ललिता यादव की कहानी ‘नताशा करेगी
विवाह भी’ पश्चिमी उत्तर–प्रदेश की पृष्ठभूमि में विकसित प्रेमकथा है जो प्रशिक्षण
प्राप्त कर रहे पुलिस महकमे को आधार बनाकर लिखी गयी है. इसमें समानांतर कई कथाएं चलती
हैं. इश्क, चाहत, धोका, मौकापरस्ती, और तमाम तरह की क्रूर व्यावहारिकताओं के बीच
कहानी आपको अंत तक बांधे रखती है.
नताशा करेगी विवाह भी
ललिता यादव
“मनाओ उसे‘’
नताशा ने प्यार से नेहा की गर्दन में हाथ डालकर, दूसरे हाथ से उसके गालों को सहला दिया था.
चारों तरफ चांदनी छिटकी थी. लड़कियों की बैरक नं. 3 में दोनों की नाइट ड्यूटी थी. बैरक के अंदर अपने बिस्तरों पर सभी लड़कियां सो रहीं थीं. पेड़ों पर गिरती चांदनी लड़कियों को विह्वल कर रही है. सामने सूना परेड ग्राउण्ड अपनी विशाल बांहें फैलाये जैसे पुकार रहा है. नेहा का मन किया दौड़ती चली जाये. सफेद और लाल ईंटों से बने रास्तों के किनारे चांदनी में खिल रहे हैं, पेड़ों को भी सफेद और गेरुई पट्टियां दिव्य आभा प्रदान कर रहीं हैं. अभी-अभी लाल रंग में पुतकर तैयार हुई उभरी ईंटों की आकृति वाली बैरक की दीवारें अपने सौन्दर्य पर इतराती जान पड़तीं हैं. इनकी पासिंग आउट परेड नजदीक है, उसी के लिए परिसर का सौंदर्यीकरण हुआ है, जो चांदनी रात में खिल रहा है. नेहा ने मुस्कुराते चांद को देर तक देखा. नेहा को दुख है नताशा के लिए अभी कल ही तो अजय ने कहा था-
"नताशा कभी विवाह नहीं करेगी.’‘
"नेहा गाना गायेगी?"
"मैं नहीं चाहती लोग बातें बनाये, जैसे मिलते थे, मिलते रहो, छिपो मत मुझसे."
अनवरत् चल रहा है प्रायोजित मिलना प्रेम का शव बेताल सा बीच में लटका प्रश्न पूछता रहता है. जिसके जवाब अजय के पास नहीं, पर नेहा इन मुलाकातों में भी करार ढूढने की कोशिश करती है. बैरक की सीढि़यों पर बैठी बीना सिंह गा रही है- ‘एक ऐसा भी दौर गुजरा है, तुझको देखे बिना करार न था.’ सच में प्रेम का दौर गुजर चुका था पर नेहा को अब भी अजय को देखे बिना करार नहीं. पहले से ज्यादा केयर करने की कोशिश करता है वह, नेहा झटक देती है. हास्पीटल में मदद मरीज में दो दिन की ड्यूटी लगी है नेहा की. पीली एक अजीब सी गन्ध से लिपटी कैडेट शुभ्रा एडमिट है,-'छुट्टियों में अबार्सन कराके आयी है, हैवी ब्लीडिंग के कारण एडमिट है.' आश्रित कोटे की अल्पना सिंह ने रहस्य खोला था. नेहा बेजुबान उसकी जरूरत भर मदद कर गलियारे में भटकती रहती है, उसे डर लगता है उसकी जरा सी सहानुभूति से पिघली ये कैडेट किसी भयानक सत्य से पर्दा उठा देगी. इस समय कठोर सत्यों का सामना करने की सामर्थ्य स्वयं में वह नहीं पाती.
‘‘कुछ भी करो जीवन में, बस मूर्खतापूर्ण प्यार मत करो.’’
“मनाओ उसे‘’
‘‘अहसास कराओ!’’
“किसका?"
‘‘प्रेम का और किसका!‘‘
‘‘हममें से किसी ने नहीं कहा प्रेम है."
‘‘अब कहो.’’
‘‘क्या फायदा?’’
‘‘फायदा नहीं प्यार!............कहो, मनाओ उसे, रोज तो मिलते हो!"
नताशा ने प्यार से नेहा की गर्दन में हाथ डालकर, दूसरे हाथ से उसके गालों को सहला दिया था.
चारों तरफ चांदनी छिटकी थी. लड़कियों की बैरक नं. 3 में दोनों की नाइट ड्यूटी थी. बैरक के अंदर अपने बिस्तरों पर सभी लड़कियां सो रहीं थीं. पेड़ों पर गिरती चांदनी लड़कियों को विह्वल कर रही है. सामने सूना परेड ग्राउण्ड अपनी विशाल बांहें फैलाये जैसे पुकार रहा है. नेहा का मन किया दौड़ती चली जाये. सफेद और लाल ईंटों से बने रास्तों के किनारे चांदनी में खिल रहे हैं, पेड़ों को भी सफेद और गेरुई पट्टियां दिव्य आभा प्रदान कर रहीं हैं. अभी-अभी लाल रंग में पुतकर तैयार हुई उभरी ईंटों की आकृति वाली बैरक की दीवारें अपने सौन्दर्य पर इतराती जान पड़तीं हैं. इनकी पासिंग आउट परेड नजदीक है, उसी के लिए परिसर का सौंदर्यीकरण हुआ है, जो चांदनी रात में खिल रहा है. नेहा ने मुस्कुराते चांद को देर तक देखा. नेहा को दुख है नताशा के लिए अभी कल ही तो अजय ने कहा था-
"नताशा कभी विवाह नहीं करेगी.’‘
"तुम कहां पोस्टिंग लेना पसंद करोगे?" उसने बात बदल दी
थी.
"कहीं भी जहां होगी, और तुम?’’
"जहन्नुम में!"
"अच्छा चलूं!"
"हां देर हो गयी है, सब चले गये हैं."
रोज शाम को 6 बजे से साढ़े सात बजे तक बैरक नं. तीन के सामने तमाम जोड़े
मिलते हैं, कुछ थके कदमों से कैण्टीन
की तरफ चले जाते हैं तो कुछ परेड ग्राउण्ड के किनारे लगीं पत्थर की बैचों पर बैठ
जाते हैं. कुछ जोड़े पेड़ों के तनों का सहारा लेकर खड़े रहते हैं. नेहा को पसंद है
रास्ते के किनारे बनायी गयी बैंच जितनी ऊँची मुडेर पर बैठकर कर बातें करना और
मुडेर के बराबर लगे छोटे पौधों की पत्तियों से खेलना. लेकिन जबसे उनकी मुलाकातें
प्रायोजित हो गयीं हैं, वह और अजय कभी
मुडेर पर नहीं बैठते किसी पेड़ का सहारा लेकर बातों के सिरे ढ़ूंडते रह जाते हैं.
बड़ी तुच्छ और औपचारिक बातें करते हैं. जिनका अंत हमेशा नि:शब्द कर देने वाला होता
है.
नताशा कब उसका हाथ छोड़कर सीढि़यों पर जा बैठी
है और उसे ही देख रही है. ‘क्या नताशा कभी
जान पायेगी कि वो जिसके लिए पागल है उसने अजय से क्या कहा है.' नेहा ने करुण होकर सोचा और नताशा के पास जा
बैठी.
"नेहा गाना गायेगी?"
"गाना इस समय?"
‘वही, ‘दो कदम तुम न चले, दो कदम हम न चले.' रात के डेढ़ बजे हैं, 'गाना तो नहीं, कहो तो रो देती हूँ, दस-बीस कंधा देने वाले अभी हाजिर हो जायेंगे.' नेहा ने खुद को हल्का करने की कोशिश की.
एक लाइन में बनी हैं बैरक नं. 1,2,3,4,5 बीच की तीन नं. बैरक में हैं 76 लड़कियां बाकी चार में हैं 634 लड़के. बैरक नं. दो की नाइट ड्यूटी का एक कैडिट बाहर आया पर दोनो से भाव न पाकर खांसता हुआ अंदर चला गया जैसे खांसने के लिए ही बाहर आया हो.
भग्न हृदय ये दोनों लड़कियां अजय और देवकुमार नाम के जिन साधारण परिवारों से आये लड़को की याद में गुम हैं वह इस समय बैरक नं. एक में सम्पन्न नवजीवन के स्वप्न देखते, किन्हीं सत्ताधीशों, धनपतियों की सुकुमारियों की कामना करते स्वप्न में भी इन मजबूत लड़कियों का बहिष्कार कर रहे होंगे. नेहा ने गम्भीरता से सोचा- 'क्यों जब आज के समय में डाक्टर, टीचर, आइपीएस, आईएएस आपस में विवाह कर रहे हैं एक दरोगा, दरोगा से विवाह नहीं करना चाहता. दो वेतन से ज्यादा सत्ता के गलियारों में घुसपेंठ का जुगाड़ और कुछ नकद इनके लिए ज्यादा महत्व रखता है, चुनौती और जोखिम भरी नौकरी में मजबूत जीवन संगिनी का होना कोई अर्थ नहीं रखता?’
एक लाइन में बनी हैं बैरक नं. 1,2,3,4,5 बीच की तीन नं. बैरक में हैं 76 लड़कियां बाकी चार में हैं 634 लड़के. बैरक नं. दो की नाइट ड्यूटी का एक कैडिट बाहर आया पर दोनो से भाव न पाकर खांसता हुआ अंदर चला गया जैसे खांसने के लिए ही बाहर आया हो.
भग्न हृदय ये दोनों लड़कियां अजय और देवकुमार नाम के जिन साधारण परिवारों से आये लड़को की याद में गुम हैं वह इस समय बैरक नं. एक में सम्पन्न नवजीवन के स्वप्न देखते, किन्हीं सत्ताधीशों, धनपतियों की सुकुमारियों की कामना करते स्वप्न में भी इन मजबूत लड़कियों का बहिष्कार कर रहे होंगे. नेहा ने गम्भीरता से सोचा- 'क्यों जब आज के समय में डाक्टर, टीचर, आइपीएस, आईएएस आपस में विवाह कर रहे हैं एक दरोगा, दरोगा से विवाह नहीं करना चाहता. दो वेतन से ज्यादा सत्ता के गलियारों में घुसपेंठ का जुगाड़ और कुछ नकद इनके लिए ज्यादा महत्व रखता है, चुनौती और जोखिम भरी नौकरी में मजबूत जीवन संगिनी का होना कोई अर्थ नहीं रखता?’
अजय और देवकुमार दोनों अलग-अलग टोलियों से हैं.
अपनी टोली के कमांडर. नताशा और नेहा भी अलग-अलग टोलियों से हैं पर नताशा अपनी टोली
की कमांडर है और नेहा एकदम लध्धड़. सब कुछ अलग है पर दोनों के जीवन का कोमल
प्रेम-पक्ष आपस में इतना रिलमिल गया है कि नताशा को लगता है, नेहा की बात बन गयी तो उसकी बात भी बन जायेगी.
क्या नियति सचमुच ऐसे जुड़ी होती है एक-दूसरे से कि एक की बात बिगड़ी तो दूसरे की
भी बिगड़ जाये और फिर तीसरे चैथे न जाने कितनों की बिगड़ती ही चली जाये. ट्रेनिंग
के शुरुआती दौर में एक के बाद एक, बड़ी तेजी से
प्रेमी जोड़े बनते चले गये थे, और अब, जब ट्रेनिग खत्म हो रहीं है, उसी तेजी से टूटने का क्रम जारी है. कारण या
बहाना चाहे जो हो समान पद का प्रशिक्षण ले रहीं लड़कियों के हिस्से में स्वीकार ही
अधिक आया है. निर्णय में वे कहीं नहीं हैं. सुखद से अधिक समृद्ध जीवन की नींव रखने
को आतुर ये लड़के पी.टी.सी. से सारे अनापत्ति प्रमाणपत्र लेकर ही प्रस्थान करना चाहते
हैं, सो अब तक जिन लड़कियों के
बिना इनकी सुबह-शाम नहीं होती थी, अच्छी दोस्त से
ज्यादा कुछ नहीं रह गयीं हैं.
"नेहा, अजय!" बैरक ड्यूटी चिल्लाती चली
गयी.
"नहीं जाओगी तुम,
अब क्यों और किस मुंह से मिलने आता है ये आदमी
तुम से?" नेहा की राजदार दोस्त सुमन ने प्रतिरोध किया. नेहा चप्पल
पहन कर शाल उठा लेती है.
"ये पकड़ो स्टार, मारो जाकर उसके मुंह पर!" नेहा का हाथ
पकड़कर सुमन ने स्टार रखने की कोशिश की. "तुम्हैं दिये थे, तुम ही वापस
करना." नेहा ने हाथ झटक दिया.
स्टार जमींन पर पड़े हैं जिन्हैं अजय झांसी से लाया था, नेहा और सुमन के लिए. दीपक से नयी-नयी दोस्ती के चलते सुमन
अजय से कटती है और नेहा के लिए सोचकर उसकी दुश्मन बन बैठी है.
"तुम्हारी मित्र नहीं दिखती?"
"तुमने बुलाया था उसे?"
"बस यूं ही पूछ रहा हूं?"
"सुना आज तुमको घोड़ा ले भागा, डर नहीं लगा?"
"डर पहले लगता था, अब नहीं लगता. सुना, देखा नहीं तुमने, सामने ही तो पीटी चल रही थी, तुम्हारी टोली की?"
"डर पहले लगता था, अब नहीं लगता. सुना, देखा नहीं तुमने, सामने ही तो पीटी चल रही थी, तुम्हारी टोली की?"
"नताशा को क्या हुआ बेहोश हो गयी थी?"
"खांसी थी, कुछ ज्यादा दवा पी ली थी."
"खांसी की दवा से बेहोश?"
"बेहोश नहीं मामूली सा चक्कर आ गया था. लड़कियां
हैं बात का अफसाना बना देती हैं." नेहा को थोड़ा
झूठ बोलकर अच्छा लगा.
"तुम्हैं किसने कहा?"
"और कौन कहेगा?"
"और क्या कहा?"
गोल-मोल गदबदी, टाम बॉय टाइप मस्त-मस्त लड़की नताशा, क्यों शादी नहीं करेगी? जान लेना चाहती है नेहा, तब क्या वह और देवकुमार यूं ही जीवन भर साथ रहेंगे. ‘मेड फॉर ईच अदर’ टाइप बिन्दास जोड़ी है दोनों की. प्रशिक्षण की बाध्यता से
अलग, हर स्थिति-परिस्थिति में
हरवक्त एक-दूसरे के साथ, आउटपास, छुट्टियों में साथ आते जाते, परिसर के टेलीफोन बूथ पर घर बात करते, दैनिक जीवन की तमाम जरूरी चीजों का आदान-प्रदान
करते, उन दोनों की
सुबह-दोपहर-शाम की, कितनी हीं छवियां
अंकित हैं नेहा के मन में.
‘लड़के अच्छी नजर से नहीं देखते इन दोनों की
दोस्ती को.’ कहता है अजय. ‘लड़कों के पास लड़के-लड़की की दोस्ती को देखने
की अच्छी नजर होती है?' पूछती है वह.
सांस्कृतिक कार्यक्रम की बात है, नताशा ने 'नन्हा मुन्ना राही हूँ, देश का सिपाही
हूँ’ गीत पर नृत्य किया था.
खूब तालियां बजी थीं. शोर में पीछे से किसी ने पुकारा था 'भाभीजी’' नेहा ने मुड़कर
गुस्से से देखा था, अजय की टोली का
सुनील बेशर्मों की तरह हंस रहा था. उसी शाम को कैण्टीन में चाय पीते हुए कहा था
अजय ने- "मैं तुमको कष्ट में नहीं
डालना चाहता पर बताना जरूरी है, जो बात नहीं हो
सकती उसके लिए बातें बनें, फिर बाद में दुख
हो!"
"कैसी बातें?"
"हमारी शादी नहीं हो सकती."
"क्यों?"
"ऐसी नौकरी कैसे चलेगी गृहस्थी?"
"हम अकेले तो नहीं हैं ऐसी नौकरी वाले, फिर नौकरी बदली जा सकती है, ऑफिस जॉब या एलआइयू भी तो है."
"मेरे घर तय हो चुकी है शादी!"
"मेरे घर तय हो चुकी है शादी!"
नेहा ने देखा- अजय की आंखों से आंसू टपके हैं,
लाल तो वे वैसे ही रहतीं हैं पर लाल नशीली आंखे
इस समय निस्तेज हैं. "प्लीज दुखी मत
होओ और सिर मत झुकाओ, मुझे अच्छा नहीं
लगेगा." चाय टेबल पर ही पड़ी रह
गयी थी और वह उठकर चली आयी थी.
इसके बाद ही मिलने आया था वतन सिंह, पीटीसी का गुण्डा कैडिट. नेहा की तो हालत खराब हो गयी थी. बिना लाग-लपेट
के ही बात शुरु की थी उसने- "सुना अजय शादी
नहीं कर रहा तुमसे?"
"बताओ क्या बात है? ऐसे ही बहन नहीं मानता मैं तुमको! उसके तो फरिश्ते भी
करेंगे."
"घर वालों की बात थी, घर से शुरु हुई, घर में खत्म हो गयी, परिचित हैं हम.”
"घर वालों की बात थी, घर से शुरु हुई, घर में खत्म हो गयी, परिचित हैं हम.”
"फिर भी कोई बात है तो कहना, खदेड़ देंगे यहां से." वतन चला गया था.
'घर वालों की बात थी' नेहा लम्बी सांस ले, कड़ुवाहट से भर उठती है- दीपावली की छुट्टियों में सब
भाई-बहन गांव में इकट्ठा हुए थे, स्वच्छ चांदनी
रात थी, खुली छत पर चूल्हे पर
खाना पक रहा था. पाककला विशेषज्ञ बड़ी बहन अपने पूरे हुनर का इस्तेमाल कर भरवा
करेले बना रही थी. छोटी बहन उनकी मदद करती न जाने कितनी बार मसाले, बर्तन या अन्य सामान लाती, सीढि़यां चढ़ उतर रही थी. मां ओर नेहा के पास
बैठे पिताजी अपनी नौकरी के किस्से सुना रहे हैं, जिसमें मां टांग अड़ा देती
थीं,- ऐसे नहीं,
ऐसे हुआ था. नौकरी पिता की, किस्से पिता के पर प्रामाणिकता हमेशा मां की ही
स्वीकार होती है, बिदक जाने के बाद
भी पिताजी अपनी गलती स्वीकार कर सुधार लेते हैं. नेहा का मन मां-पिताजी की नौकझौक
में आनन्द लेते हुए भी किस्सों में नहीं रमता. उसका दिल घड़क रहा है- जीजाजी और
भाई की प्रतिक्षा में.
ट्रेनिंग खत्म हो रही है कब बात करोगे, गांव-देहात के नौकरी पाये अच्छे लड़के कहां रुक
पाते हैं, रोज-रिश्ते वालों की लाइन
लगी रहती है. ‘मां के बार-बार
कहने पर, पिता ने भेजा है जीजाजी
और भाई को अजय के घर जो अभी तक वापस नहीं आये थे. लौटते में कस्बे के बाजार से
दीपावली की खरीददारी भी करनी है उन्हें, नहीं तो मोटर-साइकिल से कितनी देर लगती है, पन्द्रह-बीस किलोमीटर की यात्रा करने में. सड़क किनारे बने,
उसके दो मंजिला मकान से रात में आने वाले वाहन
डेढ़-दो किलोमीटर दूर से ही अपनी लाइट के कारण दिखने लगते हैं. दो लाइटें तो फोर
व्हीलर होगा, एक लाइट तो टू
व्हीलर, नेहा एक लाइट पर, दूर से चमकते ही फोकस करती है. वाहन घर के पास
आता-आता रुकता सा लगता और फिर सांय से निकल जाता.
प्रतीक्षा खत्म हुई थी, जीजाजी और भाई आ गये थे. नेहा थोड़ी दूर खड़ी छत की
बाउंड्री का सहारा लेकर, गांव के घरों को
देखने का अभिनय कर रही है, पर कान भाई और
जीजाजी की वार्ता में लगे हैं.
"लड़का तो नहीं मिला घर पर." जीजाजी नाक चढ़ाकर अपने अंदाज में कह रहे
हैं. "मांगने पर बड़ी मुश्किल से ये ब्लैक एण्ड व्हाइट फोटो मिला
है." भाई मजाक बना रहा है.
मां, बहन, भाई सबने ही तो देखा है
अजय को, फिर ये नाटक क्यों?
नेहा को कुछ अच्छा नहीं लग रहा.
"पुराना घर तो टूटा-फूटा ऐसा ही है, हां नया घर बन रहा है, ये समझ लो बस दीवारें खड़ी हैं, फायनेन्सर की
प्रतीक्षा में." मजाक से व्यंग्य
पर उतर आया है भाई.
"भाई और पिता से बार-बार पूछा हमने- डिमाण्ड क्या है? पर कोई कुछ बोला ही नहीं"
"भाई और पिता से बार-बार पूछा हमने- डिमाण्ड क्या है? पर कोई कुछ बोला ही नहीं"
‘तो पापा ने ये दो विदूषक भेजे थे, अजय के घर, वह खुद क्यों नहीं गये. दोनों तरफ अर्थ का गणित चल रहा था.
फोटो भाई ने बहन के और बहन ने उसके हाथ में थमा दिया था. अपने सोने के कमरे में
खड़ी नेहा फोटो को देखती है- ‘कितने बुरे लग
रहे हो फोटो में,’ जैसे वह अजय से
शिकायत करती है. फिर फोटो को मुट्ठी में बंद कर सीने से लगा लेती है. ‘तुम मेरे लिए कितने जरूरी हो, अजय इन सब को ये कौन बताये?’ हिम्मत कर वह फोटो को चूम, अपने पर्स में रख लेती है.
‘घर वालों की बात थी’ जो इतने शानदार तरीके से शुरु हुई थी, उसके अपने घर से और खत्म हुई थी अजय के घर पर,
पर कैसे? शायद! आ गया होगा कोई प्रभावशाली फायनेन्सर, जिसने बार-बार नहीं पूछी होगी डिमाण्ड, नहीं उड़ाया होगा टूटे-फूटे पुराने घर का मजाक
और नहीं देखा होगा नये घर की बिना लेंटर और प्लास्टर की दीवारों को व्यंग्य से.
अहिंसा के पुजारी गांधी बाबा की तस्वीरों से सजीं लाल, हरी नोटों की गड्डियां रख दी होंगी पिता के हाथों पर- 'आपका बेटा हमारा हुआ.' बस इत्ती सी बात, ‘लड़की का सपना’ जिसे पूरा करने
में सहयोगी नहीं हो सका पिता, विरोधी बन गया
भाई, फायनेन्सर खरीद ले गया
होगा. 'हमारे घर में नहीं निभा
सकेगी पुलिसवाली लड़की भाई जाने दे' समझाया होगा कमला ने. 'रोटी तो मिलने से
रही, वह़ पेन्ट चढ़ाकर चली
जायेगी, तुम बैठे टापते रहोगे लला,
ऐसी शादी का का फायदा.' मां के तर्क और पिता की बात को काटने का दुस्साहस योग्य
पुत्र नहीं जुटा पाया होगा.
'पर कुछ भी कर सकता है, बदनाम वतन सिंह' चिन्तित होती है नेहा. उसकी प्रेमिका जो शादी रचाकर ट्रेनिंग में आयी थी,
के बैंक मैनेजर पति को धुन डाला था उसने और
फ्लर्ट चैम्पियन रीता को खींच ले गया था एक झांड़ी के पीछे और ‘किस’ करके छोड़ दिया था. कैसा बवंडर मचा था तीन नं. बैरक में. रीता की बिरादरी के
सारे कैडिट तैयार हो रहे हैं, वतन सिंह को
छोड़े़ंगे नहीं, लड़कियां नेहा को
सुना रहीं थी. "मैं कौन सा मरहम
पट्टी लेकर जा रहीं हूं उसके पास, मरने दो." कहकर उसने अपनी जान बचायी थी. उसके अगले दिन ही
सुनील से ही बैरक से बुलवाया था उसने अजय को.
"मैं नहीं चाहती लोग बातें बनाये, जैसे मिलते थे, मिलते रहो, छिपो मत मुझसे."
"जैसा तुम कहो."
पिछले चार-पांच दिन से नेहा उसे खोजती रह जाती
पर अजय तो जैसे पी.टी.सी. से गायब ही हो गया था.
कभी सामने पड़ ही जाता तो सिर झुका लेता या दांये-बांये हो लेता. कहां तो
अजय देखने-दिखाने का कोई मौका नहीं छोड़ता था. आर्मरी, पीटी, आइटी, क्लास, खेल या सोशल सर्विस के लिए लाइन अप होकर आते-जाते दिख ही जाता था. वह अपनी
टोली का कमाण्डर था तो आगे-पीछे, दाये-बांये होकर
बड़ी शालीनता से दिख-दिखा जाने की सुविधा पा ही जाता था, अन्यथा आंखे खोज में लगीं रहती, ट्रेनिंग की
कठिनाईयां ध्यान से निकल जाती, हाथ-पैर कदम ताल
करते, दिमाग अपना काम करता और
आंखे अपना. नेहा की किसी दिन बैरक ड्यूटी होती, तब वह टोलियों के आने-जाने के समय बैरक की सीढि़यों पर खड़ी
रहती, जहां हमेशा अजय उसे खोज
लेता था.
अनेक चित्र चित्रपट की तरह नेहा के दिमाग में तैर जाते हैं. ट्रेनिंग के पहले दिन ही जीरो परेड के बाद खुद मिलने आया था अजय. उसके शहर का था, उसे जानता था. रात को उसी के साथ रुका था भाई. गज़ब आत्मीयता थी उसकी बातों में नेहा प्रभावित हुई थी. जाते हुए भाई इंस्ट्रक्टर सिमरन से कह कर गया था. 'पहली बार घर से निकली हैं ध्यान रखना दीदी,' और नेहा से कहा था- 'लड़की दोस्त बनाना, लड़को से बात मत करना.' संकेत अजय के लिए ही था. एक दिन वह नहीं दिखा, दूसरे दिन जब नेहा की टोली क्लास के लिए जाते हुए एक नं. बैरक के सामने से गुजरी उसकी नजर अजय से टकरा गयी थी, तभी कुछ अघटित सा घटा था उसके जीवन में. शायद! इसी को ‘लव एट फस्र्ट साइट’ कहते हो, सुई सी चुभी थी नेहा के दिल में. उसने महसूस किया था, कुछ ठीक नहीं हो रहा है, तीन दिन से वह अजय के बारे में ही सोच रही थी क्या?
अनेक चित्र चित्रपट की तरह नेहा के दिमाग में तैर जाते हैं. ट्रेनिंग के पहले दिन ही जीरो परेड के बाद खुद मिलने आया था अजय. उसके शहर का था, उसे जानता था. रात को उसी के साथ रुका था भाई. गज़ब आत्मीयता थी उसकी बातों में नेहा प्रभावित हुई थी. जाते हुए भाई इंस्ट्रक्टर सिमरन से कह कर गया था. 'पहली बार घर से निकली हैं ध्यान रखना दीदी,' और नेहा से कहा था- 'लड़की दोस्त बनाना, लड़को से बात मत करना.' संकेत अजय के लिए ही था. एक दिन वह नहीं दिखा, दूसरे दिन जब नेहा की टोली क्लास के लिए जाते हुए एक नं. बैरक के सामने से गुजरी उसकी नजर अजय से टकरा गयी थी, तभी कुछ अघटित सा घटा था उसके जीवन में. शायद! इसी को ‘लव एट फस्र्ट साइट’ कहते हो, सुई सी चुभी थी नेहा के दिल में. उसने महसूस किया था, कुछ ठीक नहीं हो रहा है, तीन दिन से वह अजय के बारे में ही सोच रही थी क्या?
उसी शाम को कैण्टीन जाते हुए अपनी बैरक से निकल
कर साथ हो लिया था वह,- ‘आगरा से जानता
हूं आपको, कालेज से फुटबाल खेलकर आ
रहीं थीं स्कर्ट में देखा था.’ बी.एड. में खेल
के माक्र्स लेने के लिए नेहा ने फुटबाॅल टीम में नाम लिखाया था कुल तीन दिन
मुश्किल से खेला होगा. वर्ना वह और खेल, उसे याद आया.
"भगवान टाकीज के पास एक दिन मित्रों के साथ खड़ा
था, आप बहन के साथ जा रहीं
थीं. एक मित्र ने दरोगाजी कहकर आवाज दी थी, आपने मुड़कर देखा था." वह हंसा था.
"ओह! तो वह आप थे."
"कानपुर में जब इंटरव्यू कैंसिल हुआ था, आपके पिताजी से बात की थी मैंने, आप अलग खड़ीं थीं, ध्यान नहीं होगा आपको." नेहा को सच में याद नहीं था. पीटीसी में देखते ही पहचान गया
था आपको. बड़ा दिलचस्प आत्मीयता से लबरेज लड़का था. संयोगवश मिलने का सिलसिला जो
शुरु हुआ तो चलता ही गया. मिलना हमेशा अनियोजित होता, पर जब हो जाता दुनिया जहान की बातें करते वे दोनों. नेहा
अपनी मां-पिता, भाई-बहन, गांव शहर की ढेर सारी बातें करती, वह लुत्फ़ लेकर सुनता रहता. अपनी बातें उसके
पास ज्यादा नहीं थीं. गांव में उसका भी भरा पूरा परिवार था, पर उस पर बातें की जाये, इस लायक वह उसे नहीं लगता था. टुकड़ो में वह जो कुछ कहता
नेहा उसे तरतीब से दिमाग में सहेज लेती थी.
भाई ने कहा था लड़की दोस्त बनाना, एक महीना बीत गया पर किसी लड़की से दोस्ती जम
नहीं पायी थी. कोई बड़ा त्योहार आ पड़ा था. सभी कैडिट छुट्टी मांग रहे थे, जिसके लिए मना हो चुकी थी. अचानक शाम चार बजे
छुट्टी का आदेश आया, नेहा कैसे जायेगी
सोचकर परेशान हो ही रही थी कि अजय हाजिर हो गया था. उसे भी आगरा जाना था. मिनटों
में बैग तैयार कर निकल पडे़ थे दोनों. दो व्यक्तियों के बैठने वाली सीट चुनकर ली थी
अजय ने, सारे रास्ते ढेर सारी
बातें करते रहे थे वे दोनों. अलीगढ़ से आगे बस निकली तो नेहा का ध्यान गया,
बस खचाखच भर चुकी है, लोगों को उतरने चढ़ने में खासी मशक्कत करनी पड़ रही है. ‘कुछ लोग मोहब्बत करके कर देते हैं बर्बाद,
कुछ लोग मोहब्बत करके हो जाते है बर्बाद,’
बोल वाला कोई गाना फुल वाल्यूम में बज रहा है,
सुनकर उसे थोड़ा डर भी लगा पर फिर वे दोनों
अपनी बातों में डूब गये.
‘उतरो भी आगरा आ गया.’ कंडक्टर ने
व्यंग्य से कहा था, बस खाली हो चुकी
थी. रात के बारह बजे थे, अजय उसके साथ के
लिए ही आगरा आ गया था अन्यथा उसे तो गांव जाना था. नेहा के छोटे भाई बहन आगरा में
थे और मां-पिताजी गांव में सो वह मजे से अजय के साथ घर चली गयी थी. सुबह अजय के
चले जाने के बाद जैसे छोटी बहन से कहा था भाई ने-‘इनसे कहा था लड़का दोस्त मत बनाना, पर ये तो पहली बार में ही बॉययफ्रेंड लेकर आ गयीं. समझ रही
हो क्या कर रही हो, अपने भले-बुरे की
जिम्मेदार तुम स्वयं होओगी.’
अगली छुट्टी में फिर शाम को देर से छूटने पर वह
दोनों नेहा की दीदी के घर अलीगढ़ में रुक गये थे, इसके लिए आपस में कोई सलाह या मशविरा नहीं होता था. सब कुछ
सहज और अनायास घटता था. तीसरी बार का तो कहना ही क्या, वे दोनों नेहा के गांव के घर में जा रुके थे, जबकि अजय का गांव पास ही था. शुक्र है मां घर
में अकेली थीं, पिताजी अपनी
पेंशन के चक्कर में आगरा गये थे. देर रात खाने के लिए कुछ नहीं था तो नेहा ने बड़ी
मुश्किल से रसोई में जाकर आलू की सब्जी और पूड़ी बनायी थी जो बिल्कुल अच्छी नहीं
बनी थी, इस बात का अफसोस भी हुआ
था उसे. मां ने देर तक बातें कीं थीं अजय से, वह उन्हें बड़ा अच्छा लड़का लगा था.
वक्त गुजरता जा रहा था, अब मिलना-मिलाना बुलाकर होने लगा था. इस बीच नेहा की
मित्रता सुमन से हो गयी थी, तो वे तीनों
अक्सर मिलते बतियाते शाम को साथ-साथ कैण्टीन में चाय पीते. रविवार कभी बाहर निकलना
होता तो वह और सुमन ही बाहर जाते, अजय कहीं रास्ते
में टकरा जाता और साथ हो लेता.
अजय कोई प्रतियोगी परीक्षा देने जा रहा था. दो
दिन की छुट्टी मिल गयी थी, शाम को विदा लेने
आया था बैरक पर, "रुको मैं अपनी
लकी घड़ी देती हूँ, इसे पहन कर ही सारी परीक्षाएं फस्र्ट क्लास पास की हैं
मैंने." लौट कर तीन दिन तक बांधे
घूमता रहा था वह वो घड़ी.
दिसम्बर की कड़ी सर्दी में एक दिन के लिए गांव जाने की विदा लेने आया था, नेहा ने अपना नीला शाल उतार कर दिया था- ‘गले में लपेट लो, बस में ज्यादा जरूरत होगी.‘
दिसम्बर की कड़ी सर्दी में एक दिन के लिए गांव जाने की विदा लेने आया था, नेहा ने अपना नीला शाल उतार कर दिया था- ‘गले में लपेट लो, बस में ज्यादा जरूरत होगी.‘
‘जल्दी आना!’ कहा था उसने.
वैपन्स की कलपुर्जो की फाइल पहले अपनी, फिर अजय की बनाकर दी उसने थी. सुन्दर अक्षरों में फाइल पर लिखा था उसका नाम. प्यार में हथेलियों पर लिखा जाता है, कहां सोचा था?
वैपन्स की कलपुर्जो की फाइल पहले अपनी, फिर अजय की बनाकर दी उसने थी. सुन्दर अक्षरों में फाइल पर लिखा था उसका नाम. प्यार में हथेलियों पर लिखा जाता है, कहां सोचा था?
कठिन प्रशिक्षण चल रहा था, कुछ सपने आकार ले रहे थे, पर मर्यादा की डोर बंधी थी एक वाक्य में- "पापा मैं पीटीसी में ऐसा कुछ भी नहीं करूंगी,
जिससे आपका सिर शर्म से नीचा हो."
नेहा के पुलिस को ज्वाइन करने के फैसले से
नाराज पिता से कहा था उसने.
जिन्दगी के सुनहरे दिन पंख लगा के उड़ रहे थे,
और अंधेरा जो घात लगाये बैठा था, कितने ही रूप धारण कर उतरा था पर्त-दर-पर्त.
कैसे पीटीसी में आई अच्छी लड़कियां बुरी लड़कियों में बदली जाने लगीं थीं. अचानक
रात के एक या दो बजे सरप्राइज रोल काल की सीटी घनघनाती, बिस्तरों में दुबकीं लड़कियां एक-दूसरे को झकझोर कर जगातीं,
कपड़े ठीक करतीं, टोली में जा खड़ी होतीं, गिनती की जाती सब दुरुस्त, फिर भी उस्ताद चिल्लाता- "ऐके मछरिया है जो सारे तालाब को गन्दा कर रही है." लड़कियां फटी आंखों से एक-दूसरे को देखतीं
मछरिया की थाह पाना चाहतीं है और न पा सकने पर दहशत से कांप उठतीं.
कभी अचानक रिक्रियेशन हाल की तलाशी ली जाती ‘रिक्रियेशन हाल में शराब की बोतले और बिछे दरें के नीचे कांडोम मिले हैं.’ शब्द हवा में तैरते एक कान से दूसरे कान की यात्रा करते लड़को की बैरकों में भी पहुंचते होंगे सोचकर ही लड़कियों को शर्म आती. शाम सात बजे ही ताला डाल दिये जाने और दो-दो लड़कियों की बैरक ड्यूटी के बावजूद कोई कब और क्यों ये सब कर गुजरता है, भावी विवेचनाधिकारियों के लिए अबूझ बना रहता.
कभी अचानक रिक्रियेशन हाल की तलाशी ली जाती ‘रिक्रियेशन हाल में शराब की बोतले और बिछे दरें के नीचे कांडोम मिले हैं.’ शब्द हवा में तैरते एक कान से दूसरे कान की यात्रा करते लड़को की बैरकों में भी पहुंचते होंगे सोचकर ही लड़कियों को शर्म आती. शाम सात बजे ही ताला डाल दिये जाने और दो-दो लड़कियों की बैरक ड्यूटी के बावजूद कोई कब और क्यों ये सब कर गुजरता है, भावी विवेचनाधिकारियों के लिए अबूझ बना रहता.
रविवार को चार-पांच घण्टे का आउट पास मिलता ही
है सबको, जिसका मनचाहा उपयोग किया
जा सकता है. लड़कियां करतीं भी हैं, कटस्लीव ब्लाउज और साड़ी में निकलने वाली जौहरा हो या शनिवार की शाम को बिस्तर
पर ही निहायत गोपनीय अंगों पर हेयर रिमूविंग क्रीम लगाकर बैठ जाने वाली रीता हो,
को कोई वाक्य मर्यादा की डोर से बांधता होगा
लगता तो नहीं, हद तो तब हो गयी
थी, जब दूसरे जनपद गयी
स्पोर्ट्स टीम ढेर सारे लफड़े लेकर वापस आयी थी. लड़कियां होटल्स में ऐसे पकड़ीं
गयीं थीं जैसे कॅालगर्ल पकड़ीं जातीं है. मासूम बबीता सुनते-सुनते रो पड़ी थी.
नेहा ने भी खत लिखा था पिता को- 'पापा मैं वापस
आना चाहती हूँ., सच में ये विभाग
मेरे लायक नहीं है.' ये पहला खत था,
जिसका जवाब उसे तुरन्त मिला था, वह भी पापा की हेंड राइटिंग में 'मेरी बेटी बहादुर है, ट्रेनिंग पूरी करके
ही आयेगी, अब तो बस दो महीने की बात
है.' क्यों 'लायक' नहीं है, नहीं जानना चाहा
था पिता ने. अजय ने चर्चा करने की कोशिश की थी इस प्रकरण पर, नेहा चुप रह गयी थी.
‘क्या इस सब के कारण ही अचानक अजय ने शादी का
ब्रह्मास्त्र गिरा उससे काट लिया था अपने आप को?’ विराम लगा दिया था उस गृहस्थी पर जिसे वह उसकी कमला,
विमला, रामवती और श्यामवती नामक चार बहनों के सहयोग से सहेज लेने वाली थी, अनन्त काल के लिए स्थगित हो गयीं थीं वे यात्रायें
जो वे सहयात्री बनकर करने वाले थे.
अनवरत् चल रहा है प्रायोजित मिलना प्रेम का शव बेताल सा बीच में लटका प्रश्न पूछता रहता है. जिसके जवाब अजय के पास नहीं, पर नेहा इन मुलाकातों में भी करार ढूढने की कोशिश करती है. बैरक की सीढि़यों पर बैठी बीना सिंह गा रही है- ‘एक ऐसा भी दौर गुजरा है, तुझको देखे बिना करार न था.’ सच में प्रेम का दौर गुजर चुका था पर नेहा को अब भी अजय को देखे बिना करार नहीं. पहले से ज्यादा केयर करने की कोशिश करता है वह, नेहा झटक देती है. हास्पीटल में मदद मरीज में दो दिन की ड्यूटी लगी है नेहा की. पीली एक अजीब सी गन्ध से लिपटी कैडेट शुभ्रा एडमिट है,-'छुट्टियों में अबार्सन कराके आयी है, हैवी ब्लीडिंग के कारण एडमिट है.' आश्रित कोटे की अल्पना सिंह ने रहस्य खोला था. नेहा बेजुबान उसकी जरूरत भर मदद कर गलियारे में भटकती रहती है, उसे डर लगता है उसकी जरा सी सहानुभूति से पिघली ये कैडेट किसी भयानक सत्य से पर्दा उठा देगी. इस समय कठोर सत्यों का सामना करने की सामर्थ्य स्वयं में वह नहीं पाती.
"मैं शाम को मिलने आउूंगा." उसे बैरक पर आया देख मिलने चला आया था अजय.
नेहा ने मना कर दिया था, फिर भी शाम को
कैण्टीन की बजाय हास्पीटल की सड़क पर मित्र के साथ टहलने आया था वह. रोती परेशान
होती है नेहा. ‘मैं बात करती
हूँ!’ सुमन गयी थी मध्यस्थ
बनकर. ‘वह भी परेशान हैं, भावुक हो गये, कहा है, मैं कुछ करता हूं.’
सुमन ने फोन कर दिया था उसके घर, बड़ी बहन और भाई आया है, भाई के चेहरे पर विद्रूप हंसी है, वह अपना पक्ष दस माह पहले ही रख चुका था-‘भले बुरे की जिम्मेदार वह खुद होगी.’ नेहा को याद हैं वे शब्द. ‘ये पागल है, ऐसी परेशान होने की तो कोई बात नहीं है?’ नेहा ने सुमन पर बात डाल दी थी. फिर भी दरबार
लगा था परेड ग्राउण्ड के किनारे के पेड़ों के नीचे पत्थर की बेंचो पर "अच्छे मित्र हैं हम, अब भी हैं." बड़े सहेजे संयत तरीके से कह दिया गया था. नेहा ने दर्प से देखा था, पर नजर झुका ली गयी थी.
"कुछ तो था हमारे बीच सुमी,- कहो उससे, एक बार वो मुझे किस करे, एक बार कह दे प्यार है, मैं कभी शादी नहीं करूंगी, नहीं कहूंगी शादी को." प्रेम में देह का गणित होता है, देह जिसे कटस्लीव ब्लाउज में सहेज कर जौहरा निकलती है,
आउट पास वाले दिन, देह जिस पर सबके सामने हेअर रिमूविंग क्रीम लगाकर बैठ जाती
है रीता शनिवार की शाम को, देह जिसे मर्यादा
की डोर बांध लेती है एक वाक्य से. बीच में देह होती तब ही क्या प्यार होता,
प्यार का स्वीकार होता? नेहा उलझकर रह जाती है देह के गणित में.
पीटी में शवासन में पड़ी है लड़कियों की टोली "मिट्टी में लोटने वाली लड़कियां, कौन करेगा इनसे शादी?" आइटी ट्रैक पर गुजर रही लड़कों की टोली का कोई कैडेट
कमेण्ट करता है. उस्ताद ने थम की कमाण्ड दी, ‘लाइन तोड़, बाहर निकल?’
कोई बाहर निकल कर नहीं आया. ‘यहीं मैदान में नाक रगड़वा दूंगा.’ लड़कों की पूरी टोली ट्रैक पर लेटी है. ‘‘क्रोलिंग’’ लड़के कोहनी के बल घिसट रहे हैं. "मैदान में नाक रगड़ने वाले लड़को से पूछो, इनसे कौन करेगी शादी." पी.टी. की इंस्ट्रक्ट मिनमिनाती आवाज में कहती है. शवासन
में पड़ी लड़कियां के पेट हंसी से हिलते हैं.
‘लड़कियों देखभाल कर पुलिसवालों से ही शादी करना,
ऐसा न हो कि पति के मन में दरोगा बनने की इच्छा
जोर मारे और................’
क्लास में लड़कियों की पंक्ति के पीछे बैठा
शादीशुदा कैडिट कहता दांत निपोरता है. ‘अपनी जान की खैर मनाओ दादा, ऐसा न हो कि हमें
देखकर भाभी के मन में दरोगा बनने का ख्याल आ जाए और तुम बेमौत मरो.‘ जवाब पर आंखे फाड़ कर देखता है वह. आगे की
पंक्ति में बैठी लड़कियां हंस पड़ती हैं..
पासिंग आउट परेड दिन-प्रतिदिन नजदीक आ रहीं है
नेहा का दिल कांपता है. ‘सजन सकारे
जायेंगे और नैन मरेंगे रोय, सो विधना ऐसी रैन
कर..............’
पर भोर को होना ही होता है प्रशिक्षण भी
समाप्ति की ओर है. लिखित और शारीरिक परीक्षाएं हो चुकी है. कई-कई घण्टे अब सिर्फ ड्रिल कराई जाती है. सूती खाकी नइ्र्र वर्दियां सिलकर तैयार हैं. सांस्कृतिक
संध्या चल रहीं है "तुम तो ठहरे
परदेशी साथ क्या निभाओगे..."
कैडिट का ग्रुप झूम कर गाता है. सामने सिर
झुकाये बैठा है अजय, नेहा की तरफ देख
लेने का साहस उसमें नहीं. रात में बड़े खाने का आयोजन है सफेद पेंट शर्ट नेवी ब्लू
ब्लेजर में एक दूसरे से खुशी से मिल रहे हैं कैडिट, देखते ही दौड़ कर मिलने आता है अजय, नेहा का बुझा चेहरा उदास करता है उसे, सिर झुका लेता है वह, आखिर! प्यार किस चिडि़या का नाम है? सोचती रह जाती है नेहा.
अंततः कैडेट के कंधों पर स्टार सजे, पासिंग आउट परेड में कर्तव्यनिष्ठा की शपथ ली
गयी. पहली बार पीटीसी में पोस्टिंग के लिए जिलों के विकल्प मांग गये पर नेहा के
पास कोई विकल्प नहीं, फिर भी उसने सुमी
के साथ बड़ा शहर जो रेंज भी था चुन लिया था. अजय ने भी उसी रेंज से जुड़े शहर को
चुन लिया था. पीटीसी से आखिरी यात्रा को बोझिल मन लिए नेहा अजय की प्रतीक्षा में
है, भगदड़ सी मची है बैरकों
में, सब जल्दी में हैं,
‘देवकुमार जा रहा है उस नताशा के साथ, जो कभी शादी नहीं करेगी.‘ दोनों ने पूरब-पश्चिम पोस्टिंग ली है, पर क्यों? नेहा का मन जवाब तलाशता रीत चुका है पर प्रश्न यथावत है.
नेहा ने देखा और विदाई में हाथ हिला दिया. बैरक खाली हो चुकी है, कुछ रात की ट्रेन वाले कैडेट ही रह गये हैं. पर
अजय का कहीं अता-पता नहीं सुमन के साथ जाने वाली लड़की परेशान है.
"चलो देखते हैं ?"
परेशान है अजय, उसका यात्रा के लिए तैयार रखा छोटा सूटकेस अचानक गायब हो
गया है, जिसमें उसके कुछ कपड़े और
जरूरी कागजात थे. बाकी सामान बाहर रख एक बार फिर वह बैरक में गुम हो गया, पर सूटकेस का पता नहीं. यात्रा पर निकलना ही
था. टोली के उस्ताद को नाम-पता देकर निकल पड़े थे, सूटकेस ने गुम होकर बोझिल यात्रा को थोड़ा सहज बना दिया था.
इत्तिफाक से बस की भीड़ ने थोड़ा और सहयोग कर साथ बैठने की नौबत नहीं आने दी थी.
नेहा को बीच की सीट पर बिठा अजय कहीं पीछे जा बैठा था. पूरे रास्ते बुत बनी बैठी
रही नेहा ने एकबार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था, बस कब रुकी कब चली उसे कुछ होश नहीं. अलीगढ़ आ चुका था.
दोनों अपने सामान सहित उतर पड़े थे.
"मैं गांव जाऊंगा"
"मैं दीदी." नेहा के मुंह से अनायास निकल गया था. जाने कब बस से उतर कर
खरीदे गये सेब अजय के हाथ में थे- "लो खा लेना."
एटा........एटा.................एटा.........कंडक्टर
चीख रहा था. बस चलने लगी थी. नेहा ने सेब पकड़ लिया था. अजय जा चुका था. कितनी देर
खड़ी की खड़ी देखती रह गयी थी नेहा. अचानक झुरझुरी सी हुई थी देह में, हाथ में पकड़ा सेब अचानक दीवार की तरफ फेंक
दिया था उसने, जो दीवार के
किनारे बैठे भिखारी के बिछौने के पास से निकल दीवार से जा टकराया था. कैसी अजीब
नजरों से देखा था भिखारी ने उसको.
सिर्फ तीन दिन की मोहलत मिली थी सबको, विधान सभा चुनाव सिर पर थे इसलिए सबको तुरन्त
अपनी नियुक्तियों पर पहुंच ज्वाइन करना था. ज्वाइनिंग के दसवे दिन ही मिलने आ
पहुंचा था अजय.
"मुलजिमों के साथ ड्यूटी लगवा कर आया हूँ." चहकते हुए बताया था उसने. नेहा उम्मीद से देखती
है खुशी से भरे अजय को. इधर-उधर की बातें, खाना पीना और फिर अचानक सिर झुका विदा, जिसमें न कोई हाथ विदा लेने को उठता था, न कोई हाथ विदा देने को उठता था. थाने पर कभी
भी उसका फोन आ धमकता और नेहा की धड़कन बढ़ जातीं हाल-चाल बातें होती
पर....................................
चुनाव बाद दो दिन की छुट्टी ले घर चली गयी थी,
वापस आई तो पता चला अजय आया था.'पता नहीं क्यों आया था, जरूर कुछ किया होगा उसने!' नेहा ने मुश्किल से सुमी को तैयार किया था और जा पहुंची थीं
वे दोनों उसके थाने पर. थाने के बराबर बने रेस्टोरेण्ट में बैठ खाते-पीते बातें
करते रहे थे वे. नेहा की आंखों का प्रश्न असहज कर रहा था अजय को. सुमी के बाशरूम
जाने पर धीरे से कहा था उसने- " छह अप्रैल को
शादी है." और सिर झुका लिया था.
"वहां मेरे घर कार्ड भेज देना!" और सुमी के साथ एक बार फिर बिना विदा के चली
आयीं थी नेहा.
थाने पर कभी भी फोन कर देता वह, जिसे सप्रयास सुमी सुनकर रख देती थी. नेहा को
बुरा लगता पर उपाय क्या ही क्या था. इस बीच सुमी की शादी हो गयी और वह पति की
तैनाती वाले जनपद में चली गयी. एक वीआइपी ड्यूटी में उसे खोज कर मिलने चला आया
था अजय-
"मित्र छोड़ गयी?"
"मित्र छोड़ गयी?"
और तुमने तो जैसे सारा निवाह दिया.' मन में कहा था उसने और ‘‘चलो दी’’ कहती, साथी एसआई का हाथ पकड़ वहां से हट गयी थी.
'फिर-फिर क्यों मेरे मन को व्यथा से भरने चला
आता है ये आदमी?"
सामने रविवार के अखबार का वैवाहिक विज्ञापन
वाला पृष्ट खुला पड़ा था. ‘देवकुमार
उपनिरीक्षक यूपी पुलिस कद 5 फुट 9’’ उम्र 32 जाति ठाकुर हेतु लम्बी अति सुंदर ठाकुर कन्या की आवश्यकता है, उत्तम विवाह. लिखें थाना कोतवाली सीतापुर. विज्ञापन देखकर सन्न रह गयी थी नेहा- ‘ये उल्लू के चरखे चुन-चुनकर चमेलियों से उत्तम
विवाह करेंगे और नताशा शादी नहीं करेगी! बस इनकी अच्छी मित्रता के दम पर गुलजार
होगी लड़कियों की जिन्दगी.’ पहली बार गुस्से
से खून खोल उठा था उसका.
‘नेहा नीचे अजय खड़ा है.’ उसके बराबर ही वन रुमसेट की किराएदार और उसकी बैचमेट संघ्या
चैधरी ने सूचना दी थी.
"दी प्लीज आप अपने कमरे में बिठा लो, मैं आती हूं!"
पहले उसने बाथरूम में जा इत्मीनान से हाथ मुंह
धोया, फिर एक डार्क कलर का सूट
पहना, सुमी के सामान से मेकअप
किट निकाल हल्का मेकअप किया, मैचिंग बिन्दी
लगाई, बालों को संवार खुला
छोड़ दिया. दुपट्टा लापरवाही से डाल कर
पहुंची थी.
"कैसी हो ?: बदले में वह सिर्फ मुस्कुराई थी, बाकी बोलने को संघ्या दी काफी थीं. गलती से भी कोई
व्यक्तिगत सवाल न पूछा था उसने, न जवाब दिया था.
"दीदी आप चाय बनाओ न, मेरा मन भी आप की बनायी चाय पीने का कर रहा है." गद्गद हो गयीं थीं दी और चाय बना लायीं थीं.
जाते-जाते कहा था अजय ने- "अपना कमरा नहीं
दिखाओगी?"
‘मेरे कमरे में
प्रवेश पाओ, अब ऐसी सूरत नहीं
रह गयी है आपकी!’ मन में कहा था
उसने और रास्ता दिखाती सीढि़यां उतर गयी थी वह, आज अजय को विदा देनी ही होगी.
‘‘कुछ भी करो जीवन में, बस मूर्खतापूर्ण प्यार मत करो.’’
एक होटल में अमीर लड़के के साथ पकड़ी गयी
नाबालिग लड़की के गाल पर नेहा ने दो जोरदार थप्पड़ जड़ दिये. ‘नताशा ने एक बड़े बिजनिसमेन से शादी कर ली है’ फोन पर सुमी बता
रही है. वही तो मैं कह रही हूं, दुनिया में जीना
है तो प्यार नहीं, बाजार का गणित
सीखना होगा लड़कियों को ............................
_______
ललिता यादव :
‘सपना डर और राशनकार्ड’ तथा ‘शकुंतला जब थी
तब थी‘ ’परिकथा’ में प्रकाशित
सम्पर्क : म.न.३७ गली नं.१ ई सुभाष नगर, मेरठ.
मो.नं.-9897410300
बेहतरीन...कहानी की सहजता मनोभूमि की भावप्रवणता को एक सीध में नए अंदाज में खडा करती नजर आती है। बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंनए संदर्भ, परम्परा और आधुनिकता के द्वंद्व की बेहतरीन ढंग से कहानी पड़ताल भी करती है और खबर भी लेती है.
जवाब देंहटाएंभाई वाह क्या कहानी है. आनंद आ गया. कथानक बढियां है. पुलिस वालों के भीतर भी दिल है और वह प्रेम करता है. वातावरण का चित्रण सजीव है.
जवाब देंहटाएंVery meaningful story...I like these lines, प्रेम में देह का गणित होता है, देह जिसे कटस्लीव ब्लाउज में सहेज कर जौहरा निकलती है, आउट पास वाले दिन, देह जिस पर सबके सामने हेअर रिमूविंग क्रीम लगाकर बैठ जाती है रीता शनिवार की शाम को, देह जिसे मर्यादा की डोर बांध लेती है एक वाक्य से. बीच में देह होती तब ही क्या प्यार होता, प्यार का स्वीकार होता? नेहा उलझकर रह जाती है देह के गणित में.
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