सहजि सहजि गुन रमैं : संतोष अर्श

(गूगल से साभार)

संतोष अर्श की कविताओं की तेवर तुर्शी अलग से दिखती है, वे समकालीनता के विद्रूप पर हमलावर हैं, जातिगत विडम्बनाओं पर मुखर हैं.  
कविता का ढब भी बदलता  चलता है जगह –जगह. उन्हीं के शब्दों में ‘राख के भीतर बहुत सारी चिंगारियाँ’ लिए हुए. पर ये कविताएँ भी हैं केवल सपाट वक्तव्य नहीं.

इसीलिए एक कवि के रूपमें संतोष आश्वस्त करते हैं.
कुछ नई कविताएँ


संतोष अर्श की कविताएँ                          



गऊ आदमी

गऊ आदमी है
कि आदमी गऊ है ?
लखनऊ गोरखपुर है
कि गोरखपुर लखनऊ है ?
हिंदू गऊ है
कि मुसलमान गऊ है ?
बांभन गऊ है
कि अहीर गऊ है ?
चाय गाय है
कि गाय चाय है ?
विकास श्मशान है
कि विकास क़ब्रिस्तान है ?
कुर्सी पर जोग होता है
कि जोग से कुर्सी मिलती है ?
सत्य उत्तर होता है
कि उत्तर सत्य होता है ?
गऊ आदमी है
कि आदमी गऊ है ?




जानेमन जुगनू

जानेमन जुगनू !
बहुत दिन बाद मिले हो
ज़रा कम टिमटिमा रहे हो
रात की चकाचौंध रोशनी से डरे हुए हो ?
जानेमन जुगनू !
किन झाड़ियों में छुपे रहे
किन पत्तियों में ढके रहे
किन नालियों में पड़े रहे
किन योजनाओं में लगे रहे
उम्मीद की बैट्री चार्ज कर रहे थे ?

जानेमन जुगनू !
अँधेरा बहुत है
सही कह रहे हो
अँधेरे को रोशनी के वरक में लपेटा है
अँधेरा फैलाने वालों ने
अँधेरे का नाम रोशनी रख दिया है.

जानेमन जुगनू !
क्या बकवास करते हो
बच्चे तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ते
अब तुम खुले में सो रहे
किसी मजूर की मच्छरदानी पर भी नहीं जाते
रात के आवारा को भी शक्ल नहीं दिखाते  

जानेमन जुगनू !
इतनी भी उदासी क्या
आओ बैठते हैं
दो-दो पेग पीते हैं
थोड़ा सा जीते हैं
योजना बनाते हैं
रात बहुत तगड़ी है
साज़िश बहुत गहरी है. 


 आत्मा के घाव

वे घाव
, घाव नहीं होते
जो कभी नहीं भरते.
देह पर लगे घाव
समय, समय पर भर देता है
आत्मा पर लगे घाव
चिताएँ और क़ब्रें भी नहीं भर पातीं.

देह पर लगे घाव
त्वचा पर धब्बा छोड़ते हैं
आत्मा पर लगे घाव
जमाने पर छाप छोड़ते हैं.
जिन लोगों की आत्मा पर घाव थे
उनके अजीब चाव थे
अलग हाव-भाव थे
वे जलते हुए अलाव थे
जिसमें जमाने को तापना था.

मरहम होना चाहिए
लेकिन देह के घावों के लिए
आत्मा पर लगे घाव
जमाने के घाव होते हैं.



पुरानी लड़ाई    

जब दो गरीब आदमी लड़ते हैं
तो एक अमीर आदमी बहुत ख़ुश होता है.
उसे लगता है कि दो तीतर लड़ रहे हैं
कि दो बटेर लड़ रहे हैं
दो मुर्गियाँ लड़ रही हैं, या दो भेड़ें.
जब दो गरीब आदमी लड़ते हैं
तो एक अमीर आदमी को बहुत मज़ा आता है
जैसे रोमन सामंतों को दो ग़ुलामों के लड़ने पर आता था.

दो गरीब आदमियों की लड़ाई में
जब एक गरीब आदमी मर जाता है
तो एक अमीर आदमी को वही आनंद मिलता है
जो ग्लेडिएटर की मौत पर
रोमन राजा को मिलता था.



अंतिम तीली   

इस वक़्त मुझे
अफवाहों के सूखे जंगल में
सत्य की एक पीली पत्ती ढूँढनी है.
बहुत भयानक शोर में
अपनी बात लोगों तक पहुँचानी है
और अपना पेट भी भरना है.
क्या यह संभव है ?
क्या यह संभव है कि
घुप्प अँधेरे में
मैं ज़ख़्मी हाथों से छू-कर, टटोल कर
ज़माने के लिए सही चीज़ उठा लूँ ?
हाँ यह संभव है !
बारिश में बुरी तरह भीग गई
माचिस की अंतिम तीली शेष है. 



घूर पर पड़ी हुई राख

मैं कविता में
घूर पर पड़ी हुई
थोड़ी सी राख हूँ
जिसे एक देहाती औरत
चूल्हा बुझाने के बाद फेंक गई है.
इस बात से अनजान
कि उस राख के भीतर बहुत सारी चिंगारियाँ थीं.


 आँत और ज़मीन का रिश्ता 

जिससे मेरी आँतों का रिश्ता है
मैं अपनी वो दो बीघे ज़मीन कहीं छोड़ कर
किसी महानगर में आ गिरा हूँ.
मेरे जैसे ही कुछ लोगों को छोड़ कर
यहाँ मुझे कोई नहीं जानता
यहाँ वर्तमान और भविष्य दोनों से डर लगता है.
भविष्य से डर लगने पर
मुझे मेरी ज़मीन याद आती है
और मेरे हृदय का क्षेत्रफल दो बीघे हो जाता है.
दो बीघे ज़मीन केवल दो बीघे ज़मीन नहीं होती
दो बीघे आसमान भी होती है
दो बीघे धूप भी होती है
दो बीघे बारिश भी होती है
दो बीघे हरीतिमा भी.    



दीनानाथ का मोहिनी रूप    

समुद्र मंथन   
अमृत के लिए नहीं    
रोटी और पानी,
ज़मीन गुड़धानी के लिए हुआ था.

मंदार पर्वत कछुए की नहीं
ग़ुलामों की पीठ पर रखा था
और मथानी की रस्सी
उन्हीं की खाल खींचकर
बटी गई थी.
समुद्र से जो विष निकला था
उसे पीने वाला ज़रूर कोई आदिवासी रहा होगा.

जौहरी लूट ले गए हीरे-मोती-रत्न
दीनानाथ ने मोहिनी बनकर
सब जनों को रिझा लिया.      



 लेखकों की हत्याओं का मौसम

कलबुर्गी मारे गए
पानसरे मारे गए
दाभोलकर मारे गए
किरवले मारे गए.
वे भाषाएँ सच्ची भाषाएँ होती हैं
जिनमें लिखने वाले लेखकों की हत्याएँ होती हैं
लेखकों की हत्याओं के मौसम में
जिन भाषाओं के लेखक नहीं मारे जाते
वे भाषाएँ या तो कायरों की होती हैं
या हत्यारों की.


स्वर्ग बनाम नर्क     

उन्होंने स्वर्ग में उपभोग किया
और कचरा नरक में फेंक दिया.
हर स्वर्ग अपने नीचे एक नरक बनाता है
उस नरक में वे लोग रहते हैं,
जिन्होंने नरक बनाने वालों के लिए
स्वर्ग बनाया है.
दूसरों का जीवन नरक बना देना ही
अपने लिए स्वर्ग बना लेना है.
चंद लोगों का स्वर्ग
बहुत ज़्यादा लोगों का नरक है.
जब नरक से किसी आदमी की चीख
स्वर्ग के आदमी तक पहुँचती है
तो वह नरक में
थोड़ा और कचरा फेंकता है.



कविता क्या है ? -1

कवि होने में क्या है ?
कवि तो ब्रह्मेश्वर मुखिया भी हो सकता है
चंगेज़ खाँ भी !
भ्रष्ट अफ़सर, लंपट नेता
कामी प्रोफ़ेसर और घूसखोर जज
डॉक्टर किडनीचोर, टिकियाचोर वक़ील भी
कवि हो सकता है.
कवि होने में क्या है ?

मेरे जैसा लंठ भी कवि हो सकता है.
कवि होने में कुछ भी नहीं है !
जो कुछ है, वो
कविता होने में है.



कविता क्या है ? -2

मैंने सुकुल (रामचंदर) जी से पूछा, कविता क्या ?
उन्होंने कहा, कविता तुलसीदास है !
मैंने शर्मा (रामबिलास) जी से पूछा, कविता क्या ?
उन्होंने भी कहा, कविता तुलसीदास है !
सुकुल दक्षिण हैं, शर्मा वाम हैं
दोनों का आदि अंत राम हैं
राम शंबूक का बधिक है, सीता का त्यागी है
इसीलिए हिन्दी कविता अभागी है.


कविता क्या है ? -3 

कविता जनेऊ नहीं है
जिसे कान पर लपेट कर
फ़र्ज़ी बिम्ब मूत दिए जाएँ.
कविता गले में चुपचाप
टाँग ली गई हाँडी है
जिसमें सच्ची अनुभूतियों का थूक भरा है.    
_____________________

संतोष अर्श 
(1987, बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.

फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी  
 poetarshbbk@gmail.com  

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  1. बधाई... सुन्दर कविता...सुन्दर प्रस्तुति ।

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  2. कविताओं पर लगाया गया ग्रामीण परिवेश का फ़ोटो बहुत सुंदर है। गले में चुपचाप टाँग ली गयी हाँडी का बिम्ब बहुत नया और मार्मिक है। बधाई अर्श सजग करने वाली कविताओं के लिए।

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  3. सभी कविताएँ अच्छी लगीं. 'पुरानी लड़ाई' तो एकदम जल्लीकट्टू की तरह सभ्य संस्कृतियों के अभिराम मुखारविंद पर पहचान चिह्न की तरह लटक गयी भाई.
    ऊपर चित्र देख सोचती हूँ कि ये घड़े हैं जिन्होंने रास्ते दिए अबूझ अधूरी प्यासों को

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  4. एक अलग वितान रचती हैं संतोष अर्श की कविताएं। जब सदियों तक श्रम और बेगार करने वाले कविता लिखते हैं तो कविता का भूगोल बदल जाता है। कविता को कोमलकांत पदावली मानने वाले इन्हें कविता मानने से इंकार कर सकते हैं। तथाकथित रूखापन इनकी कविताओं का सौंदर्य है। कई कविताओं में उपेक्षितों का स्वर दर्ज है। कविता को परिभाषित करने के क्रम में 'साहित्यिक भ्रष्टाचार' को कविता में बेनक़ाब करता कवि। समालोचन का शुक्रिया। कवि को शुभकामनाएं!

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  5. बहुत अच्छी कविताएँ। लेखकों की हत्याओं का मौसम को बहुत मारक कविता है। कवि को सलाम।

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  6. संतोष अर्श की कविताओं पर छिटपुट और बेतरतीब उद्गार :
    ---------------------------------------
    जुगनू के जानेमन बन जाने से कविता के गले में बँधी अनुभवों के थूक से भरी हाँडी हो जाने के दरम्यान जीवन की छाती पर सवार एक कवि शान्त आक्रोश में 'सोलिलॉकी' में अपनी बात कह रहा है। गऊ आदमी में वह जड़ हो चुके अर्थों को तोड़ कर टटोल रहा है और 'डीस्कूलिंग' की तरफ इशारा कर रहा है। उन्हीं शब्दों का पुनर्पाठ अब पुनश्च नवीन अर्थ संधान की माँग कर रहा है कि इन जड़ हो चुके अर्थों से हल नहीं मिलता।

    जुगनू को जानेमन कहना, अँधेरे को रोशनी का नाम दिये जाने को चिन्हित करना और जुगनू के साथ दो-दो पेग लगा कर बड़ी साजिश से लड़ने की तैयारी करना, यह सब हाशिये के प्रति महीन रागात्मकता को दिखाता है और प्रकृति और 'पतितों' ( पतित के सामान्य अर्थ से अलग, इस दौड़ गिर कर छूटे हुए लोग) के पक्ष में प्रतिरोध का संवाद रचता है।

    पुरानी लड़ाई और स्वर्ग बनाम नर्क में भाव बोध और उसकी भूमि एक ही है। कुल मिला कर शोषण और उत्पीड़न की वही और उतनी ही बातें कही गई हैं जो अब तक कही जा चुकी हैं। मुझे लगता है, शोषण हमेशा इतना एकांगी, इतना इकहरा नहीं होता कि जैसे dialectical materialism में इतिहास की एक तयशुदा लीक होती है। शोषक और शोषित अपने अपने दाँव भी खेलते हैं और कई बार तो सभी शोषण का यह खेल पाली बदल बदल कर अपने तरीके और अपनी सीमा और स्थिति की क्षमता के अनुसार खेलते हैं। आज के समय में ये दाँव महीन से महीनतर और जटिल से जटिलतर होते जा रहे हैं। इसकी शिनाख्त भी जरूरी है।

    दीनानाथ का मोहिनी रूप प्रभावित करता है। यह 'ग्रेटर ट्रेडिशन' के बरअक्स 'लोकल' को अधिक महत्व देता है और मिथकों को दुबारा लिखता है लेकिन एकलव्य की दृष्टि से।

    सबसे अधिक प्रभावशाली कविता लगी 'लेखक की हत्या का मौसम' । ये पंक्तियाँ इस कविता की और कवि की भी उपलब्धी हैं :

    वे भाषाएँ सच्ची भाषाएँ होती हैं
    जिनमें लिखने वाले लेखकों की हत्याएँ होती हैं
    लेखकों की हत्याओं के मौसम में
    जिन भाषाओं के लेखक नहीं मारे जाते
    वे भाषाएँ या तो कायरों की होती हैं
    या हत्यारों की.

    कुल मिला कर संतोष अर्श की कविताओं से मैं बहुत आशा रखने लगा हूँ। सिर्फ एक बात कहना चाहूँगा कि पढ़ी-पढ़ाई बातों को जस का तस स्वीकारने के बजाये आज के जटिलतर समय में उन्हें 'अनुभवों के थूक' में रख कर देखें तो पायेंगे कि आज न कार्ल मार्क्स पूरे पड़ रहे हैं न देरिदा... हमें अपनी स्वतंत्र दृष्टि विकसित करनी ही होगी नहीं तो फॉर्मुलों का सुलभ लोभ हमें अपने मोहिनी रूप में फँसा रखेगा।

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