सबद भेद : शहंशाह आलम का काव्य - संसार : सुशील कुमार










बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशकों से अपनी काव्य-यात्रा शुरू करने वाले कवियों पर सम्यक आलोचना का अभाव है. कवि शहंशाह आलम  के पांच कविता संग्रह प्रकाशित हैं. उन्हें पहचाना जाता है पर उनमें अलहदा क्या है इसकी विवेचना नहीं हुई है. शहंशाह आलम इस वर्ष पचास के हो रहे हैं.  
सुशील कुमार ने शहंशाह आलम  के कविता संग्रहों पर विस्तार से लिखा है. और उनसे सहमत होना चाहिए कि आलोचना का यह कर्तव्य है कि वह रचनाशीलता को पहचाने और विवेचित करे. 



कविताएं, जो हमारे ही समय की पटकथा रचती हैं                               
(कवि शहंशाह आलम के कृतित्व पर केन्द्रित)

सुशील कुमार


ह केवल संयोग नहीं कि समकालीन हिन्दी कविता में एक साथ कई पीढ़ियाँ काम कर रही हैं, जिनंमें कई भावधाराएँ विभिन्न स्तरों पर प्रवाहमान हैं. यह हिन्दी साहित्य का तिलस्म है कि भाषा और कविता के प्रति आदिम लगाव के कारण हर वर्ष कविता की सैकड़ों किताबें छापी जाती हैं, पर इनमें से अधिकांश न तो पाठकों से होकर गुजरती हैं और न कोई समालोचक-समीक्षक ही उनकी नोटिस लेते हैं. बस, प्रकाशकों का अपना हित सधता रहता है और नकली कवि की किताबी कविताओं की होड़ लगी रहती है. पर यह बात पाठक के मन को कोचती है कि यश-कामी कवियों की फालतू कविताओं की बाढ़ में वैसे कवि, जो लगातार दो-ढाई दशकों से हिंदी कविता में अपनी गरिमामय उपस्थिति बनाए हुए हैं, पर जो जोड़, जुगत और गुटबाजी से दूर हैं, उनकी सुध कोई नहीं लेता, जबकि निरर्थक रचना को सार्थक बनाकर पेश करने का उपक्रम बदस्तूर जारी रहता है. हालांकि गिनती के हिसाब से इन कवियों की तादाद ज्यादा नहीं होगी, बल्कि उँगलियों पर गिनती की जा सकती है.


ऐसे ही एक अलहदा युवा हिंदी कवि हैं शहंशाह आलम, जिनका गर दादी की कोई खबर आए कविता-संग्रह (1993) से इस समय की पटकथा (1915) तक पाँच काव्य-संग्रहों के आ जाने के बावजूद इन पर मुकम्मल तौर पर समालोचकों की नज़र-ए-इनायत नहीं हुई. इस बीच अभी शेष है पृथ्वी-राग (1995), अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस (2009) और वितान (2010) – नाम से तीन और काव्य-संग्रह भी हिन्दी के दृश्य-पटल पर आए, पर इतना विपुल और महत्वपूर्ण रचने के बाद भी हिन्दी-समीक्षकों में ऐसा नाम-लेवैया शायद ही कोई हो, जिसने इनके सम्पूर्ण कृतित्व-वृत्त को सामने रखकर उनको कलमबद्ध किया हो !.. खैर, यहाँ कवि शहंशाह आलम के उपेक्षा-राग से अपनी बात शुरू करने के बजाय इनके सृजन की उन खूबियों से पाठक को रू-ब-रू कराना ही इस आलेख का मूल उत्स है जिसके केंद्र में कवि का अब तक किया-धरा कृतित्व और व्यक्तित्व है, जिससे गुजरते हुए हम महसूस कर सकते हैं कि कवि की भाषा और उसके शिल्प और कहन का अंजाए-बयां सर्वहारा वर्ग के अंतर्द्वंद्व के व्यापक अनुभव-संसार के साथ निरंतर जुड़ते और विकसित होते चले गए हैं, जो हिन्दी कविता की देशज भाव-भंगिमा और संवेदनात्मक नवता के मध्य बेहद उम्मीद से भरे लोक-चेतना के एक दृष्टि-सम्पन्न कवि के साहित्यिक अभिलक्षणों को जानने के निमित्त कविता के गंभीर पाठक में उस समझ को पैदा करते हैं, जो न मात्र हिन्दी कविता को समृद्ध करती है बल्कि उसकी थाती मानी जाती है. 

उनके नवीनतम संग्रह इस समय की पटकथा (1915)  से बात शुरू करें तो दो खंडों में विभक्त 48 कविताओं के इस संग्रह में कवि अपनी बात कोई जादू कोई कौतुक से शुरू कर आदिकालीन समय जीते हुए को वर्तमान की दुरूहता तक पहुँच जाता है और उसकी नब्ज टटोलने की कोशिश करता है .

हर कवि-कलाकार और चिंतक अब इस कसक को महसूस करने लगा है कि बीसवीं सदी का अंतिम दशक और नई सदी का बीतता हुआ कालखंड पूरी तरह उत्तर-आधुनिकता की चपेट में है. इसकी गिरफ्त में न सिर्फ हमारा जीवन है बल्कि इससे जुड़ी तमाम क्रियाशीलन व संचेष्टाएँ हैं जिसमें कविता भी शामिल है. नव-रीतिवाद के राहु से ग्रसित यह सभ्यता कविता को भी बाज़ार में खड़ी करने पर आमादा है. परिदृश्य में जब कविता अपनी रूपाभा, प्रभावान्विति, ध्वन्यात्मकता, प्रगीतात्मकता, लय और जनपदीय चेतना को खोकर कलावाद, बिंबवाद, गद्यात्मकता, अखबारीपन और स्मृतिहीनता की जद में आने को मजबूर की जा रही हो, एक ऐसे दुर्निवार और असह्य समय में शहंशाह आलम की कविताएं फिर से उन धरोहरों को वापस लौटा पाने की एक अविकल उम्मीद, एक आदिम उत्कंठा, एक न खत्म होने वाली जिद, एक अप्रतिहत प्रयत्न, एक नि:शब्द अनुगूँज और लगातार चलने वाली एक प्रार्थना की मानिंद हमारे जेहन में उतरती हैं और उसके रीतापन को दूर करने का छोटा ही सही, पर भरसक प्रयास करती है. समय और शब्द पर कवि का यह हस्तक्षेप उनकी सभी कविताओं में समान रूप से मौजूद है जिसे अभिव्यक्ति की अपनी अनूठी शैली, स्पष्टवादिता, लय और शब्दों की पुनरुक्ति से उन्होंने हासिल किया है और पाठक के कविताई मिजाज को काफी हद तक परखने करने का प्रयास भी किया है. अभिव्यक्ति की इस कला में उनकी भाषिक संरचना का योग कम नहीं है. वैसे तो भाषा के प्रति वे आरंभ से ही सजग रहे हैं. उनकी भाषा सबसे अलग, वाक्यों की बुनावट से पहचानी जाने वाली, अनूठी और उनके रेखाचित्र की ही तरह सरल है. भाषा की साफ़गोई और सादगी और उनमें आंचलिक शब्दों का प्राचुर्य उनकी विशेषता है और विरलता भी. भाव भाषा के साथ यहाँ इतने रच-बस गए हैं कि इसका संश्लेषण इतनी व्यापकता से अन्य समकालीन कवियों में आसानी से नहीं दृष्टिगत नहीं होता. छोटे-छोटे वाक्यों का यह भाषिक रचाव बड़े विस्मयपूर्ण और कलात्मक ढंग से उनकी कविता में खुरदुरे और क्लासिक, पुरातन और अधुनातन, अमूर्तन और मूर्त, तद्भव और तत्सम वस्तुओं का मेल कराती है जो कविता में चमत्कार और वाकपटुता की जगह लोच और आकर्षण का सृजन करता है.

अपनी भाषा के इस प्राकृत और अनायास गुण को शहंशाह ने अब तक उसी लगन से बनाए रखा है जिस जिजीविषा से अपने पहले संग्रह गर दादी की कोई खबर आए कविता-संग्रह (1993) से कविता रचनी शुरू की. संग्रह की कोई भी कविता इसका प्रमाण दे सकती है कि अखबारीपन, चमत्कार-प्रदर्शन और वाकपटुता से दूर अभिव्यक्ति की सहजता और भावों की संश्लिष्टता उनके यहाँ नए काव्य-सौन्दर्य का सृजन करती है जो उनके पाठक को न केवल सृजन के आस्वाद से बांधकर रखता है, बल्कि उसे अभिभूत भी करता है. सहजता और संप्रेषणीयता का यह गुण केवल लोक-लय और कथ्य की अंतर्वस्तु के कारण ही उनके यहाँ संभव नहीं हुआ है, अपितु भाषा की द्रवणशीलता, पदबंधों की भावपूर्ण आवृति, गहरे इंद्रियबोध, कवि की निस्पृह मनोगत दशाएँ और प्रयत्नहीन कला के अप्रतिम हुनर का भी परिणाम है जो शहंशाह आलम की कविताओं में विपुलता के साथ देखे जा सकते हैं . यह शहंशाह आलम के कवि को जहां एक ओर कबीर-त्रिलोचन-नागार्जुन-आलोक धन्वा की फक्कड़-अवधूत देसी काव्य-परंपरा से जोड़ता है, वहीं दूसरी ओर भक्तिकालीन सूफी परंपरा के कवियों की अभिव्यक्ति-शैली का आभास कराता है.
 
शहंशाह आलम की कविताओं के रचना-पक्ष पर चर्चा करते हुए हम गौर करें कि अगर वास्तव में कविता का कोई निकष या प्रतिमान नहीं होता (जैसा कि बुर्जुआ चिंतन से पगी मानसिकता के अघाए हुए समालोचकों की मान्यता है) तो इतिहास इसका साक्षी है कि रीतिकालीन कवियों की काव्य-साधना में भी ताकत कम न थी. न उनके शब्दों में जादू, लर्जिश और खनक ही कम थे पर उनकी रचना को कभी सामाजिक स्वीकृति नहीं मिली. वे कभी जनप्रिय नहीं हो पाए क्योंकि यह कहने की जरूरत नहीं कि उनकी रचना के केंद्र में कौन था और साहित्य का उनका यह सब तप-साधना-श्रम किनको समर्पित था. हिन्दी कविता-काल की विपुल विरासत में हम कविता की जितनी प्रवृतियों यथा; रीति, भक्ति, छायावाद, प्रगतिशीलता, प्रयोगधर्मिता, रूपवाद आदि-आदि से रू-ब-रू होते हैं, हम उनके अपने सामयिक महत्व को तो नहीं नकार सकते पर इन सभी प्रभृतियों में जनपक्षधरता ही कविताओं की सर्वाधिक लोकप्रिय अभिलक्षण रहा. दूसरे शब्दों में, कहा जा सकता है कि सभी प्रतिमानों में लोकबयानी ही अब तक कविता की सबसे सशक्त और समय-सिद्ध प्रतिमान है क्योंकि कविता जब अपने खनिज, सत्व और जल जनपद से ग्रहण करती है तो वहाँ लोक का सौंदर्य उद्भासित होता है. तब कवि के सारे शब्द, शैली, शिल्प, मुहावरे कविता में लोक से ही आते है और जन के पक्ष में रूप का सृजन करते हैं.

रामचरित-मानस के राम के लोकमंगलकारी रूप की छवि जब रामचन्द्र शुक्ल जी ने आलोचना के माध्यम से जनोन्मुख किया, तभी तुलसीदास संत से महाकवि बन पाए. अतएव कविता का रूप-संभार चाहे जितना ही अनगढ़ क्यों न हो पर कविता जब जन को रचती है (अभिजन को नहीं) तो वह सार्वजनिक, सार्वदेशिक और सार्वकालिक हो जाती है. अब तक की कवितालोचना में यही बात दीगर है जो हमें उनकी कविताओं को बार-बार पढ़ने को प्रेरित करती हैं. शहंशाह आलम का सम्पूर्ण शब्द-कर्म भी साहित्य के इस अभिप्रेत की ओर झुका हुआ है जिस पर कम से कम हिन्दी के ईमानदार आलोचकों का ध्यान तो अवश्य जाना चाहिए.

लगे हाथ, अलग से यह कहना नहीं होगा कि आधी दुनिया का विमर्श और सृजन यानी स्त्री-विमर्श का आख्यान भी इतना पारदर्शी, सक्रिय और सजीव बनकर कवि के यहाँ प्रकट होता है कि वह हमें इसकी पाश्चात्य अवधारणा से निकालकर इसके भारतीय चित्त से मनोगत कराता है- 'उन्हें कहाँ पर कितना बोलना है/उन्हें कहाँ पर कितना शर्माना है/उन्हें कहाँ पर कितना गुदगुदाना है/उन्हें कहाँ पर कितना हंसना-हँसाना है/मालूम था एकदम अटूट.'


गर दादी की कोई खबर आए (1993) :
शहंशाह आलम को पढ़ते हुए हमें उनकी कविताओं में देसी बतरस और किस्सागोई का आभास होता है, बतकही करते हुए कविता में वे न तो कोई बौद्धिक विमर्श करते हैं, न ही कोई रपट लिखते हैं. इसलिए उनकी कविता सहज होते हुए भी संश्लिष्ट होती है जिसमें अनुगूंज की कई तहें होती हैं जो बीच-बीच में हमें विस्मित करती हैं. 56 कविताओं के उनके पहले संग्रह .गर दादी की कोई खबर आए की पहली कविता तलाशी के लिए प्रार्थना ही देखिए –-जल्दी लो मेरी तलाशी / मेरे पास आयोडिन नमक है / घोड़े के लिए नाल है /-चुप कर भाई,/ काहे खाली-पीली चीखे जाता है’/ -मेरा गाल मत छूओ,/ मेरे गाल पर बोसे का निशान है / जल्दी लो मेरी तलाशी / मेरा कोई इंतजार कर रहा है/ मैं किसी को अपनी शायरी सुनाने को बेताब हूँ /मेरा कोई इंतजार कर रहा है/ - यहाँ गाल पर जो बोसे (चुंबन) का निशान है,  पुलिस द्वारा शिनाख्त के क्रम में उसके स्पर्श-मात्र की कहन पाठक के चित्त में कौंध जाता है . इसी तरह राजा पियानो बजाना चाहता है – कविता में लोकतंत्रात्मक सत्ता का जिसकी प्रवृत्ति सामंती होती जा रही है, की अखबारनवीसी नहीं हुई है, जो कि अन्य समकालीन कवियों मे आम तौर पर दृष्टिगत होता है. राजनीतिक चेतना को अभिव्यक्त करते हुए कविता की काव्य-भाषा यहाँ इकहरी और निर्जीव भी नहीं हुई है, बल्कि देसी ठेठपन और जैविक लोक-बिम्ब से ऊब-डूब लगती है और कविता अपने कथ्य के दायरे को पूरा पहचानती है, देखिए – नहीं चाहता राजा / बच्चे गुड्डी उड़ाएँ / खेलें ताड़ काटो तरकुन काटो का खेल/ और छुपन-छुपैया खेलते हुए / कोई बच्चा उसे इस पूरी सदी से निकाल-बाहर करे .. राजा पियानो बाजा सकता है / अपने हमदम, अपने दोस्त से गपिया सकता है / लेकिन किसी बच्चे को / जरा सी भी दुलरा नहीं सकता राजा.


अभी शेष है पृथ्वी-राग (1995) :
सत्ता की शोषण-वृति और बाजारवाद से लड़ते-भिड़ते, पछार खाते और हारते हुए भी जीवन को लगातार बचाए रखने की जद्दोजहद से शहंशाह आलम की कविताएँ संघर्ष करती दिखती हैं. धरती से  प्रेम और राग को कवि हर हाल में बचाना चाहता है. 39 कविताओं के अपने दूसरे संकलन अभी शेष है पृथ्वी-राग में कवि की इस जीवटता को आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है.  लोकजीवन के संघर्ष से उपजे जीवनानुभव ही शहंशाह की कलानुभव में ढलते प्रतीत होते हैं. कविता जब दरख्त उग आए में सब कुछ छिन जाने के बाद भी कवि में जीने की उम्मीद नहीं टूटती. सब कुछ छिन जाने में सिर्फ हमारा भौतिक वैभव ही नहीं शामिल है, उनमें हमारी सांस्कृतिक विरासत, कला-शिल्प से लेकर दैनिक तहजीब यानि सलाम- दुआओं तक का छिन जाना शामिल है. पर इस सांस्कृतिक निर्वासन के बाद भी उनको लौटा पाने के उम्मीद की लौ अभी अशेष है कवि के मन में, जो कविता में इस कुसमय में एक बड़ी सुकून देने वाली बात है – उँगलियाँ हमारी किसी बेहद पागल कुत्ते / के मुँह में पड़ी हैं जिनसे हम / अपने पुश्तैनी घर की बिगड़ती हुई दीवारें / भद्दे पड़ते दरवाजों-खिड़कियों पर / रंग-रोगन चढ़ाएँगे (कविता- और इस तरह) या फिर अगर तुम पूछो कविता की इन पंक्तियों को देखिए- कोई मंहगा तोहफ़ा खरीदने से अच्छा है / हम कबाड़ियों की बात मान लें / और नज्मों की कुछ किताबें खरीद लें / अगर तुम पुछो / कि नज्मों की किताबें खरीदने से / बेहतर क्या हो जाएगा / मैं कहूँगा / नज्मों की किताबों की वजह से / तन्हा-तन्हा / उदास-उदास / हमारे दिन, हम गुजार सकेंगे.

शहंशाह आलम को कुछ नया और आधुनिक रचने का खनिज और सत्व-जल अपनी श्रेष्ठ परंपरा से प्राप्त होता है . उनकी रचना–दृष्टि में परंपरा किंचित मात्र भी बंधन नहीं प्रवाह है, कह सकते हैं कि कवि की उम्मीद की जमीन में पृथ्वी-राग है जिससे धरती को जीवन मिलता है – ये लम्हे इतने बुरे नहीं हैं / पेड़ों में बचे हैं ढेरों हरे पत्ते / पहाड़ पर की हरियाली बची है / जीना मुश्किल नहीं हो गया है एकदम से / कबीले का पुराना नृत्य अभी हो रहा है / ... ये लम्हे इतने बुरे नहीं हैं / गा रही हैं कुछ लड़कियां - / फलों से लद जाएँ पेड़ / नदियां भरी रहें जल से / बचे रहे बगीचे में इनके झूले / बचे रहें शाखों के हरे पत्ते / बचे रहें तोहफे सारे / जो किसी ने मोहब्बत से हमें दिये.


अच्छे दिनों में ऊँटनियों का कोरस (2009) :
तीसरा संग्रह छोटे-बड़े 94 कविताओं का है हालांकि इस नाम से एक बेहद दिलकश स्वतंत्र कविता भी यहाँ मौजूद है जिसमें ऊँटनियों के आत्मालाप के बहाने अपने परिवेश के स्त्री-जीवन की विवशता, पीड़ा, उसके संघर्ष और समय की विद्रूपता का रेखांकन किया गया है जो अपनी नव्यता और भव्यता में अप्रतिम है, कुछ पंक्तियाँ – हमें लगता है / औरतों से अच्छी जिंदगी होती है / हमारी जिंदगी अच्छे दिनों में / जिनमें सुंदर तिथियाँ होती हैं / जलपक्षियों से भरा समुद्र होता है / धूप में लिपटे जंगल होते हैं / किसान आत्महत्या नहीं करते / उन्मादों के विजय-गान नहीं गाए जाते / यहाँ से वहाँ तक हत्यारे नहीं दिखते / दप-दप करती प्रार्थनाएँ होती हैं / सिर्फ और सिर्फ. सही लगता है कि इस संग्रह तक आते-आते कवि की भाषा और संश्लिष्ट हुई है और कहन का बाँकपन और भी पारदर्शी-पनीला, प्रखर और जल की तरह पतला. अंतर्वस्तु में वैविध्य के बावजूद कवि की प्रतिबद्धता में कोई कमी दृष्टिगत नहीं होती, नए अर्थ और नई प्रतीतियों के बीच कवि-कर्म में अनुभव की व्यापक गहराई नजर आती है. संग्रह की कविता – पतंग’, ‘न देवता न ईश्वर’, ‘जब-जब याद आती है तुम्हारी’, ‘रात्रि एक सैंतालीस का समय  और अभी-अभी इस संग्रह की कुछेक उन कविताओं में से हैं जिनसे गुजरने के बाद श्रम-सौंदर्य की एकदम नई संवेदना और भारतीय चित्त के अनूठेपन को भुला पाना संभव नही – अभी-अभी  / एक पूरा युद्ध लड़ा गया / खुरपी से / हंसिया से / कुदाल से / लाठी से../ अभी-अभी / रसोईघर से निकल / फैली इस पृथ्वी पर / लहसुन की गंध अनोखी / अभी-अभी / यह देह हुई उसकी / यह बीज / यह कामना / यह शोर /यह एकांत हुआ उसी का. (कविता- अभी-अभी)


वितान (2010) :
61 कविताओं का संग्रह वितानरोज जी-मर, लड़-खप रहे आमजन के सरोकारों और संघर्ष के बीच उनके जीने की ललक और उम्मीद की एक खिड़की खोलता है जिसके रूप-संभार और निहितार्थ ने पाठकों को काफी हद तक प्रभावित किया है. हम कह सकते हैं कि संप्रति चल रहे लूट-खसोट, छल-छद्म, हिंसा, दंभ, अहंकार, प्रदर्शन, अन्याय, अनाचार और उत्पीड़न से लड़ते, आहत होते जन के पक्ष को मजबूती से कविता में जगह देकर शहंशाह आलम ने वितान में दुनियाभर के जद्दोजहद के बीच एक प्रेममय, विलक्षण संसार की रचना करने का उद्दम किया है, जिसमें टूटती हुई इस धरती पर जीवन को बेहतर बनाने की, सच्चाई को समाज में प्रतिष्ठित करने की और आदमी को झूठ से अलगाने की शब्दों की ताकत है. संग्रह की कविताएँ शब्द थे’, ‘कारीगर’, ‘जितनी देर में बनती है एक उम्मीद , ‘दर्शक-दीर्घा में अकेली तालियाँ बजाती लड़की’, ‘जाड़ा’, ‘जहां तुम देह पर बैठी धूल उतारोगे’, ‘सिपाही’, ‘आचरण’, ‘मृतात्माओं के इस नगर की सांध्य बेला में आमजन के संघर्ष और उसकी पीड़ा को पूरी सच्चाई से हमारे सामने रखती हैं जिनमें आदमी के वजूद और सभ्यता को उत्तर-आधुनिकता के संक्रमण से बचाने की भीतर ही भीतर सुलगती निर्धूम आँच की प्रतीति है . इसलिए उपभोक्तावादी, बाजारू समय में इन कविताओं का खास महत्व है.

 
इस समय की पटकथा (2015) :
उपर्युक्त सभी शिल्पगत विशिष्टताओं का अद्यतन, अधिक निखार के साथ आया हाल में यह कविता-संग्रह अपनी अभिव्यक्ति में सबसे धारदार एवं अन्यतम है जिसमें भारतीय परिवेश का समकाल, जीवन के राग, रस, ताप और स्वप्न तो स्पंदित होते ही हैं, समय और जीवन के अंतर्द्वंद्व भी अपेक्षाकृत अधिक सृजनात्मक बेचैनी के साथ विस्तार पाते हैं. इन कविताओं में शब्द, चित्र और लय के अनूठी संगति है, बदलते परिवेश, प्रकृति और आस-पास के जीवन की गति को पकड़ने की शक्ति है- जिज्ञासा से, कौतूहल से, जिजीविषा से और जीवनानुभव से. खासकर कुछ कविताएँ यथा; फरवरी की एक सुबह टहलने निकली सात अदद लडकियां, पिता का झोला, बैंड पार्टी, खीरा, रेलगाड़ी में नारियल, बैगपाइप बजाने की अपनी इच्छा को लेकर, बंदी-गृह, सबके भीतर बर्फ, चींटियों के बारे में, इतना कम पानी, तोड़ा गया न जाने क्या-क्या, मैं हारा हुआ सूफी, जेबकतरियों की कविता उल्लेखनीय हैं. इनकी संवेदन-आधुनिकता और संप्रेषणीयता की नवता से न केवल कविता-प्रेमी-मन के तार झनझनाते, बल्कि बीच-बीच में आलोड़ते भी हैं. इस किताब की सबसे लंबी कविता जेबकतरियों की कविता वरिष्ठ कवि आलोक धन्वा की चर्चित कविता ब्रूनो की बेटियाँ के नए और युवा संस्करण का भास कराती प्रतीत होती है 
वे लौटतीं घर साँझ को / तो खंगालते उनके नेत्र आकाश को /उनके हाथ सहलाते उनके ही माथे को / जिन पर कि गुदा दिया गया था ... जेबकतरी.

मुझे यह कहते हुए संकोच नहीं कि अखबारनवीसी शैली और वायवीय अभिव्यक्ति से अब तक बची युवा कवि शहंशाह आलम की लोक-प्रसूत कविताएँ किसी समालोचना की मोहताज़ नहीं, बल्कि समालोचना का भविष्य भी अच्छी कविताओं के विवेचन पर टिका हुआ होता है.
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सुशील कुमार :  (13/09/1964) पटना  
कितनी रात उन घावों को सहा है (2004), तुम्हारे शब्दों से अलग (2011), जनपद झूठ नहीं बोलता (2012) आदि कविता संग्रह प्रकाशित  

मानव संसाधन विकास विभाग, रांची,झारखंड में कार्यरत
संपर्क: हंस निवास/कालीमंडा/हरनाकुंडी रोड
पोस्ट-पुराना दुमका/झारखंड - 814 101
ईमेल – sk.dumka@gmail.com

मोबाईल- 09431310216 / 09006740311

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  1. चलिये आपने उन लोगो पर ध्यान दिया जिन्हे मुख्यधारा से अलग कर दिया गया है लेकिन वे अच्छा लिख रहे है .आलम उन्ही लोगो में है .उनकी कविताये मुझे पसंद है .नामजद कवियों के बारे में लिखनेवाले बहुतेरे है .

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल शनिवार (20-02-2016) को "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का माहौल बहाल करें " (चर्चा अंक-2258) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. सटीक अौर विस्तृत समीक्षा , बहुत बहुत बधाई भाई साहब

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  4. रचनाशीलता की परख सुंदर हुई है, विवेचना से नई जानकारी मिली है। बहुत बधाई।

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  5. स्वप्निल जी की बात जरूरी बात है। बढ़िया विवेचना।

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  6. यह बहुत अच्छा किया अरुण जी । आप ने सुशील कुमार द्वारा शहन्शह का मूल्याँकन छापा । नये और नवोदित कवियों पर लिखना उन्हें प्रकाश में लाना ज़रूरी है पर अधिकांश आलोचक धूमिल तक आकर रुक जाते हैं , मानो उस के बाद हिन्दी कविता ठप्प हो गई हो । यह क्रम जारी रखिये । मेरी शुभकामनाएँ ।

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  7. उमाशंकर सिंह परमार20 फ़र॰ 2016, 5:37:00 pm

    Shahanshah Alam मेरे प्रिय अग्रज व जाने माने लोकधर्मी कवि हैं । शहंशाह की सबसे बडी खूबी है कि वो अपने बारे मे कभी प्रचार नही करते अक्सर मौन रहते है़ । उनका यह मौन उनकी शब्दगत बुनावट की तहों में जाकर परखा जा सकता है । प्रतिरोध की गाढी अन्तर्दशा व लोक की वर्गीय सरंचनाओं के साथ समय का सामन्जस्य कर उन्होने लोकधर्मी चेतना का विस्तार किया है । बडे भाई सुशील जी की टिप्पणियो से मै पूर्णतया सहमत हू़ । और चाहूंगा कि वो आगे शहंशाह सर पर और भी लिखे । अभी कल ही मै जनपथ की अगली किस्त के लिए शहंशाह पर लिख रहा था विशेषकर उन कविताओं को जो अनास्था व प्रतिवाद का स्वरूप तय करती है़ ।

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  8. सबसे पहले तो आप सब को बहुत बहुत बधाई। सुशील कुमार जी को इसलिए कि वे कविता के पाठकों के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण काम कर रहे उन्हें यह बताने और आगाह करने की दिशा में कि कवि और कविता केवल वही नहीं है जो तुम्हें नामवर आलोचकों द्वारा दिखाया-पढ़ाया जा रहा है। आज के इस प्रायोजित साहित्य-समय में बाजार की तरह सामान्य कविताएं भी समीक्षकों द्वारा इतनी आकर्षक पैकेजिंग के साथ प्रस्तुत की जा रही हैं कि प्रचार माध्यमों से बहुत दूर सक्रिय बहुत सारे जेन्विन कवि और कविताओं की धमक और आस्वाद से पाठकों की दूरि बनी रह जाती है। आपके इस प्रयास को हम इस दूरी को पाटने की दिशा में एक मूल्यवान कदम के रूप में देखते हैं।

    शहंशाह आलम की कविताएं निस्संदेह बहुत सारे वैसे कवियों की कविताओं से बेहद उत्कृष्ट हैं जिन्हें प्रायोजित तौर पर कविता की मुख्य धारा में प्रतिस्थापित करने की कोशिश की गई है।

    आपने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व की विस्तृत और सघन पड़ताल की है जिससे मैं पूरी तरह सहमत हूं।

    जहां तक मैं उनकी कविताओं को समझ पाया हूं उनकी कविताओं का केंद्रीय तत्व मुझे प्रेम दिखता है जहां से वे ऊर्जस्वित-उत्साहित हो कर अपनी कविताओं के अन्य इलाकों में प्रवेश करते हैं। उनकी यही ऊर्जा उन्हें पृथ्वी, नदी, आकाश, व्यक्ति, परिवार, समाज और देश के बनते-बिगड़ते हालात से गहरे जुड़ने का हौसला देती है। वे अपनी कविताओं में कभी आसमान में उड़ते, नदी में उतरते तो कभी पहाड़ पर चढ़ते भी दीखते हैं लेकिन कभी अपनी जड़-जमीन या अपना तल नहीं छोड़ते। और किसी कवि के लिए ऐसा करना बहुत आसान नहीं होता।

    अनुज कवि को मेरी आत्मीय बधाई और शुभकामनाएं।

    भाई अरुण देव जी को भी बहुत बधाई इसे पाठकों के समक्ष सजा-संवार कर प्रस्तुत करने के लिए।

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  9. अच्छी आलोचना है महाशय।कविवर की अच्छी प्रवृत्तियों से कुछ-कुछ परिचित हूँ और उनकी कविताएँ तो मेरी कमजोरी है।छंद मुक्त पढ़ता हूँ तो बस शहंशाह भैया की।

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  10. शहंशाह आलम जी के काव्य यात्रा और प्रकृति पर बहुत खूबसूरत लेख है यह। आलम जी को छिट-पुट फेसबुक पर पढ़ता रहा हूँ। आपके लेख ने उनके संग्रह से गुजरने की इच्छा पैदा की है। उन्हें आगामी जीवन की रचनात्मकता के लिए शुभकामनाएं ।

    - आलोक कुमार मिश्रा

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