परख : मल्यों की डार : गीता गैरोला









‘तभी तो इतनी मुश्किल परिस्थितियों में भी जिंदा रह पाती हैं पहाड़ी औरतें, पेड़ पौधों की हरियाली, फूलों का रंग, और बास सब औरतों के गाये गीतों से ही बनते हैं.

लेखिका और सामाजिक कार्यकर्ता गीता गैरोला की किताब, ‘मल्यो की डार’ एक पहाड़ी स्त्री का   जीवन-संस्मरण तो है ही वह पहाड़ से विस्थापित जीवन में जिंदगी की तलाश भी है. वह उस घर की तलाश है जिस के लिए हर विस्थापित भटकता है. इस किताब का समापन इन पंक्तियों से होता है –

‘अब गाँव में अकेले पितर हैं, अकेले लोक देवता हैं और अकेला खड़ा है, टूटा – फूटा खंडहरनुमा पानी की धारा.’

इस पुस्तक का साहित्यिक महत्व तो है ही बदलते समाज और उसकी विस्मृति और अलगाव को समझने के लिए भी इसे पढ़ा जाना चाहिए.

वरिष्ठ कवयित्री सुमन केशरी ने इस किताब की और खूबियों पर मन से लिखा है.



जीवन मूल्यों की तलाश करती “मल्यो की डार”                      

सुमन केशरी 





गीता गैरोला के संस्मरणों की किताब मल्यो की डार जब हाथ में आई तो आँखों ने पढ़ा-  “मूल्यों की डार”! एक बार नहीं कई बार पढ़ा ‘मूल्यों की डार’. हो सकता है कि इसलिए भी ऐसा पढ़ डाला हो आँखों ने कि तब मेरे शब्दकोश में “मल्यो” जैसी कोई प्रविष्टि थी ही नहीं. जब पहला संस्मरण पढ़ा तो जाना उस प्रवासी चिड़िया के बारे में जो जाड़ा शुरु होते ही झुंड की झुंड आती हैं और जाड़ा खत्म होने पर वापस चली जाती हैं. यह भी पढ़ा कि देश के अन्य हिस्सों की तरह पहाड़ में भी लड़कियाँ “चिड़ियाँ” हैं, जिन्हें घोंसले से उड़ जाना है.

गीता की दादी स्कूल जाते देख उन्हें ऐसा ही कहती थीं. यह भी जाना कि मल्यो की डार जिस खेत में उतरी वहाँ बोए सारे बीज तुरंत साफ़, क्योंकि ये उन्हीं दिनों आती हैं, जिन दिनों बुआई होती है और लौटती भी तब हैं, जब खेतों में बालियाँ झूम रही होती हैं. यानी इनके आते-जाते समय खेतों की, सुखावन की देखभाल जरूरी, वरना हो चुकी फसल! सूख-संभल गए अनाज! तो क्या लड़की को ‘मल्यो’ कहने के पीछे उसके दान-दहेज और जिंदगी भर उसके ससुराल में सामान भेजने की भी बात है .गीता ने इस संदर्भ का खुलासा तो नहीं किया, पर.... काश कि अंतिम सवाल मेरे मन की ही उपज हो और कुछ नहीं...पर क्या आपके मन में भी मल्यो के खेत चुगने की विशेषता जान कर कहीं वही सवाल तो नहीं आया जो आया था मेरे मन में?

एक और बात जो मल्यो के बारे में पता चली वह यह कि मल्यो बहुत जिजीविषा से युक्त मजबूत पक्षी होती है- और पहाड़ की कठिन जिंदगी को जीती औरतें भी तो इसी जिजीविषा से भरी रहती हैं और सिर पर बोझा ढोती पहाड़ चढ़ती चली जाती सच में गोया वे मजबूती का पर्याय होती हैं.  

या फिर शायद मेरे मन ने “मूल्यों” इसलिए पढ़ लिया कि दिनों-दिन जीवन में से मूल्यों का गायब होना हम सबको बेतरह खलने लगा है...

पर गीता ने बिल्कुल स्वभावानुसार ‘मल्यो की डार’ के बारे में सूचना देते हुए पूरे पहाड़ से निर्वासन से उपजे सवाल उठा दिए हैं. वे सहज ही मूल्यों की पड़ताल करती चलती हैं और उन्हें देश के स्वतंत्रता संग्राम से लेकर अमीरी गरीबी के सवाल, हिंदू मुसलमानों के संबंध और मन में गहरे छिपे जातिगत भेदभाव की अँधेरी खाइयों तक लिए चली जाती हैं. एक के पीछे एक लड़की पैदा हो जाने के चलते पिता के मन की गाँठ को भी वे पाठकों के सामने रखने से नहीं कतराती पर वे यह बताना भी नहीं भूलतीं कि दादा ने किस तरह मात्र पचास साल की उम्र में घर में अकेली बंद करके छोड़ी गई दुधमुँही  पोती (गीता की बड़ी बहन) की देखभाल के लिए पुलिस की अच्छी खासी नौकरी से रिटायरमेंट ले लिया. दरअसल परिवार में, समाज में कभी भी काले-सफेद का सीधा सपाट विभाजन नहीं रहा. लड़का पैदा करने की ख्वाहिश के साथ साथ उस दौर में घर आई लड़कियों को भी पाल लिया जाता था. तब विज्ञान ने तथाकथित ऐसी प्रगति नहीं की थी कि लिंग पता लगा कर गर्भ में ही भ्रूणों को ही समाप्त कर दिया जाए.

आज हम जब विकास की बात करते नहीं अघाते, तब इस बात को रेखांकित करना जरूरी लगता है कि आज से पचास-साठ साल पहले तक लड़कियों की इस कदर हत्या नहीं होती थी. भले ही तब भी देश के कुछ हिस्सों में कुछ लोग उन्हें अफ़ीम चटा देते हों या चारपाई के पाए तले दबा देते हों, या दाइयों से गले की नस दबवा देते हों. यह सौ फीसदी  सच है कि देश की आजादी के आरंभिक दिनों में “विकास-विकास” का शोर भले ही न मचता हो पर लोगों में संवेदनशीलता और बदलाव की इच्छा भरपूर थी. पर यह भी उचित होगा कि  “मल्यो की डार” पर बात करते हुए पर्वतीय क्षेत्रों में स्त्रियों की सामाजिक- आर्थिक रूप से मजबूत स्थिति को भी ध्यान में रखा जाए. पहाड़ में रोजगार की तलाश में पुरुषों के निकल जाने के बाद स्त्रियाँ ही वे मजबूत आधार हैं, जो परिवार को संभालती हैं. नौकरी के लिए पहाड़ी पुरुष अंग्रेजों के जमाने से ही निकलते रहे हैं और वे अपने संग गाँव भर के बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के लिए शहरों में ले जाते थे. एक बार निकले ये बच्चे शायद ही कभी स्थायी तौर पर वापस पहाड़ों पर लौटे होंगे. हाँ उन्होंने वहाँ से अनाज- फल जरूर उगाहे होंगे. इस तरह से गीता की “मल्यो की डार” केवल लड़कियों के परिवार छोड़ने तक सीमित न रह कर पहाड़ से विस्थापन का प्रतीक बन जाती है. 
सौजन्य : कमल जोशी
  
‘मल्यो की डार’ हो जाने की विडंबना के प्रकटन के तुरंत बाद ही गीता पंद्रह अगस्त के माध्यम से स्वतंत्रता दिवस के संबंध में अपने बेटे की और अब की पीढ़ी की उपेक्षा-भावना पर बात करते हुए अपने बचपन के दिनों में लौट जाती हैं.  बीसवीं सदी के छठे दशक में देश को आजाद हुए बहुत समय न गुजरा था. हमारे सामने वह पीढ़ी अभी जवान थी, जिसने देश की आजादी में भूमिका निभायी थी, या जिन्होंने 15 अगस्त 1947 को तिरंगा फहरते देखा था. कइयों ने गांधी, नेहरु, राजेन्द्र प्रसाद, पटेल आदि के भाषण अपने कानों सुने थे. उन दिनों दीवाली-दशहरे की तरह 15 अगस्त और 26 जनवरी घर-घर के त्योहार थे, जिनमें नए कपड़े पहनना, प्रभात फेरी के लिए जाना, नारे लगाना और देश भक्ति के गीत गाना आम बात थी. गीता की पैनी नजर इन सब मंजरों को देखते हुए भी पहाड़ी गाँवो में बीसवीं सदी के मध्य तक विद्यमान आर्थिक संबंधों की विशेषताओं को भी सामने ले आती है. प्रसंग है नए कपड़ों के सिलने में हो रही देरी के कारण बालिका की बेचैनी- “दादी इस बार तू कर्जू भैजी को डडवार भी खूब देर से देना.” दादी पोती को ऐसा बोलने-सोचने से बरजती है, “छोट्टा नौनों के मुख से ऐसी बात अच्छी नहीं लगती. उसके बिना हमारा काम नहीं चलता, हमारे बिना उसका काम नहीं चलता.” फिर गीता विस्तार से औजी, लोहार, ओड़ (चिनाई का काम करने वाले ) आदि सभी के कामों की और काम के बदले घर घर से अनाज आदि में उनके बंधे हिस्से की चर्चा करती हैं. उनके ये वर्णन सहज ही पाठ का हिस्सा बन कर आते हुए, पहाड़ी गाँवों के रहन-सहन, अर्थ-व्यवस्था, राजनीतिक जागरुकता को पाठकों के सामने ले आते हैं.

कर्जू भैजी का परिवार, संकलन के अंतिम संस्मरण- “गाँव की तरफ़” (लौटना?) में एक बार फिर प्रकट होता है- श्राद्ध के दिन श्यामलू भैजी के ढोल की थापों के साथ. लेखिका और उसका परिवार नातू बडू कि पाथू बडू (नाता बड़ा कि अनाज बड़ा) के मापदंड पर  ‘नाता बड़ा’ मानते हुए सभी लोगों के पैर छूते हैं. पर श्यामलू के नहीं क्योंकि वह नीच जाति का है- उससे पातू बडू का नाता जो ठहरा! लेखिका को अपने तईं इस बात का गहरा क्रोध है. वह अपने लालन-पालन आदि सभी बातों को याद करती है कि उसमें तो भेदभाव की गुंजाइश न थी, तो फिर श्यामलू के पैर न छू पाने का कारण? कारण हैं सदियों से बना मन का संस्कार, जो जाने कब रोक देता है मन को तार्किक और समान होने से. गीता की वेदना मुखरित होकर इन पंक्तियों में सामने आती है- “..क्या मैं आज भी दोहरी मानसिकता में जी रही हूँ. श्यामलू भैजी मैं शर्मिंदा हूँ....”

जातिगत विषमता हमारे समाज का मूल कोढ़ है. “मेरे मास्टर जी” संस्मरण में पूरे गांव में घर-घर के चहेते बन गए अंथवाल मास्टर जी को स्कूल में दलित बच्चों को सब बच्चों के साथ टाट पर बैठाने और  उनके हाथ का पानी पीने-पिलाने की वजह से स्कूल से बाहर कर दिए जाते हैं. उस समय अंथवाल मास्टर जी का बच्चों को बेहतर से बेहतर शिक्षा देना और बागवानी, गायन मंचन आदि की शिक्षा से भरपूर बच्चों का सर्वांगीण विकास किसी को याद नहीं रहता. अंथवाल को  उस स्कूल से हटा दिया जाता है. आज जब हम दलितों, औरतों, अल्पसंख्यकों के प्रति घृणा और हिंसा का बोलबाला देखते हैं तो हमें खुद अपने आपसे से,  अपने बुजुर्गों से, नेताओं से पूछना चाहिए कि आजादी के बाद से ही जाति- धर्म, लिंग, भाषा आदि के सवाल को समानता से क्यों नहीं जोड़ा गया. क्यों नहीं  संविधान का सहारा लेते हुए जाति-धर्म- लिंग आदि के आधार पर भेदभाव बरतने और उसका बढ़ावा देने वालों के खिलाफ़ कड़ी कार्रवाई की गई. यदि उस समय इस पर सख्ती बरती गई होती और जाति-धर्म को केवल और केवल वोट बैंक की तरह न बरता गया होता तो स्थितियाँ बिल्कुल भिन्न होतीं. पर विडंबना तो यह है कि अब इन तबकों के साथ औरतों को भी इसका हिस्सा बना लिया गया है. आगे बढ़ने और कुछ पा जाने की उम्मीद वो झुनझुना है, जिसे जब तब बजा दिया जाता है और हम लोग एक बच्चे की तरह उसे पकड़ लेने, पा लेने को लालायित हो उठते हैं. विकास तथा प्रगति का एक सपना है जो हम दूसरों के दिखाए देखना चाहते हैं, और इसके लिए हम अपनी सोचने- समझने की सारी शक्ति को दूसरे के हवाले कर देते हैं और भेड़ की तरह जिधर हाँका गया, उधर मुँह उठाए चले जाते हैं, भले ही हमें वध-स्थल की ओर हाँक दिया गया हो.

“मल्यो की डार” में एक संस्मरण एक घुमंतु व्यापारी का भी है जो अपने खच्चर पर बरतन-भांडे से लेकर परांदे- रिबन-बिंदी-टिकुली, सूई-धागा से लेकर कपड़े की थान और दाल- अनाज-मसाले-खटाई-चूरन- मुरमुरे, इलायचीदाना सब लादे गाँव में आता तो गाँव की औरतों-बच्चों की दीवाली-सी हो जाती. अपने विवरण में गीता यह बनाता नहीं भूलतीं कि वह व्यापारी मुसलमान था! उसके खाने के बरतन –गिलास अलग पर उसका माल चोखा, उन सामानों से किसी का धर्म भ्रष्ट होता कभी नहीं दिखा. गीता आगे य़ात्रा से लौटते हुए उस व्यापारी के घर से आए पराठों और सब्जी का स्वाद पाठकों से साझा करती हैं. इस संस्मरण की खासियत है, एक बच्ची के मन में इस व्यापारी का औरतों के मन को बूझने की क्षमता का यादों में बचा रह जाना. गीता बहुत चित्रोपम भाषा में अपनी बात कहती हैं- चाहे वह स्कूल के किस्से हों, या अपने कुत्ते के बाघ द्वारा खा लिए जाने के. अपने बटेर-शिशु का खाद्य में बदल जाने की याद आज भी उनके मन की टीसे ताजा कर  देती हैं.

गीता गैरोला एक जागरूक सामाजिक कार्यकर्त्री हैं. पिछले तीस-पैंतीस सालों से वे ग्रामीण महिलाओं के संग- उन्हीं के बीच रहती हुई काम कर रही हैं. और इस तरह से वे अपने समाज से अंगांगी भाव से जुड़ी हुई हैं. इसके साथ ही उन्होंने इन मुद्दों का गहरा अध्ययन किया है और बातचीत एवं काम के दौरान अपने ज्ञान को निरंतर जमीनी स्तर पर परखा और माँजा है. 


फोटो सौजन्य :  राजीव तनेजा
यह एक बहुत बड़ा कारण है कि पुस्तक अनेक मुद्दों को सहज ही उठाती चलती है- इसमें स्त्रियों का दर्द है तो दलितों का भी और अल्पसंख्यकों का भी इसमे जमीन-जानवरों- पक्षियों से भी नाता उभर आता है. इसमें सद्य स्वतंत्र हुए देश की ऊर्जा भी है और जटिल समस्याओं से निपटने की कोशिश भी और सदियों से चली आ रही रुद्ध मानसिकता की जकड़  भी.


इस तरह से गीता गैरोला के संस्मरणों का संकलन “मल्यो की डार” निष्काषन की विभीषिका से कहीं आगे बढ़कर मूल्यों को पहचानने- सहेजने का उपक्रम बन जाता है. यही इस संकलन की सबसे बड़ी उपलब्धि है.  
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सुमन केशरी 
ई-पता. sumankeshari@gmail.com

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  1. कुछ दिन पहले मैंने 'मल्यों की डार' पर एक प्रतिक्रियात्मक टिप्पणी लिखी थी, उसके बाद लगातार यह बात मन में कुलबुला रही थी कि इस किताब पर मुझे लिखना है. मुझे यह किताब उत्तराखंड के ही सन्दर्भ में नहीं, हिंदी में स्त्री लेखन के सन्दर्भ में भी अलग से चर्चा योग्य लगी थी.
    कई बरस पहले मैंने क्षितिज शर्मा की किताब पढ़ी थी - 'उकाव'. उकाव एक कुमाऊनी शब्द है जिसका अर्थ है, 'चढ़ाई'. दरअसल पहाड़ी औरत की सारी जिंदगी पहाड़ों के ऊबड़-खाबड़, पथरीले रास्तों पर चढ़ते जाने में ही बीत जाती है, जिसका कोई अंत नहीं है. क्षितिज के उपन्यास को पढ़ते हुए कुछ छूटे हुए का अहसास होता रहा, लगा कि अगर इसे किसी पहाड़ी स्त्री ने लिखा होता तो यह किताब कैसी होती. मुझे बार-बार महादेवी वर्मा और शिवानी के पहाड़ी औरतों पर लिखे गए प्रसंग याद आते रहे, और अहसास हुआ कि इन दोनों की परंपरा को आगे बढ़ाये जाने की जरूरत है. गीता गैरोला की किताब उस कमी को पूरा करती है. संभव हुआ तो भविष्य में इस पर लिखूंगा.
    फिलहाल सुमन केशरी का आभार कि उन्होंने अपनी चर्चा में कई अनछुए पक्षों की ओर ध्यान आकर्षित किया. यह चर्चा का अच्छा प्रस्थान है.

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    1. Vaakai! Agraj...
      Kandwal mohan madan

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    2. बहुत आभार बटरोही जी। गीता की यह किताब एक प्रस्थान सरीखी है। अनेक सवाल बहुत सहज ढंग से उठाए गए हैं।

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  2. भूले जा रहे पहाड़ी जीवन शैली और पात्रों पर, परम्पराओं पर दस्तावेज है ये पुस्तक...

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    1. कमल आज जब मैंमइस बात का जबाब दे रही हूँ तो आप पढ़ने के लिए शेष नहीं हैं, पर कुछ गीता के कहे और कुछ अपने अनुभव से जानती हूँ कि गीता के लिखे में आपके योगदान कम नहीं। कितने सहज भाव से आप हमारे साथ घूमे थे। एक दम सहज मैत्री। यह बहुत बड़ा बल होता है किसी भी व्यक्ति के लिए। और किताब के कवर में छपा गीता का चित्र। अनुपम है यह चित्र अपने सौन्दर्य में भी और अर्थवत्ता में भी। यह लिख रही हूँ भविष्य के उन पाठकों के लिए जो जानें कला के मर्म को और मनुष्य होने के धर्म को। - सुमन केशरी

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  3. दीदी, रोचक और आत्मीय समीक्षा। मल्यो कहीं हिमालय की मोनल चिड़िया तो नहीं।
    गीता जी को पुस्तक के लिए बधाई और शुभकामनाएं।

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  4. नूतन डिमरी गैरोला6 जून 2016, 1:56:00 pm

    गीता दीदी ने बहुत प्यारी किताब निकाली है जिसको पढ़ने का अपना ही रस है।। पहाड़ की खुशबु में रची बसी उनकी किताब पर सुमन दीदी की समीक्षा निश्चय ही 'मल्यो की डार' संस्मरण के सभी पहलुवों पर बात करती होगी। अभी पढ़ना जारी है

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  5. Malyo kee daar sushree Geeta Gairola ji ka sansamaranatamak srijan hai. Jisake lokarpan me ham sakshee rahe hai aadarneeya suman keshari ji aur Negi Da sang. Yah samhlaun ek hee baar me tab padh aam insaan (par man ki badee manakhee) Geeta ji ke vishad snehil pahadee kad ka bodh hua thaa. Aansoo bhi aaye the air ham sabke jiye jeevan ko bhi pahadee betee bwaree ke mukhysootra sang avagunthit karane ka sunahara kaam unhone kiya hai. Sachmuch me unhe hardik badhai.suman maam me tabhee moolyon kee daar par likhne ka man banaa liya thaa udghoshanaa bhee kee thee. Aadarneey Negi daa ne is kitab me sankalit lokgeet ansh swamadhur kanth se sunaye the. Man hua thaa likhne ka par vyastatavash na sambhav hua jisake hetu geeta ji se maafee. Ab navigators ghooma hai usake liye geeta ji suman ji arun ji samaalochan sab badhai ke paatra hain. Ek utteakhand par behatar Bachapan se aaj tak ka anupam dastaavej yah. Unase adhytan sarokaron par Lehman ki mahatee ummeed. Kamal joshi jee ki pics addbhut sada. Kandwal mohan madan chennai se. No hindi phont.

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  6. इतनी सुन्दर समीक्षा लिखने के लिए सुमन केसरी जी का हृद्य से आभार। इसे प्रकाशित करने के लिए श्री अरुण देव जी का आभार तथा इस महत्वपूर्ण पुस्तक को लिखने के लिए गीता गैरोला जी का आभार। प्रकाशक के रूप में हम यह कह सकते हैं कि इस पुस्तक का अगला भाग और बेहतर तैयारी के साथ पाठकों के हाथों तक पहुंचाएंगे। यह पुस्तक आप ऑनलाइन अमेजन.काम से भी प्राप्त कर सकते हैं।

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  7. http://manoharchamoli.blogspot.in/2016/10/blog-post_7.html
    वाह ! हां इस लिंक पर भी नज़र कीजिएगाा

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  8. गीता ने जिस तरह से कैन्सर को हराया और हम सबको अपने जीवट का लोहा मनवा लिया...उससे मल्यो के बारे में आम धारणा पुष्ट ही हुई। हमें यू ही प्रेरित करती रहो सखी...खूब प्यार (सुमन केशरी)

    आप सब लोगों ने समीक्षा को चाव से पढ़ा और पसंद किया, उसके लिए क्या लिखूं, जो मेरी भावना को सच्ची तरह से प्रस्तुत करे, नहीं जानती। मन से हृदय से आभार।

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  9. इन्हीं गर्मियों में गढ़वाल घूमकर आई थी.गीता की पुस्तक ने एक बार फिर पहाड़ पहुंचा दिया, किन्तु इस बार अलग अलग काल खण्डों के पहाड़. हम जैसे प्रवासियों को इसे पढ़ पहाड़ की और अधिक नराई/खुद लग गयी.
    सुमन केशरी ने 'मल्यो की डार 'की बेहतरीन समीक्षा की है.
    कमल से सहमत. यह पुस्तक ,'भूले जा रहे पहाड़ी जीवन शैली और पात्रों पर, परम्पराओं पर ( एक महत्वपूर्ण) दस्तावेज है.



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