विष्णु खरे : रामन राघव

(*रामन राघव बने नवाजुद्दीन सिद्दीकी)  









प्रत्येक दूसरे रविवार के अपने इस चर्चित स्तम्भ में विष्णु खरे फिर हाज़िर हैं. यह आलेख ‘रमन राघव 2.0नामक हिंदी फ़िल्म से अधिक रामन राघव (1929 – 1995) नाम के उस मनोरोगी हत्यारे पर है जिसने मुंबई में १९६० के आस-पास आतंक मचा रखा था, यह उस विकृत मनोसंरचना पर भी जिसे राजनीतिक, धार्मिक, सामाजिक और पारिवारिक व्यवस्थाएं रचती हैं. यह उन तमाम रामन राघव (ओं) पर  है जो अब भी समाज में विचर रहे हैं.

तीक्ष्ण और बेधक हमेशा की तरह.   


फिर खुले रामन राघव का पूरा मुकदमा                                  
विष्णु खरे


रामन राघव, उर्फ रामण्णा, ‘सिंधी दलवई, ‘तलवै, ‘अण्णा, ‘तम्बी, ‘वेलुस्वामीइत्यादि (1929 तमिलनाडु-1995 येरवडा जेल, सैसून अस्पताल मुंबई) तत्कालीन उत्तर मुंबई की बस्तियों में 1965 से 1968 तक सक्रिय एक सर्वाधिक कुख्यात और भयावह सिलसिलेवार कातिल था. उसके पहले भी यदि उसने क्रमिक हत्याएं की होंगी तो उनके कोई निशान नहीं मिलते. उसने घातक हमले और बलात्कार आदि भी किए. किंतु उसका आतंक, जो काल्पनिक गब्बर सिंह से सैकड़ों गुना ज्यादा था और जिसकी वजह से मुंबई आठ-नौ बजे रात से ही बंद हो जाती थी,  उन कत्लों से था जो वह किसी वजनी,  कुंद हथियार से अपने शिकारों के सिरों या गर्दनों को चकनाचूर करके अंजाम देता था. लूटमार या चोरी-डकैती में उसकी सिर्फ प्रासंगिक दिलचस्पी थी. वह सिर्फ गंदी बस्तियों में रहने वाले निम्न-मध्य या निम्न वर्ग के लोगों को ही मारता था और बच्चों को मजबूरन बख्शता न था. पुलिस के अंदाज से उसने शायद 41 खून किए होंगे.

अनुराग कश्यप की कृति रामन राघव 2.0’ में दाखिल होने के लिए उपरोक्त सीरियल किलरके कारनामों और दिमाग के बारे में जानने से दर्शकों को ही नहीं, फिल्म को भी काफी मदद मिलती है. अनुराग की इस फिल्म को साइकोलॉजिकल थ्रिलर (मनोवैज्ञानिक रोमांचकारी) और निओ-न्वा (नव-कालिका) कहा गया है. गनीमत यह है कि अनुराग को छद्म-मनोवैज्ञानिक बनने के कीड़े ने नहीं काटा और न ही वह अपनी फिल्म को चेज (पीछा) या अमेरिकी जासूसी चूहा-बिल्ली फिल्म बनाने के आसानी-परस्त चक्कर में पड़े.

(असली रामन राघव और उसका हथियार)
असली रामन राघव वाकई एक जटिलतम मनोविज्ञान का आदमी था. पुलिस के गिरफ्तार होने के बाद वह रोया-चीखा-चिल्लाया नहीं. उसके जटा-जूट थे. उसने अपनी सारी हत्याओं को ईश्वर-आदेशित कहा. बालों में अपना प्रिय सुगंधित तेल लगाकर और चहेती चिकन बिरयानी खाकर वह एक के बाद एक अपने जुर्म बयान करता गया. बहुत पहले उसने एक डकैती की थी और जैसा कि अनुराग ने बताया भी है अपनी सगी बहन से बलात्कार भी किया था. 

राघव की कोई घर-गिरस्ती न थी. वह चिंचवड और मालाड के तत्कालीन मकानों में किसी तेंदुए की तरह भटकता रहता था और आज जिस तरह हमला कर तेंदुए घरेलू कुत्तों को खा रहे हैं, वह झोपड़पट्टिïयों के लोगों को किसी तांत्रिक, अघोरी या नकपटीमार बाबा की तरह परलोक पठा देता था. पुलिस सर्जन ने अदालत से कहा कि राघव को कोई मानसिक बीमारी नहीं है. वह कानूनी कार्रवाई को समझ रहा है और डॉक्टरी तौर पर उसे पागल नहीं कहा जा सकता. बचाव पक्ष की दलीलों को दरकिनार करते हुए मुंबई ए.डी.जे. ने उसे हत्याओं के लिए मौत की सजा दी. हाइकोर्ट ने इस पर तीन मनोवैज्ञानिकों का बोर्ड गठित करवाया जिसने पहले राघव की मेडिकल जांच करवाई और फिर उसके मनोलोक के बारे में कुछ अत्यंत सनसनीखेज बातें बताईं.

राघव मानता था कि सिर्फ वह कानून की दुनिया में रहता है. उसमें एक दैवी शक्तिहै. लोग उसका लिंग-परिवर्तन करवा कर नपुंसक बनाना चाहते हैं, उसके साथ समलैंगिक संभोग करना चाहते हैं, ताकि वह औरत बन सके, जबकि वह 101 प्रतिशत मर्द है. सरकार ही उसे चोरी और अन्य अपराध करने मुंबई लेकर आई. राघव का विश्वास था कि देश में तीन सरकारें हैं- बादशाह अकबर की सरकार, अंग्रेज सरकार और कांग्रेस सरकार. यह तीनों उसे प्रताड़ित कर रही हैं और कई तरह की लालच देती हैं. अदालत ने असाध्य पागलपन के कारण राघव को आजीवन कारावास दिया. उसे पुणे के केंद्रीय येरवडा जेल में रखा गया. उसके लगातार मेडिकल मुआइने होते रहे. 1995 में किडनी के रोग के कारण सैसून अस्पताल में उसकी मौत हुई.

अनुराग कश्यप ने अपनी फिल्म में राघव को गिरफ्तार करने वाले युवा पुलिस अधिकारी को (उड़ता पंजाबकी शुरुआत की तरह) भ्रष्ट तो बताया ही है, थ्रीसम वाला युवतीबाज भी दिखाया है जो अपने आप में न तो बुरा है और न गलत. कुछ मूर्ख मानते हैं कि सिनेमा कुछ नहीं बदलता और फिल्में फकत स्याह-सफेद होता है. उनमें भूरापन नहीं होता. अनुराग ने इस फिल्म में अद्भुत नियंत्रण से काम लिया है. कहने को यह ओत्योफिल्म होगी. अनुराग ने इसे लगभग अपने आप बनने-बढ़ने दिया है. अपनी मौजूदगी को उस पर रगड़ा नहीं है, उसे एडवेंचर या आखेट फिल्म नहीं बनने दिया है.

(निर्देशक अनुराग कश्यप)

रामन राघव 0.2’ वह करती है जो बहुत कम फिल्में कर पाती हैं. सैराट  की तरह वह अपने दर्शकों को पथभ्रष्टी अफोम नहीं चटाती, वह उन्हें सतह से ऊपर उठने में गैर-कृपालु मदद करती है. हमारे बीच कई प्रकट-प्रच्छन्न रामन-राघव हैं. खुद हम सबमें छिपा हुआ रामन-राघव कभी भी अपना हिंस्र हथौड़ा उठा लेता है. कानून अपराधी बन जाता है जबकि अपराधी स्वयं को दैवीय माध्यम समझने लगता है. अनुराग की यह फिल्म ऐसे उपदेश नहीं देती, न हम उसे देखकर फ्राइड, युंग, आडलेर या क्रिमिनिल साइकोलॉजी की लाइब्रेरी खोजने निकल जाते हैं, बल्कि हमारे घरों, बिरादरियों, समाज, राजनीति, प्रशासन, पुलिस, संसद, विधानसभाओं, न्यायपालिकाओं में जो बहुत कुछ होता आ रहा है उसे ठंडे पसीने के साथ समझते हैं, तब, शेक्सपिअर के शब्दों में, रामन राघव के बारे में हम आतंकित होकर स्वीकारते हैं कि There is a method behind his madness- उसके पागलपन के पीछे एक प्रणाली- एक अनुक्रम- एक सिलसिला है. जरा उसके बरक्स उन पुलिस वालों को देखिए- कितने sane, कितने होशमंद हैं, लेकिन उसमें रामन राघव से कितने हिंस्र, कितने दरिंदे.

अनुराग कश्यप इस फिल्म से निदेशकों की अंतरराष्ट्रीय बिग लीगमें शामिल होता लग रहा है, मुझे तो इसमें शक ही नहीं कि यह उसकी ही नहीं, भारत की ऐसी सर्वश्रेष्ठ फिल्म है. अनुराग की यह फिल्म बहुत सस्ते में बनाई गई है और उसका अजेंडा नैनो-तकनीक और ब्लैक होल जैसा सघन है. दरअसल वास्तविक रामन राघव पर एक महान फिल्म बन सकती है और अनुराग यह जानते रहे होंगे, इसलिए उन्होंने राघव के जीवन के कई पहलुओं को छिपाए रखना ही बेहतर समझा होगा. मसलन, यह तो तय है कि राघव के साथ समलैंगिक बलात्कार हुआ होगा. क्या वह स्वयं में कुछ स्त्रैणता देखता था/ अमेरिका में एक प्रच्छन्न मुस्लिम समलैंगिक ने एक होमोसैक्सुअल क्लब में हाल में जो लाशें गिराईं, वह रामन राघव की क्रमबद्धता में ही था. ईश्वर, राजनीति और गवर्नेंसको लेकर भी राघव की कुछ धारणाएं थीं. अकबर, अंग्रेज और कांग्रेस का उसका सिलसिला क्या था/ सरकारें उसे कौन से प्रलोभन देती लगती थीं/ वह स्वयं स्लमडॉगथा, फिर अपने भाइयों-बहनों से इतनी नफरत क्योंकि उन्हीं की हत्या करनी पड़े/ क्या वह अपनी passive homosexuality में भारत के करोड़ों गरीबों की मजबूर passivity देखता था और किसी भयावह चाणक्य की तरह यूं उनका उन्मूलन करना चाहता था.

अनुराग की इस बेहद सार्थक फिल्म के बाद, जिस पर बहुत कुछ लिखना बाकी है रामन राघव के विचित्र हत्यारे पागलपन का मुकदमा करीब पचास बाद हमारे सामने फिर खुल गया है. वह जहां जैसा भी हो, रामन राघव फिर हाजिर हो.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. बहु स्तरीय समीक्षा

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  2. समीक्षा से स्पष्ट नहीं होता कि फ़िल्म की श्रेष्ठता के विभिन्न पक्ष क्या हैं|अर्थात किन कारणों से यह एक श्रेष्ठ फ़िल्म है| मनोवैग्यानिक विश्लेषण भी बहुत साफ़ नहीं है| मैं बहुत आलोकित नहीं हुआ|एक सतहीपन-सा दिखाई देता है पूरी टिप्पणी में|

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  3. 'अनुराग कश्यप' के नैनो तकनीक की सराहना ,और उनके 'रामन राघव'को सर्वश्रेष्ठ फिल्म से नवाजा जाए इससे सुखद क्या होगा । देख कर फिर कमेंट लिखती हूँ ...

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  4. समीक्षा पढ़ी। क्राइम प्लॉट ड्रामा के अपने खतरे भी हैं। आप जिस प्लूरल समाज में रह रहे हैं, जिन वर्गों और स्तरों से आते हैं, उनकी अनुकूलन की लंबी परम्परा भी साथ रहती है। फिल्मों में हिंसा, अपराध आदि का असर आपके बोध से भी जुड़ा है। फ़िल्म समाज से सीधे बात ही नहीं करती बल्कि eye opner भी है। खरे जी की समीक्षा फ़िल्म को किसी कसौटी पर रखकर ही श्रेष्ठ घोषित कर रही है, पर क्या समीक्षा उस युवा मन से होकर भी गुज़री है जो अपरिपक्व रूप से दृश्यों को ग्रहण करता है।

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  5. महेंद्र राय6 जुल॰ 2016, 8:12:00 pm

    अरुण जी मैं समालोचन का नियमित पाठक हूँ. जिस तरह से आप चयन करते हैं और प्रस्तुत करते हैं उसका कोई जवाब नहीं है. बहुत दिनों से मेरे अंदर एक जिज्ञासा है- समालोचन मतलब क्या ? कौन कौन लोग इसमें सहयोगी हैं ? यही पत्रिका किसी सरकारी संसथान से निकलती तो ५ लाख महीने के खर्ज के बाद भी मुझे उम्मीद नहीं है ऐसी निकलती. आप विज्ञापन भी नहीं देते. क्या कोई सरकारी संस्था आपकी मदद करती है. अगर आप के कुछ लोग है (अकेले यह काम करना मुझे तो संभव नहीं लगता है) तो उनका खर्चा कैसे निकलता है. क्या रचनाकारों भी कुछ दिया जाता है ? इसे अदरवाइज़ नहीं लीजियेगा . बस बहुत दिनों से आपसे पूछना चाहता था. यहीं पूछ रहा हूँ.

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  6. महेंद्र भाई. यह सब दिमागी फितूर है. कोई नुख्स होगा कहीं दिमाग में जरुर, नहीं तो आज के जमाने में कोई यह सब करता है. यह सब अकेले ही करता हूँ यार. जब मेरे ही फांका है तो रचनाकारों को कहाँ से दूँ. ये सब मक्कार संस्थाएं इन्हें यह सब दीखता नहीं. किसी ने नहीं कहा कि यार कुछ मदद हो तो बोलो. जब तक चल रहा है चल रहा है. रोजना के पांच - सात घंटेकी मेहनत के बाद किसी काम का नहीं रह जाता बॉस. मेरा यह मिजाज़ नहीं कि घूम घूम कर मदद मांगू. जब तक चल रहा है चलेगा. थक जाऊँगा बंद कर दूंगा.

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  7. आपकी लगन,कल्पनाशीलता और मेहनत का शुरू से ही क़ायल हूँ -सभी होंगे।कृपया इतने मायूस और दुःखी न हों।आपने मुझे बहुत विचलित कर दिया है।

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  8. महेंद्र राय8 जुल॰ 2016, 8:16:00 pm

    अरुण भाई लगता है आप नाराज़ हो गए. मैं समझ सकता हूँ. यह जानकार कि पिछले पांच सालों से यह अनवरत आप अकेले कर रहे हैं आपके प्रति आदरऔर बढ़ गया है. जब कभी साहित्यिक पत्रकारिता का मूल्यांकन होगा -समालोचन शीर्ष पर होगा. बाकी आदरणीय विष्णु जी से सहमत हूँ. आखिर में एक सवाल कोई समालोचन की मदद कैसे कर सकता है.

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  9. विष्णु जी आपकी सराहना से बहुत बल मिलता है. आप को दुःख पहुंचा इसके लिए शर्मिंदा हूँ.

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  10. महेंद्र भाई आपको आहत किया इसके लिए माफ करें. वास्तव में यह हिंदी के उदार लेखकों के सहयोग से ही चल रहा है. वे अपना बेहतरीन यहाँ देते हैं. यह हिंदी समाज की ही विडम्बना है कि हम अपने साहित्यिक समाज की न इज्जत करते हैं ने उन्हें कुछ सम्मानजनक दे पाते हैं दरअसल मेरी कुंठा का कारण यही है. आपने बहुत अच्छा सवाल किया है -
    आप अपने किसी की स्मृति में किसी कोई भी माह चुन कर समालोचन में उस माह में प्रकाशित सभी रचनाकारों को अपनी क्षमता अनुसार मानदेय देकर मदद कर सकते हैं. समालोचन उस माह के प्रकाशित सभी पोस्ट में मोटे अक्षरों में इसका ज़िक्र करेगा. मैं उस माह के लेखको के बैंक डिटेल्स भेजता जाऊँगा और फिर टिप्पणी में इसका ज़िक्र होता जाएगा. शुक्रिया.

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