क्या आप ने किशोर साहू का नाम सुना है? क्या आपको पता है २२ अक्तूबर २०१५ को उनके जन्म के १०० साल पूरे हो रहे हैं? शायद आपको यह भी ज्ञात न हो कि उन्होंने अपनी आत्मकथा भी लिखी थी जो अब तक विलुप्त थी (अप्रकाशित तो थी ही). इस आत्मकथा में हिंदी सिनेमा का एक पूरा युग है. इस आत्मकथा की तलाश के इस उद्यम के सिलसिले को पढ़ते हुए आप उसी उत्तेजना को महसूस करते हैं जो किसी ऐतहासिक वस्तु के पाने पर होती है.
विष्णु खरे के ‘शब्द और कर्म’ की जितनी
भी सराहना की जाये कम है.
जो आत्मकथा साहित्यिक-फ़िल्मी इतिहास बनाएगी
विष्णु खरे
भाषा हिंदी हो, उर्दू या अंग्रेज़ी, मुंबई की फ़िल्मी दुनिया को ज़्यादातर अनपढ़-गँवारों की जन्नत ही कहा जा सकता है. एक्टरों को जो स्क्रिप्ट और डायलॉग रोमन-हिंदी में दिए जाते हैं वह भी उनसे ठीक से पढ़े नहीं जाते. वह यह भी नहीं जानते कि ‘रोमन’ उस इबारत का नाम है जिसमें अंग्रेज़ी लिखी जाती है. साहित्य और किताबों का हाल तो बदतर है. जहाँ चेतन भगत जैसे ग़ैर-अदबी थर्ड रेट क़लमघिस्सू पुजते हों वहाँ इम्रै केर्तेस या ओर्हान पामुक की बात तो कई प्रकाश-वर्ष दूर है, कोई अब्राहम वर्गीज़ और अमित चौधुरी को ही नहीं जानता. आज कोई अभिनेता-निदेशक लेखक भी हो, यह कल्पनातीत है. अधिकतर से हिन्दुस्तानी या अंग्रेज़ी में एक सही पैराग्राफ़ लिखवा लेना नामुमकिन है.
भाषा हिंदी हो, उर्दू या अंग्रेज़ी, मुंबई की फ़िल्मी दुनिया को ज़्यादातर अनपढ़-गँवारों की जन्नत ही कहा जा सकता है. एक्टरों को जो स्क्रिप्ट और डायलॉग रोमन-हिंदी में दिए जाते हैं वह भी उनसे ठीक से पढ़े नहीं जाते. वह यह भी नहीं जानते कि ‘रोमन’ उस इबारत का नाम है जिसमें अंग्रेज़ी लिखी जाती है. साहित्य और किताबों का हाल तो बदतर है. जहाँ चेतन भगत जैसे ग़ैर-अदबी थर्ड रेट क़लमघिस्सू पुजते हों वहाँ इम्रै केर्तेस या ओर्हान पामुक की बात तो कई प्रकाश-वर्ष दूर है, कोई अब्राहम वर्गीज़ और अमित चौधुरी को ही नहीं जानता. आज कोई अभिनेता-निदेशक लेखक भी हो, यह कल्पनातीत है. अधिकतर से हिन्दुस्तानी या अंग्रेज़ी में एक सही पैराग्राफ़ लिखवा लेना नामुमकिन है.
ऐसे में क्या आश्चर्य कि आज
‘इंडस्ट्री’ में किसी को खबर या पर्वाह नहीं कि 22 अक्टूबर 2015 को उस किशोर
साहू की जन्मशती आ रही है जिसने न सिर्फ़ 1937-80 के दौरान 25 फिल्मों में,
अधिकतर बतौर हीरो, अभिनय किया, 20 फ़िल्में डायरेक्ट कीं, 8 फ़िल्में लिखीं, बल्कि चार उपन्यासों, तीन
नाटकों और कई कहानियों को भी सिरजा, जो उनके जीवन-काल में ही पुस्तकाकार प्रकाशित
हो गए थे. उनकी कई फिल्मों को ‘’साहित्यिक’’ कहा जा सकता है और उन्होंने आज से साठ
वर्ष पहले शेक्सपिअर के सर्वाधिक विख्यात और कठिन नाटक ‘’हैम्लैट’’
पर इसी शीर्षक से फिल्म बनाने और उसमें स्वयं नायक का किरदार निभाने का लगभग आत्महंता जोखिम उठाया. उनकी प्रतिभा में
फिल्म-निर्माण,निदेशन,अभिनय और साहित्य-सृजन के इस अद्वितीय संगम को देखकर ही
उन्हें ‘’आचार्य’’ की अनौपचारिक, लोक-उपाधि दी गई थी.
लेकिन पिछले दिनों एक ऐसी घटना घटी
है जिससे विश्वास होता है कि किशोर साहू की ख्याति और ‘’आचार्यत्व’’
पर उनकी असामयिक मृत्यु के पैंतीस बरस बाद
काल अपनी अंतिम, निर्णयात्मक मुहर लगा कर ही रहेगा. रायपुर के छतीसगढ़ लोक
संस्कृति अनुसंधान संस्थान तथा ‘क्रिएटिव क्रिएशन’ से जुड़े हुए रमेश अनुपम, संजीव
बख्शी तथा आकांक्षा दुबे आदि लगातार इस प्रयास में हैं कि
प्रदेश में किशोर साहू की जन्मशती के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय स्तर पर एक आयोजन हो जिसमें उनके
निजी और सिनेमाई परिवार के सदस्य आमंत्रित हों, उनकी चुनिन्दा फ़िल्में दिखाई जाएँ,
संगोष्ठियाँ हों और अन्य बातों के अलावा किशोर साहू की पुस्तकों का, जो अप्राप्य
हैं, पुनर्प्रकाशन हो और हिंदी साहित्य में उन्हें वह स्थान मिले जिसके योग्य वह
समझी जाएँ.
राजेन्द्र यादव के एक संस्मरण से यह
तो मालूम था कि किशोर साहू ने अपने देहावसान से पहले अपनी आत्मकथा न केवल पूरी लिख
ली थी बल्कि वह प्रेस-कॉपी के रूप में छपने के लिए तैयार भी थी – किशोर साहू के
अध्येता इक़बाल रिज़वी,आकांक्षा दुबे,संजू साहू,शिप्रा बेग आदि इससे
आगाह थे - लेकिन इतने वर्षों के बाद यदि वह है तो किसके पास है और किस हालत में है
इस पर सस्पैन्स बना हुआ था. इतना अंदाज़ तो था कि यदि वह पाण्डुलिपि होगी तो किशोर
साहू के जीवित और शो-बिज़नेस में सक्रिय दूसरे बेटे विक्रम साहू के
पास ही मिलेगी लेकिन उन्हें खोजे और उनसे चर्चा करने की हिम्मत कौन करे. मैं चूँकि
वर्षों से किशोरजी के बारे में सार्वजनिक रूप से छत्तीसगढ़ में और उससे बाहर भी चर्चा कर रहा हूँ और रायपुर का उपरोक्त ‘साहू’-सम्प्रदाय या ‘किशोर-कल्ट’
मुझे ‘’अवर मैन इन मुम्बई’’ समझता है लिहाज़ा यह जोखिम मुझ पर ही
डाला गया.
आख़िरकार ‘नवभारत टाइम्स’ मुंबई के
सम्पादक सुंदरचंद ठाकुर, मीडिया सम्वाददात्री रेखा खान तथा कवि-सिने-पत्रकार हरि
मृदुल के अथक प्रयासों से विक्रमजी से संपर्क हो सका जो चाहते तो मुझ अपरिचित से
लद्दाख की ऊँचाई से पेश आ सकते थे, जहाँ तब उनकी शूटिंग चल रही थी, लेकिन उन्होंने
बाद में कार्टर रोड के समुद्री धरातल से, जहाँ वह सपरिवार रहते हैं, मुझसे और रमेश
अनुपम से लम्बी बात की. किशोर साहू की आत्मकथा का ज़िक्र तो आना ही था. कुछ लम्हे
अपने पिता जैसी पैनी निगाह से देख कर, मानो हमें तौल रहे हों,वह फुर्ती से उठे और
एक ड्रॉअर से निकालकर सेलोफेन में करीने से लपेटी हुई चार फ़ाइलें हमारे सामने
टेबिल पर रख दीं.
वह क्षण ऐतिहासिक और रोमांचक था. फिर
वह खुद ही उन फाइलों को खोल कर हमें दिखाने और अतीत तथा वर्तमान की यात्राएँ करने लगे. वह
अब करीब पचास बरस पुरानी शैली की हैं, धूसर
गत्ते और टीन के क्लिपों वाली, और मुझ जैसे देखनेवाले को कॉलेज और शुरूआती
सर्टिफ़िकेटों, अर्ज़ियों और पहली मुलाज़िमतों के दिनों में ले जाती हैं. वह एहतियात
और ख़ूबसूरती से सहेजी गई थीं. हरेक पर ख़ुद किशोर साहू ने अपनी नफ़ीस लिखावट में दो
रंगों की स्याहियों से ‘पहली’ ‘दूसरी’ वगैरह का सिलसिला दिया था. अन्दर मराठी शैली
के देवनागरी की-बोर्ड वाली मशीन पर दादर में कहीं टाइप करवाए गए फ़ूल्सकैप साइज़ के
कोई चार सौ सफ़े नत्थी थे. कहीं-कहीं किशोर साहू के हाथ की तरमीमें भी थीं. उन्होंने
इसे तत्कालीन ‘धर्मयुग’ सम्पादक धर्मवीर भारती और ‘सारिका’ सम्पादक
कमलेश्वर को भी पढ़वाया था और कमलेश्वर ने तो अपनी हस्तलिपि में उस पर एक टिप्पणी
भी लिखी थी जिसे किशोर साहू ने पाण्डुलिपि के साथ ही रख लिया था और वह अब भी वहीं है. सभी कुछ ओरिजिनल. वह फ़ाइलें नहीं थीं, उनमें
एक अज़ीम शख्सियत की ज़ाती ज़िन्दगी तो थी ही, हिंदी सिनेमा के तीन चरण भी महफ़ूज़ थे.
याद रहे कि किशोर साहू, जो 14
मार्च 1931 को रिलीज़ हुई पहली सवाक् हिन्दुस्तानी फिल्म ‘’आलम आरा’’
को एक ‘टीन-एजर’ छोकरे की आम हैसियत से पर्दे के सामने देखकर सिनेमा के दीवाने हुए
थे, सिर्फ छः साल बाद खुद फिल्मों का इतिहास बनाने और उसमें अमर होने के लिए एक
बाईस बरस के मुहज्जब,पढ़े लिखे, नागपुर जैसी मशहूर यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट नौजवान
के रूप में कैमरे के सामने थे और लाखों-करोड़ों दर्शकों के चहेते
एक्टर-प्रोड्यूसर-डायरेक्टर होने जा रहे थे. अपनी सिनेमाई ज़िंदगी के 43 बरसों में उन्होंने
भारतीय फिल्मों की ‘संस्कृति’ के तीन युगों को देखा, जिया और निर्मित किया था. सबसे
महत्वपूर्ण तो यह था कि वह कोरे फ़िल्मी जंतु नहीं थे, एक
प्रबुद्ध,जागरूक,सम्वेदंनशील,अंतर्दृष्टि-संपन्न अध्येता,कवि-कथाकार-नाट्यलेखक भी
थे. दूसरी ओर उनका अपना जीवन शायद नाटकों-फिल्मों से भी अधिक
उतार-चढ़ाव,जय-पराजय,ट्रेजडी-कॉमेडी की द्वंद्वात्मकता से ओत-प्रोत था.
मैं विक्रम साहू और रमेश
अनुपम के साथ बैठे-बैठे सरसरी तौर पर जहाँ तक जितना तेज़ उस पांडुलिपि को देख-पढ़
सका उसके ब्यौरे देकर उसके जायके को बदमज़ा नहीं करना चाहता लेकिन यकबारगी शुरू
करने के बाद उसे छोड़ पाना मुश्किल है. अंग्रेज़ी
लफ़्ज़ में वह ‘अनपुटडाउनेबिल’ है. देविका रानी, अशोक कुमार, शशधर मुकर्जी, दिलीप
कुमार, कामिनी कौशल, नादिरा, देवानंद, राज कपूर, राज कुमार, मीना कुमारी, माला
सिन्हा, आशा माथुर, बीना राय, परवीन बाबी, ओडेट फर्ग्युसन, संजय खान, मनोज कुमार, सी.रामचंद्र,
शंकर-जयकिशन, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, ख़ुद अपनी और दूसरों की फिल्मों के अनुभव
और संस्मरण, साथ में छत्तीसगढ़, रायगढ़, राजनांदगांव, मध्यप्रदेश, नागपुर, महाराष्ट्र,
मुंबई, फ्रांस, ब्रिटेन आदि के सैकड़ों हवाले और किस्से इस आत्मकथा में बिखरे पड़े
हैं. यह एक सूचीपत्र भी हो सकती थी लेकिन किशोर साहू का साहित्यकार और शैलीकार
इसकी पठनीयता पर अपनी गिरफ्त को कभी ढील नहीं देता. वह अपने जीवन,मित्रों-परिचितों
और अपने कुटुंब और परिवार को भी नहीं भूलता. कई अन्तरंग प्रसंग भी इसके प्राण हैं.
जब यह सुदीर्घ आत्मकथा प्रकाशित
होगी, हिंदी सिनेमा का इतिहास तो बदलेगा ही, इसे बच्चनजी के ‘’क्या भूलूँ
क्या याद करूँ’’ आपबीती-खंड की कालजयी श्रेणी में रखा जाएगा.यह हिंदी का
दुर्भाग्य नहीं तो क्या है कि प्रकाशक इसे भी छापने के लिए साहू-परिवार से सब्सिडी
की उम्मीद कर रहे हैं. ऐसे बहुमुखी प्रतिभा के कोई भी आत्म-सम्मानी बेटा-बेटी ऐसा क्यों करेंगे, विशेषतः तब जब कि इसका
हाथोंहाथ बिक जाना सुनिश्चित है. यदि इसका अंग्रेजी अनुवाद हो सके तो वह
विश्व-सिने-लेखन को एक विलक्षण योगदान होगा.
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(बाएँ से दाएँ विष्णु खरे,विक्रम साहू और रमेश अनुपम ) |
भारत के फिल्म-अध्येताओं और
विद्यार्थियों के लिए तो यह अनिवार्य पाठ्य-पुस्तक सिद्ध होगी. लेकिन अभी यह देखना
बाकी है कि छत्तीसगढ़ की जनता, लेखक-बुद्धिजीवी, सिनेमा-कलाप्रेमी, फिल्म-निर्माता,
मीडियाकर्मी और, सर्वोपरि, रमण सिंह सरकार अपने इस राष्ट्रीय गौरव की जन्मशती
उपयुक्त गरिमा और कल्पनाशीलता के साथ मनाना चाहते भी हैं या नहीं. पिछले वर्ष एक
मंत्री किशोर साहू की स्मृति से चंद्राकार विश्वासघात कर चुका है. कुछ भ्रष्ट तत्व
इससे भी कमाई करना चाहते हैं. लेकिन छत्तीसगढ़ के लिए यह एक सबसे बड़ा सांस्कृतिक
कलंक होगा कि एक महान छत्तीसगढ़ी प्रतिभा की कालजयी संभावनाओं वाली
यह आत्मकथा उसके इस जन्मशती-वर्ष में प्रकाशित न हो पाए.
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(विष्णु खरे का कॉलम, नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
ज़रूरी लेख. ज़रूरी खोज. पुस्तक आए तो बात बने.
जवाब देंहटाएंज़रूरी लेख ..|किशोर साहू निस्संदेह हिन्दुस्तानी सिने जगत की मशहूर हस्ती (अभिनेता के रूप ) में ही नहीं बल्कि बेहद संवेदनशील और काबिल लेखक ,चिन्तक व नाटककार भी रहे हैं |उनकी ये पाण्डुलिपि निश्चितरूप से हिन्दुस्तानी सिनेमा के इतिहास की एक मज़बूत कड़ी साबित होगी|इसके लिए प्रकाशकों को आगे आना चाहिए |
जवाब देंहटाएंयक़ीनन एक बेहद जरुरी लेख। विष्णु जी की जितनी प्रशंसा की जाए कम है। सरकार को चाहिए इस पांडुलिपि को प्रकाशित करवाये और किशोर साहू की जन्मशती समारोह का आयोजन करवाये। बेहतरीन खोज और उम्दा लेख।
जवाब देंहटाएंaap logo ne waqeee bahut bada karnama anjaam diyaa hai.Vishnu ji badhaeee ko bahut bahut badhaaeee. Kishor Sahu ji ki aatmkathaa publish honi hi chahiye.
जवाब देंहटाएंI am eagerly waiting for that book ..Thanks To Khare sir...
जवाब देंहटाएंआशा करता हूँ कि सिने जगत के विद्यार्थियों के लिये यह आत्मकथा हिन्दुस्तानी सिनेमा के जरूरी पहलुओं पर प्रकाश डालेगा..
जवाब देंहटाएंखरे का लेख बहुत खरा है । पढ कर मैं किशोर साहू पर मुग्ध हो गया , विशेषत: इन की बहुमुखी प्रतिभा पर , लेकिन क्षुब्ध भी हुआ यह जान कर कि उन की जन्म शती मनाने में एक संस्कृति मन्त्री पीछे हट गया या हटा दिया गया । प्रतिभाशाली लोगों को बौने बर्दाश्त नहीं करते । विष्णु खरे को पहली बार बधाई दे रहा हूँ , क्यों कि उन की करतूतें उन्हें प्रशंसनीय नहीं बनातीं ।
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