सबद भेद : कविता की भाषा : सुशील कुमार

Olaf Brzeski ( Dream - Spontaneous combustion)
 courtesy of the Czarna Galler










अज्ञेय का मानना था कि “काव्य के जो भी गुण बताए जाते या बताए जा सकते हैं, अंततोगत्वा भाषा के ही गुण है.” हिंदी कविता विमर्श में भाषा को लेकर तमाम बहसें चलती रही हैं. मुक्तिबोध, नामवर सिंह विजयदेव नारायण साही जैसे आलोचक इसमें शामिल रहे हैं. विजयदेव नारायण साही के एक लेख का शीर्षक है ‘अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग और अभिव्यंजना की कुछ समस्याएं’ आगे उन्होंने एक और लेख लिखा  पाश्चात्य प्रभावों के सन्दर्भ में वर्तमान काव्यभाषा की समस्याएं’.

इधर हम कविता के सरोकारों और उसके कंटेंट पर चर्चा तो करते हैं पर उसकी भाषिक रचना प्रक्रिया पर नहीं. सुशील कुमार का यह लेख बिम्ब/ सपाटबयानी/लोकधर्मिता आदि मुद्दों पर भी बहस को आमंत्रित करता हुआ लेख है.   



  
समकालीन कविता की भाषा :                                
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सुशील कुमार 



धुनिक काल-खंड की सभी काव्य-प्रवृतियाँ आधुनिक होती हुई भी समकालीन नहीं हैं. भाषा के प्रति सजग कवि अब यह महसूस करने लगे हैं जो शब्दमुहावरे और  बिम्ब कविताओं में लगातार प्रयुक्त होते-होते अपनी अर्थवत्ता खोकर रुढ़ हो गए हैं, अर्थात सिक्के की तरह चलते-चलते घिस गए हैं, उनको लेकर कविताओं में समकालीन यथार्थ का अंकन नहीं हो सकता. 

इसका कारण इस तथ्य में समाहित है कि वैश्विक और भारतीय राजनीतिक-सामाजिकार्थिक परिदृश्य का गहरा प्रभाव प्रचलित भाषा पर पड़ा है. देश में काँग्रेस का लम्बा कुशासन, जनजीवन में व्याप्त भ्रष्टाचार और घोटाले, काला धन, सरप्लस पूँजी, बाबरी-ध्वंस, गोधरा-कांड, दक्षिणपंथ और वाम-राजनीति के कुत्सित रूप, नक्सलबाड़ी और उसके च्युत मूल्य, उत्तर-आधुनिकता, ग्लोबलाइजेशन, कवियों-लेखकों के असहिष्णुता-राग, जंगल-कटाई, प्राकृतिक संसाधनों का अनियंत्रित दोहन, पलायन और आदिवासी समस्याएँग्रीनहाउस इफ़ेक्ट, निरंतर टूटता परिवार, महिला-प्रताड़ना, निर्भया-कांडनैतिक अवमूल्यन, पुरस्कारों की राजनीति आदि-आदि घटित-लक्षित कई घटनाक्रम परिदृश्य में उभर कर आते हैं जिसने जनजीवन को मथकर रख दिया है.

इनको अभिव्यक्त करने के लिए कवियों ने शिल्प के स्तर पर पुराने बिम्बों की जगह नए किस्म के बिम्बों का प्रयोग, कहन की अधिकाधिक यथार्थवादी (या सपाट) शैली और कविता में लोकल डायलेक्ट्स के प्रयोग पर बल दिया जो सच को हु-ब-हू उगल सके.  

नई सदी के युवा कवियों की कविताओं को अगर सामने रखकर इस पर बात करें तो एक महत्वपूर्ण बात जेहन में यह आती है कि सृजन में कवि की काव्य-भाषा किस तरह काम करती है, यह बारीकी से देखने का विषय है जिस पर पुराने सोच  के प्रबुद्ध समीक्षकों-आलोचकों ने अब तक उपेक्षा भाव ही बरता है. बिम्ब और प्रतीक-योजना काव्यभाषा की अब बाध्यता नहीं रही, यद्यपि यत्र-तत्र उसका विकास देखने को मिलता है. इनकी कविताओं में बिम्ब भी बिंबवाद की सीमा को नहीं छू पाते, न ही कवि उसका कोई छद्म या विशिष्ट आलोक रचने की चेष्टा करते हैं बल्कि बिम्ब भी कविता की कहन को चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियाँ प्रदान करते ही दिखते हैं जिससे उसके कथ्य को एक नया संवेग (momentum) मिलता है और वस्तु का रूप स्वत: दमक उठता है.

इसे ईमानदारी और साहस के साथ अब समझने और स्वीकार करने की जरूरत है. लोकधर्मी काव्य-चिंतकों की यह स्थापना कि रूपवादी रुझान के कवि भाषा से बात भाषा से शुरू कर भाषा पर ही खत्म कर देते हैं और कविता की एक स्वायत्त दुनिया सिरजना चाहते हैं जिसका मूल्यों से, परिवेश की सामाजिक सार्थकता से कोई संबंध नहीं होता, की गहराई में जाकर पड़ताल करना आवश्यक हो गया है. 

परंपरावादी लोकधर्मी आलोचक-चिंतक नब्बे दशक के बाद से काव्यभाषा में निरंतर हुए बड़े बदलावों को कविता के रूपवादी चिंतन से जोड़ कर देखते हैं. अपने तर्क और विश्लेषण में वे अब तक परोक्षत: काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत और काव्य-बिंबों की उपेक्षा कहकर कविता की मुक्ति और उससे जुड़े जेनुइन सवालों से बचते रहे हैं. पर यह गौर करने वाली बात है कि कई बार बिम्ब और चित्र भी अमूर्त होते हैं, खासकर उन रेखाचित्रों या कलाचित्रों की छवियों में जिनमें अस्पष्ट भावबोध होने की वज़ह से वह अर्थ-गुम्फित या अर्थमयी होने से चुक गए हों. कई बार हमें कई पेंटिंग या चित्रों के भाव और अर्थ अबूझ लगते हैं. कुछ उन चित्रों को देखिए, चित्र में रंग-रेखाएँ तो दिखाई पड़ रहे लेकिन अगर उनमें अमूर्तनता है तो क्या उसे भी हम बिम्ब कहेंगे क्योंकि बिंब तो मूर्त होता है? अगर किसी वस्तु या विचार के प्रति मेरे मन में चित्र-छवियां बन रही हैं तो उन्हें मैं बिम्बात्मक कहूंगा. लेकिन जब किसी वस्तु या विचार को देखकर चित्र-छवियों की जगह अर्थ-छवियां बन रही है जिसे हमारा मस्तिष्क ग्रहण कर रहा है तो उसे बिम्बात्मक कैसें कहें

कविता में भी मूर्तनता का सवाल जितना इन्द्रियबोध से जुड़ा है उतना ही मन से भी, बल्कि यूँ कहें कि हमारे ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों को भी मन-मस्तिष्क ही संचालित करता है. क्या कोई बेहोश या अचेत पड़ा व्यक्ति अपनी खुली आखों से रूप-रस-गंध-स्पर्श आदि का अनुभव कर सकता हैअतएव यह सक्रिय मन ही है जो अनुभव कराता है, इंद्रिय तो माध्यम भर है. इस कारण कविता में बिम्ब से अधिक जरूरी उसकी मूर्तमयता है. अमूर्तनता किसी भाव, विचार, रूप और वस्तु की या तो अपरिपक्व स्थिति हो सकती है या फिर सृजन में कला का जिया हुआ असफल क्षण जिसे उस कवि के अलावा पूरा-पूरा कोई और न समझ सके (क्योंकि कविता में मूर्तनता लाने में असफल कवि की प्रत्यारोपित धारणा वहाँ पहले से मौजूद होती है). इससे यह पता चलता है कि अमूर्तनता की काट सृजन की प्रमाणिक अनुभूति में है जो केवल बिम्ब-ग्रहण से ही संभव होगा, ऐसा आग्रह और हठ कविता को बिम्ब से बिम्बवाद की ओर ले जाता है. 

अमूर्तनता कविता की कमजोरी है, इससे बचने का सहज मार्ग कविता की अंतर्वस्तु का वस्तुपरकता के आत्मगतता की ओर जाना है जो सदैव बिम्ब-विधायी हो, जरूरी नहीं. निष्कर्षत: परंपरावाद के अंध समर्थकों द्वारा समकालीन कविता में काव्यभाषा की बहस को कविता की अमूर्तनता की वकालत और काव्य-बिंबों की उपेक्षा से जोड़ने का कोई तुक नहीं बनता, और यह कुतर्क खारिज करने योग्य है. आज की कविता को समझने के लिए जब कविता के परंपरागत लक्षण तुक, छंद, अलंकरण, उपमान, रस आदि शनै: शनै: विलुप्त हो चले हैं तो काव्य-भाषा ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण आधार शेष रह जाती है जिसके सहारे कविता की आंतरिक बनक को बिना कविता के बाहर गए भी आसानी से समझा जा सकता है. यह बात अब पूरी तरह समझने के लायक है कि काव्यभाषा के प्रति आधुनिक दृष्टिकोण को कलावादी कहना इसकी सच्चाई को जानबूझ कर नकारना है.

कविता कितनी मूर्त है या कितनी वायवीय, कितनी सपाट है या बिम्बात्मक, कितना जनवादी है, कितना अभिजनवादी या कला-उन्मुख, कितनी मध्यमवर्गीय संचेतना और कितना रचनात्मक आत्मसंघर्ष से युक्त है, कितना भाषाई सच हैं और कितनी वंचनाएँ, कितना आत्मगत है और कितना बाह्यगत ...इन सब उपादानों तक कविता में मात्र प्रयुक्त भाषा से ही हम प्रथमतः पहुँच सकते हैं.

यह कवियों की रचना का जेनेटिक लक्षण भी कहा जा सकता है. काव्यभाषा को कविता का विश्वसनीय प्रतिमान न मानना एक तरह से रीतिकालीन या बुर्जूआ धारणा का भय-त्रास मात्र है जिस शंका के कारण आलोचना-सैद्धांतिकी भाषा की नब्ज पकड़ने के बजाए केवल कविता के कथ्य पर आधारित स्थूल मान्यता तक ही सीमित होती है जिसमें कथ्य के समाजशास्त्र के आधार पर काव्यभाषा के अभिलक्षणों की उपेक्षा हो जाती है जिससे अब सहमत होना शायद संभव नहीं, न समय की मांग ही है.

मेरे विचार में, काव्यभाषा आलोचना की वह लेजर किरणहै जिससे सृजन के वस्तु और रूप में प्रवेशकर कविता का वास्तविक एक्स-रेकिया जा सकता है पर इसके लिए समीक्षकों-आलोचकों को भी उतना ही सहृदय, दृष्टि-सम्पन्न और पूर्वग्रह-मुक्त होना होना होगा. काव्य-भाषा से मुंह मोड़ना नव्य आलोचना पद्धति में एक तरह से स्थूल समाजशास्त्रीय रीति अपनाकर कविता-पांखी के नए, उगते पंख को जबरन कतरना, या कहें साहित्य के एक हठयोग जैसा है जिससे अब साहित्य का भला होना दूर की कौड़ी जान पड़ती है. हाँ, यह बात अलग है कि कुछ अभिजनवादी कवियों ने उत्तर-आधुनिकता के प्रभाव में आकर कविता में काव्य-भाषा के जिन कलात्मक उपकरणों का उपयोग किया, परंपरा और मूल मानवीय रागात्मकता से अपने को अलग-थलग कर भाषा में संवेदना की आधुनिकी और नवता के नाम पर मन को विचलित करने और चौंकाने वाली कविताएं रची, उनमें जन कहीं मानवीय संघर्ष करता नहीं दिखता, वह तो बुर्जुआ वर्ग के शौक और मौज की कविताएं बनकर रह गई हैं.

कविता का इतिहास यह साफ तौर पर बताता है कि कविता के सृष्टि-काल से ही ‘लोकधर्मिता’  कविताओं का प्रतिमान ही रहा है (चाहे नाम जो भी रहा हो) किन्तु परिवेश और युग-बोध के बदलने के साथ लोकधर्मी चिंतकों-आलोचकों को यह समझ लेना चाहिए कि सभ्यतासंस्कृतिभाषागत संरचनारूप और वस्तु में समय के साथ जो बदलाव आए हैं, उसको कविताओं में रेखांकित करने के लिए पुराने अभिलक्षणों के परित्याग के साथ-साथ अपनी रुढ़ धारणा और परम्परागत काव्य-भाषा में भी आमूलचूल सुधार की आवश्यकता है. इसलिए यह कहते हुए मुझे लेश-मात्र भी संशय नहीं कि जब तक काव्यभाषा का सृजनशीलता से अंतर्सबंध और उसकी आंतरिक बुनावट को पूर्वग्रह-रहित होकर नहीं समझा जाएगा, तब तक लोक की नई काव्य-प्रवृत्तियों पर सम्यक और ईमानदार समीक्षा सम्भव नहीं. कविताओं की भाषा उसके कथ्य या अंतर्वस्तु से बनती है, यह कविता के भावजगत का प्रत्यक्षीकरण करती है जो एक स्वत: प्रक्रिया है जिसमें कवि का अंतर्ज्ञान, उसके जीवनानुभव और उसकी मेधा-शक्ति अन्तर्भूत होते हैं.

इसलिए काव्यलोचना में भाषा-विधान पर सेन्सर्स कतई सही नहीं.  कविता में यदि कथ्य ही अमूर्त्त हो और उसके सौंदर्य में जन की जगह अभिजन का पक्ष हो, तो इसका पता भी उस कविता की काव्यभाषा से चल जाता है. अगर कोई कवि अपनी भाषा को जनपद की लोक-भाषा से नहीं सींचता, परंपरा से उसे पोषित नहीं करता, स्थानीयता का चटक रंग नहीं ला पाता, देशज भंगिमा को प्रकट करने में सफल नहीं हो पाता, मध्यमवर्गीय कुंठा-लालसा से ग्रसित हो जाता हो, बंद कमरे में किताबी भाषा की जोड़-तोड़ से ही अपना काम चलाता हो तो इसके परीक्षण की कुंजी भी प्रथमत: और अंतोगत्वा कवि की काव्यभाषा ही है क्योंकि इनकी जड़ें वहीं मौजूद हैं जहां लोकधर्मी चिंतक जाना चाहते हैं. इसलिए काव्यभाषा को कविता के प्रतिमान का विपर्यय व पाश्चात्य नव्य-समीक्षा की फलश्रुति मानना और रूपवादी झुकाव का एक आयाम कहकर तिरस्कृत करना कविता की स्वायत्त दुनियामें अवांछनीय दखल जैसा प्रतीत होता है.

आज की कविताएं अपनी समकालीन काव्य-भाषा के गुण के कारण जितनी सहज है उतनी ही संश्लिष्ट भी, भावलोक और अनुगूँज की कई तहें रचती हैं, यह कविता के अंदर कोरा बौद्धिक विमर्श नहीं, बल्कि ऐंद्रिक सजगता को उकसाती है और काव्यभाषा अपनी पूरी संवेदना और काव्यानुशासन के साथ पाठक के हृदयाकाश में घर कर लेती है जो बिन बोले कविता की स्वायत्त दुनिया में सापेक्ष स्वतन्त्रता को उद्भासित करती है. 

हमें महसूस होता है कि क्षण भर के लिए कविता को अगर एक जीवित प्राणी मान लिया जाए तो रूप-संभार उसकी देह है और अंतर्वस्तु उसकी अस्थियाँ. भाषा उसकी प्राण है और भाव उसकी धमनियों में प्रवाहित रक्त. इसकी समष्टि ही कविताओं का गोचर या मूर्त रूप है. इसके सन्तुलन का अभाव कविता को निकृष्ट और बेजान कर देती है.

इसमें एक तत्व का आधिक्य दूसरे की कमी का द्योतक बन जाता है. बाकी, लोकतत्व की व्याख्या तो कविता के अवतीर्ण होने के उपरांत की जाती है पर नहीं भूलना चाहिए कि इसका संस्कार कविता के बीज-वपन में ही पड़ जाता है क्योंकि कविता जितना वैयक्तिक कर्म है उससे अधिक एक सांस्कृतिक कर्म. इसका लोकरूप विश्वरूप का ही अवतार और व्यापकता है जिसके संतुलन को साधे बिना कवि हृदयस्पर्शी और जनोपयोगी सृजन नहीं कर सकता.

काव्य-भाषा की जड़ें भले ही परम्परा में गहरी धँसी हो, पर उसको खाद-पानी लोक या परिवेश से ही मिलता है. जिस कवि का परिवेश जीवन के यथार्थ और अंतर्द्वन्द्व से पगा हुआ नहीं, वह अपनी रचना में लोकधर्मिता और जनवाद के उस वागर्थ को नहीं उद्भासित कर सकता जो काव्य-भाषा की प्राण समझी जाती है.
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सुशील कुमार
कविता-संग्रह-  कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012)  प्रकाशित

संपर्क :  सहायक निदेशक, प्राथमिक शिक्षा निदेशालय,
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग,
एम डी आई भवन, धुर्वा, रांची – 834004 

मोबाईल (0 90067 40311 और 0 94313 10216)

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  1. अच्छा लेख !नई सदी की काव्यभाषा पर बात करना बहुत ज़रूरी हो गया है। प्रगाढ़ गद्य के प्रयोग से सभी कवियों की कविताएँ एक जैसी लगती हैं अब। कविता और सबकुछ तो बचा रही है लेकिन भाषा नहीं बचा पा रही है।

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  2. कविता को पलभर के लिए आज के मनुष्य में बदल दीजिये--वह सहज कहाँ है? जितना एवोल्व हुआ उतना ही काम्प्लेक्स भी। लोकधर्मिता से सींची जाने के बावज़ूद भी कविता का मसला या तो कवियों तक सीमित रहा या साहित्य के विद्यार्थियों तक। कबीर,तुलसी,मीरा,तुकाराम,फ़रीद, रैदास,ख़ुसरो, जायसी जिस तरह जन को सींचते रहे, उस तरह का खाद-पानी आज की कविता को कहाँ मिला? इतने सारे प्रभेद हैं और चीन की दीवारें कि कविता अजनबी लोक का मामला बन जाती है। साहित्य की डेमोग्राफी में कविता 'वे' की तरह ट्रीट होती रही है।

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  3. मेरा ध्यान अचानक ऊपर चित्र पर गया। spontaneous combustion..सपनों के rapid oxidation का खतरा और यही काव्यभाषा का खतरा भी है जो नयी चाल में ढल तो गयी पर उसे आज जल्दबाज़ी है।
    सैराट की तरह इस संवाद को भी आगे बढ़ना चाहिए।

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  4. अत्यन्त महत्वपूर्ण आलेख है। बिना भाषा-विमश के काव्य-विमर्श संभव नहीं। गम्भीर विषय को सरल रूप में प्रस्तुत करने के लिए बधाई।

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  5. बहुत लंबे समय के बाद लगा कि आलोचना के बंजर इलाके में कुछ हरियाली सी आई है, कुछ सार्थक व्यावहारिक बात हो रही। जो मुद्दे उठाए गए हैं वे इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि विमर्शकार अपने हित में इनसे परहेज करते रहे हैं। आशा की जानी चाहिए कि इस बहस की प्रतिध्वनियां दूर तक जाएंगी...

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  6. काव्य भाषा की गूढ़, अलक्षित संरचना में उतर कर लिखा गया लेख जो पाठक की भाषाई दृष्टि में नई चमक पैदा करता है।

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  7. किसी कविता का असर एक मायने में हमारी पहचान से जुड़ा मामला भी है। हम जो हैं और जहाँ से हैं, हम जैसा भोगे हुए हैं या कि जैसा हमने अन्दर-बाहर देखकर महसूस किया है; हमारे लिए कविता के शब्दार्थ, रूप, रंग, आकार, आकृति आदि उतने ही अर्थ-वैविध्य के साथ खुलते हैं; सजीव और साकार होते हैं। यानी पाठक का सामाजिक-सांस्कृतिक अनुभव-बोध ही उसकी पाठकीयता का पहचानमूलक दस्तावेज हैं, जो उसे जितना मुक्त करती हैं उससे कहीं अधिक अपने विचार-दृष्टि, चिन्तन-प्रणाली, वाक्-सरणी इत्यादि से बाँधती तथा बिंधती भी है।

    अनुभूत का अभिव्यक्त पक्ष जब उपयोगिता और सार्थकता की कोटि से ऊपर उठ जाता है, तो हमें काव्य-रचना की प्रतीति होती है। पुरातन-नूतन के बहस में पड़े बिना भाषा की उपादेयता को काव्य के सन्दर्भ में समझा जाना महत्त्वपूर्ण है। उपर्युक्त आलेख में बहस-मुबाहिसे की जो कचोट दिखाई देती है वह अपने अकादमिक देह-रूप के बावजूद सच को उकरेने की ताकत और तर्कमना होने की कूव्वत रखती है। बधाई कि नई पीढ़ी की भाषा पर बात करने की तमीज अभी बाकी है। यहीं से नई राहें और पगडंडियाँ मिलेंगी। कोई बात शास्त्रीयता की लकीर न पीटते हुए अपने अनुभूत के भरोसे सच का आवृत्त रचती है, तो भाषा में यह सचबयानी देर-सबेर नई प्रवृत्ति के रूप में पहचान ली जाती है। यद्यपि जबरिया निगली हुई चीज को उगल देना हमारी नियति है; तथापि कविता आज की तारीख़ में स्थापित ‘ट्रेंड’ है जिस पर बातचीत(वाद-विवाद-संवाद) कम छपाई अधिक होती है। यह भी सही है कि आधुनिकता की छौंक(स्वाद बढ़ाने का काम) और उत्तर-आधुनिकता का जोरन(स्वाद बदल देने का काम) इन दिनों ‘कविता-कर्म’ में जरूरत से ज्यादा पड़ रहे हैं इस बारे में सुधि आलोचक ने संकेत किया है।

    प्रश्न है, हमारी आँख-नाक-कान-त्वचा-जीभ अपने समय-समाज को लेकर सजग कितनी हैं? यदि कविता सांस्कृतिक-कर्म है, तो इसकी पहचान करने वाले लोग कौन और किस आचरण-प्रवृत्ति के हैं? इस स्वार्थी और चटोर समय में पाठक राजनीति से अधिक भाषा के भुलावे में हैं। हर चीज ‘काॅकटेल’ की तरह उसके सामने परोसी जा रही है। यथा: राजनीति, धर्म, संस्कृति, समाज, अर्थशास्त्र, साहित्य, कला, स्थापत्य, नृत्य, संगीत, सिनेमा आदि-आदि।

    मेरी समझ से बौद्धिक-पंगुता के ऐसे संकटपूर्ण दौर में काव्यभाषा की नई प्रवृत्तियों के बारे में नए सिरे से समझा जाना अत्यावश्यक है। इसके लिए यह भी जरूरी है कि हमारा बौद्धिक-मानस अकादमिक-मुहावरे/वाचिक-आक्षरिक प्रोफेसरी के घेरे से बाहर निकले। वह स्वतंत्रमना होकर विचार करे। सबसे पहले काव्य को ग्रहण करे, उसका अर्थ पाए, संवेदना से रींजे-भींजे। फिर आलोचकीय दृष्टिकोण से अपने अनुभूत सत्य का मिलान करे; यदि अंतर उन्नीस-बीस है, तो संशोधन-परिष्कार करे और नहीं तो बेदर्दी से ख़ारिज कर दे।

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  8. मुझे कई बार ऐसा लगता है कि इन दिनों कविता की भाषा की चर्चा इस प्रकार हो रही है जैसे भाषा कविता का एक जरुरी उपकरण - माध्यम न होकर अपने आप में स्वतंत्र साध्य ही है .भाषा से हमारा रिश्ता वस्तुजगत और मनुष्य के क्रियाकलाप के माध्यम से ही होता है. मेराअपना अनुभव है कि कई बार कविता की भाषा सहज सरल होकर भी रचनाशील नहीं होती . दरसल हमने किस भाषा में किसके लिए क्या कहना चाहा है. कविओं की भाषा में विविध स्तर कैसे पैदा होते है. और एक रसता क्यों आ जाती है . ऐसे आलेखों से हम संरचनावाद की ओर तो कहीं नहीं लौट रहे.? सुशील का आलेख अच्छा हो सकता है . पर क्या वह उतना सार्थक भी बन पाया है. किसी भी कविता की भाषा की चर्चा उसकी अंतर्वस्तु और कथ्य को विश्लेषित किये बिना हमें संरचनावाद कीओर ले जा सकता है. आज के अधिकांश कविओं की भाषा में एकरसता क्यों आ रही है ?. उनकी कविता में मध्यवर्गीय मानसिकता ही क्यों व्यक्त हो रही है ?. किसान, श्रमिक और कठिन जीवन जीने वालों की भाषा का क्योंआभाव है.? भाषा और यथार्थ का किया रिश्ता है और वह कैसे निर्धारित होता है? ऐसे प्रश्न भी क्योंनहीं उठने चाहिए, कविता को सिर्फ भाषा से समझना मुझे नकाफी लगता है . यह एक नए किस्म का संरचनावाद ही है . जिस सेहमने बड़ी मुश्किल से मुक्ति पाई है .

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    उत्तर
    1. "आज के अधिकांश कविओं की भाषा में एकरसता क्यों आ रही है ?. उनकी कविता में मध्यवर्गीय मानसिकता ही क्यों व्यक्त हो रही है ?. किसान, श्रमिक और कठिन जीवन जीने वालों की भाषा का क्योंआभाव है.? भाषा और यथार्थ का किया रिश्ता है और वह कैसे निर्धारित होता है? ऐसे प्रश्न भी क्योंनहीं उठने चाहिए, कविता को सिर्फ भाषा से समझना मुझे नकाफी लगता है "


      आप का प्रश्न लोक हित में है । अच्छा है । लेकिन मिस प्लेस्ड है ।

      ऐसे प्रश्न जरूर उठने चाहिए जी । और ऐसे प्रश्न ही तो उठ रहे है फैशन के रूप में । आलेख इसी पर सवाल कर रहा है ।

      केवल ऐसे प्रश्न " ही " क्यो उठ रहे हैं ? भाषा और शिल्प के प्रश्न "भी" क्यो नहीं उठ रहे ?

      हटाएं
  9. कविता को केवल भाषा से समझने की बात नहीं की गई है आलेख में लेकिन भाषा को छोड़कर भी नब्बे दशक की बाद की कविताओं को समझा नहीं जा सकता । कविता के प्रतिमान में दर्शन (मार्क्स हो या और भी जो हो) का अतिरिक्त आग्रह और बिम्बों का अतिरेक भी कविता को एक नए रूपवाद की ओर ले जा रहा । यह भाषा की अवहेलना का ही परिणाम है कि नए कवियों को नकारा गया है। नवसंरचनावाद क्या है ? अगर भाषा archaic हो तो कविता में लोक का वह अद्यतन संस्करण नहीं , बल्कि उसमें छायावादी रूप ही गोचर होगा । भाषा समकालीन होगी तभी वह भेदस होगी ।

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  10. उमाशंकर सिंह परमार28 जून 2016, 7:19:00 pm

    Vijendra Kriti Oar जी ने भाषा पर बेहद जरूरी बात कही है । भाषा यथार्थ और जीवन से जुडी होनी चाहिए । किसान और मजदूरों श्रमिकों की भाषा का धीरे धीरे विलोपन होते जाना व शहरी उच्चमध्यमवर्गीय भाषा को 'काव्यभाषा' का संस्कार देना कहीं न कहीं भाषा को पेशेवर बना देता है । कविता की संरचना भाषा का मुख्य उपादान है । कवि इसे संवेदनाओं व निजी वैचारिक अवस्थितियों की भीषण जद्दोजेहद के बाद उपार्जित करता है । केवल विषय देखकर कविता लिखना ..कविता नही है । विषय से संवेदित होकर भाषा का उपार्जन करना ही कविता है । यदि भाषा उपार्जित है संवेदना जन्य है तो निश्चय ही रचना भी मौलिक है । लेकिन मजे की बात है कि आज का कवि भाषा का उपार्जन करना ही नही चाहता है वह परम्परा से चली आ रही भाषा की आवृत्ति करके कविता परोस रहे हैं यही कारण है एक से विषय पर लिखी गयी बहुत सी कविताएं एक जैसी प्रतीत होती हैं । भाषा को संवेदना से न जोड पाने के कारण ही आज मौलिकता का सवाल उठाया जाता है ।

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  11. वात्सायन का यह कहना कि काव्य के जो गुण बताये जाते है या बताये जा सकते है वे भाषा के ही गुण है . यह अधूरा कथनहै. और भ्रामक भी .भाषा स्वयं कोई गुण लेकर शून्य में पैदा नहीं होती. उसमी जो भी गुण आते है वे वस्तुजगत से ही आते है. शब्द वस्तु का प्रतिबिम्बन है. वस्तुसे स्वायत्व उसका कोई अर्थ नहीं है. वह वस्तु का नामहै. एक संकेत जिससे हम वस्तु को पहचान सकें. भाषा को वस्तुसेअलगऔर स्वायत्व करके देखना नकेवल अनुचित है बल्कि अवैज्ञानिक भी है .

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  12. लोकधर्मिता वस्तुजगत का प्रतिबिम्बन है , लोकधर्मिता का अर्थ है भारतीय जनता का अथक और सतत संघर्ष जो आज भी वैसा ही है जैसा 3 दशक पहले था, इस लिए ९० के दशक के कविओं का लोक भिन्न कैसे हो सकता है जब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होता, लोक कि प्रकृति को तो पहले समझें .

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