अन्यत्र : संघ चिट्ठा (अंतिम) : अखिलेश






























प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक अखिलेश सोवियत (संघ, अब रूस) में १९९६ में भारत कला महोत्सव के आयोजन में शामिल हुए थे. ये संस्मरण उसी दौर के हैं. इसका पहला भाग आप पढ़ चुके हैं. शेष और अंतिम हिस्सा यहाँ दिया जा रहा है.

तथाकथित महान विचारधाराओं के तलघर में क्या कुछ घटित होता रहता है, जानना त्रासद है. जो इसे भोग रहे थे उनकी यंत्रणाओं की  कल्पना ही विचलित कर देती है.


संघ चिठ्ठा                                        

अखिलेश  



सोवियत संघ में जब १९९६ में भारत कला महोत्सव मनाया जा रहा था उस वक़्त प्रख्यात चित्रकार मंजीत बावा भारत भवन में रूपंकर समकालीन, आदिवासी और लोक कला संग्रहालय के निदेशक थे. इस भारत महोत्सव में भारत भवन के पास जिम्मा था समकालीन कला प्रदर्शनी लगाने का. भारत भवन में मेरा काम ही प्रदर्शनी आयोजित करना था अतः इसे करने की जिम्मेदारी मुझे सौपीं गई. इस अवसर पर रूपंकर के संग्रह से मैंने छोटी सी प्रदर्शनी के लिए कुछ चित्रों का चयन किया और प्रसिद्द रुसी चित्रकार निकोलस रोरिक, जिन्होंने अपने जीवन के अन्तिम पच्चीस वर्ष भारत में हिमालय चित्रित करने में लगाया, उनके चित्र भी मैंने इस प्रदर्शनी में शामिल किये जो नगमा के संग्रह से मिले.

रूस को लेकर मेरे मन जो उत्साह था उसका बड़ा कारण वहाँ के लेखक थे जिन्हे पढ़कर मैंने रूस की कल्पना परीलोक सी कर रखी थी वह सब छिन्न भिन्न हुई. पहली बार मुझे लगा कि रूस के बारे में जो झूठ फैलाया गया है उसका सचाई से कोई सम्बन्ध नहीं है. इंदौर के  होमी दाजी,  बेचारे, कम्युनिस्ट नेता थे और वे अक्सर हमारे घर आया करते थे, उनके चुनाव प्रचार के लिए भी मैंने काम किया, पहली बार रूस की तारीफ उन्ही के मुँह से सुनी थी. वो अगर जिन्दा रहते तो मैं उनसे जरूर मिलता इस यात्रा के बाद.

रूस का रूप वीभत्स था और लुडमिला जो एक साधारण इंसान थी उसके अनुभव हिला देने वाले थे. असलियत का पता तो किसी राजनैतिक विचारधारा वाले व्यक्ति से ही चल सकता था. साधारण लोगो ने नर्क का अनुभव रूस में कम्युनिस्टों के शासन काल के सत्तर सालों में कर लिया था. मैंने लम्बे समय तक इन्हे नहीं लिखा किन्तु हाल ही में उदयन ने मुझे  एक विडिओ दिखाया जिसमें हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखकों का मजाक उड़ाता हुआ एक KGB का एजेंट बतला रहा है कि कैसे उसने इन लोगो को लगातार मूर्ख बनाया. उसके साथ फोटो में सरदार जाफ़री और सुमित्रानंदन पंत भी दिखलाई दे रहे हैं. तब मैंने इसे लिखने की योजना पर अमल किया. यू ट्यूब पर उपलब्ध ये विडिओ देखने लायक है. वो जो कह रहा है कुछ ज्यादा है हमारे कविवर की प्रसिद्धि से.

इसमें कुछ ज्यादा तो नहीं लिख पा रहा हूँ ये बात आज से लगभग बीस इक्कीस वर्ष पहले की हैं. जो याद रह गया वो सब यहाँ है.    


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छह
चेखव का घर बहुत ही खूबसूरत था. अन्तोन पावलोविच चेखव पेशे से डॉक्टर थे और मास्को में बने उनके घर का नीचे का हिस्सा दवाखाना था ऊपर के हिस्से में वे रहते थे. ऊपर घर में लिखने की मेज पर कलम, दवात और कुछ कागज रखे हुए थे. मानो अभी अभी चेखव नीचे दवाखाने में किसी मरीज को देखने गए हैं. चेखव कहते भी थे कि

“चिकित्सा मेरी विधि सम्मत पत्नी है और लेखन रखैल”

चेखव ने जितना लिखा है उसकी तुलना में वे शेक्सपियर के समकक्ष रखे जाते हैं किन्तु ये भी सत्य है कि जितना समय वो अपने मरीज को देखने जाने आने में लगाते थे उस कारण उन्हें लिखने का मौका कम मिलता रहा था. इस कम मिले मौके में जो लिखा है वो कम नहीं है. उनकी मेज के पास ही एक छोटा सा सोफा रखा हुआ है जहाँ वे सो जाया करते थे. उस सोफे की लम्बाई देखकर लगता है कि चेखव बहुत लम्बे नहीं हुआ करते होंगे. सुरुचि पूर्ण घर की सजावट और जमावट वैसी ही रखी गई है जो उनके समय रही होगी. ऊपर के हिस्से में दूसरी तरफ छोटा सा थिएटर बना हुआ था जो पत्नी ओल्गा निपर के लिए बनवाया था. ओल्गा नाटक करती थी और काफ़ी प्रसिद्द थीं. चेखव भी पत्नी को बहुत पास नहीं रखना चाहते थे उन्होंने शादी से पहले अपने दोस्त को लिखा था -

“यदि तुम चाहते हो कि मैं शादी कर लूँ तो मेरी ये शर्त होगी कि जब मैं देहात में रह रहा हूँ तो उसे मास्को में रहना होगा. मैं बीच-बीच में उससे मिलने आता रहूँगा. और वादा करता हूँ कि एक अच्छा पति साबित होऊंगा किन्तु मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो चन्द्रमा की तरह रोज-रोज मेरे आसमान पर खिला करे.

थिएटर पूरी तरह थिएटर था. हालाँकि इसे ओल्गा के लिए रिहर्सल करने के लिए बनाया गया था किन्तु वहाँ पचास लोगों के बैठने की व्यवस्था थी और मंच पर नाटक किया जा सकता था. सब कुछ स्थगित सा था. दवाखाना और लिखने की मेज आदि सभी जगह जीवन  मौजूद थे किन्तु यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ सा है. सब भूतकाल का लग रहा था. इसमें होने वाला नाटक इसे वर्तमान से बाहर ले आये थे और इसे पीछे उस समय में धकेल दिया था जहाँ ये कभी सक्रीय गतिविधिओं का केन्द्र रहा होगा. रिहर्सल और अभिनेताओ का जमावड़ा, चिक-चिक, झगड़े और बहसों ने इस जगह को उसी समय में कीलित कर लिया था.

चेखव जो अपनी पत्नी से चाहते थे कि वे स्वतंत्र रूप से काम करें और उनके काम में सीधा दखल न दें उनके अंतिम समय में उनका ख्याल रखती थीं. अंतिम दिनों में वे उन्हें जर्मनी में एक स्पा ले गयी जो था जहाँ उनकी मृत्यु पर ओल्गा ने लिखा-

“अन्तोन असामान्य रूप से सीधे बैठ गए और जर्मन में जोर से साफ़ साफ़ बोले (हालाँकि उन्हें जर्मन नहीं आती थी) मैं मर रहा हूँ’  डॉक्टर ने उन्हें सांत्वना दी, उन्हें कपूर का इंजेक्शन लगाया और शेम्पैन मंगाई. अन्तोन ने ग्लास भर के शेम्पैन ली. उसे भरपूर देखा, मुझे देख मुस्कुराया और कहा बहुत दिनों बाद शेम्पैन पी रहा हूँ. एक घूँट में उसे ख़त्म किया और बायीं करवट लेकर लेट गए. मेरे पास इतना ही समय था कि मैं दौड़कर उनके पास जाऊँ उन्हें सीधा लिटा दूँ किन्तु उनकी साँस बन्द हो चुकी थी. वो एक बच्चे की तरह शान्त सो रहे थे

चेखव के घर ये सब यादें आना स्वाभाविक था. घर में उनकी मौजूदगी का गर्म अहसास था जो घर के हर कोने में महसूस किया जा सकता था.

इसके बाद लुडमिला मुझे साप्ताहिक हाट में ले गई. यहाँ कई तरह की वोदका बिक रही थी जो किसानों ने अपने घर में बनाई होगी. कुछ वोदका हम लोगों को चखने के लिए दी गई और वो इतनी ज्यादा थी कि खरीदने की सोचना शराबी का काम हो सकता था जो मैं नहीं हूँ, न ही लुडमिला थी. ये मैं हमेशा से सोचता रहा हूँ कि एक तरफ किसान अपनी सोच में बहुत सीमित होता है दूसरी तरफ उसका हाथ बहुत खुला होता है वो जब कुछ देगा तो इतना ज्यादा होगा जितने की जरूरत नहीं थी. हमलोग जब कॉलेज में लैंडस्केप करने गाँव जाया करते थे वहाँ यदि गुड़ बन रहा है किसान बिना माँगे इतना दे देगा कि हफ्ते भर खाने पर भी ख़त्म न हो. और किसी एक को नहीं जितने हैं सभी को देगा. हमारी हालत इस कहावत की तरह हो जाती थी गए थे नमाज़ पढ़ने, रोज़े गले पढ़ गए.

इस हाट में सभी तरह कि वस्तुएं मौजूद थी. खाने पीने से लेकर ओढ़ने पहनने तक की, फल, सब्जियां, डबल रोटी, दूध, तरह तरह की वोदका, एक तरफ भुने जा रहे कबाब दूसरी तरफ़ कोई स्थानीय खाद्य सामग्री, जिसकी गंध हमें उकसा भी रही थी और प्रेरित भी कर रही थी. लुडमिला बीच बीच में कुछ खरीद लाती और चखने को कहती, उसका उत्साह देखने लायक था और वो जिस रूचि से मुझे दिखा रही थी उसे भुलाया नहीं जा सकता. गुलामी, बेबसी, और आपसी जासूसी के खौफ़ के बाहर लुडमिला एक इन्सान कि तरह महक,चहक रही थी.



सात
उस हाट में हर तरह का सामान बिकने आया था. लुडमिला बतला रही थी इस हाट के लिए आस पास के गॉंव से किसान और दूसरे लोग सब आते हैं और हाथ से बनाये सामान का ये बड़ा बाजार है. वहाँ कुछ लड़कियाँ क्रोशिये से बनाई डिजाईन लिए बैठी थीं हम लोग देखने लगे. बहुत ही मेहनत और कल्पना से इन्हें बनाया गया था काम की बारीकी और बनाने का कौशल उसे खूबसूरत बना रहा था. पास ही में कुछ कलाकारों ने, हाथ से चित्रित केतली, कप, प्लेट और दूसरे बर्तन की, जिन्हें चित्रित करने के बाद में आग में पकाया गया था जिससे ये रंग इस्तेमाल करने पर न निकले, छोटी सी दुकान लगा रखी थी. वहीँ वो प्रसिद्द रुसी गुड़िया भी मिल रही थी जिसके अंदर एक के बाद दूसरी गुड़िया निकलती जाती है. किसी में छः किसी में आठ गुडियाएँ थी. दोनों तरह की मिल रही थी एक जो पूरी तरह से सजी धजी, चित्रित, दूसरी सिर्फ लकड़ी की जिसे आप खुद चित्रित कर सकते हो.

इस बाजार या हाट में हर तरह का सामान मिल रहा था और बहुत बड़े मैदान में लगा हुआ था. दुकानों के लम्बे लम्बे गलियारे थे. लुडमिला खाने के स्टाल की तरफ ले चली बोली कि  कुछ रुसी पारम्परिक व्यंजन खिलाती हूँ. वो नाम बता रही थी और कुछ जानना भी चाह रही थी कि मेरी दिलचस्पी किसमें है ? एक दो व्यंजन हम लोगो ने खाये एक दो चखे और कुछ हाथ में लिए हाट में घूमते रहे. उस दिन बहुत सा समय वहाँ बिता कर दोनों प्रदर्शनी में पहुँचे जहाँ oriental museum के निदेशक मेरा इन्तजार कर रहे थे. वे बहुत बेतक्कलुफी से मिले और उन्होंने प्रदर्शनी की सराहना की साथ ही भारत भवन के बारे में पूछताछ जारी रखी. इसके बाद उन्होंने मुझे आमंत्रित किया क्या मैं कुछ समय के लिए उनके संग्रहालय चल सकता हूँ ?
हम लोग तैयार थे वहां जाने के लिए. उनकी कार में मास्को के किसी छोर पर बने oriental museum पहुँचे. 

उन्होंने उत्साह से उनके संग्रहालय के बारे में बतलाना शुरू किया और वहाँ के महत्वपूर्ण कलाकृतियों को दिखलाया. इस बीच उनके एक सहायक ने आकर सूचना दी कि हम लोग उनके ऑफिस में आ सकते हैं. ऑफिस में मेज पर लगभग दोपहर के भोजन सा चाय नाश्ता रखा हुआ था. जितनी देर हम लोगो को जलपान में लगी उतनी देर में उनके सहायक ने कुछ और दिखाने के लिए निकाल लिया था. उन्होंने कहा अब मैं आपको हमारे संग्रह की छः महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ दिखलाऊँगा. हम लोग एक दीर्घा में पहुँचे जहाँ उनके सहायक ने हुसैन की छः कलाकृतियाँ निकाल रखी थीं. मेरे लिए ये आश्चर्य का विषय इसलिए भी था कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि किसी हिंदुस्तानी चित्रकार की कलाकृतियां देखने को मिलेंगी. वो भी हुसैन साहेब की जिन्होंने कम्युनिज़्म के खिलाफ चीन में बढ़चढ़कर बोला था और उन्हें दौरे के बीच में ही नेहरू ने वापस बुला लिया था जो वे नहीं आये (ये किस्सा फिर कभी). उन्होंने बतलाया हुसैन की प्रदर्शनी साठ के दशक में यहाँ हुई थी और उस वक़्त ये कलाकृतियां हम लोगो ने खरीदी थी. हुसैन के ये चित्र खूब थे. ये चित्र छोटे भी नहीं थे सभी छह फुट की लम्बाई लिए होंगे. चित्र हुसैन की खासियत के मुताबिक थे और हुसैन की पहचान लिए हुए थे. मेरी ख़ुशी का छोर न था. वे बतलाते रहे उस प्रदर्शनी के बारे में और उस घटना के बारे में जब हुसैन अचानक कहीं चले गए थे जो मुमकिन न था. चारों तरफ अफरा तफरी थी कि वो जा कैसे सकते हैं ? बाद में उन्हें ढूँढ निकला गया और उनके साथ एक व्यक्ति रखा गया कि वे नज़र में रहे. मैंने सोचा निश्चित ही वो KGB का एजेंट रहा होगा.

चित्र दिखा कर उन्हें जो शांति मिली वो उनके चेहरे पर झलक रही थी. इसके बाद उन्होंने ढेर सारे तोहफ़े दिए जिन्हे उनके संग्रहालय में ही बनाया गया था. हाथ के बने इन खूबसूरत तोहफ़ो में दैनिक रोजगार छुपा था. उनकी कार से ही हम लोग वापस प्रदर्शनी की जगह लौटे, वहाँ ओल्गा मेरा इन्तज़ार कर रही थी उसने बतलाया कि वो मुझे अपने स्टूडियो ले जाना चाहती है यदि कल सुबह मेरे पास कुछ समय हो तो ? मैंने लुडमिला को देखा कि क्या किया जाना चाहिए.

लुडमिला ओल्गा से रुसी में बात करने लगी. वे दोनों इस क़दर बातों में लगीं कि मुझे वहाँ खड़े रहना भारी लग रहा था. मैं धीरे से गैलरी में चला आया और जोगेन चौधरी का चित्र नटी बिनोदिनीध्यान से देखने लगा. जोगेन का यह चित्र एक रेखांकन है जिसे में रूस के एकान्त में पहली बार ध्यान से देख रहा था. ये उन दिनों का काम है जब जोगेन राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय की देख रेख करते थे. एक युवा चित्रकार जिसका जीवन अभी शुरू नहीं हुआ है अपने एकांत में कुछ गोदा-गादी करता है और साधन सीमित होने से वो सिर्फ पेन और स्याही से चित्र बनाता है बिना किसी उम्मीद के. उन दिनों का यह रेखांकन प्रसिद्द नटी का है.

नटी की आँखें इस चित्र की खासियत है. सारा आकर्षण इन आँखों में आ बसा है. एक साधारण सी वेशभूषा में वो नटी है जो अपने हुनर से लोगो को कायल कर लेती है. उसका हुनर उसकी आँखों से टपक रहा है. काले सफ़ेद इस रेखांकन के कागज़ का रंग कुछ पीला होना शुरू हो गया था जिससे ये चित्र अब उस काल का ही लग रहा है जिस काल में बिनोदिनी मंच पर उतरा करती होगी. जोगेन की एकाग्रता इस चित्र में भाव पैदा कर रही थी. चित्र को ध्यान से देखने का मौका मुझे कुछ और मिलता यदि ओल्गा और लुडमिला न लौट आते. लुडमिला ने बतलाया कि मैं ओल्गा के साथ जा सकता हूँ और अगर मेरी इजाजत है तो कल वो छुट्टी मना सकती है. मुझे पूरा दिन लगेगा स्टूडियो में. मैंने ओल्गा को देखा वो उत्सुक थी और खुश भी. हम लोग कैफ़े में चले आये जहाँ कॉफ़ी पीते हुए इस पर विचार किया जाना है कि कल का क्या कार्यक्रम रहेगा.



आठ
दूसरे दिन ओल्गा सुबह सुबह मस्कवा होटल मुझे लेने आ गई. मैं तैयार ही था सुबह एक दौरा क्रेमिलन के उन खूबसूरत से दिखने वाले संत बाँसिल cathedral  और लाल चौक (Red Square ) कर आया था. ये घूमना उन हिदायतों के खिलाफ था और घातक हो सकता था जो हम सब लोगो को लगातार दी जाती रही. किन्तु उस दिन की सुबह ही खूबसूरत थी जिसने मुझे प्रेरित किया लाल चौक तक घूम आने को. इसका नाम रेड स्क्वायर कम्युनिज़्म आने के बहुत पहले ही से था. हम लोग या दुनिया भर में लोग इसे कम्युनिस्ट पार्टी के लाल रंग के  प्रतीक से जोड़ते हैं जो बिलकुल ही गलत है और न ही वहाँ लगी लाल रंग की ईटों के भरपूर इस्तेमाल के कारण. रुसी भाषा में एक शब्द है क्रासनाया जिसका अर्थ लालऔर खूबसूरतहै. ज़ार अलेक्सेई मिखाइलोविच ने यह नाम चौक के लिए रखा था जिसे पहले पॉज़ारयाने जली हुई जगह कहा जाता था. इस चौक को बढ़ाने के लिए लिए कुछ पुराने घरों को जलाया गया था. जब से ये जली हुई जगह के नाम से जाना जाने लगा था.

यह रेड स्क्वायर वास्तव में बहुत दर्शनीय है. एक तरफ क्रेमलिन राजमहल है उसी के साथ यह जगह जहाँ परी कथाओं में वर्णित सा यह कैथेड्रल और उसके चारों और खुले वातावरण में उसकी भव्यता किसी को भी आमंत्रित करती है. भगवान को ताले में बंद दुनिया भर में किया जाता है सो यहाँ भी चर्च बंद था. सुबह के पवित्र वातावरण में आप भगवान से नहीं मिल सकते इसकी जिम्मेदारी उन दो विशाल दरवाजो की थी जिन्हे भीतर से बंद किया गया था. उस सुनसान सुबह मैं लाल चौक का चक्कर लगा रहा था और उसके आकर्षण में डूबा मुझे ये ख्याल भी नहीं था कि किसी तरफ से भी कम्युनिस्ट आकर मुझे लूट सकते हैं, मार सकते हैं, कुछ नहीं तो धमका सकते हैं. कल ही की बात थी किसी कलाकार ने बतलाया था कि कुछ लूटेरे उसके पीछे बहुत दूर तक भागे थे रुसी में चिल्लाते हुए जिसका अर्थ उसने अपने मन से ये लगाया था कि वे कह रहे थे वापस जाओ, वापस जाओ. क्रेमलिन की खूबी,  खूबसूरती और वैभव उस ज़ार समय  की यश गाथा कहती है जिसका पूरा खानदान क्रांति की शुरुआत में मार दिया गया था और रूस उस संघमें बदला जिसका पतन सत्तर साल बाद होने वाला था. इस पतन दौर में बहुत सी उपलब्धियां संघ के खाते में हैं किन्तु मानवीयता का हास, मनुष्यता का सबसे निचला स्तर भी इन्ही सत्तर सालों में हासिल किया. दिल दहला ने वाले किस्से, सामूहिक क़त्ल, भीषण यातनायें, बलात्कार और मनुष्य के पाशविक रूप को हिटलर के कृत्यों के पीछे छुपाया गया. इसके लिए बहुत से जतन हुए और वे सब मनुष्यता के गिरने के उदहारण ही बने.

युद्ध के अपराधों के लिए चली Nuremberg Trials नाज़ी दौर के लोगो पर लागू हुई किन्तु लेनिन और स्टालिन के दौर पर नहीं. ये चलना चाहिए. न सिर्फ इन पर बल्कि उन सब लोगो पर जो इसका हिस्सा रहे हैं. उसकी आँखों में आंसू मैं देख सकता था वो कल रात ये सब बतला रही थी. लुडमिला का दुःख मैं समझ सकता था किन्तु कोई सलाह नहीं दे सकता था. उसके बचपन का आतंक उस पर हावी है. मैं कल्पना कर सिहर रहा था और उसने तो भुगता है. वो जब बोलना शुरू करती है मानो दुःख का, दर्द का, पीड़ा का, संसार आपके सामने रख रही है. मैं इस संघ को नहीं जानता था लुडमिला ने मेरे सामने एक दूसरा संघ रखा जिससे मैं अनभिज्ञ था मैं ही क्यों हिन्दुस्तान में आज भी बहुत से लोग इन बातों को नहीं जानते हैं और कुछ जो जानते हैं बतलाते नहीं मानो उनके खानदान की पोल खुल रही है. एक जिम्मेदार मनुष्य की कल्पना उन्हें नहीं है. या उनकी कल्पना में जिम्मेदार मनुष्य नहीं है.

ओल्गा सुन्दर लग रही थी. उसने स्कर्ट और टॉप पहना हुआ था जिस पर लम्बे जूते उसकी पिण्डलियों तक आये हुए थे. ओल्गा ने बतलाया एक स्टेशन तक हम मेट्रो से चलेंगे फिर ट्रेन से. कुछ ही देर में हम लोग उस भव्य मस्कवा मेट्रो स्टेशन पर टिकट खरीद कर मेट्रो में बैठ चुके थे. मेट्रो का हर स्टेशन दूसरे से अलग और बेहद खूबसूरत था. स्टेशन में लम्बे-चौड़े दालान, खुली जगहें, मूर्तियाँ और उनकी सजावट, रौनक आपको यह अहसास नहीं होने देती कि आपकी मेट्रो मस्कवा नदी के नीचे से गुजर रही है. ये सब भी हुआ उसी लाल’ घृणित समय में.



आज का युवा इस बात को गर्व से नहीं बतलाता बल्कि उसे शर्म है अपने पिछले सत्तर सालों पर. ओल्गा अपनी धीमी आवाज़ में अपने सेन्टर के बारे में बता रही थी जहाँ हम जा रहे थे. ओल्गा मास्को की नहीं है वो यूक्रेन से आयी है. यहाँ एक कमरा किराये से लेकर रह रही है और काम करने रोज उसे वहाँ जाना होता है. उसकी नीली आँखें गहराई से देखती हैं और यहीं उसने रुसी भाषा में महाभारत की किताब किसी स्टोर पर देखी थी. पढ़ने के बाद महाभारत के चरित्र उसके साथ रहने लगे. फिर इसी जूनून में उसने उन पात्रों को चित्रित करना शुरू किया. ओल्गा के प्रिंट कलात्मक कौशल और कल्पना की उड़ान को समेटे थे. इन्हे देखकर नहीं लगता कि छापाकार रुसी होगा. मैं उसकी बातों और आने जाने वाले स्टेशन के बीच साम्य बैठा रहा था. ओल्गा कई बार इतना धीरे बोलती थी कि सुनने के लिए गौर करना होता था और स्टेशन उसमें व्यवधान बन लटक रहे थे. लम्बी यात्रा हमें मास्को के अंतिम छोर पर ले आयी है इसका पता बाहर निकल कर ही हुआ. यहाँ सब कुछ बदला हुआ था. कस्बे सी जगह थी और हम लोग मेट्रो स्टेशन से लगे हुए ट्रेन स्टेशन पर अगली यात्रा के लिए अपना टिकट खरीद रहे थे. टिकट खरीद लेने के बाद ओल्गा ने कहा कुछ wine खरीद लेते हैं. उसने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया और रुसी कद्दावर महिला की भाँति तेजी से बाज़ार की ओर चल पड़ी. मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने मेरी कलाई इतनी जोर से पकड़ रखी है मानो मैं गुम जाऊँगा.


नौ
ओल्गा ने रुसी वाइन, ऑलिव और कुछ खाने का सामान ख़रीदा. इस बीच उसने मेरी कलाई छोड़ी नहीं. अभी ट्रेन के आने में समय था ओल्गा ने बतलाया ये मास्को के बाहर का एक गॉंव है, जिसकी जनसँख्या हज़ार होगी किन्तु उसका बाजार मैं देख रहा था भरा पूरा किसी शहर के बाजार के कोने सा था जैसे इंदौर का मारोठिया बाजार. हम लोग भटकते रहे मैंने पूछा तुमने मेरा हाथ क्यों पकड़ रखा है ? उसने मुझे चुप रहने का इशारा भर किया. मैं समझ गया शायद मेरी सुरक्षा के लिए. ओल्गा ने कहा कुछ और वाइन खरीद लेते हैं और जवाब मैं क्या देता- वो खरीद रही थी. अब हमारे पास पर्याप्त वाइन और खाने का सामान था. ये सब लेकर हम लोग ट्रेन स्टेशन पर आ गए कुछ ही समय बाद ट्रेन भी आ गई. ट्रेन में चढ़ने का दृश्य अपने यहाँ की किसी भी ट्रेन में चढ़ने जैसा ही हो सकता है इसका अनुभव मुझे हुआ. जब ट्रेन चली तो हम लोग ठसाठस भरी ट्रेन के डिब्बे में हिचकोले खा रहे थे.

डब्बे में स्त्रियां ज्यादा थी, पसीने और इत्र की मिली जुली गंध उस वक़्त तक माथा ख़राब करती रही जब तक मैं उसका अभ्यस्त नहीं हो गया. मुझे अहसास हुआ कि ओल्गा मुझे लेकर महिलाओं वाले डिब्बे में चढ़ गई है. मुझे कोई पुरुष दीख ही नहीं रहा था वहाँ सब रुसी महिलाएं थीं ज्यादातर गोर्की के उपन्यास माँ से निकलकर आयीं थीं. रुसी उपन्यासकारों का अपने समाज से इतना गहरा सम्बन्ध होगा इसका प्रमाण डब्बे में मौजूद था. वे लगातार बोल बतियाँ रही थीं. इतने दिनों में मैंने ये भी पाया कि रुसी महिलाएं कर्मठ हैं. पुरुष वोदका का भोग लगाए टुन्न यहाँ वहाँ दिखते हैं किन्तु महिलाएं हमेशा काम करती हुई दिखी. हमारी ट्रेन अब रफ़्तार पकड़ चुकी थी और ओल्गा ने कहीं बैठने की जगह खोज निकाली थी. वो चाहती थी मैं बैठ जाऊँ किन्तु उन महिलाओं के बीच बैठने से ज्यादा बेहतर मुझे खड़े रहना लगा.

सितम्बर का अन्तिम सप्ताह था मौसम में ठंडक बढ़ रही थी इसलिए डिब्बे की खिड़कियाँ बंद थी. डिब्बे में मौजूद ठहरी हवा में पसीने की गहरी गंध और इत्र की हलकी सुगन्ध मुझे बस बेहोश होने से बचाये हुए थी. सभी यात्री इस गंध के आदि थे जो रूस की महिलाओ की गंध थी. मैं अकेला इस गंध से परेशान था बाकि सब बातचीत में मशगूल थे. ट्रेन की रफ्तार बढ़ती जा रही थी और हम लोग अब खुले मैदानी इलाके में से गुजर रहे थे. दोनों तरफ खेत, वृक्ष, कभी कभी जंगल का टुकड़ा दिखलाई दे जाता था. लगभग एक घण्टे की यात्रा के बाद हम लोग किसी निर्जन स्टेशन पर उतरने वाले हम दो ही थे.

स्टेशन से बाहर निकल एक सड़क पर आस पास देखते हुए जा रहे थे. मैंने देखा चारों तरफ घने पेड़ हैं और बहुत से पक्षी बोल रहे हैं ओल्गा ने बतलाया ये स्टूडियो शहर से बाहर है. यहाँ सारी सुविधाएँ हैं और यहाँ काम करने के लिए जगह मुफ्त दी जाती है. मास्को शहर की कला परिषद में जिन कलाकारों का नाम है ये सुविधा सिर्फ उन्हें ही मिल सकती. करीब पन्द्रह मिनट चलने के बाद हम लोग उस जगह आ चुके थे जहाँ स्टूडियो बने हुए थे. ये एक बड़ी सी जगह थी. प्रिंट बनाने के लिए ये अकेला स्टूडियो था. ओल्गा मुझे अंदर सभी जगह घुमा लायी. वहाँ काम कर रहे कुछ कलाकारों से मिलवाया उनके साथ टूटी फूटी बात की. ज्यादातर कलाकारों को अंग्रेजी नहीं आती थी और ओल्गा मेरे दुभाषिये की तरह थी. ये कलाकार यहाँ काम करते हैं और शाम को सब साथ बैठ कर वोदका पीते हुए अपनी कला चर्चा में आलोचना को शामिल रखते हैं.

ओल्गा अपने स्टूडियो में ले गई जहाँ उसकी एचिंग प्रेस और काम करने की मेज थी वहीँ कुछ कुर्सियाँ, एक छोटा सा बिस्तर और कमरा गर्म रखने का हीटर. मैंने उससे पूछा तुम मेरा हाथ क्यों पकडे हुए थीं ? ओल्गा बताने लगी. लेनिन ने क्रान्ति के तुरन्त बाद शायद दिसम्बर में (क्रान्ति अक्टूबर में हुई) सोवियत संघ सुरक्षा के लिए भक्तों की एक सेना बनाई थी जिसका प्रमुख फेलिक्स ज़र्ज़िंस्की नमक एक पोलिश सामन्त को नियुक्त किया, जिसने हाल ही में कम्युनिस्ट बनना स्वीकार किया था. उन्नीस सौ अठारह तक चेका भक्तों के सैकड़ो संघ बना दिए (क्रान्ति १९१७ में हुई थी) जिनका काम सिर्फ आतंक फैलाना था,  गुप्त सुचनायें इक्कठी करना, जासूसी करना, और राज्य के लिए चेका भक्त सोवियत संघ के वफ़ादार सैनिक थे वे देश सेवा में कुछ इस तरह लगे रहते कि ट्रेन में कोई महिला राशन लेकर गलती से या जल्दी में चेका डब्बे में चढ़ गई तो पूरे डब्बे के चेका भक्त उसे बतलायेंगे कि ट्रेन में राशन लेकर चढ़ना गैर कानूनी है. यदि उसे राशन लेकर घर जाना होता है तब उन पच्चीस-तीस भक्तों को भुगतना होगा.  

मैंने कहा चेका भक्त से मेरा क्या काम ? मुझे तुमने क्यों पकड़ रखा था ? ओल्गा ने कहा इन चेंकिस्ट ने सत्तर सालों में बलात्कार, हत्या, लूट, राहजनी, बूढ़े-बड़े लोगो की हत्या आदि राज्य को सुचारु रूप से चलाये रखने के लिए भरपूर की. अब उनके पास काम नहीं है. किन्तु  वे लोग अब भी यही करते हैं. लेनिन की ये सौगात रूस में अभी भी जिन्दा है. मुझे डर था तुम्हे अकेला देख कर लूट पाट न लें. ये अब माफिया की तरह काम करते हैं. इनका संगठन गैर कानूनी रूप से चल रहा है.

लेनिन को रूस भूल नहीं सकता उसने लूटने के नए नए उपाय खोजे, आतंक, लूटपाट, हत्या, भ्रष्टाचार का यदि कोई पर्याय है तो उसका नाम व्लादिमीर है. उसका नया सूरज, नयी सुबह लेकर आया नहीं.

ओल्गा की आवाज में खरखराहट आने लगी थी. उसने भी, उसके परिवार ने भी शायद  कम्युनिस्ट आतंक देखा होगा जो आवाज के पीछे से आवाज लगा रहा था. मैंने बात बदलते हुए कहा तुम्हारा ये सेन्टर बहुत सुन्दर जगह है जंगल के बीच जहाँ किसी तरह का व्यवधान नहीं है. शहरी शोर शराबा और आवाजाही से दूर. क्या इस जगह सिर्फ ट्रेन से आ सकते हैं ? कोई और साधन से नहीं?

नहीं यहाँ वो ट्रेन स्टेशन ही आने के लिए उपयुक्त है. कार से आ सकतें हैं किन्तु किसी कलाकार के पास कार नहीं है. मेरे पास भी नहीं. कार रखना खर्चे का काम है. ट्रेन से आना जाना बहुत सस्ता है.

क्रांति अच्छी हो सकती थी यदि वो अपने लोगो का सम्मान करना सीख जाती.


अंतिम
रुसी छापा कलाकारों के लिए बनाये गए केन्द्र चेलुसकिन्स्काया ( Cheluskinskaya ) में पूरा दिन गुजरने के बाद मैं और ओल्गा वापस लौट आते हैं. यहाँ ओल्गा ने मुझे उसके कुछ पुराने काम भी दिखाए जिसमें रुसी दृश्य और रुसी चरित्र भरपूर थे. ओल्गा के छापों में महाभारत छिड़ने के बाद बड़ा परिवर्तन आया. मानो कोई मुकाम हासिल हुआ हो. ओल्गा को महाभारत के सभी चरित्रों से लगाव हो गया था. उसने उनका गहन अध्ययन किया था. उनके बारे में कोई भी कुछ बताये तो वह सब काम छोड़कर सुनने बैठ जाती. दोपहर में ओल्गा ने मुझे रुसी खट्टी वाइन पिलाई जो मुझे पसन्द नहीं आयी. ऑलिव भी खट्टे ही थे सो मैंने उन्हें भी दूर रखा. ओल्गा के सामने ये समस्या थी कि वो कहाँ से मेरे लिए कुछ खाने का जुगाड़ करें. ओल्गा उसी में बिंधी रही और ये सब देखते दिखाते शाम हो गई थी. ट्रेन का समय भी हो गया था. इस ट्रेन के चले जाने पर दूसरी ट्रेन देर रात है और ओल्गा को अपने कमरे पर समय से पहुँचना होता है. ओल्गा थोड़ा खुश भी थी और कुछ दुखी भी कि खाने का प्रबंध नहीं हो पाया था.

दूसरे दिन मैंने लुडमिला को याद दिलाया कि कल सुबह मेरे जाने के लिए कार का प्रबंध करना होगा दूसरा मेरा फ़ोन का बिल अभी तक नहीं मिला. दूतावास के कर्मचारी ने जब फ़ोन बिल भरने की सूचना दी थी तभी मैंने लुडमिला को बतलाया था कि मैंने एक फ़ोन अनु को किया था मेरे पहुँचने का उसका बिल चुकाए बगैर नहीं जाना चाहता हूँ अतः मुझे बतलाया जाये कि कहाँ भुगतान होगा. लुडमिला में उसी दिन कहीं फ़ोन किया और मुझे बिल भेजने की गुजारिश की. उस दिन का दिन है और आज का वो बिल नहीं आया.

लुडमिला ने कार का प्रबन्ध कर दिया और मुझसे कुछ आश्चर्य से पूछा कि अभी तक बिल नहीं आया ? उसने कहा अब कोई समय नहीं बचा है चलो वहीँ चलकर भर देते हैं. हम दोनों लिफ्ट से नीचे आये और वो मुझे एक लॉबी में ले चली. मस्कवा होटल बहुत बड़ा था और उसके अन्दर कई गलियारे और लिफ्ट से गुजरने के बाद हम ऑफिस नुमा जगह पर पहुँचे. जहाँ लुडमिला ने काउंटर पर बैठी लड़की से मेरा कमरा नम्बर बता कर बिल देने को कहा और मुझे नहीं पता था कि उसने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. लगभग एक घण्टा हम दोनों वहाँ खड़े रहे और वो दस या बारह लड़कियां और कुछ मर्द मेरा बिल बनाने का काम करते रहे हम देखते रहे वो चलते रहे, आते जाते रहे, बीच बीच में हमें देख कर मुस्काते भी रहे किन्तु बिल था कि बन ही नहीं रहा था. लुडमिला मुझसे बोली अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि ये सब कम्युनिस्ट हैं (उसने रुसी में कोई गाली दी) ये लोग रिश्वत चाहते हैं बिल देने के लिए.

मैं देख रहा था खूबसूरत लड़कियाँ कम्युनिस्ट कैसे हो सकती हैं ? और ये रिश्वत चाहेंगी ? मुझे झूठ लगा. किन्तु वो सही थी. उसने काउन्टर पर जाकर पूछा और कितनी देर लगेगी ? लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया काम करती रही. लुडमिला का धैर्य जवाब दे रहा था. उसने थोड़ी ऊँची आवाज में दोहराया. अब एक लड़की ने उस की तरफ देखा और कहा कुछ समय लगेगा. मेरे ख्याल से लुडमिला को अब तक नाराज हो जाना चाहिए था किन्तु वो चुप रही और मेरे पास आयी बोली निकाल रहे हैं.

मस्कवा होटल वाकई बहुत बड़ी है और सारे काम इस छोटे से ऑफिस में होते हैं. इसमें काम करने वाले लगातार किसी न किसी काम में व्यस्त दीख रहे थे. मुझे नहीं पता कि वो मेरा बिल का काम कर रहे थे या कुछ और किन्तु उन सबकी व्यस्तता फ़िल्मी थी. अब तक बहुत सा समय  बीत चुका था और एक बार फिर लुडमिला गई और बिल चाहा. उन्होंने क्या जवाब दिया  ये तो मुझे पता न चला किन्तु लुडमिला ने उनसे कहा तुम सब कम्युनिस्ट हो.

उसका यह कहना आग में घी का काम कर गया. थोड़ी ही देर में वे सब एक तरफ और हमारी बहादुर लुडमिला दूसरी तरफ. दोनों तरफ से चीखती हुई आवाजें और गुस्सैल चेहरे एक दूसरे को याने वो सब दूसरी लुडमिला को जवाब दे रहे थे. सिर्फ एक शब्द बीच बीच में मुझे समझ आता कम्युनिस्ट जिसके बाद वो सब एक बार फिर भड़क जाते और मद्धिम पड़ती आवाजों में फिर जान आ जाती. ये सब दस मिनिट चला होगा इसके बाद गुस्से में तमतमायी लुडमिला मेरे पास आयी और बोली चलें. मैंने भी देख लिया कि वो खाली हाथ हैं और अब उसे कुछ और करना है जिससे मेरा बिल मुझे मिल सके.

लुडमिला ने बतलाया कि बिल आपके कमरे में दे दिया जायेगा. कब ये नहीं पता. और वो बिल कभी नहीं आया. लुडमिला ने बतलाया आजकल यहाँ कम्युनिस्ट एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है. अब जितने भी कम्युनिस्ट बचे हैं वे गिरी हरकतों से बाज नहीं आते  जिससे लोगो में रोष फैला है. ये सारे कम्युनिस्ट अपनी बर्बादी के लिए दूसरे पर दोष मढ़ते हैं खुद कुछ नहीं करते. इन अवसरवादी, लालची, दोहरे चरित्र वाले कम्युनिस्टों से निपटने का रास्ता नहीं मिल रहा. सब भेड़िये की तरह झुण्ड बना कर एक हो जाते हैं. देखा नहीं वो सब एक होकर मुझसे लड़ रहे थे. उन्हें अभी टुकड़ा डाल देती दुम हिलाते हुए बिल ले आते.

मगर मैं क्यों दूँ ? लुडमिला का गुस्सा शान्त हो रहा था उसकी आवाज में मिठास आ रही और मेरा मन अब कहीं जाने का न था. मुझे इंतज़ार करना था उस बिल का जो न आने वाला है. लुडमिला ने कहा चलो लेनिन के Mausoleum चलते हैं. वहाँ उसका शव रखा है. लाल चौक पर ही ये जगह थी हम लोग वहाँ गए और उसमें घुसने के पहले मैंने कहा नहीं मैं नहीं देखना चाहता उस व्यक्ति को जिसने हज़ारों बल्कि लाखों बेगुनाह को एक गलत विचार के लिए मार दिया. लुडमिला प्रसन्न थी. उसे सॅन्डविच खाना था मुझे जूस पीना था.

दूसरे दिन दूतावास की गाड़ी सुबह ही आ गयी थी. उसे मैंने कहा मैंने फ़ोन का बिल नहीं दिया है.
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  1. बेनामी16 मई 2017, 12:25:00 pm

    "ओल्गा बताने लगी. लेनिन ने क्रान्ति के तुरन्त बाद शायद दिसम्बर में (क्रान्ति अक्टूबर में हुई) सोवियत संघ सुरक्षा के लिए भक्तों की एक सेना बनाई थी जिसका प्रमुख फेलिक्स ज़र्ज़िंस्की नमक एक पोलिश सामन्त को नियुक्त किया, जिसने हाल ही में कम्युनिस्ट बनना स्वीकार किया था. उन्नीस सौ अठारह तक चेका भक्तों के सैकड़ो संघ बना दिए (क्रान्ति १९१७ में हुई थी) जिनका काम सिर्फ आतंक फैलाना था, गुप्त सुचनायें इक्कठी करना, जासूसी करना, और राज्य के लिए चेका भक्त सोवियत संघ के वफ़ादार सैनिक थे वे देश सेवा में कुछ इस तरह लगे रहते कि ट्रेन में कोई महिला राशन लेकर गलती से या जल्दी में चेका डब्बे में चढ़ गई तो पूरे डब्बे के चेका भक्त उसे बतलायेंगे कि ट्रेन में राशन लेकर चढ़ना गैर कानूनी है. यदि उसे राशन लेकर घर जाना होता है तब उन पच्चीस-तीस भक्तों को भुगतना होगा.

    मैंने कहा चेका भक्त से मेरा क्या काम ? मुझे तुमने क्यों पकड़ रखा था ? ओल्गा ने कहा इन चेंकिस्ट ने सत्तर सालों में बलात्कार, हत्या, लूट, राहजनी, बूढ़े-बड़े लोगो की हत्या आदि राज्य को सुचारु रूप से चलाये रखने के लिए भरपूर की. अब उनके पास काम नहीं है. किन्तु वे लोग अब भी यही करते हैं. लेनिन की ये सौगात रूस में अभी भी जिन्दा है. मुझे डर था तुम्हे अकेला देख कर लूट पाट न लें. ये अब माफिया की तरह काम करते हैं. इनका संगठन गैर कानूनी रूप से चल रहा है.

    लेनिन को रूस भूल नहीं सकता उसने लूटने के नए नए उपाय खोजे, आतंक, लूटपाट, हत्या, भ्रष्टाचार का यदि कोई पर्याय है तो उसका नाम व्लादिमीर है. उसका नया सूरज, नयी सुबह लेकर आया नहीं."
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    "लुडमिला ने बतलाया आजकल यहाँ कम्युनिस्ट एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है. अब जितने भी कम्युनिस्ट बचे हैं वे गिरी हरकतों से बाज नहीं आते जिससे लोगो में रोष फैला है. ये सारे कम्युनिस्ट अपनी बर्बादी के लिए दूसरे पर दोष मढ़ते हैं खुद कुछ नहीं करते. इन अवसरवादी, लालची, दोहरे चरित्र वाले कम्युनिस्टों से निपटने का रास्ता नहीं मिल रहा. सब भेड़िये की तरह झुण्ड बना कर एक हो जाते हैं. देखा नहीं वो सब एक होकर मुझसे लड़ रहे थे. उन्हें अभी टुकड़ा डाल देती दुम हिलाते हुए बिल ले आते."
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    यहाँ भी वो नया-नवेला सूरज कभी नहीं आया...
    बस भाषण हुए, आंदोलन हुए, पोस्टरबाजी हुई, बयानबाजी हुई और बंदरबाँट हुई!

    -राहुल राजेश।

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  2. 1991 में सोवियत संघ बिखर चुका था । फिर 1996 में कैसे किसी ने सोवियत संघ की यात्रा कर लीं । क्या यह कोई संस्मरण नहीं, कपोल कल्पना है, उद्देश्यमूलक । हँसी आती है ।

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  3. पढ कर रूस की असलियत का पता चला । सन 1983 मेरा विचार रूस जाने का था जब मै युरोप की यात्रा पर निकला था । पर वहाँ जाते जाते रह गया । अखिलेश जी की स्पष्टवादिता के लिए बधाई देता हूँ ।

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  4. आप साक्षात 'नर्क' में जाने से बच गये, इसके लिये अपने भाग्य का शुक्रिया अदा करना चाहिए । वैसे अखिलेश जी की 'स्पष्टवादिता' शायद 1983 के रूस के बारे में नहीं है । इसीलिये यह कितनी स्पष्ट, कितनी अस्पष्ट, कहना मुश्किल है ।

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  5. आशा है कि आप बिखराव के पहले के रूस को देख आए होँगे । मैँ तो स्वयम् को भाग्यशाली मानता जब मेरी वहाँ की यात्रा सम्पन्न होती
    अखिलेश जी की निन्दा करना अनुचित है । कलाकार झूठ नहीँ बोलता ।

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  6. मेरा तो मानना है कोई इंसान झूठ नहीं बोलता । यह अवधारणा और रुझान का सवाल है । बहुत सी चीज़ों को हम जान कर भी नहीं जानते और न जानते हुए भी जानते है और कभी-कभी यह भी नहीं जानते कि हम नहीं जानते हैं ।

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  7. सुधेश जी, इस लेख में आधी से ज़्यादा बातें झूठी हैं। मैं थोड़ा व्यस्त हूँ। बाद में इन बातों का उत्तर दूंगा।

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  8. जैसा अरुण माहेश्‍वरी ने कहा, अखिलेश जी सोवियत संघ के बिखराव के छह साल बाद रूस गये, वहां की भव्‍यता से तो अभिभूत रहे (‍जो निश्‍चय ही उन छह सालों में तो नहीं बनी होगी) लेकिन छह साल बाद भी कम्‍युनिस्‍ट किस तरह वहां की व्‍यवस्‍था पर हावी हैं, इसे उन्‍होंने चित्रित करने में एक चित्रकार की कल्‍पना का भरपूर उपयोग किया। वहां से लौटने के बीस साल बाद उस पर यह संस्‍मरण लिखा, और वह भी इतने मनो-मालिन्‍य से भरपूर। अफसोस हुआ कि अखिलेश एक महान् विचार के प्रति इतनी दुर्भावना से ग्रस्‍त हैं।

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  9. यह सब मूर्खतापूर्ण लगता है । इनसे ख़ुद को बेपर्द करने के अलावा किसी को कुछ हासिल नहीं होगा । सोवियत काल की विकृतियों की इससे बहुत गहरी और विस्तृत रपटें आ चुकी है । सोवियत संघ का बिखरना ही काफी कुछ कह देता बै । अब तो इन महोदय को नये राज की हक़ीक़त बयान करनी चाहिए थी ।

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  10. Arun Maheshwari Nand Bhardwaj ji aap dono ke bholepan par kurbaan jaun.

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  11. व्‍यक्ति जब स्‍वयं को सर्वज्ञ समझने लगता है तो बाकी सब भोले और अबोध ही नजर आते हैं, अखिलेश जी।

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  12. दरअसल आप पाठ के मूल को नज़रअंदाज़ कर विचार के पीछे पड़े हैं यही भोलापन मुझे लग रहा है।

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  13. अखिलेश जी, आप बहुत अच्‍छेे चित्रकार हैं, एक चित्रकार और कला-पारखी के रूप में मैं आपकी इज्‍जत करता हूं, लेकिन आपने इतने अंतराल के बाद जिस मसले पर संस्‍मरण लिखा और वह भी इतने नकारात्‍मक स्‍वर में, जिसमें आप एक न्‍यूनतम निष्‍पक्षता का भी निर्वाह नहीं कर पाए, दुनिया में समाजवादी विचार की जो सकारात्‍मक भूमिका है, और जिसने पूंजीवादी व्‍यवस्‍था के सामने इतना व्‍यापक विकल्‍प खड़ा किया है, उसे बगैर ठोस तथ्‍यों और दृष्‍टान्‍तों के एक स्‍वीपिंग रिमार्क में नकार देना, ऐसा वक्‍तव्‍य देने वाले की नीयत पर ही सवाल उठा देता है। आपने अपना संस्‍मरण लिखने के लिए जो समय चुना हे, वह अपने आप में ही बहुत कुछ संकेत दे देता है। बहरहाल -

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  14. पहले से तय करके लिखा गया है जैसे किसी को बदनाम ही करने के लिए लिखा जाता है।बात कतई गले उतरने वाली नहीं है।

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  15. में यह जानने के लिए बहुत उत्सुक हूँ कि '1996 में सोवियत संघ' सायास है या एक भूल. अगर यह भूल मात्र है तो आश्चर्य कि सम्पादक अरुण जी की पैनी नज़र से छूट कैसे गई.

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  16. यह पैनी नजर का ही कमाल है! बिना संपादन के अखिल ईश जी का रचा हुआ 'सच' सार्वजनिक होना चाहिए।
    महाजनो येन गतः सा पंथा।
    महाजन कौन ?
    अनुपम खेर... शायद नहीं, शायद हाँ।

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  17. बेनामी17 मई 2017, 3:06:00 pm

    ये संघ-चिट्ठा नहीं, संघ का कच्चा चिट्ठा है! लुडमिला के बहाने कम्युनिस्ट आंदोलन और कम्युनिस्ट शासन की खूनी हकीकत खोलकर रख दी गई है!

    "सारे कम्युनिस्ट अब माफिया में बदल गए हैं और वे उस काल की बुराई नहीं सुन सकते. सामान्य जीवन में ‘कम्युनिस्ट’ शब्द अब गाली की तरह प्रयोग में लाया जाता है और ये गाली माँ की गाली से ज्यादा चुभने वाली है."
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    "हमारा बचपन खेल और मस्ती से भरा नहीं था हम लोग शक और डर के कारण आपस में दोस्त भी नहीं बनते. एक चुप्पी बच्चों के बीच रहती. रोज हत्या, बलात्कार होने वाली घटनाओ से डरे हम लोग अपनी बार का इन्तजार करते. अख़बारों में छपा करता था नयी सुबह, नया संसार आने वाला है, हम सब को उसके लिए इंतजार करना है."
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    "‘चेका’ लोग, जो भक्त थे इस लाल रंग के वे कोकीन और दूसरे नशों में डूबे रहते ताकि आसानी से इन हत्याओं को अंजाम दे सके. बुर्जुआ लोगों के लिए जरूरी था कि वे अपनी सम्पति कि घोषणा करे उन्हें बताना होता था कि कितने खाने का सामान, गहने, जूते, कपड़े,सायकिल,बिस्तर,चादर, बर्तन,आदि हैं. घोषित नहीं करने पर तत्काल मौत कि सजा मुकर्रर थी. सभी बुर्जुआ थे, किसी को भी पकड़ा या मारा जाता था. दरवाजे पर दस्तक होती और दरवाज़ा खुलते ही गोली मार कर ‘चेका’ भाग जाता. क्यों मारा पता न चलता. सब देखते कोई पकड़ा नहीं जाता. सबको इन्तजार था नयी सुबह का, नए सूरज का. वो आता ही नहीं था."
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    "मैं जब जर्मनी में थी उस वक़्त मेरे दोस्त ने मुझे गर्व से बतलाया कि पूरी बीसवीं शताब्दी दो जर्मन के नाम है हिटलर और कार्ल-मार्क्स. इन दोनों के पास नयी सुबह का विचार था और दोनों के कारण भरपूर रक्त शुद्धि हुई. हम जर्मन लगातार नए के लिए इन्तजार करते हैं. दोनों के विचारों से हत्याएँ हुई और होती जा रही हैं. पूरी मानवता इस नए सूरज का इन्तजार कर रही है जो हर दिन नहीं आता."
    *****

    हमारे देश में भी कम्यूनिस्ट आंदोलन और शासन की कमोबेश यही स्थिति रही है! यहाँ भी इनके भक्त लोग यही कहते फिरते हैं: कविता नहीं, पार्टी पोस्टर लिखो! कविता इसपर नहीं, उसपर लिखो! फलां को नहीं, सिर्फ फलां को ही पढ़ो!

    -राहुल राजेश।

    16/5/17, 11:48 am

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  18. भारत भूषण जी यह शीर्षक लेखक का ही दिया हुआ है और उसमें से 'संघ' हटाना मैंने उचित नहीं समझा. इससे कुछ और भी ध्वनित होता है. ये जो 'संघ' होते हैं न कब पवित्र होते होते फासिस्ट हो जाएँ कहा नहीं जा सकता है.

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  19. अरुण जी, जवाब के लिए शुक्रिया. बात सिर्फ शीर्षक की नहीं बल्कि आपकी सम्पादकीय टिप्पणी की भी है. वहाँ भी आपने यही लिखा है कि अखिलेश 1996 में सोवियत संघ की यात्रा पर गए थे.

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  20. प्रिय भारत भूषण जी यह आपने ठीक ध्यान दिलाया है। दिल से आभार।

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  21. बेनामी17 मई 2017, 7:53:00 pm

    कोई बेध्यानी में भी यदि ये संस्मरण पढ़ेगा तो तत्काल समझ जाएगा कि ये सिर्फ 1991 या 1996 की बातें नहीं हैं, बल्कि कम्युनिस्ट शासन के लंबे कार्यकाल की बातें हैं; जिन्हें अखिलेश जी ने खुद नहीं कहा है। बल्कि ये बातें तो कम्युनिस्ट शासन की यातनाएं झेल चुकी लुडमिला और वोल्गा ने अपनी जुबानी कही है। तत्कालीन​ भारतीय दूतावास ने कही है। रही बात, इन संस्मरणों को लिखने के समय और मंशे की तो संस्मरण तत्काल ही लिख डाला जाना चाहिए और बीस साल बाद कतई नहीं लिखा जाना चाहिए और इस संस्मरण को बीजेपी के शासन काल में तो हरगिज नहीं लिखा जाना चाहिए- ऐसी अपेक्षा रखने वाले विद्वान जन सचमुच बहुत भोले हैं या फिर बहुत फासिस्ट! इसी संस्मरण में वोल्गा और लुडमिला ने बार बार दुहराया है कि कम्युनिस्ट अपनी बुराई बर्दाश्त नहीं कर सकते! यह कितनी बड़ी भयंकर बिडंबना है कि दिन रात चौबीसों घंटे दूसरों की निंदा करने वाले लोगों में खुद अपनी आलोचना सुनने की तनिक भी तमीज नहीं! पर क्या कहें, भारी-भरकम किताबी ज्ञान के बूते खुद को प्रकांड विद्वान कहने वाले (अ)ज्ञानियों का अहंकार अनंत होता है! उनसे जो भी असहमति जताएगा, तत्काल मार दिया जाएगा! सच तो यही है कि भक्त कहाँ नहीं हैं! इन संस्मरणों में भी तो लुडमिला और वोल्गा ने चेका भक्तों के कैसे-कैसे कारनामे बयां किए हैं!

    रही बात समालोचन और उसके संपादक की तो समालोचन कोई कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र तो है नहीं कि उसमें सिर्फ पार्टी लाइन पर लिखी सामग्री छापी जाए! जिस किसी दिन ऐसा होगा, समालोचन संघ की तरह ही खुद ब खुद बिखर जाएगा!!

    - राहुल राजेश।

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