हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ

 (पेंटिग - Haren Das : Joint Effort)

हरे प्रकाश उपाध्याय को  आज हम ‘मंतव्य’ के संपादक और ‘बखेड़ापुर’ के उपन्यासकार के तौर पर जानते हैं. पर वह मूलतः कवि हैं उनका पहला कविता संग्रह ‘खिलाड़ी दोस्त और अन्य कविताएँ’ शीर्षक से प्रकाशित है. उन्हें कविता के लिए ‘अंकुर मिश्र स्मृति पुरस्कार’ से भी नवाज़ा गया है.

वक्त से आँख मिलाकार लिखी इन कविताओं में जनतंत्र का सच पूरी तरह से बेपर्दा हो गया है और सचमुच के डंडे, फज़ीहत, जेलें, फाँसी, दु:ख, भूख, जीवन और नरक से हमारा सामना होता है. यही हमारा समय है.

हरे की पांच नई कविताएँ 

हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं                           





क्या आप बता सकते हैं...

यह भाई जो दिन-दिन भर
रोज़ रिक्शा चलाता है
दो-चार रुपये के लिए झिक-झिक झेलता है
बेवजह अपमान झेलता है मार खाता है
जिसके पेट में भूख हरदम अंतड़ियाँ चबाती रहती है
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जो दिन भर ठेले खींचता है
और जिसके बच्चे मिठाई के लिए तरसते हैं
जिसके बच्चों के लिए नयी कमीज़ें दिवास्वप्न की तरह हैं
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जो खेतों में
अपनी हड्डियाँ गलाता है
पसीने से सींचता है अन्न के दानों को
जिसके बच्चे दूध के लिए तरस कर रह जाते हैं
जिसकी बिन ब्याही बेटी पिता की दु:ख की पोटली लिए कुएं में कूद जाती है
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जो फूटपाथ पर
जूते सिलता है
और जिसके पाँव बिवाइयों से पटे हैं
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जिसका भाई
इलाज़ के अभाव में मर गया
और जो चंद रुपयों की दवाई खरीद न सका
जो अस्पतालों स्कूलों और कचहरियों में घुसते हुए डरता है
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जिसके पिता
साहूकार से लिए चंद हज़ार रुपये की कर्ज़ न चुका पाये
और अपमान व ज़िंदगी की दिक्कतों से भागकर
गरदन में गमछा बाँधकर पेड़ से लटक गये
भारत इस भाई का भी तो है

यह भाई जिसके बेटे को
पुलिस ले गयी
आतंकवादी कहकर
जो दरअसल बेरोज़गारी-अभाव के आतंक से बौखलाया
मारा-मारा घूम रहा था
जिसके चेहरे पर हल्की दाढ़ी थी
भारत इस भाई का भी तो है

क्या आप इन भाइयों को बता सकते हैं
संविधान में दर्ज़ समता बंधुत्व न्याय स्वतंत्रता धर्मनिरपेक्षता समाजवाद के अर्थ
क्या आप बता सकते हैं इन्हें विकास का अर्थ
क्या आप बता सकते हैं इन्हें नयी शताब्दी का अर्थ
क्या आप बता सकते हैं इन्हें डिज़िटल इंडिया के मायने

ये किससे करें मन की बात
क्या आप बता सकते हैं...





आम जन के लिए

झूठ-मूठ का देश
झूठ-मूठ की संसद
झूठ-मूठ का संविधान
झूठ-मूठ की कचहरियाँ
झूठ-मूठ के दफ्तर
झूठ-मूठ के बैंक
झूठ-मूठ के अन्न
झूठ-मूठ का स्वर्ग...

सचमुच के डंडे
सचमुच की फज़ीहत
सचमुच की जेलें
सचमुच की फाँसी
सचमुच के दु:ख
सचमुच की भूख
सचमुच का जीवन
सचमुच का नरक...





अब यह देश

एक ऐसा अंधा कुआँ है
जिसमें जब भी झाँकिये
किसी किसान की लाश तैरती हुई दिखती है

क्या एक दिन यह कुआँ
लाशों से पट जाएगा?

यह सवाल कोई नहीं पूछता

इस देश को अंधा कुआँ बना देने वाले लोगों को
किसी सवाल से कोई फर्क नहीं पड़ता

कुएँ की जगत पर लोकतंत्र का घास उगी है
जो उदारीकरण की खाद से लहलहाई है
जिसे आराम से चर रहे हैं वक़्त के गदहे...





जिन चीजों का मतलब नहीं होगा

इस विशाल भारत में
मैं हरमेश अपना भारत खोजता हूँ
भारत क्या सिर्फ एक भूगोल का नाम है...

मैं अपने घर में रहता हूँ
मेरे घर का कोई नाम नहीं है
मेरे घर के बगल में कई घर हैं
सबके अपने-अपने घर हैं
सबके घर में अपना-अपना प्यार
बहुत हुआ तो मिल-जुल आये किसी तीज-त्योहार

मैं अपने घर में रहता हूँ और कई बार
मुझे लगता है मैं बेघर रहता हूँ
घर की छप्पर पर रूक नहीं पाती बारिश धूप सर्दी
मैं मौसम की मार हरमेश अपने सिर पर सहता हूँ

मंदिर बहुत हैं
घर बहुत कम हैं
घर में भी मंदिर हैं
मंदिर में मूर्तियाँ रहती हैं
मैं मूर्तियों सा नहीं रहना चाहता हूँ

मैं किसी बात पर अड़ता हूँ
किसी बात से डरता हूँ
किसी से घृणा किसी से मुहब्बत करता हूँ
मैं फैसले करता हूँ
मैं मौके़ आने पर घर बदलता हूँ
आपसे मैं कह सकता हूँ
रहने दीजिए अपने चढ़ावे पान फूल इत्र सुगंध

मैं घर से निकलकर कुछ देर में घर लौटता हूँ
घरों के बीच
मैं बहुत सारे घरों के बारे में सोचता हूँ
घरों के बारे में सोचते हुए मैं
दरअसल घरों में रहनेवाले लोगों के बारे में सोचता हूँ
मुझे उन लोगों के बारे में भी सोचना होगा जिनके घर नहीं हैं

जिनके घर नहीं हैं
दरअसल वे बेघर नहीं हैं
उनके भी घर हैं
उनके घर में भी उनके अपने-अपने डर हैं
उनके पते अभी दर्ज़ होने हैं मतदाता सूची में
उनके पास खोने को कुछ नहीं
पर उन्हें भी दाता होना है
उन्हें ही दरअसल भारत का भाग्यविधाता होना है

घर गिने जाएंगे
जब चुनाव आएंगे
दरअसल जब घिरे गिने जाएंगे तो लोग गिने जाएंगे
उनमें रहनेवाली परेशानियों को नहीं गिना जाएगा
परेशानियाँ अपने नहीं गिने जाने पर घर में कलह मचाएंगी
बरतन बजेंगे
जोर-जोर से लोगों के बोलने की आवाज़े आएंगी
उन आवाज़ों का कोई मतलब नहीं निकाला जाएगा इस जनतंत्र में...

जिन चीज़ों का कोई मतलब नहीं निकाला जाएगा
वे चीजें भी रहती आयी हैं घर में साधिकार
और रहती रहेंगी लगातार...

घर से निकलेंगे लोग
और मैदान में खड़े होंगे तो गाएंगे
राष्ट्रगान
भारत माता की जय बोलेंगे
हाथ लहरा के मुट्ठी बाँध के बोलेंगे
भारत माता की जय
हिन्दू होंगे जो
मुसलमानों को देखकर मुस्काएंगे
मुसलमान होंगे जो नज़रें फेर गुस्साएंगे

भारत माता को कोई मतलब नहीं कौन क्या चिल्लाया
नेता क्या बोला
अफसर क्या बोला
मास्टर क्या बोला
भारत माता को कोई मतलब नहीं कौन क्या चिल्लाया

भारत माता को अपने घर नहीं लाएंगे लोग
भारत माता को अस्पताल नहीं ले जाएंगे लोग
भारत माता को पार्क में नहीं टहलाएंगे लोग
लोग छुट्टियाँ मनाएंगे
सिनेमा देखने जाएंगे
सिनेमा में एक नकली हीरो, हीरो हो जाएगा
असली भारत में एक नकली सिनेमा की तर्ज़ पर कई नकली फिल्में बनेंगी
फिल्मों में गाना होगा नाच होगा लड़ाई होगी
बहुत हुआ तो अंग्रेज होंगे देशभक्त होंगे
भारत माता तो नहीं होगी फिल्मों में
पता नहीं, देशभक्त होंगे या नहीं होंगे दर्शकों में
क्या, आपको क्या लगता है...?

छुट्टियों के बाद अपने-अपने काम पर चले जाएंगे लोग
काम से लौटकर घर आएंगे
बहुत हुआ तो
अपनी-अपनी माता के पैर दबाएंगे लोग
भारत माता फिर किसकी माता है
छब्बीस जनवरी के दिन राजमिस्त्री धड़ाधड़ घर की ईंटे जोड़ते हुए
मज़ाक में पूछता है
भारत माता किसकी माता है...
इस सवाल का कोई मतलब नहीं होगा जनतंत्र में
पर जिन चीज़ों का मतलब नहीं होगा...
वे भी होंगी.






दफ़्तर

मेरे घर से दफ़्तर की दूरी
अलग-अलग जगह रहने वाले मेरे सहकर्मियों के लगभग बराबर
एक तरफ से मापो तो सोलह घंटे है
दूसरी तरफ से आठ घंटे है
रोज़-रोज़ जंजीर गिराओ तो कुछ समय जो कि दूरी का भी एक पैमाना है
इधर से उधर सरक जाता है
इस तरफ से मापो तो भागाभागी है, काँव-कीच है
एसाइनमेंट, कांट्रैक्ट, सेलरी, एबसेंट आदि की सहूलियतें हैं
उस तरफ से मापो तो थोड़ी सी नींद, थोड़ी सी प्यास है, थोड़ी सी छुट्टियों
रविवार, बाज़ार, इंडिया गेट, लोटस टेम्पल, बिड़ला मंदिर आदि के पड़ाव हैं
इन सारी चीज़ों का अर्थ राजधानी के दफ़्तर के निमित्त जिंदगी में
लगभग एक ही है
हर चीज़ में थोड़ी सी रेत है, चपचप पसीना है, बजता हुआ हार्न है
इस दूरी को जो रेल मापती है उसमें खूब रेलमपेल है
इन सब चीज़ों को जो घड़ी नचाती है
उसमें चाँद, आकाश, प्रेम, नफरत, उमंग, हसरत, सपने सेकंड के पड़ाव भर हैं
यह साजि़शों, चालाक समझौतों, कनखियों और सामाजिक होने के आवरण में
अकेला पड़ जाने की हाहा...हीही...हूहू...में व्यक्त समय है
इस घड़ी की परिधि घिसे हुए रूटीन की दूरी भी है
समाज की सारी घटनाएं प्रायोजित हैं जल्दी विस्मृत होती हैं अच्छा है अच्छा है...

दफ़्तर और घर के बीच
आ-जा रही जि़ंदगी में कोई दोस्त न दुश्मन है
सब सि़र्फ मौ़के का खेल है
यों ही नहीं बदल जाता है रोज राष्ट्रीय राजनीति में सांप्रदायिकता का मुहावरा
ये सारे लोग लगभग एक जैसे जो चारों ओर फैल गये
इनकी जि़ंदगी में
थोड़ा-सा कजऱ्, थोड़ा-सा बैंक बैलेंस
थोड़ा-सा मंजन घिसा हुआ ब्रश है
बगैर साबुन की साफ़-शफ़्फ़ाक कमीज़ है पैंट है टाई है
आटो मेट्रो लोकल ट्रेन और उनका एक घिसा हुआ पास है
सुबह का दस है, शाम का दस है
बाकी सब धूल है
जो पैर से उड़ कर सिर पर
सिर से उड़ कर पैर पर बैठती रहती है
और पूरा शरीर उस उड़ान की बीट से पटा रहता है
महँगी कार में चलने वाले अपनी जानें यह कविता
दूरी के बारे में सोचने वालों की कविता है

जैसे मेरी सुबह दफ़्तर जाने के लिए होती है
और शाम दफ़्तर से घर लौट आने के लिए
दोपहर दफ़्तर के लंच आवर के लिए
रात में मैं दफ़्तर जाने के लिए आराम करता हूँ सोता हूँ
उसके पहले टीवी देखता हूँ
बीवी को गले लगाता हूँ
उसके हाथों का बनाया खाना खाकर
उसकी बाहों में जल्दी सो लेता हूँ
कि सुबह जब हो
मेरे दफ़्तर पहुँचने में तनिक देर नहीं हो
तीन दिन की थोड़ी-थोड़ी देर पूरे एक दिन का
भरपूर काम करने के बावजूद आकस्मिक अवकाश होती है

मैं दफ़्तर के सपने देखता हूँ
थोड़ी देर सहकर्मियों के षड्यंत्र सूँघता हूँ
जिससे बहुत तेज़ बदबू आती है
इस बदबू में मुझे धीरे-धीरे बहुत मज़ा आता है
मैं नींद में बड़बड़ाता हूँ
बॉस को चूतिया कह कर चिल्लाता हूँ मैं उसका कालर पकड़ लेता हूँ और वह मेरा
मैं हाथ-पैर भांज-भांज कर
बॉस की, कलीग की, सीनियर की, जूनियर की
दफ़्तर के कोने में काजल लगाए बैठी उस लड़की की ऐसी-तैसी कर देता हूँ
इस तरह चरम सुख पाता हूँ मैं
मेरे इस करतब को देख कर
नहीं जानता बगल में जग गयी पत्नी पर क्या गुज़रती है
जैसा कि उसे मैं जितना जानता हूँ हतप्रभ होती होगी
कहती होगी बड़े वैसे हैं ये या कुछ नहीं कहती होगी मन में क्या सोचती होगी कौन जाने

सुबह उठ कर पत्नी चाय बनाती है मेरी नींद के बारे में पूछती है
मैं अनसुना करता हूँ अनसुना करता रहता हूँ
और लगा रहता हूँ युद्ध की तैयारी में- एक औसत आदमी जैसा लड़ता है युद्ध
ब्रश, शेविंग, बूट पालिश, स्नान-ध्यान, पूजा-पाठ सब जल्दी में
इस बीच अक्सर भूल जाता हूँ फूल को पानी देना
किसी बच्चे को दो झापड़ मारता हूँ
पिता कहते हैं जैसे-जैसे मुझे समझदार होना चाहिए मैं चिड़चिड़ा होता जा रहा हूँ

दफ़्तर जाकर काम निपटाता हूँ
इसको डाँटता हूँ उससे डाँट खाता हूँ
दफ़्तर में ढेर सारे गड्ढे
इसमें गिरता हूँ, उसे फाँदता हूँ
यहाँ डूबता हूँ वहाँ निकलता हूँ
कुर्सी तोड़ता हूँ कान खोदता हूँ
तीर मारता हूँ अपनी पीठ ठोकता हूँ

अखबार पढ़ता हूँ देश में तरह-तरह के फैसले हो रहे हैं
प्रधानमंत्री, फला मंत्री इस देश जा रहे हैं उस देश जा रहे हैं
देश में यहाँ-वहाँ बम फूट रहे हैं
इनमें मुसलमानों के नाम आते हैं
और एक दिन कहीं किसी साध्वी के हाथ होने के भी सबूत मिलते हैं
तो तमाम राष्ट्रवादी उसकी संतई और विद्वता के किस्से बताने लगते हैं
उसे चुनाव लड़ाने लगते हैं
किसी प्रांत में कुछ लोग इसाइयों की सफ़ाई में लग जाते हैं
हमारे दफ़्तर में इससे उत्तेजना फैलती है
इस आधार पर फ़ाइलों को लेकर भी साजि़शें होने लगती हैं
फिर कहा जाता है कि देश के कर्णधार ही साले पगले और भ्रष्ट हैं
तो हम जो कुछ कर रहे हैं कौन गलत कर रहे हैं
अलग-अलग गुट बन जाते हैं
और अपने गुट के कर्णधार को कुछ कहे जाने पर जैसे सबकी फटने लगती है
गुस्सा करने लगते हैं लोग गाली-गलौज़
प्रमोशन करने-कराने-रोकने का यह एक आधार बन जाता है...बनने लगता है
क्या जानते हैं कर्णधार कि उनके एक गलत ़फैसले से ढह जाते हैं
कितने कर्मचारियों के घर

हमने अपने-अपने घरों में मनोरंजन के लिए टीवी लगा रखा है
यह कम जि़म्मेदार है नहीं है हमारे  द्रोहपूर्ण ज्ञान के विकास में
यहीं से हम सीख लेते हैं नयी-नयी गालियां, डिस्को,
गुस्सा, प्यार करना और अवैध सम्बन्ध बनाना
और दफ़्तर में उसकी आज़माइश करना चाहते हैं
वहाँ एक से एक अच्छी चीज़ें हैं
नचबलिए है, लाफ़्टर शो है, टैलेंट हंट हैं, क्रिकेट मैच, बिग बॉस और
एकता कपूर के धारावाहिक
पर मैं सोचता हूँ इससे अपन का क्या
दफ़्तर न हो तो पैसा न मिले
पैसा न मिले तो केबल कट जाए
फिर ये साले रहें न रहें
भाड़ में जाए सब कुछ
गिरे शेयर बाज़ार लुढ़के रुपया
सुनते हैं गिरता है रुपया तो अपन की गरीबी बढ़ती है- बढ़ती होगी
अपन का क्या अपन कर ही क्या सकते हैं

बस सलामत रहे नौकरी
बॉस थोड़ा बदतमीज़ है
कलीग साले धूर्त हैं
कोई नहीं,
कहाँ जाइएगा सब जगह यही है
अपन ही कौन कम हैं

राजधानी में इधर बहुत बम विस्फ़ोट हो रहे हैं
क्या पता किसी दिन अपन भी किसी ट्रेन के इंतज़ार में ही निपट जाएं
माँ रोज़ सचेत करती है
बेटा ज़माना बहुत बुरा हो गया है
खाक बुरा हो गया है
हो गया है तो हो गया है
अपन को कोई डर नहीं
मुझे तो दफ़्तर जाते न डर लगता है न कोई उमंग
न चिंता न खुशी
यही है कि आने-जानेवाली ट्रेन लेट हो
तो थोड़ी बेसब्री जगती है
सरकार पर थोड़ा गुस्सा आता है
बहुराष्ट्रीय कंपनियों पर प्यार उमड़ आता है
वैसे वे कौन-सी दूध की धुली हैं
आदमी तो सब जगह एक से...
__________________________________


हरे प्रकाश उपाध्याय
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
204, सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023/मोबाइल-8756219902

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  1. अलग अलग संदर्भों में देश की आम जनता का ताजा चित्र!

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  2. बहुत प्रभावशाली कविताएँ ।

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  3. बहुत ही अच्छी कविताएं हैं।

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  4. सटीक प्रश्न पूछती कविताएँ

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  5. कल आज और कल को बेपर्दा करती समसामयिक रचनायें, सार्थक सृजन।����।बधाई।
    राजेन्द्र शर्मा

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  6. हरे प्रकाश जी की कहन शैली भिन्न और महीन है. असर देर तक रहती है.

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  7. हरे प्रकाश जी की कविताएँ शिल्प और कथ्य में अद्भुत हैं। कविताओं में सामजिक मूल्यों के साथ-साथ साहित्यिक मूल्यों के क्षरण पर चिन्ताएँ हैं। संतोष और राहत इस बात को लेकर भी है कि अवमूल्यन की आँधी में कोई तो है जो दिया जलाकर आँधी की चुनौतियों को स्वीकार कर रहा है।

    हरे प्रकाश जी की कविताओं में आस्वादनीय इतना कुछ है कि पाठक को तृप्ति अवश्य होती है। अच्छे और मूल्याधारित सृजन के लिए हरे प्रकाश जी रत हैं यह उत्तम बात है ।

    हरे प्रकाश जी की कविताएँ प्रतीकात्मक कथ्य के साथ आगे बढती हैं। बिम्बात्मकता के साथ सामाजिक गतिविधियों से रू-ब-रू कराती हैं । सामाजिक गतिविधियों से रू-ब-रू कराना चित्रात्मकता नहीं है अपितु आत्मबोध के लिए प्लेटफार्म देना है। जहाँ अर्थ प्राप्ति के लिए कुछ बौद्धिक प्रयास करनेऔर अपने अनुभवों को कविता के साथ समायोजित करना होता है। यही इन कविताओं की सम्प्रेषणीयता है। सम्प्रेषणीयता को इस दृष्टि से स्वीकार करने की आवश्यकता है कि कवि पाठकों के अन्तर्मन की , उसकी पीड़ा की,उसके अभावों की बात करता है तो पाठक रसास्वादन के स्तर पर कविताओं को स्वीकृति देते चलते हैं ।साथ ही पाठक अपने अक्स को कविताओं में अनुभव करता है। ईमानदार कविता की सृजनात्मकता के लिए मैं जरूरी भी मानता हूँ।

    हरे प्रकाश जी की कविताएँ विविधता का निर्वहन करती है। शायद वजह हो सकती है - विविध क्षेत्रों में जीवन को लेकर उनकी चिंताएँ । वे पवित्र लोकतंत्र के लिए संभ्य देश चाहते हैं । वे कूटनीति के स्थान पर स्वच्छ राजनीति चाहते हैं । वे निजता के स्थान पर सामाजिकता चाहते हैं। इस तरह की ही बहुत सी बातें और चिन्ताएँ हैं। इच्छाएँ हैं।

    इन कविताओं,को लेकर अलग-अलग जगहों पर राय और अनुभूतियाँ भी भिन्न-भिन्न पाठकों व मित्रों की अलग-अलग हो सकती हैं। कोई कहेगा ये कविताएँ समाज का घोर यथार्थपरक दस्तावेज है तो कोई कहेगा कि कविताओं में वर्णित विद्रूपताएँ स्थान विशेष की स्थितियों से कम है।

    हरे प्रकाश जी की कविताएँ शिल्प और कथ्य में अद्भुत हैं। कविताओं में सामजिक मूल्यों के साथ-साथ साहित्यिक मूल्यों के क्षरण पर चिन्ताएँ हैं। संतोष और राहत इस बात को लेकर भी है कि अवमूल्यन की आँधी में कोई तो है जो दिया जलाकर आँधी की चुनौतियों को स्वीकार कर रहा है।

    हरे प्रकाश जी की कविताओं में आस्वादनीय इतना कुछ है कि पाठक को तृप्ति अवश्य होती है। अच्छे और मूल्याधारित सृजन के लिए हरे प्रकाश जी रत हैं यह उत्तम बात है ।

    हरे प्रकाश जी की कविताएँ प्रतीकात्मक कथ्य के साथ आगे बढती हैं। बिम्बात्मकता के साथ सामाजिक गतिविधियों से रू-ब-रू कराती हैं । सामाजिक गतिविधियों से रू-ब-रू कराना चित्रात्मकता नहीं है अपितु आत्मबोध के लिए प्लेटफार्म देना है। जहाँ अर्थ प्राप्ति के लिए कुछ बौद्धिक प्रयास करनेऔर अपने अनुभवों को कविता के साथ समायोजित करना होता है। यही इन कविताओं की सम्प्रेषणीयता है।

    सम्प्रेषणीयता को इस दृष्टि से स्वीकार करने की आवश्यकता है कि कवि पाठकों के अन्तर्मन की , उसकी पीड़ा की,उसके अभावों की बात करता है तो पाठक रसास्वादन के स्तर पर कविताओं को स्वीकृति देते चलते हैं ।साथ ही पाठक अपने अक्स को कविताओं में अनुभव करता है। ईमानदार कविता की सृजनात्मकता के लिए मैं जरूरी भी मानता हूँ।

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  8. कविताएँ प्रभावशाली हैं। इनका आस्वाद भी अलग क़िस्म का है और इनका आकलन भी अलग क़िस्म का होगा।-शंभु गुप्त

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  9. आश्वस्त करती हैं ,हरेप्रकाश की कवितायें । अच्छी कवितायें लिखी जा रहीं ।

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  10. अच्छी लगीं सभी कविताएं

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  11. हरे प्रकाश जी की कविताएँ सीधे- सीधे जीवन से जुड़ी हुई हैं, संवेदनाओं के साथ सीधे दिल में उतर आती हैं, अपने समय के एक महत्वपूर्ण कवि हैं हरे प्रकाश जी!

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  12. संजय कुमार सिंह
    हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताओं का कण्टेण्ट अपने समय-समाज के यथार्थ को मारक अंदाज में उपस्थित करता है। काव्य-भाषा की व्यंजक है। बोल-चाल की संवाद शैली धूमिल की याद दिलाती है।

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