हस्तक्षेप : श्री श्री रविशंकर और नोबेल पुरस्कार : संजय जोठे








श्री श्री रविशंकर फिर चर्चा में हैं कि उनके अनुसार मलाला नोबल की हकदार नहीं थी और उन्होंने तो इसे ठुकरा ही दिया था.  धार्मिक गुरुओं के साथ तमाम समस्याएँ रहती हैं पर एक सबमें उभयनिष्ठ है कि वे अपने को महान या भगवान या फिर दोनों से कम मानने को तैयार नहीं रहते. आस्था के सैलाब में जब उनके भक्त गण जयजयकार करते हैं तब यह स्वाभाविक हो जाता है.  आज जरूरत है कि सहज भाषा में तर्क की महत्ता को समझा जाए.  

संजय जोठे ने यही किया है. उन्होंने छोटे छोटे सवाल पूछे हैं ज़ाहिर है इसका उत्तर किसी के पास नहीं है.






श्री श्री रविशंकर और नोबेल पुरस्कार                       
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संजय जोठे


भी अभी श्री श्री रविशंकर का एक वक्तव्य डेक्कन क्रानिकल  के हवाले से आया है जिसमे उन्होंने ऐसा कहा है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं चाहिए, पहले उन्हें नोबेल देने की पेशकश भी की गयी है लेकिन उन्होंने ठुकरा दियाf. डेक्कन हेराल्ड के मुताबिक उन्होंने ये भी कहा कि मलाला नोबेल की हकदार नहीं है उसने किया ही क्या है? उनके प्रश्न से जो तर्क उभरता है उसके अनुसार मलाला ने कुछ नहीं किया और जिस तरह की समाजसेवा या अध्यात्म का जागरण रविशंकर खुद करते आये हैं उस अर्थ में तो मलाला एकदम शून्य है, उसने उस दिशा में कुछ भी नहीं किया. इस बात को गंभीरता से समझने की जरूरत है. मलाला और रविशंकर की तुलना से बहुत सारे राज खुल सकते हैं और इसी से हम ये भी समझ सकते हैं कि भारत की असली बीमारी क्या है. भारत में सेवा, समाज कल्याण और विश्व शान्ति की मूल कल्पना और उसे हासिल करने का ढंग-ढोल क्या है? सीधा सीधा सन्देश जो श्री रविशंकर के वक्तव्य से मिल रहा है वो है कि मलाला ने गरीबों और खासकर लड़कियों की शिक्षा का जो अभियान अपनी जान  पर खेलकर छेड़ा है उसका कोई मूल्य नहीं है. इससे यह भी अर्थ निकलता है कि बाबा स्टाइल आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म का प्रचार और योगसाधना ही असली समाजसेवा है. भारतीय बाबा लोग आत्मा परमात्मा के मिलन को आसान बनाने को ही असली समाज सेवा या मानव सेवा मानते हैं और उनके हर एक दावे और सलाह में बस यही मिलन – जिसे योग कहा गया है- छुपा होता है.

भारतीय बाबा और गुरुओं के बडबोले दावों को हम अक्सर हम हल्के में उड़ा देते हैं. हम उन्हें  गंभीरता से नहीं लेते इसीलिये वे अपना साम्राज्य और व्यापार बढ़ाते जाते हैं और बड़े से बड़े हवा हवाई दावे करते जाते हैं. चूँकि इन बाबाओं के चारों तरफ सिर्फ समर्पित भक्तों की भीड़ होती है इसलिए इनसे आँख मिलाकर तर्कपूर्ण सवाल करने वालों से बात करने का कोई अनुभव नहीं होता. यह अनुभव न होने से ये बाबा लोग खुद को विश्वगुरु समझने लगते हैं और न जाने क्या क्या दावे करने लगते हैं. छह सात साल पहले श्री श्री रविशंकर ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर एक छोटी सी पुस्तिका बनाई थी. उसमे दावा किया कि “रमजान” का अर्थ “राम-ध्यान” है अर्थात राम का ध्यान करना ही रमजान है. इस दावे पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करते हुए हजारों की भीड़ के सामने मुस्लिम प्रतिनिधि जाकिर नाइक ने मूल अरबी भाषा के व्याकरण को उधृत करते हुए सरे आम रविशंकर के दावे की हवा निकाल दी और रविशंकर बगलें झांकते रह गए. उसी मंच से श्री रविशंकर को अपनी किताब के बारे में माफ़ी मांगनी पड़ी और वो किताब मार्केट से हटानी पड़ी. इसी तरह सद्गुरु जग्गी वासुदेव को जावेद अख्तर ने आइना दिखाया और आध्यात्म के पाखण्ड को उन्ही के सामने नंगा करके छोड़ा. लेकिन अन्य बाबा कभी पब्लिक में आकर चर्चा या संवाद नहीं करते सिर्फ एकल प्रवचन करते हैं, इन बाबाओं को पब्लिक में “संवाद” में घसीटने की भारी जरूरत है. 

अभी अभी श्री रविशंकर ने विश्व में समरसता और शांति के लिए यमुना किनारे अरबों खर्च करके संगीतमय कार्यक्रम किया. उसका क्या परिणाम हुआ? विश्व को तो छोड़िये इस आयोजन के बाद खुद यमुना तट का पर्यावरण नष्ट हो गया है, दिल्ली में ही भीषण अग्निकांड हुए और अभी उत्तराखण्ड में हज़ारों एकड़ में जंगल जल रहे हैं. क्या यही विश्व मे समरसता का  परिणाम है? इस बात पर अंधभक्त कहेंगे कि इन आयोजनों का संबन्ध पर्यावरण या जंगल की आग से या शहरों की आग या दंगों से नहीं होता. लेकिन उनसे कहना पड़ेगा कि आपके गुरु तो यही सब दावा करते हैं कि इन आयोजनों से विश्व में शांति होगी प्राणियों का कल्याण होगा. प्राणियों में पेड़ पौधे भी शामिल हैं फिर जंगल और जंगली पशु पक्षी भी बाबाजी के दावों के घेरे में आ जाते हैं. लेकिन हमारा समाज इस तरह क्यों नहीं सोचता? विश्व कल्याण के लिए यज्ञ हवन और पूजा में अरबों खरबों फूंक देते हैं और कई बार तो यज्ञ पंडाल में ही अग्निकांड हो जाता है, अभी कर्नाटक में हुआ है दो महीने पहले. दुर्भाग्य ये है कि इन दावों पर आँख मूंदकर भरोसा करके भक्तों की भीड़, शासन, प्रशासन और व्यापारी इत्यादि इन्हें करोड़ों का चंदा देते हैं फिर भी इनसे एक बार भी नहीं पूछते कि महाराज आपके इस यज्ञ का परिणाम कब आएगा?

इस बिंदु को ठीक से समझिये. ऐसा नहीं है कि व्यापारी, शासक और प्रशासक ये प्रश्न पूछने के लिए पर्याप्त बुद्धिमान नहीं हैं. बल्कि सच्चाई ये है कि वे बहुत ज्यादा बुद्धिमान और शातिर हैं. उनके लिए यज्ञों का परिणाम यज्ञ आरम्भ होने से पहले ही मिल जाता है. जिन नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों का नाम इस आयोजन में जुड़ जाता है उनका बेडा पार पहले ही हो चुका होता है. दीगर समाज में उनकी अच्छी साख बन जाती है उन्हें धार्मिक या परोपकारी होने का सर्टिफिकेट मिल जाता है और फिर उनकी दूकान, व्यवसाय और राजनीति को एक वैधता मिल जाती है. अब वे दोगुनी रफ्तार से अपने इस “इन्वेस्टमेंट” से हजार गुना माल खींचने में लग जाते हैं. व्यापारी धन खींचता है और राजनेता वोट खींचता है. अधिकारी इन दोनों के बीच में जो लेनदेन होता है उसमे से मलाई काटता है. वैसे भी अधिकारी की स्वयं की कोई आत्मा या स्वतन्त्रता होती नहीं सो उसे माफ़ किया जा सकता है. लेकिन अब असल मुद्दा है आम और गरीब जनता का. उसे क्या मिलता है?


यह प्रश्न सबसे भयानक और सबसे बहुरंगी प्रश्न है जो कोई नहीं उठाता. तथाकथित क्रांतिकारी और विद्रोही किस्म के बाबा जो स्वयं को भगवान् घोषित करते आये हैं वे भी इस भीड़ को मूर्ख बनाने का ही धंधा करते रहे हैं. अस्सी के दशक में भगवान रजनीश ने यह खेल इतनी तेजी और चतुरता से खेला कि आजकल के फाइव स्टार बाबाओं के लिए वे रोल माडल बन गये हैं. आजकल के सभी बाबा उनकी लाइफ स्टाइल और प्रवचन शैली अपनाकर जनता को मूर्ख बना रहे हैं. यही भगवान रजनीश उर्फ़ ओशो का भारत को दिया गया सबसे बड़ा योगदान है. न तो उनसे किसी ने पूछा कि आपके ध्यान समाधि से समाज पर क्या परिणाम हो रहा है न उनसे प्रेरित दूसरे बाबाओं से कोई पूछता है कि क्या परिणाम हो रहा है खुद ओशो का आश्रम आपसी फूट और धन लिप्सा के कारण बर्बाद हुआ उनके प्रमुख शिष्य जो दूसरों को अध्यात्म सिखाते थे वे एकदूसरे के जानी दुश्मन बने आज भी घूम रहे हैं और आश्रम की संपत्ति सहित साहित्य के कापीराईट की लड़ाई लड़ रहे हैं. जब कभी इस लड़ाई से फुर्सत मिलती है तो लोगों को ध्यान समाधि भी सिखाते रहते हैं. कुछ सालों पहले मध्य प्रदेश के इंदौर में विश्वशांति महायज्ञ हुआ था. यज्ञ के दौरान ही शहर में तनाव फ़ैल गया और गोलीबारी हो गयी थी. विश्वशांति का अपने ही गर्भस्थान में गर्भपात हो गया. लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया कि ये क्या मूर्खता है.

फिर से उस सवाल पर लौटते हैं कि गरीब जनता को इस सारे तामझाम में क्या मिलता है? क्या जनता जान बूझकर मूर्ख बनती है या उसे कोई मजबूर करता है? बाबाओं, राजनेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों को तो मलाई मिल जाती है, जनता को क्या मिलता है? ये समझना मुश्किल है लेकिन इसे समझने का एक प्रयास किया जा सकता है. इस आत्मघाती जनता को जो मिलता है वो है सांत्वना और आश्वासन. भारतीय गरीबों के मन को सबसे बड़ी कोई चीज चाहिए तो वो है “वर्तमान की बीमारी और फटेहाली के लिए सांत्वना और “भविष्य के इलाज के लिए अच्छी व्याख्या (आश्वासन)”. हालाँकि दोनों का अर्थ एक ही है लेकिन फिर भी चर्चा के निमित्त इन्हें दो करके देखना उचित होगा. और मजे की बात ये कि ये सांत्वना और आश्वासन पुनर्जन्म के दर्शन के गर्भ से ही आती है. इसीलिये हर पाखंडी बाबा जो किसी न किसी तरह से गरीबों का खून चूसना चाहता है वो पुनर्जन्म की बात जरुर करेगा. ओशो रजनीश ने तो अपने खुद के पिछले जन्म की लंबी कथाएं कहीं हैं. अन्य सभी बाबा भी इसी तरह भौकाल बनाते हैं और धीरे धीरे भक्तों को सम्मोहित कर लेते हैं.

अब आम जनता के मनोविज्ञान पर गहरे से गौर कीजिये. रविशंकर हों या ओशो रजनीश सब के सब इसी मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक असुरक्षा पर चोट करके लूट और पाखण्ड का व्यापार करते हैं. इस व्यापार में उनके सबसे बड़े प्रोडक्ट हैं आत्मा परमात्मा और अगला जन्म” आत्मा परमात्मा की किसी को कोई चिंता नहीं लेकिन अगले जन्म से सब घबराते हैं, वो अगला जन्म  जो कि इन बाबाओं के आशीर्वाद से सुधर जाएगा और आज के गरीब परिवार या “नीच जातिकी बजाय अगले जन्म में इन्हें श्रीमंतों या बेहतर साधकों के परिवार में जन्म मिलेगा. पतंजली के योगसूत्र में भी इस आशय से यह बात आती है कि शक्ति के अतिरेक से अच्छे जन्म और वर्ण मिलते हैं. यह शक्ति प्राण है जो योगसाधना से हासिल की जाति है. इस सूत्र को ओशो रजनीश ने बहुत महत्वपूर्ण सूत्र बताया है. ओशो रजनीश ने अपने पिछले जन्मों सहित शिष्यों के पिछले जन्मों के दावे अपने कई लेक्चर्स में किये हैं. उनका दावा था कि तीसरी आँख से पिछले जन्मों सहित भूत भविष्य सब देखा जा सकता है. हालाँकि जब उनके आश्रम में शीला नामक शिष्य षड्यंत्र कर रही थी या जब (उनके अनुसार) अमेरिकी सरकार उन्हें जहर देने का प्लान कर रही थी तब उन्हें तीसरी आँख से कुछ नहीं नजर आया और प्रेस कांफेरेंस में उन्होंने खुद को निर्दोष बताया – यह कहते हुए कि उन्हें नहीं पता उनके शिष्य क्या कर रहे थे. लेकिन जनता इतनी भोली है कि इतनी बड़ी बड़ी असफलताओं से मुंह की खा चुके बाबाओं के पुनर्जन्म के दावों पर भी भरोसा करके कीर्तन करती रहती है.

आम जनता इसी तरह के दावों पर भरोसा करती है और इस जन्म में या इस लोक में सुख पर फोकस नहीं करती बल्कि अगले जन्म या परलोक में उसका ध्यान अटका रहता है. यही वो राज की बात है जिसका शोषण पाखण्ड की चौकड़ी बाबा, नेता, व्यापारी और अधिकारी मिलकर करते हैं. अब मजा ये कि इन चारों की नजर इसी लोक में इसी जन्म में मिलने वाली मलाई पर रहती है इसीलिये ये सब मिलकर ऐसा इन्तेजाम करते हैं कि इनके घरों में सुख शान्ति यज्ञ या पूजा श्हुरु होने से पहले ही आ बसती है. जनता चूँकि अगले जन्म की जुगाड़ में है तो उसके सामने लटक रही गाजर क्षितिज तक बढती जाती है और उस पर सवार ये चार धूर्त मजे मारते रहते हैं.

फिर भी यह बात समझ में नहीं आती कि जनता इनसे सवाल क्यों नहीं करती? एक नए ढंग से सोचा जा सकता है और प्रश्न उठाया जा सकता है. हजारों साल से हजार तरह के यज्ञ हवन पूजा इत्यादि हो रहे हैं पिछली शताब्दियों में किये गए हवनों का कोई लाभ तो मिलना चाहिए न इस समाज को? यह सीधी सी बात है. इतने कुंभ महाकुंभ स्नान ध्यान आदि से और इतने आयोजनों से थोडा भी पुण्य संचित हुआ होगा तो उसका परिणाम क्या है? किधर है? क्या भारत की गरीबी अनपढ़ता बेरोजगारी और सबसे बढ़कर ये दो हजार सालों की गुलामी क्या यही परिणाम है? ये सब क्या बतलाता है? क्या धार्मिक कर्मकांडों के संचित पुण्य प्रताप का यही फल है? क्या इसी सब के लिए धर्म में निवेश किया था?

ये प्रश्न कुतर्कपूर्ण या अवैध नहीं हैं. हर बाबा से ये प्रश्न पूछे जा सकते हैं, पूछने होंगे. इन बाबाओं के दावे और भविष्यवाणियों की खाल उतारनी चाहिए. सत्तर के दशक में ओशो रजनीश ने भविष्यवाणी की थी कि पिछली सदी के अंत तक दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा एड्स की बीमारी से मर जाएगा. इसी तरह उन्होंने तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना भी जताई थी. अब हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. ऐसा हो भी नहीं सकता. बाबाओं के बाद जो व्यापारी और राजनेता इस गोरखधंधे में शामिल हैं उनका अपना वैश्विक नेटवर्क है, वे तीसरा विश्वयुद्ध होने ही नहीं देंगे. अब युद्ध, शान्ति, संधि और क्रान्ति तक व्यापारियों की कृपा से ही होती हैं. वे क्यों अपने जमे जमाये खेल पर मिट्टी डालेंगे?

लेकिन ये तो हुई शोषकों की बात, शोषित लोग आवाज क्यों नहीं उठाते? क्या परलोक और पुनर्जन्म का आश्वासन इतना बड़ा है कि उसकी कीमत आज की गरीबी से चुकाना बेहतर सौदा है? क्या हम ये मानें कि भारतीय जनता इतनी मूर्ख है जो बेहतर जन्म की आशा में इस जन्म में जानवरों का जीवन जीने को तैयार हो जाती है? यह बात आधी सच है और आधी गलत है. गलत इस अर्थ में है कि जिस तरह के विभाजन और उंच नीच समाज में बनाए गये हैं उसमे जनता के अन्दर ही धार्मिक और स्वीकृत होने की एक प्रतियोगिता चलती है. आपकी छोटी सी नौकरी, छोटी सी खेती, मजदूरी या दूकान को इस पहचान से फायदा या नुक्सान हो सकता है. इस भयानक रूप से विभाजित और अमानवीय समाज में धार्मिक पहचान बनाकर अपने छोटे से रोजगार परिवार या जाति को सुरक्षित बनाने का भारी दबाव होता है. कभी गाँवों में जाकर देखिये किसी तीर्थ की परिक्रमा, दर्शन या पूजा करने के बाद सामाजिक हैसियत में बढ़ोतरी होती है.

इस जन्म में या इस लोक में आपने क्या कमाया उसकी बात कोई नहीं करता. बाबाओं तीर्थों और कुम्भ मेलों के चक्कर में आपने क्या किया है उससे आपकी महानता सिद्ध होती है. गरीब आदमी भी जो अपनी गरीबी और छोटी जाति के दंश से पीड़ित है वो इस सूत्र को पहचान लेता है और आर्थिक रूप से ऊपर उठना भूलकर सामाजिक धार्मिक तरीके से सम्मान पाकर ऊपर उठने में लग जाता है. यह बीमारी इतनी गहरी बैठ जाती है कि छींक आने पर डकार आने पर या उबासी आने पर भी भगवान का ही नाम मुंह से बिकलने लगता है. ऐसा वे प्रयासपूर्वक करते हैं और बतलाते जाते हैं कि वे कितने धार्मिक हैं. इसी से उन्हें व्यापारियों और जमींदारों के लोकल नेटवर्क में मजदूरी और काम करने में आसानी होती है. कुछ हद तक इस मूर्खता से उन्होंने इस लोक का लाभ भी मिलता है लेकिन इसकी कीमत वे अपनी सैकड़ों पीढ़ियों को गुलाम रखकर चुकाते हैं.

अब बड़ा प्रश्न ये है कि क्या इस पूरे चक्रव्यूह में से भारते की गरीब जनता बाहर निकल सकती है? और उससे भी बड़ा सवाल ये कि कैसे निकल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर एक दूसरे प्रश्न से होकर गुजरता है और वो ये कि इन गरीबों को गुलाम कैसे बनाया जाता है? इन्हें जिस तरीके से गुलाम बनाया जाता है उस तरीके का पर्दाफ़ाश कर दिया जाए और उसकी प्रणाली में गरीबों को फंसने से रोका जाए तो वे इस चक्रव्यूह से आजाद हो सकते हैं. 


हालाँकि यह काम धर्मों और पाखंडों के जन्म के समय से ही चल रहा है फिर भी इसे हर पीढ़ी को बार बार अपने ढंग से बुनना होता है. जिस तरह पाखण्ड नए अवतार लेता है उसी तरह पाखण्ड खंडन को भी नए रूप और कलेवर धरने होंगे.
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संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

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  1. एकदम वाज़िब और धमाकेदार।

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  2. Rama Shankar Singh5 मई 2016, 8:37:00 am

    चर्चा बहस तो होनी ही चाहिये कि सुश्री मलाला तालिबान का अातंकवादी दंश झेलकर , स्वयं गोलियाँ खाकर भी अपनी और अन्य कन्यायों की शिक्षा के प्रति दृढ़प्रतिज्ञ रही , इतनी कम उम्र में मौलवी , पादरी और बाबा क्या कर रहे होतें हैं यह बताने की ज़रूरत नहीं हैं । और उच्च एवं उच्चमध्य वर्ग को शरीर के वायुशास्त्र् को भुगतान पर बताने वाले क्यों धार्मिक चोला ओढ़ने को लालायित रहते हैं ? और फिर साधारण जन के लिये उसके बाद हज़ारों करोड़ों अरबों का किराना और अप्र्माणित दवा व्यापार लेकिन स्वयं ज़ुकाम होने पर भी तत्काल बडे अस्पताल में भरती होना । यह कौन नहीं जानता कि भारत के कई बाबा पिछले पंद्रह बरसों से नोबेल पुरस्कार की जुगत में तमाम गतिविधियों सिर्फ विराट दस्तावेज़ी पहाड़ खड़ा करने के लिये करते रहे और बाज़ी मार गये सफ़ेद कपड़ों वाले कैलाश सत्यार्थी । अबजबकि राष्ट्रीय ग्रीन पंचांट नें जुर्माना लगा दिया और इस तरह के व्यक्तियों को नोबेल नहीं मिल सकता तो यह मलाल सामने आ गया । संतोष करिये इस देश ने आपको बहुत कुछ दे दिया। मैं इन विषयों पर सभ्य शिष्ट संवाद के ही हक़ में हूँ कि विषयों पर सभी की विश्लेषणात्मक नज़र बन सके।

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  3. बहुत ही जरूरी आलेख। संजय जी और समालोचन को बहुत बहुत धन्यवाद।

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