हिंदी सिनेमा की महान
हस्ती ‘किशोर साहू’ के महत्वकांक्षी जन्मशती समारोह के लिए किये गये प्रयासों का
यह हस्र होगा किसी ने सोचा न था. यह पूरा प्रकरण किसी खोजी उपन्यास से कम हैरतंगेज़
नहीं और परिणति जैसे किसी त्रासदी नाटक का अंत हो. साहित्य, कला और संस्कृति के प्रति
सत्ता में आज जैसी संवेदनहीनता ( इसे हिक्कारत भी पढ़ सकते हैं) दीखती है कभी नहीं दिखी.
विष्णु खरे की टिप्पणी
एक जन्मशती की
भ्रूणहत्या
विष्णु खरे
सारा प्रकरण पिछले वर्ष जुलाई में
शुरू हुआ था. छत्तीसगढ़ और मध्यप्रदेश के कुछ उत्साही मित्रों ने मिल-बैठकर तय किया
कि दोनों प्रदेशों की साझा
सिने-युग-प्रवर्तक प्रतिभा, जिसे जनता ने ‘’आचार्य’’ की मानद उपाधि दे डाली थी, किशोर
साहू की जन्मशती उनकी महान लोकप्रिय उपलब्धियों के अनुरूप पैमाने पर छत्तीसगढ़ की
राजधानी रायपुर तथा किशोर साहू के प्रारम्भिक जीवन से जुड़े नगरद्वय रायगढ़ तथा
राजनांदगाँव सहित सारे प्रांत में मनाई जाए. व संभव हो तो कुछ आयोजन
मध्यप्रदेश और महाराष्ट्र में भी हों, विशेषतः भोपाल और नागपुर तथा अनिवार्यतः मुम्बई
फिल्म-जगत में.
साफ़ है कि यह जन्मशती छत्तीसगढ़
सरकार की आर्थिक और नैतिक मदद तथा संरक्षण के बिना मनाई नहीं जा सकती थी. एक बड़ा
उदघाटन समारोह होना था जिसमें किशोर साहू के दिलीप कुमार और कामिनी कौशल
जैसे जीवित सहकर्मियों और साहू-वंशजों की उपस्थिति अनिवार्य थी तथा उनकी फिल्मों
पर आधारित विभिन्न दृश्य-श्रव्य कार्यक्रमों की कल्पना की गयी थी. एक प्रदेशव्यापी
चलित ‘किशोर साहू फिल्म समारोह’ होना था, कुछ संगोष्ठियों की योजना बनी, और
भी बहुत कुछ करने-होने को था. ज़ाहिर है कि वर्ष भर आयोजित इन कार्यक्रमों पर इतना
खर्च होना था कि प्रदेश के मुख्यमंत्री और संस्कृति-मंत्री के अकुंठ सहयोग के बिना
कुछ भी संभव नहीं था.
इसके लिए दौड़-धूप छत्तीसगढ़ लोक संस्कृति
अनुसंधान संस्थान के संचालक तथा कवि-साहित्यकार रमेश अनुपम तथा कवि-उपन्यासकार
एवं मुख्यमंत्री के विधानसभा-सचिव संजीव बख्शी कर रहे थे जो, स्वाभाविक है,
डॉ रमण सिंह के अत्यंत समीप और विश्वस्त समझे जाते हैं. प्रदेश के तत्कालीन
संस्कृति-मंत्री अजय चंद्राकर ने 22 जुलाई 2014 को सार्वजनिक रूप से किशोर
साहू जन्मशती आयोजन को सम्पूर्ण सहयोग देने का आश्वासन दिया था. बाद में
उन्हें अधिक महत्वपूर्ण प्रभार देकर उनसे
संस्कृति विभाग ले लिया गया किन्तु इतने अरसे के बाद कि उस दौरान वह चाहते तो बहुत
कुछ प्रारंभिक हो सकता था.
यह अब तक एक पहेली है कि अजय
चंद्राकर ने वचन देकर कोई पहल क्यों नहीं की. रमेश अनुपम का कहना है कि उन्होंने
संस्कृति विभाग के कई चक्कर काटे किन्तु उन्हें अस्पष्ट तथा टरकाऊ उत्तर ही हासिल
हुए. मुख्यमंत्री के विश्वासु होते हुए भी संजीव बख्शी अत्यंत विनम्र और मृदुभाषी
हैं और उन्होंने भी अपने ढंग से पता लगाने की कोशिश की कि संस्कृति विभाग में
किशोर साहू सदी को लेकर आख़िर क्या सोच चल रहा है लेकिन वह भी असफल रहे.
ऐसी स्थिति में कई कॉन्सपिरेसी
थेओरीज़ चलने लगती हैं. कहा गया कि शायद संस्कृति मंत्री और उनका विभाग किन्हीं
बाहरी अवांछित व्यक्तियों के हाथ में संभावित राशि न देकर स्वयं अपनी परिकल्पना के
कार्यक्रम पर खर्च करना चाहते रहे होंगे. आशंकित भ्रष्टाचार के किस्से तो सर्कुलेशन
में आ ही जाते हैं. यदि ऐसा ही मंशा है तो साफ़ बात क्यों नहीं होती ? किशोर
साहू की आड़ में किसी को कुछ लाख कमाने हों तो किसे एतराज़ है लेकिन कम-से-कम काम तो शुरू होने दो. एक थेओरी, जो
राजनीतिक रूप से कुछ विश्वसनीय भी थी, यह भी थी की किशोर साहू की जन्मशती यदि बड़े
और प्रदेशव्यापी स्तर पर मनाई गई तो लाखों की आबादीवाले साहू समाज में एक नया
गर्व-संचार, अस्मिता-बोध और जागरण पैदा होंगे
जो शायद राजनीतिक रूप से कुछ तत्वों के लिए नुक़सानदेह साबित हों. साहू
बिरादरी को किशोर जैसा नायक दिया ही क्यों जाए ?
उधर फिल्म-क्षेत्र में लोकप्रिय न
केवल किशोर साहू के परिवार से भावी आयोजकों का संपर्क स्थापित हुआ बल्कि एक
रोमांचक खोज यह हुई कि आचार्य किशोर साहू की सम्पूर्ण आत्मकथा की टाइप्ड प्रति मूल
हिंदी में मिल गई जिसके महत्व को अतिरंजित नहीं किया जा सकता. इस खोज ने छत्तीसगढ़
में एक नई सनसनी फैला दी. किशोर साहू का क़द और बढ़ गया. भारत का प्रत्येक
फिल्म-प्रेमी और अध्येता भी उसे पढने का
उत्सुक हो उठा. लेकिन प्रश्न यह था कि जब अभी जन्मशती-समारोह का अता-पता ही नहीं
है तो आत्मकथा को कौन कब कैसे प्रकाशित करे ?
सुना है कि छत्तीसगढ़ के नए संस्कृति-मंत्री
अपने प्रभार को लेकर इतने कोरे और अछूते हैं कि मार्गदर्शन के लिए पूर्णरूपेण
मुख्यमंत्री पर आश्रित हैं. इसमें कोई लज्जा की बात नहीं है किन्तु वहाँ भी
विचित्र यह है कि डॉ रमण सिंह के बारे में बार-बार यह कहा जाता रहा कि वह किशोर
साहू जन्मशती को लेकर बहुत सकारात्मक और उत्साहित हैं लेकिन स्वयं संजीव बख्शी
उनसे भी कुछ नहीं करवा पा रहे हैं. बारंबार आश्वासनों के बावजूद सारा मामला
लेशमात्र आगे नहीं बढ़ता.कोई अनागीर भी था.
क्या डॉ. रमण सिंह भी किशोर साहू
जन्मशती को लेकर अंदरूनी तौर पर उदासीन या होस्टाइल हैं ? या उनकी दिलचस्पी
छत्तीसगढ़ के इस महान फिल्म निर्माता-निर्देशक-नायक-अभिनेता में है ही नहीं है ?
फिर वह अभिनय क्यों करते हैं कि कुछ करेंगे, कुछ करेंगे ? उनके हवाले से कई वादे
किए जाते हैं जिनके पूरे होने की शुरूआत तक नहीं होती ? रमेश अनुपम और संजीव बख्शी
बड एबट-लुइस कोस्टेलो या लॉरेल-हार्डी की तरह रायपुर में भटकते रहते हैं.या यह भी
किसी रहस्य का हिस्सा हैं ?
22 अक्टूबर को किशोर साहू जन्मशती
तिथि थी. बताया जा रहा है कि उस दिन छत्तीसगढ़ के शायद किसी भी अखबार में उसका कोई
ज़िक्र तक नहीं हुआ. कायदे से उस दिन छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री और संस्कृति-मंत्री
को कुछ राष्ट्रीय दैनिकों में एक किशोर साहू परिशिष्ट प्रकाशित करवाना चाहिए था और
रायपुर में एक भव्य उदघाटन-समारोह होना चाहिए था. विश्वास नहीं होता कि कोई प्रदेश
अपनी इतनी बड़ी प्रतिभा के साथ ऐसा अवमाननापूर्ण व्यवहार कर भी सकता है. रमण सिंह
को अर्जुन सिंह के मॉडल पर चलनेवाला प्रबुद्ध मुख्यमंत्री माना जाता है.
रमेश अनुपम-संजीव बख्शी की
पुशमी-पुलयू थ्री-लैगेड रेस टीम ने एक विचित्र किन्तु अंतिम निजी कोशिश की है. सुनते
हैं उन्होंने किशोर साहू के पुत्र विक्रम साहू से उनके पिता की आत्मकथा की
पाण्डुलिपि कहीं से कुछ अग्रिम राशि देकर दिल्ली के राजकमल द्वारा प्रकाशित करवाने
के लिए खरीद ली है. शायद यही दोनों किशोर-साहू-एवं-फिल्म-विशेषज्ञ उसका सम्पादन भी
कर रहे हैं. यदि यह सच है और वह ऐतिहासिक आत्मकथा प्रकाशित हो जाती है तो किसे
मालूम, मुख्यमंत्री उससे प्रेरित होकर शर्माहुजूरी में ही सही लेकिन एक इज्ज़तबचाऊ
छोटा-मोटा जन्मशती-समारोह रमेश अनुपम-संजीव बख्शी और उनकी टीम से करवा ही डालें. वर्ना
उनके प्रदेश में ऐन प्रसूति के दिन ज़च्चा-बच्चा की मृत्यु
की एक परंपरा है ही.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में रविवार (२५/१०/१५) को प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में रविवार (२५/१०/१५) को प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
कला, संस्कृति, साहित्य और अब तो रैशनलिटी के प्रति भी सत्ता की हर तरह की शून्यता विचलित करती है।
जवाब देंहटाएंसत्तासीन लोग कियुं ai
जवाब देंहटाएंपूरे प्रसंग में राजनीति की बू है। मैं १९५८ में विले पार्ले में पान की एक दूकान पर उनसे मिला था। सिगरेट ले रहे थे।इतने महान अभिनेता पर एकदम सहज।
जवाब देंहटाएंभीतर ही भीतर कुछ ऐसा रहा होगा जो सामने उदासीसनता के रूप में आया .. अविश्वास भी एक कारण हो .. किशोर साहू जी को नमन
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