भूमंडलोत्तर कहानियों के चयन और आलोचना के क्रम में
इस बार अपर्णा मनोज की कहानी ‘नीला घर’ पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख- ‘नीला घर के बहाने’
समालोचन प्रस्तुत कर रहा है. अपर्णा मनोज की कहानियाँ समालोचन के
साथ-साथ कई प्रतिष्ठा प्राप्त पत्रिकाओं में छप चुकी हैं. उनकी कहानियों का संवेदनशील
वितान उन्हें अलग ही कथा-कोटि में रखता है.
राकेश बिहारी की विशेषता यह है कि वह कहानी की विवेचना
के तयशुदा ढांचें में तोड़-फोड़ करते रहते हैं. यहाँ निरी अकादमिक चर्चा नहीं है, यह
आलेख खुद कहानी के समानांतर लगभग उसी शैली में कथा से संवाद करता चलता है.
समालोचन का यह ‘कथा –आलोचना’ स्तम्भ अब तक लापता नत्थू
उर्फ दुनिया न माने (रवि बुले), शिफ्ट+कंट्रोल+आल्ट=डिलीट (आकांक्षा पारे), नाकोहस (पुरुषोत्तम अग्रवाल), अँगुरी में डसले बिया
नगिनिया (अनुज), पानी (मनोज
कुमार पांडेय), कायान्तर
(जयश्री रॉय), उत्तर प्रदेश की खिड़की (विमल चन्द्र पाण्डेय) पर राकेश
बिहारी के आलोचनात्मक आलेख प्रस्तुत कर चुका है.
‘नीला घर’ के बहाने
(संदर्भ: अपर्णा मनोज की
कहानी ‘नीला घर’)
राकेश बिहारी
चाँद की बुढ़िया जैसी शक्ल वाली बप्पा के ज़मीनदोज़
होते ही नीला घर पीर की दरगाह हो गया.
इससे पहले कि बर्छियाँ चलीं, बल्लम उठे
बप्पा ने जाने किन-किन गुनाहों के लिए माफी मांगते हुये फातेहा पढ़ा था, ठीक वैसे ही जैसे शब-ए-बरात के दिन रोटियाँ बदलते हुये उन सबके लिए दुआ
पढ़ती थीं जो अल्लाह को प्यारे हो चुके थे. बप्पा नीले घर से कुछ कहना चाहती थीं, शायद साँवली और वीर के लिए कोई संदेश यदि कभी वे मुड़ कर यहाँ आए तो... नीला
घर भी कुछ कहना चाहता था उनसे... दोनों की फुसफुसाहटें आपस में कुछ बतिया ही रही
थीं कि उन वहशी आवाज़ों ने उन्हे दबोच लिया था... कितनी करुण थीं उस वक्त बप्पा की
निगाहें नीले घर की तरफ देखते हुये... अथाह दर्द के बावजूद उनकी पुतलियों में ज़िंदगी
से भरी चमक थी, साँवली, बन्नो और वीर
को बचा लेने का संतोष भी...
नीला घर के ठीक बीचोबीच स्थित बप्पा की मजार के
सामने घुटनों पर बैठा हुआ हूँ मैं... मदहोश कर देनेवाली खुशबू से भरे वे सफ़ेद
जंगली फूल जिनका नाम भी मैं नहीं जानता, जो नीला घर से कुछ ही फ़र्लांग की
दूरी पर खिले हैं और जिन्हें मैंने अपनी दोनों हथेलियों के दोने में भर लाया था, बप्पा की मजार पर चढ़ा चुका हूँ.
करुणा और दुख से भीगी बप्पा की आवाज़ मेरी नसों में उतर रही
है –
“आह! कैसी सुंदर थी
मेरी लाडो ..ऐसी जोड़ी
किसी की न थी. बिना नज़र उतारे मैं इसे बाहर पग न धरने देती थी. पर क्या जानती थी कि जिस नज़र को
मैं उतार रही थी उसकी बदी को मेरे घर ही पलना था. मेरे ही आँगन में निगोड़ा गीध मेरी लाडो को
नोंच खायेगा कौन जानता था .. जिस पर मैं बलिहारी
गई ..जिसके मैं कसीदे पढ़ती रही ..ताउम्र जिस पर मरी .. नाशुक्रा, मेरा
शौहर वो ही कसाई निकला...
इस मासूम का रोना केवल इसलिए नहीं कि
उसका सब कुछ लुट चुका था. इसलिए
कि घर की इज्जत बचाने के लिए इसका निकाह मेरे शौहर से होना तय हुआ...
गर्म इस्पात सी पिघलती बप्पा की आवाज़ की रोशनी में
दीवार पर लगा कैलेंडर तेजी से फड़फड़ाता है और मैं कोई दसेक साल पीछे मुजफ्फरनगर
के चरथावल कस्बे में दाखिल हो जाता हूँ... अली मोहम्मद जेल में है.
उसके घर के आसपास सन्नाटे का शोर पसरा हुआ है. नूर एलाही अल्लसुबह रिक्शा लेकर शहर जा चुका है. नूर एलाही! यानी अली
मोहम्मद का बेटा! वही बेटा, जिसकी बीवी का नाम इमराना है!
इमराना! आपने ठीक समझा... वही इमराना जो दिनों तक सुर्खियों में थी. क्या उलेमा, क्या नेता, क्या वकील क्या पत्रकार उन दिनों जैसे सबको अपनी दुकान चमकाने का एक
सुनहरा अवसर मिल गया था... तमाम सवालों और प्रतिरोधों के बावजूद शरिया अदालत के
झंडाबरदार अपनी दलीलों पर कायम थे... महिला आयोग हरकत में था, समांजसेवी संगठन के कार्यकर्ता धरना-प्रदर्शन कर रहे थे... और देश के एक
मात्र नेताजी को मजहबी पंचायत का वह फैसला काफी सोच-विचार कर लिया हुआ लग रहा था
जिसके अनुसार इमराना और नूर एलाही का निकाह हराम ठहराया जा चुका था. इमराना को अपने
पति को बेटे जैसा मानने का हुक्म था कारण कि उसके ससुर ने उसके साथ जिस्मानी
ताल्लुकात बनाया था.
खैर... इमराना, माफ कीजिएगा उसके पति के घर के आगे
खड़ा मैं जरीफ़ से मिलना चाहता हूँ. क्या कहा आपने... यह जरीफ़ कौन है? अरे, जरीफ़ बेगम को नहीं जानते आप? जरीफ़ बेगम नूर एलाही की माँ हैं, अली मोहम्मद की
बीवी! पता चला कुछ दिन हुये बुखार से उसकी मौत हो गई. अली मोहम्मद चार घण्टों के
पे रोल पर उसके जनाजे में शामिल होने आया था. मैं सोचता हूँ क्या अपनी मौत से पहले
उसने भी बप्पा की तरह अपने गुनाहों की माफी मांगी होगी? शायद
हाँ... शायद नहीं... मुझे वहाँ की उदास हवाओं में जरीफ के सिसकने की आवाज़ सुनाई
देती है, दबी हुई सिसकियों के बीच कुछ अस्फुट से शब्द भी... मैं इमराना के साथ
खड़ा होना चाहती थी...पर सबने मुझे मेरे ही घर में कैद कर दिया था... काश मैं उसका
साथ दे पाती... लेकिन मैं मजबूर थी... जरीफ़ की आवाज़ धीरे-धीरे सख्त हो रही है, जैसे वह अपने आंसू पोंछने लगी हो... और उसकी आवाज़ कब बप्पा की आवाज़ में
बदल
गई मुझे पता ही
नहीं चला...
कौन होते थे वे लोग ये सब तय करने वाले? किसकी इज्जत को वे बचाने में तुले थे? हम दो औरतें किसी को
न दिखीं? वो जो इसका अपना शौहर था...मेरा बेटा
और इसका आशिक ..जान छिडकता था इस पर.. न बोल पाया, न सह पाया.. कातरता में छत से कूद पड़ा. कुछ न बचा. सब ख़त्म...एक झटके में.”
सच! निकट अतीत के किसी असली पात्र का यह
मानीखेज़ विस्तार मुझे एक
हैरतअंगेज खुशी से
भर
रहा है.
सोचता हूँ, यथार्थ की पुनर्रचना का कितना खूबसूरत और जिंदा उदाहरण है यह... मैं
सरककर मजार के कुछ और करीब चला आया हूँ... “बप्पा! आप से कुछ
सवाल पूछ सकता हूँ?”
सफ़ेद जंगली फूलों में जैसे जुंबिश-सी हुई है... मैं
बप्पा के शब्दों का इंतज़ार किए बिना शुरू हो जाता हूँ... आपने अच्छा किया उस दिन
सारे माल असवाब के साथ साँवली और बन्नो को ले कर यहाँ भाग आईं. लेकिन सच बताइये बप्पा! अपने शौहर और गाँव की पंचायत
से दूर
भाग
कर भी आप सुरक्षित हो पाईं क्या? यहाँ से तो उन तीनों को
आपने अपनी जान की कीमत दे कर भी सुरक्षित निकल जाने दिया, पर इस बात
की क्या गारंटी है कि इस ढाणी से दूर जहां
उन्होंने अपना नया आशियाना बसाया होगा वहाँ सबकुछ निरापद ही होगा? यहाँ आने के बाद आपने भी सोचा था क्या कभी कि जिस ढाणी को आपकी सबसे
ज्यादा जरूरत थी, वही आपका यह नीला घर आपके मकबरे में तब्दील
हो जाएगा? भागने का
यह सिलसिला आखिर कबतक चलेगा बप्पा? खाप-खाप की आवाज़ से डर कर
साँवली कबतक भागती रहेगी? आपको नहीं लगता कि साँवली का
सुरक्षा कवच बन हमेशा उसे अपने आँचल में दुबकाए रखने की बजाए आपको उसके साथ खड़ी होकर
उसे संघर्ष करने देना चाहिए था?
जंगली फूलों से उठ रही खुशबू जैसे बप्पा की आवाजों को
ही मुझ तक लिए आ रही है... मैंने तो वही किया जो एक माँ अपनी बेटी के लिए कर सकती थी..
साँवली मेरी बहू थी, अगर मेरी कोई बेटी होती तो उसी की उम्र की होती... और फिर मेरा
बेटा, जो अपने नाशुक्रे बाप की करतूत को न सह पाया न रह पाया, उसकी आत्मा का दुख भी तो मुझसे नहीं सहा जाता... मैं जब चुनरी में धागा लगाती हूँ, सितारा टाँकती हूँ तो सूई की नोक मेरी
रूह में छेद करती है और
हर बार मेरे बेटे की सूरत सितारों में आग लगाती है ..कि वो जिन्न बनकर इस घर के हर कोने से हमें
देख रहा है. कह रहा है कि मेरी दुल्हनिया को दुलार
से भर देना अम्मी.." बप्पा की आवाज़ का वात्सल्य जैसे घने बादलों की तरह
लरज़ कर पिघलने सा लगा है.... बप्पा और साँवली के रिश्ते में सास-बहू के रिश्ते की
लेश भर भी छाया नहीं... वे तो जैसे माँ-बेटी सी हो गई हैं... कई बार उससे भी
ज्यादा दो सखियां जिनके दुख आपसे में कब एक हो गए पता ही नहीं चला. दुनिया की सारी औरतों के दुख कब एक दूसरे में
घुल मिल जाते हैं कब पता चलता है? बप्पा ने ग्लोबल सिस्टरहुड की कोई किताब नहीं
पढ़ी, उसका नाम तक नहीं सुना... लेकिन ग्लोबल सिस्टरहुड का
इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता है कि पीढ़ियों से जन्मजात दुश्मन की-सी रहती आईं
सास-बहू माँ-बेटी से भी दो कदम आगे एक दूसरे की सखियाँ हुई जा रही हैं.
बप्पा और साँवली के बहनापे के बहाव के साथ बहते
अपने वजूद को किसी तरह नियंत्रण में करना चाहता हूँ मैं... पर बप्पा! क्या आपको
नहीं लगता कि इस तरह आपने साँवली को कहीं कमजोर भी कर दिया?
उसके हिस्से की लड़ाई भी आप खुद ही लड़ने लगीं...? कुछ और नहीं
तो कम से कम जरदोज़ी का वह काम ही उसे सिखाया होता जिसमें आपके नाम की तूती सारे
इलाके में बोलती थी… वह तो रब की मेहर थी कि वीर आ गया. यदि
वह नहीं आता तो? क्या फिर ताउम्र आप इसी तरह उसके दुखों को सहलाती
रहतीं? यदि हाँ तो फिर आपके बाद उसका क्या होता?
बप्पा की आवाज़ कुछ देर को रुकी है... जैसे उनकी
आँखों में खाप-खाप की आवाज़ का भयानक डर एक बार फिर से घर कर गया हो. सुदूर पश्चिम
की तरफ उंगली से इशारा करते हुये उनकी सांसों का हाँफना साफ-साफ सुन सकता हूँ
मैं... सारे सवाल के जवाब मुझसे ही पूछ लोगे? आखिर मैंने भी तो वही किया न जैसा
मुझसे मेरी मानस माँ ने करवाया...
खाप-खाप की वह आवाज जिसका भय अभी-अभी मैंने बप्पा
की आँखों में देखा था, को क्षण भर के लिए रोक कर नीले
घर ने वीर के कान में फुसफुसाते हुये कहा है... जाओ, भाग जाओ... दूर किसी और टेकरी पर... चाँद की
बुढ़िया जैसी शक्ल वाली बप्पा ने सोने की कंठी, चांदी की
पाजेब, चूड़ियों और कुछ गिन्नियों से भरी पोटली साँवली के हाथों
में थमायी है... खाप-खाप की आवाजों ने अचानक से गाँव पर हमला बोल दिया है और बप्पा
की आवाज़ अचानक कहीं गुम हो गई है.
गहरे सन्नाटे से बिंधा मैं नीले घर की उस आखिरी
फुसफुसाहट की उँगलियाँ थामे बहुत दूर निकल गया हूँ... क्या यह आवाज़ कभी पहले भी
सुनी थी? हाँ... लेकिन तब वह फुसफुसाहट नहीं थी... उसमें एक दृढ़ता थी. अपनी
स्मृतियों पर बल देता हूँ... याद आया, वह आवाज़ गदल की थी...
बरसों का वह फासला क्षण भर में दूर हो गया हो जैसे... उस रात का वह दृश्य हू-ब-हू
मेरी आँखों के आगे उपस्थित हो जाता है –
जब सब चले गए, गदल ऊपर चढी. निहाल से कहा - ''बेटा!''
उसके स्वर की अखंड ममता सुनकर निहाल के
रोंगटे उस हलचल में भी खडे हो गए. इससे पहले कि वह उत्तर दे, गदल ने कहा - ''तुझे मेरी कोख की सौगंध है. नरायन को और
बहू-बच्चों को लेकर निकल जा पीछे से.''
''और तू?''
''मेरी फिकर छोड! मैं
देख रही हूँ, तेरा काका मुझे बुला रहा है.'' (गदल : रांगेय राघव)
गदल के हाथ की लालटेन छूट कर बुझ गई है. नीले घर के
बीचोंबीच स्थित
बुढ़िया
की मजार पर वही दीप रौशन है, जिसकी रोशनी में बप्पा की आँखें कभी घाघरे, चोली और दुपट्टे में सितारे टाँकती थीं. उन्हें इस दीप का इतना भरोसा था
कि उसे दिन में भी अपनी बगल में बाले रहतीं. मैं मजार के थोड़ा और समीप आ जाता
हूँ... नन्हें दीपक की रौशनी में बप्पा और गदल आमने-सामने बैठे हैं... दोनों ने
अपने जान की बाजी लगा कर अपने अपनों को सुरक्षित निकल जाने दिया था. गदल ने अपने
देवर के प्रेम और बिरादरी की नाक के लिए अपने प्राण की परवाह नहीं की तो बप्पा ने
अपनी जान गवां कर अपनी बहू के प्रेम को बचाया. दीपक की रौशनी में मेरे भीतर-बाहर
का अंधेरा भी छांट रहा है... समय की बेदी पर गदल का उत्सर्ग बहुत बड़ा था... लेकिन
इतने सालों बाद मैं देख सकता हूँ की गदल का प्रतिरोध परंपरा,
समाज और बिरादरी के अहाते के भीतर ही थी... कहीं न कहीं उसे पुष्ट भी करता हुआ...
लेकिन बप्पा ने समाज और बिरादरी के उस घेरे को तोड़ा है...
गदल की आँखों से आँसू की धारा बह रही है... वह कुछ
आगे बढ़ कर बप्पा की हथेलियाँ थाम लेती है, उन्हें गले से लगाती है... मैं
बहुत खुश हूँ बप्पा! जो मैं नहीं कर सकी उसे तुमने कर दिखाया... देखते ही देखते बप्पा
और गदल की आकृतियां एक हो कर उस दीपक की लौ में गुम हो गई है...
मैं बप्पा को आवाज़ देता हूँ... मुझे आपसे कुछ और
बातें करनी है... बप्पा भले गुम हो गई हों पर जैसे दीपक की रौशनी और उन सफ़ेद जंगली
फूलों की मीठी गंध के बीच उन्हीं की आवाज़ों की प्रतिध्वनियाँ गूंज रही है... सारे
सवाल के जवाब मुझसे ही पूछ लोगे?
मेरी आँखें कब से बप्पा की मानस माँ को ढूंढ रही
हैं. मैं उनसे कहना चाहता हूँ कि राजस्थान के लोक रंग की खुशबू और जटिलताओं के बीच
उन्होंने एक स्त्री के प्रतिरोध की आवाज़
को बहुत पुख्तगी और संवेदनशीलता के साथ बप्पा की हर सांस में दर्ज किया है... मैं उन्हें बताना चाहता हूँ कि कैसे बप्पा को
देख के मुझे जरीफ़ और गदल दोनों की याद आई... लेकिन इन सबके बीच मुझे उनसे यह भी
पूछना है कि साँवली कब तक चुप रहेगी...आखिर उसे कबतक भागना पड़ेगा… एक टेकरी
से दूसरी टेकरी तक...? उन्हें उनके कई पतों पर ढूंढा लेकिन
आजकल वे कहीं दिखती नहीं... शायद वे ऐसे ही सवालों का जवाब देनेवाले तथा कुछ और
सवाल करने वाले नए पात्रों की तलाश में कहीं दूर गई हों... मुझे उन पात्रों का
इंतज़ार है...
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अद्भुत! आलोचना को आज ऐसे ही प्रयोगों की जरूरत है। कहानी के समानान्तर एक और कहानी! राकेश बिहारी जी का यह प्रयोग न सिर्फ अभिनव है बल्कि रचनात्मक और मानीखेज भी। नीला घर कहानी की संवेदनाओं को बहुत बारीकी से खोलती यह प्रति-कहानी आज सारे दिन साथ रहेगी। शुक्रिया समालोचन!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया राकेश जी. शुक्रिया समालोचन. सीधे जरीफ़ और गदल तक. राकेश जी सलाम.
जवाब देंहटाएंनीला घर पर राकेश जी की आलोचना पढ़ी। अपनी शैली से ही कुछ कदम आगे बढ़ गए Rakesh Bihari जी। मैं आलोचना में इस नए प्रयोग को रचनात्मक आलोचना ही कहूँगी। कहानी को परखकर उसके सच को उजागर कियाऔर उसके छूट गए सवालों को भी उठाया। आलोचना में ये नया प्रयोग स्वागतयोग्य।
जवाब देंहटाएंसशक्त कहानी, और उतनी ही रचनात्मक आलोचना. अपर्णा और राकेश दोनों को साधुवाद
जवाब देंहटाएंकहानी के समानांतर एक और कहानी! आलोचना की नीरस शब्दावली से दूर कहानी के भाव और संवेदना को लय और संगीतात्मकता के साथ विवेचित करने के इस आलोचकीय प्रयोग से गुजरना रचना पढ़ने की तरह ही प्रीतिकर है। काव्यात्मक भाषा में कहानी की संवेदना और सामजिक-राजनैतिक चेतना को उद्घाटित करने की यह शैली दिलचस्प है। आलोचना भी इतनी स्पर्शी और बिम्बात्मक हो सकती है इसे पढ़ कर जाना। राकेश को इस अनूठी आलोचना के लिए बधाई! इस समानांतर कहानी ने मूल कहानी के प्रति मेरी उत्सुकता जगा दी है
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचनात्मक समालोचना।
जवाब देंहटाएंराकेश बिहारीजी को इतनी सुंदर आलोचना के लिए बहुत बधाई। जरूरी है कि आलोचना को नीरस विश्लेषणों से उबारा जाए और इसलिए आलोचना में भी रचनात्मक प्रयोग होने चाहिए। राकेश बिहारी की आलोचना की एकरसता को तोड़ती है, स्वागत!
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