मति का धीर : मुद्राराक्षस




हिंदी के मौलिक चिंतक, कथाकार, नाटककार, आलोचक और समय- संस्कृति के अप्रतिम व्याख्याकार मुद्राराक्षस अपने आप में एक संस्था थे. वर्चस्व की संस्कृति, विचार और समाज के समानांतर उनकी आवाज़ का एक प्रश्नाकुल संसार था/ है.  उन्हें याद करते हुए संतोष अर्श का स्मृति लेख.


(स्मृति-शेष)
हिंदी के हॉबिट सुभाष सी. लिटिल उर्फ़ मुद्राराक्षस                  

संतोष अर्श     



खनऊ में यदि आपको सुन्दर चीज़ें और लोग देखने हैं तो बेहतर होगा कि आप वहाँ आवारागर्दी करें, बजाय इसके कि, व्यवस्थित ढंग से वहाँ का पर्यटक, बाशिंदा या निवासी बनकर रहें. मुझे लखनऊ की सड़कों पर, साहित्यिक चर्चाओं, गोष्ठियों, जलसों में, रंगमंचशालाओं, चायखानों, कहवाघरों में, शराब की दुकानों से शराब ख़रीदता या मँगवाता हुआ, एक हॉबिट जब-तब दिखाई पड़ता था वह हॉबिट और कोई नहीं, सुभाष सी. लिटिल या मुद्राराक्षस थे. यह अभी बहुत पुरानी बात नहीं है. हॉबिट इसलिए कि वे बिलकुल छोटे से, चमकती आँखों वाले, हल्की-फ़ुल्की शारीरिक संरचना वाली शख्सियत थे और इसलिए भी कि वे अपनी प्रजाति के हिन्दी के अंतिम लेखक थे. बचपन में गाँव की चक्की पर ‘राष्ट्रीय सहारा’ अख़बार में उनका एक छोटा सा कॉलम पढ़ा करता था. कभी-कभी शनिवार को आने वाले इसी अखबार के परिशिष्ट ‘हस्तक्षेप’ में उनके लम्बे लेख भी आते थे. लेकिन तब इतनी समझ नहीं थी कि वे क्या लिखते थे! क्या लिखते थे मुद्राराक्षस ?

उनके बारे में बहुत सारे अच्छे-बुरे किस्से प्रचलित हैं. किस्से पुराने होते-होते बहुत परिवर्तित हो जाते हैं. उनमें प्रक्षिप्त अंश बढ़ते जाते हैं और वे एक दिन झूठ जैसे भी लगने लगते हैं. मुद्राराक्षस अपने अंतिम दिनों में, जब वह बीमार चल रहे थे (पिछले चार-पाँच सालों से) तब भी घर से बाहर निकलने से नहीं चूकते थे. उनकी आवाज़ धीमी हो चली थी. फिर भी वो बोलते थे. शॉल यूनानी ढंग से कंधे के ऊपर से डालते थे. मंच पर धीरे-धीरे चलते थे. नन्हे-नन्हे क़दमों से ! जैसे कोई ड्वार्फ़ अभी मंच पर बेहतरीन करतब दिखाने वाला है, दिखाता भी था. और उनकी दाढ़ी..? 

अंतिम बार जब लखनऊ विश्वविद्यालय में उनके सम्मान समारोह में उन्हें बोलते सुना था तो वे कह रहे थे- ‘हम रचनाकारों के बारे में झूठ बहुत बोलते हैं  या अर्धसत्य बोलते हैं.’ यही शब्द उन्होंने उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ के एक कार्यक्रम में बोलते हुए कहे थे. मंच पर नामवर सिंह भी उपस्थित थे. मुद्रा अमृतलाल नागर के विषय में बोल रहे थे. धड़ाक से कह दिया कि, ‘नागर कोई बहुत अच्छे लेखक नहीं थे, वे थर्ड क्लास लेखक थे. उनमें उपन्यासकार की कम पुरातत्व के खोज़ी की दृष्टि अधिक थी, बेहतर होता कि वे उसी क्षेत्र में परिश्रम करते.’ लखनऊ से सम्बंधित लेखन की अधिकता के चलते नागर जी के प्रति लखनऊ में एक रोमांटिसिज्म प्रचलित है. सभागार में बैठे नागरवादी रोमांटिक श्रोता चिल्लाने लगे, हाय-हाय करने लगे. कुछ उन्हें राक्षस बताते हुए बाहर निकल गए. कुछ पर्चे लहराकर वहीं बैठ गए. हमला पूर्व नियोजित था. मुद्रा जी शांत मुद्रा में माइक के सामने खड़े रहे. मुस्कराते रहे. चूं-चपड़ बंद हुई तो फिर बोलने लगे.

क्या लिखते थे मुद्राराक्षस.? आला अफ़सर, दंडविधान, कालातीत, नारकीय, मरजीवा, हम सब मंशाराम, तिलचट्टा, तेंदुआ और अर्धवृत्त, इनमें क्या लिखा है उन्होंने ? उनकी मृत्यु पर शोक मनाने वाले साहित्यिकों ने यह क्यों नहीं बताया कि इस सभी रचनाओं में मुद्राराक्षस ने क्या लिखा है ? पंद्रह से अधिक नाटकों (जिनमें नौ छपे), बारह उपन्यासों, पाँच कहानी संग्रहों, तीन व्यंग्य संग्रहों और पाँच आलोचनात्मक कृतियों में मुद्राराक्षस ने क्या लिखा है ? अरे ! मुद्राराक्षस ने तो बाल साहित्य भी लिखा है, उदयप्रकाश कहते हैं-

  
"कभी, जब मैं बचपन में था और इस भ्रम में था कि साहित्य और सृजनात्मक  कर्म राजनीति या व्यवसाय से भिन्न एक गहन मानवीय कर्म है, उन दिनों पुराना ज्ञानोदय, कल्पना, नवनीत, नयी कहानियाँ जैसी पत्रिकाएँ घर पर आती थीं. मैंने बाद में कभी नहीं पाया कि हिन्दी उपन्यास और कथा साहित्य को लेकर वैसी प्रयोगशीलता कभी बाद में देखी गई हो. मुद्राराक्षस जी के लेखन से पहला परिचय तभी हुआ, जब ज्ञानोदय में ‘ग्यारह सपनों का देश’ नामक उपन्यास किसी श्रृंखला की तरह प्रकाशित होना शुरू हुआ. इस उपन्यास का लेखक कोई एक कथाकार नहीं, ग्यारह अलग-अलग कथाकार थे. डॉ. धर्मवीर भारती, मन्नू भंडारी, राजेन्द्र यादव आदि. इसमें मुद्राराक्षस भी थे. मीनल नाम की लड़की इस उपन्यास की नायिका थी. नयी कहानी आन्दोलन का दौर था. आज की तरह तब भी हिन्दी लेखकीय मानसिकता कई तरह की रूढ़िगत वर्जनाओं में क़ैद थी. दीदीवाद और भाभीवाद उस दौर में पुरुष लेखन की सर्वाधिक स्वीकृत अवधारणा थी. इसी दौर में, कुछ समय बाद या पहले, राजेंद्र यादव और मन्नू भंडारी का सहलेखन ‘डेढ़ इंच मुस्कान’ प्रकाशित होना शुरू हुआ. तमाम पत्र-पत्रिकाएं, ‘ग्यारह सपनों का देश’ और ‘डेढ़ इंच मुस्कान’ की चर्चाओं से पट रही थीं. लेकिन मुद्राराक्षस सबसे अलग थे. इस उपन्यास के लेखन में जब उनकी बारी आई, तब जिस मीनल को बाक़ी के कथाकारों ने रूमानी दीदी-भाभीवाद की सीमा में बाँध रखा था और किसी गुनगुनी, शीतल, अस्पृश्य कोमलता में घेरकर अपना वाक्-कौशल दिखाकर चर्चाओं के शिखर पर स्थापित हो रहे थे, तब मुद्राराक्षस जी का पहला ही वाक्य था- ‘और मीनल गर्भवती हो गई.’ ज़ाहिर है उन पर तमाम हमले हुए. वे मुख्यधारा से जान-बूझकर अलग हो रहे थे."

‘आला अफ़सर’ बहुत चर्चित नाटक था. वह उस दौर की बहार था. कई-कई बार उसका रंगमंचीय प्रदर्शन हुआ. कहा जाता है ‘आला अफ़सर’ रूसी नाटककार निकोलाई गोगोल के नाटक ‘इंस्पेक्टर जनरल’ से प्रेरित था. इसे रूस में भी प्रदर्शित होना था लेकिन मुद्राराक्षस रूस क्यों नहीं गए ? और दंडविधान....? उदय प्रकाश फिर कहते हैं- ‘मेरे दोस्त और अनुवादक तथा वर्जीनिया विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई विभाग के अध्यक्ष और अप्रतिम विद्वान रॉबर्ट ह्युक्स्टेड ने जब मुद्राराक्षस के उपन्यास ‘दंडविधान’ का अंग्रेज़ी में अनुवाद किया, जिसे पेंगुइन ने प्रकाशित किया तो उसकी चर्चा उस तरह से नहीं की गई, जैसी कई छिछले हिन्दी उपन्यासों की, की जाती है.’

मुझे मुद्राराक्षस का उपन्यास ‘अर्धवृत्त’ पसंद है. यह एक वृहत पाँच सौ पृष्ठों का उपन्यास है. जिसे उन्होंने राजेंद्र यादव को समर्पित किया है. हंस में वे राजेंद्र यादव के निष्ठावान, प्रतिबद्ध सहयोगी रहे. विमर्शों को खड़ा करने में राजेन्द्र यादव के साथ मुद्राराक्षस का भी बहुत बड़ा योगदान है. कहते हैं, हंस ऐसे ही इतना नहीं उड़ा ! उसका एक पंख राजेंद्र यादव थे और दूसरा मुद्राराक्षस.

‘अर्धवृत्त’ में मुद्राराक्षस की प्रयोगधर्मिता और विलक्षण कहन शैली दिखती है. मुझे इस उपन्यास के साथ उनकी एक कहानी भी याद आती है जिसका नाम मुझे याद नहीं ! जिसमें एक नाई अपनी जाति से पीछा छुड़ाने की सारी तरकीबें आज़माता है लेकिन अपनी जाति से पिंड नहीं छुड़ा पाता. ‘अर्धवृत्त’ के औपन्यासिक विस्तार की काल्पनिक कहानी में उनके जीवन के यथार्थ बिम्ब भी दीखते हैं. साथ ही उनकी तर्कशील, विध्वंसक, विद्रोही विचारधारा भी. धर्म, रूढ़ियों और कर्मकांडों की धज्जियाँ उड़ाने वाला मुद्राराक्षस जैसा हिन्दी के पास दूसरा लेखक न था और न होगा. जैसे लखनऊ के ही शायर यगाना यास ‘चंगेज़ी’ थे. जो इस्लाम, ख़ुदा-नमाज़ के साथ-साथ ग़ालिब की धज्जियाँ उड़ाते थे. मुद्राराक्षस ने उसी अंदाज़ में प्रेमचंद की धज्जियाँ उड़ाईं. ‘अर्धवृत्त’ के प्रारंभ में ही वे लिखते हैं ‘मैं कह नहीं सकता मेरी जिंदगी में नरक कितनी उम्र से आना शुरू हुआ होगा. हाँ, यह ज़रूर कह सकता हूँ कि नरक से छुटकारा पाने की कोशिश मैंने कब से शुरू की.’ (अर्धवृत्त, पृष्ठ-7) उन्हें तिलचट्टा एक प्रतीक के रूप में बेहद प्रिय था. अपने एक नाटक का नाम भी उन्होंने तिलचट्टा रखा. 

‘अर्धवृत्त’ में भी तिलचट्टा रेंगता, श्रृंग हिलाता, आँखें चमकाता दिखाई देता है- ‘सारी छत और दीवारों पर चमकदार काली आँखों और पंखों वाले वही कीड़े बेशुमार चिपके रहते थे जिनसे मुझे घृणा भी थी और डर भी बहुत लगता था. वे तिलचट्टे थे. पता नहीं वे वहीं पैदा होकर चारों ओर फैलते रहते थे या फिर चारों ओर से आकर वहाँ इकठ्ठा हो जाते थे. तिलचट्टों को बोलते मैंने कभी नहीं सुना. संभव है वे कुछ बोलते हों. पर यहाँ आने के बाद से सुबह होते ही जो तीखी आवाज़ें सुनाई पड़ती थीं शायद वे इन्हीं तिलचट्टों की हों. या फिर इस दुनिया में रहने वाले लोग ख़ुद तिलचट्टों में बदल जाते हों.’ (वही, पृष्ठ-10)

बहुत सारे उद्धरण दिए जा सकते हैं. लेकिन प्रचुर मात्रा में बेहतरीन साहित्य रचने वाले मुद्राराक्षस पर एक छोटा सा लेख लिखते समय कितने उद्धरण दिए जा सकते हैं भला ? मुद्राराक्षस सबके लेखक थे. कम्युनिस्ट कहते थे, मुद्रा, मुद्रा हैं. सोशलिस्ट कहते थे, मुद्रा, मुद्रा हैं. दलित कहते थे, मुद्रा, मुद्रा हैं. पिछड़े कहते थे, मुद्रा, मुद्रा हैं. मुद्रा, मुद्राहीन लोगों की मुद्रा थे. वे पब्लिक सेक्टर के इंटलेक्चुअल थे. सबके लेखक ! शूद्राचार्य और दलितरत्न ! बेहतरीन प्रगतिशील सृजनकर्ता और क्रिएटिव कलाकार ! कभी झुके नहीं, टूटे नहीं, बिके नहीं. हिंदी दुनिया के ब्राह्मणवादी अवसरवाद की धूर्त छाया उन्हें छू भी नहीं सकी. बड़े-बड़े अवसरों को ठुकरा दिया. आकाशवाणी की बेहतरीन नौकरी छोड़ दी. राजनीतिक गलीचों को ठेंगा दिखा दिया. अकेले रहे लेकिन सबके होकर. निर्भीक, साहसी, बेलौस, विचारोत्तेजक, आन्दोलनकारी लेखक मुद्राराक्षस.

उनकी मृत्यु की ख़बर सुनकर लखनऊ के एक वरिष्ठ (मुद्राराक्षस से आयु में केवल चार वर्ष छोटे) इतिहासकार और अवधविद् को जब फ़ोन किया, जिन्हें मुद्राराक्षस के साथ ही संयुक्त रूप से संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला था, तो वे बताने लगे कि पुरस्कार की राशि आधी-आधी बाँट लेने के बाद जब उन्होंने पुरस्कार के लिए मुद्राराक्षस को बधाई दी तो मुद्रा जी ने बधाई को कोई ख़ास तवज़्ज़ो न देकर कहा- ‘हाँ अच्छा हुआ कुछ पैसे मिल गए ! इनसे पत्नी का इलाज़ हो जाएगा.’

लखनऊ से मेरा तमाम संघर्ष और बहुत सारे जज़्बात वाबस्ता हैं. मुद्राराक्षस की मृत्यु की ख़बर सुनकर मेरी स्मृति में जो पहला बिम्ब कौंधा वह यह था कि छोटे से हल्के-फुल्के, अतिवृद्ध, हॉबिट जैसे मुद्राराक्षस साइकिल रिक्शे पर सवार हलवासिया (हज़रतगंज) के सामने से गुज़र रहे हैं. रिक्शे वाला बहुत रफ़्तार में रिक्शा चला रहा है. जैसे रिक्शे पर सवारी हो ही नहीं. मुद्राराक्षस वेग से पीछे की ओर खिंचते हुए, उड़ते हुए से प्रतीत हो रहे हैं. उन्होंने रिक्शे को कस के पकड़ रखा है, जैसे कि पीछे उड़ जाने का डर हो ! शायद इसलिए कि वे बहुत हल्के-फ़ुल्के थे. अपने जीवन का सारा भार उन्होंने अपने लेखन में निचोड़ दिया था. सदअफ़सोस ! अब जब लखनऊ जाऊँगा तो वहाँ की सड़कों पर हॉबिट नहीं दिखाई देगा.
_________
संतोष अर्श
कविताएँ और लेख प्रकाशित
हिंदी में शोधकार्य
poetarshbbk@gmail.com                                                                                

15/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. मुद्रा भाई पर तथ्यपूर्ण और मर्म भरा यह लेख आपका (ऎसे मौक़ों के मह्ज़ शोक और उच्छ्वास वाले से सर्वथा मुक्त) व्यापक समाज में आग्रह से पढ़ा जाएगा भाई संतोष अर्श जी। स्नेह सम्पर्क और आत्मीय होने के साथ मुद्रा जी एक ज़माने में हमारे अगुआ भी थे-'आकाशवाणी स्टाफ आर्टिस्ट एसोसशिएसन'में (नेता उन्हें नहीं कहूँगा )। सस्नेह

    जवाब देंहटाएं
  2. 1968 में दिल्ली पहुँचने के बाद रीगल के मूल कॉफ़ी हाउस और उसके वारिस मोहन सिंह प्लेस में अक्सर मुद्राराक्षस से मुलाक़ात होती थी जो शायद स्थायी मित्रता में बदल गई.एक कैटिलिटिक एजेंट रमेश बख्शी भी थे.वह भी मुद्रा की तरह मूर्तिभंजक,निर्भीक और बोहेमियन थे लेकिन मुद्रा प्रतिबद्ध और एक्टिविस्ट बोहेमियन थे और विचित्र था कि उन्होंने अपने बेटे का नाम हिटलर के सेनापति रोमेल पर रखा था.मुद्रा को शायद लगता था कि उनका कुछ अंश मुझमें भी है इसलिए उन्होंने मुझे ऐसा स्नेह दिया जिसे मैं अब भी समझ नहीं पाया हूँ.जब मैं लखनऊ नवभारत टाइम्स में तैनात हुआ तो मुद्रा से संपर्क और बढ़ा लेकिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह से मुद्रा की हमेशा खटकी रही - उन्हें उसके प्रकाशनों और साहू-जैन परिवार की कोई चिंता नहीं थी हिंदी के कथित बड़े-से-बड़े साहित्यकार का वह सार्वजनिक माँजना बिगाड़ कर रख देते थे,लेकिन अकारण नहीं.उनके क़हक़हों में जो जंग-लगी धार थी उसने शायद ही किसी को बख्शा हो.उनके बारे में निजी विवाद भी बहुत चले - चलेंगे,लेकिन वह उनकी जीवन-शैली को बिगाड़ न सके.उन्होंने उनकी कभी परवाह नहीं की.मुझे बीच-बीच में अचानक उनके चकित कर देनेवाले पोस्ट-कार्ड आ जाते थे और फ़ोन पर तो बात होती ही थी.उनकी कई साहित्यिक योजनाएं होती थीं लेकिन शेर के साथ जंगल में रहने की योजना में हिंदी का कौन-सा जानवर शामिल हो सकता था.उन्होंने कई कारणों से अनेक दिक्क़तों का सामना किया.यह एक शर्मनाक तथ्य है कि उनके मूल्यांकन की शुरूआत तक नहीं हुई.अब हिंदी के गिद्ध उनकी सम्पूर्ण रचनावली का मंसूबा बना रहे होंगे.वह हिंदी के चंद great survivors में से थे.
    वह हिंदी के हॉबिट थे,बल्कि योडा थे.वह लिलिपुट नहीं थे.संतोष अर्श ने उन पर यह इतना अच्छा लिखा है कि काश इसे मैंने लिखा होता.

    जवाब देंहटाएं
  3. हिंदी के गिद्ध क्या केवल गिद्ध ही हैं या वे स्कैवेंजेर भी हैं।

    जवाब देंहटाएं
  4. गिद्धों को उनकी परिभाषा में ही ''scavenging birds of prey'' कहा जाता है.उन्हें दुबारा ''स्कैवेंजर'' कहना tautological है.

    जवाब देंहटाएं
  5. हाँ, tautological है। पर ये गिद्ध यत्किंचित बिनायन होंगे!
    योडो आपने सही।

    जवाब देंहटाएं
  6. मुद्रा की मुद्रा में बेबाकी से कहने का साहस एक आधुनिक मुद्रा में ही हो सकता है।निस्संदेह बेहतर प्रस्तुति।

    जवाब देंहटाएं
  7. बहुत ही शानदार लेख लिखा है आपने। ये सही बात है मेरे बचपन में मैं भी उनके लेखों वगैरह को देखता था, तब सोचता था कैसा अजीब नाम रखा है, क्या सोचकर रखा होगा? फिर दूरदर्शन में भी देखा बहुत, पत्रों के जवाब देते हुए भी। हालाँकि सामने से कभी मिलने का अवसर तो नहीं मिला पर उनके प्रति एक जिज्ञासा अवश्य बनी रही, जो शायद ताउम्र बनी ही रहेगी क्योंकि वो अब किसी और लोक के वासी हो गए हैं। के पी सक्सेना के बाद वो शायद अपनी पीढ़ी के अंतिम सिपाही थे। वे जहाँ भी रहें उनकी आत्मा को शांति मिले। Arsh Santosh जी आपका आभार इस लेख के लिए।

    जवाब देंहटाएं
  8. आपकी ब्लॉग पोस्ट को आज की ब्लॉग बुलेटिन प्रस्तुति सुरैया और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। सादर ... अभिनन्दन।।

    जवाब देंहटाएं
  9. बहुत शानदार लिखा है संतोष।

    जवाब देंहटाएं
  10. बहुत ख़ूब अर्श ! ये तुम्हीं लिख सकते थे। ईमानदारी से कहती हूँ मैंने मुद्राराक्षस जी नहीं पढ़ा है। लेकिन हॉबिट्स फ़िल्म ज़रूर देखी है। मुझे लगता था मुद्राराक्षस कोई भारी-भरकम व्यक्तित्व होगा लेकिन हॉबिट्स प्रतीक से तुमने उनकी मासूमियत प्रत्यक्ष कर दी। मेरी और से उन्हें श्रद्धांजलि !

    जवाब देंहटाएं
  11. मरने के बाद जितने और जिनके कमेंट आये हैं काश वे सब मरने से पहले होता...

    जवाब देंहटाएं
  12. आप ने दिखाया ,हॉबिट अब दिखाई देता रहेगा ।

    जवाब देंहटाएं
  13. अर्श ने मुद्रा जी को सही अर्थों में याद किया है .उनके पास कहने और लिखने का साहस था .वे पूंछ हिलानेवाले लेखक नही थे .भले ही वे जीवन काल में मूल्यवान न रहे हो लेकिन अब बाजार उन्हें बिकाऊ बना देगा..

    जवाब देंहटाएं
  14. बेहतरीन लेखनी एक नायाब हस्ती के जीवन पर

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.