कवि मान बहादुर सिंह पर समालोचन में ही प्रकाशित अखिलेश
के संस्मरण पर विष्णु खरे ने कुछ
सवाल उठायें हैं.
अपना पक्ष रखते हुए अखिलेश और फिर विष्णु खरे.
विष्णु खरे :
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जबसे मानबहादुर जी की सरेआम हत्या हुई है,मुझे रघुवीर सहाय की अमर रचना 'रामदास' याद आती रही है.कुछ प्रश्न इस तरह हैं :
1. अखिलेशजी का यह वृत्तान्त क्या पहली बार 'समालोचन' में आया है या पूर्व-प्रकाशित है ?
2. पहली बार प्रकाशित हुआ है तो इतनी अंतरंगता और जानकारी के बावजूद
ऐसी देर क्यों लगी ? यदि पूर्व-प्रकाशित है तो मूलतः
कहाँ हुआ था और उस समय इसका क्या प्रभाव हुआ था ?
3. इस आलेख में भी छिपाया गया है कि उनकी हत्या क्यों हुई ? इस तरह उन्होंने आत्म-समर्पण क्यों किया और आत्म-रक्षा के लिए किसी को
पुकारा क्यों नहीं ?
4. यदि सैकड़ों चश्मदीद गवाह थे और उन्होंने कुछ नहीं किया तो वह कायर
रहे हों या हत्यारे से मिले या डरे हुए,वह accessory
after the fact हैं और उन्हें गिरफ़्तार किया जाना चाहिए था और उनपर
मुक़द्दमा चलाया जाना चाहिए था .
5. ज़ाहिर है कि पुलिस ने ऐसा नहीं किया.तो क्या यह हत्या पुलिस की
जानकारी में उसकी मिलीभगत से हुई ? क्या किसी वरिष्ठ
अधिकारी और चुने हुए विधायक-सांसद ने जाँच की कोई माँग या पहल नहीं की ? अख़बारों की क्या भूमिका रही ?
6. कुछ पाठकों ने इस ''आलेख'' की प्रशंसा में क़सीदे पढ़े हैं जबकि स्वयं अखिलेशजी न उपरोक्त प्रश्नों को
उठाते हैं,न उन्हें लेकर कोई आत्म-भर्त्सना करते हैं,न हत्यारे की शनाख्त का इशारा करते हैं.तो फिर क्या यह सिर्फ सुर्खरू और
अतिरिक्त प्रसिद्द होने के लिए एक महफूज़,गुडी-गुडी संस्मरण
है ? इस इन्टरनेट युग में कोई छद्मनाम से ही सच क्यों नहीं
कह रहा ?क्या हत्यारा अब भी जीवित है ? क्या आज भी उसका इतना आतंक है ? क्या कोई इतना भी
नहीं बतला सकता कि किस पर शक़ किया जाता रहा है ?
मानबहादुर की दिनदहाड़े सार्वजनिक सरेबाजार हत्या उनके कस्बे,हमारे सारे तंत्र और हिंदी लेखकों की कायरता,पाखण्ड
और धूर्तता को 1997 से उधेड़कर रख दे रही है.
उस पर कोई पुरस्कार नहीं लौटाया गया जबकि वह दाभोलकर,पानसरे और कलबुर्गी से ज्यादा भयावह और खुल्लमखुल्ला है.
मानबहादुर की हत्या की सार्वजनिक हक़ीक़त क्या कभी जानी नहीं जा सकेगी ?
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अखिलेश :
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आदरणीय विष्णु जी आपने सूखे ताल
मोरनी पिंहके को लेकर कुछ प्रश्न किये हैं, जिनके विषय में
क्रमवार मेरा कहना है –
आपके प्रश्न एक और दो के उत्तर एक साथ देना बेहतर
रहेगा : उ. प्र. के सुल्तानपुर जनपद से प्रकाशित होने वाली पत्रिका युग तेवर
मान बहादुर जी पर एक विशेषांक प्रकाशित करने जा रही है, उसके संपादक के आग्रह पर
यह लेख लिखा गया है और संपादक से अनुमति लेकर, उनकी पूरी सहमति से मैंने इसको समालोचन
को दिया है. वह विशेषांक भी बहुत जल्द छप कर आ रहा है.
आपने कहा है कि इसको लिखने
में `इतनी अंतरंगता और जानकारी के
बावजूद ऐसी देर क्यों लगी ?’ विनम्रतापूर्वक कह रहा हूँ कि हमारे भीतर बहुत
से अनुभव और संवेदन अपनी छाप डालते हैं किन्तु वे तत्काल रच दिए जाते हों, ऐसा नहीं
होता है. इस प्रसंग में भी यह हुआ – मान बहादुर जी के जीवन और मृत्यु को लेकर मेरे
अन्दर अनुभव एवं संवेदनाएं थीं और जब युग
तेवर की ओर से मान बहादुर सिंह विशेषांक के लिए लिखने के लिए कहा गया तो वे
संगुम्फित होकर रूपाकार लेने लगीं जिसका परिणाम है यह संस्मरणात्मक आलेख.
प्रश्न -3 में आपने लिखा कि आलेख में छिपाया गया
है कि उनकी हत्या क्यों हुयी ? उस चीज को क्यों छिपाया जायेगा जो जगजाहिर है.
दरअसल हत्या किसी बड़े सामाजिक राजनीतिक साहित्यिक मुद्दे पर नहीं हुयी थी, बतौर
प्राचार्य मान बहादुर जी ने हत्यारे की मर्जी मुताबिक साइकिल स्टैंड का ठेका,
नियुक्ति वगैरह का निर्णय नहीं लिया था, इसने शायद हत्यारे को उकसाया था. संस्मरण
लिखते हुए मैंने इसके बजाय हत्या की बेरहमी और हजारों लोगों के मूकदर्शक बने रहने
की कायरता को उभारना ज्यादा ज़रूरी समझा. आपके इस सवाल का अन्य हिस्सा कि मान
बहादुर जी ने इस तरह आत्म समर्पण क्यों किया और आत्मरक्षा के लिए किसी को पुकारा
क्यों नहीं ? अब आत्म समर्पण क्यों किया इसका सही जवाब वही दे सकते थे जो अब नहीं
रहे, वैसे एक अनुमानित वजह मैंने आलेख में कही भी है. दूसरी बात आत्मरक्षा के लिए
पुकारने की तो किसको पुकारते? हजारों लोग देख रहे थे सब कुछ. क्या वाकई पुकारने की
जरूरत थी. क्या वाकई वे मूकदर्शक किसी पुकार की प्रतीक्षा में ही कायर बने हुए थे
?
प्रश्न -3 और 4 में आपने कानून, मुकदमों, जांच
आदि के बारे में पूछा है. इन चीजों में मेरी दक्षता नहीं है. वैसे ज़रूरी भी नहीं
है कि एक संस्मरण में सभी बातें सम्मिलित हों.
आपने शुरू में लिखा है कि जबसे मान बहादुर जी की हत्या
हुयी है आपको रघुवीर सहाय की कविता रामदास याद आती रही है. आप इतने
विचलित हुए उस कत्ल से तो आपको याद ही होगा, इसलिए भी कि सभी जानते हैं कि आपकी
स्मरणशक्ति विलक्षण है, कि हत्यारा बहुत दिनों तक फरार था. देश भर के
साहित्यकारों, प्रेस आदि के दबाव से अंततः उस पर रासुका लगाया गया. बाद में उसने
अदालत में समर्पण किया और गवाहों के अभाव में तमाम अपराधियों की तरह बरी हुआ और एक
दिन एक दूसरे अपराधी द्वारा मार दिया गया. जाहिर है कि ये सारी बातें लिखी जा सकती
थीं किन्तु दोहराना चाहूँगा कि किसी भी एक रचना में समस्त ब्यौरे नहीं समा सकते
हैं. वैसे आप चाहें तो इसे मेरी लेखकीय अक्षमता भी मान सकते हैं .
हाँ इस बात पर मैं अवश्य आपका ध्यान आकृष्ट करना
चाहूँगा कि आपने जो कहा है कि उनकी ह्त्या `हिन्दी लेखकों की कायरता, पाखण्ड और
धूर्तता को 1997 से उधेड़ कर रख दे रही है’ पूर्णसत्य नहीं है. आपने यह भी लिखा
है कि उस पर कोई पुरस्कार नहीं लौटाया गया. आप जानते ही हैं कि प्रतिरोध के तरीक़े
सदैव एक ही नहीं होते हैं. कभी कोई ढंग होता है तो कभी कोई ढंग. पिछले दिनों
असहिष्णुता का विरोध लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा कर किया तो मान
बहादुर जी की हत्या को भी लेखकों के प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था. देश के
विभिन्न अंचलों से आवाजें मुखर हुयी थीं. स्वयं दिल्ली जहाँ तब आप रहते थे,
साहित्यकारों का एक बड़ा जत्था प्रतिरोध में निकल पड़ा था, जिसमें शामिल थे :
विश्वनाथ त्रिपाठी, इब्बार रब्बी, असगर वजाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, अजय तिवारी,
सुरेश सलिल, अजेय कुमार, चंचल चौहान, संजय चतुर्वेदी आदि. साथ में एक नाट्य मंडली
भी थी. ये सारे लोग दिल्ली से सुल्तानपुर पहुंचे, वहां से बेलहरी जहाँ हत्या हुयी
थी. यहाँ नारे, भाषण और नुक्कड़ नाटक हुए. फिर सारे लोग मान बहादुर जी के गाँव
बरवारीपुर हाथों में प्रतिरोध की तख्तियां लिए हुए मौन जुलूस के रूप में गए. रात
में तहसील कादीपुर में कवि सम्मलेन हुआ.
लौटते वक्त राजधानी लखनऊ के हजरतगंज में गांधी जी की मूर्ति का पास धरने का
कार्यक्रम हुआ जिसमें अनेक रचनाकार शामिल थे .
बहरहाल आपके प्रश्नों के लिये सचमुच ह्रदय से
आपका आभारी हूँ कि इस बहाने कुछ अन्य तथ्यों का भी जिक्र करने का मौका मिला. अंत
में एक अनुरोध : मेरे उत्तर को आप मेरी चुनौती न मानें क्योंकि आपसे बहस करने की,
आपको चुनौती देने की मुझमें न लियाकत है न हिम्मत. वस्तुतः यह महज स्पष्टीकरण है
जो आपकी वजह से संभव हो सका.
अखिलेशजी के मूल संस्मरण की ‘’हत्यारा
फरार था’’ से लेकर ‘’सर धड़ से अलग कर दिया गया था’’ - यह नौ पंक्तियाँ ‘’क्षत्रिय’’ मानबहादुर की
सार्वजनिक हत्या के बारे में हैं. इनमें उन्होंने दो बार लिखा है : ‘’हत्यारा फरार
था’’,...’’परन्तु मान बहादुर सिंह का कातिल फरार था’’
इसके बाद जब कुछ प्रश्न उठाए गए तब अखिलेशजी कह रहे हैं कि वह किसी ‘’युग तेवर’’ नामक पत्रिका के मानबहादुर विशेषांक के लिए यह संस्मरण लिख रहे हैं. आश्चर्य यह है कि जो लेखक स्वयं विख्यात गल्प-गद्यकार हो और ‘तद्भव’ सरीखी पत्रिका भी संपादित-प्रकाशित करता हो, उसने इन 19 वर्षों में किसी अन्य पत्रिका तथा स्वयं ‘’तद्भव’’ में मानबहादुर की हत्या पर पहले कभी क्यों नहीं लिखा ? क्या ‘’तद्भव’’ के कुछ पृष्ठ मानबहादुर को समर्पित नहीं किए जा सकते थे?
इसके बाद जब कुछ प्रश्न उठाए गए तब अखिलेशजी कह रहे हैं कि वह किसी ‘’युग तेवर’’ नामक पत्रिका के मानबहादुर विशेषांक के लिए यह संस्मरण लिख रहे हैं. आश्चर्य यह है कि जो लेखक स्वयं विख्यात गल्प-गद्यकार हो और ‘तद्भव’ सरीखी पत्रिका भी संपादित-प्रकाशित करता हो, उसने इन 19 वर्षों में किसी अन्य पत्रिका तथा स्वयं ‘’तद्भव’’ में मानबहादुर की हत्या पर पहले कभी क्यों नहीं लिखा ? क्या ‘’तद्भव’’ के कुछ पृष्ठ मानबहादुर को समर्पित नहीं किए जा सकते थे?
यह कबसे ‘’जग जाहिर’’ है कि
प्राचार्य मानबहादुर की हत्या कॉलेज के साइकिल-स्टैंड के ठेके जैसे banal मसले को
लेकर हुई थी? यदि ‘’दरअसल हत्या किसी बड़े सामाजिक राजनीतिक साहित्यिक मुद्दे पर
नहीं हुई थी’’ तो उसे लगातार एक वामपंथी अर्ध-बलिदान का सांकेतिक रंग क्यों
दिया जाता रहा है ? क्या कॉलेज मानबहादुर का था / है? उसका कोई नाम भी है?
मैनेजमेंट का रवैया क्या था? उस स्टैंड से आखिर कितनी आमदनी थी कि एक अड़ियल
प्रिंसिपल की सीधी ऐसी निर्भीक हत्या करनी पड़ी ? मानबहादुर को मुक़द्दमेबाज़ी का
इतना चस्का क्यों था? वह मुक़द्दमे दीवानी थे या फौजदारी?
एक आदमी जिसे एक बकरी की तरह घसीट
कर सरेआम हत्या के लिए एकमात्र हत्यारा ले जा रहा हो, क्या वह आर्तनाद भी नहीं
करेगा? वह अपने को बचाने की हर कोशिश और गुहार भी नहीं करेगा? उसने इस तरह घसीटा
जाना क्यों मंज़ूर किया?
अखिलेशजी अब कह रहे हैं कि हत्यारा
फरार तो था लेकिन उसे गिरफ्तार किया गया, वह बेदाग़ छूटा और फिर उसकी भी हत्या की
गई. यह उन्होंने अपने मूल संस्मरण में क्यों छिपाया?
स्पष्ट है कि बेलहरी कस्बे के
सैकड़ों बाशिंदों की तरह वह भी सजायाफ्ता और बाद में मक़तूल पहले कातिल का नाम जानते
हैं. फिर उसे अपने उत्तर में अब भी क्यों दबा रहे हैं? कातिल के कातिल का नाम भी
क्यों नहीं ले रहे हैं? उसका क्या हुआ?
अखिलेशजी कहते हैं कि मानबहादुर ही
बता सकते थे कि वह बिना प्रतिवाद और संघर्ष क्यों चले गए,लेकिन फिर अखिलेश जी ही
मानबहादुर और मानवता की आत्मा में प्रवेश करते हैं "शायद उनको अभी भी मनुष्य
जाति की करुणा और सदाशयता पर विश्वास था कि कोई उनका क़त्ल क्यों करेगा...’’
यह चिरकुट तर्क पोच है कि संस्मरण
में सब कुछ नहीं आ सकता. ’’सब कुछ’’ की बात कर ही कौन रहा है ? खैनी, भाँग, ज़बरदस्ती
मटन/चिकन दो प्याज़ा खाने के शब्दापव्ययी ‘’संस्मरणों’’ में कौन-सा अनिवार्य औदात्य
है? मानबहादुर की हत्या उनके ‘’जीवन’’ की
सबसे ‘’महत्वपूर्ण’’ त्रासदी है. उसे भावुकतापूर्ण बलाटालू सान्ध्यभाषा में नहीं
निपटाया जा सकता. उसके निर्मम, निडर ब्यौरे हर महत्वाकांक्षी संस्मरण में दिए ही
जाने चाहिए. खासकर अखिलेशजी जैसे लेखक-सम्पादक द्वारा, जो तुलसीराम सरीखे महान
लेखक को अपने यहाँ छाप चुका हो, वरना वह शीर्षक की ‘’सूखे ताल
मोरनी पिंहके’’- नुमा ही रह जाएँगे.
ताहम मैं अखिलेशजी का वाक़ई आभारी
हूँ कि उनके संस्मरण और प्रत्युत्तर से शायद मुझे ही नहीं, हिंदी लेखकों को भी
महत्वपूर्ण जानकारी मिली है. ’’युग तेवर’’ के प्रस्तावित मानबहादुर अंक को लेकर अब
मैं बहुत उत्सुक हूँ.
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समालोचन, आभार.
जवाब देंहटाएंसही अखिलेश जी । संस्मरण में सब कुछ आ जाए जरूरी नहीं । यह आखिर एक विधा है और हर विधा की तरह इस के लेखक की कुछ सीमाएं भी हो सकती है और कुछ डिस्क्रीशन भी । यह संस्मरण मुझे प्रेरक लगा
जवाब देंहटाएंअखिलेश जी का आलेख बेजोड़ है.. मानबहादुर जी की जमींन की गहरी शिनाख्त करता हुआ एक यादगार संस्मरण..../. हत्या के बाद लेखको का जो दल सुल्तानपुर गया था उसकी अगवानी और व्यवस्था के लिए मै एक दिन पहले ही पहुच गया था बेलहरी बरुवारिपुर और कादीपुर के karयक्रमो में शामिल था उस समय के कथादेश सितम्बर केअंक में एक छोटी tippadi भी मैंने लिखा था.... जेएनयू के नर्मदा होस्टल वाले मेरे कमरे पर एक बार वेआये थे..उनके साथ. त्रिलोचन जी के गाँव की यात्रा मेरे लिए एक अविस्मरणीय संस्मरण है उस यात्रा केबारे में मानबहादुर जी ने सर्वनाम में लिखा था.....यादो को याद दिलाने के लिए अखिलेश जीको बहुत बहुत बधाई.....
जवाब देंहटाएंअखिलेश जी के संस्मरण को पढ़कर मैं भी जहाँ इस खौफनाक ह्त्या को लेकर बेहद बेचैन हुआ, वहीँ पैदा हुए कुछ सवालों ने मुझे भी बहुत परेशान किया कि एक इतने मानवीय कवि को आखिर मुकदमों की इतनी लत क्यों थी ? दूसरी बात यह कि क्या उन जैसे मानवीय कवि का आम जनता के बीच इतना परायापन था कि कोई एक आदमी भी उनको बचाने के लिए खुद को जान जोखिम में डाल सका ? अगर यही सही है तो क्या इसका यही मतलब है कि कविता का कोई प्रभाव नहीं होता ? या मान बहादुर कवि मानवीय थे मगर निजी जीवन में कुछ और थे अथवा कुछ और समझे जाते थे ?
जवाब देंहटाएंविष्णु खरे जी के सवाल और अखिलेश जी के जवाब दोनों ज़रूरी हैं। मेरे खयाल से यह संस्मरण इस चर्चा के साथ छपे तो पढ़नेवालों का अधिक हित हो। रचनाओं के कितने पहलू हो सकते हैं यह चर्चा इस पर अच्छी रौशनी डालती है।
जवाब देंहटाएंसंस्मरण तो मार्मिक है ही, अखिलेश जी द्वारा खरे जी को दिया गया उत्तर और भी लाजवाब है .
जवाब देंहटाएंअखिलेश जी का उत्तर सन्तुलित और शालीन है । उन के लेखन की प्रशंसा करता हूँ ।
जवाब देंहटाएंअखिलेश जी ने उचित और सम्यक उत्तर देकर काफी जिज्ञासाओं को शांत कर दिया है ।
जवाब देंहटाएंउनके संस्मरण और प्रत्युत्तर से वाकई हिंदी लेखकों को भी महत्वपूर्ण जानकारी मिली है. विष्णु खरे के सवाल बने रहें .. उनके सवाल जिन बहसों की बुनियाद बनते हैं वह समय का महत्त्वपूर्ण इनपुट होता है ..
जवाब देंहटाएंमैं आचार्य विष्णु खरे के सवाल व आपत्तियों को हिंदी विमर्श की स्थायी उपलब्धियां करार देता हूँ .. हर इस उस मौके पर वे सवाल पूछना नहीं भूलते .. आपके सवाल तलवार बन सबकी गर्दनों पर लटके रहें .. यह भी कहता हूँ कि यह आपका परिष्कृत योगदान है ..
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