विष्णु खरे : ख़ूनी राष्ट्र-प्रसव से उपजी विवादित महाफ़िल्म







’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’ अपनी सिनेमाई-कला में अद्भुत कृति है पर अपनी बनावट में  समस्यामूलक भी. 1915 की इस मूक फ़िल्म को देखना सच में किसी महाकाव्य को पढने जैसा है.

मीमांसक और कवि विष्णु खरे जिस तरह से इस फ़िल्म के बहाने भारतीय महाद्वीप से उपजे तीन राष्ट्रों में इस तरह की किसी सिनेमाई कृति की कमी की ओर ध्यान खींचते हैं, वह गौरतलब ही नहीं मानीखेज भी है. खरे आज अनुभव और अध्यवसाय के जिस पड़ाव पर हैं उनसे किसी भी महानतम के घटित होने की उम्मीद की जा सकती है.  बेहतरीन आलेख.


ख़ूनी राष्ट्र-प्रसव से उपजी विवादित महाफ़िल्म                                       
विष्णु खरे


संसार के शायद किसी भी राष्ट्र का निर्माण शांतिपूर्ण साधनों से नहीं हुआ. हम भारत को ऋग्वेद के बाद ‘’बना’’ मानें या ‘’महाभारत’’ के बाद, स्पष्ट है कि वह कई युद्धों के बाद एक देश की विकासमान, परिवर्तनशील अवधारणा और आकृति पा सका. उसी ‘’भारत’’ से 1947 में दो हिंसक ‘’राष्ट्र’’ जन्मे और फिर 1971 में दोबारा ख़ून-ख़राबे के बीच एक तीसरा देश पैदा हुआ.

भारत जगद्गुरु है और हिंदुत्व ब्रह्माण्ड का महानतम धर्म है’’ इससे आगे हमें विश्व-इतिहास का न ज्ञान है, न जानने की इच्छा हैं, न साहस. हम यूरोप और अमेरिका, विशेषतः उनके अंग्रेज़ीभाषी हिस्सों, के मानसदास हैं लेकिन उनकी तारीख़ और तहजीब को लेकर सफ़ाचट हैं. ’’अमेरिका’’ शब्द का, जो अब हमारी सुविधानुसार रूढ़ हो चुका है,  हमारा इस्तेमाल भी ग़लत है, वह मूल शब्द यू.एस.’’ या ‘’यूनाइटेड स्टेट्स (ऑफ़ अमेरिका)’’ का संक्षिप्त हिन्दीकरण है. यदि हम पूरा, सही अनुवाद करें – ‘’अमेरिकी संयुक्त-राज्य’’ या ‘’संयुक्त-राज्य अमेरिका’’ – तो विचारशील दिमाग़ में सवाल उठेगा कि यह राज्य कौन-से हैं जो क्या कभी संयुक्त नहीं थे और एक-दूसरे से अलग होना-रहना चाहते थे? यह इतिहास बेहद पेंचीदा है और शायद यहाँ हमारे पूरे जानने-लायक़ भी नहीं है.

1857 में अंग्रेज़ों द्वारा हिन्दू-मुस्लिम साझा स्वातंत्र्य-संग्राम को नाकाम करने के बाद जब नामालूम कौन सी दफ़ा भारत फिर एक ‘’नया’’ देश बनने जा रहा था, अमेरिका में 1861 से 1865 के बीच एक रक्तरंजित गृहयुद्ध हुआ. कारण कई थे : उत्तरी और दक्षिणी राज्यों के बीच आर्थिक और सामाजिक फ़र्क़ थे, राज्यों और संघीय सरकारों के अधिकारों को लेकर मतभेद थे, राष्ट्रपति के रूप में 1860 में अब्राहम लिंकन का चुनाव विवादग्रस्त था, लेकिन दो अन्य बेहद विस्फोटक कारण थे कालों को गुलाम बनाना चाहने और न चाहने वाले राज्यों के बीच जंग और इसी के साथ-साथ गुलाम बनाने की रवायत को मिटा देने के आन्दोलन का लोकप्रिय विस्तार, जिसमें हैरिअट बीचर स्टोव के अमर उपन्यास ‘’अंकल टॉम्स कैबिन’’ की, जिसका मामला  अलग है, अहम सकारात्मक भूमिका रही. 1860 के पहले ही सात राज्य साउथ कैरोलाइना, मिसीसिपी, फ्लोरिडा, अलाबामा, जॉर्जिया, लुइज़िआना और टैक्सस संघीय राज्य से टूटने का एलान कर चुके थे. चार राज्य इनमें और आ मिले. बाक़ी 22 बहुमत में उनसे अलग और विपक्ष में रहे.

उस समय काले गुलामों की संख्या 35 लाख थी. उनके पलायन, हुक्मउदूली या विद्रोह को कुचलने के लिए गोरे अमेरिकन नागरिकों ने ‘’कू क्लक्स क्लैन’’ नामक भयानक सफ़ेद नक़ाबपोश गुप्त संस्था बनाई थी जो रात को कालों की बस्तियों पर हमला कर उन्हें फाँसी देती थी या घर-परिवार समेत उन्हें जला डालती थी. यह अब भी कहीं-कहीं मौजूद है. उधर  गृह-युद्ध में मैदान, जेल और अस्पताल में मारे जानेवालों की तादाद 6 लाख 33 हज़ार रही. इतने अमरीकी सैनिक उसके बाद के किसी भी एक युद्ध में अब तक नहीं मरे हैं. आज भी गोरे अमेरिकी मानस का एक हिस्सा भावनात्मक तौर पर इसे और रंग तथा नस्ल को लेकर उत्तर-दक्षिण में विभाजित है. गुलामी को मिटा दिया गया है लेकिन अश्वेतों के भेद-भाव-भरे, अन्याय-अपमानपूर्ण कड़वे यथार्थ का हिंस्र सवाल अपनी जगह बना हुआ है.

इस जटिल, संवेदनशील इतिहास पर आज से सौ वर्ष पहले अमेरिकी निदेशक डी.डब्ल्यू.ग्रिफ़िथ ने ‘’दि क्लैंसमैन’’ नामक नाटक पर आधारित तीन घंटे लम्बी फिल्म ‘’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’ बनाई जो अपने सन्देश और रुझान के कारण आज भी जितनी विवादास्पद है, फिल्म-कला को लेकर उतनी ही महाकृति मानी जाती है. कहा गया है कि इसे देखना किसी संगीत रचना के प्रारंभ को, चाक के पहले प्रयोग को, भाषा-वैदग्ध्य के प्रादुर्भाव को, किसी कला के जन्म को देखने की तरह है. एक यह भी मत है कि इस फिल्म को दरकिनार तो नहीं कर सकते लेकिन समीक्षकों के लिए भारी समस्या यह है इसके निस्संकोच नस्लवाद का क्या करें. बेशक इसने सिने-कला पर अपना स्थायी प्रभाव छोड़ा है लेकिन इसके बावजूद कि अब वह सार्वजनिक संपत्ति है और उसे इन्टरनैट पर इसी वक़्त  मुफ्त देखा जा सकता है, उसे कितने दर्शक देखते हैं और उसका नैतिक-सामाजिक मूल्यांकन क्या होता है ? उसके युद्ध-दृश्यों और यथार्थ-चित्रण की बहुत प्रशंसा हुई है जिन्हें आज की पीढी के लिए सपने में गृह-युद्ध देख पाने के बराबर माना गया है.

ओर्ज़न वेल्स की ‘सिटीज़न केन’ से 25 वर्ष पहले बनाई गयी यह फिल्म,जो तकनीक के स्तर पर वेल्स की टक्कर की है, ग्रिफ़िथ के अपने गहरे, लगभग फाशिस्ट, दक्षिणी राज्यों के एक गोरे नागरिक के  पूर्वग्रहों और अपने ज़माने के प्रतिक्रियावादी मानसिक रुझानों का दर्पण है. वह अपने उन रुझानों को लेकर शर्मिंदा नहीं है क्योंकि बीसवीं सदी के उस ज़माने में वह इतने स्वाभाविक थे कि उनका एहसास भी नहीं होता था. कई भारतीय दर्शकों को भी  इस फिल्म में शायद ही कुछ बहुत आपत्तिजनक लगे. यदि यह दिखाया जा रहा है कि कू क्लक्स क्लैन वाले कालों पर जानलेवा हमला कर रहे हैं तो शायद वह उस पर तालियाँ बजा दें. हमारे यहाँ आज भी आपको आस-पड़ोस में और यात्राओं आदि  में ऐसे बीसों बहुत क़ाबिल,इज्ज़तदार,’सुसंस्कृत’ शख्स मिलते हैं जो अल्पसंख्यकों, दलितों, स्त्रियों, ग़रीबों आदि को लेकर भयावहतम विचार रखते हैं.

ग्रिफ़िथ के ज़माने में सिनेमा गूँगा था और उसके होठों की हरकत से ही लगता था कि वह तुतलाने की कोशिश कर रहा है. ग्रिफ़िथ उसे सवाक् तो नहीं कर पाए, लेकिन पहली बार क्रॉस-कटिंग, इन्टर-कटिंग आदि के ज़रिये उन्होंने दर्शकों को चौंकाया और सिनेमा देखने के नए तरीक़े आज से सौ वर्ष पहले सिखाए. ग्रिफ़िथ से पहले सैट्स पर कोई ध्यान नहीं देता था. पैनोरैमिक शॉट्स की तमीज नहीं थी और युद्ध या भारी भीड़ को कैसे फिल्माया जाए इसकी दृष्टि का नितांत अभाव था. ग्रिफ़िथ ने अपनी अद्भुत कटिंग से दर्शकों को शिक्षित किया कि कैसे एक बड़े दृश्य के तुरंत बाद एक क्लोज़-अप या खुर्दबीनी ब्यौरा भी  देखा जा सकता है.

भारतीय दर्शक की हैसियत से आज जब हम अमेरिकी राष्ट्र के खूनी, पूर्वग्रहग्रस्त जन्म की यह फिल्म देखते हैं तो बेशक़ हमें हिटलर की समकालीन, उसकी प्रशंसक फिल्म-निर्मात्री रेमी रीफ़ेन्श्टाल की नात्सी प्रचार-फ़िल्में याद आती हैं लेकिन ग्रिफ़िथ अपनी इस फिल्म में नस्लवादियों की पराजय के 50 वर्ष बाद अपने सपनों और पूर्वग्रहों को लेकर एक मर्सिया पढ़ता है. ’’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’ हमारे सामने एक प्राचीन किन्तु  कठिन कलात्मक-नैतिक समस्या रखती है. हर समाज और धर्म के पास ऐसी कृतियाँ, किताबें, आस्थाएँ या रवायतें हैं जो मानव-द्रोह और घृणा से भरी हुई हैं और आज की भाषा में उनके कई विचारों को सिर्फ़ नात्सी या फ़ाशिस्ट कहा जा सकता है. उनमें से मानवीय-अमानवीय को कैसे अलगाया जाए ? ग्रिफ़िथ के जीवन-काल में ही उसकी कटु आलोचना हुई थी जिसका उत्तर उसने ‘’इन्टॉलरेंस’’ (‘’असहिष्णुता’’ ) शीर्षक फिल्म बनाकर दिया था. वह भी एक बड़ी कृति मानी जाती है.फिर उसने एक कोशिश ‘’दि बर्थ ऑफ़ ए नेशन’’ से कू क्लक्स क्लैन समर्थक और कालों पर अमानवीय अत्याचार के कुछ दृश्यों को निकाल देने से की. लेकिन वह वाइरस इतना गहरा घर कर चुका था कि आमूल जा न सका. ग्रिफ़िथ की इस फ़िल्म पर आज भी वाद-विवाद होते रहते हैं.

यहाँ यह जानने की उत्सुकता होती है कि पाकिस्तान में बँटवारे को या पिछले भारत-पाक युद्धों को लेकर क्या कोई फ़िल्में बनी हैं ? भारत के बहुसंख्यकों को लेकर पाकिस्तानी सिनेमा का रवैया क्या रहा है ? अब तक भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की  जन्म-प्रक्रिया  पर – मैं दंगों और हत्याओं की बात नहीं कर रहा –  इन तीनों राष्ट्रों में कोई ग्रिफ़िथ-जैसी ही फिल्म क्यों नहीं बनी ? क्या 1947 और 1971 में जो कुछ घटा, और किसी-न-किसी रूप में निरंतर घटता रहेगा, एक निर्मम सिनेमाई जाँच-परख का अधिकारी नहीं ?
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vishnukhare@gmail.com / 9833256060
(विष्णु खरे का स्तम्भनवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 

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  1. बेहतरीन लेख और महत्वपूर्ण जानकरियों के साथ..सभ्यताओं के खूनी खेल की अच्छी पङताल है।

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  2. भारतीय सिनेमा ने छुट पुट प्रयास तो किए किन्तु तीन राष्ट्रों के उदय की महागाथा का महाकाव्य नहीं रच पाए। भविष्य में उम्मीद करेंगे। शुक्रिया सर।

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  3. विष्णु जी के लेख बहुत से प्रश्न छोड़कर जाते हैं। रुडयार्ड किपलिंग की कविता मानव और मानवीय होने के प्रश्न पर बहुत कुछ कहती है, यहाँ साझा कर रही हूँ-Father and Mother, and Me,
    Sister and Auntie say
    All the people like us are We,
    And every one else is They.
    And They live over the sea,
    While We live over the way,
    But-would you believe it? – They look upon We
    As only a sort of They!
    We eat pork and beef
    With cow-horn-handled knives.
    They who gobble Their rice off a leaf,
    Are horrified out of Their lives;
    While they who live up a tree,
    And feast on grubs and clay,
    (Isn't it scandalous? ) look upon We
    As a simply disgusting They!
    We shoot birds with a gun.
    They stick lions with spears.
    Their full-dress is un-.
    We dress up to Our ears.
    They like Their friends for tea.
    We like Our friends to stay;
    And, after all that, They look upon We
    As an utterly ignorant They!
    We eat kitcheny food.
    We have doors that latch.
    They drink milk or blood,
    Under an open thatch.
    We have Doctors to fee.
    They have Wizards to pay.
    And (impudent heathen!) They look upon We
    As a quite impossible They!
    हम इस तरह बंटवारा करते हैं। फ़िल्म का सेपिया रंग मुझे कई बार आतंकित कर गया। मुझे दुनिया के वे तमाम जैनोसाइड याद आये जो कू क्लक्स क्लान जैसे आजमूदा हथियारों के नीचे ताकत का ध्रुवीकरण करते रहे। पता नहीं क्यों मैं इसे पढ़कर संतुष्ट नहीं हूँ। फ़िल्म की उलटी इमेज मन में है।
    शुक्रिया विष्णु जी। शुक्रिया अरुण।

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  4. रुझानों को लेकर नात्सी प्रोपेगेंडा पर फ़िल्में बनीं, वे भी उस पर शर्मिंदा नहीं थे। रिचर्ड वैन अपनी पुस्तक "राइज़िंग अमेरिकन एम्पायर" के लिए शर्मिंदा नहीं। एडमण्ड स्पेंसर महान कवि थे किन्तु आयरलैंड को लेकर उनके प्रतिक्रियावादी क्रूर प्रत्ययों को क्षमा नहीं किया जा सकता। सादर!

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