आज विश्व रंगमंच दिवस है,
यह प्रतिवर्ष २७ मार्च को मनाया जाता है, इस दिन एक अंतरराष्ट्रीय रंगमंच संदेश भी
दिया जाता है. १९६२ में पहला संदेश फ्रांस के ज्यां कोक्तो ने दिया था, वर्ष २००२
में यह अवसर भारत के प्रसिद्ध रंगकर्मी गिरीश कर्नाड को मिला.
२१ वी सदी की हिंदी कविता
के महत्वपूर्ण कवि आशुतोष दुबे की कुछ कविताएँ जो रंगमंच के ही इर्द गिर्द बुनी
गयी हैं. आपके लिए ख़ास इस अवसर पर.
इस प्रस्तुति के साथ
समालोचन दस लाख बार पढ़ी – देखी जा चुकी है. इस कठिन समय में एक पत्रिका के लिए यह
आपका प्यार और विश्वास ही है. शुक्रिया.
आशुतोष दुबे की क वि ता एँ
॥ अभिनेता ॥
दूसरी काया में दूसरा मन भी था
उसे उतरना था दोनों में
उसे उतरना था दोनों में
और फिर केंचुली की तरह
दोनों को छोड़ देना था
दोनों को छोड़ देना था
लौट आना था
पर कुछ कुछ निथर आता था भीतर
उससे जूझते रहना था
उससे जूझते रहना था
उसे परकाया में देख लेने वाले
उसी तरह देखते रहते थे
जब वह परिधान रुपसज्जा और आलोकवृत्त के बाहर
बस खुद की तरह होना चाहता था
उसी तरह देखते रहते थे
जब वह परिधान रुपसज्जा और आलोकवृत्त के बाहर
बस खुद की तरह होना चाहता था
पर वह एक टूटा हुआ दर्पण हुआ
जिसके किरचों में उसकी निभाई भूमिकाएँ बिखर गई थीं
उसे बच बच के निकलना पड़ा
लेकिन रक्तरंजित पैरों के निशान
देखे गए उसके मन के आंगन में
यहाँ से वहाँ तक.
जिसके किरचों में उसकी निभाई भूमिकाएँ बिखर गई थीं
उसे बच बच के निकलना पड़ा
लेकिन रक्तरंजित पैरों के निशान
देखे गए उसके मन के आंगन में
यहाँ से वहाँ तक.
॥ नेपथ्य ॥
मंच पर जितनी थी
उससे ज़्यादा थी हलचल नेपथ्य में
कोई विंग्स के अंधेरे में खड़ा हुआ था
कोई उजाले के ठीक पीछे
सही जगहों पर सही वक़्त पर रोशनी के लिए
कोई किरदार के चेहरे में रंग भरता था
किसी काग़ज़ के पन्ने फड़फ़ड़ाते थे
डोर उधर कहीं से खिंचती थी
पात्र इधर चलते-फिरते थे
वह अंधेरे की सरहद के उस पार
ओझल दुनिया का स्पन्दन था
देखने वाला मंच देखता था
और हो पाता
तो नेपथ्य समझ लेता था.
॥ सूत्रधार ॥
अंत में सभी को मुक्ति मिली
सिर्फ उसी को नहीं
जिसे सुनानी थी कथा
कथा से बाहर आकर
अपने ही पैरों के निशान मिटाते हुए
उसे जाना होगा उन तमाम जगहों पर
जहाँ वह पहले कभी गया नहीं था
देखना और सुनना होगा वह सब
जो अब तक उसके सामने प्रगट नहीं था
और इसलिए विकट भी नहीं
इस मलबे से ऊपर उठकर
उसे नए सिरे से रचना होगा सब कुछ
उन शब्दों में जिन्हें वह पहचानेगा पहली बार
जैसे अंधे की लाठी रस्ते से टकराकर
उसे देखती है
और बढते रहना होगा आगे
कथा के घावों से समय की पट्टियाँ हटाते
अंत में सभी को मुक्ति मिलेगी
सिर्फ उसी को नहीं.
॥ प्रेक्षक ॥
जैसा वह था
नहीं रहा
बत्तियाँ जल जाने के बाद
वह, जो सिर झुकाए उठ रहा है
बाहर निकलने के लिए
कहीं का कहीं निकल गया है
जल में गिरा है कंकर
बन रहे हैं वर्तुल
अंत में क्या थिरेगा
अंत में क्या रहेगा
घर जो पहुँचेगा
कौन होगा?
वह जो बोलेगा
उसमें किसकी आवाज़ होगी?
वह,जो किसी और की कथा
देख आया है अंत तक
अपनी कथा अधबीच से
बदल सकेगा?
चाहे भी,तो
सिर्फ प्रेक्षक रह सकेगा?
॥ रंगशाला ॥
इसे अंधेरे को भी आलोकित करना है. उसके अंधेरेपन को अक्षत
रखते हुए.
यवनिका से इसके सम्बन्ध आज तक रहस्यपूर्ण रहे आए हैं.
हर बार रोशनी से इसे नए सिरे से राब्ता कायम करना होता है.
इसमें वही कथा हर बार नयी हो जाती है.
हर बार सबकुछ फिर से शुरु होता है,जैसे पहली बार होता है.
अपनी पीठ पर संसार, मनुष्य, नियति, ईश्वर के वेताल-रूपकों
को ढोते हुए इसे थकने की इजाज़त नहीं है.
यह थी, है, रहेगी. इसका कोई पटाक्षेप नहीं है.
॥ रस विपत्ति ॥
बस, यही एक क्षण था – नाज़ुक डोर की तरह
समय के आर-पार तना हुआ.
पात्र का स्थायी भाव नट के स्थायी भाव को
बेदखल करने की पुरज़ोर कोशिश के साथ
अब आहिस्ता-आहिस्ता दर्शक के स्थायी भाव पर
काबिज़ होने की तरफ बढ़ रहा था...
बस, यही एक क्षण था – जो चाहे तो अचेत समर्पण में घुल जाता
या सचेत विद्रोह में सिर उठा लेता.
और लो, विद्रोह हो गया.
स्थायी होने का आकांक्षी भाव संचारी होकर
देखते-देखते तितर-बितर हो गया.
इस तरह रस की निष्पत्ति नहीं, विपत्ति हुई.
और अब रंगशाला में अस्थायी अभाव का
रीतापन फैल रहा है...
______________________
आशुतोष दुबे
1963
कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन
की आयतें, विदा लेना बाक़ी रहे
कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा
अंग्रेजी और जर्मन में भी.
अ.भा. माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, केदार सम्मान, रज़ा
पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार.
अनुवाद और आलोचना में भी रुचि.
अंग्रेजी का अध्यापन.
सम्पर्क: 6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर
- 452001 ( म.प्र.)
ई मेल: ashudubey63@gmail.com
दस लाख बार पढ़े जाने और विश्व रंगमंच दिवस की हार्दिक बधाई समालोचन को।
जवाब देंहटाएंसमालोचन के मिलियनेयर होने की बधाई अरूण जी। साहित्य का विकीपीडिया है यह।
जवाब देंहटाएंरंगमंच पर लिखी अच्छी कविताये ।
जवाब देंहटाएंआशुतोष का अंदाज ही अलग है
बेहतरीन कविताएँ. मुखौटों के पीछे मन की स्थिती का मार्मिक चित्रण. नाटक के पटाक्षेप पर अभिनेता, प्रेक्षक, सूत्रधार सभी में हुए रूपांतरण का सजीव चित्र खींचती कविताएँ.
जवाब देंहटाएंरंगमंच पर आशुतोष दुबे जी की बेहतरीन कविताएं. उन्हे पढ़ना हर बार एक अलग रोमांच और शुकून भरा होता है. बेहतरीन सामग्री की वजह से समालोचन पर ट्रैफिक अच्छी है. यूं ही तरक्की करते रहे हैं आप और... बहुत बधाई टीम समालोचन को.
जवाब देंहटाएंसचमुच,इस दिवस के अवसर पर इन शब्दों को समाहित करती कविताओ से बेहतर क्या होगा,,,नेपथ्य,प्रेक्षक,सूत्रधार,रंगशाला,,,सबके चरित्र का सटीक वर्णन
जवाब देंहटाएंअभिनेता, नेपथ्य, सूत्रधार, प्रेक्षक... ये सभी रंगमंच के लिए आवश्यक हैं। इनके बिना रंगमंच अस्तित्वहीन है। रंगमंच दिवस पर इन पर कविता प्रस्तुत करना सरहनीय है। अच्छी कविता के लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंसुंदर रंगो से भरी पूरी कवितायेँ नई सजीवता लाती हैं। बेहद सटीक लिखा।
जवाब देंहटाएंदस लाख बार पढे जाने पर समालोचन को अनेक अनेक बधाई।
अरुण सर आपकी पैनी दृष्टि और सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजों के प्रति आपकी खुली विचारशक्ति और महत्वशीलता ग्रहणीय है जो आपके बेबाकी से किये गए काम को दर्शाती है पुनः बधाई आपको।
अच्छी कविताएँ हैं आशुतोष जी की। हार्दिक बधाइयाँ। सादर,
जवाब देंहटाएंदेखने वाला मंच देखता था
जवाब देंहटाएंऔर हो पाता
तो नेपथ्य समझ लेता था.
_____________________________
रंगमंच के इधर उधर बुनी बेहतरीन कविताएँ
एक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.