मीमांसा : एडोर्नो : अच्युतानंद मिश्र



















एडोर्नो (Theodor W. Adorno, September 11, 1903 – August 6, 1969) बीसवीं सदी के प्रसिद्ध दार्शनिक, समाज-वैज्ञानिक और संस्कृति- आलोचक हैं. 
वे ऐसे शायद पहले विचारक हैं जिन्होंने दर्शन और संगीत पर एक साथ लिखा है. जर्मनी की नाजी बर्बरता और अमेरिका की पूंजीवादी सभ्यता में पनप रहे खोखले सभ्यता – उद्योग के बीच उनके चिंतन ने आकार लेना शुरू किया, एक ओर जहाँ वह वेदना को कला की भाषा मानते हैं वहीँ दूसरी ओर संस्कृति – उद्योग के माध्यम से मनुष्य की चेतना को नियंत्रित और अपनी रहस्यात्मकता से उसे लुभा कर एक निरे उपभोक्ता में बदल देने कि प्रक्रिया की भी विवेचना करते हैं.

आज भारत में ये दोनों प्रवृत्तियां मौजूद हैं, एडोर्नो इन्हें समझने में मदद करते हैं. 

युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र ने एडोर्नो की तमाम जटिल स्थापनाओं को  समझ कर उन्हें भारतीय परिवेश में प्रस्तुत करने का श्रमसाध्य कार्य किया है और  समकालीन बनाया है. उनकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम है.  
   




बीसवीं सदी के अँधेरे में                                    

अच्युतानंद मिश्र 





बीसवीं सदी में प्रबोधन की अवधारणा को लेकर पुनर्विचार का वातावरण बना. प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् तीन बड़ी परिघटनाएं घटती हैं. रूस में समाजवादी सरकार की स्थापना, जर्मनी में दक्षिणपंथ का पुनरागमन और 1929 की विश्वव्यापी मंदी. प्रकट रूप में भले इनके बीच कोई सहज सम्बन्ध न रहा हो लेकिन वास्तव में ये एक बड़े परिवर्तन को इंगित कर रहीं थी. इनमें द्वितीय विश्वयुद्ध के बीज मौजूद थे. इन परिघटनाओं ने इतिहास, राजनीति, आर्थिकी आदि पर पुनर्विचार का वातावरण निर्मित किया.

1923 में फ्रैंकफर्ट स्कूल की स्थापना हुयी. तीस के दशक के आरंभिक वर्षों में सामाजिक सांस्कृतिक स्थितियों में हो रहे परिवर्तन ने फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के सामने नये प्रश्न प्रस्तुत किये. उपरोक्त परिघटनाओं की स्पष्ट व्याख्या राजनीतिक एवं आर्थिक परिघटनाओं के तौर पर की जा सकती थी, लेकिन फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने इन घटनाओं के अप्रत्यक्ष प्रभाव एवं श्रोत की तलाश आरम्भ की. उन्हें यह महसूस होने लगा कि संस्कृति और समाज की अवधारणा पर पुनर्विचार की जरुरत है. फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों के समक्ष प्रश्न यह भी था कि उन्नीसवीं सदी की विरासत से हम क्या समझे. उन्नीसवीं सदी किस रूप में अब भी मौजूद है.

इस प्रश्न को जिन चिंतको ने बार-बार व्याख्यायित करने का प्रयत्न किया, उनमें एडोर्नों का नाम लिया जा सकता है. एडोर्नो का जन्म 1903 में हुआ. तीस के दशक में वे फ्रैंकफर्ट स्कूल से विचारक और चिन्तक के तौर पर जुड़े. हालाँकि उससे पहले ही वे होर्खाइमर और वाल्टर बेंजामिन से मिल चुके थे. 1930 में ही होर्खाइमर ने फ्रैंकफर्ट स्कूल की बागडोर संभाली. वे जीवन पर्यन्त एडोर्नो के सहयोगी रहे. तीस के दशक के मध्य एडोर्नो, होर्खाइमर सहेत तमाम चिंतकों को जर्मनी छोड़कर बाहर जाना पड़ा. इस भाग दौर से तंग आकर बेंजामिन ने आत्महत्या की. एडोर्नो बेंजामिन से गहरे जुड़े थे. बेंजामिन के लेखन में उनकी गहरी रूचि का पता बेंजामिन के साथ उनके पत्राचारों को देखने से चलता है. एडोर्नो बेंजामिन के साथ दोहरे सम्बन्ध की भूमिका का निर्वाह करते हैं. एकतरफ वे बेंजामिन के साथ बौद्धिक संवाद स्थापित करते हैं तो दूसरी तरफ निजता का आत्मीय संसार रचते हैं. एडोर्नों के लिए यह दोहरा भाव अलग अलग नहीं है बल्कि वे एक दूसरे में घुले हुए हैं. एक तरह से कहें तो वहां निजता का विस्तृत आत्म है. वे दोनों एक ऐसी मित्रता को रचते हैं, जिसमें आत्म का विस्तार होता है. सहभाव की संवेदना एडोर्नों में बहुत आरम्भ से ही देखी जा सकती है. कांट की प्रसिद्ध पुस्तक क्रिटीक ऑफ प्योर रीज़न को वे 14 वर्ष की उम्र में भी अकेले नहीं पढ़ते हैं, अपने मित्र के साथ पढ़ते हैं. एक जगह उन्होंने लिखा है कि उस तरह की पढाई वे जीवन भर फिर नहीं कर सके. एडोर्नो के लेखन का केंद्रीय पक्ष है निजी एवं आत्मीय अनुभव का दार्शनिक विस्तार. वे लगातार छीजते हुए आत्म को लेकर अपनी व्याख्या रखते हैं. मनुष्य और समाज के सम्बन्धों को वे महज़ बाहरी सम्बन्धों की तरह नहीं देखते. उन्हें लगता है यह सम्बन्ध लगातार हमारे भीतर भी बन रहा है. संस्कृति और समाज के प्रश्न को इसलिए वे सिर्फ बाहरी घटक के रूप में देखने का विरोध करते हैं.

प्रबोधन की चेतना एडोर्नो को लगातार उद्वेलित करती है. वे प्रबोधन का विश्लेषण करते हुए इस बात को नहीं भूलते कि दुनिया विकासवाद की ओट में फासीवाद तक पहुँच जाती है. एडोर्नो प्रबोधन के  युग से फासीवादी वर्चस्व के मध्य एक जटिल सम्बन्ध की व्याख्या करते हैं और इस क्रम में विकासवाद की नई सीमाओं की तरफ ध्यान आकर्षित करते हैं. वे हीगेल की द्वंद्वात्मकता से  प्रबोधन को व्याख्यायित करते हैं. होर्खाइमर के साथ मिलकर लिखी उनकी पुस्तक प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता (Dialectics of Enlightenment)  बीसवीं सदी तक की यात्रा की नई व्याख्या प्रस्तुत करती है.

कांट का मानना था कि प्रबोधन मनुष्य को मुक्त करता है और उसे आत्मघाती अपरिपक्वता से उबारता है. एडोर्नो, होर्खाइमर कांट के इस दृष्टिकोण की आलोचना प्रस्तुत करते हैं. वे यह प्रश्न उठाते हैं कि क्या सचमुच प्रबोधन मानव मस्तिष्क को मिथकीय चेतना से उबारता है? क्या वह उसे आदिम मानसिक संरचना से निकालकर एक आधुनिक बोध तक ले जाता है? क्या प्रबोधन वास्तव में मिथक का विलोम बनता है? एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं, वास्तव में ऐसा नहीं है. बाहरी तौर पर देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि प्रबोधन एक वैज्ञानिक अवधारणा है, जिसकी दिशा उर्ध्वाधर है लेकिन वास्तव में वह द्वंद्वात्मक है. एडोर्नो, होर्खाइमर बताते हैं प्रबोधन मिथकीय चेतना के विरुद्ध नहीं है. वह मिथक के विरुद्ध होकर भी मिथक को पैदा करती है. 

प्रबोधन की चेतना का खुला अंत उसे मिथक से जोड़ देता है. वह अनभिज्ञता से आरम्भ होकर अनभिज्ञता के नये मुकाम पर हमें ला छोडती है. यह अनभिज्ञता ही उसे मिथकीय बना देती है. वे कहते हैं प्रबोधन का उद्देश्य मनुष्य को भयमुक्त करना था. मनुष्यता प्रबोधन के युग को पार कर चुकी है. हमारा ज्ञानोदय हो चुका है. हम आदिम से आधुनिक की और प्रस्थान कर चुके हैं. हम यह मान चुके हैं कि आदिम युग बीत चुका है. लेकिन क्या वाकई ऐसा हुआ है. मनुष्यता के पास पुरानी आशंकाएं बची हुयी हैं. नई आशंकाओं के साथ मिलकर एक नये विभ्रम ने मनुष्य को भय और आतंक के साथ दबोच लिया है. यह नई स्थिति ही प्रबोधन को मिथक तक ले जाती है. इस अर्थ में वह एक द्वंद्व को रचती है.

एडोर्नो, होर्खाइमर किसी अमूर्त चिंतन की बात नहीं करते. अपने समय के दबावों को व्याख्यायित करने के क्रम में, वे यहाँ तक पहुंचते हैं. उनके समस्त चिंतन पर हिटलर और नाज़ीवाद से निर्मित वर्तमान के विश्लेषण तक पहुँचने का गहरा दबाव है. वे महसूस करते हैं कि नाज़ीवाद ने न सिर्फ दुनिया की बाहरी संरचना को नष्ट किया बल्कि मनुष्यता की आन्तरिक संरचना को भी नष्ट कर दिया है. क्या नाज़ीवाद का यह आगमन मात्र एक संयोग है? क्या यह इतिहास के वास्तविक विकासक्रम में अपवाद की तरह आया दौर है? आखिर प्रबोधन की आधुनिक चेतना से लैस दुनिया नाज़ीवाद की बर्बरता तक कैसे पहुँच गयी? ये प्रश्न प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता के मूल प्रश्न हैं. समस्त विश्लेषण पर इस दौर की गहरी छाप देखी जा सकती है.

मार्क्स और हिटलर के बीच तक़रीबन सौ वर्ष का अन्तराल है. मार्क्स उस गहरी खाई को पार करते हैं, जिसको लेकर तमाम दार्शनिक बहस कर रहे थे - आखिर दुनिया की व्याख्या किस तरह हो. मार्क्स के समस्त चिंतन पर प्रबोधन और जर्मन आदर्शवाद का गहरा प्रभाव था. आखिर मार्क्स से होती हुयी दुनिया, हिटलर तक किस तरह पहुँच गयी? जर्मनी का वही समाज जिसने मार्क्स के चिंतन के लिए आधुनिक संवेदना निर्मित की थी उस समाज के भीतर से हिटलर की आलोचना क्यों नहीं पैदा हुयी? इन्हीं प्रश्नों के उत्तर को तलाशते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि बीसवीं सदी में दुनिया की व्याख्या का प्रश्न आर्थिक और राजनीतिक भूमिका तक महदूद नहीं रहा गया है. प्रबोधन की प्रक्रिया ने समाज के भीतर कुछ गहरे परिवर्तन किये हैं. इस दौरान अगर दुनिया अधिक ज्ञानात्मक हुयी है तो साथ ही अधिक बर्बर भी हुयी है. बर्बरता की यह नई परिकल्पना प्रबोधन के उस अप्रत्यक्ष चरित्र की ओर इशारा करती है जिसके विषय में दार्शनिकों का ध्यान अब तक नहीं गया था.

यहीं से होते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर समाजशास्त्र की परिकल्पना और विश्लेषण तक पहुँचते हैं. प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता का एक सन्दर्भ यह भी है कि ज्ञान की प्रक्रिया से कोई समाज किस तरह सम्बन्ध बनाता है. ज्ञान युग से गुजर चुके समाज के भीतर से फासीवादी क्रूरता का समग्र विरोध अगर पैदा नहीं होता तो हमें इस ज्ञान युग का पुनर्मूल्यांकन करना होगा.




(दो)
रूस और जर्मनी की सीमायें मिलती थी. नागरिकों का एक जगह से दूसरी जगह पलायन होता था. एक तरफ समाजवादी सत्ता थी तो दूसरी तरफ फासीवादी सत्ता. इन दो विपरीत सी लगती सत्ताओं  के बीच  जनता के भीतर किस तरह का परिवर्तन आ रहा था. सीमा पर खड़े मनुष्य के लिए दायाँ और बायाँ  किस तरह का था.

इन प्रश्नों के उत्तर को ढूंढते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर कांट की प्रबोधन की अवधारणा से खुद को अलगाते हैं. कांट के अनुसार प्रबोधन एक लम्बे ऐतिहासिक संघर्ष का परिणाम है. मनुष्य इतिहास के भिन्न दौरों से गुजरता हुआ यहाँ तक पहुंचा है. लेकिन एडोर्नो, होर्खाइमर के लिए वह अब भी रास्ते में हैं. प्रबोधन एक गतिशील विचार प्रक्रिया है. सहज भाषा में कहें तो एडोर्नो, होर्खाइमर उसे एक प्रक्रिया के रूप में देखते हैं. एक द्वंद्वात्मक प्रक्रिया. जिस पर अपने युग –समाज का गहरा प्रभाव है. इसलिए 19 वीं सदी का प्रबोधन 20 वीं सदी से भिन्न है. एडोर्नो, होर्खाइमर के लिए महत्वपूर्ण यही है कि युग-समाज से गहरे प्रभावित होने के बावजूद, इसे कोई नियंत्रित कर रहा है. अगर समाज पर, मनुष्यता पर, प्रबोधन का प्रभाव है तो इस प्रबोधन की प्रक्रिया को नियंत्रित कर समाज और मनुष्यता को भी नियंत्रित किया जा सकता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर की इस बात से हेबरमास भी इत्तेफाक रखते हैं, लेकिन वे उम्मीद और आशा को नहीं छोड़ते. हेबरमास के अनुसार इस नियंत्रण से मुक्ति संभव है. प्रबोधन की चेतना में ही यह दृष्टि भी अंतर्निहित है कि मनुष्य सत्ता के दबावों से संघर्ष करता रहे. उसकी ज्ञानात्मक चेतना सामूहिकता में जो बोध निर्मित करती है उसमें सत्ता का विरोध संभव है. जरुरत है उस अधूरी छूट गयी प्रक्रिया को तीव्र करने की. यहाँ हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि एडोर्नो, होर्खाइमर और हेबरमास की दृष्टि में इस भेद के मूल में एक युग का फर्क भी है.

एडोर्नो, होर्खाइमर मिथकों को प्रबोधन के बरक्स रखते हैं. वे कहते हैं मिथक हमारे विवेक पर हावी हो जाता है. परन्तु विवेक को जागृत कर हम मिथकों से उत्तरोत्तर मुक्त होते जाते हैं. हमारी सामूहिक स्मृति और अवचेतन हर बार एक क्रमिकता में हो, यह जरुरी नहीं. जिसे हम सामूहिक स्मृति कहते हैं वह कई बार अतीत को देखने की हमारी भाववादी दृष्टि भी साबित होती है. जैसे ही हम मिथकों से वर्तमान को जोड़ने की कोशिश करते हैं हम अतीत की उन विवेक हीनताओं के शिकार होते जाते हैं.

ब्राह्मणवादी मिथकों के विरुद्ध दलितों के यहाँ भी मिथक निर्माण के आग्रह को देखा जा सकता है. ब्राह्मणवादी देवताओं के मिथकों के बरक्स दलित भी देवताओं के मिथक को रचते हैं. वे गोरे देवताओं के विरुद्ध काले देवताओं की परिकल्पना को प्रस्तुत करते हैं. ये काले देवता किस तरह के होते हैं? ये क्या करते हैं? ये अपने भक्तों से किस तरह प्रसन्न होते हैं? जब इस तरह के सवालों से हम रूबरू होते हैं तो पाते हैं कि यह वास्तव में मिथकों के बहाने ब्राह्मणवादी विस्तार ही है. ब्राह्मणवादी चेतना सामन्ती थी. वह धर्म के चमत्कारी वर्चस्व का किस्सा रचती थी. दलितों द्वारा मिथकों के निर्माण से संघर्ष की अग्रगामी चेतना को भी सामन्ती दायरे में घसीटना वस्तुतः एक प्रति-ब्राह्मणवादी कोशिश बनकर रह जाती है.

प्रबोधन के अनुसार ईश्वर और प्रकृति के प्रति मनुष्य का विषयगत रुख ही मिथक का मूल कारण है. अतिप्राकृतिक शक्तियां, आत्मा, दानव ये सब मानवीय शक्तियों के ही भिन्न रूप हैं जिसे मनुष्य ने प्रकृति की शक्तियों के सामानांतर निर्मित किया है. मिथक निर्माण की प्रक्रिया के मूल में मनुष्य और प्रकृति का द्वंद्व है. मनुष्य प्रकृति पर हावी होने के क्रम में मिथकों का निर्माण करता है. इन शक्तियों की मनोरचना के माध्यम से वह प्रकृति के जादू को तोड़ने का प्रयत्न करता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर इस बात को सामने रखते हैं कि मिथक निर्माण की प्रक्रिया अमूर्त और अव्याख्येय नहीं है. वह एक निश्चित ज्ञानात्मक प्रक्रिया का हिस्सा होती है. एक समूची परिकल्पना के तहत उसे अनुशासन रीति-रिवाज़ और अनुष्ठानों में बदला जाता है. उसके ऊपर ज्ञान-सत्ता का वर्चस्व स्थापित किया जाता है. स्थानीय देवी-देवताओं को उनकी वरीयता के अनुसार, आसमानी शक्तियों में बदला जाता है. यहाँ ज्ञानोदय और मिथक के बीच फर्क मिटने लगता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर लिखते हैं “मिथक ज्ञानात्मक होने लगता है और प्रकृति वस्तुगत. जिन चीज़ों पर मनुष्य ने शक्ति का प्रदर्शन किया था उन्हीं से विच्छेद के कारण वह बढ़ी हुयी शक्तियों को अर्जित करता है. वस्तुओं के साथ प्रबोधन का सम्बन्ध उसी तरह का है जैसा कि तानाशाह का मनुष्य के साथ”1. यहाँ वर्चस्व के रास्ते एडोर्नो, होर्खाइमर प्रबोधन और मिथक के बीच के सम्बन्ध को व्याख्यायित करते हैं, वे इस बात को रखते हैं कि मिथक की चेतना में प्रबोधन की दृष्टि मौजूद रहती है और इसी तरह प्रबोधन भी अंतत एक मिथक को ही रचता है. इस अर्थ में प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता उसे मिथक के विरुद्ध होकर भी मिथक से मुक्त नहीं होने देती.

हर रीति-रिवाज़ चीज़ों के सम्पन्न होने की प्रक्रिया को अभिव्यक्त करती है. अनुष्ठानों के अपने नियम होते हैं. मिथक के दायरे से शुरू होकर चीज़ें ज्ञानात्मक होने लगती हैं. इसी प्रक्रिया के तहत यानि ज्ञानोदय के रास्ते ही मिथक सामाजिक स्वीकृति पाता है. इस बात को समझने के लिए हम पीपल के पेड़ का उदाहरण ले सकते हैं. पीपल के पेड़ के नीचे रात के वक्त सोना खतरनाक है. पीपल का पेड़ रात के वक्त अधिक कार्बन-डाइऑक्साइड उत्सर्जित करता है. यह एक प्रकृतिगत विविधता है. इस पर मनुष्य का स्पष्ट रूप से कोई नियंत्रण नहीं है, लेकिन इस पर मनुष्य मिथकों के निर्माण से वर्चस्व स्थापित करता है. पीपल के पेड़ पर भूत की परिकल्पना को वह रचता है. इस तरह पीपल के पेड़ का मिथकीकरण किया जाता है. दिन के वक्त उसकी पूजा होती है. यह इसलिए कि इस प्रक्रिया यानीं अनुष्ठानों के माध्यम से पीपल का पेड़ लोगों की सक्रिय स्मृति का हिस्सा बना रहे. जो बात ज्ञानोदय के दायरे में आती है उसे मिथक का रूप देकर,लोगों की चेतना में आरोपित किया जाता है. यह बात अगर एक तार्किक संदर्भ अख्तियार भी करती है तो उसका परिणाम विपरीत होता है.

मिथक की चेतना कमज़ोर होने की बजाय और मज़बूत होने लगती है. ज्ञानात्मक चेतना और मिथकीय चेतना के दायरे एक दूसरे से जुड़ने लगते हैं. ज्ञानोदय की प्रक्रिया किसी सत्य को स्थापित नहीं करती. इसके विपरीत वह उस संदर्भ को पुख्ता करती है जो वास्तव में एक मिथ से पैदा हुयी थी. इस तरह मिथक (काल्पनिक, अयथार्थ) और ज्ञानोदय (वास्तविक , यथार्थ) के बीच दूरी नहीं रह जाती. दोनों एक दूसरे को स्थापित करने का प्रयत्न करने लगते हैं. प्रकट तौर पर ज्ञानोदय की जो मूल चेतना है जो मिथक के विरुद्ध नज़र आती है वास्तव में वह मिथकीय होने लगती है. भारतीय संदर्भ में मिथकों की स्थापना के लिए ब्राह्मणवाद के तौर पर हम मिथकों के अनुशासन में बदलने की  प्रक्रिया को देख सकते हैं. पुरोहिती की समग्र व्यवस्था मिथकों को सामाजिक वर्चस्व में बदलने में किस हद तक सफल हुयी, यह अलग से बताने की जरुरत नहीं.

एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं “जिस तरह मिथक प्रबोधन को अनिवार्य बना देता है उसी तरह हर कदम से प्रबोधन भी खुद को मिथक में गहरे उलझा देता है. वह अपने सारे संदर्भों को मिथक से प्राप्त करता है ताकि वह उसे नष्ट कर सके. मिथकीय भाषा में वह मिथक के प्रति अपना मत जाहिर करता है”2.

एडोर्नो, होर्खाइमर का मानना है कि तर्क की स्थापना के साथ–साथ ताकत की स्थापना को महत्व दिया गया. तर्क का उद्देश्य ताकत के अस्तित्व को स्वीकार्य बनाना था. वे कहते हैं कि तर्क को एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया गया ताकि वह एक वर्चस्व का रूप अख्तियार करे. फूको भी इसी स्थापना को आगे बढ़ाते हुए ज्ञान ताकत की अवधारणा हमारे समक्ष रखते हैं. फूको ने एक बातचीत में स्वीकार किया कि वे फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों और विशेषकर एडोर्नो के चिंतन से वाकिफ नहीं थे. वे कहते हैं कि अगर उन्हें इन सब का पता होता तो उनका काम इन सबपर टिप्पणी करने से भी चल जाता.

एडोर्नो, होर्खाइमर का मानना था कि प्रबोधन की अवधारणा को एक निश्चित अवधारणा में बदल दिया गया है. हर घटना, स्थिति का विश्लेषण उन्हीं तय अवधारणाओं को अनुकूलित करने के क्रम में होता है. एडोर्नो, होर्खाइमर कहते हैं यह वास्तव में प्रबोधन नहीं है. किसी घटना या स्थिति की गतिशीलता का इसमें निषेध है. स्थितयों के प्रति एक निश्चित रुख अख्तियार कर लेने से उसकी विकासात्मक गति की ठीक पहचान संभव नहीं रह जाती. प्रबोधन का उद्देश्य अज्ञात और डर पर तार्किक निष्कर्षों द्वारा विजय पाना है. इस प्रक्रिया के तहत ही वास्तविक तौर पर प्रबोधन की प्रक्रिया को आत्मसात किया जा सकता है. देश -काल रहित ज्ञानात्मकता को सर्वकालिक सत्य की तरह आरोपित करना, प्रबोधन नहीं हो सकता. प्रबोधन को पहले स्वयं ही प्रबोधन की चेतना को आत्मसात करना होगा.

एडोर्नो, होर्खाइमर सवाल उठाते हैं कि जब हम तर्क को एकमात्र विकल्प यानि वर्चस्व के तौर पर सामने रखते हैं तो उस स्थिति में हमारे विवेक का क्या होता है. विवेक से उनका तात्पर्य आलोचनात्मक विवेक के रूप में है. वे पूछते हैं कि विवेक तर्क के इस वर्चस्व के खिलाफ खड़ा क्यों नहीं होता? इसके जवाब में वे कहते हैं कि तर्क वास्तव में जिसपर अपना वर्चस्व कायम करता है, जिसपर हावी होता है, उससे उतरोत्तर उसकी दूरी बढ़ती जाती है. ऐसी स्थिति में किसी किस्म के आलोचनात्मक विवेक की गुंजाईश बची नहीं रह जाती है. तर्क विषय से दूर हटता जाता है और इस प्रक्रिया में वह विषय का ही वस्तुकरण कर देता है. तर्क और वस्तु के बीच उसी स्तर का सम्बन्ध विकसित होता जाता है जैसा कि तानाशाह का मनुष्यों के साथ. तानाशाह की परिकल्पना शासक और शोषित की पारम्परिक दूरी को और बढ़ा देती है. एक बिंदु पर जाकर यह दूरी इतनी बढ़ जाती है कि शासक चाहकर भी कुछ ऐसा नहीं सोच सकता जो जनता के पक्ष में हो. इसे और स्पष्ट करते हुए एडोर्नो, होर्खाइमर विषय और वस्तु के नये संदर्भों को रखते हैं. वे कहते हैं कि तर्क के सहारे अमूर्तन को रचा जाता है. वर्चस्व के नये दायरों को निर्मित करने के लिए वस्तु की निजता को नष्ट किया जाता है. इस निजता के ध्वंस से विषय का वस्तुकरण संभव हो पाता है.

एक वैज्ञानिक के समक्ष परिक्षण के लिए मेज़ पर मौजूद चूहा मात्र एक वस्तु है. चूहे के रूप वह कोई विषय नहीं है. उसकी निजता का वैज्ञानिक के लिए कोई महत्व नहीं है. वैज्ञानिक के समक्ष आने से पहले वह एक प्रजाति में रूपांतरित हो चुका होता है. उसके निजी गुण धर्मों का वैज्ञानिक के लिए कोई महत्व नहीं रह जाता. प्रयोग से प्राप्त निष्कर्षों को वह उस एक चूहे से प्राप्त निष्कर्ष के रूप में नहीं प्रस्तुत करता. वह उसके माध्यम से समस्त प्रजाति के बारे में अपनी राय व्यक्त करता है. इस तरह की वैज्ञानिक प्रक्रिया के माध्यम से विषय को वस्तु में बदला जाता है. सत्तावर्ग द्वारा किये गये तमाम तरह के नरसंहारों को अंजाम देने से पहले मनुष्य को इसी तरह की प्रजातियों में बदला जाता है. इसके लिए सत्ता ज्ञान माध्यमों का इस्तेमाल करती है. लोगों को वर्ण, जाति, रंग, लिंग, राष्ट्र, भाषा आदि के नाम पर चिन्हित किया जाता है. सत्ता पहले उस चिन्ह के खिलाफ घृणा को प्रचारित करती है और फिर उस चिन्ह को मिटाने की प्रक्रिया के द्वारा बड़े पैमाने पर नरसंहारों को अंजाम दिया जाता है.

हम यह कह  सकते हैं कि एडोर्नो, होर्खाइमर के चिंतन की केंद्रीय अवधारणा ही विषय का वस्तुकरण है. वे बताते हैं कि बुद्धिवाद का सबसे बड़ा संकट यही है. वस्तुकरण की इस प्रक्रिया के द्वारा विवेक का यांत्रिकीकरण होने लगता है. वह स्वयं ही एक स्वचालित वस्तु में बदल जाती है. विवेक की अपनी निजी विशिष्टताएं समाप्त हो जाती हैं. यांत्रिकता ही विवेक के ऊपर हावी हो जाती है. प्रबोधन की प्रक्रिया के तहत विवेक का यांत्रिकीकरण और उसके परिणामस्वरूप यांत्रिक बुद्धिवाद की स्थापना. प्रबोधन की द्वंद्वात्मकता यह निष्कर्ष हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है.

“चिंतन को एक ऐसी स्वतंत्र और स्वायत्त प्रक्रिया के रूप में मूर्त किया जाता है जो उस यंत्र का अनुकरण करता है जिसे स्वयं उसने ही निर्मित किया है. अंततः चिंतन को यंत्र द्वारा बदल दिया जाता है” 3

विचारों के इस यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि मनुष्य और यंत्र के बीच की दूरी कम होती जाती है. इस प्रक्रिया में मनुष्य हारता जाता है. यंत्र का वर्चस्व उसकी पूरी चेतना एवं सत्ता पर हावी होता जाता है. यांत्रिक वैचारिकता समस्त वैचारिकता को नष्ट कर देती है. स्वचालन की प्रक्रिया मनुष्य की विषयगत सत्ता को लगभग धूमिल कर देती है. स्वचालन यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया का अगला हिस्सा है जिसे तकनिकी तार्किकता द्वारा अर्जित किया जाता है. यांत्रिकीकरण की प्रक्रिया के समक्ष अगर समग्र प्रकृति है तो तकनिकी प्रक्रिया के समक्ष प्रकृति का जरुरी हिस्सा मनुष्य है. यांत्रिकीकरण से जब हम तकनीकीकरण की प्रक्रिया की तरफ बढ़ते हैं तो द्वंद्वात्मक चेतना विनष्ट होती जाती है.

विषय और वस्तु के बीच बढती दूरी के परिणामस्वरूप वस्तु विषय के अस्तित्व पर हावी होने लगती है. वस्तु की यह वर्चस्व-चेतना प्रबोधन का अनिवार्य गुण बन जाती है. सार्त्र का मानना था कि साम्राज्यवादी वर्चस्व की प्रक्रिया में शासक और शोषित दोनों के आत्म का विघटन होता जाता है. लगातार हिंसा और वर्चस्व की चेतना को अंजाम देते हुए वर्चस्व की शक्तियाँ मानवीय विवेक को नष्ट करती जाती हैं. इस बात को साम्राज्यवादी शासन के दौरान हुयी अकूत हिंसा में देखा जा सकता है. दूसरी ओर शासित राष्ट्र भी अपने आत्म को बचाने की प्रक्रिया में साम्राज्यवादी शक्तियों के अनुरूप ढलते जाते हैं. वे अपने स्व की रक्षा नहीं कर पाते. उनकी निजी विशिष्टताएं नष्ट होती जाती हैं.    

प्रबोधन की प्रक्रिया के तहत किस तरह आत्म-संरक्षण की प्रक्रिया आत्म-विघटन में बदलती है? यह समझना जरुरी है. हमारे यहाँ स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधी भी आत्म-संरक्षण की बात करते हैं. वे भी महसूस करते हैं कि साम्राज्यवादी वर्चस्व का जवाब दूसरे वर्चस्व (हिंसा )के द्वारा नहीं दिया जा सकता. वे यूरोपीय आधुनिकता को साम्राज्यवादी वर्चस्व के मूल में रेखांकित करते हैं. यही वजह है कि गांधी साम्राज्यवाद के विरोध का तरीका यूरोपीय आधुनिकता के विरोध के रास्ते निकालते हैं. वे आत्मबोध के निर्माण के द्वारा आधुनिकता के वर्चस्व को चुनौती देने की बात करते हैं. गांधी का यह चिंतन यूरोपीय आधुनिकता का क्रिटीक रचता है. एक सामानांतर आधुनिकता की परिकल्पना, जिसमें स्व का वस्तुकरण नहीं होता. गांधी आत्म की तलाश में स्व पर ठहर नहीं जाते. वे स्व से आगे बढ़ते हुए सामूहिकता की ओर बढ़ते हैं. इस अर्थ में हम देखें तो गाँधी के समस्त चिंतन में किसी भी तरह के अमूर्तन का जबरदस्त विरोध देखा जा सकता है.

एडोर्नो, होर्खाइमर भी यह मानते हैं कि अमूर्तन के द्वारा प्रबोधन अपने युग के मिथक को रचती है. अमूर्तन को वे इस प्रबोधन के वर्चस्व के अस्त्र के रूप में देखते हैं. वे कहते हैं मिथक के सन्दर्भ में जिस भूमिका को भाग्य या संयोग के रूप में हम देखते हैं, प्रबोधन के वर्चस्व निर्माण में वही भूमिका अमूर्तन की होती है.

क्या यह संभव नहीं था कि मानवीय विवेक द्वारा इस अमूर्तन के पार देखने की कोशिश की जाती? 20 वीं सदी में ऐसा नहीं हो सका. एडोर्नो, होर्खाइमर के अनुसार ऐसा इसलिए कि प्रबोधन की चेतना में प्रकृति का निषेध अंतर्निहित था. मानवीय विवेक ने मानवीय प्रकृति को विस्मृत कर दिया. ऐसे में सहज तार्किकता संभव नहीं रह गयी. सहज तार्किकता का अर्थ था वे मूल्य जो फ्रेंच क्रांति से मिले थे. स्वतंत्रता, समानता और न्याय की परिकल्पना. इसके साथ ही प्रकृति के साथ मनुष्य के सह-अस्तित्व की चेतना. मनुष्य स्वयं भी प्रकृति का रूप था लेकिन तर्क के वर्चस्व ने सर्वप्रथम मनुष्य को प्रकृति की इस सहचेतना से काट दिया. परिणामस्वरूप जो मानवीय विवेक विकसित हुआ वह प्रकृति से विमुख था. प्रकृति पर वर्चस्व का अर्थ था मनुष्य पर भी वर्चस्व. इसे 19 वीं और 20 वीं सदी के मध्य तक यांत्रिक तार्किकता के माध्यम से अर्जित किया गया. मनुष्य बनाम सत्ता की लड़ाई मनुष्य बनाम यांत्रिक तार्किकता की लड़ाई में बदल गयी.




(तीन)
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात रूस में साम्यवादी सत्ता की स्थापना के साथ साथ ही रूस के पड़ोसी राष्ट्र जर्मनी में दक्षिणपंथी ताकतों का उभार आरम्भ हुआ. राष्ट्र और समुदाय की नई अवधारणायें विकसित हुयी. पहचान की राजनीति का नया दौर शुरू हुआ. यह राजनीति 19 वीं सदी की राजनीति से पूरी तरह भिन्न थी. इस राजनीति ने राजनीतिक -अर्थशास्त्र की निर्णायक भूमिका को मद्धिम कर दिया. एडोर्नो के लिए यह प्रश्न महत्वपूर्ण था कि आखिर रूस और जर्मनी की राजनीति जो प्रकट तौर पर एक दूसरे के एकदम विपरीत नज़र आती है, उसे एक ही समय में दोनों तरफ की जनता ने स्वीकार किस तरह कर लिया? इन दो राष्ट्रों की राजनीतिक चेतना में मौजूद वैपरित्य का जनता से अन्तर्विरोध क्यों नहीं उभरा? जनता ने इस वर्चस्व को अगर स्वीकार कर लिया तो जाहिर सी बात है कि जनता राजनीति से इतर किसी और वर्चस्व को स्वीकार कर रही थी. यानी जनता की अवधारणा को महज़ आधार और अधिरचना के पुराने विभाजन से नहीं समझा जा सकता. यह एक नई स्थिति थी, जहाँ आधार-अधिरचना एक नये अर्थ में घुलमिलकर प्रस्तुत हो रहें थें. एडोर्नो इसे संस्कृति उद्योग के रूप में चिन्हित करते हैं.

संस्कृति उद्योग के हवाले से लोकप्रिय संस्कृति की अवधारणा विकसित की गयी. यानि जनता के अंतर्विरोधों को जिसके निर्माण में  वर्गीय चेतना की महत्वपूर्ण भूमिका थी - विस्मृत किया गया. यह किस तरह संभव हुआ? ऐसा करने के लिए वर्गीय अंतर्विरोधों को, प्रकट रूप में खत्म किया गया. हम जानते हैं कि वर्गों का अस्तित्व इसलिए है क्योंकि वर्गीय अन्तर्विरोध मौजूद होते हैं. ये अन्तर्विरोध हमारी चेतना के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. ये अन्तर्विरोध प्रकट-अप्रकट तौर पर जनता की संस्कृति में भी मौजूद होते हैं. संस्कृति उद्योग के हवाले से वर्गों के सामंजस्य की छद्म सांस्कृतिक चेतना निर्मित की जाती है. पहले लालच के वृहद् संसार के रूप जनता के अवचेतन को निशाना बनाया जाता है. ऐसे विज्ञापन निर्मित किये जाते हैं जो आपसे कुछ भी खरीदने का आग्रह नहीं करते. वे आपसे उपभोक्ता और उत्पाद के स्तर पर नहीं जुड़ते. उन्हें स्वप्न के रास्ते, सौंदर्य के रास्ते, इच्छा -आकांक्षा के रास्ते हमारे अवचेतन में प्रवेश दिलाया जाता है. एक दिन बाहरी दुनिया में हम उन आकांक्षाओं को, स्वप्नों को मूर्त होता देखते हैं. इस तरह हमारी चेतना पर एक आधिपत्य निर्मित किया जाता है. यह नई संस्कृति हर तरह के विरोधों से मुक्त है, यह बात हमारी चेतना में धीरे -धीरे दर्ज होने लगती है.

सफलतापूर्वक इस भ्रम को फैलाया जाता है कि दुनिया की हर चीज़ हर किसी के लिए संभव है. संस्कृति का अर्थ एक कृत्रिम आनंद तक सीमित कर दिया जाता है. फिल्मों के स्तर पर हम देखते हैं कि हर सफल फिल्म का अर्थ फूहड़ हास्य तक सीमित कर दिया गया है. कला के उत्पादन से जनता के मनोविज्ञान के सम्बन्ध को पूरी तरह अनुकूलित कर दिया जाता है.
 
अंतर्विरोधों का सामंजस्य ही इस संस्कृति का मूलाधार है. संस्कृति में जब अंतर्विरोधों का सामंजस्य होता है तो वह बड़े पैमाने पर राजनीति को बदल देती है.

हमारे यहाँ जो पिछले दिनों राजनीतिक परिवर्तन हुआ उसमें भी इस बात की शिनाख्त की जा सकती है. हर विषय पर एक ही समय में विरोधी बातें कही जाती हैं और जनता के वैविद्ध्य के मध्य उसे खपा दिया जाता है. इसके तहत एक ही समय में कट्टरपंथ और उदारपंथ दोनों का सामंजस्य निर्मित किया जाता है. वे लोग जो कट्टरपन्थ की संस्कृति के प्रशंसक हैं, उन्हें इस राजनीति को समर्थन देना चाहिए और वे लोग जो कट्टरता के विरोध में उदारता के पक्ष में हैं वे भी इसी राजनीति में अपने लिए स्थान पा सकते हैं. हम देखते हैं कि हमारे प्रधानमन्त्री, चुने जाने के पूर्व से ही और आज तक, हर विषय पर परस्पर विरोधी बातों के सामंजस्य को प्रश्रय देते हैं . इस तरह लोकतान्त्रिक प्रक्रिया के भीतर लोकप्रिय संस्कृति के रास्ते वर्चस्व की राजनीतिक भूमिका निर्मित की जाती है. इसे न तो पारम्परिक अर्थ में राजनीति कहा जा सकता है और ना ही संस्कृति. यह एक नई स्थिति है. एडोर्नो इसे संस्कृति उद्योग का नाम देते हैं.  

संस्कृति उद्योग में एडोर्नो इस बात की पड़ताल करते हैं कि किस तरह लोकप्रियता के माध्यम से सांस्कृतिक वर्चस्व की सार्वभौमिकता को रचा जाता है. इस बात को समझने के क्रम में हम सिगरेट का उदाहरण ले सकते हैं. हमारे यहाँ सिगरेट के डब्बे पर यह छपा होता है ‘सिगेरट पीना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है’. किसी भी समाज में सभी सिगेरट के सेवन नहीं करते. लेकिन मध्यवर्गीय दायरे में हम देख सकते हैं कि सिगेरट पीना एक लोकप्रिय संस्कृति का रूप ले चुका है. जिस तरह फैशन के तौर पर लोग धूप के चश्मे पहनते हैं या टोपी लगते हैं उसी तरह सिगरेट पीकर भी दूसरों पर अपना प्रभाव जमाते हैं. हर किसी में सिगेरट पीने की इच्छा दूसरों को देखकर आती है. लेकिन वह लोकप्रिय संस्कृति का हिस्सा तभी हो सकती है जब वह विरोधों के सामंजस्य को निर्मित करे. यानि वे लोग जो सिगरेट नहीं पीते या पीने वालों को लेकर एक अलग तरह की राय रखते हैं, वे भी सिगेरट के उत्पाद से जुड़े, तभी सिगरेट पीने की संस्कृति एक लोकप्रिय संस्कृति में बदल सकती है. ‘सिगरेट पीना स्वस्थ्य के लिए हानिकारक है’ सिगरेट के डब्बे पर अंकित इस चेतावनी को देखकर शायद हो सिगेरट पीना छोड़ता हो. ऐसा नहीं होता. फिर यह चेतावनी किनके लिए होती है. मूलतः यह सूचना उन लोगों के लिए है जो लोग सिगेरट नहीं पीते.

इस तरह सिगरेट के उत्पाद से दोनों जुड़ जाते हैं. पीनेवाले सिगरेट के डब्बे में मौजूद सिगरेट से संतुष्ट होते हैं और न पीनेवालों को जोड़ने के लिए डब्बे पर यह चेतावनी मौजूद होती है.  न पीनेवाले सिगरेट का उपभोग डब्बे पर अंकित चेतवानी से करते हैं. सिगरेट को लेकर उनके मन में जो नकारात्मकता होती है जो क्षोभ एवं गुस्सा होता है उसे किसी हद तक यह चेतावनी कम कर देती है. चेतावानी को पढ़कर लोकतान्त्रिक संस्थाओं के प्रति लोगों की आस्था मजबूत होती है. इस तरह सिगरेट को सामाजिक सांसकृतिक व्यवहार का अंग बनाया जाता है. विरोधों के सामंजस्य से लोकप्रियता का समाजशास्त्र रचा जाता है. नागरिक समाज में इस तरह के विरोधो के समंजस्य से ही वर्चस्वाद की चेतना को जनता के लिए अनुकूलित किया जाता है.

एडोर्नो के चिंतन में इस बात को देखा जा सकता है कि वे क्लासिकल मार्क्सवाद को लेकर कुछ बुनियादी प्रश्न उठाते हैं. वे इतिहास की विकासवादी अवधारणा को प्रश्नांकित करते हैं और उसके खतरों की तरफ हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं. वे कहते हैं इतिहास की विकासवादी अवधारणा के अनुसार मनुष्यता एक जकड़बंदी से स्वतंत्रता की ओर बढती है, भ्रामक है .एडोर्नो कहते हैं वास्तव में दुनिया बर्बरता से मनुष्यता की तरफ नहीं बढ़ती , दुनिया गुलेल से बम की तरफ बढती है. यानि इतिहास की इस विकासवादी अवधारणा में विज्ञान के माध्यम से वर्चस्व के नये प्रतिमान रचे जाते हैं.  हर नया प्रतिमान पिछले प्रतिमानों के मुकाबले अधिक बर्बर होता है.

एडोर्नों मार्क्सवाद की इस मूल अवधारणा पर चोट करते हैं जिसके अनुसार अब तक का ज्ञात इतिहास, वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है और वर्ग संघर्ष का उद्देश्य वर्गों को समाप्त कर समतामूलक समाज के निर्माण का है. एडोर्नो का मानना था कि यह धारणा गलत है कि उत्पादन की पूंजीवादी शक्तियाँ जब पूंजीवादी सम्बन्धों से मुक्त हो जाएँगी तो वे स्वतंत्र समाज को जन्म देंगी. पूंजीवाद किसी किस्म की स्वतंत्रता को प्रश्रय नहीं देता. वह वर्चस्व के एक स्तर से दूसरे स्तर की तरफ बढ़ता है. वह इतिहास की समग्रतावादी  अवधारणा का इस्तेमाल कर वर्चस्व के नये रूपों को विकसित करता है. इस अर्थ में अनजाने ही इतिहास की मार्क्सवादी अवधारणा पूंजीवादी वर्चस्व का हिस्सा बन जाती है. एडोर्नो लिखते हैं “सार्वभौमिक इतिहास की अवधारणा का विरोध किया जाना चाहिए और उसे  नकारा जाना चाहिए. अतीत के विध्वंसों और भविष्य के संभावित विध्वंसों को देखकर कोई पागल ही कह सकता है कि बेहतर दुनिया की संकल्पना इतिहास की अवधारणा में अंतर्निहित है जो इसे जोडती है”4

स्पष्ट है कि इतिहास की अवधारणा के तहत मुक्ति की चेतना को लेकर एडोर्नो संदेह व्यक्त करते हैं. वे कहते हैं कि सार्वभौमिकता के तहत जिस इतिहास को हमारे सामने प्रस्तुत किया जाता है, वास्तव में वह वर्चस्व को ही जन्म देता है. 20 वीं सदी की तमाम क्रूरताओं और बर्बरताओं के मूल में, इतिहास की समग्रतावादी दृष्टिकोण की भूमिका रही है, इससे शायद ही कोई इंकार कर सकता है.

लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूंजीवाद वर्चस्व को आम जन की संस्कृति (mass culture) के रास्ते अर्जित करता है. इसके लिए संस्कृति को यांत्रिक उत्पादन की प्रक्रिया से जोड़ा जाता है. वाल्टर बेंजामिन ने इसकी चर्चा सबसे पहले अपने लेख यांत्रिक पुनरुत्पादन के दौर में कला में किया था. वे चित्रकला के समक्ष कैमरे की भूमिका को रखते हैं. एडोर्नो बेंजामिन की इसी अवधारणा को और विस्तार देते हैं. वे लिखते हैं संस्कृति की तकनीक पर निर्भरता धीरे- धीरे उसे तकनीक के अनुकूल विकसित करती जाती है. कला और कलाकार के मध्य तकनीक की भूमिका निर्णायक होने लगती है, न सिर्फ निर्णायक अपितु तकनीक कला और कलाकार दोनों को नियंत्रित भी करने लगती है. इस अर्थ में वह समूची संस्कृति को उद्योग में बदल देती है. कला का वितरण एवं उत्पादन भी उद्योग के नियमों के तहत होने लगता है. इसका समूची कला पर एवं कलाकार पर प्रतिकूल असर पड़ता है. हालाँकि एडोर्नो कहते हैं कि संस्कृति उद्योग में उद्योग को शाब्दिक अर्थ में नहीं लिया जाना चाहिए बल्कि सांस्कृतिक उद्योग से ध्वनित होने वाले सांकेतिक अर्थ पर ही ध्यान केन्द्रित करना चाहिए.

एडोर्नो के अनुसार कला के उपभोग, उसके प्रसार, उसकी लोकप्रियता से संस्कृति उद्योग का संदर्भ विकसित होता है. ऐसे में यह जरुरी है कि कला और कलाकार के भीतर मौजूद स्व की चेतना एवं स्वतः स्फुरण को नष्ट किया जाये. कला और कलाकार की स्वायतता को नियंत्रित किया जाना संस्कृति उद्योग का मूलभूत चरित्र है. यह बात हम टैलेंट शो जैसी प्रतियोगिताओं में जो आये दिन टी. वी पर दिखाई जाती हैं में देख सकते हैं. इन कार्यक्रमों में यह दावा किया जाता है कि एक समान्य सी प्रतिभा को लगातार मांजकर एक कलाकार के रूप में किस तरह बदला जाता है. लेकिन इस प्रक्रिया में जो चीज़ सबसे पहले नष्ट की जाती है वह है कलाकार की स्वायतता. उसे अपने विषय में अपनी कला चेतना के संदर्भ में किन्हीं निजी मान्यताओं, प्रक्रियाओं को रखने नहीं दिया जाता. उसे दिए गये निर्देशों को यांत्रिक तौर पर पालन करना होता है. ये निर्देश संस्कृति उद्योग के नियमों के तहत विकसित होते हैं. कलाकार का काम इस उद्योग में एक कड़ी के रूप में जुड़ना भर है. उसकी कला को उत्पादित वस्तु के तौर पर जनता के बीच खपाया जाता है. इस तरह के कार्यक्रमों में दर्शकों की राय कितनी अहम् है इस बात को बार -बार बताया जाता है. उनसे अपनी पसंद के कलाकार के पक्ष में वोट करने को कहा जाता है, यह बताया जाता है कि देश का फैसला इस कलाकार के पक्ष में गया है. इस तरह चंद लोगों की अनुकूलित दृष्टि को समूचे देश के निर्णय के रूप में व्याख्यायित किया जाता है .ऐसा क्यों किया जाता है ? हम जानते हैं कि अरबों की जनसंख्या वाले देश में दस – पांच हज़ार लोगों की संख्या का क्या अर्थ है ,लेकिन ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि इस रास्ते लोकतंत्र की हमारी समझ लगातार विकृत होती रहे. बहुमत की छद्म चेतना का निर्माण कर कला का वस्तुकरण किया जाता है ताकि उसे आम जन की चेतना का अनिवार्य हिस्सा बनाया जा सके.




(चार)
संस्कृति ने मनुष्य को गहरी जकड़बंदियों से मुक्त किया है. एक तरह से मनुष्य जिन जड़ताओं के अधीन खुद को पाता है, उससे बाहर निकलने का रास्ता संस्कृति का रास्ता होता है. कोई भी संस्कृति समय की सीमाओं के पार तभी आ सकती है जब उसमें प्रगतिशीलता के तत्व मौजूद हों. बगैर प्रगतिशील भूमिका के कोई भी संस्कृति मनुष्य की स्मृति बोध का स्थायी अंग नहीं बन सकती. इसी संदर्भ में मार्क्स ग्रीक त्रासदियों की भूमिका की चर्चा करते हैं. वे जब कहते हैं कि अब तक का ज्ञात इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास रहा है तो वे मनुष्य की इसी सांस्कृतिक स्मृति की चर्चा कर रहे होते हैं. मनुष्य की स्मृति में उसकी लम्बी अनथक यात्रा की स्मृतियाँ अपनी जगह सुनिश्चित कर ही लेती हैं. इतिहास की  चेतना, संस्कृति और परम्परा के रास्ते ही उसके जीवन में प्रवेश पाती हैं. हम अक्सर इस प्रश्न के समक्ष खुद को पाते हैं कि स्मृति और परम्परा में से किसे रखे और किसे छोड़ दें. यह बोध ही दरअसल संस्कृति का बोध है. इतिहास की चेतना भी दरअसल हमारी चेतना में संस्कृति के रास्ते ही दाखिल होती है. इसलिए मार्क्स जिस क्रमिकता की बात करते हैं, वह वास्तव में हमारा संस्कृतिक बोध ही है. लेकिन अगर इस सांस्कृतिक बोध को नष्ट कर दिया जाये तो इतिहास की इस क्रमिक चेतना को वर्चस्वादी चेतना में बदलना आसान हो जायेगा. संस्कृति उद्योग हमारी सांकृतिक चेतना को नष्ट कर देती है.

एडोर्नो कहते हैं संस्कृति जब उद्योग का रूप धारण करने लगती है तब उसमें उद्योग धंधों से सम्बन्धित संकट भी पैदा होने लगते हैं. कलाकार उत्पादक की भूमिका में आ जाता है और कला उत्पाद बन जाती है जिसे बाज़ार में जींस की तरह खपाया जाता है. उत्पादन का आधार मात्रा और गति से निर्मित होने लगता है. गुणवत्ता का महत्व इसलिए नहीं रह जाता क्योंकि तकनीक के माध्यम से उसे पुनरुत्पादन की प्रक्रिया में ढाल दिया जाता है. एक संगीतकार से सिर्फ एक ही तरह का संगीत बार बार उत्पादित करने को कहा जाता है क्योंकि बाज़ार में उसी की मांग होती है. कला का उत्पादन, मांग और आपूर्ति के नियमों के तहत अनुकूलित होने लगता है .यांत्रिक पुनरुत्पादन का परिणाम यह होता है कि कलाकार की कला चेतना शुष्क होने लगती है .दूसरी तरफ बार बार एक ही तरह के कला उत्पादों का उपभोग करते -करते आम जन की सौंदर्याभिरुची भी जड़ होने लगती है. इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि कलाकार के भीतर भी श्रमिक की तरह का विलगाव उत्पन होने लगता है. एडोर्नो इस बात पर बल देते हैं कि संस्कृति उद्योग विलगाव पैदा कर संस्कृति की चेतना से ही आम जन को काट देती है.

संस्कृति उद्योग बाहरी स्तर पर वर्गीय अंतर्विरोधों को दूर कर इस भ्रम को फैलाती है कि चीज़ें सबके लिए सुलभ है. हर कोई अपने को इस उदार संस्कृति से जोड़ सकता है. इतिहास में यह क्षण पहली बार आया है. ऐसा करने के लिए वह हज़ार वर्षों से मौजूद उच्च कला और लोक कला के बीच के भेद को समाप्त करने का नाट्य भी रचती है. ऐसा करने में उसकी सफलता के पीछे कला का यांत्रिक उत्पादन ही है. उदाहरण के तौर पर हम मुम्बईया फिल्मों को देख सकते हैं. इन फिल्मों को ऐसे उत्पाद के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है जिस तक हर किसी की पहुँच संभव हो. इसे फिल्म उद्योग ने संभव बनाया है. पुराने समय में नाटकों का जो मंचन होता था वहां तक समाज के अभिजात्य वर्ग की पहुँच थी. चूँकि उपभोक्ता अभिजात्य वर्ग था इसलिए उन कलाओं की अंतर्वस्तु भी उसकी रूचि के अनुरूप थी. वह अभिजात्य की चेतना को पुख्ता करती थी. सामान्य लोगों के लिए लोक कलाएं थीं. ये कलाएं उनके जीवन में मौजूद नैतिकता और मानवीयता के पक्षों को उजागर करती थी. संस्कृति उद्योग इन दोनों के बीच मौजूद ऐतिहासिक खाई को पाटकर नई तरह की अंतर्वस्तु के साथ कला को उत्पाद के तौर पर हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है. सरसरी तौर पर देखने से यह लग सकता है कि कला के ऐतिहासिक संघर्ष को मिटा दिया गया है. लेकिन वास्तव में कला को ही नष्ट कर दिया गया है. उसे महज़ एक उपभोग में बदल दिया गया है. आम जन को एक विकल्पहीन स्थिति में रखा जाता है. उन्हें किसी न किसी रूप में इस कला वस्तु का उपभोग करना ही है. इस तरह कला सार्वभौमिकता का वृहद् संसार रचती है. इसी रास्ते सर्व-सत्तावाद हमारे जीवन में प्रवेश करता है.





(पांच)
कला रूपों में बदलाव का उद्देश्य निर्माताओं के लिए धन उगाहना है .कला स्वयं में कुछ अर्थ नहीं रखती. उसकी कोई स्वायत्त चेतना बची नहीं रह जाती है .संस्कृति के वस्तुकरण का उद्देश्य उसे मुनाफे के व्यापार में बदलना है. इसके लिए कला के भीतर से जनसंपर्क की प्रवृति को विकसित किया जाता है.

इसे समझने के लिए हम फिल्म के रूप में  विकसित हुयी संस्कृति को समझ सकते हैं. पूरी दुनिया में फिल्म एक उद्योग का रूप ले चुका है. उसमें कई विभाग हैं, जिसमें काम करने वाले अलग अलग लोग हैं. फिल्म को बनाने वाले सभी लोग कलाकार नहीं कहे जा सकते लेकिन उनके बगैर फिल्म निर्माण की प्रक्रिया पूरी नहीं हो सकती. इस तरह कला उत्पादन में कलाकार की भूमिका सीमित होती जाती है. 

कई तरह की तकनीकी एवं यांत्रिक प्रक्रियाओं से होकर फिल्म का निर्माण पूरा होता है. उसमें पूंजीपति पैसा लगते हैं. उनके लिए फिल्म शुद्ध रूप में एक व्यवसाय है, एक दूसरा वर्ग भी होता है जो श्रम करता है. उत्पाद के तौर फिल्म का उपभोग एक तीसरा वर्ग करता है. यह आम जन है. सिनेमा हाल वह जगह है जहाँ उसे बेचा जाता है ,फिल्म को सिनेमा हाल तक ले जाने में भी कुछ लोगों की भूमिका होती है जिसे वितरक कहा जाता है. ये कौन लोग हैं? संस्कृति उद्योग ने यह नया वर्ग विकसित किया है, अगर फिल्म को उत्पाद के रूप में आम जन तक न पहुँचाया जाये तो इस वर्ग की भूमिका समाप्त हो जाएगी. ये फिल्म से लेकर शेयर बाज़ार तक तमाम क्षेत्रों में फैले लोग हैं.  परजीवी के तौर पर विकसित ये लोग समाज की चेतना पर प्रतिकूल असर डालते हैं. हम इन्हें दलाल के रूप में स्वीकार करते हुए भी अनिवार्य मानने लगते है. ये हमें यकीन दिलाते हैं कि सांस्कृतिक उत्पादों तक हमारी पहुँच तभी संभव है जब हम इनके माध्यम से जुड़े.  इस तरह धीरे -धीरे समज इन परजीवियों को लेकर सहज होने लगता है.

“संस्कृति उद्योग में तकनीक कला की तकनीक से महज़ नाम के ही अर्थ में एकरूप है. कला में तकनीक का अर्थ वस्तुओं के आंतरिक संगठन और आंतरिक नियम के बीच सम्बन्ध निर्मित करना है. जबकि संस्कृति उद्योग में आरम्भ से ही तकनीक का सम्बन्ध वितरण और यांत्रिक पुनरुत्पादन से है”5.

एडोर्नो का बल इस बात पर है कि अन्य उद्योगों की अपेक्षा संस्कृति उद्योग कोई भौतिक उत्पादन नहीं करता है इसलिए आम जन में खपाने के लिए, उसे परजीवियों के रूप में मध्यस्थों की जरुरत रहती है.

एडोर्नों कहते हैं संस्कृति उद्योग में जो हलकापन है उसे गंभीरता से लेना चाहिए, वह हमारे समक्ष इस हल्केपन को इसलिए रखता है ताकि हम यह समझ विकसित करें कि संस्कृति का अर्थ मात्र आनंद और उपभोग अर्जित करना है. इसमें किसी सुसंगत विचार की तलाश व्यर्थ है. इस तरह संस्कृति उद्योग समूची संस्कृति की संगती को हमारी चेतना में विस्मृत करने की कोशिश करती है. संस्कृति उद्योग में प्रकट तौर पर मौजूद विचारहीनता की वैचारिकता को समझने की जरुरत है.

“संस्कृति उद्योग यह कहकर अपना बचाव करती है कि वह व्यवस्था बनाये रखना चाहती है .उसकी इस प्रवृति की तारीफ की जाती है .इस प्रवृति को विचारधारा कहना गलत न होगा”6

संस्कृति उद्योग को गंभीरता से लेने का अर्थ है कि उसके प्रति एक आलोचनात्मक विवेक का निर्माण किया जाये. कहने का तात्पर्य है कि संस्कृति की चेतना के रास्ते ही संस्कृति उद्योग का प्रतिकार किया जा सकता है.

फिल्मों में जिस तरह से नैतिकता की विजय होती है, वह हमारे विरोध की चेतना को खंडित करता है. फिल्मों में यह दिखाया जाता है कि अंततः न्याय की जीत होती है. यह बात हमें सुकून से भर देती है. जब हम पर्दे पर नायक को जीतता हुआ देखते हैं तो हमारे चेतन अवचेतन में मौजूद असंतोष तृप्त होता है. हम नायक की इस जीत में खुद को शामिल महसूस करते हैं. नायक की परिकल्पना से हमारी चेतना अविष्कृत होने लगती है. यह अविष्कार हमारे भीतर के क्रोध और गुस्से को ठंढ़ा करता है. हमारी बेचैनी कम होने लगती है. इस तरह हमारी चेतना में संघर्ष की आकांक्षा का उन्मूलन होने लगता है.

मनोरंजन के नाम पर लोगों को उनके बुद्धि विकल्पों से मुक्त किया जाता है. कोई अगर गुस्से में है, दिन भर की मसरूफियत ,झूठ ,फरेब और लालच से उकताया हुआ शख्स जब घर लौटता है तो टीवी पर हास्य और प्रेम से भरा एक धारावाहिक दिखाया जाता है. नायक नायिका के पीछे भाग रहा होता है. ऐसा करते हुए, वह उलजलूल हरकतें करता है. पीछे से अदृश्य लोगों के हंसने की आवाजें आती है. यह संकेत है कि इस पर हँसना चाहिए. दृश्य में नायक को सच्चा और मासूम दिखाया जाता है. वह नायिका से प्रेम का निवेदन करते हुए कुछ भी करने की कसमें खाता है. उसे इस तरह की भूमिका में देखते हुए हम तनाव रहित होने लगते हैं .हमारे भीतर रूपांतरण होने लगता है. सांस्कृतिक उद्योग इसी तरह हमें परिवर्तित करती है . वह हमारी चेतना को विखंडित करती है.

एडोर्नों कहते हैं कि आम जन के भीतर जो परिवर्तन की आकांक्षा होती है, वह रोज-रोज के जीवन में मध्यम पड़ती जाती है .जो असंतोष उसके ऐतिहासिक बोध से निर्मित हो रहा होता है, जो गुस्सा उसकी चेतना में संचित हो रहा होता है संस्कृति उद्योग उसे विनष्ट करती है . वह हमारे भीतर सुखी होने की कल्पना को प्रबल बनाती है लेकिन सुख का अर्थ संदर्भ बदल देती है .वह क्रोध और क्षोभ के स्थान पर हमारे भीतर अतृप्त आकाँक्षाओं और लालसाओं को भरती है.

हम क्या सोचे ,किस तरह सोचे, कैसे सोचे इसे हमारा विवेक, हमारी चेतना नहीं बनाती. इसे संस्कृति उद्योग तय करती है.

संस्कृति उद्योग में एडोर्नो खाली समय की अवधारणा पर विस्तार से विचार करते हैं. खाली समय से क्या तात्पर्य है. एडोर्नो का मानना है कि खाली समय- यह इधर की अवधारणा है. पहले फुर्सत का समय होता था. खाली समय वास्तव में न तो खाली है और न बचा हुआ है. वह काम से जकड़ा हुआ है. वह अपने नाम के विपरीत है. दरअसल खाली समय हमारी सामाजिक स्थिति पर निर्भर करता है. न तो काम करते हुए और न ही अपनी चेतना में लोग वास्तविक स्वतंत्रता महसूस करते हैं. काम पर नियंत्रण रखने वाली शक्तियों ने ही हमारे खाली समय को जकड़ रखा है. काम से फुर्सत पाने के लिए जिन क्षणों में हम अपने को खुला छोड़ देना चाहते हैं वे क्षण हमारे नियंत्रण से बाहर हो चुके हैं. इस तरह खाली समय की अवधारणा अपने अर्थ के विपरीत भूमिका निभाती है.
यह सवाल महत्वपूर्ण है कि खाली समय निर्मित किस तरह होता है. किस तरह उन क्षणों में भी उत्पादकता बरक़रार रहती है. गुलामी के इस दौर में जब उत्पादकता लगातार बढ़ती जा रही है ऐसे में खाली समय का औचित्य क्या है. यानि उत्पादन की इस अंधी दौर के बीच खाली समय एक विभ्रम को रचती है, वह हमें जकड़ने का एक नया औजार साबित होती है. एडोर्नो कहते हैं स्वचालन की प्रक्रिया ने खाली समय की परिकल्पना को और घनीभूत कर दिया है.

अमूमन प्रसिद्द लोगों से यह सवाल पूछा जाता है कि आप खाली समय में क्या करते हैं. अधिकांश लोग अपने काम से इतर जैसे कि संगीत, चित्रकला, पेंटिंग या पढ़ने आदि-आदि शौकों का जिक्र करते हैं. एडोर्नों कहते हैं इस तरह संस्कृति की समझ को फुर्सत के हवाले कर दिया जाता है. उपन्यास पढना या चित्र बनाना आदि को लोगों की समझ में इस तरह बिठाया जाता है कि यह खाली समय के व्यसन हैं.


एडोर्नो ये तमाम बातें 50 और 60 के दशक के मध्य कह रहे थे. उनपर यह आरोप लगा कि उनकी बातें एक हद तक अमेरिकी समाज के परिवर्तन को तो इंगित करती हैं लेकिन शेष दुनिया से उसका कुछ भी लेना देना नहीं. चिंतकों ने उन पर यह भी आक्षेप लगाये कि वे राजनीति की समझ को कमजोर कर रहे हैं. आधी सदी बाद यानि 21 वीं सदी के आरंभिक दशकों में यह देखना कठिन नहीं है कि भारत जैसी तीसरी दुनिया के देश में भी संस्कृति उद्योग ने किस तरह कब्ज़ा जमा लिया है. संस्कृति और राजनीति नये अर्थों में समाज को अपनी जद में ले रही है.

हमारे यहाँ जो राजनीतिक परिवर्तन हुआ और उसके बाद का जो समय गुजरा है उसे हम किस तरह देखें. संस्कृति उद्योग और प्रबोधन के वर्चस्व से निर्मित हमारे समय में, हम कितना बच रहे हैं. 19 वीं सदी की मोमबत्तियों की लौ मद्धिम पड़ चुकी है. इक्कीसवीं सदी की रौशनी की तलाश के लिए हमारे पास क्या विकल्प बचता है? क्या समय और परिवर्तन का बोध हमारी चेतना में आगे बढ़ रहा है? क्या हम नये सवालों से नये संदर्भों के साथ टकरा रहे हैं ?

एडोर्नो का चिंतन हमें 20 वीं सदी के मुहाने पर लाता है. उनके यहाँ उलझन है, असफलता और निराशा है लेकिन इमानदारी और बेचैनी भी है. वे नये और पुराने को घंघोलते हैं.

वे इस बात को हमारे समक्ष रखते हैं कि 20 वीं सदी के अंधकार में परिवर्तन -परिवर्तन की रट लगाने से चीज़ें नहीं बदलने वाली. पूंजीवाद के नये रूपों को पहचानने की जरुरत है. पूंजीवाद का यह हमला बाहर से ज्यादा भीतर से है. ऐसे में विश्लेषण के रास्ते अपने भीतर के रूपांतरण को हम चुनौती दे सकते हैं.

21 वीं सदी में यानि हमारे वर्तमान में एडोर्नो को हम क्यों पढ़े?  यह भी कहा जा सकता है कि एडोर्नो ने ये बातें जब कहीं तो उनके समक्ष अमेरिकी समाज की हलचले थी .
हम जानते हैं कि पूंजी का उद्देश्य समूची दुनिया को एक विशाल बाज़ार में और मनुष्यता को उपभोक्ता में बदल देने की है. इस कोशिश में पूंजी न तो देश की सीमाओं को स्वीकार करती है और न ही समय की वर्जनाओं को. आज जब बदलते भारत को हम देखते हैं तो यह देखना कठिन नहीं है कि आज़ादी के बाद भारत में जो पूंजी का प्रसार हुआ है उसने इसके एक बड़े हिस्से को बीसवीं सदी के अमेरिकी समाज के बेहद करीब ला दिया है. हिंसा -क्रूरता को राजनीति के दायरे से बाहर कर दिया है. आप सत्तर के दशक तक की भारतीय फिल्मे देखें तो यह देखना कठिन नहीं है कि लोकप्रियता के नाम पर भी नायक हमेशा आदर्श को बचाने की कोशिश करता था. वह हत्यारों के विरुद्ध संघर्ष करता था .लेकिन 90 के दशक तक आते-आते नायक खुद हत्याओं में मशगुल हो गया. वह एक छाया नायक की भूमिका में आ गया. ऐसा इसलिए हुआ कि पूंजी की भूमिका निर्णायक होने लगी. फिल्म एक बड़े उद्योग में बदल गया.


21 वीं सदी के भारत को समझने में, उसके समक्ष चुनौतियों को परखने में एडोर्नो नये सिरे से प्रासंगिक नज़र आते हैं. एडोर्नो ने उत्तरपूंजीवाद के चरित्र और समाज पर उसके प्रभाव के विषय में जो बातें बीसवीं सदी के मध्य कही थीं वे एक हद तक वर्तमान भारतीय समय और समाज पर लागू होती नज़र आती हैं. समाज संस्कृति और राजनीति का चेहरा समूची दुनिया में बदला है. इस बदलाव के मूल में पूंजी की भूमिका है. एडोर्नों इसे उद्घाटित करते हैं. वे संकृति में रूपांतरित राजनीति और राजनीति की बदलती संस्कृति को हमरे समक्ष रखते हैं. वे इस बात के लिए हमें सचेत करते हैं कि मनुष्य के रूप में और समाज की एक इकाई के रूप में हम इस परिवर्तन को परखें और 21 वीं सदी के नये प्रश्नों को नये परिप्रेक्ष्य में व्याख्यायित करें. मनुष्य के रूप में अधिक सचेत मनुष्य होकर इसे चुनौती दी जा सकती है.
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संदर्भ:
1.Dialectics of enlightenment , Theodor W.Adorno, Max Horkheimer ,Translated by Edmund Jephcott , 2002,Sandford California, Page  6
2.Ibid ,8
3.Ibid ,19
4.Negative Dialectics ,Theodor W.Adorno, Translated by E.B.Ashton , 1973 , Routledge , London ,Page 320
5.The Culture Industry Selected essays on mass culture , Theodor W.Adorno 1991 , Routledge , London ,Page 109
 6 Ibid, 112
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  1. संस्कृति और उद्योग का पूंजीवादी रिश्ता इतना मोनोलिथिक नहीं। मुझे याद आते हैं वे भव्य स्थापत्य जिसमें कलाकार की चेतना को नियंत्रित राजा, बादशाह या सामन्त करता था। कलाकार की निजता शासकीय प्रबंधन का हिस्सा थी। कलाकार की संघर्षमूलक चेतना को वर्चस्व और अधिनायकवाद ने बार-बार नियंत्रित किया। कलाकार, लेखक और बुद्धिजीवी को सत्ताएं हड़पने की कोशिश करती रही हैं।
    फ़िल्में हमारी चेतना का सदा उन्मूलन ही करती हों, यह भी सच के हिस्से को छिपा ले जाना है।

    यांत्रिकता को अतिवाद की रोशनी में देखना भी एक तर्क है। चूहे का उदाहरण अपील करता है लेकिन विज्ञान और विकास को बर्बरता में परिणित करके देखना भी एकांगी है। एक पैरासाइट को समझने के लिए उसके होस्ट को ज़िंदा रखकर परीक्षण किया जाता है। यह अमानवीय है, लेकिन वेक्सीनों ने कई प्रजातियों को बेहतर जीवन दिया है;यह केवल सूचना या तथ्य नहीं है।

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  2. बेहद शानदार मीमांसा। एडोर्नो का यह मानना कि दुनिया विकासवाद की ओट में फासीवाद तक पहुँच जाती है उनके पक्ष को निश्चित दिशा प्रदान करता है, वे एक अमू्र्त्त चिंतक भर नहीं थे।आखिर प्रबोधन की आधुनिक चेतना से लैस दुनिया नाज़ीवाद की बर्बरता तक कैसे पहुँच गयी? बड़ा प्रश्न है। अच्युतानंद मिश्र जी को बधाई एडोर्नो की प्रबोधन विषयक स्थापनाओं को भारतीय परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करने के लिए। बधाई समालोचन को भी।

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  3. साथी अच्युतानंद मिश्र को बधाई इस परिश्रम के लिए साथ ही धन्यवाद राहुल देव को कि उन्होंने यह हमारे लिए प्रस्तुत किया।

    रविरंजन

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  4. साथी अच्युतानंद मिश्र को बधाई,वौद्धिक विश्लेषण कि यह प्रक्रिया राष्ट्र चिंतन है.

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  5. रविरंजन जी राहुल देव की जगह अरुण देव कर लें.

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  6. एक बढ़िया शोध लेख और विश्लेषण। खास तौर पर मास कल्चर के निर्माण सन्दर्भ में। शुक्रिया।

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