सहजि सहजि गुन रमैं : प्रमोद पाठक

पेंटिग : Roman Mares



















प्रमोद पाठक  को कुछ दिन पहले आपने  समालोचन में पढ़ा, उन्हें भरपूर सराहना भी मिली, उनकी  कविताओं में कथ्य की ताज़गी और प्रवाह को रेखांकित किया गया था. आज उनकी कुछ नयी कविताएँ आपके लिए.


सामाजिक – राजनीतिक मोर्चे पर वे जहाँ तल्ख हैं वहीँ उनमें कुछ मुलायम सा भी है जो  पिघलकर ‘राग की धार’ में बदल जाता है. बहुत कसी हुईं कविताएँ हैं. शिल्प पर उनका काम काबिले तारीफ है.




प्रमोद पाठक की कविताएँ                           






मेरी चमड़ी तुम्हारे जूतों के काम आएगी 

मुझे मालूम है कि मुझे यहाँ नहीं होना चाहिए 
मेरा इस लोकतंत्र के जलसे में क्या काम 
मैं तुम्हें रोटी के कौर में किरकिराहट की तरह महसूस होता हूँ 
मैं जानता हूँ 
मेरी चमड़ी तुम्हारे जूतों के काम आएगी 
और मेरी फाँसी लगाने की रस्सी से तुम अपने जूतों के तस्‍में बाँधोगे.




तानाशाही  

मैं इस महादेश का नागरिक
मेरा वजूद 
तुम्हारे लिए नसवार से अधि‍क कुछ नहीं 
वोट की डिब्बी से मुझे उठाओगे सूँघोगे 
और छींक के साथ नाक से बाहर बह निकले पानी की तरह उछाल कर फैंक दोगे 
मैं अपनी नियति लिए किसी दीवार पर लिसड़ा पड़ा होऊँगा 
तुम अपनी हल्की सी तरंगित कर देने वाली खुमारी में डूबे  
निरंकुशता के पाए पर दबंगई की निवार से बुनी अपनी सत्ता की खाट पर आसीन हो रहे होओगे 
वहाँ बैठ 
इस देश में हो रही हत्याओं और आत्महत्याओं को अपनी अभद्र शालीनता के हुक्के में गुड़गुड़ाओगे 
यह कैसी बेबसी है 
कि इस वीभत्स समय में 
मेरे पास हुक्के की उल्टी चिलम से झरी राख हो जाने के सिवा कोई और चारा नहीं होगा. 




कविता 

ठीक उस वक्त जब मैं तुम्हारे प्यार में कत्थई हुआ जा रहा था 
रात मेरी पीठ पर पैर रखते हुए 
मेरे सपने में दाखि‍ल हुई 

अब एक चाकू मेरे कलेजे की पीठ पर 
फाँस से भी तीखा खुबा महसूस होता रहता है. 



प्यार उनके लिए सिर्फ इंतजार है

मेरी बाँहो में हाथ डालो और मुझे कमीज की तरह पहन लो 
ऐसा उसने कहा 
मगर वह उसे वायलिन बना लेती है 
और उस रात को एक खूबसूरत धुन की तरह बजाने लगती है 

रात की चिड़ि‍या एक बीज लाकर डाल जाती है  
और उनके बीच वसंत उग आता है 

मगर प्‍यार उनके बीच एक ऐसी अँधेरी खाई है 
जिस पर फासलों का पुल बनाना भी संभव नहीं  
इस बिना बने पुल के नीचे राग की एक धारा बहती है 
उससे कुछ रोशनी फूटती रहती है 
वे रोशनी के दोनों सिरों को अपनी जुबान के कोनों से थामें 
एक-दूसरे को सुनने का इंतजार करते रहते हैं 

यह सुनने का इंतजार उनके लिए प्‍यार है 
इस तरह प्‍यार उनके लिए सिर्फ इंतजार है. 




स्‍त्रीचाँद, समंदर और रोटी 

उसकी कमीज के नीचे कहीं उसका दिल था
ऐसा उसे एक स्त्री ने बताया था और गायब हो गई थी 
वह अब भी उस स्त्री की तलाश में है   
उसे पेड़ अपनी शाखाओं के साथ हवा में बाल लहराते घूमती उस स्त्री की तरह नज़र आते हैं
जिसके बालों से रात झर रही है
वह तकिए की मानि‍न्द रात के स्तनों के बीच अपना चेहरा धँसा लेता है 
रात के स्तनों के बीच एक तिल चमकता है 
जिसे चाँद समझ  
वह उसे छूने की कोशि‍श में समंदर हो जाना चाहता है 
मगर चाँद वहाँ नहीं है
चाँद
उस बच्चे की आँखों की गोलाइयों में है
जिनके चारों ओर उदासी के सफेद बादल घिरे हैं
चाँद आधी रोटी की भूख है जो उसकी आँखों में तैर रही है
समंदर वह खारापन है जो उसकी आँखों की कोर पर आकर सूख गया है
और स्त्री गुलमोहर का वह पेड़ है जिसकी छाया में लेटा वह सो रहा है
लाल और हरे छींट के गिलाफ चढ़े तकिए को सिरहाने लगाए.
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सम्पर्क :
27 एएकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगरदुर्गापुराजयपुर302018/राजस्‍थान
मो. : 9460986289

7/Post a Comment/Comments

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  1. अद्भुत. मेरी चमड़ी तुम्हारे जूतों के काम आएगी और तानाशाही तो ग़ज़ब है. अन्य कविताएँ भी बहुत अच्छी हैं. बहुत बहुत बधाई.

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  2. गज़ब लिख रहे हैं प्रमोद जी. ऊपर Roman Mares की पेंटिंग और कविता 'तानाशाही' जैसे संवाद करती कृतियाँ हैं.
    कवि और संपादक को बधाई

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  3. प्रमोद की ये कविताएं कुछ दिन पहले प्रगतिशील लेखक संघ के आयोजन में सुनी थीं। मैं प्रमोद की कविताओं से बहुत उम्‍मीद करता हूं। वह दिनों-दिन जिस काव्‍यात्‍मक उत्‍कर्ष की ओर जा रहे हैं, वह मुझे गर्व से भर देता है। मैं अपने प्रिय कवि मित्र के प्रति दिल से शुभकामनाएं देता हूं। जियो...

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  4. प्रमोद पाठक की कविताओं में तीक्ष्ण धार है। एक खनक है। भाषा और शिल्प दोनों में ख़ास सम्मोहन है। अभिव्यक्ति का यह गुण बहुत कम समकालीन कवियों में लक्षित होता है। मुझे ऐसे कवि को पढ़कर यह आतंरिक तोष होता है कि हिंदी कविता विचारधाराओं के टकराव के बावजूद मुक्कमल तौर पर आगे बढ़ रही है। कवि और संपादक दोनों को मेरी बधाई ।

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  5. प्रमोद पाठक की कविताएं पढ़ते हुए विचार आता है कि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि समकालीन हिंदी कविता कवि के ‘मैं’ की व्यवस्था के ‘तुम’ के सैधांतिक विरोध की कविता है. इस श्रम में कवि अपने आप को शोषित पीड़ित दमित सर्वहारा वर्ग की वेदना का वाहक बनता है. उसका ‘मैं’ इस वर्ग का प्रायवाची बनता है. कभी वह सत्तासीन शक्ति को कोसता है तो कभी अपनी ‘स्थिति’ के माध्यम से उस पर कटाक्ष करता है लेकिन आदर्श व्यवस्था के अपने दृष्टिकोण से वह ‘हमे’ (जिसमें हमारे सब के ‘मैं’ और तुम्हारे सब के ‘तुम’ शामिल है) कदापि अवगत नहीं करता. संभवतय वह स्वयं भी नहीं जानता. लेकिन यह अभाव उसकी रचनात्मकता में बाधा नहीं बनता.

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  6. आप सभी का बहुत-बहुत आभार.
    प्रमोद

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