चित्र इंडिया वाटर पोर्टल से साभार |
डॉ. ब्रजरतन जोशी की पुस्तक ‘जल और समाज’ २००५ में प्रकाशित हुई थी, २०१७ में इसका परिवर्धित संस्करण आया है. इसकी एक भूमिका प्रसिद्ध गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र ने लिखी है ज़ाहिर इस भूमिका की भी एक अलग महत्ता है.
कृति की समीक्षा मनु मुदगिल ने की है जो
पर्यावरण लेखन के लिए जाने जाते हैं.
भूमिका
“श्रद्धा के बिना शोध का काम कितने ही परिश्रम से किया जाए, वह आंकड़ों का एक ढेर बन जाता है. वह कुतूहल को शांत कर सकता
है, अपने सुनहरे अतीत का गौरवगान बन
सकता है, पर प्रायः वह भविष्य की कोई दिशा
नहीं दे पाता.
ब्रज रतन जोशी ने बड़े ही जतन से जल और समाज में ढ़ेर-सारी बातें एकत्र की हैं
और उन्हें श्रद्धा से भी देखने का, दिखाने का प्रयत्न किया
है, जिस श्रद्धा से समाज ने पानी का
यह जीवनदायी खेल खेला था.
प्रसंग है रेगिस्तान के बीच बसा शहर बीकानेर. देश में सब से कम वर्षा के
हिस्से में बसा है यह सुन्दर शहर. नीचे खारा पानी. वर्षा जल की नपी-तुली, गिनी-गिनाई बूंदें. आज की दुनिया जिस वर्षा को
मिली-मीटर/सेंटी-मीटर से जानती हैं उस वर्षा की बूंदों को यहां का समाज रजत बूंदों
में गिनता रहा है. ब्रज रतन जी उसी समाज और राज के स्वभाव से यहां बने तालाबों का
वर्णन करते हैं. और पाठकों को ले जाते हैं एक ऐसी दुनिया, काल-खण्ड में जो यों बहुत पुराना नहीं है पर आज हमारा समाज
उस से बिलकुल कट गया है.
ब्रज रतन इस नए समाज को उस काल-खण्ड में ले जाते हैं जहां पानी को एक अधिकार
की तरह नहीं एक कर्तव्य की तरह देखा जाता था. उस दौर में बीकानेर में कोई 100
छोटे-बड़े तालाब बने हैं. उन में से दस भी ऐसे नहीं थे, जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो. नरेगा, मनरेगा के इस दौर में कल्पना भी नहीं कर सकते कि आर्थिक रूप
से संचित, कमजोर माने गए, बताए गए समाज के लोगों ने भी अपनी मेहनत से तालाब बनाए थे.
ये तालाब उस समाज की उसी समय प्यास तो बुझाते ही थे. यह भू-जल एक पीढ़ी, एक मोहल्ले, एक समाज तक सीमित नहीं
रहता था. ऐसी असीमित योजना बनाने वाले आज भुला दिए गए हैं.
ब्रज रतन इन्हीं लोगों से हमें दुबारा जोड़ते हैं. वे हमें इस रेगिस्तानी
रियासत में संवत् १५७२ में बने संसोलाव से यात्रा कराना शुरू करते हैं और ले आते
है सन् १९३७ में बने कुखसागर तक. इस यात्रा में वे हमें बताते चलते हैं कि इसमें
बनाना भी शामिल है और बड़े जतन से इनका रख-रखाव भी. उसके बड़े कठोर नियम थे और पूरी
श्रद्धा से उनके पालन का वातावरण था जो संस्कारों के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी
पीढ़ी चलता जाता था.
लेकिन फिर समय बदला. बाहर से पानी आया,
आसानी से
मिलने लगा तो फिर कौन करता उतना परिश्रम उन तालाबों को रखने का. फिर जमीन की कीमत
आसमान छूने लगी. देखते ही देखते शहर के और गांवों तक के तालाब नई सभ्यता के कचरे
से पाट दिए गए हैं. पर आसानी से मिलने वाला यह पानी आसानी से छूट भी सकता है. उसके
विस्तार में यहां जाना जरूरी नहीं.
इसलिए ब्रज रतन जोशी का यह काम एक बीज की तरह सुरक्षित रखने लायक है. यह शहर
का इतिहास नहीं है. यह उसका भविष्य भी बन सकता है.”
____________ : अनुपम मिश्र
हर शहर को चाहिए जल
और समाज
मनु मुदगिल
यह पुस्तक उस तालाब व्यवस्था को प्रस्तुत करती
है जिसने बीकानेर के इतिहास को सींचा है और उसके भविष्य को लेकर आशा भी बंधाती है.
किसी भी चीज़ की कमी उसे महत्वपूर्ण बना देती है. इसी लिए राजस्थान ने हमेशा ही पानी को किसी भी और जगह से अधिक पूजा है. कम बरसात और खारे भूजल से बाध्य लोगों ने न सिर्फ सुंदर और स्थिर संरचनाएं बनायीं हैं बल्कि उनसे सम्बन्धित सतत प्रथाएं भी रची हैं.
सभी छोटे बड़े जलाशयों की जानकारी का संग्रह होने के अलावा, ‘जल और समाज’ भूगर्भशास्त्र, भूगोल और ज्योतिष की मिली जुली समझ द्वारा तालाब के लिए जमीन की चयन प्रक्रिया को भी चिन्हित करती है. मिट्टी की गुणवता और उसके जल को रोकने की क्षमता का परीक्षण तथा विशेष औजारों द्वारा तालाबों का निर्माण और पानी के स्तर का माप अपने आप में उस समय का अनूठा विज्ञान था.
लेखक की इस विषय में शोध पर दक्षता पुस्तक के परिशिष्ट में और प्रबल दिखती है जहाँ अभिलेख सूचना संग्रहण से प्राप्त दस्तावेजों द्वारा रियासतकालीन बीकानेर के बन्दोबस्त में आये विभिन्न तलाईयों का आगोर भूमि सहित ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है. इसी तरह इन जलाशयों पर लगने वाले तिथि अनुसार मेले और आगोर में पाई जाने वाली औषधियों की जानकारी भी उल्लेखनीय है. सामग्री स्रोतों की पूरी जानकारी तथा अभिलेखीय सन्दर्भों के साथ साथ बीकानेर का जलाशय मानचित्र इस पुस्तक को विश्वसनीय और सहज बना देते हैं.
किसी भी चीज़ की कमी उसे महत्वपूर्ण बना देती है. इसी लिए राजस्थान ने हमेशा ही पानी को किसी भी और जगह से अधिक पूजा है. कम बरसात और खारे भूजल से बाध्य लोगों ने न सिर्फ सुंदर और स्थिर संरचनाएं बनायीं हैं बल्कि उनसे सम्बन्धित सतत प्रथाएं भी रची हैं.
डॉ. ब्रजरत्न जोशी की पुस्तक ‘जल और समाज’ हमें इन्ही संरचनाओ और प्रथाओं से अवगत कराती है जिन्हें बीकानेर
के लोगों ने स्थापित किया था. डॉ. जोशी लम्बे वार्तालापों और शोध से पानी और शहरी जीवन
के जटिल ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पहलुओं को खोज कर लाये हैं. यह प्रस्तुति इस लिए भी
विशेष है क्योंकि इसमें ऐसी पीढ़ी की आवाज़ है जिसे हम आज तेज़ी से खोते जा रहें हैं. और
उसके साथ ही खो रहें हैं विगत काल की प्रज्ञा को भी.
‘जल और समाज’ महान पर्यावरणविद अनुपम मिश्र की रचना ‘आज भी खरे हैं तालाब’ से प्रेरित है और एक शहर पर केन्द्रित हो कर भी उस कार्य को आगे ले जाती है. हर शहर और बस्ती को ऐसी रचना चाहिए जो उसके जल विरासत
को लिखे क्योंकि यही संरचनाएं उसके वर्तमान और भावी जल संकट का निदान हैं.
जैसा की अनुपम मिश्र इस किताब की भूमिका में लिखते हैं: “यह शहर का इतिहास नहीं है. यह उसका भविष्य भी
बन सकता है.”
बीकानेर के सौ से ज्यादा तालाबों और तालाइयों
में से दस भी ऐसे नहीं जिन पर राज ने अपना पूरा पैसा लगाया हो. लोगों ने खुद मेहनत
की और धन और सामान इकट्ठा कर इनका निर्माण और संरक्षण किया. यह जलाशय सिर्फ पानी
के भंडार नहीं थे. इनके आसपास घने पेड़ और जड़ी बूटियां इन्हें जैव विविधता केंद्र
बनाते रखती थीं, जहाँ वन, वन्य जीव और
इंसान का अदभुत मेल होता था. जहाँ लहरों में तैराकी का प्रशिक्षण दिया जाता था और आस-पास कुश्ती के
अखाड़े कुशल पहलवान बनाते थे, वहीं ज्ञानात्मक, धार्मिक और सांस्कृतिक गोष्ठियां मन को पोषण करती थीं.
अपनी इतनी उपयोगिताओं की वजह से तालाब हमेशा
साफ़ सुथरे रहे और इनका जल निर्मल रहा. कुछ जलाशयों की देख रेख के लिए रखवाले भी रखे
जाते थे. शुभ अवसरों पर इन्हें भेंटे दी जाती थीं. खास तौर पर शादी के बाद नव दम्पति का
अपने समाज के तालाब पर जाना और उनके संरक्षकों का अभिवादन करना अनिवार्य था.
जातिवाद को बीते भारतीय युग का अभिशाप माना
जाता है परन्तु जैसा कि यह पुस्तक दर्शाती है यह विसंगति पिछले कुछ दशकों में
ही ज्यादा दृढ़ हुई है. बीकानेर में काफी तालाब अलग-अलग जाति और समाज ने बनवाये और उनका उपयोग भी सार्वजनिक रहा. मिसाल के तौर पर खरनाडा तलाई ब्राह्मण सुनारों ने बनवाई हुई थी पर इस पर लगने वाले मेले में सभी की भागीदारी रहती थी.
इसी तरह स्न्सोलाव तालाब, जिसे सामो जी ने बनवाया, गेमना पीर के मेले से लौट कर आने वाले मुस्लिम श्रदालुओं का
विश्राम स्थल रहा. उस इलाके के ब्राह्मण इन यात्रियों की देखभाल करते थे.
चित्र इंडिया वाटर पोर्टल से साभार |
सभी छोटे बड़े जलाशयों की जानकारी का संग्रह होने के अलावा, ‘जल और समाज’ भूगर्भशास्त्र, भूगोल और ज्योतिष की मिली जुली समझ द्वारा तालाब के लिए जमीन की चयन प्रक्रिया को भी चिन्हित करती है. मिट्टी की गुणवता और उसके जल को रोकने की क्षमता का परीक्षण तथा विशेष औजारों द्वारा तालाबों का निर्माण और पानी के स्तर का माप अपने आप में उस समय का अनूठा विज्ञान था.
लेखक की इस विषय में शोध पर दक्षता पुस्तक के परिशिष्ट में और प्रबल दिखती है जहाँ अभिलेख सूचना संग्रहण से प्राप्त दस्तावेजों द्वारा रियासतकालीन बीकानेर के बन्दोबस्त में आये विभिन्न तलाईयों का आगोर भूमि सहित ब्यौरा प्रस्तुत किया गया है. इसी तरह इन जलाशयों पर लगने वाले तिथि अनुसार मेले और आगोर में पाई जाने वाली औषधियों की जानकारी भी उल्लेखनीय है. सामग्री स्रोतों की पूरी जानकारी तथा अभिलेखीय सन्दर्भों के साथ साथ बीकानेर का जलाशय मानचित्र इस पुस्तक को विश्वसनीय और सहज बना देते हैं.
‘जल और समाज’
स्थानीय बोली की मिठास भी ले कर आती है. जल से
जुडी आंचलिक कहावतों के साथ साथ, सन १९७५ में लिखी उदय चंद जैन जी की बीकानेरी गज़ल को विशेष स्थान मिला है. यह गज़ल शहर के बाज़ार, लोगों और ख़ास तौर पर इसके तालाबों का सुंदर वर्णन करती है.
अफ़सोस की बात है कि उन सौ ताल, तलाइयों में से
अब एक प्रतिशत भी अच्छी दशा में नहीं है. पाइपलाइन के
विस्तार ने घर घर में पानी पहुंचा दिया जिससे तालाबों की महत्ता घटती गयी और इनके
आगोरों में अतिक्रमण और खनन की आंधी चल पड़ी. ज्यादातर तालाब किसी व्यक्ति विशेष के
नाम पर नहीं थे जिससे कि क़ानूनी करवाई में भी मुश्किलें आई. पूर्व के सावर्जनिक
तालाबों से वर्तमान के बोतल बंद पानी की तुलना करते हुए यह पुस्तक समाज के जल के
साथ बदलते रिश्ते पर भी कटाक्ष करती है. जहाँ निजी कंपनिया हमें अपने अधीन बना रही
हैं वहीँ तालाब आत्मनिर्भरता के सूचक थे. जहाँ पाइपलाइन पर करोड़ों रुपये खर्चे
जाने पर भी पानी की सप्लाई की समस्या बनी रहती है वहीँ तालाब उर्जा और धन दोनों
पक्षों से उपादेय रहे. अगर नदियों को बाँधने या बोरवेल से भूजल खींचने के बजाय
तालाबों को संरक्षित किया जाये तो करोड़ों रूपये की बचत की जा सकती थी.
मजेदार बात यह भी है कि तालाब जलवायु परिवर्तन
के सन्दर्भ में भी विधिमान्य हैं. यह न सिर्फ कम बरसात में उपयोगी पाए गये हैं
बल्कि बाढ़ के पानी को भी अपने अंदर समा कर शहरों को खतरे से बचाते हैं. मुंबई और
चेन्नई जैसे शहरों ने अपने तालाबों पर अतिक्रमण कर जो आपदाएं झेली हैं वो जग जाहिर
हैं. इस वजह से तालाब व उससे जुडी संस्कृति का महत्व उस जमाने से ज्यादा इस जमाने
में है.
हालाँकि बीकानेर के कुछ समाजों ने अपने तालाबों
को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है पर उनका दृष्टिकोण आधुनिक भूनिर्माण की तरफ अधिक और प्राकृतिक परिवेश की तरफ कम
रहा है. डॉ. जोशी उन सब ख़ामियों को उजागर करते हैं जिससे बीकानेर में संरक्षण के
भावी कामों में मदद मिलेगी. और शहर भी अगर अपनी जल संस्कृति को ऐसे सन्दर्भों और
विश्लेषणों में पिरो पायें तो वास्तव में वे स्मार्ट सिटी बनने की तरफ अग्रसर हो पायेंगे.
मनु मुदगिल चंडीगढ़ स्थित
इंडिया वाटर पोर्टल के लिए पानी और पर्यावरण से जुड़े विषयों पर लिखते हैं
moudgilmanu @gmail.
वाह, लेखक व समीक्षक को बधाई !
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.