सबद भेद : पंकज सिंह : ओम निश्चल














पंकज सिंह पत्रकार, प्रतिबद्ध एक्टिविस्ट और हिंदी के कवि थे, उनके तीन कविता संग्रह ''आहटें आसपास'' ''जैसे पवन पानी'' और ''नही'' प्रकाशित हैं. उनके असमय अवसान ने हिंदी जगत को और असहाय किया है. उनको उनकी कविताओं से स्मरण करते हुए ओम निश्चल.


स्‍मरण: पंकज सिंह
कविता की अद्वितीय राह                         
ओम निश्‍चल



वे इतने बूढ़े थे न बहुत बीमार ही. पर काल की गति भला कौन जानता है? वे समारोहों में एक जीवंत मौजूदगी की तरह होते थे. अपनी सुपरिचित मुस्‍कान के साथ. उनके साथ एक सम्‍मानित दूरी सदैव रही पर उन्‍हें उनकी कविताओं के जरिए उनकी संवेदना से सघन सान्‍निध्‍य रहा. ''आहटें आसपास'' कभी लखनऊ में रहते हुए पढी. फिर बाद में ''जैसे पवन पानी'' और ''नही'' शीर्षक तीसरे संग्रह से उन्‍हें और जाना समझा. वे इस तरह औचक चले जाएंगे यह पता न था. उस दुर्भाग्‍यपूर्ण दिन फेसबुक पर लगभग दोपहर के बाद स्‍टेटस दिखने लगे कि पंकज जी नहीं रहे तो अचरज हुआ कि यह कैसे हो गया. एक चिरयुवा सा लगने वाला कवि अचानक ओझल कैसे हो गया.

उनके न होने की संवेदना दर्ज करने वाले स्‍टेटस पढ कर मन न जाने कैसा कैसा हो आया. हिंदी हल्‍के के लिए बहुत उदास कर देने वाली खबर थी यह. वीरेन डंगवाल के जाने के थोड़े दिन बाद ही एक और क्षति. पंकज सिंह अग्रज कवियों में थे. उनसे मेरी भी मुलाकाते थीं. उनका कवि जीवन 1981 में संभावना प्रकाशन से आए कविता संग्रह ''आहटें आसपास'' से शुरु हुआ. उसका नया संस्‍करण अभी एक बरस पहले ही आया है. इस संग्रह की साम्राज्ञी आ रही हैं शीर्षक कविता से  वे बेहद चर्चित रहे. संग्रह में तमाम कविताएं ऐसी थीं जिन्‍हें पढ कर उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व का आभास पुख्‍ता होता है. पश्‍चात सच, तुम किसके साथ हो, बच्‍चों की हँसीनरक में बारिश, चुप्‍पी, सदियों के शब्‍दहीन विलाप में भटकते हुए, जिनके घर बार बार ढह जाते हैं ऐसी ही कविताएं थीं. यह संग्रह आपात्‍काल के दिनों का साक्षी भी रहा है. इसी दौरान आए ज्ञानेंद्रपति के संग्रह आंख हाथ बनते हुए और शब्‍द लिखने के लिए ही यह कागज बना है में भी ऐसी कई राजनीतिक कविताएं थीं अन्‍य समानधर्मा कवियों की तरह अपना प्रतिरोध दर्ज कर रही थीं. एक ऐसी ही कविता 'तलाशी' :

वे घर की तलाशी लेते हैं
वे पूछते हैं तुमसे तुम्हारे भगोड़े बेटे का पता-ठिकाना
तुम मुस्कुराती हो नदियों की चमकती मुस्कान
तुम्हारा चेहरा दिए की एक ज़िद्दी लौ-सा दिखता है
निष्कम्प और शुभदा (तलाशी)

उनका दूसरा संग्रह जैसे पवन पानी 2001 में और तीसरा संग्रह नहीं 2009 में आया. दोनों उनके मजबूत संग्रहों में है. ''नही'' उन दिनों आया जब मैं पटना में था. तब इस संग्रह के बारे में फोन पर यदा कदा उनसे बातें होती थी. इसी किताब से उपजी मैत्री के चलते उनसे मेरे एक मित्र गाहे ब गाहे बातें किया करते थे तथा उनकी अनूठी बातें बताया करते थे. इससे पूर्व पटना में ही उन्‍हें शमशेर सम्‍मान मिला था. उस समारोह में उनसे हुई मुलाकात आज भी याद है. पर सम्‍मानों को लेकर उनके मन कोई खास उत्‍कंठा कभी नहीं रही, न वे उसके लिए कभी रणनीतियां बनाते देखे गए. बल्‍कि एकाध सम्‍मान तो उन्‍होंने ठुकराये भी. उनके लिए पुरस्‍कार की लाबीइंग करने वाली न तो मित्र मंडली थी और न उनका स्‍वाभिमान हें हें करने वाली आत्‍मदया के प्रदर्शन के लिए आतुर. लिहाजा पुरस्‍कारों की दृष्‍टि से उनकी झोली लगभग खाली ही रही.

पंकज जी की जानकारी हर मामले में बहुत अद्यतन रहा करती थी. उनकी कविताएं सुचिक्‍कन ऩजर आती हैं. उनका पाठ पारदर्शी है. वे विचारोत्‍तेजक और विमर्श के बडे दायरे की कविताएं हैं. क्‍या विडंबना है कि उनसे कम महत्‍वपूर्ण लिखने वालों को हिंदी में सम्‍मानित किया जाता रहा और वे अंत तक ऐसे ईनामों से विमुख रहे. यहां तक कि 68 की उम्र पहुंचने के बावजूद उनका यथोचित मूल्‍यांकन नहीं हुआ. कायदे का एक आलेख भी उनकी कविता पर देखने में नहीं आता. अपने समकालीनों में इस दृष्‍टि से वे हाशिये पर ही रहे. उन्‍हें उचित ही कविवर कृष्‍ण कल्‍पित ने समकालीन कविता का अनसंग हीरो कहा है. वे युवा कवियों के हितैषी थे. जब एक अखबार के संपादन के सिलसिले में वे आगरा गए तो अपने कई चाहने वालों को साथ ले गए. उनसे दिल्‍ली की गोष्‍ठियों में कभी कभार भेंट होती थी. हेलो हाय भी उसी स्‍मिति के साथ. वह अदा अब दुर्लभ है. अब वह संभव नही है. जहां आज प्राय: कवियों का संसार सुचिक्‍कन चेहरों का संसार है, उनके चेहरे पर सघन मूँछें भली लगती थीं. वे उनकी मुस्‍कान को सादगी से रेखांकित करती हुई दिखती थीं.

दिल्‍ली जैसे शहर में जहां मृत्‍यु की पदचाप हर वक्‍त सुनाई देती है, कौन कब कालकवलित हो जाए, कौन जाने. पंकज जी का 68वां जन्‍मदिन अभी बस 23 दिसंबर को आकर गुजरा ही था कि कुछ ही घंटों में यह हादसा. अभी एक हफते पहले वे मुजफ्फरपुर बिहार से कविता का सम्‍मान प्राप्‍त कर लौटे थे. वह भी इसलिए वह उनके अपने देश जवार का सम्‍मान था. मैं जानता हूँ, हिंदी के लिए भले ही यह एक सार्वजनिक क्षति है पर पत्‍नी सविता सिंह जी  व उनके बच्‍चों के लिए निजी और अपूरणीय क्षति. उनके लिए ये दिन बहुत कठिन हैं.


उत्‍तरदायी कविता संसार
पंकज सिंह की कविता अपनी वयस्कता और कार्यभार दोनों दृष्टियों से उन्हें एक उत्तरदायी कवि का गौरव देती है. खड़ी बोली के परिमार्जित गद्य का जितने सलीके से प्रयोग पंकज सिंह ने अपनी कविताओं में किया है उसे अनदेखा कर पाना असंभव है. अपने पिछले संग्रह जैसे पवन पानी में पंकज सिंह भाषा को लेकर जिस तरह की उद्यमिता बररते हैं वैसे उदाहरण हिंदी कविता में कम देखने को मिलते हैं. उन्होंने लिखा है--उग जाग ओ मेरी भाषा/ गुजरती सदी के रंग-बिरंगे कोहराम में/ आग का मौन दर्प लिए.  जिस भाषा को जगाने के प्रयासों में वे पिछले तीन दशकों से लगे रहे हैं उसमें किसी भी तरह का गत्यवरोध, अवसाद और नैराश्य उन्हें कदाचित स्वीकार्य नहीं है. बल्कि उन लोगों को वे आड़े हाथो लेते हैं जो भाषा में कराह और संगीत में रूदन भर रहे हैं/ जो ज्वार सरीखी उम्मीदों को ले जाते हैं/ मायूसियों के तहखाने में. (जैसे पवन पानी) पंकज सिंह अपने नए संग्रह नही में भाषा का पहले जैसा तेवर और तापमान बरकरार रखते हैं तथा प्रतिरोध की आवाज और मनुष्यता के हक में एक गहरी हूक के साथ जीवन को जीवन की ओर पुकारते हैं.

मनुष्यता के गुण-धर्म में पगे लोगों के लिए पंकज सिंह कहते हैं कि उन्हें सूखी नदियों की प्राचीन रेत पर कभी कभार की गलतियों की कचोट के हिचकोलों में जहाजों की तरह डोलते देखा है जो कला के प्रदर्शन के लिए ताकतवरों की चिलम नहीं भरते, किसी दिखावटी सांस्कॄतिक स्वांग में शामिल नहीं होते किन्तु ऐसे ही लोग उनमें उम्मीदें जगाते हैं. हाँ, उन्हें उन लोगों से नफरत है जो भाषा और पीड़ा के बीच कलात्मक परदे लटकाने और इन्कार की जगह चापलूस मुस्कानें बिछाते हुए देखे जाते हैं. इस तरह पंकज सिंह का नया संग्रह नहीं प्रतिरोध और सकारात्मक निषेध की एक काव्‍यात्मक फलश्रुति का परिचायक है. उनके बारे में अरुण कमल का यह कहना सटीक है कि 'उनकी कविता समकालीन हिंदी कविता के गर्भगॄह की सलोनी, पवित्र, कुछ कुछ रहस्यमयी प्रतिभा है जिसकी द्युति हमारे अँधेरों को आलोकित करती है'(वसुधा-75).

आहटें आसपास(1981) से अपने तीसरे संग्रह नहीं तक पंकज सिंह ने एक सुदीर्घ यात्रा तय की है. इस यात्रा में उनके अनुभव सामाजिक, राजनीतिक समझ की परिपक़्वता से भीगे हैं तो उनकी संवेदना सहमे हुए सपनों का जायज़ा लेती हुई सयानी हुई है. वह सत्ता और प्रतिपक्ष की डरावनी हँसी का प्रतिकार करती है. उनकी कविता शक़्तियों से समझौता नहीं, मुठभेड़ चाहती है तथा मनुष्यों के साथ कुछ मनुष्यों के जघन्य कॄत्य का खुलासा करती है. वह राल गिराती कामनाओं से मुक़्त, प्रार्थनाओं से परे मानवमुक़्ति की लालसाओं का मंच बनना  चाहती है. कवि चाहता है --

मिट्टियों में हवा में आकाश में जल में जड़ें फूटें
मेरी स्वप्न तरु कविता की 
अजेय उज्ज्वलता में हो
मेरी आत्मा की प्रदीर्घ मानवीय लय
बसेरा करें उसमें
मुक़्ति की लालसाएं और उद्यम. (-इच्छाएँ/ पृष्ठ 58)


यथार्थ की अन्‍विति
ऐसी पवित्र इच्छाओं के धनी पंकज सिंह में यथार्थ को अपनी तरह से बरतने का माद्दा है. वह यथार्थ के निरूपण में भाषा के किसी भी नाटकीय अवयव, छल से बचने का यत्न करते हैं. उन्हीं के शब्द बरतते हुए कहें तो उनमें भाषा और संघर्ष की अनेक छवियाँ हैं---जीवाश्मों से कढ़ कढ़ कर आती और प्रेम की निार्विघ्नता के बिसरे स्वप्न जीवित करती. कवि भाषा और शब्दों के इस चाकचिक़्य में उन कुछ पुराने शब्दों में भरोसा टिकाता है जिनमें उसके सपनों की साँसें बसी हैं. पंकज सिंह की कविता में आँखिन देखी और अनुभव-पगी दृश्यावलियाँ हैं. सुनामी, गाड़िये जैसे जीवन के प्रत्यक्ष अनुभवों वाली कविताओं के अलावा यहाँ अनेक कविताएं जैसे कवि की ओर से एक खुला वक़्तव्‍य हैं. भाषा, कविता, समाज और संस्कॄति के इलाके में व्‍याप्त भ्रमों, धुँधलकों और विस्मयों की चीरती उधेड़ती कवि की चेतना बार बार अपनी ओर लौटती है. वह कभी आत्मगाथा की चादर ओढ़े अपने अनुभवों की एक-एक सलवट का हिसाब देती हुई दिखती है तो कभी भाषा में छल करती नाटकीयता, पीड़ा को उत्सव में बदलती भंगिमाओं और दुष्चक्र में घिरे स्रष्टा के करतबों का विरोध करती हुई दृष्टिगत होती है--

संताप के धागों से ही बुनता है वह एक चादर
बेहद झीनी और ढकता है अपनी मनुष्‍योचित पीड़ाएं 
तुम्हारी मुक्‍ति और अभिमान के लिए (-शायद वह कवि तेरा/पृष्ठ 52)

पंकज सिंह इन कविताओं में अपने मिजाज की भी तमाम तस्वीरें उकेरते हैं. लोग पहचान लेते हैं, और कि गए में फंकज सिंह का अपनापन बोलता है-- फिता के कामरेडी स्वभाव से अपने को सहबद्ध करता और उनकी स्मॄतियों को सँजोता. इसी तरह भले कुछ उदास  कविता में भी आत्मकथ्य की ही छाया है. बाहर से कवि-छवि के प्रचलित चोले से अलग दिखने वाले फंकज सिंह के भीतर कविता के इतने गहरे और मार्मिक स्रोत छिफे हैं, इसका साक्षात्कार तब होता है जब हम उनकी कविताओं के अंतःकरण की सीढ़याँ उतरते हैं. कविता के लिए जिस तरह की नोक-पलक दुरुस्त भाषा और संयमित वाचिक स्थाफत्य जरूरी है, पंकज सिंह के यहाँ उसकी सर्वोत्तम छवियाँ मिलती हैं. इतने संश्लिष्ट, बहुस्तरीय, रूपक और बिम्ब बहुत कम कवियों में देखे जाते हैं. 

पंकज सिंह चाक्षुष बिम्बों की निर्मिति के धनी हैं. किसिम किसिम की हरीतिमाएं बुलाती थीं, दमकता है जीवन उसके हृदय के फास, कामना और उम्मीद पर फैल जाती हैं पपड़ियॉं, उसकी आँखों में महाशंख अंधकार हैं, राख-सी झरती नीरवता, धूल में मिलते अभिलाषाओं के कंकाल, निष्काषित जल करुणा की सदानीरा का, जहाँ शब्द श्लथ पड़े थे सारांश खोकर आत्म-विसर्जन के लिए, तुममें छिपी थी आग महज़ एक रगड़ की प्रतीक्षा में, जैसे प्रयोगों से यह बात कही जा सकती है कि वे स्‍पंदित कर देने वाली भाषिक ऐंद्रियता से अपनी कविताओं का ताना-बाना बुनते हैं और एक उत्तरदायी कवि होने का परिचय देते हैं. वे सूचियों के प्रबंधन मे निष्णात लोगों से अपने को बख्शने के लिए कहते हैं तथा अपने को मामूली लोगों के पड़ोस में देखना चाहते हैं. वे मामूली आदमी में छिपी आग की संभावना को पहचानने वाले कवि हैं जो जानते हैं कि महज एक रगड़ भर से उस शख्स में आग पैदा हो सकती है. वे कविता की जिम्मेवारी को स्वीकारते हैं तथा उनका मानना है कि यह चोट खाती कविता ही है जो सुंदरता और प्रेम को निस्सार करते आततायी समय को कटघरे में खड़ा कर देती है. एक संकोची किस्म की आकांक्षा की आभा में दीप्त कविता फर उन्हें भरोसा है. वे कहते हैं--सुगबुगाती है चुप चुप सी कोई आकांक्षा दंतहीन किलक लिए/ मेरी भाषा के स्वप्न-भरे अंधकार में. (अंध काराऍं, पृष्ठ 86)

कविता की इस संकोची और उत्तरदायी छवि के बावजूद हिंदी को लेकर उनकी चिंता रघुवीर सहाय के नक़्शेकदम पर ही चलती दीखती है. अपनी हिंदी के लिए कविता में उनका कहना कुल मिला कर यही है कि यह चाहे जितनी अनुपयोगी हो, जय जयकार कराने वाली भाषा यही है. सीधे अर्थों में पंकज जी का मानना है कि कवियों के बीच एक ऐसी जमात भी है जो शासकों को खुश करने वाली कविताएं लिखने में मशगूल है. गोया अक़्सर वह भाषा और पीड़ा के बीच कलात्मक परदे लटकाते और इन्कार की जगह चापलूस मुस्कानें बिछाते हुए देखी जाती है. हिंदी पट्टी के वैचारिक दारिद्रय पर बराबर बहसें होती रही हैं. भाषाओं के कुनबे में आखिर हिंदी में ऐसा क़्या है जो राजभाषा पद पर विराजमान होते हुए भी अक़्सर यह गंभीर विमर्शों से विमुख मसखरों, चापलूसों और निखिध चाकरी बजाते लोगों के मनोरंजन और हास-उपहास का उफव्रम बन गयी है. याद आती है उदय प्रकाश की वह कविता- एक जो भाषा हुआ करती है, जिसमें उदयप्रकाश ने हमारे समय में हिंदी और हिंदी के प्रभामंडल में बजबजाती व्‍यवस्था का एक ऐसा चित्र उकेरा है जिसे देख-पढ़ हृदय शर्म और विक्षोभ से भर उठता है.

पंकज जी की कविता अश्लील उत्सवों पर चाबुक की तरह पड़ती है. जहाँ सत्तावानों की खिदमत में लगी व्‍यवस्था पर पंकज बार बार अपनी कविताओं में अपनी झुँझलाहट प्रकट करते हैं, वही इससे अलग अपनी हिकमत, ईमानदारी और किंचनता के सहारे आगे बढ़ते तथा अडोल आस्थाओं वाले मनुष्यों की सराहना वे अपने लोग शीर्षक कविता में खुल कर करते हैं --वे बेपरवाह रहते हैं क्रूरता और दुश्वारियों से / उन्हें घबराहट से नही भरता लिपी पुती भाषा का जादू. जब वे कहते हैं, फुकारता हूँ मैं जीवन को जीवन की ओर तो ऐसा कहने के पीछे पंकज सिंह के भीतर विक्षोभ से भरी हताशा की कोई छाया नहीं दीखती. जबकि नहीं के पूरे स्थापत्य में विक्षोभ, प्रतिरोध और दृढ़ता के अभिप्रायों से भरी एसी अभिव्‍यक्‍ति सामने आती है जो विचलनों, प्रलोभनों का निषेध करती हुई अपूर्व शब्द-संयम का उदाहरण प्रस्तुत करती है.

पंकज सिंह की यह सामर्थ्‍य उन्हें आठवें दशक के कवियों के बीच विरल बनाती है. भाषा को तोड़ने, रचने और गढ़ने की जैसी समझ पंकज सिंह में है, कविता में ऐसी कोशिशें कम मिलती हैं. पंकज सिंह मनुष्यता के आखिरी छोर फर खड़े व्‍यक्‍ति की जय बोलते हुए कविता की अद्वितीय राह पर चलते दीखते हैं जो किसी भी तरह के उत्सव, स्वांग और शक़्ति-प्रदर्शन का हिस्सा बनने तथा आमोद-प्रमोद की तूती बजाने से इन्कार करता है.  फिर भी यह कैसी विडम्बना है कि उन्हें काव्‍य-चर्चाओं में अक़्सर अलक्षित रखा गया है---यह संग्रह साहित्यिक दुरभिसंधियों के विरुद्ध कवि का प्रत्युत्तर भी है.

उन्हें ऐसी कविता महज नकली गाना लगती है जिसमें फूल हों, शहद हो, दिपदिपाती रोशनियों की भरमार हो, कविता में पूँजी के खेल पर प्रहार न हो. वे चाहते हैं कि कविता में प्रतिरोध का रसायन बरकरार रहे, भूमंडलीकॄत पूँजी के बसंत का प्रतिकार हो, ताकतवरों की आँखों में आँखें डालकर उनकी नीयत को नहीं कहने की इच्छा पुनर्जन्म लेती रहे. यद्यपि उनकी भाषा में आम बोल-बतकहियों का शब्द संसार ही प्रबल दिखता है किन्तु अनेक जगह वे कथ्य के मुताबिक शब्दों, पदों में तोड़-मरोड़ और क़्लासिकी का संधान भी करते हैं.


कविता और जीवन में बेफिक्री
उनकी कविता में एक खास किस्‍म की बेफिक्री मिलती है. यह बेफिक्री उनके जीवन में भी थी. पुरस्‍कारों को लेकर उनकी उदासीनता लगभग अंत तक बनी रही. अपने समकालीनों में उनकी कविता का सूचकांक कम न था पर वे हाशिये पर पड़े होने का आनंद लेते रहे. जबकि एक जिम्‍मेदार कवि के रूप में वे 1981 के उस वक्‍त में ही चर्चित हो चुके थे जब कविता की वापसी का दौर था. वे पत्रकारिता, राजनीति, और सामाजिक सक्रियताओं के कारण जाने जाते रहे. वे कुछ दिनों दूरदर्शन समाचार और बीबीसी लंदन से सम्‍बद्ध रहे. कई पत्रिकाओं के संपादन से भी जुड़े रहे. पेरिस और लंदन के प्रवास ने उनके बौद्धिक निर्माण में मदद की. सिनेमा, कला और संस्‍कृति के मुद्दों पर वे गाहे ब गाहे लिखते रहे. अपने उत्‍तर जीवन में वे लगभग एक एैक्‍टिविस्‍ट में बदल गए थे . हाल ही में केंद्र सरकार की तथाकथित असहिष्‍णुता के मुद्दे पर वे लेखकों की पुरस्‍कार-वापसी मुहिम के साथ रहे. अपने वाम चिंतन के चलते वे आखिर तक युवाओं के प्रेरणास्रोत रहे.

उनके भीतर कामयाब लोगों के प्रति एक तरह की विरक्‍ति का भाव था. अपना घर ढूढ़ता नामक कविता में इसके इंदराज दर्ज हैं. आखिर क्‍या वजह थी कि घर को लेकर उनके भीतर एक खास तरह की उदविग्‍नता बनी रही. वे कहते थे : ''मैं तमाम उम्र ढूढता रहा अपना घर/ डूबता रहा/ मौत ने बनाया मुझसे फ़रेब का कोई रिश्‍ता. (जैसे पवन पानी, पृष्‍ठ 13) यह भाषा के निविड़ में अकेले आकुल व्‍याकुल पंकज सिंह की चोट खाई संवेदना है जो स्‍वप्‍नहीनता के बावजूद आत्‍मदया में डूबने से इंकार करती है. उनके यहां शब्‍दों का उबाल नही है, वह प्रवाल की तरह उत्‍तप्‍त और समावेशी है. तमाम शाब्‍दिक कवायद के बावजूद वे  कभी कभी हताश के ऐसे मोड़ पर पहुंचते हैं कि

सिर्फ प्रार्थनाओं से कुछ नही बचाया जा सकेगा
रोने में चाहे भरा हो जितना भी गुस्‍सा अपार.

पर इस सबके बावजूद  कवि में कुछ कोमल संभावनाओं को बचा लेने की जिद होती है जो पंकज सिंह में भी थी. तभी तो वे इसी कविता में निराशा के विरुद्ध यह निर्वचन करते हैं: बच्‍चों को बचा  लें उनकी हँसी के साथ फूलों को बचा लें/ बचा लें स्‍वाधीनता कि बाकी बची चीजों को/ बचाने की कोशिश से उसका गहरा नाता है. (इतने सवालों के साथ). पंकज सिंह में कवियों को लेकर कितनी संवेदना थी कि एक कविता छोटा सा कोना में वे डिप्रेशन से ग्रस्‍त और आत्‍महत्‍या से जीवन खत्‍म करने वाली सिल्‍विया प्‍लाथ को इन शब्‍दों में याद करते हैं :

लंदन हो या कार्डिफ
हर कहीं है व्‍यथाओं के कोहरे भरे चक्रव्‍यूह
हर कहीं सिल्‍विया प्‍लाथ
दम तोड़ती अकेलेपन की किरचों पर
लहूलुहान
उम्‍मीदों की राख से भरे
प्रजज्‍वलित अँधेरो में.

पंकज सिंह की कविता का चेहरा मानवीय है, वह स्‍त्रियों के प्रति करुणा से भरी है. अस्‍पताल में सात कविताएं इस करुणा की गवाही देती हैं. इस कविता का एक मार्मिक अंश देखें--'थम जाते हैं सारे रुदन/ थम जाएगा इस स्‍त्री का रोना भी/ आसन्‍न मृत्‍यु की तीखी गंध लायी है जो आंसू / आहिस्‍ता-आहिस्‍ता सोख लेंगे उन्‍हें/ जिंदगी के कारोबार/ क्‍या रोएगा कोई इसी तरह/ रोती हुई इस स्‍त्री के जाने पर.'


मुझमें एक फूल-सा खिल रहा था
पंकज सिंह की कविताओं में कहीं कहीं बसंत के फूल-से खिलते हुए दिखते हैं. वासंती सांझ को सुचित्रित कल्‍पनाओं में दर्ज करते हुए वे कहते हैं कि 'जाते हुए मार्च की एक औसत सांझ में मुझमें एक फूल सा खिल रहा था/ मुझमें आंधियां सी लौट रही थीं.' कहना न होगा कि पंकज सिंह ने कविता में भाषा को प्राणवत्‍ता दी है. वह ऊपर से कुछ कुछ चमकीले रैपर में न्‍यस्‍त जरूर दिखती है किन्‍तु उसका अंत:करण करुणा से भीगा हुआ लगता है. तभी वे अपनी भाषा से सजावटी भंगिमा से बाहर निकल कर धूल भरे यथार्थ के सम्‍मुख आने का आग्रह करते हैं:

उग जाग ओ मेरी भाषा!
जो घटनाओं सा गुजर रहा है अखबारों से
सड़कों की धूल भरी बातचीत से
गुजर रहा है जो यूं ही सा यूं ही सा
उसे दिल में ला----
खून के आईने में वक्‍त का चेहरा दिखा
ओ मेरी भाषा, मेरी औरत, मेरी मॉं, मेरी धरती!


पंकज सिंह वाचिक दुनिया से सरोकार रखने वाले कवि रहे हैं इसीलिए उनकी कविता में यत्र तत्र ऐसे पद आते हैं जहां कविता का वाचिक वैभव चरितार्थ होता है. वह सुहागन सी नजर आती है. व्‍यस्‍त सपनों के मुदित छंद में, गुनगुने वार्तालापों में, बचा है एक सपाट पीलापन, हल्‍का सा नीलापन, राष्‍ट्रीय दारिद्रय के बीच थिगली सा कोई मानवीय प्रकाश, आत्‍मा की गोपनीय सुरंगों में, करुणाभरी मुसकान की गाढी ओट में, आनंद के वीभत्‍स अतिरेक में, आंखों का चंद्रोदय, पूँजी के रनिवासों में अहर्निश गूँजेंगे उनके कलरव, एक सूखी हँसी नीरव, आतुर हवाओं सा प्रेम, आत्‍मीयता के ठिकानों पर पड़े हैं पत्‍थर, अपार्थिव विश्‍वास, नई आंखों के स्‍वप्‍नघर में, गरिमामय दुष्‍चक्र के सहारे, भाषा के स्‍वप्‍नभरे अंधकार में, बुझा हुआ चंद्रमा, अभिलाषाओं के कंकाल जैसे पदों में वे चाक्षुष बिम्‍बों की लड़ियां सी सजा देते हैं. 

दूसरी तरफ उनकी शब्दावली पर गौर करें तो अमर्ष, श्लथ, अभ्यागत, पवित्र हठ, तपती प्रगाढ़ता, गरिमामय दुष्चक्र, क़्लान्ति, निष्‍पाप, अभिमान, नीरव हाहाकार, प्रकाशित जल, अजेय उज्ज्वलता, स्मॄति-आवर्त, क्षमा याची, नीलपीतरक़्तपुष्‍प, अम्लान, प्रतिच्छायित,निर्वर्ण फैलाव और नतग्रीव जैसे शब्द भी आए हैं जिनसे उनकी कविता अर्थवती होती है. पंकज सिंह भाषा के वाचिक वैभव में रमते हुए भी शब्दों के प्राचीन कुल-गोत्र तक जाते हैं और प्राचीनता और आधुनिकता की महक से भरे ऐसे शब्द खोज लाते हैं जिनसे हमारी कविता थोड़ी अधिक द्युतिमान, उत्तप्त और मानवीय हो उठती है.

वे अपनी भौतिक सत्‍ता से दूर भले चले गए हैं पर अपने शब्‍दों में वे जीवित रहेंगे. कवि अपनी काया में विसर्जित होता है, शब्‍दों की छाया में नहीं. वह शब्‍दों के बियाबान से नए स्‍वप्‍न के उजास का आवाहन करता है. वह अपनी निमज्‍जित करुणा में मनुष्‍यजाति पर हो रहे अत्‍याचार पर आंसू बहाता है. वही तो है जो जागै अरु रोवै कहने वाले कबीर का वंशज है. वे लिख गए हैं:

मैं बार बार दिखूंगा. गली के बच्‍चों की किसी आदत में.
शरारत में . आवाज बदल कर. किसी दोस्‍त को
उसके बचपन में खोए नाम से बुलाऊँगा
उतरता हुआ नयी बांहों में . नए पांवों में.
नई आंखों के स्‍वप्‍नघर में. (दिखूंगा)

(नया ज्ञानोदय के फरवरी २०१६ अंक में भी प्रकाशित) 
_________________
डॉ.ओम निश्‍चल
जी-1/506, उत्तम नगर,
नई दिल्ली-110059
मोबाइल- 08447289976

12/Post a Comment/Comments

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  1. बेहतरीन, सहेजने योग्य लेख |

    सादर नमन

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  2. पंकज सिंह को उन दिनो से जानता हूं जब वे- आहटे आसपास -की पांडुलिपि लेकर सम्भावना आये थे .उन दिनो मै हापुडं में पदास्थापित था .इस संग्रह की कविताये भिन्न थी . मै उनसे कहता था कविता में लाऊड्नेस ठीक नही लगता .जब भी मिलते थे गर्मजोशी से मिलते थे .वे अपनी कविताओं की तरह विरल थे .ओम जी ने पंकज का सम्यक मूल्यांकन किया है .

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  3. पंकज सिंह जी से बहुत आत्मीयता और अपनापन रहा। उनसे की गई अनेक मुलाकातें याद हैं। अनेक स्मृतियाँ हैं। मेरे निवेदन पर कई बार वे मेरी कविताओं में सुधार करके बताया करते थे कि कहाँ गलती है और इस जगह पर कविता क्यों है, या इस जगह पर कविता क्यों गायब है। ओम निश्चल जी ने उन्हें याद किया है। पढ़कर बहुत अच्छा लगा। उनके जाने से बहुत कष्ट हुआ है। यह साहित्य की अपूरणीय क्षति है। पंकज सर सदैव अपनी कविताओं के माध्यम से हमारे दिलों में रहेंगे। कविता में बड़ी शक्ति होती है, उनकी कविताओं में बहुत ताकत है।

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  4. Almost accurate, a wonderful tribute to a real poet. Very touching indeed! Shukriya Om ji and Arun Dev. Thanks to Leeladhar Mandloi also for publishing it in Naya Gnyanoday.(Savita Singh) : सविता जी। अापकी इस फील के लिए क्‍या शब्‍द दूँ ! यही कि उनकी और खूबियों पर फिर फिर बातें होंगी।

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  5. शुक्रिया डॉक्‍टर मोनिका जी कि आपने यह आलेख पसंद किया।
    स्‍वप्‍निल जी। आपके प्रति भ्‍ाी आभार।
    प्रांजल जी। आपका एसएमएस मिला। कुछ करने का तोष यही है कि हम ऐसे सुधी लेखकों के कृतित्‍व और जीवन के प्रेरणादायी पहुलुओं को याद करते रहे। आपका कहना सही है कि उनकी कविताओं में बहुत ताकत है। स्‍नेह।

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  6. अत्यंत मर्मस्पर्शी और जीवंत लेख। सहज उददात्ता की परिणति तुल्य।
    सादर नमन।

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  7. ओम जी इस लेख के लिए साधुवाद। पंकज जी कविताएँ गहरी अर्थवत्ता लिए सम्वेदना का विस्तार करती हैं । उनका अचानक चले जाना हिंदी साहित्य की अपूर्णनीय क्षति है। आपने बहुत अच्छा लिखा है।

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  8. बहुत पारखी है आपकी दृष्टि। पंकज सिंह पर आपका यह आलेख उन्हें पूरी तरह से मूल्यांकित करता है। बहुत अच्छा लगा इसे पढ़ कर। इस लेख के लिए आपको साधुवाद।

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  9. सलोनी, सोनाली,लीनाजी एवं आदरणीय भीखीप्रसाद वीरेंद्र जी। आपने इसे पढा। लेख पसंद आया। आश्‍वस्‍ति हुई। साधुवाद।

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  10. मैंने अभी पढ़ा ओम जी,सम्यक् विवेचना व आकलन हेतु साधुवाद.पंकज सिंह से मेरा परिचय बी बी सी सुनकर हुआ .

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  11. Pretty ji सराहने के लिए शुक्रिया।

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