पेंटिग : Rekha Rodwittiya (MATTERS OF THE HEART ) |
मोनिका कुमार कम लिखती हैं और अक्सर
उनकी कविताएँ शीर्षक विहीन होती हैं हालाँकि शीर्षक का होना या न होना कोई गुण या दोष
नहीं है. कविताएँ अपने शीर्षकों में नहीं रहती हैं. अक्सर कविता की कोई पंक्ति ही शीर्षक बन जाती
है. बहरहाल इन पांच कविताओं के शीर्षक हैं. मोनिका की कुछ कविताएँ आप
इससे पहले भी समालोचन में पढ़ चुके हैं.
कविता में शब्दों और मंतव्यों की
जुगलबंदी से अर्थ का जो आलोक फूटता है उसमें कई अनचीन्हें अनुभव प्रत्यक्ष होते
हैं यही उसकी सार्थकता है. मोनिका की कविताएँ लगभग घिस चुकी काव्य रुढियों से बचकर
और खुद को बचाकर हम तक पहुँचती हैं. नव - उन्मेष भी एक काव्य मूल्य है जो यहाँ है.
मोनिका
कुमार की कविताएँ
नींद के रहस्य
मैं
सोकर उठती हूँ
तो
देखती हूँ
मेरा एक बाजू पलंग से दूर
बिस्तर
से विमुख
सिर
को टेक देती
देह
से अलग थलग
छिटकी
पड़ी है
मैं
एक पेड़ लग रही हूँ
जिसकी
शाख ने हवा में अलग ठिकाना कर लिया है
बस
करो नींद के रहस्यो
बख्श
दो मेरी बाजू को
सूर्य
! रहना मेरे अंग संग हरदम
अपने
आलोक में रखना मुझे
तुम्हारी
ऊष्मा का संरक्षण
है
मेरा प्रतिकार.
रक्तचाप
माँ
से पहली बार मार खाने के बाद
वह
सुबक रही थी
उसने
रोटी खायी
उसे
सुकून मिला
सहेलियों
ने उसकी उपेक्षा की
वह
रो रही थी
उसने
मीठा खाया
उसे
अच्छा लगा
उसका
दिल टूटा
उसे
घुटन हो रही थी
उसने
चाकलेट खाई
उसे
हल्का लगा
दुखों
के सामने
छोटी
मोटी बुद्धि, धूर्तता, चालाकी
और
हास्य बोध किसी काम नहीं आता
दुखों
को सहने में इनकी भूमिका संदिग्ध बनी रहती
जबकि
आलू और गुलाबजामुन खाकर
तुंरत
राहत मिलती थी
इस
तरह
इससे
पहले
कि
दुःख उसे घेरते
वह
कुछ ना कुछ खाने की इच्छा से घिर जाती
बस
एक दिल था
बोझिल
नाड़ियों से खून सींचता
हायतौबा
करने लगा था
और
रक्तचाप की भाषा में
दिल
के नए दुःख सुना रहा था.
(फिल्म ‘आँखों देखी’ में संजय मिश्रा की आवाज़ के लिए)
अनजान
नम्बर से फोन करने पर भी
लोग
हैलो से हमें पहचान जाते हैं
हम
इतरा जाते हैं
धूल
चढ़ी इस आवाज़ के बावजूद
फानी
दुनिया में हम कोई तो वजह रखते हैं
हैलो
की आवाजें पृथ्वी के निर्वात को
मेहनत
और लगन से भरती हैं
इन
आवाजों में मध्यांतर की तरह
बर्तन
गिरने
बम
फटने
कुहासे,
अँधेरे और लापरवाही के कारण भिड़ती गाड़ियों की
गर्म
तेल में जीरे के फूटने की
बाँध
से रुकते हुए पानी की
झींगुरों
की
और
बच्चों
के गुब्बारे फटने की
आवाजें
आती है
लेकिन
प्रथम पुरस्कार मिलता है हैलो को
इसकी
नियमितता और अनुशासन निमित्त
इस
मान पत्र के साथ कि हैलो की आवाजें
पृथ्वी
को गृहस्थ ग्रह तस्दीक करती हैं
एक
लड़का अपनी आवाज़ सुनने के लिए
पहाड़
पर चढ़ कर चिल्लाता है हैलो
जवाब
में चिल्लाती हुई आवाज़ आती है हैलो
यह
सुनकर मुझे संता की याद आती है
संता
बंता को फोन करता है
और
पूछता है
कौन
बोल रहा है
बंता
कहता है
मैं
बोल रहा हूँ
संता
कहता है कमाल है यार !
इधर
भी मैं बोल रहा हूँ
इस
तरह हम हैलो हैलो करते
कमज़ोर
नेटवर्क की शिकायत करते हैं
और
नैराश्य में आँखें बंद कर लेते हैं
कुंद
हुई आँखें हर तरफ हैलो देखती हैं
प्रश्न
में हैलो और उत्तर में भी हैलो है
जबकि
उसने मान लिया वह एक हैलो है
किसी
और को पड़ता हुआ घूसा राजे बाबु की आँख में पड़ता है
आँख
ऐसी खुलती है
कि
वह संयुक्त परिवार के व्यस्त आंगन में
सुबह
उदघोष करता है
कि
वह हैलो नहीं है.
सब्जी जलना
सब्जी जलने से एक
बिंदु पहले
घर में मोहक गंध
फैलती है
यह गंध उस बिंदु का
आगमन है
जब घी बर्तन से छूटने
लगता है
स्वाद और सुगंध
विरक्ति में परिणित होते हैं
वह हल्के हाथों से
सब्जी हिलाकर
करछुल की ठक ठक से
अग्नि को विदा देती
है
किसी दिन वह अंतिम
स्पर्श से चूक जाती है
मोहक गंध से उसे झपकी
आती है
वह झुंझला कर उठती
कोयला हुई सब्जी देखती
है
खिड़कियाँ दरवाज़े खोल
कर
दिन भर उदास रहती है
छुट्टियों में पेड़ों को भूल जाओ
ईमारत के प्रथम तल पर
बने
अपने दफ्तर में
पहुँचते ही
ऊंचे पेड़ों को स्पर्श
करती हूँ
इन्हें छूते ही विचार
आता है
मुझे दिमाग को ठंडा
रखना चाहिए
आखिर हम दुनिया में
बातों का अच्छा बुरा
मानने नहीं आये हैं
फिर भी माहवार ऐसे
दिन होते हैं
जब घर की चाभी से
दफ्तर का ताला खोलने की कोशिश करती हूँ
निर्भर करता है उन
दिनों मैं कितना मिली जुली
कैसे घुली मिली दुनिया में
तीन दिन के अवकाश के
बाद
मैं सुबह दफ्तर आई
पेड़ों को देखकर यह
ख्याल आया
इन छुट्टियों में
मुझे एक बार भी इन
पेड़ों की याद नहीं आई
कदंब के फूल जिन्हें देखकर
लगता है
इतना सुन्दर भी न हुआ
करे कोई
विस्मृत हो गए थे
मुझे नहीं आते याद ये
पेड़ लंबी छुट्टियों में
फिर भी यहाँ लौट कर
तस्सली करती हूँ कि वे हैं
बदलते मौसम के साथ
गहरे प्रेम में
हवा के एक झोंके पर
झूलने के लिए आतुर
इतने कातर इतने भावुक
जितने स्थिर उतने
आकुल
मेरे पेड़ों ने कहा
मुझसे
अच्छा है सुन्दरता को
भूल जाना
छुट्टियों में उसे
याद न करना
झूठा लगने की हद तक
लौट कर प्रेम जताना
बार बार छूना
और कहना
कैसे रही मैं इतने
दिन तुमसे दूर
उस में यह भी ज़रूरी
काम है
दुनिया में खो जाना
लोगो की बातों का
अच्छा बुरा मानना
नष्ट करना अपने एकांत
को
पछतावे के लिए
और विनय करना पेड़ों
से
इसकी बहाली के लिए.
_______________________________
मोनिका कुमार
११ सितम्बर १९७७, नकोदर, जालन्धर
कविताएँ, अनुवाद प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित
सहायक प्रोफेसर (अंग्रेजी विभाग) राजकीय महाविद्यालय चंडीगढ़
बहुत खूब! अंतर्मन को स्पर्श करती,सहज नव्यता से मण्डित कवितायेँ। बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंपढ़ रही हूँ अभी। मोनिका की कविताएँ सिलसिलेवार नहीं होतीं। केंद्र से बाहर भागते हुए भी वे केंद्र की ऊर्जा को चारों तरफ फैलाती हैं। ये हैलो भी अद्भुत है। यह पेड़ हो जाना भी किस कदर भीतर कांट छाँट करता है। समालोचन तुमसे मिलवाता रहे।
जवाब देंहटाएंमोनिका कुमार की कविताएँ इधर लगातार ख़ुशी और प्रशंसा से पढ़ी हैं.सुश्रीद्वय सलोनी शर्मा और अपर्णा ने भी यहाँ उनमें मेरी आस्था को दृढ़ किया है.इनमें उन्होंने बहुत नाजुक और निर्दोष कारीगरी की है और सफल निकल आई हैं.
जवाब देंहटाएंमुझे मोनिका की कविताओं से लगाव है.
जवाब देंहटाएंवे उसी पेड़ जैसी हैं जिन्हें अपनी दिनचर्या में हमने शायद बहुत याद न किया हो पर सामने पाते ही लगा जैसे हम तुझसे कैसे और क्यों कर इतनी दूर रहे री कविता ! हाँ, हम दुनिया में खो जाने के लिए आए हैं, लोगों की बातों का अच्छा बुरा मानने, नष्ट करने अपने एकांत को और विनय करने इन पेड़ों से इसकी बहाली के लिए.
तुम छुट्टी पर नहीं हो, कवि! तुम तो पेड़ का संदेश हो.छुट्टी पर हैं हम लोग, दुनिया में खोए हुए, अन्य लोगों की बातों का अच्छा-बुरा मानते हुए.
मोनिका, तुम्हारे होने से विस्मृत सत्य याद आते हैं जैसे कि मैं हैलो नहीं हूँ.
मोनिका जी की कविताओं ने हमेशा प्रभावित किया है। सादर बधाइयाँ।
जवाब देंहटाएंसमालोचन में कविताएं प्रकाशित करने के लिए शुक्रिया, अरुण जी !
जवाब देंहटाएंसलोनी जी...धन्यवाद !
अपर्णा दी...आपका इंगेजमेंट हमेशा ऊर्जा देता है.
विष्णु जी...सादर धन्यवाद !
बाबुषा : हैलो ( जैसे पहली मौलिक फ्रेश हैलो रही होगी )
प्रांजल : हार्दिक धन्यवाद !
मोनिका कुमार
मोनिका को बधाई।इनकी कविताये सुना भी है।पाठ भी अच्छा करती है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद रश्मि रेखा जी ! मोनिका
जवाब देंहटाएंमोनिका जी की कविताये मुश्किल से ही पढ़ने को मिलती हैं । जबकि उनकी कविता एक से अधिक पाठ की मांग करती है फिर भी पहले पाठ के आधार पर ये कवितायेँ मुझे उनकी पहले पढ़ी कवितायों के मुकाबले कम पसंद आयीं । इसे आप मेरी समझ की लिमिटेशन भी मान सकते हैं ।
जवाब देंहटाएंमोनिका जी से पता चलता है कि कविता लिखने के लिए कोई गहरी विचार को जन्म नहि देना पढ़ता बल्कि अपने दिनचर्या को सहज भाव में एक अनुभव के साथ केवल शब्दबद्ध करना है।।।।
जवाब देंहटाएंप्रदीप जी ! मुझे नहीं लगता कवितायेँ अपेक्षानुसार यां वैसे भी अच्छी न लगने या कम पसंद आने पर इसे पाठक की लिमिटेशन की तरह देखना चाहिए, यह आग्रह विनम्र अवश्य है, अच्छा लगता है सुनने में कि कोई नहीं पसंद आने पर अपनी सीमायों और अस्वाद के प्रति भी सजग है केवल कवितायों के आलोचनात्मक नहीं लेकिन मैं इसे ऐसे भी देखती हूँ कि इस बीच कितना जीवन रहा होगा जब आपने मेरी पहली कवितायेँ पढ़ी और जब अब पढ़ी. उसने कुछ आपको, कुछ मुझे और कविता से हमारी संलग्नता को बदला होगा. हमेशा के लिए तो कुछ भी नहीं. मुझे प्रतिक्रिया पढ़कर अच्छा लगा, इसकी ईमानदारी के लिए आपको धन्यवाद.
जवाब देंहटाएंUnknown जी ! केवल शब्दबद्ध तो नहीं कह सकते, शायद उस अनुभव में कुछ इनसाईट भी होना चाहिए, न चमकीला हो, न गहरा हो, न आलोक फैलाने वाला हो पर हो कुछ व्याख्या करता हुआ, या मिस्ट्री की mysteriousness को अच्छे से प्रगाढ़ करता हुआ ही.
मोनिका
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