए कहा.
‘‘नज़र अहमद को...अजीब बात है. क्या तुम्हारी माँ भी नज़र अहमद का यहाँ होना चाहती थी?’’
‘‘हाँ, मम्मी ने ही मुझे कहा कि मैं अमन टेलर्ज़ का पता लगाऊँ और अहमद साहब को इन्वाइट करूँ.’’
‘‘ताज्जुब की बात है...’’
‘‘इसमें ताज्जुब की क्या बात है? आप मम्मी को अंडर ऐस्टीमेट कर रहे हैं. मैं ही जानती हूँ वो आपके सेंटिमेंट्स का कितना खयाल रखती है.’’
‘‘तुम्हारी माँ ने ऐसा क्यों मान लिया, और तुमने भी, कि नज़र अहमद मेरा दोस्त है.’’
‘‘आप उन्हें लेकर बहुत परेशान थे. शायद इसलिए...’’
‘‘नजर अहमद मेरे दोस्त नहीं, सिर्फ टेलर हैं, जो तीस साल से मेरे कपड़े सिल रहे हैं. बस इतना ही...’’
‘‘फिर भी मम्मी ने ऐसा चाहा. उन्हें महसूस हुआ कि आप उदास हैं...वह आपको उदास नहीं देख सकती. मै उनके कहने से आपको बगैर बताए अमन टेलर्ज़ को ढूँढ़ने गई.’’
‘‘तुमने मुझसे क्यों नहीं पूछा?’’
‘‘मैं आपको एक आश्चर्य देना चाहती थी. चाहती थी कि आप महसूस करें, हम आप की भावनाओं की कितनी इज्जत करते हैं.’’
‘‘फिर क्या हुआ? नज़र अहमद तो यहाँ दिखाई नहीं दिए.’’

‘‘मुझे अमन टेलर्ज़ मिला ही नहीं. वह अब रहा ही नहीं. वहाँ रीड एण्ड टेलरका शो रूम खुल गया है. उसका उद्घाटन आज ही हुआ...और उद्घाटन रितु बेरी के हाथों. सच बात ये कि मुझे यह जानकारी नहीं थी कि यह शो रूम वहाँ खुला जहाँ पहले अमन टेलर्ज़ हुआ करते थे. मैंने आसपास के दुकानदारों से अहमद साहब के घर पता मालूम किया और उनके घर गई. वे मुझे वहाँ भी नहीं मिले. अफ़सोस, उन्हें मैंस्सिव स्ट्रोक हुआ है और वे सीमआई के आईसीयू में हैं.’’

‘‘तुम मुझे ये सब क्यों बता रही हो?’’
‘‘इसलिए कि कल आप यह न कहें कि आपको धोखा दिया गया है. हमारे पास जानकारियाँ थीं और हमने वे आपसे छुपाई, यह जानकर आपको क्लेश होता.’’
"अमन टेलर्ज़ की जगह रीड एण्ड टेलरका शो रूम खुलना तुम्हे कैसा लगा?’’ मैंने टीना को खोखली आँखों से देखते हुए पूछा.  

‘‘बाज़ार के हिसाब से यह एक मामूली घटना है. पर आप शायद दूसरी तरह से सोचते हैं, उसने स्थिर आवाज में कहा, ‘‘पररहैप्स पा... यू आर नॉट प्रिपेयर्ड टू फेस द रियलिटीज़ ऑफ़ टुडे.’’
 ‘‘शायद मैं वक्त से पीछे का आदमी हूँ और ऐसी बाते मुझे तकलीफ देती हैं.’’

इसी समय नरेश आ गया. उसके हाथ में थमी बास्केट में शिवाज रिगेल की बोतल झूल रही थी और वह गद्गद था.

टीना ड्रिंक्स का इतजाम करके बाहर निकल गई. शायद वह चाहती थी कि मैं शराब पी कर अपना दुख कुछ कम करलूँ.

गिलास टकराते हुए नरेश ने एक बार फिर मुझे पचासवें जन्मदिन की शुभकामना और शतायु होने की मंगलकामना दी. मैंने मुस्कराकर शुभकामनाएँ स्वीकार की और शतायु होने की मंगलकामना के लिए आभार प्रकट किया. अब मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं रह गया था. मैं चुपचाप शराब पीने लगा.

‘‘मानेगे न जीजाजी,’’ शराब के पहले सरूर में उसने कहा, ‘आपका साला क्या कमाल चीज है. आपके पचासवें जंमदिन को मीडिया में उछालने के लिए मैंने कैसी प्लानिंग की. फैशन की दुनिया की सेलिब्रिटी को घेर लाया. यह भी एक मजेदार इत्तेफाक है कि आपके पचासवें जन्मदिन के रोज ही रीड़ एण्ड टेलरके आलीशान शो रूम का उद्घाटन हुआ, जो बेल्जियम कांच से बना परम्परा और आधुनिकता का बेजोड़ नमूना है. जीजाजी यह शहर की शान है. उसमें घुसते आदमी एकसाथ सैकड़ो प्रतिछवियों में बिखर जाता है. उसके उद्घाटन के लिए देश की महान फैशन डिजाइनर रितु बेरी बुलाई गई थीं. मैंने तय किया कि उद्घाट के बाद वे आपके जन्मदिन पर गैस्ट आवॅ ऑनर बन जाएँ तो सोने में सुहागा. इससे एक तो आपका जन्मदिन ऐतिहासिक हो जाएगा और वह रीड एण्ड टेलरके शो रूम के उद्घाटन के समाचार के साथ मीडिया में छा जाएगा. दूसरे यह सम्बंध टीना के कैरियर के लिए भी फायदेमंद होगा. साहब शतरंज की चाल की तरह आगे की सारी चाले सोचली पड़ती हैं. उनके पास तो टाइम नहीं था, लेकिन वे शहर व्यापारक मंडल के महामंत्री नरेश के आमंत्रण को ठुकरा भी नहीं सकती थीं. उनका यह सम्मान तो बाज़ार के ही बलबूते पर है न. वे आईं. पन्द्रह मिनट के लिए ही सही. मैं तो धन्य हो गया जी.’’

मैं नरेश की ऊलजुलूल बातों से भयानक ढंग से ऊब रहा था. लेकिन अभी पहला पैग चल रहा था और मेरी लड़ाकू मानसिकता चैतन्य नहीं हुई थी. इसके अलावा प्रेम के वर्षों में वह मेरे और लतिका के बीच एक पुल भी रहा था जिसकी वजह से उसके प्रति मेरे मन में सुकुमार भाव अब तक बरकरार था. दोएक लम्बे घूँट खींच कर मैंने पैग खत्म किया. मुस्कराया और बोला, ‘‘धन्य तुम ही नहीं, मैं भी हुआ. वाकई तुम कमाल के आदमी हो. और ये क्या, तुम्हारा पैग तो अभी वैसा ही और मैं अपना खत्म भी कर चुका.’’

उसने सलीके से मेरे लिए लार्ज पैग बनाया और गिलास मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘आप ड्रींक लेते रहें, मेरा इंतजार न करें. मैं अपने हिसाब से लेता रहूँगा. दरअसल खुशी के क्षणों में मैं शराब के साथ वक्त को भी सिप करता हूँ. जनाब शराब के साथ वक्त को सिप करना कितना सुखद अनुभव है. काश! आप जान सकते...’’ उसने गिलास उठाया और आहिस्ता आहिस्ता घूँट भरने लगा.

‘‘वाह! नरेश--शराब के साथ वक्त को सिप करना क्या लाजवाब जुमला है. यार तुम बहुत बड़े जुमलेबाज हो. मेरा खयाल है कि तुम एक सफल लेखक होते. बशर्ते कि तुम लिखना चाहते और लिखते भी.’’

भीतर की प्रतिभा पहचाने जाने की वजह से उसका सीना लरजने लगा और आँखें चमक गईं. ‘‘एक आप ही हैं जो मुझे समझते हैं....’’ उसने कहा और तरल भावुकता में झुककर मेंरे पैर पकड़ लिए.  

‘‘यह क्या कर रहे हो नरेश. तुम जिन्दगीभर क्या बच्चे ही बने रहोगे.मैंने उसे मीठी झिड़की दी.

उसने मेरे पैर छोड़े और शराब के लम्बे घूँट भरकर पैग खत्म किया. ‘‘आप मुझे ऐसा करने से नहीं रोक सकते. यह मेरा अधिकार है.’’ उसने आधिकारिक स्वर में कहा., ‘‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ जीजाजी. आपके चेहरे की एक भी शिकन मुझसे बर्दाश्त नहीं होती.’’

 ‘‘मुझे मालूम है नरेश.’’ मैंने उसका कंधा थपथपाया.

उसने दोनों के लिए लार्ज पैग बनाते हुए कहा, ‘एक बात पूछूँ जीजाजी. वायदा कीजिए आप बुरा नहीं मानेगे.’’
‘‘तुम्हारी बात का मैंने कभी बुरा माना?’मैंने उसे आश्वस्त किया.

‘‘ये तो सही है. दीदी कह रही थी आप नाराज़ हैं. वह भी एक कमीज़ के लिए. दर्जी की सिली बनाम मल्टीनेशनल की ब्रांडेड कमीज़. यह कतई यकीन करने की बात नहीं है. आप बच्चे नही हैं और साठ साल के होने में अभी दस बाकी हैं. शायद दीदी ने मज़ाक किया होगा. बताइए तो भला मल्टीनेशनल की शर्ट की जगह आप टुच्चे से दर्जी की सिली कमीज क्यूँ पहनना चाहेंगे. आप ही क्या कोई भी. जनाब कपड़े आदमी की औकात हैं. फिर आप इसमें फब भी कितना रहे हैं. परस्नैलिटि ही पूरी तरह बदल गई. एकदम किलर लग रहे हैं. आगे कुछ नहीं कह सकता जीजाजी हमारा रिश्ता ही ऐसा है....’’

मेरे भीतर तूफान गरजने लगा लेकिन अभी मैंने तीन पैग ही पिए थे और मेरा विवेक सुन्न नही हुआ था. मुझे याद था कि मैं उससे बुरा न मानने का वायदा कर चुका था. मैंने संयम रखा. गरजते हुए तूफान को गुस्से में नहीं बदलने दिया और सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बेहतर है कि हम इस प्रसंग को यहीं खत्म का दें. किसी को भी अपनी मर्जी से कपड़े पहनने का अधिकार है. तुम ब्रांडेड कपड़े पहनने की वकालत करके उन कम्पनियों का प्रचार कर रहे हो, जो तुम्हें इसके लिए कोई पैसा नहीं दे रहीं.’’ 

यही वह बिन्दु था जहां हमारे बीच उस दिन का संवाद खत्म हुआ और हम एक दूसरे के लिए अजनबी हो गए और चुपचाप शराब सिप करने लगे.

मेरी दिक्कत यह थी कि मैं जिस प्रसंग को भूल जाना चाहता था फूहड़ ढँग से उसकी सीवन उधड़ गई थी. मेरे दिमाग में तीस साल के अरसे के अजीबोगरीब फ्लैशेज बन रहे थे. उनमें कोई तार्किक संगति नहीं थी. अमन टेलर्ज़ की सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने, कमीज़ पहनकर सिगरेट के छल्ले बनाने, बर्थ डे कैंडिल बुझाने, रितु बेरी के बधाई देने वगैरह के विविध फ्लैशेज. इन्हें जोड़ कर एक मुकम्मिल कहानी नहीं बनाई जा सकती. ये सिर्फ भटकी हुई कुछ घटनाएँ थीं जो मेरे भीतर फिर से घट रही थीं. मैंने कतई नहीं चाहा था कि वे कि ऐसा हो, लेकिन ऐसा हो रहा था.

मैं ज्यादा पी चुका था. मैंने ऐसा क्यों किया. इसका कोई जवाब मेंरे पास नहीं था. मेरे हाथ और होंठ काँप रहे थे. मैंने एक और पैग बनाना चाहा तो लतिका ने मेरे हाथ से गिलास छीन लिया. ‘‘अब और नहीं, बिल्कुल भी नहीं. आप नाराज़ हैं तो मुझे डांटिए, टीना या नरेश को डांटिए लेकिन भगवान के लिए...’’ उसने कहा और सुबकने लगी.

‘‘मैं तुमसे और टीना से कैसे नाराज़ हो सकता हूँ. तुमने तो मुझे सम्मानित आदमी बनाना चाहा और बना भी दिया...मैंने करुण हँसी हँसते हुए कहा.

‘‘पा...प्लीज अपने को संभालिए. आपको शराब चढ़ गई है. इतनी नहीं पीनी चाहिए थी. मामा आपने भी इनका खयाल नहीं रखा.’’ टीना ने कहा और मुझे सहारा देकर खाने की टेबल पर ले गई.  

टेबल पर नरेश, उसकी पत्नी शीवा, लतिका, टीना, कार्टूनिस्ट पिंटू थे. और मैं था. और हैंगओवर में था. खाने के साथ बातें हो रहीं थीं. मैंने उनकी बातों में शामिल होना चाहा, लेकिन वे मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी. मैं उनके बीच में होते हुए अजनबी हो गया और ऐसे अंधेरे अनजान टापू में भटकने लगा जिसे किसी दूसरे ने नहीं मैंने ही बनाया था. उस अंधेरे में मुझे एक आवाज़ सुनाई दी. मुझे लगा कि शायद...लेकिन नहीं, यह कतई मुगालता नहीं था. सचमुच एक आवाज़ थी और यह आवाज़ मेरे पहने कमीज़ के भीतर से आ रही थी. एक्सेल गारमेंट मल्टीनेशनल की ब्र्रांडेड कमीज़ के भीतर से. किसी छोटी लड़की की. महीन लेकिन दिल में सूराख करती हुई.

जिसने भी यह कमीज़ पहनी हो उसे आयशा अंसारी का सलाम. मैं कोलकोता के सोनागाछी के मुहल्ले बांग्लावाड़ी में रहती हूँ. यहाँ हमारी दर्जी की एक दुकान थी. बड़ी तो नहीं थी लेकिन अब्बा हुनरमंद दर्जी थे लोग उनके सिले कपड़े पसंद करते थे. हम अमीर तो नहीं थे पर हमारा गुजर-बसर ठीक से हो रहा था. मेरे दोनों भाई पढ़ने के साथ अब्बा से सिलाई का काम सीख रहे थे और दोनों बहने तालीम ले रही थी. मैं तब छोटी थी और अब्बा हुजूर की लाड़ली थी. वे मुझे पढ़ा-लिखा कर वकील बनाना चाहते थे. हम खुश थे और ख्वाब देखा करते थे. अब्बा हज करने का, भाई दुकान की तरक्की का, बहने पढ़-लिख कर अच्छे घरों में शादी करने का और मैं काला कोट पहन कर वकील बनने का. अम्मी इस बात से खुश रहती कि बिरादरी में हमें इज्जत की निग़ाह से देखा जाता था.

'तभी हमारे ऊपर शैतान का साया पड़ गया. और हमारे बुरे दिन शुरु हो गए.

’'हुआ यह कि हमारे इलाके में बांग्ला परिधाननाम की रेडमेड वस्त्रों की फैक्टी खुली. इसके पास पूँजी थी और मिलों से थोक में कपड़ा उठाकर सस्ते दामों में रेडीमेड गारमेंट बेच सकती थी. उनकी पैकिंग भी इतनी अच्छी होती कि लोग सिले-सिलाए कपड़ों को पसंद करने लगे. हालांकि पैकिंग कपड़ा इस्तेमाल करने से पहले फेंक दी जाती है, लेकिन वह अपने माल के लिए गाहकों में खरीद की चमक तो पैदा कर ही देती है. दर्जी हाशिए पर खिसकने लगे. उनका धंधा मंदा पड़ गया. अब्बा का भी. हमारी रोटियां मुश्किल हो गई. वे जनान टेलर होते तो बात दूसरी थी. औरतो हर समय मोटी या पतली होती रहती हैं. रेडी मेड ब्लाऊज उन्हें मुआफिक नहीं आ सकते. अब्बा नाप लेने के नाम पर पराई औरतों के जिस्मों से छेड़छाड़ को गैर इस्लामिक मानते थे. वे जैंट्स टेलर थे. काम की मंदी की वजह से उन्हें अपनी दुकान बेचनी पड़ी और वे बांग्ला परिधानमें दर्जी हो गए.

यह वो वक्त था जब मैं पांचवी जमात में पढ़ रही थी और हालात ने मुझे समझदार बना दिया था. मुझे क्या, घर के सभी को. समझदार होने पर पहली बात जो मेरी समझ में आई वो ये थी कि हम मालिक से नौकर हो गए थे....घर की रौनक उड़ चुकी थी. अब्बा बुझे-बुझे रहने लगे थे. अम्मी का गरूर टूट गया था और हमने ख्वाब देखने बंद कर दिए थे. गनीमत थी कि किसी तरह कुनबे की रोटी चल रही थी.

'पर शैतान की मंशा कुछ और ही थी.

'बाजार में और भी बड़ी कम्पनियों का माल आने लगा. उनके बनाए कपड़े पहनना शान की
बात है. ये अकूत दौलत और बड़े हथकंडे की कम्पनियाँ है जिनके शिकंजों में तमाम दुनिया कसी हुई है. बांग्ला परिधानउनके सामने टिक नहीं सका. इतना घाटा हुआ कि तालाबंदी की नौबत आ गई. हमें दिन में तारे दिखाई देने लगे. हमारा क्या होगा? सवाल एक था. पर उसने सब की नींद उड़ा दी थी. आखिरकार हमारी फैक्ट्री ने घुटने टेक दिए और वह ठेके पर एक्सेल गारमेंट मल्टीनेशनलका माल बनाने लगी. इन बड़ी और सारी दुनिया में फैली कम्पनियों की अपनी फैक्ट्रियाँ नहीं होती. ये गरीब मुल्कों की फैक्ट्रियों में अपना माल बनवाती हैं. इनका तो बस नाम चलता है. ये नाम का पैसा बटोरती हैं. गरीब मुल्क की फैक्ट्रियाँ तालाबंदी के डर से लागत से भी कम में इनका माल तैयार करने को मजबूर हो जाती हैं.
'पहले हम मालिक से नौकर हुए.
अब हमारी कम्पनी मालिक से नौकर हो गई.

लागत से कम में माल तैयार करने के नुकसान की भरपाई के लिए कारीग़रों की पगार में इजाफा किए बगैर काम के घंटे बढ़ा दिए गए. अब्बा की उमर भी बढ़ रही थी. काम के घंटे भी बढ़ रहे थे. सुनवाई कोई भी नहीं थी. एक कारीग़र काम छोड़े तो उसकी जगह और भी कम पगार में दस कारीग़र तैयार रहते. कारीग़र दुनिया को बनाते हैं लेकिन ये दुनिया कारीग़रों की नहीं है.

महंगाई बढ़ रही थी, जैसी हर तरक्की पसंद मुल्क में बढ़ती है. उस पर ऐतराज भी नहीं किया जा सकता. तरक्की तो सभी चाहते हैं. लब्बोलुआब ये कि रोटी पर आई मुसीबत को टालने के लिए अब्बा के साथ घर के सभी लोग फैक्ट्री में दिहाड़ी पर तुरपन, काज-बटन वगैरह के छोटे मोटे काम करने लगे. भाई और बहने पढ़ाई छोड़ कर फैक्ट्री में चले गए. अम्मी और मेरे लिए अब्बा घर पर काम ले आते. अम्मी कपड़ो में काज बनाती और मैं बटन टाँकती. हमारी पूरी दुनिया ही बदल गई थी. ऐसी दुनिया जहाँ ख्वाब भी दो जून खाने के ही आते हैं.

एक्सेल गारमेंट् मल्टीनेशनल्स की यह कमीज मेरे अब्बा ने; अम्मी ने; मेरे भाई और बहनों ने; और मैंने तैयार की है...और हम गुमनाम हैं...

जिसने यह कमीज पहनी हो उसे, मैं यह कहानी इसलिए नहीं सुना रही कि मुझे कोई हमदर्दी चाहिए. हमदर्दी से हमारा या किसी का कुछ भी भला नही हो सकता. यह कहानी तो मैं मुआफी मांगने के लिए सुना रही हूँ. दरअसल मुझसे एक गलती हुई--

बटन टांकने के लिए कमीजों का ढेर लगा था और मुझे तेज बुखार था. रात थी और सुबह तक बटन टांकने ही थे. अगला दिन डिलिवरी का दिन था. मेरा जिस्म बुखार से तप रहा था. आँखें झिपी जा रही थीं और मैं ठंड की झिरझिरी से काँप रही थी. पर कोई रियायत नहीं. काम तो पूरा करना ही था. अमूमन मैं रात आठ बजे बटन टांकने बैठती हूँ और ग्यारह या हद से हद साढ़े ग्यारह तक काम निबटा लेती हूं. उस रात बैठी तो काम में मेरा मन नहीं लगा. मैंने अम्मी से कहा कि मेरे लिए एक गिलास चाय बना दे. अम्मी ने नहीं बनाई. शायद उन्होंने सुना नहीं. या सुन लिया हो तो घर में दूध, शक्कर या चाय की पत्ती न रही हो. मैं अम्मी की मजबूरी समझ गई. मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने उसे चाय के लिए क्यों कहा. मैं बिना चाय के ही काम पर लग गई. जिस समय मैं आखिरी कमीज़ में, जो आपने पहन रखी है, बटन टांक रही थी, उस समय रात का पौन बजा था. मैं बेहद थक गई थी. मेरा सिर चकरा रहा था. माथा तिड़क रहा था और गला सूख रहा था. मैंने आखरी बटन टांका तो मैं सन्न रह गई. काज की पट्टी के नीचे पिछली तरफ वक्त पड़ने पर इस्तेमाल के लिए जो फालतू बटन लगाए जाते हैं, उनमें से एक बटन मुझसे उल्टा टंक गया था.

हुनरमंद दर्जी की बेटी के लिए इससे ज्यादा शर्मिदंगी की कोई और बात नहीं हो सकती. मेरी आँखों में आँसू छलछला गए. लेकिन सीवन उधेड़कर बटन दुरूस्त करने की ताकत मुझ में उस वक्त नहीं थी. सोचा कि सुबह उठ कर उसे ठीक कर दूँगी. सुबह उठी तो कमीज़ दूसरी कमीज़ों के साथ पैकिंग के लिए फैक्ट्री जा चुकी थी.

आपकी पहनी कमीज की पट्टी के पिछली तरफ का एक फालतू बटन उल्टा टंका है.
मैं इस गलती के लिए आपसे मुआफी मांगती हूं.
‘‘पा... आप तो कुछ खा ही नहीं रहे हैं..’’ सहसा टीना ने मेरी तन्द्रा तोड़ी.
मैं चैंका और निर्जन टापू के अंधेरे से खाने की टेबल पर लौट आया. टेबल पर बैठे सब लोग मुझे धुंधले दिखाई दिए. मेरा खाना अनछुआ पड़ा था. मैं वाकई खाना खाना भूल गया था.

सॉरी बेटे. मेरी खाने की इच्छा नहीं हो रही. शायद मैं हैंगओवर में हूँ.’’ मैंने कहा और कमीज़ की काज पट्टी को पलट कर देखने लगा.
वहाँ सचमुच एक फालतू बटन उल्टा टंका हुआ था.

____________________________

सुभाष पंत
एम.एस-सी, एम.ए
भरतीय वानिकी अनुसंधान एवम् शिक्षापरिषद, देहरादून से सेवा मुक्त वरिष्ठ वैज्ञानिक

क्हानी संग्रह- तपती हुई ज़मीन, चीफ़ के बाप की मौत, इक्कीस कहानियाँ, जिन्न और अन्य कहानियाँ, मुन्नीबाई की प्रार्थना, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, एक का पहाड़ा, छोटा होता हुआ आदमी
उपन्यास-सुबह का भूला, पहाड़चोर
नाटक-चिड़ियाँ की आँख
सम्पादन-शब्दयोग त्रैमासिक पत्रिका

पता-280, डोभालवाला, देहरादून-248001

मोब-09897254818

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  1. अनुपम रोचकता लिये,नये अंदाज के साथ पाठक को कहानी से बांधे रखने की कला अनुकरणीय है।
    कहानी पढ़कर बहुत कुछ सीखा।
    आभार।

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  2. सुभाष पंत जी की नायब रचना, आद्ध्येपांत एक कसी हुयी रचना जो कई धरातलों पर प्रश्न उठाती हुयी कथ्यों के निष्कर्ष देती ऐसी रचना , जो जिस पात्र के ईर्द गिर्द बुनी गयी है उसे हीै अनाम रख गयी है टीना की आयु की कुछ अधिकता , तद्नुरूप उसकी मैच्योरटी,कहानी मे लतिका की कम पात्रता जहाँ कहानी को थोड़ाँ कमजोर कर रहे थे। तो वहीं
    कहानी का अन्त बडा़ बेहतरीन था।
    अरूण जी को हार्दिक धन्यवाद्
    हमे एक अच्छी रचना से परिचित कराने के लिए ।

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  3. गोलजवर्दी की चर्चित कहानी मोची याद आयी।
    बेहतरीन कहानी के लिए अरुण जी का शुक्रिया।

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  4. सुभाष पंत जी की कहानी ने मन को छू लिया। कहानी अंत तक आपको बांधे रखती है। अगर सच कहूँ टीना में मैंने अपना अक्स पाया और उसके पिता में अपने पापा का। मैं भी कुछ वर्षों तक ब्रैंड्स को ज्यादा महत्व देता था।

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  5. पूरी कहानी पढ़ी। स्पीचलेस!!!

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  6. Very butiful story...and best line...
    कमीज़ का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहाँ मेरा दिल धड़कता है....

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  7. एक कहानी : मालिक से नौकर बन जाने की
    अ स्टिच इन टाइम

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  8. Laxman Singh Bisht Batrohi24 मई 2017, 7:32:00 pm

    सचमुच एक प्रभावशाली कहानी

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  9. इधर तेज़ी से हिंदी कहानियों के अंग्रेज़ी शीर्षक रखे जाने के चलन को देख रही हूँ। पूरी कहानी बुन लेने वाले को हिंदी का एक टाँका और नहीं सूझता या यह हिंदी के बीच अपने को तुरंत अलग दिखा सकने की बस एक जुगत है।
    यानी आपकी भाषा में इस पूरी कहानी को बता सकने वाला एक शीर्षक नहीं बन सकता या थोड़ी अंग्रेज़िदा हिंदी हाईक्लास लगती है।

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  10. एक मासिक पत्रिका में एम ए के दौरान जब पत्रकारिता का प्रशिक्षण ले रही थी तो एक नामी उपसम्पादक मेरा लेख जांच रहे थे बोले शीर्षक जब तक कैची न हो कौन पढ़ेगा। कैची से उनका मतलब चौंकाऊ भी था और अंग्रेज़ी शब्दों का प्रयोग भी।

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  11. is kahani ka shirshak--KAMEEZ rakha gaya tha lekin kahani sirf ek kameez ko kenndrit kar rahi thee-MN jis tarh hamare dhandon ko hadap rahe hen KAMEEZSHIRSHAK se wo baat nahi ban rahi thi--wiyapak arth dene ke liye angrezi ke ek muhaware ka ek hisse ko sheershak banaya gaya--A STITCH IN TIME wakt ki poori mansikta ko abhiwyakt karta he--silai ke saare deshaj wavsay par MN sanskrati ke sampurn dabaw ko--hindi me mujhe is ke samkash koi muhawara nahi mila--BHASHA ke mamle me hamen lacheela hona chahiya--jahan bi achchha mile use apna lena chahiye is se samari bhash samridh hoti he

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  12. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 25-05-2017 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2636 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  13. "शहर भव्य हो रहा था और अमन टेलर्ज के छत की कड़िया झुक रही थीं"
    "औरतें चालाक होती हैं. वे अपने को चुमवाने के सारे तरीके जानती हैं और चुपचाप उन्हें अमल में भी लाती हैं."
    "आप मम्मी को अंडर ऐस्टीमेट कर रहे हैं. मैं ही जानती हूँ वो आपके सेंटिमेंट्स का कितना खयाल रखती है" बहुत ही भावनात्मक , कहानी! साधुवाद एक उत्कृष्ट कहानी को रचने के लिए!

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  14. यह कहानी पढ़ने के बाद सिंगिंग बेल नाम से पूरा संग्रह पढ़ा। लेखन में कमाल की चित्रकारी है। शीर्षक की भाषा पर बहस बेमानी सी लगती है। भाषा को इतना संकुचित करके देखना उचित नहीं। एक खास पहलू जिससे थोङी असहमति बनती है, वह बेटी और पत्नि की भावातिरेक प्रतिक्रिया। ऐसा हमारे समय में ही देखने को मिला है, पिता जी दर्जी की सिली हुई बनियान ही पहनते थे। आज भी वही पहनते हैं। हमारे बचपन में भी हम लोग इसे हिकारत से नहीं देखते थे। खासकर एक बेटी की प्रतिक्रिया असहज करती लगी। दूसरे ये भी लगा कहीं कहीं कि बाजारीकरण की मार पर बिटिया की हिकारती चोट भारी पङ रही है। दर्द शिफ्ट सा हो गया कहीं।
    बहरहाल एक लाजवाब कहानी।

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  15. बहुत मार्मिक।कहानी । यह कहानी हमे बताती है कि किस तरह बहुराष्ट्रीय गारमेंट के उद्योग ने दर्जियों के हुनर को खत्म कर दिया है । इस कहानी के कई विवरण सम्वेदनशील हैं

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  16. आँखें आँसुओं से लबरेज़ हैं । कहाँ जा रहे हम ? कहाँ पहुँचेंगे? नए को अपनाना सुखकर तो है लेकिन किस क़ीमत पर ? हम सब रद्दी के टोकड़े हुए जा रहे ! हम सब पुराने पड़ते जा रहे। दर्ज़ी, क़मीज़ के बहाने आदमी और उसके जीवन को यांत्रिक विस्थापान के दर्द से चीरता बाज़ार किसको छोड़ेगा ?कहानी धड़क रही वहीं जहाँ ठीक दिल है ।सुभाष पंत जी को सलाम है !

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  17. बेनामी25 मई 2019, 12:23:00 am

    निशब्द हूँ ।

    -रोहित

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