सबद भेद : अदम गोंडवी की शायरी : संतोष अर्श





अदम गोंडवी (22 अक्तूबर 1947- 18 दिसंबर 2011) हिंदी में दुष्यंत कुमार के बाद दूसरे सबसे प्रसिद्ध शायर हैं. उनकी गज़लों की धार बड़ी तेज़ और मारक है. 

आज़ादी के बाद की राजनीतिक विडम्बना  और सामाजिक विद्रूपता पर उनके पास असरदार और यादगार कविताएँ हैं.
उनकी जयंती पर आज उन्हें स्मरण करते हुए संतोष अर्श का यह आलेख .


अदम गोंडवी : जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से        
संतोष अर्श 


एशियाई हुस्न की तस्वीर है मेरी ग़ज़ल
मशरिकी फ़न में नई तामीर है मेरी ग़ज़ल
     
अपनी ग़ज़ल के लिए यह एतिमाद और फ़ख्र भरा शेर कहने वाले रामनाथ सिंह अदम गोंडवी की ग़ज़लों में सचमुच एशियाई कविता की भाव-धारा और हिंदुस्तानी भाषा की संवेदनात्मक आक्रामकता नमूदार होती है. उनकी ग़ज़लें, जिस समय से मुठभेड़ कर रही हैं वह समय, कविता में प्रतिरोध की जिस क्षमता की माँग करता है, उसी प्रतिरोधात्मक भाषा की शक्ति से भरी-पूरी हैं. कबीर सी फक्कड़ मस्ती और सच कहने का हुनर जो बड़ी साधना के बाद, जीवन के तकलीफ़देह यथार्थ से दो-दो हाथ करने के बाद हासिल होता है, अदम के शेरों में पेश-पेश है.  
     
दिसंबर, 2011 की सर्दियों में मृत्यु से कुछ समय पूर्व लीवर सिरोसिस से पीड़ित, मरणासन्न, जनता के कवि, शाइर मुफ़लिस अदम को लखनऊ पीजीआई में भर्ती नहीं किया जा रहा था. धरतीपुत्र कहे जाने वाले वरिष्ठ समाजवादी नेता मुलायम सिंह यादव  अलस्सुबह ख़ुद पीजीआई (संजय गाँधी आयुर्विज्ञान संस्थान, लखनऊ) पहुँच कर अदम को भर्ती कराते हैं. चारागरी का बंदोबस्त करते हैं. आख़िर अदम भी धरतीपुत्र कवि थे. खेती और शाइरी एक साथ करते थे. और इस पूरे घटनाक्रम में हमें सियासत और अदब के अंतिम रोमानी रिश्तों की बुलंदी दिखाई देती है, जो पिछली सदी में ही बहुत पहले ख़त्म हो चुके थे. एक धरतीपुत्र की दोस्ती और ज़मीनी संवेदना ने दूसरे धरतीपुत्र कवि को ख़ुदा-ए-सुख़न मीर की तरह यह उलाहना देने का मौक़ा नहीं दिया कि-

बाद मरने के मेरी क़ब्र पर आया वो मीर
याद आई मेरे ईसा को दवा मेरे बाद 

लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी. शराब ज़िगर को फूँक कर मौत का इंतज़ाम कर देती है. वो भी जब अदम सा पीने वाला हो ! शाइरी और शराब का क्या रिश्ता है ? शाइर शराब क्यों पीता है ?
     
दिमाग़ी फ़िरावानियों के बग़ैर शाइरी केवल एक क़वायद बनकर रह जाती है. अदम उन्हीं फ़िरावानियों के शाइर थे. इसलिए शौक़े-फ़िरावाँ रखने वालों के प्रिय थे. सबके महबूब और मक़बूल जनकवि अदम गोंडवी.                          
     
अदम गोंडवी ने दुष्यंत के विनम्र प्रतिरोध को धार और आक्रामकता के साथ व्यंग्य का जो दर्प दिया, उसने उन्हें हिन्दी का लोकप्रिय ग़ज़लगो शाइर बनाया. ग़ज़ल कहने की ज़मीन (मीटर और व्याकरण) होती है लेकिन अदम ज़मीन (धरती) पर पाँव जमा कर ग़ज़ल कहते हैं शायद तभी उनकी ग़ज़लों का एक संग्रह धरती की सतह पर नाम से प्रकाशित हुआ. ज़मीन और आदमी के सहज सम्बन्धों को व्यक्त करने के लिए बड़े-बड़े दार्शनिकों और समाजशास्त्रियों को बड़ी मशक्कत करनी पड़ी है लेकिन अदम का एक शेर इन्हें तरलता के साथ बेरोक-टोक हमारे हृदय पर तारी कर देता है. अदम बार-बार साहित्यकारों को ज़मीन की ओर लौटने के लिए कहते हैं-

अदीबों ठोस धरती की सतह पर लौट भी आओ  
मुलम्मे के सिवा क्या है फ़लक के चाँद तारों में 

ग़ज़ल गुफ़्तगू करती है ! यक़ीनन अदम की ग़ज़लें भी गुफ़्तगू करती हैं लेकिन ऊँची आवाज़ में, आँखों में आँखें डालकर- महबूब से नहीं ! हाकिमों से, मुख़्तारों से, सरमायादारों की कनीज़ आततायी सत्ता और उसके रजअतपसंद ख़्वाजासराओं से !

जिनके चेहरे पर लिखी थी जेल की ऊँची फ़सील
रामनामी ओढ़कर संसद के अंदर आ गए
कल तलक जो हाशिये पर भी न आते थे नज़र
आजकल बाज़ार में उनके कलेण्डर आ गए

और इस गुफ़्तगू या ग़ालिबन तकरार में; उनकी ग़ज़ल प्रतीकों और मुहाविरों में तो शास्त्रीयता का निर्वाह करती है लेकिन लीक से हटकर तीखेपन के साथ ! उर्दू की ग़ज़लगोई की लज़्ज़त बरक़रार रखते हुए. कहने वाले कहते हैं कि वे हिन्दी की ग़ज़ल में दुष्यंत के उत्तराधिकारी बनकर आए थे. नई भाषा, रचाव और मुहाविरेदानी के साथ ! ग़ज़ल की मुलायमियत को तेवर में तब्दील कर. परंपराभंजक बनकर ! उसका अनुसरण करके नहीं. लेकिन क्या इन फ़सानों से अदम की शाइरी मेल खाती है ? ख़ैर ! गंगाजल के बारे में वे क्या कहते हैं ?

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

बगैर उर्दू की मुहाविरेदानी के ग़ज़ल कही जा सकती है. लेकिन क्या वो ग़ज़ल होगी ? स्वयं अदम ने ही शुद्ध हिन्दी में ग़ज़लें कही हैं-

मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
ये समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

लेकिन, उनकी प्रभावी ग़ज़लें वही हैं जिनमें उर्दू तग़ज़्जुल का लबो-लहज़ा क़ायम है. ये बात और है कि उनकी भाषा क्लिष्ट नहीं होने पाती है. प्रेमचंदी हिन्दुस्तानी, जो गँवई-गँवार की, आम-अवाम की भाषा भी है, अपने रचाव और अनुभूति की तीव्रता से व्यंग्य की मारक क्षमता बढ़ाती है.

कहीं फागुन की दिलकश शाम फ़ाकों में गुज़र जाए
मेरा दावा है इसके हुस्न का जादू उतर जाए
तख़य्युल में तेरे चेहरे का ख़ाका खींचने बैठे
बड़ी हैरत हुई जब अक्स रोटी के उभर आए
     
अदम के यहाँ पहले तो व्यवस्था पर चोट है फिर श्रम की महत्ता है. किसान-मज़दूर की पक्षधरता है. जनता की शक्ति पर यक़ीन है क्योंकि वे प्रतिबद्ध, पार्टी कैडर हैं. बदलाव के लिए वे हथियार उठाने तक को तैयार हैं. सबसे मारक है व्यंग्य ! जो तिलमिलाने पर मजबूर करता है. व्यंग्य इसलिए भी मजबूत है क्योंकि उनकी कर्मभूमि अवध है और मातृभाषा अवधी है. अवधी भाषा अपने सामान्य वार्तालाप में ही व्यंग्यात्मक है लिहाज़ा अवधीभाषी अच्छे व्यंग्य करते हैं. व्यंग्यात्मकता अदम के शेरों में चिंगारी की तरह व्याप्त है. उदाहरण के लिए कुछ शेर देखे जा सकते हैं-

जो डलहौजी न कर पाया वो ये हुक्काम कर देंगे
कमीशन दो तो हिंदुस्तान को नीलाम कर देंगे

कुछ राजनीतिक और अत्यंत चर्चित, संसद-विधानसभा तक में कहे-सुने जाने वाले व्यंग्यात्मक शेर-

काजू भुने प्लेट में व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में
कोई भी सरफिरा धमका के जब चाहे ज़िना कर ले
हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है

कहीं-कहीं व्यंग्य में इतनी सघन संवेदनात्मकता है कि पाठक-श्रोता को द्रवित कर दे, ऐसी अनुभूतियों को कविता में लाने का कारण हृदय को टूटने से बचाने का अंतिम उपाय होता है. आख़िर तंज़ भी दिल टूटने से बचाने की एक तरक़ीब है-   

घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है
बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है
भटकती है हमारे गाँव में गूँगी भिखारन-सी
ये सुबहे-फरवरी बीमार पत्नी से भी पीली है

पीलापन उदासी का प्रतीक है. बौद्धों ने अपने दु:खवाद को प्रदर्शित करने के लिए पीले रंग का परिधान चुना. बीमार पत्नी का पीलापन एनीमियाग्रस्त ग़रीब गर्भवती भारतीय औरत का पीलापन भी हो सकता है और पीलियाग्रस्त बच्चे का भी ! यही पीलापन उर्दू के कीट्स कहे जाने वाले मजाज़ के यहाँ भी दिखता है. महवे-यास होने की शिद्दत से भरा पीलापन- जैसे मुफ़लिस की जवानी, जैसे बेवा का शबाब. ज़र्द आँख के आँसू पीले होते हैं. दुष्यंत किसी की आँखों के जंगल में राह भूल जाते थे, वह जंगल ज़रूर पीला रहा होगा. रॉबर्ट फ्रॉस्ट के जंगल की तरह...Two roads diverged in a yellow wood..!                  

रजनीश या ओशो जो भारत के आध्यात्मिक गुरुओं में शुमार होते रहे हैं. उनके आश्रम में योग से भोग तक के पर्दे में होने वाले व्यभिचार को अदम ने अपने कई शेरों में निशाना बनाया है. कहा जाता है अदम ओशो का आश्रम अपनी आँखों से देखकर आए थे.

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
सभ्यता रजनीश के हम्माम में है बेनक़ाब
अथवा,

प्रेमचंद की रचनाओं को एक सिरे से खारिज़ करके
ये ओशो के अनुयायी हैं कामसूत्र पर भाष्य लिखेंगे 
दोस्तों अब और क्या तौहीन होगी रीश की
ब्रेसरी के हुक पे ठहरी चेतना रजनीश की

    

अदम उसी प्रकार पीड़ा से परिहास करते हैं जिस प्रकार ग़ालिब जैसे उर्दू के बड़े शाइरों ने अपनी शाइरी में किया है. भूख अदम के यहाँ सबसे बड़ा सच है. भूख तमाम ज्ञान की जननी है. बड़े-बड़ों को ज्ञान भूख से मिला. भूख उनकी हर ग़ज़ल में आई है अपने उसी भयानक रूप में जिस रूप में वह भारत की सत्तर फ़ीसदी आबादी का सत्य रही है. शायद इसीलिए अदम के बहुत से शेरों में भूख बार-बार चीखती है-

इन्द्रधनुष के पुल से गुजरकर उस बस्ती तक आए हैं
जहाँ भूख की धूप सलोनी चंचल है बिंदास भी है
   कहीं पर भुखमरी की धूप तीखी हो गयी शायद
जो है संगीन के साये की चर्चा इश्तहारों में
   ज़ुल्फ, अँगड़ाई, तबस्सुम, चाँद, आईना, गुलाब
भुखमरी के मोर्चे पर ढल गया इन का शबाब
भुखमरी की जद में है या दार के साये में है
अहले हिंदुस्तान अब तलवार के साये में है
शबनमी होंठों की गर्मी दे न पाएगी सुकून
पेट के भूगोल में उलझे हुए इंसान को

भूख बाइसे-बग़ावत बनेगी यह भरोसा भी शाइर को है-
  
सत्ता के जनाज़े को ले जाएँगे मरघट तक
जो लोग भुखमरी के आगोश में आए हैं      
  
इसीलिए वे भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलने की बात करते हैं-

भूख के एहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

इसीलिए उन्हें गर्म रोटी की महक पागल कर देती है. गंध की कितनी मादक अनुभूति है, ऐसी भी तरक़्क़ीपसंद शाइरी कहीं होगी क्या ?

गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्यार का मधुमास लेकर क्या करें

अदम गँवई-गँवार के अगुवा, अलमबरदार कवि हैं इसलिए वे श्रम की महत्ता जानते हैं. इसीलिए किसान के श्रम की फ़िक्र भी है और झोंपड़ी से राजपथ का रास्ता हमवार करने की कोशिश भी है. दुनिया में जो कुछ भी सुंदर है वह श्रम से निर्मित हुआ है. किन्तु मेहनतकश को जब उसके श्रम के एवज़ में भुखमरी के सिवाय कुछ नहीं मिलता तो अदम की शाइरी अपने चिर-परिचित अंदाज़ में कहती है-

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है
उसी के दम से रौनक आपके बंगलों में आई है

यहाँ तक सभ्यता का निर्माण भी घीसू के पसीने से ही हुआ है-

न महलों की बुलंदी से न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

गाँव के अमानुषिक वातावरण, ग़रीबी, भुखमरी, शोषण, दमन सबको देखने की बारीक़ निगाह अदम में है इसीलिए वे जनकवि हैं. सरयू नदी की बाढ़ का कैसा जीवंत चित्र है इस शेर में, जो हश्र (प्रलय) का प्रभाव पैदा कर रहा है-

कितनी वहशतनाक है सरयू की पाकीज़ा कछार
मीटरों लहरें उछलती हश्र का आभास है

गाँव के बारे में, महानगरों में बैठकर आँकड़े जुटाने और बनाने वाले लोगों को यह ख़बर नहीं है कि कितने लोग गाँव छोड़कर शहरों की ओर कमाने निकल गए हैं. विस्थापन की यह पीड़ा और लाचारी कैसी होती है, यह महानगरीय अफ़सरशाही और मध्यवर्गीय हिप्पोक्रेसी की पहुँच से दूर की बात है.

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है
हमारे गाँव का गोबर तुम्हारे लखनऊ में है
जवाबी ख़त में लिखना किस मोहल्ले का निवासी है

सिर्फ एक प्रतीक के रूप में प्रेमचंद के किसान जीवन पर लिखे गए महाकाव्यात्मक उपन्यास गोदान के पात्र गोबर का प्रयोग करने मात्र से शेर कितना प्रभावी और वज़न हो गया है. गोदान का थोड़ा सा सत्व ही इसमें निचुड़कर आ गया है. अपसंस्कृति, साहित्यकारों की खेमेबाजी और हवाई साहित्य, सांप्रदायिकता, लालफ़ीताशाही, पूँजीवादी व्यवस्था के प्रति आक्रोश, क्रांतिधर्मा चेतना और राजनीतिक अगुवाकारी की विफलता से जन-सामान्य में उपजा संत्रास अदम की ग़ज़लों का बीज-भाव है. सर्वत्र विद्रोह और नकार, प्रतिरोध और मुक्ति की कामना उनके शेर-शेर में व्यंजित होती है.

जनता के पास एक ही चारा है बग़ावत
ये बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

परिवर्तन की ये उद्दाम चाह जीवन में तमाम मानसिक और भावनात्मक यातनाओं से गुज़रने के बाद पैदा होती है. ये हिन्दी ग़ज़ल का मिज़ाज भी रही है, दुष्यंत भी यातनाओं के अँधेरे में सफ़र करते थे. यह अँधेरा अदम के यहाँ और स्पष्ट है लेकिन, प्रकाश के साथ-

अचेतन मन में प्रज्ञा कल्पना की लौ जलाती है
सहज अनुभूति के स्तर में कविता जन्म पाती है

धर्म, इतिहास और शास्त्र का नकार बहुत कड़े शब्दों में है, शायद दलितों के हवाले से-

वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्था विश्वास लेकर क्या करें
लोकरंजन हो जहाँ शंबूक वध की आड़ में
उस व्यवस्था का घृणित इतिहास लेकर क्या करें

कुल मिलाकर अदम की ग़ज़लें उस हिंदुस्तान का साफ़ नफ़ीस आईना हैं जहाँ रहकर उन्होंने अपनी ग़ज़ल को रवानी दी है. और जिन पर मुख़्तसर चर्चा पर्याप्त नहीं है.

दिल लिए शीशे का देखो संग से टकरा गयी
बर्गे-गुल की शक्ल में शमशीर है मेरी ग़ज़ल

अदम की कुछ नज़्में भी हुई हैं. गिनती भर की. नज़्मों में चमारों की गली नज़्म अधिक मजबूत है क्योंकि इसमें दलित-चिंतन के साथ एक कथानक भी है. चमारों की गली दलितों के शोषण और सामंती सवर्ण जातियों द्वारा उन पर ढाये गए ज़ुल्मों का बयान करने वाली रचना है. लोकतंत्र के मास्क में छुपे भारत के सत्तरसाला भ्रष्ट सवर्णतंत्र को यह रचना बरहना करती है. बरहनागो तो अदम हैं ही ! पचपन पदों वाली इस रचना में कृष्णा नाम की एक दलित लड़की की करुण कहानी है जिसके साथ गाँव ही के ठाकुर ने बलात्कार किया है. और पुलिसिया दमन का सामना भी पीड़ित और उसके परिवार को करना पड़ रहा है. कहते हैं यह रचना अदम के गाँव में घटी एक घटना पर आधारित है जिस पर पुलिस, मीडिया और प्रशासन का ध्यान नहीं गया था. ठाकुरों की सामंती ठसक और पुलिस की भ्रष्ट छवि को उजागर करती यह रचना अपनी भाषा, शैली और कथ्य में भी ठोस है. रचना के पहले ही बंद में एक विशिष्ट ओज है-

आइये महसूस करिए ज़िंदगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आप को


दलित लड़की कृष्णा के लिए उन्होंने यूरोपीय नवजागरण काल के चित्रकार लिओनार्दो द विंची के प्रसिद्ध चित्र मोनालिसा का प्रतीक प्रयोग किया है जो अपनी सादगी के बावज़ूद चित्रकला के इतिहास में कालजयी रचना है-

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूँ सरयू पार की मोनालिसा

सरयू पार की मोनालिसा में कला का एक अनूठापन है जो साधारण होकर भी असाधारण है. गोंडा के ग्रामीण परिवेश में मोनालिसा की परिकल्पना कितनी सौंदर्यात्मक है और यही अदम की कला का उरूज़ है. मोनालिसा की मुस्कान के पैमाने से दलित लड़की कृष्णा के सौंदर्य को मापने का यह तरीका कवि की कल्पना का उत्कर्ष है. और छंद का आयाम भी क्या ख़ूब है. ज़िंदगी के ताप को महसूस करने के लिए चमारों की गली तक अदम ख़ुद ही नहीं जाते साथ में अपने श्रोता-पाठक को भी ले जाते हैं. गाँव का परिवेश भी एक ऐसी ही नज़्म है. अड़तीस पदों की यह रचना गाँव के परिवेश के जीवंत चित्र खींचती है-

व्याख्या ये भ्रम में रखने का अनोखा दाँव है
नर्क से बदतर तो अपने देश का हर गाँव है

इस कविता की ये पंक्तियाँ भारतरत्न अंबेडकर के उस कथन की याद दिलाती हैं जिसमें उन्होंने भारतीय गाँवों को अमानुषिक जातीय भेद-भाव का नर्क कहकर दलितों को शहर की ओर जाने की बात कही थी.
     
फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा है, अलग़रज ग़ज़ल बहुत दिक करने वाली चीज़ है. बिना दिक हुए ग़ज़ल कही जा सकती है क्या ? ग़ज़ल कहते बहुत लोग हैं लेकिन क्या वो ग़ज़ल ही होती है ? ग़ज़लगो का काम वकालत का पेशा होता है. मिसरे-उला में वह अपनी दलील देता है और मिसरे-सानी में उसकी वकालत करता है. ग़ज़ल मुहाविरे से बात करती है और उर्दू की चीज़ है इसलिये उर्दू से दूर रहकर ग़ज़ल को नहीं पाया जा सकता. हिन्दी के कई ग़ज़लकार इसीलिए फ्लॉप हुए. अदम से पहले दुष्यंत ने भी इस बात को बखूबी समझा था और उनकी ग़ज़लगोई हिन्दी ग़ज़ल के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुई. अदम, दुष्यंत से और आगे गए हैं. उन्होंने न केवल उर्दू और बोलचाल की हिन्दुस्तानी के मुहाविरों को चुना है बल्कि क्लासिक उर्दू शायरी के प्रतीक भी अपनी ग़ज़लों में  इस्तेमाल किए हैं. उदाहरण के लिए यूसुफ़ और ज़ुलेखा प्रतीकों को लेते हैं. उर्दू ग़ज़ल की परंपरा में इन प्रतीकों का अपना विशिष्ट महत्व है. इनका धार्मिक महत्व भी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. अदम शेर कहते हैं-

सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेख़ा के इशारों पर
हक़ीक़त ये है यूसुफ़ आज भी नीलाम होता है

उर्दू के इन परंपरागत प्रतीकों के प्रयोग से शेर लाजवाब हो गया है. युसुफ़-ज़ुलेख़ा का क़िस्सा भी क्या क़िस्सा है ! पैग़ंबर याक़ूब के बेटे यूसुफ़ को मिस्र के बाज़ार में बिकना पड़ा था. ज़ुलेख़ा उन पर आशिक़ थी और उसकी आशिक़ी ने उन्हें क़ैदख़ाने तक पहुँचाया. उर्दू शाइरी में यूसुफ़ हुस्न और सदाचार के प्रतीक हैं. और कैसे-कैसे प्यारे शेर उन को प्रतीक बनाकर लिखे गए हैं.  

मिसाले-दस्ते-ज़ुलेख़ा तपाक चाहता है
ये दिल भी दामने-यूसुफ़ है चाक चाहता है (अहमद फ़राज)
आबगीनों की तरह टूट गया टूट गया
ख़्वाबे-यूसुफ़ में ज़ुलेख़ा का भरम आप ही आप (फ़े सीन एजाज़)
दुनिया में फ़क़त एक ज़ुलेख़ा ही नहीं थी
हर यूसुफ़े-सानी के ख़रीदार मिले हैं (हकीम नासिर)
हुस्न क्या जिसको किसी हुस्न का ख़तरा न हुआ
कौन यूसुफ़ हदफ़-ए-क़ैद-ए-ज़ुलेख़ा न हुआ (रशीद क़ौसर फ़ारुक़ी) 

सियासी बज़्म में अक्सर ज़ुलेख़ा के......... अदम के इस शेर में प्रतीक वही क्लासिक ग़ज़ल परंपरा के यूसुफ़ और ज़ुलेख़ा हैं लेकिन यहाँ आकर उनके मानी बदल गए हैं. ज़ुलेख़ा पूँजी का प्रतीक है और यूसुफ़ जन का. सत्य ये है राजनीति की महफ़िल में ज़ुलेख़ा-पूँजी के इशारों पर यूसुफ़-जन आज भी नीलाम होता है. उर्दू शायरी की परंपरा का एक ऐसा किरदार जो आध्यात्मिक प्रेम, प्रिय के सौंदर्य और सदाचार के लिए प्रयुक्त होता आया है अदम ने उसे जन के लिए प्रयोग करके उसके भोलेपन और निरीहता को स्थापित किया है. 

अदम की ग़ज़लों की कलात्मकता सिर्फ़ भाषा, मुहाविरों और शेर की रवानी के आधार पर नहीं आँकी जा सकती. शेर की गहराई की थाह उनकी बारीक़ निगाही से भी नापी जा सकती है. एक किसान के तजुर्बात प्रगतिशील कविता के लिए कितने उपयोगी हो सकते हैं यह अदम के निम्नलिखित शेर बताएँगे-
 
 बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
रमसुधी की झोंपड़ी सरपंच की चौपाल में 
खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हमको पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में

रमसुधी की झोंपड़ी का सरपंच की चौपाल में खो जाना उसी तरह की प्रक्रिया है जैसे जमींदारी उन्मूलन के दौरान प्रारम्भ की गयी सीलिंग यानी अधिकतम जोत सीमा आरोपण अधिनियम. इस क़ानून के तहत जिस किसी के भी पास साढ़े बारह एकड़ से अधिक कृषि योग्य भूमि थी, सरकार द्वारा उसका अधिग्रहण कर भूमिहीन किसानों में बाँट दिया जाता था. यह कानून 1960 ई॰ में आया था लेकिन इसके क्रियान्वयन में जो भ्रष्टाचार राजस्व कर्मियों और जमींदारों की साँठ-गाँठ से हुआ उसको नंगा करने के लिए अदम ने उपर्युक्त शेर कहे. यह वही दौर था जब जमींदारों ने गर्भ के बच्चों के नाम भी अपनी ज़मीनों के पट्टे करा दिये थे और भूमिहीनों को बक़ौल अदम पट्टे की सनद ताल (तालाब) में मिलती थी. वे उसमें खेती कर पाएँ तो करें नहीं तो कूदकर आत्महत्या कर लें. यह जो बात कहने का चुटीला और चमकता हुआ ढंग है यह अदम की ग़ज़ल का कलात्मक मेयार ऊँचा करता है. इसी तरह अदम ने कई शेरों में नख़ास शब्द का इस्तेमाल किया है. लखनऊ की विक्टोरिया रोड पर प्रत्येक रविवार को लगने वाली लगभग दो सौ वर्ष पुरानी बाज़ार को नख़ास की बाज़ार कहा जाता है. जहाँ प्रत्येक वस्तु की सस्ती सेकेंड हैंड उपलब्धता प्रसिद्ध रही है. अपने शेर में व्यंग्य की धार तेज़ करने के लिए नख़ास की बाज़ार को अदम इस तरह प्रयोग करते हैं-

पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें
संसद बदल गयी है यहाँ की नख़ास में

ये अदम की ग़ज़लगोई की अलहदा नज़ीर है. भाषा के भी विविध आयाम अदम की ग़ज़लों में दिखते हैं एक तरफ तो वे कहते हैं-

अर्ध तृप्ति उद्दाम वासना ये मानव जीवन का सच है
धरती के इस खंडकाव्य पर विरह दग्ध उच्छ्वास लिखा है
तो दूसरी ओर-

बहरे-बेकराँ में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाये सफ़ीने से

उर्दू शायरी का कोई क़द्रदान यह नहीं कह सकता कि उपरोक्त शेर उर्दू का नहीं है. यहाँ सफ़ीने शब्द पर भी गौर करना होगा जो एक धार्मिक इस्लामी प्रतीक है और हिज़रत से जुड़ा है. भाषा के प्रयोग के लिए अदम आने वाले दिनों में और भी ख़ास हो जायेंगे. ऐसी भाषा हिन्दी साहित्य में मुंशी प्रेमचंद जैसों को ही सधी थी और यह भी इत्तेफ़ाक है कि अदम बार-बार अपने शेरों में मुंशी प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों के पात्रों को बुला लेते हैं. घीसू, होरी, धनिया, मंगल, गोबर के साथ-साथ एक स्थान पर रेणु का हीरामन भी आया है.

हीरामन बेज़ार है, उफ़ ! किस कदर मंहगाई है
आपकी दिल्ली में उत्तर-आधुनिकता आई है   

उर्दू शायरी के तमाम प्रचलित अरबी-फ़ारसी कचराही शब्द अदम ने जमकर प्रयोग किए हैं. जैसे- रजअत, इलहाम, ज़दीद, इज़ारेदार, कुदूरत, नीलगूँ, जाफ़ाश, ज़द, शफ़क़त, गरानीपैहम, हैय्यत, रवायतआहनी, खुदसरी, तबीब, मरदूद, बेज़ार, फ़ैसलाकुन, फ़सील, जाँफ़िशानी, लन्तरानी, महकार, मर्तबा, इदारा, फ़र्द, क़बा, शिगूफ़ा, नीलोफ़र, रकाबी, बरहना, ज़िना, तमद्दुन, बहरे-बेकराँ, तख़य्युल, शीराज़ा, दहकान, गंदुम आदि. ये सभी शब्द क़स्बाई और कचराही मिठास रखते हैं. इज़ाफ़त जो थोड़ी-बहुत अदम के शेरों में मिलती है वह उर्दू ग़ज़ल से प्रेरित है. बोलचाल के शब्दों और मुहाविरों का निखरा हुआ रूप है. मुहाविरे हिंदी और उर्दू  दोनों के खिले हैं जैसे- बापू  के बंदर, फ़ैसलाकुन ज़ंग, कल तलक, वक़्त के सैलाब, साहिबे किरदार, आग का दरिया, ठंडा चूल्हा, रँगीले शाह का हम्माम, आँख पर पट्टी, अक़्ल पर ताला, तालिबे-शोहरत, जाये भाड़ में, ख़ुदा का वास्ता, शिगूफ़ा उछालना, ढ़ोल पीटना, ढीला गरारा, तवज्जो दीजिए, जहन्नुम में, शीराज़ा बिखर जाये, दीगर नस्ल, ग़रीब की आह, रामनामी ओढ़कर आदि.
     
ठेठ देहाती, गँवई-गँवार अवधी के मुहाविरे भी मिलते हैं जैसे- पट्टे की सनद, खेतों में बेगार, दीवार फाँदने में (किसी की बहू-बेटी के प्रति बुरी निगाह या व्यभिचार सूचक), कुर्वोजवार, सोलह-उन्नीस, आक-थू आदि. अंतर इतना है कि मूल मुहाविरों को ग़ज़ल की बंदिश के अनुसार थोड़ा-बहुत परिवर्तित कर लिया गया है. अंग्रेज़ी के शब्द भी कहीं-कहीं प्रयोग किए गए हैं मसलन- जजमेंट, रिकार्ड, ब्रेसरी, स्कॉच आदि. साहित्यकारों के नाम और उनके साहित्य के बारे में क़सीदे के शेर भी अदम ने कहे हैं. अमृता प्रीतम और प्रेमचंद में उनकी अगाध श्रद्धा है. मंटो और मुद्रराक्षस को भी उन्होंने अपने शेरों में याद किया है. कहीं-कहीं व्यंग्य की बारंबारता मोनोटोनी (नीरसता) पैदा करती है और रचनात्मक व्याकरण भी कभी-कभी बिखर जाता है. लेकिन बहर से ख़ारिज़ होने के बावज़ूद शेर दहाड़ता रहता है.    
     
जनोन्मुखी साहित्य उम्रदराज़ होता है. अदम ने बहुत थोड़ा सा कहा और वह बहुत सुना गया. अल्फ़ाज़ की चिंगारियों की तुर्शी के साथ, निश्चय ही अदम की शाइरी आने वाली पीढ़ी की रहबरी को आकुल रहेगी. उनमें व्यवस्था को बदल डालने की जो बेचैनी है वह मिट्टी की महक से मह-मह महकती रहेगी. क्योंकि बक़ौल अदम-

इसकी अस्मत वक़्त के हाथों न नंगी हो सकी
यूँ समझिए द्रौपदी की चीर है मेरी ग़ज़ल  
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संतोष अर्श (1987, बाराबंकी, उत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह फ़ासले से आगे, ‘क्या पता और अभी है आग सीने में प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिक, सांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष त्रैमासिक में लगातार राजनीतिक, सामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.
फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी 

poetarshbbk@gmail.com 

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  1. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (23-10-2016) के चर्चा मंच "अर्जुन बिना धनुष तीर, राम नाम की शक्ति" {चर्चा अंक- 2504} पर भी होगी!
    अहोई अष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. कमाल के शेर और कमाल का लेख

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  3. बहुत पठनीय और सँग्रहणीय लेख है । पूरा पढा और अदम पर मुग्ध हुआ.।

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  4. सुबह से सोच रहा था अपने इस बेवफा यार पर क्या लिखूँ, अभी संतोष का लेख देखा,अदम के शेर देखे और उस ज़माने में खो गया।अच्छा लिखा है संतोष ने।बधाई एक अच्छे लेख की।आभार अरुण का।

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  5. संतोष को फ़ेसबुक पर बहुतेरे पढ़ा। लंबे लेख का अनुभव भी शानदार रहा। बधाई संतोष

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