सहजि सहजि गुन रमैं : वीरू सोनकर

फोटो द्वारा Gordon Parks




























कला का अपने समय के यथार्थ से जटिल रिश्ता बनता है.
कविताएँ यथार्थ नहीं बनतीं वे कुछ ऐसा करती हैं कि यथार्थ और भी यथार्थ बन जाता है, वह और रौशन हो जाता और अनुभव के दायरे में आ जाता है.
  कलाओं से इकहरी सहजता की मांग नाजायज़ है, वे सदियों से अपने समय को लिखने की जद्दोजहद में मुब्तिला हैं, वे उसे लिखने के रोज़ नये पैतरें आज़माती हैं.

पिछली सदी को इतिहासकार एरिक हाब्सबाम ने ‘अतियों की सदी’ कहा, नई सदी तेज़ी से फैलते डिजिटल चित्रों और सूचनाओं की सदी है.
यह बड़े से बड़े सरोकारों के तेज़ी से हास्यास्पद होकर प्रतिक्रियावाद में बदल जाने की भी सदी है.
यहाँ स्याह से सफेद होता हर पल बेपर्दा है, इसलिए हर चीज अविश्वसनीय है, और एक मज़ाक है और यह एक उद्योग भी है.
यह आधुनिकता और उदारता के विलोम की भी सदी होने जा रही है.

ऐसे में नई सदी की हिंदी कविता का प्रयोजन और तासीर तो बदली ही है उसका ढांचा भी बदला है.
किसी कविता में किसी एक केन्द्रीय बिम्ब पर अब कवि नहीं टिकता.
वह तेज़ी से बदलते बिम्बों के बीच अपने समय का रूपक रखता चलता है, पर वह जहाँ भी है सटीक हुआ है.


वीरू सोनकर नई सदी के युवा कवि हैं. इन कविताओं में तुर्शी और तेज़ी है. अभी तो उनके सामने यह पूरी सदी पड़ी है. उम्मीद के साथ ये कविताएँ आपके लिए.




वीरू सोनकर की कविताएँ                                      



रंग

रंग वह नहीं
जो उड़ जाते हैं अपनी तय उम्र के बाद
या
दूसरे रंग के अतिक्रमण से
असमय मर जाते हैं

रंग प्रमाण है
कुछ भी होने या फिर कुछ नहीं होने के

तभी
बुढ़ापा, उम्र का एक रंग है
और चेहरे का गवाह है उदासी का एक रंग
सुख की मुग्ध आँखों का मुंद जाना भी
एक रंग है

जैसे,
नदी का रंग पानी है
और पृथ्वी का रंग सिर्फ जीवन
समुद्र के भरपेट होने का उत्सव-रंग उसकी त्वचा लहरें हैं

या कह सकते हो कि

भूख, अपने हर रंग में एक गर्म रोटी का चेहरा है
जिस पर कोई अन्य रंग नहीं चढ़ता.





जंगल एक आवाज है

जंगल गायब नहीं है
वह देर से बोलता है

अपने सन्नाटे की अलौकिक रहस्यमयता लिए
हमारे भीतर चीखता है
कहता है
मेरी प्रतिलिपि दूर तक बिखरी पड़ी है
तुम्हारे ड्राइंगरूम के बोनसाई से लेकर स्वीमिंगपूल की उस नकली पहाड़ी नदी तक

जंगल एक अमिट स्मृति है
सड़को पर छाई सुनसान रात उस बाघ की परछाई है
जो तुम्हारे शहर कभी नहीं आता

जंगल अचानक से हुए किसी हमले की एक खरोंच है
एक जरुरी सबक कि जंगल कोई औपचारिकता नहीं निभाता

जंगल एक बाहरी अभद्र नामकरण है

जंगल दिशा मैदान को गयी
एक बच्ची को अचानक से मिला एक पका बेलफल है
जंगल बूढ़े बाबा के शेर बन जाने की एक झूठी कहानी है
जंगल खटिया की बान सा सिया हुआ
एक घर है
जंगल वह है जो अपने ही रास्तो से फरार है
जंगल हर अनहोनी में बनी एक अनिवार्य अफवाह है

जंगल एक रंगबाज कर्फ्यू भी है
जो तय करता है रात को कौन निकलेगा और दिन में कौन

जंगल जो बारिश में एक चौमासा नदी है
तो चिलचिलाती धूप में बहुत देर से बुझने वाली एक प्यास भी

जंगल सब कुछ तो है पर विस्थापन कतई नहीं है

जंगल एक आवाज है
जो हमेशा कहती रहेगी
कि
तुम्हारा शहर एक लकड़बग्घा है
जो दरअसल जंगल से भाग निकला है.




संभावनाशील पागल

जब एक मुकम्मल देश लिखना कठिन हो रहा है
ऐसे समय में चाहता हूँ
हर आदमी एक शब्द हो जाये
हर शब्द एक आवाज,
हर चेहरा एक पन्ना,
और हर कविता हमारे इस समय का श्वेतपत्र

निगरानी से डरा हुआ हर आदमी चीख पड़े
बावजूद इसके कि
चीखना,
अब पागलपन की निशानी है
बावजूद इसके कि
सरकार के पागल होने से पहले यह पूरा देश पागल हो जाये
मैं वहां एक मुकम्मल देश की शक्ल देखता हूँ

चे के हमशक्लो की भीड़ में
जहाँ खुद का खो जाना एक आम सी बात हो
स्टालिन के भगोड़े जूते किसी प्रमाण की तरह संरक्षित हो
हिटलर की अंतिम गोली की कहानी हर पागल कहने में न डरे

एक ऐसा देश,
जहाँ कोई पागल ही न मिले
वह देश सबसे अच्छे नक़्शे के बाद भी
खुद पर एक सवाल है

और
यह मुझ पर भी एक सवाल है
कि क्या एक मुकम्मल देश लिखना वाकई कठिन है
या मेरा पागल हो जाना ?




नि:शब्द

मैंने कहा "दर्द"
संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी

मैंने शब्द वापस लिया और कहा "मृत्यु"
सभी बीमार, उम्रकैदी और वृद्ध मेरे पीछे हो लिए
मैंने शर्मिन्दा हो कर सर झुका लिया
फिर कहा "मुक्ति"
सभी नकाबपोश औरते, विकलांग और  कर्जदार मेरी ओर देखने लगे !

अब मैं ऊपर आसमान में देखता हूँ
और फिर से,
एक शब्द बुदबुदाता हूँ
"वक्त" !
कडकडाती बिजली से कुछ शब्द मुझ पर गिर पड़े
"मैं बस यही किसी को नहीं देता !"

मैं अब खुद के लिए कोई शब्द चाहता हूँ
कोई कुछ नहीं बोलता.



 जगह

उसने पानी को
पहली बार सामने आये किसी अजूबे सा देखा
उसमे घुलते रंग को देखा
और
देखी आग
छुआ, और कहा "ओह तो तुम मेरा छूटा हुआ हिस्सा थी"

पैरो के नीचे की भुरभुरी मिटटी को सूंघा,
तप्त सूर्य की तेज़ आँच के बाद भी वहाँ घास की एक कोंपल निकल आयी थी

उसने नदी में एक पत्थर उठा कर फेंका,
भंवर में बनी-बिगड़ी लहरें गिनी

फिर वह आकाश की ओर मुँह उठा कर शुक्राने में हँसा
गुजरती हवा के कान में कहा
सुनो,
मैं बिलकुल ठीक जगह पर हूँ! 

_________
वीरू सोनकर
9 जून 1977 (कानपुर)

स्नातक (क्राइस्ट चर्च कॉलेज कानपुर) बीएड ( डी ए वी कॉलेज कानपुर)
पत्र पत्रिकओं में कविताएँ कहानियाँ आदि प्रकाशित
veeru_sonker@yahoo.com

27/Post a Comment/Comments

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  1. सभी कविताएँ अच्छी हैं। संभावनाशील पागल पढ़ते हुए Allen Ginsberg की लंबी कविता Howl याद हो आई।

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    उत्तर
    1. इस पागल की जरूरत अभी हमें दूर तक रहेगी । मानवीयता के हित में

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  2. सभी कविताएं अच्छी हैं। विघटित समय को सही मायने में दर्ज करती हुई कविताएं है।

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  3. सभी कवितायें अच्छी हैं । पहली दोनों बहुत खास । रंग और जंगल को इस तरह से भी समझा जा सकता है, इन कविताओं को पढ़कर यह अहसास हुआ ।
    बधाई वीरू । आभार समालोचन

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  4. Kamaal ki kaviatyen hain. Baar, baar paden par bhi utna hi maza aaya jitna pehli baar pad ke. Viru sonkar ko bohot, bohot badahi!

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  5. 'निगरानी से डरा हुआ हर आदमी चीख पड़े
    बावजूद इसके कि
    चीखना,
    अब पागलपन की निशानी है
    बावजूद इसके कि
    सरकार के पागल होने से पहले यह पूरा देश पागल हो जाये
    मैं वहां एक मुकम्मल देश की शक्ल देखता हूँ'................. Veeru Sonker की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए कविता की तासीर और तुर्सी दोनों समझ सकते हैं। छोटे भाई वीरू के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।

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  6. बहुत बढ़िया कविताएँ हैं ! सुबह से दो बार पढ़ चुका हूँ।

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  7. सोनिया प्रदीप गौड़21 दिस॰ 2016, 2:52:00 pm

    वीरू इस समय के कवि है, जो हमेशा कविता में होते हैं। समस्त कवितायेँ प्रासंगिक। आभार की इतनी बेहतरीन कवितायेँ आपके द्वारा शेअर की गईं।

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  8. अपने समय की चीख को कविता के व्‍याकरण में बदलने की अच्‍छी कोशिश। लमही मेंं छपी कविताओं के क्रम में यह इस कवि का अग्रगामी विकास है। कविता में जो संयम अभीष्‍ट हैै, वह इस कवि में दिखता है। बधाई।

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  9. यह कवि एक बेचैन ऊर्जा से भरा हुआ है; और फिर भी इसमें अधीरता नहीं है। वीरू को मेरी बहुत शुभकामनाएं और बधाई!

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  10. बधाई वीरु उस्ताद ! बहुत अच्छा लिखा परिचय में. खुश रहो. तुम्हें लोग चीन्हने लगे. सच लिखा कि सामने पूरी सदी पड़ी है. सो धैर्य के साथ लंबी पारी खेलो. बधाई और शुभकामनाएँ !!

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  11. आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 22-12-2016 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2564 में दिया जाएगा
    धन्यवाद

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  12. सभी कविताएं बहुत ही अच्छी हैं। "रंग" एवं "जंगल एक आवाज़ है" शानदार अभिव्यक्ति।

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  13. वीरू सोनकर की कविताओं में सच्चाई है, दर्द है. 'संभावनाशील पागल' और 'निशब्द' कविताएँ मुझे अच्छी लगीं.

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  14. मीनू पाठक22 दिस॰ 2016, 8:34:00 am

    कविताएँ खूब अच्छी लगीं. इस कवि में कुछ है. अरुण देव की टिप्पणी बहुत अच्छी है. २१ वीं सदी पर आपका आकलन और कविता से उसका जोड़ना जमा. जो बात आप कुछ वाक्यों में कहते उसे फैलाकर लेख भी लिखा जा सकता है. पर शुक्र है कि वह आप नहीं करते. इस कविता के साथ Gordon Parks का खींचा जो फोटो आपने दिया है. वह बहुत कुछ कहता है. कहाँ कहाँ से आप यह सब करते हैं. मानना पड़ेगा. आपकी दृष्टि और आपके सौन्दर्य बोध. क्या यह साहित्य का समालोचन समय चल रहा है. बधाई.

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  15. मित्र,आपमें एक ठहराव है सिर्फ़ वाह-वाही नहीं ।

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  16. Wah! Aaz jaana ki Rang aur jungle ko is tarah bhi paribhashit kiyaa jaa saktaa hai ...behtareen lekhan veeru...aur khoob-khoob tarakki karo aur khoob acchha-acchha likho,duaayein! :)

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  17. बहुत अच्छी कविताएँ हैं । एक बात कहने से रोक नहीं पा रहा हूँ खुद को कि कवि एक मुक्कमल देश की तस्वीर खींचते हुए चे, स्टालिन और हिटलर को याद करता है । क्या भारतीय रेफरेन्सेस ज्यादा उपयुक्त नहीं होते?

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    1. फिर हम कहेंगे भारतीय भी वो वाला जो कवि का जिया हुआ जाना हुआ ; और उस के अपने अंचल का ।

      इस वैश्विक युग में भारतीय जैसा कुछ नहीं रह गया है । भारतीय भी ग्लोबल संदर्भ ग्रहण कर लेता है । भारतीय की मांग करने की बजाय स्थानिक की मांग करने लगा है पाठक ।

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  18. Pradeep Saini जी, संयोगवश जिस समय मैं इन कविताओं को लिख रहा था उस समय मैं चे और हिटलर के बारे में अध्ययन भी कर रहा था.. संभवतः इसीलिए कविता में मेरी बात इनके उल्लेख के द्वारा सामने आयी पर इसका यह अर्थ नहीं कि जानबूझ कर भारतीय रेफरेंस की अनदेखी की गयी ... यह एक कवि की अपनी चेतना है जो अपने तात्कालिक अध्ययन से प्रभावित हो सकती है, होती है शायद यही मेरे रचनात्मक सामर्थ्य की भी सीमा है!

    कविताओ पर अपना विचार मत देने के लिए पुनः आभार ��

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    उत्तर
    1. ऐसा होना स्वाभाविक है । रचना के समय जो चीजें अवचेतन पर प्रभाव बनाए होती हैं वे चुपचाप आप की रचना में चली आती हैं । ऐसा रचनात्मक ईमानदारी के चलते होता है । हम जानबूझकर जबरन कांशसली इसे अपनी विचारधारा और अपने आदर्श के साथ रिलेट करेंगे तो यह बेईमानी होगी ।

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  19. वीरू में अपार रचनात्मक ऊर्जा है जो इन कविताओं में भी परिलक्षित हैं। जंगल, रंग,शब्द, पागल सभी कविताओं में एक ताज़गी और विचारों को उद्वेलित करने की क्षमता भी लेकिन विचार कहीं भी कविताई पर हावी नहीं और यही इन कविताओं की असल ताकत है। वीरू को हर दिन और बेहतर की ओर ग्रो करते देखना सुखद है। यह उम्मीद और संभावना बढ़ती रहे। कवि मित्र को शुभकामनाएं और समालोचन का धन्यवाद

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  20. "संसार के सभी किन्नर, सभी शूद्र और वेश्याएँ रो पड़ी"


    इस वाक्य में मुझे कुछ अटपटापन लगा । एक तो हिजडो को किन्नर कहना निम्न जाति को हरिजन कहने और विकलांगों को दिव्यांग कहने जैसा लग रहा है । इस शब्द से कविता में इस वाक्य आशय ठीक से पहुँच नही रहा । आप हिजडे शब्द का प्रयोग कीजिये तो शायद ज्यादा सटीक लगे ।

    जैसे आप ने आगे शूद्र को दलित या हरिजन नही लिखा
    और वेश्या को गणिका या नगरवधू नहीं लिखा

    यह मेरी अपनी शब्दाभिरूचि हो सकती है । आप को नहीं जमता हो तो इग्नोर करें अन्यथा न लें । काफी समय बाद कुछ मौलिक सा पढने को मिला इस लिए टिप्पणी करने का लोभ संवरण न कर पाया । शेष सभी कविताएं निर्दोष और ईमानदार हैंं । बेहद सुंदर ।

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  21. अरूण भाई वीरू के शानदार कविताों के चयन के लिए बधाई।

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