इटली के मशहूर कथाकार Italo Calvino (15 October 1923 – 19 September 1985) के अंतिम उपन्यास Mr.
Palomar (1983, tr. William Weaver
1985)
के एक अंश ‘the naked bosom’ का यह हिंदी अनुवाद इसके अंग्रेजी अनुवाद से सुशांत
सुप्रिय ने किया है.
सुशांत सुप्रिय के अनुवादों की किताब ‘विश्व कि चर्चित कहानियाँ’ इस वर्ष
‘अंतिका’ से प्रकाशित हुई है.
समुद्र तट पर अकेले टहलते हुए श्रीमान पालोमर रेत पर लेटी एक युवा स्त्री के
अनावृत उरोजों को देखकर दुविधा में पड़ जाते हैं कि देखें कि नहीं.
अगर नहीं देखते हैं तो यह नग्नता पर उनकी प्रतिक्रियावादी सोच कही जायेगी. अगर
देखते हैं तो?
वह एक दार्शनिक की तरह अपने देखने, पुरुष दृष्टि और स्त्री के वस्तुकरण पर
सोचते हैं.
यह दिलचस्प उधेड़बुन अब आपके समक्ष है.
इतालवी कहानी
अनावृत उरोज
इतैलो कैलविनो
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय
श्री पालोमर एक लगभग सुनसान समुद्र-तट पर चले जा
रहे हैं. उन्हें वहाँ इक्के-दुक्के स्नान करने वाले ही दिखते हैं. तट की रेत पर
अनावृत उरोजों वाली एक युवती धूप सेंकती हुई लेटी है. श्री पालोमर स्वभाव से ही एक
सतर्क व्यक्ति हैं. वे समुद्र और क्षितिज की ओर देखने लगते हैं. वे जानते हैं कि
ऐसे अवसर पर किसी अजनबी के अचानक क़रीब आ जाने पर स्त्रियाँ जल्दी से स्वयं को ढँक
लेती हैं. पर उन्हें यह बात इसलिए सही नहीं लगती क्योंकि यह शांति से धूप सेंक रही
स्त्री के लिए एक मुसीबत होती है, जबकि वहाँ से गुज़र रहा पुरुष यह महसूस करता है जैसे वह वहाँ एक घुसपैठिया हो.
और नग्नता के विरुद्ध जो वर्जना है, अप्रत्यक्ष रूप से उसकी पुष्टि हो जाती है. किसी भी परिपाटी का अधूरा सम्मान
करने से आज़ादी और स्पष्टवादिता की बजाए असुरक्षा और व्यवहार की असंगतता को बल
मिलता है.
इसलिए जैसे ही श्री पालोमर कुछ दूरी पर युवती के नग्न धड़ की धुँधली कांस्य-गुलाबी रूप-रेखा देखते हैं, वे जल्दी से अपना सिर इस तरह मोड़ लेते हैं कि उनकी दृष्टि का कोण शून्य में लटका हुआ दिखे. इस तरह वे लोगों के गिर्द मौजूद अदृश्य सीमा के प्रति शिष्ट सम्मान की गारंटी देते हुए लगते हैं.
अब क्षितिज साफ़ दिख रहा है. श्री पालोमर अब बिना हिचके अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमा सकते हैं. जब वे आगे बढ़ना शुरू करते हैं तो वे सोचते हैं कि इस तरह का अभिनय करके वे अनावृत उरोजों को देखने की अपनी अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहे हैं. पर दूसरे शब्दों में वे अंतत: उसी परिपाटी को सुदृढ़ कर रहे हैं जो अनावृत उरोजों के किसी भी दृश्य को निषिद्ध क़रार देती है. यानी वे उरोजों और अपनी आँखों के बीच एक तरह की लटकी हुई मानसिक चोली की सृष्टि कर लेते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि के घेरे के किनारे तक जो चमक पहुँची थी, वह उनकी आँखों को हरी-भरी और सुखकर लगी थी. दूसरे शब्दों में कहें तो उनका अनावृत उरोजों को न देखने का प्रयत्न करना पहले से यह मान लेना है कि दरअसल वे उसी नग्नता के बारे में सोच रहे हैं और उससे आक्रांत हैं. यह एक अविवेकी और प्रतिगामी रवैया है.
इसलिए जैसे ही श्री पालोमर कुछ दूरी पर युवती के नग्न धड़ की धुँधली कांस्य-गुलाबी रूप-रेखा देखते हैं, वे जल्दी से अपना सिर इस तरह मोड़ लेते हैं कि उनकी दृष्टि का कोण शून्य में लटका हुआ दिखे. इस तरह वे लोगों के गिर्द मौजूद अदृश्य सीमा के प्रति शिष्ट सम्मान की गारंटी देते हुए लगते हैं.
अब क्षितिज साफ़ दिख रहा है. श्री पालोमर अब बिना हिचके अपनी आँखों की पुतलियाँ घुमा सकते हैं. जब वे आगे बढ़ना शुरू करते हैं तो वे सोचते हैं कि इस तरह का अभिनय करके वे अनावृत उरोजों को देखने की अपनी अनिच्छा का प्रदर्शन कर रहे हैं. पर दूसरे शब्दों में वे अंतत: उसी परिपाटी को सुदृढ़ कर रहे हैं जो अनावृत उरोजों के किसी भी दृश्य को निषिद्ध क़रार देती है. यानी वे उरोजों और अपनी आँखों के बीच एक तरह की लटकी हुई मानसिक चोली की सृष्टि कर लेते हैं, क्योंकि उनकी दृष्टि के घेरे के किनारे तक जो चमक पहुँची थी, वह उनकी आँखों को हरी-भरी और सुखकर लगी थी. दूसरे शब्दों में कहें तो उनका अनावृत उरोजों को न देखने का प्रयत्न करना पहले से यह मान लेना है कि दरअसल वे उसी नग्नता के बारे में सोच रहे हैं और उससे आक्रांत हैं. यह एक अविवेकी और प्रतिगामी रवैया है.
सैर करके लौटते समय श्री पालोमर धूप-स्नान कर
रही अनावृत उरोजों वाली युवती के बगल से दोबारा गुज़रते हैं. इस बार वे अपनी
दृष्टि बिल्कुल सीधी रखते हैं. इसलिए उनकी निगाह एक निष्पक्ष एकरूपता के साथ तट से
टकरा कर लौटती हुई लहरों के झाग पर, किनारे पर लगी नावों पर, रेत पर बिछे बड़े-से तौलिये पर, हल्की त्वचा के चंद्राकार उभार और कुचाग्रों के गहरे प्रभा-मंडल पर, तथा हल्की धुँध में आकाश की पृष्ठभूमि में तट की
धूसर रूप-रेखा पर पड़ती है.
हाँ, यह ठीक है -- टहलते-टहलते अपने कृत्य से प्रसन्न हो कर श्री पालोमर सोचते हैं
: उरोजों को पूरे परिदृश्य में समाहित कर देने में मैं सफल हो गया हूँ. इसलिए मेरी
टकटकी किसी समुद्री पक्षी की टकटकी से अधिक कुछ भी नहीं.
पर क्या यह तरीका सही है -- वे आगे सोचते हैं.
क्या यह ऐसा नहीं है जैसे किसी मनुष्य को वस्तु के स्तर पर ला दिया गया हो, उसे महज़ सामान बना दिया गया हो ? और उससे भी बुरी बात यह कि किसी महिला के
विशिष्ट अंग को वस्तु का दर्ज़ा दे दिया गया हो. क्या शायद मैं पुरुष
श्रेष्ठता-मनोग्रंथि की पुरानी आदत को ही क़ायम नहीं रख रहा, उस मनोग्रंथि को जो सैकड़ों-हज़ारों बरसों से
गुस्ताख़ी की आदत में रूढ़ हो गई है -- वे सोचते हैं.
श्री पालोमर मुड़ते हैं और धूप-स्नान कर रही उस
युवती की ओर दोबारा चल पड़ते हैं. वे अपनी निगाह को समूचे समुद्र-तट पर एक तटस्थ
निष्पक्षता के साथ डालते हैं. वे अपनी निगाह को इस तरह सँवारते हैं कि जैसे ही
युवती के उरोज उनकी दृष्टि के क्षेत्र में आते हैं, उनकी निगाह में एक विचलन स्पष्ट हो जाता है.
जैसे निगाह उस दृश्य से थोड़ा हट गई हो. जैसे दृष्टि लगभग झपट कर खिसक गई हो. वह
निगाह नग्न युवती की कसी हुई त्वचा को छूती है, फिर लौट आती है, गोया एक विशेष गरिमा प्राप्त कर लेने वाली दृष्टि
को वह थोड़ा चौंक कर सराह रही हो. कुछ पलों के लिए वह सरसरी दृष्टि बीच हवा में
मँडराती है, फिर एक निश्चित दूरी
से उरोजों की उभरी गोलाई के साथ मुड़ जाती है. एहतियात के साथ बच कर निकलती हुई वह
दृष्टि फिर अपने रास्ते पर ऐसे चल पड़ती है, जैसे कुछ हुआ ही न हो.
मुझे लगता है कि इस तरह से मेरी स्थिति बिल्कुल
स्पष्ट हो गई है और अब कोई संभावित ग़लतफ़हमी नहीं होगी -- श्री पालोमर सोचते हैं.
लेकिन क्या अनावृत युवती के उरोजों के चंद्राकार उभार को छू कर लौटने वाली निगाहों
को अंतत: श्रेष्ठता-मनोग्रंथि का परिचायक ही नहीं माना जाएगा ? एक ऐसी मनोग्रंथि जो उरोजों के अस्तित्व और उनके
अर्थ को कम करके आँक रही है ? उन्हें हाशिए पर या कोष्ठक में रख रही है ? यानी उन उरोजों को मैं दोबारा उस नीम-अँधेरे के
सुपुर्द कर रहा हूँ जहाँ यौन-सनक से भरी सदियों की अतिनैतिकता ने कामना को पाप का
दर्ज़ा दे कर रख छोड़ा है ..
यह व्याख्या श्री पालोमर के सर्वोत्तम इरादे के
विरुद्ध जाती है. हालाँकि वे मनुष्यों की उस पीढ़ी से आते हैं जिसके लिए नारी के
उरोजों की नग्नता का संबंध कामुक आत्मीयता के विचार से जुड़ा है, किंतु फिर भी वे रिवाजों में आए इस परिवर्तन का
स्वागत करते हैं और इसे सराहते हैं. यह एक अधिक उदारवादी समाज का प्रतिबिम्ब है, उसका सूचक है. इसके अलावा उनके लिए यह दृश्य
विशेष रूप से सुखकर है. यही वह तटस्थ प्रोत्साहन है जो वे अपनी दृष्टि के माध्यम
से व्यक्त करना चाहते हैं.
अचानक श्री पालोमर अपना रंग बदलते हैं. वे धूप
सेंक रही अनावृत उरोजों वाली लेटी हुई युवती की ओर दोबारा दृढ़ क़दमों से चल पड़ते
हैं. अब उनकी दृष्टि भू-दृश्य पर एक सरसरी चपल निगाह डाल कर युवती के अनावृत
उरोजों पर विशेष सम्मान के साथ देर तक ठहरेगी. किंतु वह निगाह जल्दी से अनावृत उरोजों
को सद्भाव और कृतज्ञता के आवेग के साथ सम्पूर्ण परिदृश्य में समाहित कर लेगी. उस
परिदृश्य में जिसमें सूर्य और आकाश होंगे, चीड़ और देवदार के झुके हुए दरख़्त होंगे, रेत का टीला होगा, समुद्र-तट होगा, पत्थर होंगे, बादल होंगे, समुद्री शैवाल होंगे, और वह ब्रह्मांड होगा जो उन कुचाग्रों के
प्रभा-मंडल के गिर्द परिक्रमा करेगा.
यह क़दम उस अकेली धूप सेंकने वाली युवती को
स्थायी रूप से आश्वस्त करने के लिए पर्याप्त होना चाहिए और सभी पतित पूर्व-धारणाओं
का क्षरण हो जाना चाहिए. किंतु जैसे ही श्री पालोमर अनावृत उरोजों वाली उस युवती
के क़रीब पहुँचते हैं, वह अचानक चिहुँक कर उठती है, एक बेचैन झुँझलाहट के साथ खुद को ढँक लेती है और अपने कंधे उचका कर चिढ़ी हुई
हालत में वहाँ से चलती बनती है, गोया वह किसी लम्पट के कष्टकर दुराग्रह से बचने का प्रयत्न कर रही हो.
असहिष्णु परम्परा का महाभार सबसे प्रबुद्ध
इरादों को भी समझने की योग्यता के मार्ग में बाधक होता है -- अंतत: श्री पालोमर
कड़वाहट के साथ इस नतीजे पर पहुँचते हैं.
_______________________________
सुशांत सुप्रिय
A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव
खंड,
इंदिरापुरम, ग़ाज़ियाबाद – 201014(उ.प्र.)
मो : 8512070086
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
ई-मेल : sushant1968@gmail.com
दरअसल, पालोमर की सारी उलझन परिपाटी को लेकर ही थी, जिसके पूर्ण सम्मान के ख़ातिर ही वह समुद्र सैकत पर धूप सेंकती खुले उरोजों वाली युवती की उपेक्षा करना नहीं चाहता था । परिपाटी और उसका संयत्न पालन - इन दोनों के बीच जो एक स्वाभाविक अन्तरद्वंद्व है, वही पालोमर की इस समूची उधेड़बुन के मूल में है । धूप सेंकती खुले उरोजों वाली युवती पालोमर के लिये सामान्य बात नहीं, एक प्रकार का आमंत्रण था, जो इस परिपाटी में नहीं पड़ता है । असल में जिसे वह परिपाटी समझ रहा है, वह उसके लिये परिपाटी है नहीं । इस नई परिपाटी को उसने अपने अंदर से प्राप्त नहीं किया है । वह शुरू से इस कथित परिपाटी में अनधिकृत व्यक्ति की तरह शामिल हो रहा है, वह बाहरी है । इसीलिये इतनी उधेड़बुन में है और अंत में युवती के अपने रंग को भंग करके ही छोड़ता है । वह इस दुनिया का आउटसाइडर है ।
जवाब देंहटाएंपालोमर के युवती के निकट जाने पर उसका बिदक जाना बताता है कि जिसे लेखक ने परिपाटी कहा था और जिसके पूर्ण सम्मान की बात से कहानी शुरू होती है, उसके पालन की अपनी कुछ मर्यादाएँ भी थी जिन्हें पालोमर जानता ही नहीं था । इसमें युवती और प्रकृति के बीच किसी तीसरे का होना तभी तक महत्वहीन था जब तक कि वह तीसरे के लिये भी महत्वहीन हो, अर्थात उसमें उसकी कोई भूमिका न हो । पालोमर घूम-घूम उसके निकटतर होता हुआ प्रकृति और युवती के अपने आत्मनिष्ठ वलय में बलात् प्रवेश कर रहा था ।
नया मुल्ला प्याज़ ज्यादा खाता है वाली कहावत इसी अश्लीलता को व्यक्त करती है । पालोमर निश्चित तौर पर युवती की तुलना में पिछली पीढ़ी का व्यक्ति होगा जो नये मूल्य बोध को अपनाने की उधेड़बुन में है ।
कहा.नी का स्वभाविक अनुवाद । सुशांत को इस कला में महारत हासिल है । मैंने उनकी अनूदित कहा.नियां पढ़ी है । इन कहा.नियों में जीवन के विरल अनुभवों को देखा जा सकता है
जवाब देंहटाएंजिन विषयों को हम अछूत समझते है वे किस तरह विदेशी लेखको के कथानक बनते है । यह देखना दिलचश्फ होगा । आप दोनो को बधाई ।
उत्तम अनुवाद. पढ़ते हुए सहज लगा.
जवाब देंहटाएंस्वाभाविक सहज अनुवाद ।सुशांत सुप्रिय जी को साधुवाद
जवाब देंहटाएंबेहतरीन लेख।
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