कथा - गाथा : क़ुर्बान : शहादत ख़ान








यह कहानी बस इतनी है कि क़ुरबानी के लिए बच्चे की तरह पोसे गए बकरे से घर भर को लगाव हो जाता है. जिस अम्मी ने उसे पाला वह बाद में एक माँ की तरह टूट कर बिलखती हैं. विवशता और लगाव के बीच जैसे-जैसे यह कहानी बढती है इसका असर बढ़ता जाता है. कोई बनाव श्रृंगार नहीं. ख़ालिश कथा. यह विचलित करने वाली कहानी है.


शहादत  ख़ान  से उम्मीदें बहुत बढ़ गयी हैं इस एक ही कहानी से. 

क़ुर्बान                                 
शहादत ख़ान 



न दिनों मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था. जब अम्मी को बकरी पालने का शौक़ पैदा हुआ था. वह ईदगाह के पीछे वाली बस्ती में जाकर एक बकरी देख भी आई थी और फिर मुझसे बार-बार उसे देख आने का इसरार करने लगी. ताकि मैं जाकर उसे देख लूं और उसे खरीदने के बारे में अपनी पसंद और नापसंद अम्मी को बता सकूं. लेकिन स्कूल, ट्यूशन और फिर आलस की वजह से मैं जा नहीं पाया. 

अम्मी ने भी इस पर कोई ऐतराज नहीं किया और एक दिन वह पड़ोस की एक औरत के साथ जाकर खुद ही सात सौ रुपये में उसे खरीद लाई थी. वह हल्के कत्थई रंग की बकरी थी. उसके माथे पर सफेद रंग का एक निशान था. कान छोटे-छोटे और नुकीले थे. उसके सींग नहीं थे. इसलिए अम्मी उसे मुंडी बकरी कहती थी. जब वह आई थी तो बहुत दुबली पतली थी. इतनी दुबली की उसकी पसलियां तक गिनी जा सकती थी. लेकिन अम्मी की देखभाल से वह जल्दी गोल-मटोल हो गई थी. अम्मी जब उसे घास खाने के लिए बुलाती तो कहती, आजा है मुंडी... , घास खा ले..., तो वह भी अम्मी के आवाज़ सुनते ही उनके पास दौड़ जाती.

हमारे घर आने के दो महीने बाद ही वह नए-दूध हुई थी. तब अम्मी ने कहा था, अगर हमारी बकरी ने पहला बकरा दिया तो वह अल्लाह नाम का होगा. यानी आने वाली ईद-उल-अजहा (बकरा-ईद) पर हम उसकी कुर्बानी करेंगे.

और फिर अगले पाँच महीनों तक वह हर नमाज़ में उस सास की तरह जिसकी बहु पहली बार हामला (गर्भवती) हो और वह अल्लाह से दुआ करती हो कि तू उसकी बहू को पहला बेटा ही देना... दुआ करती रही थी, ऐ अल्लाह तू हमारी बकरी को बकरा दियो. चाहे एक देना... लेकिन बकरा ही देना....

साथ ही वह उसके खाने पीने का भी बहुत ख्याल करती थी. वह सुबह ही उसके सामने ताजा और हरा घास खाने को रख देती थी. जिसे छोटा भाई घास मंडी से खरीदकर लाया करता था. दोपहर में वह उसके लिए भुस की सानी किया करती और रात को मौसमी का गुद्दा खाने को देती थी. जिसे वह मौहल्लों के उन बच्चों को दो-पाँच रुपये देकर मंगवा लिया करती थी जो बाजार में ढाबों, दुकानों और ठेलियों पर काम किया करते थें.

ठीक पाँच महीने बाद जुमे के दिन बकरी बिहा गई थी और उसने बकरा ही दिया था. काले रंग का. उस पर जगह-जगह सफेद रंग के चित्तीदार धब्बे थे. अपने माँ की तरह नुकीले कान और माथे पर सफेद निशान. अकेला होने के कारण वह काफी मजबूत और स्वस्थ था. अम्मी उसे देखकर बहुत खुश हुई थी. होने के पाँच मिनट बाद ही उसने चलना शुरु कर दिया था. अम्मी ने हाथ के नखुनों से उसके खुरों को चूट दिया था ताकि बड़े होने पर वह लंबे और बेतरबीत न निकल आए. साथ ही उन्होंने उसका नाम भी रख दिया था, कुर्बान.

अब वह दो हो गए थे. इसलिए अम्मी ने उन्हें घर में बांधने की बजाय बैठक के आगे बनी एक छोटी सी कोठरी में जिसे हम लोग दुकान कहते थे, बांधना शुरु कर दिया. वह उन्हें सारा दिन खुला रखती. रात को इशा की नमाज़ के बहुत बाद में जाकर उन्हें बांधती. फिर सुबह फज़र की नमाज़ के वक्त खोल देती. दुकान का दरवाज़ा बाहर सड़क पर खुलता था. इसलिए जब सुबह में हमसे से कोई एक उन्हें जाकर खोलता तो दरवाज़ा खुलते ही कुर्बान सड़क पर एक लंबी दौड़ लगा देता. वह उछलता-कूदता दूर नहर तक जाता और फिर वापस आकर अपनी माँ की पिछली टांगों के बीच घुस जाता. दूध पीते वक्त वह अपनी छोटी सी पूंछ को हाई-स्पीड से चलते पंखे की तरह फर-फर हिलाता रहता. बकरी के थनों में इतना दूध होता था कि पीते-पीते उसके मुँह के दोनों ओर से सफेद झाग निकलने लगते और फिर जब उसका पेट भर जाता तो वह छिंकता-धसकता इधर-उधर गर्दन हिलाने लगता.

नमाज़ पढ़कर अपने घरों को जाते लोग जब उसको दूध पीते हुए पूंछ हिलाते देखते तो वह हँसने लगते. हम भी उनसे मज़ाक में कहते, आ जाओ ताऊजी... हवा खालो....

स्कूल से आने के बाद शाम को हम दोनों भाई उसे और उसकी माँ को चराने ले जाया करते थे. कभी नहर पर तो कभी बाग में. कभी सड़क के इस तरफ तो कभी नहर के उस तरफ. जहां वह चरता तो कुछ नहीं था बस सारा वक्त हमारे पीछे भागता रहता. कभी हमारे टक्कर मारता तो कभी हमारे पास आकर बैठ जाता. फिर मुँह के इशारे से हमे पीठ पर खुसाने को कहता. उसकी माँ की तरह उसके भी सींग नहीं निकले थे. अम्मी की ज़बान में वह मुंडा बकरा था.  

कुर्बान अम्मी से कुछ ज्यादा ही हिल गया था. वह सारा दिन उनके पीछे-पीछे घूमता रहता. अगर वह बाहर तो बाहर और घर के अंदर होती तो अंदर. और जब वह नमाज़ पढ़ती तो वो उनके मुसल्ले के सामने आकर बैठ जाता. फिर जब वह नमाज़ खत्म करके मुसल्ला उठाकर उसे अंदर रखने जाती तो वह भी उनके पीछे-पीछे अंदर चला जाता. जहां वह उसे कभी मुट्ठी भर गेहूँ, कभी मक्का तो कभी चने खाने को दे दिया करती थी. यह उसका रोज का काम था. हालाँकि वह हमेशा अंदर कमरे में नहीं जाता था. बिजली के चले जाने पर जब कमरे में अंधेरा होता तो वह दरवाज़े पर ही रुक जाता और अम्मी के आने का इंतज़ार करता. जब किसी दिन वह नहीं आता तो अम्मी बाहर गली के दरवाज़े पर खड़ी होकर कहती
 आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ...,

ओर वह जहां कही भी होता आवाज़ सुनते ही फौरन चला आता.

कुछ ही महीनों में वह काफी बड़ा हो गया था. भारी और बलशाली भी. एक बार अब्बू जी उसे नहर पर घूमाने ले गए थे. वापसी में आते वक्त पता नहीं उसे क्या सूझा कि एकाएक दौड़ पड़ा. उसका रस्सा हाथ में पकड़े अब्बू जी उसे पूरी जान लगाकर रोकने की कोशिश करते रहे. लेकिन वह रुका नहीं. उन्हें भी अपने साथ खींचता चला गया. जब उनसे उसके साथ भागा नहीं गया और उसका रस्सा उनके हाथ से फिसलता चला गया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया. छूटते ही वह इतनी तेज़ भागा कि घर आकर ही रुका. उसके पीछे-पीछे हांफते हुए अब्बू जी आए और फिर उन्होंने कहा,

इसमें तो मेरे से भी ज्यादा जान है... साला बहुत तेज़ भागता... आज इसने मुझे गिरा ही दिया होता.... माशाअल्लाह तुम्हारा बकरा बहुत अच्छा हो गया है तंज़ीला...,
उन्होंने अम्मी से कहा.

अम्मी उस वक्त नमाज़ पढ़ने के बाद मुसल्ले पर बैठी हुई उंगलियों के पोरों पर तस्बीह पढ़ रही थी. कुर्बान उनकी बगल में ही आ खड़ा हुआ था. अब्बू जी की बात सुनकर उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ उसकी गर्दन में डाल दिए और उसके लाड करते हुए कहा,

हें... आज तू इन्हें गिरा देता कुर्बान...,
फिर उसके मुँह पर अपनी नाक रगड़ते हुए कहा,
मेरा सोना बच्चा.

रमज़ान के दिनों में वह ओर भी ठाड़ा (मोटा) हो गया था. उन दिनों दौड़ना तो दूर ज़ीने पर चढ़ते हुए ही वह हांपने लगता था. एक-एक पैडी पर बड़े आराम से और सुस्ता-सुस्ता कर चढ़ता. रमज़ान का महीना था. ईद आने वाली थी और फिर उसके बाद बकरा-ईद. इसलिए शहर में उन दिनों चोरों का बड़ा शोर मचा हुआ था. पठानकोट में तो एक ही रात में कई घरों से बकरें चोरी हो गए थें. खुद हमारे मौहल्ले में भी दिन में ही एक बकरी चोरी हो गई थी. इसलिए अम्मी ने अब उसे घर में ही बांधना शुरु कर दिया था. वह भी अपनी चारपाई के पाए में. तो भी उन्हें सुकून नहीं था. वह रात को कई दफा उठकर उसे देखती और उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहती.

ईद से दो दिन पहले जब आसमान पर कोहरे की बजाय सूरज चमका था और तेज धूप निकल आई थी तो अम्मी ने उसे नहला दिया था. फिर अगले दिन शाम को जब उन्होंने अपने हाथों पर मेंहदी लगाई तो उसके पेट के सफेद हिस्से पर भी मेंहदी से चांद-तारा बना दिया था.

ईद वाले दिन भी जब तेज धूप निकली थी तो उन्होंने उसे फिर नहला दिया था. इस बार नहाने से उसकी हरे रंग की मेंहदी छूट गई थी और उसके नीचे से लाल रंग का चांद-तारा निकल आया था. नहलाने के बाद अम्मी ने एक पुराने शॉले से उसे पोंछ दिया था और अपने साथ ऊपर धूप में ले गई थी जहां वह सीर (सवेयां) बना रही थी. वहां उन्होंने उसे पिसी हुई मक्का और भूने हुए चने खाने के लिए दिए. फिर वह सारा दिन छत पर ही बैठा रहा था.  

दिन गुज़रते गए ओर फिर बकरा ईद का चांद भी दिख गया. अम्मी कुर्बान का ओर भी ज्यादा ख्याल करनी लगी थी. वह भी अब रात-दिन उन्हीं के इर्द-गिर्द मंडराता रहता. चाहे वह उसे कुछ खाने के लिए दे या न दे.

चांद रात वाले दिन हम दोनों भाई बड़े खुश थे. शाम को मगरिब के बाद जब चांद दिख गया तो मौहल्ले के बाकी बच्चों के साथ हमने पूरे मौहल्ले में घर-घर जाकर लोगों को सलाम किया था और उनको ईद की मुबारकबाद दी थी. मौहल्ले में खासी चहल-पहल थी और हर कोई कुर्बानी के बारे में बातचीत कर रहा था. जब लोग हमसे पूछते, तुम किसकी कुर्बानी करोगे...?”

तो हम बड़े शान से जवाब देते,  हम तो बकरे की कुर्बानी करेंगे... आपने वो हमारा कुर्बान देखा है ना... उसी की.... इस शान के पीछे भी एक राज़ था. कुर्बानी के जानवर से आपकी आर्थिक हैसियत का पता चलता है. वह समाज में आपके रुतबे और रसूख को प्रदर्शित करती है. जो लोग बकरे की कुर्बानी देते है वह ज्यादा अमीर कहलाते है और समाज में उनका रुतबा भी बढ़ता है.

हमारा जवाब सुनकर वह कहते,  माशाअल्लाह... माशाअल्लाह... तुम्हारा बकरा तो बहोत ठाडा है... उसमें तो खूब गोश्त निकलेगा... हमे भी खिलाओगे या नहीं....

हां हां क्यों नहीं...? आप तो हमारे पड़ोसी है... आपका हक तो पहले बनता है....      

घर से बाहर जितनी चहल-पहल और खुशी थी घर के अंदर उतनी ही खामोशी और उदासी थी. अब्बू जी मस्जिद गए थे और अम्मी अंदर कमरे में पलंग पर बैठी हुई थी. कुर्बान उनके पैरों के पास बैठा हुआ था. वह गुमशुम था. उसने पिछले दो दिनों में लगभग ना के बराबर ही खाया था. बल्कि कुछ खाया ही नहीं था. अम्मी के हाथ से भी नहीं.

अल-सुबहा उठकर हम दोनों भाई अब्बू जी के साथ मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गए. मस्जिद, जहां और दिन अंदर के हिस्से को छोड़कर पूरी खाली पड़ी रहती थी वहीं आज वह ऊपर से लेकर नीचे तक और अंदर से लेकर बाहर तक नमाज़ पढ़ने वालों से ठसाठस भरी हुई थी.

मस्जिद से आकर हम लोग तैयार हुए और ईदगाह चले गए. वहां से आने पर देखा तो पूरे मौहल्ले में गेंदे के फूलों की माला पहने कुर्बानी के जानवरों और उन्हें घेरकर चलते (हिस्सेदार, बकरे को छोड़कर हर बड़े जानवर में सात हिस्सेदार होते हैं.) टोपी पहने लोगों की बाहर थी. उनके सिवा वहां ओर कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था.   

हम ने भी कुर्बान को अच्छी तरह तैयार किया हुआ था. उसके गले में गेंदे और गुलाब के फूलों की माला पहनाई हुई थी. उसके माथे पर मेंहदी से चांद-तारा बना हुआ था. वह बहुत अच्छा लगा रहा था. पर बहुत उदास भी. अब्बू जी जब उसे कुर्बानी के ले जाने लगे तो बहनें रोने लगी थीं और अम्मी तो अंदर वाले कमरे से बाहर ही नहीं निकली. उन्होंने मुझसे कहा, चलो... इसे करवाना नी है क्या...?”

आप जाए... मैं नहीं जाऊंगा... मुझे तो डर लगता है..., यह कहकर मैं अंदर चला गया था. फिर उन्होंने तौहीद, जो छोटे के कारण भी बड़े सख्त दिल का था, से कहा- चल बई... जब वो नहीं जा रहा है तू चल....

तौहीद ने अब्बू जी के कहते ही कुर्बान की रस्सी पकड़ ली और उसे कुर्बानी के लिए लेकर चल दिया. लेकिन तभी मुझसे छोटी बहन आई और वह कुर्बान के गले लगकर रोने लगी. उसने अब्बू जी से कहा, अब्बू जी रहने दो... आप इसे न ले जाए... हमें इसकी कुर्बानी नहीं देनी, आप किसी ओर की कुर्बानी दे दे....

नहीं बेटा... हमने इसे बोल रखा... इसकी पैदाइश से भी पहले... ओर अल्लाह ने हमें यह कुर्बानी के लिए ही दिया... अब अगर हम पीछे हट गए तो अल्लाह नाराज़ हो जाएगा....

अल्लाह इसकी कुर्बानी से कैसे खुश होगा अब्बू जी...? वह तो अपने हर एक बंदों से सात माँओं से भी ज्यादा प्यार करता है... फिर यह तो बेचारा बेजुबान जानवर है... उसे इसकी की कुर्बानी से क्या खुशी मिलेगी...?”

मुझे नहीं पता बेटा... लेकिन यह अल्लाह का हुक्म है.... अब तुम अंदर जाओ....

वह अंदर आ गई और अम्मी के गले लगकर रोने लगी. साथ ही वह कह रही थी, अम्मी, अब्बू जी कुर्बान को ले जा रहे है... आप उन्हें रोकती क्यों नहीं... वह उसकी कुर्बानी दे देंगे... फिर हम उसे कभी नहीं देख पाएंगे....

लेकिन अम्मी ने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह सारा वक्त खामोश बैठी रही.

अब्बू जी और तौहीद के जाने के बाद मैं भी उनके पीछे-पीछे कुर्बानी वाली जगह पर चला गया था. पर अब्बू जी वहां नहीं थे. बस तौहीद और मौहल्ले के चार-पांच जवान लड़कों ने कुर्बान को जमीन पर लिटा कर उसे पकड़ा हुआ था. कसाई उसे कुर्बान करने के लिए अपनी छुरियां तेज़ कर रहा था. फिर जब उसने बिस्मिल्लाह पढ़कर उसकी गर्दन पर छुरी चलाई तो मैंने अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया. मैंने देखा कि अब्बू जी दरवाज़े के पीछे छुपे हुए गमगीन खड़े थे और जब उन्होंने दर्द से कराहते हुए कुर्बान की आवाज़ सुनी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए थे. यह पहली और शायद आखिरी बार था जब मैंने अपने बाप को रोते हुए देखा था.

एक लोहे के बहुत बड़े टप में भरकर उसका गोश्त घर आया था. लेकिन हममे से किसी ने भी उसका गोश्त चखा तक नहीं. अम्मी ने सारा का सारा मौहल्ले और रिश्तेदारों में बंटवा दिया था. काम खत्म करने के बाद शाम को वह चारपाई पर लेट गई थी, पर रात को उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया था. बुखार की हालत में ही वह बार-बार अपनी चारपाई से नीचे छांकती और कहती, कुर्बान कहां चला गया... वह तो यहां है ही नहीं... देखना तो ज़रा... कहीं ऊपर तो नहीं चला गया.

फिर जब वह नमाज़ पढ़ती और सलाम फेरने के बाद कुर्बान को अपने पास न पाती तो  कहती, कुर्बान तो आज आया ही नहीं... देखियो... कहीं बाहर तो नहीं बैठा कहीं...?” इसके बाद वह उठकर खुद ही बाहर गली के दरवाज़े पर आ खड़ी होती और कहती, आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुअ.... पर कुर्बान नहीं आता था. वह तो अल्लाह के पास चला गया था उनको खुश करने.

अम्मी को जब इस बात का एहसास होता तो वह अपने मुँह पर दुपट्टा डालकर सुबक-सुबक कर रोने लगती और कहती, आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ....

इसके बाद अम्मी ने फिर कभी कोई बकरी नहीं पाली. जो थी उसे भी बेच दिया था.
__________

शहादत  ख़ान
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली
7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com

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  1. Dr-Meenakshee Swami22 मई 2017, 10:38:00 am

    सुबह सुबह बहुत सशक्त और मर्मस्पर्शी कहानी पढ़वाने के लिए आभार।

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  2. बस इतना ही कहूंगा कि पढ़ते पढ़ते आँसू झरते रहे।

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  3. Arvind Singh Ashiya22 मई 2017, 7:06:00 pm

    कहानी बिना किसी नयेपन के साथ सपाट सी है..खास कर पहले से ही पाठक को अंत पता हो जाता है | अम्मी बेहद कमजोर कड़ी है क्योंकि वही तो चाहती थी कि बकरा हो सो कुर्बान कर सकें फिर उनका विलाप फिजूल लगता है | लेखक ने संवेदना उकेरने की कोशिश की जो श्लाघनीय है मगर घटनाओं की सामान्य सपाट बयानी कहानी को कहीं नहीं पहुंचाती |
    हां यदि कुर्बानी अंतिम समय में रुकती तो शायद कहानी मुड़ती | या फिर कुछ और...अनेकों विकल्प है..|संवेदना दिल को छीलने से पहले ही भौंथरी ना हो जाए यही किस्सागोई का उसूल है | हां लेखक को सलाम कि मुसलमान होते हुए उन्होंने मजहब के नाम दिल दुखाने वाली रेंज पर कलमगिरी की |

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  4. कुर्बानी की कुर्बानी असल हकीकत है, कहानी के अन्त में सिर्फ पाठक के चेहरे में एक मुस्कान के खातिर और मोड़ देना भी ठीक नही ,आम इंसानों में धर्म की रुढ़ियां किस हद तक हावी होती हैं, लेखक ये बता पाने में समर्थ रहे हैं।

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  5. Arvind Singh Ashiya22 मई 2017, 7:08:00 pm

    Kusum Joshi ji..मुझे लगता है कि हम सदैव हैप्पी एंडिंग के लिए टव्सि्ट नहीं देते है अपितु दोहराव से बचने व नयापन रचने के क्रम में नई संभावनाएं तलाशते है | यहां हिंसा का मन कर्म वचन से विरोध है और प्रकृति समता की बात है सो मेरा मानना है कि ऐसी सपाट बयानी से अफसाना निगार बचें | हमें डेल्टा बनाते हुए समुद्र में गिरना है तभी बड़ा भूभाग घेर पाएंगें

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  6. Laxman Singh Bisht Batrohi22 मई 2017, 7:18:00 pm

    'मैमूद' कहानी के वजन की कोई कहानी नहीं है. किसी भी लेखक का महत्व इस बात पर निर्भर करता है कि उस विचार को वह सबसे पहले कितनी कलात्मकता के साथ उठाता है ज्यादातर लोग विचार की नक़ल करते हैं जैसा कि सुभाष पन्त जी ने कहा है. जरूरी नहीं कि परवर्ती लेखक ने उसे पढ़ा हो. रामकथा पर हजारों लेखकों ने लिखा है मगर वे सारे लेखक वाल्मीकि के ही उत्पाद माने जाते हैं.

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  7. कथा शिल्पी गुरुवर मटियानी जी कहानी 'महमूद' कहानी याद आ गयी । एक बार उसे पढ़कर ईजा को सुनाया था तो रोने लगी थी।

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  8. मैमूद याद आया और याद आयी जद्दन। वही कलेवर, कथानक मिलता -जुलता,पर उतनी सघन नहीं।

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  9. में इस बात से सहमत हूँ कि यदि क़ुरबानी रुकती और परम्परा टूटती तो अच्छा होता उसके आगे कहानी के आयाम बढ़ जाते और कहानी को मुस्लिम समाज के स्तर पर और खोलने की गुंजाइश बनती। फिर यह विषय लेने के लिए लेखक को बधाई।

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  10. बहुत मर्मस्पर्शी। अत्यंत सहजता से । और क्या कहूँ।।।।बरसों बाद ऐसा कुछ पढ़ा। सजीव। लेखक को बहुत दुआएँ और आप को भी।

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  11. कहानी सलीके से कही गई है। अच्छी लगी।

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  12. बहुत ही मर्म स्पर्शी. कहानी की शुरुआत में अंत का अंदाज़ा मैंने यह लगाया कि कुर्बान की कुर्बानी रोक ली जाएगी. पर ऐसा नहीं हुआ. यही इस कहानी की ख़ूबी है. जो सच है, वह लिखा है. शहादत खान को कहानी के लिए बधाई.

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