रंग - राग : चौथी कूट (ਚੌਥੀ ਕੂਟ) : सूरज कुमार














निर्देशक गुरविन्दर सिंह की सिख अलगाववादी आन्दोलन की पृष्ठभूमि पर बनी पंजाबी फ़िल्म चौथी कूट (ਚੌਥੀ ਕੂਟ) अभी प्रदर्शित हुई है. यह कथाकार वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों पर आधारित है. यह पहली ऐसी पंजाबी फिल्म है, जो कान्स फिल्म महोत्सव में दिखाई जा चुकी है. 

इस फ़िल्म पर चर्चा कर रहे हैं सूरज कुमार.    



भारतीय सिनेमा की चौथी दिशा: चौथी कूट (FOURTH DIRECTION)            

सूरज कुमार


भारतीय परिप्रेक्ष्य में अगर सार्थक सिनेमा की बात करें तो बड़ी तादाद में ऐसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर आधारित मिलती हैं. ऐसे में  ये आकस्मिक नहीं  है कि चाहे बांङ्ग्ला में सत्यजित रे हों या कन्नड में गिरीश कासरवल्ली या हिन्दी में मनी कौल इन सबकी फिल्मों का आधार मूलतः साहित्य ही रहा है. भारतीय सिनेमा में ऐसे कई निर्देशक और भी  हुए हैं  जिन्होंने साहित्य आधारित गंभीर फिल्में बनायीं लेकिन उस पर अलग से चर्चा  की जा सकती है.  यहाँ इसी श्रृंखला में नवोदित निर्देशक गुरविन्दर सिंह का नाम लिया जा रहा है जिनकी दूसरी फीचर फिल्म चौथी कूट 5 अगस्त, 2016 को  रिलीज हुई है. 

गुरविन्दर की पहली फीचर फिल्म अंधे घोड़े दा दान (Alms for a blind horse) 2011 में रिलीज हुई थी जो गुरदयाल सिंह के इसी नाम के उपन्यास (1976 में प्रकाशित) पर आधारित थी. चौथी कूटपंजाबी कथाकार वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों पर आधारित है. पहली और दूसरी फिल्म के बीच पाँच साल का अंतराल बताता है कि निर्देशक ने इस फिल्म के लिए कितनी तैयारी की होगी. इस पंक्ति के लेखक को इस फिल्म को देखने का अवसर FTII पूणे में 6 जून को वहाँ हुए प्रदर्शन के दौरान  मिला. वहाँ निर्देशक से हुए संवाद से केवल दो-तीन  उदाहरण  इस तैयारी को स्पष्ट करता है . प्रीप्रॉडक्शन  में कहानी तय करने के बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है कास्टिंग और लोकेशन तय करना. ऐसे में कहानी के चरित्र के अनुरूप अभिनेता तय करना सबसे महत्वपूर्ण होता है, जिसका चयन  निर्देशक ने स्क्रीन टेस्ट और पूर्व में संपर्क में आए व्यक्तियों की पात्रों से उनकी साम्यता के आधार पर किया. 

लेकिन सबसे विलक्षण बात इस फिल्म के दूसरे महत्वपूर्ण पात्र टॉमी को लेकर है जो एक कुत्ता है. स्पेनिश फिल्म  ‘Amores  Perros’ की तरह इस  कुत्ते की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण थी. जाहिर है निर्देशक को भी वैसा ही कुत्ता चाहिए था सो उन्होंने तय किया कि इसके लिए गद्दीनस्ल का कुत्ता चाहिए. ट्रेनर के पास ये नस्ल नहीं थी इसलिए गद्दी नस्ल के पपी को पाला गया फिर उसे ट्रेनकिया गया. दूसरी बात फिल्म के लोकेशन को लेकर है. गौरतलब है कि  फिल्म में space और Time सबसे महत्वपूर्ण होता है. कहा भी जाता है Film is a spatiotemporal audio-visual medium’. समय 80 के दशक का है जबकि स्पेस तत्कालीन पंजाब और उसका ग्रामीण अंचल है. 

साहित्य में किसी स्थिति को  शब्दों के माध्यम से बड़ी आसानी से अभिव्यक्त किया जा सकता  है लेकिन सिनेमा में  वही बात अभिव्यक्त करना खासा कठिन हो जाता है. जैसे साहित्य में ये लिखना कि  हजारों लोग जा रहे थे बहुत आसान है जबकि फिल्म में उसे दिखाना उतना ही कठिन. फिल्म निर्माण में इस बात का खास खयाल रखना पड़ता है. इस फिल्म की स्क्रिप्ट में फ़ार्महाउस खेतों के बीच है. बक़ौल- निर्देशक इसे ढूँढने के लिए उनकी टीम को लगभग सौ घर देखने पड़े.

फ़िल्म का एक दृश्य

फिल्म दो कहानियों पर आधारित है. आम तौर पर जब उपन्यास पर आधारित फिल्म बनाई जाती है तब फिल्म की अवधि की तुलना में उपन्यास का आकार बड़ा होने के कारण उसमे काट-छांट की जाती है जबकि अगर कहानी को आधार बनाया जाता है तब उसमें आमतौर पर फ़िल्मकार अपनी तरफ से जोड़ता है या एक से अधिक कहानी का संयोजन करता है. यह कोई सिद्धान्त नहीं है, लेकिन इसके कुछ उदाहरण हैं- सत्यजित रे ने शतरंज के खिलाड़ी फिल्म में जनरल औट्रम और वाजिद अली खान की कहानी का पल्लवन किया था  जबकि कहानी में उसके संकेत मात्र  थे.  जबकि उनकी ही फिल्म तीन कन्या रवीन्द्रनाथ ठाकुर की तीन कहानियों (पोस्टमास्टर, समाप्ति और मनिहारी) पर आधारित थीं.

चौथी कूट  दो कहानियों पर आधारित है और फिल्म में भी दो समानान्तर कहानियां हैं जो एक जगह पर एक-दूसरे को छूती भर है. कई समीक्षकों ने दूसरी कहानी को अप्रासंगिक बताया है. दरअसल यह एक अलग विश्लेषण का विषय हो सकता है जिसके तहत फिल्म और वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों को साथ मे रख कर पढ़ा जाय. पर चूंकि सिनेमा निर्देशक का माध्यम है इसलिए यहाँ फिल्म को आधार बना कर बात करना अधिक समीचीन होगा. मुझे प्रेमचंद के उपन्यास गोदान की याद आती है जिसमें  समीक्षकों ने शहर की कथा को असंबद्ध कहकर खारिज करने का प्रयास किया था तब नलिन विलोचन शर्मा ने अपनी आलोचना के जरिये समानान्तर शिल्प के जरिये ग्रामीण और शहरी कथा के औचित्य को सिद्ध किया था. बिलकुल वैसा तो नहीं है लेकिन व्यक्तिगत रूप से मैं समझता हूँ  पूरे पंजाब में पसरे हुए दहशत के माहौल को केवल गाँव की जगह उसके बाहर के माहौल को भी इकठ्ठा पकड़ने के लिए फ़िल्मकार ने दोनों कथाओं को मिलाया होगा. 

फिल्म की कहानी अस्सी के दशक में, ऑपरेशन ब्लूस्टार (जून1984) के बाद की है. यह  हिंसा - निस्तब्धता - हिंसा के बीच की कहानी है. उल्लेखनीय है  हिंसा मुखर रूप में इसमे सामने नहीं आती लेकिन उसका अहसास पूरे वातावरण में व्याप्त है. सत्ता और अलगाववादियों के बीच फंसी आम जनता की ज़िंदगी कितनी त्रासद है इसे इस फिल्म में सटीक ढंग से उभारा गया है. कहा जा सकता है की पंजाब में अब ऐसे हालत तो नहीं हैं तो अब ऐसी फिल्म बनाने की क्या प्रासंगिकता है ? अगर हम अपने आसपास कश्मीर, उत्तरपूर्व , टर्की , बोको हरम और ISIS के इलाके में सत्ता और प्रतिसत्ता के बीच फंसे लोगों को देखें तो उनकी भी समस्या यही है. एक समीक्षक ने इस फिल्म कि तुलना Bruegel की पेंटिंग Fall of Icarus’ से की है जिसका भाव है  इतिहास की महत्वपूर्ण घड़ी घटित होने के पार्श्व में सामान्य जीवन यथावत चलता रहता है.

पेंटिग : Fall of Icarus

फिल्म की शुरुआत जुगल और राज नाम के दो हिन्दू दोस्तों से शुरू होती है जो जल्दी में अमृतसर के लिए ट्रेन पकड़ना चाह रहे थे जो छूट जाती है. उनके साथ एक सिख भी है. पता चलता है एक मालगाड़ी को अमृतसर जाना है लेकिन  आर्मी वालों ने चेतावनी दी है कि उस गाड़ी में कोई न बैठे. वो लोग बहुत चिरौरी करते हैं गार्ड से साथ ले चलने के लिए, वो मना करता है, ट्रेन चलने पर  बाद में वो लगभग जबर्दस्ती मालगाड़ी के गार्ड के डब्बे में घुस जाते हैं जहां पहले से और भी पैसेंजर होते हैं. गार्ड पहले तो भलाबुरा कहता है फिर पैसे भी लेता है. डिब्बे में पहले से जो यात्री हैं उनके बीच  बहुत कम संवाद की स्थिति है, एक अंजाना सा तनाव डिब्बे में भी पसरा होता है.

यहाँ से फिल्म फ़्लैशबैक में चलती है जहां जुगल याद करता है कि कैसे वह अपनी पत्नी और बच्ची  के साथ गाँव का रास्ता भूल जाता है जिससे जुड़ता हुआ कहानी का मुख्य हिस्सा शुरू होता है. गाँव के  रास्ते में एक  फ़ार्महाउस होता है, डरते-डरते वे  आवाज देते हैं, प्रतिक्रिया देर से होती है, फिर  भी दरवाजा खुलने पर भय दूर होता है. बाद में संक्षिप्त बातचीत के बाद घर का मुखिया जोगिंदर उन्हें उनके घर तक छोड़ता है. जोगिंदर अपनी बीवी, दो बच्चों, माँ और कुत्ते टॉमी के साथ  वहाँ रहता है. यहाँ जोगिंदर का परिवार  आतंकवादी और आर्मी वालों के बीच फंसा हुआ है. रात में आतंकवादी आकर  धमकाते हैं और दिन में आर्मी वाले. आतंकवादी चाहते हैं कि जब भी वो चाहें वे उन्हे आश्रय दे और आर्मी वाले आतंकवादियों को शरण देने के शक में उनके पूरे घर को उलट-पुलट देते हैं. रात में कुत्ते(टॉमी) का भौंकना  आतंकवादियों को नागवार लगता है और वो  जोगिंदर को उसे मार देने को कहते हैं. लेकिन टॉमी जोगिंदर और उसके परिवार के लिए मात्र कुत्ता नहीं है बल्कि परिवार के सदस्य जैसा है. उसे दूर छोड़ आने पर भी वो वापस आ जाता है. मारने की कोशिश करने पर भी वो उसे मार नहीं पाते. आतंकवादियों में से एक जोगिंदर की पहचान कबड्डी के खिलाड़ी के रूप में करता है, वो मजबूत भी है लेकिन उनके सामने असहाय है. लेकिन यह टॉमी ही है जो भूँकना नहीं छोडता, चाहे आतंकवादी हो या आर्मी वह किसी के सामने नहीं झुकता.

दरअसल टॉमी एक प्रतीक है प्रतिक्रियावादी ताकतों के खिलाफ खड़े होने का, उनसे सामना करने का डर, भय आतंक और त्रास  के अंधेरे के खिलाफ टॉमी उम्मीद की एक रौशनी है. कुल मिलकर चाहे वो आतंकवादी हों या सुरक्षा बल सभी आम जनता की समस्याओं को लेकर असंवेदनशील हैं. आम आदमी का इन दो चक्कियों के बीच अपने वजूद को बचाए रखना अपने-आप  में बड़ी चुनौती है.

बॉलीवुड की  फिल्मों में दिखाया जाने वाला पंजाब बहुत ही अस्वाभाविक और कृत्रिम सा दिखाई पड़ता है.   सरसों के खेत और नाचते-गाते  हुए पंजाबियों के  दृश्यों से हर सिनेमा दर्शक परिचित है .लेकिन वह केवल एक फैंटेसी है, वास्तविकता नहीं. वहाँ की वास्तविक राजनीतिक और सामाजिक स्थिति इतनी सरलीकृत नहीं है.  गुरदयाल सिंह की  इस फिल्म में परिवेश को यथासंभव प्रामाणिक बनाए रखते हुए परिस्थिति की जटिलता को दर्शाया गया  है.  इनकी फिल्मों में प्रकृति का अपना एक अलग व्यक्तित्व है. दिन का समय घने बादल और हरे खेत, वहीं रात की नीरवता ऐसी लगती है मानो हम खुद पात्रों के साथ खड़े हों. सत्यराय नागपाल की सिनेमैटोग्राफी  निर्देशक की सोच को पर्दे पर साकार करती है.

बाद में फिल्म वापस ट्रेन की ओर लौटती है और वहाँ स्टेशन आने से पहले ही गार्ड उन सभी यात्रियों से उतरने कहता है, इससे पहले की कोई उन्हें देख न ले. किसी भी फिल्म को बनाने से पहले फ़िल्मकार उस फिल्म को अपनी कल्पना में साकार करता है, अपनी टीम के साथ उसे रजत पट पर साकार करता है, तीसरी बार दर्शक उस फिल्म की अपने मस्तिष्क में छाप बनाता है. उसकी सार्थक प्रतिक्रिया फ़िल्मकार को संतुष्टि देती है. 

ऐसे दौर में जबकि आम भारतीय सिनेमा के दर्शक हॉलीवुड,बॉलीवुड और फॉर्मूला पंजाबी/क्षेत्रीय फिल्मों  के बने-बनाए ढांचे से अलग कुछ सोच नहीं पाते या कहें देखने पर जज़्ब नहीं कर पाते ऐसे में गुरविंदर की यह फिल्म देखने वालों को भी चौथी कूट (दिशा) दिखाती है. निश्चित ही यह फिल्म नए फ़िल्मकारों को कुछ सार्थक करने की प्रेरणा देगी.
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सूरज कुमार
केन्द्रीय  विश्वविद्यालय, कर्नाटक
surajhilsayan@gmail.com



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  1. विश्लेषण इतना संवेदनशील है,मूल रचना और पिक्चर दोनो केप्रति लगाव पैदा कर गया ।

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  2. धन्यवाद आद्या ... दरअसल इस लेख में कई और बिन्दु ऐसे हैं जिनपर अलग से बात की जा सकती है ... मसलन पूरे फिल्म की कथावस्तु में तनाव व्याप्त है ... आप एक दर्शक के रूप में कल्पना कर सकते हैं कि क्या हुआ होगा जिसके चलते भय और आतंक का वातावरण है ... दर्शक यह भी कल्पना कर सकता है कि क्या होता अगर अगर आतंकवादी जोगिंदर पर दबाव डालते उनके साथ हो जाने के लिए या फिर सुरक्षा बल उसे उठा कर ले जाते पूछ-ताछ के लिए और वो कभी लौटता ही नहीं ॥अगर आपको गुलजार की 'माचिस' याद हो तो वहाँ यही प्रसंग था । निश्चित रूप से सत्ता और प्रतिक्रियावादी गुटों के बीच फंसे आम लोग इसी दुश्चक्र का शिकार होते हैं ,जिसे किसी राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता ..लेकिन बलि का बकरा उन्हें ही बनना पड़ता है.. आज कश्मीर ,उत्तरपूर्व और red corridor में यही वस्तुस्थिति है.
    दूसरी बात साहित्यिक कृति के सिनेमाई रूपान्तरण को लेकर है .‘चौथी कूट’ पंजाबी कथाकार वरयाम सिंह संधु की दो कहानियों.('चौथी कूट' और 'मैं हूँ ठीक-ठाक हाँ') पर आधारित है। साहित्य आधारित इस फिल्म के उनकी निर्माण यात्रा को उनके शब्दों में आप पढ़ सकते हैं (संपादित अंश):

    TG: Anhe Ghore dealt with caste, and Chauthi Koot also has a fairly political subject, the Sikh militancy. How did you come to make it?
    GS: I knew I wanted to make a film about the insurgency. I had earlier thought of another story of Waryam Singh Sandhu’s. It was called ‘Bhajjian Baahein’ (Broken Arms). It was also very beautiful, about a Hindu grain trader family, and how one member is gunned down by a terrorist. I had taken his permission to make that, in fact. But then he said, I have written more about that period. So, I went and purchased this book [of his stories] from Sahitya Akademi, and immediately I was bowled over by these two stories.

    TG: How did you bring the two ‘Chauthi Koot’ and ‘Main Hun Thik Thak Haan’ together? That is the most striking thing, structurally.
    GS: First I thought ki ek hi ka banana hai—just make one. And there was something very modern about the train story [‘Main Hun Thik Thak Haan’]: it was almost like a thriller. You don’t know where they are going, who they are.

    TG: That is the dominant feel of that section of the film. Was that true of the text as well?
    GS: In the text, they are schoolteachers who have been assigned some duty in a school near Amritsar. I felt there was no need to say that. Writing and cinema are completely different—giving information that way in cinema will work against the film.

    Anyway, this would have been a half-an-hour film. Then, I thought I would make the story of Joginder and the dog [a character from ‘Chauthi Koot’ who is told by militants to forcibly silence his dog lest it draw attention to them]. But then it struck me, why not both? Once it came to me, to enclose the Joginder story in the train story, I was thrilled. Because the device also breaks linearity.
    TG: The fact that you were adapting from literature doesn’t limit you?
    GS: No. I had complete freedom to remove and add things. For example, in the story, there was no storm. Joginder is taken away by the police, the villagers gather to protest: I had that in the script. But while shooting, the storm happened, and I immediately knew I wanted to use it. The producer asked me, “You really don’t want to shoot that section?” I said, “No, I have an alternative, which is more poetic, more cinematic.”
    पूरा इंटरव्यू :http://www.caravanmagazine.in/vantage/writing-cinema-completely-different-interview-gurvinder-singh

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  3. साहित्य अनुभव और कल्पना के सृजनात्मक अभिव्यक्ति की कीमियागीरी होती है ... चौथी कूट फिल्म की मूल कहानियों के पीछे की कहानी, लेखक के अपने शब्दों में:Q:Your short stories, Chauthi Koot (Fourth Direction) and Main Hun Theek Thaak Haan (I’m Now All Fine), from your 2000 Sahitya Akademi award-winning collection, offer a keen insight into the separatist movement and militancy in Punjab in the 1980s. Are they based on real-life events?
    A:Both of these are true stories. They may have been slightly tweaked, as I acted like a typical writer who wanted some creative liberty. The first story, Chauthi Koot, is taken from my brother’s family and is about their two dogs. My brother, his wife and children loved these dogs to death. But then, a message came from the militants, saying that these dogs needed to be killed. The militants gave the family cyanide capsules which were mixed in some curd and fed to the dogs. So, in a life choice between man and animal, the animal died.
    The story caused me immense pain and stayed with me. These were stories that went beyond the political insurgency, and were not just about fighting or accepting certain communal identities. These were stories of the common man caught in a frenzy that leads to tragedy of various kinds; in which life is cheap and trust is hard to find. The militants were a nuisance in the night and the counter-militancy operations by the CRPF were a problem during the day. All of this broke the backs of common people, who were troubled for the smallest of things
    फिर गुर्विन्दर से उनकी मुलाक़ात और कहानी के फिल्मी रूपान्तरण की दास्तान Q:When did you start working with Gurvinder Singh on his film?
    A:Until a few years ago, I had no idea who he was. Gurvinder and I have a mutual friend in London, and he approached me through him. He had read my stories and liked them. I wondered, who makes movies on my stories anyway, and decided to hear him out. This is also when I saw his first film Anhe Ghode Da Daan (Alms for a Blind Horse) at Toronto Film Festival and liked what he had done with it.
    Then, Gurvinder came and stayed in our house in Toronto for a couple of days. I liked the way he perceived tiny details which a lot of people would miss. He had already written the script for Chauthi Koot and I liked what I read. Apart from the credit for the story, he has also given me a credit for the dialogue of the film. I haven’t been actively involved in the shoot and written any new dialogues but he’s made sure that the credit was given because some of my story dialogues have been placed exactly how they were written. That’s a significant thing to do. I didn’t even ask for that.
    :Q:In the film adaptation, Singh has used a lot of silence to deal with such violence. How close do you think it is to the tone in your work?
    :A:I think it’s very close. Gurvinder is an intelligent filmmaker and I like the way he has read every word carefully. It’s important for a filmmaker to understand the tone of the story, like it was intended. Only then can one do justice to the work. His hard work showed in the script and in our discussions.
    :Q:In a state full of brilliant literature but starved of cerebral cinema, what do you think films such as Chauthi Koot can do?
    :A:I believe these are important stories and today’s generation needs to know these stories. Films, in this day and age, have more reach than a short story. So yes, films such as Chauthi Koot become important in telling the tales of people, those that aren’t mentioned in history books and that touch upon the grey zones of life. They also define the local idiom by connecting themes of morality, religion, violence.

    पूरा इंटरव्यू पढ़ें :http://indianexpress.com/article/lifestyle/books/the-militants-were-a-nuisance-at-night-the-crpf-by-day/

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