कालजयी : कफ़न : रोहिणी अग्रवाल





कफ़न प्रेमचन्द की आखिरी कहानी है. यह मूल रूप में उर्दू में लिखी गयी थी. ‘जामिया मिल्लिया इस्लामिया’ की पत्रिका ‘जामिया’ के दिसम्बर, १९३५ के अंक में यह प्रकाशित हुई, इसका हिंदी रूप चाँद के अप्रैल, १९३६ में प्रकाशित हुआ. दोनों पाठों को आमने-सामने रखने पर हिंदी पाठ अनगढ़ और असंगत प्रतीत होता है. प्रख्यात कथाकार अब्दुल बिस्मिल्लाह ने अपने आलेख, ‘कफ़न : उर्दू और हिंदी पाठ का फर्क’ में इसकी विस्तार से चर्चा की है- जैसे उर्दू का ‘माधो’ हिंदी के ‘माधव’ में बदल जाता है. हिंदी पाठ में वह – ‘अन्तरजामी’ को ‘अन्तर्यामी’, ‘असीरबाद’ को ‘आशीर्वाद’ ‘बिचारी’ को ‘बेचारी‘खुस’ को ‘खुश’ आदि बोलने लगता है. कई जगह तो वाक्य ही बदल गए हैं जैसे ‘कितने तो चुल्लू में उल्लू हो जाते हैं’ की जगह हिंदी में ‘कितने तो यहाँ आकर एक चुल्लू में मस्त हो जाते थे’. उर्दू में घीसू शराब के साथ खाने में ‘गोश्त, और सालन और चटपटी कलेजियाँ और तली हुई मछलियाँ’ मांगता है तो हिंदी वाला घीसू चटनी, अचार, कलेजियों से ही संतोष कर लेता है. आदि आदि.
प्रेमचन्द  के साहित्य का प्रमाणिक रूपांतरण अब भी हिंदी में नहीं है. इससे बड़ी विडम्बना हिंदी के प्रेमचंद की और क्या हो सकती है ?

रोहिणी अग्रवाल कथा साहित्य की ख्यात आलोचक हैं. कथा साहित्य पर उनकी अनेक किताबें प्रकाशित हैं जिसमें – इतिवृत्त की सरंचना और स्वरूप’ (पंद्रह वर्ष के प्रतिमानक उपन्यास), समकालीन कथा साहित्य : सरहदें और सरोकार’, ‘हिंदी कहानी: वक्त की शिनाख्त और सृजन का राग’ आदि प्रमुख हैं.

समालोचन  आज से एक स्तम्भ ‘कालजयी’  शुरू कर रहा है जिसमें हिंदी की कालजयी कहानियों पर रोहिणी अग्रवाल नियमित रूप से लिखेंगी. इसकी शुरुआत हम हिंदी की कालजयी कहानी कफ़न से कर रहे हैं.


कफ़न                                                                                      
रोहिणी अग्रवाल 


फनप्रेमचंद की ही नहीं, समूचे हिंदी साहित्य की सर्वाधिक चर्चित कहानी है. 1936 में रचित यह कहानी हिंदी साहित्य की ऐसी पहली रचना है जो अपने केंद्रीय पात्रों को न औदात्य प्रदान करती है, न अतिरिक्त संवेदना. निःसंदेह यह कहानी लेखकीय तटस्थता का उत्कृष्ट उदाहरण है जहाँ लेखकीय हस्तक्षेप और पूर्वाग्रहों को दरकिनार करते हुए पात्रों को उनकी स्वाभाविक किंतु संश्लिष्ट रंग-रेखाओं में रचा गया है. दरअसल यही वह बिंदु भी है जहाँ इस कहानी का विरोध भी हुआ है और इसे दलितविरोधी रचना कह कर खारिज करने का प्रयास भी किया गया है.
गुलज़ार निर्देशित कफ़न का एक दृश्य

कफनप्रथमदृष्ट्या घीसू-माधव - पिता-पुत्र - की संवेदनहीनता और भावनात्मक क्रूरता की कहानी कही जा सकती है. जाड़ों की रात की घनघोर निस्तब्धता में अकेले अपने झोंपड़े में प्रसव वेदना से छटपटाती बुधिया के समानांतर उसके घर के दोनों पुरुष सदस्य - पति एवं ससुर - उसके कष्ट से बेपरवाह आग में आलू भून कर खा रहे हैं. कहानी के प्रारंभ में ही इस हृदयविदारक दृश्य की नियोजना कर प्रेमचंद मानो पाठक से संवेदनशील ढंग से विचार-क्षेत्र में उतरने की मांग करते हैं. उन्हें अपेक्षा है कि पाठक उनकी अन्य कहानियों की तरह यहां भावना और कर्तव्यपरायणता के बीच आदर्श और यथार्थ की मुठभेड़़ के जरिए चरित्र चित्रण के पारंपरिक फार्मूले की उम्मीद न करें, बल्कि एक ऐसी क्रूर सच्चाई के साक्षात्कार के लिए प्रस्तुत रहें जो भावना, कर्तव्य और तर्क की हर धार काट कर अपने इर्द गिर्द निबिड़तम अंधकार की ही सृष्टि करती है. ऊपरी तौर पर कहानी अति संक्षिप्त है - बुधिया की दर्दनाक मौत के बाद घीसू-माधव द्वारा कफन के लिए अनुनय-विनय से जमा किए गए पांच रुपयों को शराब और पूड़ी-कचैड़ी में उड़ा देने की. लेकिन भीतरी तहों में संश्लिष्ट से संश्लिष्टतर होती चलती यह कहानी पात्रों के मनोविज्ञान-अध्ययन से आगे समाज-व्यवस्था के विश्लेषण का आधार बन जाती है.

प्रेमचंद की विशेषता है कि उन्होंने घटनाओं के अभाव को सुदृढ़ चरित्र चित्रण से भरने की सफल कोशिश की है. आलस्य, निकम्मापन, कामचोरी और झूठ का पुलिंदा हैं घीसू-माधव जो वस्तुतः दो अलग पात्र हैं ही नहीं, एक ही भाव अथवा स्थिति का विस्तार हैं. काम करने से ज्यादा आराम की फिक्र या इस-उस खेत से दांव लगने पर आलू-मटर-ईख चुरा कर खाने की लत ने उनकी काया के साथ-साथ उनकी आकाश-वृत्ति को भी पाला-पोसा है. उनमें न आत्मसम्मान का भाव बचा है, न संबंध को समझने और निभाने की सदाशयता. पेट उनके लिए दुनिया का सबसे बड़ा सच है, लेकिन जो लोग उनके पेट का गड्डा भरने में सहायक हैं, उनके प्रति इनके मन में कृतज्ञता या दायित्व का कोई बोध नहीं. कहानीकार नहीं बताते कि घीसू की पत्नी कब और कैसे मरी, लेकिन भरपूर श्रमपूर्वक गृहस्थी की गाड़ी खींचने वाली बुधिया प्रसवावस्था में जिस तरह एडि़यां रगड़-रगड़ कर मरी है, उससे स्पष्ट है कि पिता-पुत्र अपने से इतर अन्य किसी के प्राणों और भावनाओं को लेकर चिंतित नहीं. बेगैरतकह कर लेखक ने ठीक ही अपना आक्रोश उन पर उंडेला है. एक-दूसरे से ज्यादा हिस्सा खाने की लालसा में गर्म-गर्म आलुओं को जीभ पर रखते और फिर जल्दी-जल्दी निगलने के प्रयास में आंखों से आंसू छलकाते इन पिता-पुत्र का जो दृश्य प्रेमचंद ने शब्दों के माध्यम से उकेरा है, वह किसी कुशल चित्रकार की तूलिका से निकली कालजयी कृति से कम नहीं.

अंतर इतना है कि वे इसे वहीं जड़वत् नहीं करते,  बल्कि पात्र के भीतर तक उतरते हुए उसमें प्राण-प्रतिष्ठा भी कर जाते हैं. दो उदाहरण दृष्टव्य हैं. एक, बुधिया की कराहों के बीच आलू खाते हुए हठात् माधव थम गया है. इस सवाल ने उसे बेचैन कर दिया ह्रै कि यदि "कोई बाल-बच्चा हुआ तो क्या होगा? सोंठ, गुड़, तेल, कुछ भी तो नहीं है घर में.’’ यह पिता बनने के नवबोध के साथ विकसित हुई दायित्व भावना है, और पत्नी एवं अजन्मे बालक के साथ अनाम ममत्व के अंकुरण का बिंदु भी. साथ ही बच्चे की परवरिश की चिंता और अपनी संसाधनहीनता - स्थिति के अंतर्विरोध ने उसे थर्रा दिया है. इस भयावह यथार्थ ने उसे यह ज्ञान भी दिया है कि सीमित संसाधनों का ज्यादा हिस्सों में बंटवारा उनकी पेट की ज्वाला को कभी शांत नहीं कर पाएगा.

दूसरा उदाहरण है, आलू खाने के इसी परिदृश्य के भीतर घीसू का बीस बरस पहले ठाकुर की बारात में दावत उड़ाने का प्रसंग. प्रेमचंद ने रस ले-ले कर इस दावत में उड़ाए जाने वाले भोज्य पदार्थों का वर्णन किया है - असली घी की पूडि़यां, रायता, तीन तरह के सूखे साग, एक रसेदार तरकारी, चटनी, दही, मिठाई, पान-इलायची, मानो यही रस घीसू के जीवन की एकमात्र उपलब्धि हो. यहां हठात् एक ही चित्र में पर्यवसित होते पिता-पुत्र को लेखक दो फांकों में विभाजित कर देते हैं. अब तक हाँ में हाँ मिलाने की तरह एक ही दिशा में बढ़ता दोनों का एकालाप प्रश्नोत्तर बन कर एक-दूसरे के सामने आ खड़ा होता है, जिसमें संवाद से ज्यादा अपने-अपने स्तर पर तृप्ति और अतृप्ति, उपलब्धि और तृष्णा की भावना बलवती है. घीसू की स्मृति में खाए गए पकवानों का स्वाद और सुगंध के साथ-साथ तृप्ति का अलौकिक भाव है; माधव की लार टपकाती जिज्ञासा में सुअवसर जुडने पर इन सारे पकवानों को पिता से दूना खा जाने की तृष्णा.

’’तुमने बीस एक पूरियां खाईं होंगी?’’
’’बीस से ज्यादा खाईं थीं.’’
’’मैं पचास खा जाता.’’

बातों से पेट भरने वाले घीसू-माधव को इस दृश्य में अंकित कर प्रेमचंद दो प्रयोजन सिद्ध करते हैं. एक, इस मनोवैज्ञानिक तथ्य की ओर संकेत कि भूख अहर्निश जलने वाली ऐसी विकराल भट्ठी है जो अन्न के अभाव में मनुष्य की संवेदनाओं के साथ-साथ उसकी मनुष्यता को भी लील जाती है. भूखा व्यक्ति भूखा रह जाने के कारणों का विश्लेषण नहीं करता. कर पाता तो संभवताः भूखा भी न रहता, लेकिन भूख के हाथों धीरे-धीरे ऐसे नरपशु में तब्दील होने लगता है जिसके लिए मैंही समूची सृष्टि का पर्याय बन जाता है. उम्र अधिक होने के कारण घीसू ने भूख की विकरालता को माधव की अपेक्षा अधिक झेला है, इसलिए माधव की अपेक्षा वह अधिक ढीठ, निर्लज्ज और निर्द्वन्द्व  हुआ है. वही अभिनय कर-करके कफन के लिए रुपए बटोरता है और संशयी माधव को हर स्थिति में शांत और अविचल रहने की मंत्रणा देता है. माधव के सामने भावना के दुर्बल क्षणों में कल की चिंता और पाप-पुण्य का संस्कार सवाल बन कर आ खड़ा होता है, लेकिन इन सब से निर्लिप्त घीसू क्षणसे परे किसी भी वस्तु-सत्य को देख ही नहीं पाता. अनुभव ने उसे बताया है कि जन्म और मृत्यु जैसी भौतिक-सामाजिक अनिवार्यताएं अपने आप विधि-विधान से संपन्न हो जाती हैं. इसलिए वह सिर्फ अपनी भूख पर केंद्रित है जिसे लेकर समाज को कोई सरोकार नहीं.

दूसरा, भूख को मनुष्य की बुनियादी जरूरत साबित कर प्रेमचंद इस दृश्य की तार्किक परिणति के रूप में कहानी के दूसरे महत्वपूर्ण दृश्य की नियोजना संभव कर पाते हैं. दावत की स्मृति ने घीसू-माधव की स्वाद-ग्रंथियों और अंतडि़यों की बिलबिलाहट को ही तीव्रतर नहीं किया है, बल्कि ऐसे किसी भी अवसर का जुगाड़ करने का कुटिल बोध भी विकसित किया है, क्योंकि वे जानते हैं बीस साल में जमाना बदल गया है. ’’अब कोई क्या खिलाएगा? ़ ़ अब तो सबको किफायत सूझती है. शादी-ब्याह में मत खर्च करो, क्रिया कर्म में मत खर्च करो. पूछो, गरीबों का माल बटोर-बटोर कर कहां रखोगे?’’ इसलिए पांच रूपए जैसी बड़ीरकम के बावजूद बाजार भर में कफन के लिए सूती-रेशमी किसी भी तरह का कपड़ा न जंचना, और किसी अज्ञात प्रेरणा के परिणामस्वरूप सांझ ढलते न ढलते मदिरालय के सामने आ खड़ा होना अस्वाभाविक नहीं. पांच रुपयों के रूप में मेहरबान हुए इस अनपेक्षित सौभाग्यको वे कैसे छिटक कर चिता की आग में जलने दें? उल्लेखनीय है कि नर-पशु सरीखा चित्रित करने के बावजूद प्रेमचंद उन्हें निरा जानवर नहीं बनाते. उनके भीतर धड़कता मनुष्यउन्हें अपनी करनी पर अपराध-बोध दे रहा है. इसलिए वे एक-दूसरे को नहीं, अपने आप को दिलासा देकर दोषमुक्त कर लेना चाहते हैं कि ’’कफन लगाने से क्या मिलता? आखिर जल ही तो जाता. कुछ बहू के साथ तो न जाता.’’ तथा ’’बड़े आदमियों के पास धन हैं, फूंकें. हमारे पास फूंकने को क्या है?’’ इसी प्रयास की अगली कड़ी के रूप में ईश्वर से बुधिया को बैकुंठवासी करने का अनुरोध भी है क्योंकि उन्होंने बेशक अपनी जिंदगी में कोई पुण्य न किया हो, बुधिया ने मर कर भी उन्हें भरपेट भोजन करने की तृप्ति दी है - ’’भगवान, तुम अंतर्यामी हो. उसे बैकुंठ ले जाना. हम दोनों हृदय से आश्ीर्वाद दे रहे हैं. आज जो भोजन मिला, वह उम्र भर न मिला था.’’

चुरा कर लाए गए गर्मागर्म आलू भकोसने का दृश्य जहाँ घीसू-माधव की सामाजिक स्थिति स्पष्ट करता है, वहीं मदिरालय में झूम-झूम कर मौज मनाने का दृश्य सामाजिक व्यवस्था के परिणामस्वरूप आकार लेने वाली अंतःवृत्तियों को उजागर करता है. लेखक ने दोनों को कामचोर बनाया है, लेकिन कफनचोर की संज्ञा देते उन्हें संकोच होता है. इसलिए वे घीसू-माधव के साथ मिल कर जर्जर धार्मिक रूढि़यों को कोसते हैं कि "जिसे जीते-जी तन ढांकने को चीथड़ा भी न मिले, उसे मरने पर नया कफन’’ क्यों चाहिए. और फिर उनकी दबी भलमनसाहत को उजागर करने की चेष्टा भी करते हैं कि ’’यही पांच रुपए पहले मिलते तो कुछ दवा-दारु करा लेते.’’

प्रेमचंद की ताकत यह है कि कथा में कहीं उपस्थित न होते हुए भी वे पाठक के हृदय में इन दोनों अभागों के प्रति सहानुभूति पैदा करते हैं. भारतीय सामंती समाज की मनोरचना से परिचित पाठक जानता है कि संपन्न वर्ग जिस अधिकार से हाशिग्रस्त अस्मिताओं का शोषण करता है, उतने ही कृपा भाव से खैरात के रूप में कुछ सिक्के उनकी ओर उछाल देता है. यह कृपा दयार्द्र होकर उनकी स्थिति सुधारने की चेतना का परिणाम नहीं, बल्कि अपनी प्रजाको उतना भर देने की सुनियोजित युक्ति है जिससे वे दुस्साध्य श्रम करने के लिए जिंदा रह सकें, व्यक्तिगत तौर पर अपनी जिंदगी का सुख न भोग पाएं. इसलिए पाठक भी घीसू-माधव की तरह अंतस से निकली गहरी इच्छा की व्यर्थता समझता है, क्योंकि जानता है जीवित बुधिया के इलाज के लिए कोई भी धनकुबेर अपनी दानवीरता का प्रदर्शन नहीं करता. सांझ के धुंधलके में जब पिता-पुत्र के पैर मदिरालय की ओर खिंचे चलते हैं, तब वह सतही तौर पर भले ही उनकी गैरजिम्मेदारी पर क्षुब्ध होता हो, भली भांति जानता है कि वे दोनों इस समय भीतर ही भीतर आक्रोश की आग में  कैसे झुलस रहे हैं. जिस व्यवस्था ने अपने हितों को चाक चैबंद रखने के लिए उनसे उनकी सारी बुनियादी जरूरतें छीनी हैं, उसी व्यवस्था से पांच रुपए पाकर वे अपने को उसके नियमों में क्यों बांधे? इसलिए आश्चर्य नहीं कि घीसू-माधव उस रकम पर न केवल शाही दावतउड़ाते हैं, बल्कि बची हुई पूडि़यों की पत्तल उठा कर भिखारी को दान में भी देते हैं. पूडि़यों ने उनकी भूख मिटाई है और दान देने की क्रिया ने उनके दमित स्वाभिमान को सहलाया है. लेखक कथा में प्रविष्ट होकर ’’देने के गौरव, आनंद और उल्लास का अपने जीवन में पहली बार अनुभव करते’’ घीसू-माधव की इस गद्गद् अवस्था का चित्रण करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते. उल्लेखनीय है कि यहां देनेकी क्रिया में अहंकार की टंकार नहीं है, बल्कि दूसरे की भूख मिटा कर उसे तृप्ति देने की मानसिक तृप्ति और शांति है. इसलिए घीसू-माधव बुधिया को नहीं, बल्कि प्रेमचंद घीसू-माधव को अभयदान दे रहे हैं कि "हां बेटा, बैकुंठ में जाएगी. किसी को सताया नहीं, किसी को दबाया नहीं. मरते-मरते हमारी जिंदगी की सबसे बड़ी लालसा पूरी कर गई. वह बैकुंठ में न जाएगी तो क्या ये मोटे-मोटे लोग जाएंगे जो गरीबों को दोनों हाथों से लूटते हैं, और अपने पाप को धोने के लिए गंगा में नहाते हैं और मंदिरों में जल चढ़ते हैं.’’

कफनकहानी व्यवस्था की सांस्कृतिक छलनाओं को उधेड़ने में भी कोर-कसर नहीं छोड़ती. कहानी मानो सवाल उठाती है कि किसानों की दुर्बलता - भाग्यवाद और पुनर्जन्म में विश्वास - का लाभ उठा कर जिस प्रकार शोषक वर्ग उन्हें लूटता आया है, उसी प्रकार वर्चस्ववादियों के सांस्कृतिक आभिजात्य और पाखंड का लाभ उठा कर यदि हाशिए की ये अनंतिम अस्मिताएं अपनी उदरपूर्ति कर रही हैं तो सिर्फ उन्हें ही अमानुषिक और क्रूर कह कर गरियाने का क्या औचित्य है? परलोक में कफनहीन बुधिया की दुर्गति की आशंका के संदर्भ में प्रेमचंद जिस टोन में संवादों की नियोजना करते हैं, वहां कफन मिलने का विश्वास ही घीसू-माधव की तथाकथित उच्छृंखलता का कारण बनता है. लेकिन कफनकहानी जो सतह पर है, उसे देखने से इंकार करती है और सिक्के के दूसरे पहलू सरीखे अनुपस्थित सच को सामने लाती है. "तू कैसे जानता है कि उसे कफन न मिलेगा. तू मुझे ऐसा गधा समझता है? साठ साल क्या दुनिया में घास खोदता रहा हूं? उसको कफन मिलेगा और बहुत अच्छा मिलेगा.’’ घीसू का यह विश्वास दरअसल संपन्न वर्ग के धार्मिक पाखंड का ही निदर्शन करता है जिसके लिए तीर्थस्थानों पर धर्मशालाएं-मंदिर आदि बनवाने की तरह मृतकों के दाह-संस्कार की व्यवस्था करना पुण्य लूटने की आसान कवायद है. कहानी मानो इस तथ्य की ओर संकेत करना चाहती है कि धर्माचार मृत्यु को न्यूनतम सम्मान देकर ही संपन्न नहीं हो जाता, बल्कि इसका वास्तविक लक्ष्य मौत की ओर रेंगते जीवन को संवार कर पुनः जीने के उल्लास और उत्साह से अभिषिक्त कर देना है. आज जिस तेजी से गरीबी रेखा के नीचे रहने वाली आबादी का प्रतिशत बढ़ता जा रहा है, उससे कफनकहानी एक गंभीर चेतावनी के रूप में समाज के सामने आती है.

सपष्ट है कि घटनाओं की विरलता के बावजूद अंतिम दृश्य तक आते-आते कहानी इकहरी व सीधी नहीं रहती. यह एक परिवार की त्रासदी नहीं, हमारी समाज-व्यवस्था के आंतरिक खोखलेपन की कहानी बन जाती है. घीसू-माधव के प्रथम परिचय में जातिसूचक शब्द का इस्तेमाल करने के कारण कफनकहानी दलित समाज की भयावह जीवन परिस्थितियों की आख्यायिका लग सकती है, लेकिन असल में इसे प्रेमचंद-साहित्य में चित्रित किसान की निरंतर क्षरणशील सामाजिक स्थिति के समानांतर देखा जाना चाहिए. हिंदू समाज की शुद्धतावादी सांस्कृतिक संरचना ठाकुर का कुंआं कहानी में ‘जंगी’,  और सद्गतिकहानी में ‘दुखी’ जैसे पात्रों की जिंदगी में एक अलग तरह की विभीषिका रचती है, लेकिन इनसे अलग कफनकहानी में घीसू-माधव की काहिली और तज्जन्य अभावग्रस्तता सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के शोषण की उस दुर्भेद्य कड़ी की ओर संकेत करती है जो सवा सेर गेहूं कहानी के शंकर की तरह पहले किसान को ऋणग्रस्तता की चपेट में लेकर मजदूर बनाती है, फिर कई पीढि़यों तक उसकी संतति को बंधुआ मजदूर बना कर उनसे जीने का अधिकार छीन लेती है. प्रेमचंद ने प्रत्यक्षतया घीसू-माधव को पीढ़ी दर पीढ़ी चलने वाली ऐसी किसी ऋणग्रस्तता और बंधुआगिरी के चक्कर में फंसा नहीं दिखाया है, लेकिन इस संभावना से भी इंकार नहीं किया है कि उनका यह कदम (कामचोरी) अमानुषिक व्यवस्था के सामने घुटने न टेकने का आत्मघाती निर्णय ही है. वे लिखते हैं - "जिस समाज में रात-दिन मेहनत करने वालों की हालत उनकी हालत से बहुत अच्छी न थी, और किसानों के मुकाबले में वे लोग जो किसानों की दुर्बलताओं से लाभ उठाना चाहते थे, कहीं ज्यादा संपन्न थे, यहाँ इस तरह की मनोवृत्ति का पैदा हो जाना कोई अचरज की बात न थी. हम तो कहेंगे घीसू किसानों से कहीं ज्यादा विचारवान था और किसानों के विचारशून्य समूह में शामिल होने के बदले बैठकबाजों की कुत्सित मंडली में जा मिला था.   उसे यह तसकीन तो थी ही कि अगर वह फटेहाल है तो कम से कम उसे किसानों की सी जी तोड़ मेहनत तो नहीं करनी पड़ती, और उसकी सरलता और निरीहता से दूसरे लोग बेजा फायदा तो नहीं उठाते.’’ इस प्रकार जैसे ही शंकर के सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न की अगली कड़ी के रूप में घीसू को देखने का बोध पनपता है, वह अपनी तमाम अजगरी-वृत्ति और संवेदनहीनता के बावजूद पाठकीय घृण का पात्र नहीं रहता, बल्कि एक सुलगता सवाल बन जाता है कि मनुष्य से उसकी मनुष्यता छीन कर संभ्रांत बनी रहने वाली इस आदमखोर व्यवस्था के संवर्धन में कहीं हमारी अपनी भूमिका तो नहीं?


कफनकहानी प्रेमचंद की कहानी-कला का उत्कृष्ट नमूना होते हुए भी कुछ सवाल मन में उठाती है, विशेषकर कहानी की बुनियादी घटना को लेकर कि क्या सच में कोई व्यक्ति इतना संवेदनहीन हो सकता है कि घर की गाड़ी खींचने वाली स्त्री अथवा किसी भी प्राणी की दर्दनाक मौत को यूं निर्विकार देखता रहे? दूसरे, भारतीय परिवारों और समाज की जैसी संरचना है, उसमें सामुदायिक भावना की प्रबलता है. परिवार में स्त्रियाँ न हों तो अड़ोस-पड़ोस की स्त्रियाँ हारी-बीमारी या प्रसूति में बिना बुलाए ही मदद को आ जाती हैं. ऐसे में बुधिया का अकेले तड़प-तड़प कर दम तोड़ना नितांत अविश्वसनीय लगता है. चूंकि कहानी दलित वर्ग की एक जाति विशेष को संबोधित है, इसलिए दलित चिंतक इन दोनों सवालों को आरोपों की तरह लेते हैं, और कहानी की वैधता को प्रश्नांकित करते हुए इसे समाज में द्वेष फैलाने की एक युक्ति मानते हैं. तमाम अभिधार्थों से विरत होकर यदि कहानी की अनुगूंजों को ध्यानपूर्वक सुना जाए तो कहानी जाति, गोत्र, और धर्म की हदबंदियों से मुक्त होकर समाज के हर उस आखिरी प्राणी की कहानी बन जाती है जिसकी मनुष्यता का आखेट सुनियोजित षड्यंत्रों के तहत बहुत सोच विचार कर पीढि़यों के किया जाता रहा है. अपनी आंतरिक संरचना में यह एक लाश को कफन मुहैया कराने की कहानी भर नहीं है, बल्कि इस कटु सत्य की ओर हमारी बेपरवाही का संकेत करती है कि हमारी समाज-व्यवस्था मर कर सड़ांध फैला रही है, और अपनी खामख्यालियों में जीते हुए हम न उसकी मौत के वस्तु सत्य को स्वीकार कर पा रहे हैं, न उसके अंतिम संस्कार की व्यवस्था कर रहे हैं, और न ही उसके स्थान पर किसी बेहतर वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार कर रहे हैं. 

इस प्रकार यह कहानी अपनी परिधि का विस्तार करते हुए किसी एक व्यक्ति की मौत की कहानी नहीं, व्यवस्था की मौत का हैबतनाक अफसाना बन जाती है.  
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प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभागमहर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा

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  1. कानो में कंगना और कहानी का प्लाट पर भी लिखने को कहिये ये कफ़न से करीब 20 साल तथा दस साल पुरानी होगी.
    भगवती प्रसाद वाजपेयी उग्र और विनोद शंकर व्यास निर्गुण की कहानियों पर लिखे तो बेहतर होगा हिंदी में बार बार कुछ चुनी कहानियों की ही चर्चा होती है जिनमे कई कमजोर भी है. नलिन जी की कहानी विष के दांत पर भी निगाह जाये यह वर्ष नलिन जी की जन्मशती है.

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  2. आपकी पहल के लिए हार्दिक बधाई। रोहिणी दी से अनुरोध है गदल, भेड़िये, उसने कहा था, लिहाफ, ईदगाह, सिक्का बदल गया, शाह की कंजरी आदि कहानियों को भी इस स्तंभ में स्थान दें। सादर।

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  3. इस रोचक पहल के लिए बहुत-बहुत बधाई।आदरणीया रोहिणी जी के इस आलेख को पढ़कर नवीन बोधगम्यता के साथ-साथ नवीन सजगता के दर्शन हुए। बेहद अच्छा लगा।

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  4. रोहिणी जी का कॉलम और समालोचन-एक नयी धुन और संवाद.बधाई आप दोनों को।

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  5. बेहतर शुरुआत हो सकती है,स्वागत रहेगा।

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  6. Rohini di has captured the finesse of the story and delved deeper into it. My sincere appreciation for it, But she has missed the location of Premchand which has rendered the story a naturalistic streak despite his socialist leanings . Will like to quipp commentary of Engles in similar situation .In a second letter of 1888 to Margaret Harkness, Engels criticizes her proletarian tale
    of the London streets (A City Girl) for portraying the East End masses as too inert. Picking up the novel's subtitle — 'A Realistic Story' — he comments: 'Realism to my mind implies, besides truth of detail, the truthful reproduction of typical characters under
    typical circumstances.' Harkness neglects true typicality because she fails to integrate into her depiction of the actual working class any sense of their historical role and potential development; in this sense she has produced a 'naturalist' rather than a 'realist'
    work.

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  7. रोहणी जी की आलोचना हमारे समय का हासिल है। बहुत वर्षों के बाद हिन्दी कहानी को लेकर इतनी शिद्दत के साथ वे काम कर रहीं हैं। ुनको पढ़ने की लालसा बनी रहेगी। - प्रदीप मिश्र

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  8. Rohini ji ki aalochna Shelia lajvab he kHani anek kono se khuli Chali jati h

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  9. हिंदी में प्रकाशित'कफ़न'को अनुवाद माना जाएगाा अथवा मूल रचना?

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