प्रेमचंद गाँधी कवितायेँ लिखते रहे हैं, अनुवाद किया है. नाटकों
से निकट का रिश्ता है. कुछ कहानियाँ भी प्रकाशित हुई हैं. संवेदना का सहज और
संवेदनशील प्रवाह इस कथा को पठनीय बनाता है. कैसे पालतू पशु भी घर के हिस्से बन
जाते हैं और उनके सुख-दुःख भी साझे हो जाते हैं यह पढना रोचक है, मानवीय है.
कहानी
मां को क्यों बेचूं
प्रेमचंद गांधी
डॉक्टर ने पूछा, 'कितने साल की है तुम्हारी लक्ष्मी?'
माँ ने मोनू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'इससे कुछ महीने ही बड़ी है. अबके फागुन में यह पंद्रह बरस का हो जाएगा.'
डॉक्टर ने कहा, 'माई तुम्हारी बकरी अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी है.' यह कहकर डॉक्टर अपना बैग उठाकर चल दिया. माँ वहीँ घुटनों में सर देकर बैठ गई.
आज मां बहुत उदास है. मां के चेहरे पर ऐसी उदासी मैंने पहली
बार नहीं देखी है. आखिरी बार मां का ऐसा निस्तेज चेहरा तब देखा था, जब नानी अस्पताल
में थी और डॉक्टरों ने जवाब दे दिया था. इस बात को राम जी के वनवास जैसे चौदह बरस
बीत चुके हैं. नानी ने जिंदगी में दो ही बार अस्पताल के दर्शन किए थे. पहली और
दूसरी बार में मुश्किल से एक साल का फासला रहा होगा.
अंधेरी रात में नानी खेत से घर लौट रही थी अकेले. अब जो यह छह
लेन का हाइवे है न, तब इसका काम शुरु ही हुआ था. नानी का खेत सड़क के उस पार था.
हाइवे के लिए जमीन समतल करने का काम चल रहा था. हर तरफ मिट्टी के ढेर थे. बुढ़ापे
की आंखों में रोशनी कम थी और ऊपर से अमावस की रात, वह भी जाड़े की. घना कोहरा छाया
था. नानी अपनी धुन में सिर पर चारे का गट्ठर लिए घर आ रही थी. मिट्टी का ढेर बूढ़ी
आंखों को अंधकार और कोहरे की वजह से दिखाई नहीं दिया. मिट्टी की दो ढेरियों के बीच
से फिसलकर नानी ज्यादा नहीं बस तीन फीट नीचे की समतल जमीन पर जा गिरीं. बहुत
चोटें आईं और कूल्हे की हड्डी टूट गई. तब नानी पहली बार अस्पताल में दाखिल हुई.
दो महीने इलाज चला. टूटी हड्डी की जगह रॉड डाली गई और नानी वापस घर पहुंच गई.
नानी के ठीक होने के बाद मां तीसरी बार जापे के लिए अपने पीहर
पहुंची. वहीं इस शैतान मोनू का जन्म हुआ, जो आजकल स्कूल के अलावा सिर्फ क्रिकेट
में ही मगन रहता है. मोनू मंगलवार को पैदा हुआ था. नानी ने बजरंगबली का आशीर्वाद
मान कर लड़के का नाम हनुमान रख दिया जो शहर में हनु या मोनू रह गया है.
मोनू के जन्म से पहले हमारे यहां नानी की दी हुई एक गाय थी,
जो मेरे होश संभालने से पहले ही अपनी उम्र पाकर मर गई थी. नानी, अपने नए नाती के
जन्म पर बेटी को एक भैंस देना चाहती थी. लेकिन मां ने यह कह कर मना कर दिया कि
छोटे-से घर में बच्चों पालूं या भैंस बांधूं? लेकिन नानी की चिंता मोनू के लिए दूध के इंतजाम की थी. वह जानती थी कि
दामाद जी अपनी छोटी-सी प्राइवेट नौकरी में आखिर कितना इंतजाम कर सकेंगे. नानी की
जिद के आगे हार कर मां ने कह दिया कि देना ही है तो एक बकरी दे दो. इस तरह हमारे
घर में पहली बकरी आई ‘लक्ष्मी’. जिसका जन्म मोनू से पहले हुआ था. नानी ने कहा
था, ‘यह जल्दी ही ब्याने वाली है, यही ले जाओ. कुछ दिन बच्चों को खीस खाने को
मिलेगी और खेलने के लिए एक मेमना भी मिल जाएगा.‘
मां जब ननिहाल से लौटकर आई तो महीने भर में ही लक्ष्मी ने
पहली संतान को जन्म दिया-श्यामा. मैं और गुडि़या, श्यामा से खेलते रहते और मोनू
टुकुर-टुकुर हमें ताकता रहता. कुछ महीने तो श्यामा हमारे घर में रही, फिर मां ने
श्यामा को बुआ के घर भेज दिया.
यह सिलसिला पिछले साल तक चलता रहा. लक्ष्मी को जो भी बच्चा
होता, मां उसे बुआ, मौसी, चाची या किसी भी रिश्तेदार को दे देती. लोग अक्सर कहते
कि कम से कम बकरा तो बेच दिया करो, लेकिन मां ने कभी नहीं बेचा. रिश्तेदारी में
या आस-पड़ौस में किसी को देवी-देवता के लिए बलि देनी होती तो मां ‘लक्ष्मी–पुत्र’
को हाजिर कर देती. मां खुशी-खुशी लक्ष्मी के बच्चे हमारे रिश्तेदारों को दे तो
देती थी, लेकिन संतान के बिछोह में जब तक लक्ष्मी का रोना-चीखना चलता, मां लक्ष्मी
को गले लगा, पुचकार कर कहती, ‘अरे पगली, रोती क्यों है, तेरी मौसी के ही तो गया
है बच्चा.‘ कुछ देर में लक्ष्मी चुप हो जाती और धीरे-धीरे संतान के वियोग को मां
के दुलार में भूल जाती.
पता नहीं मां और लक्ष्मी के बीच ऐसा कौन सा तार जुड़ा है,
जिससे दोनों एक-दूसरे की बातों को तुरंत समझ लेती हैं? लक्ष्मी की कोई बीमारी हो, मां उसकी आवाज़
से भांप लेती है कि उसे क्या तकलीफ है? मां कोई ना कोई
जड़ी-बूटी निकालती और कभी चारे में मिलाकर या काढ़ा बनाकर नाल से लक्ष्मी को देती.
पिताजी अक्सर मां से चुहल करते, ‘तू अपने बच्चों से ज्यादा इसकी हारी-बीमारी का
खयाल रखती है.‘ मां हंसकर फिर अपने काम में जुट जाती.
मुझे कई साल बाद यह बात समझ में आई कि मां लक्ष्मी को चार-छह
महीने में क्यों कुछ दिन बीरा गूजर के रेवड़ में भेजती है? और यह तब होता जब लक्ष्मी का दूध देना कम हो
जाता और उसका बच्चा बड़ा होकर हमारे किसी रिश्तेदार के चला जाता. जब मैं मां से
लक्ष्मी को रेवड़ में भेजने का कारण पूछता तो कहती, ‘बिचारी घर में एक जगह बंधी
रहती है. कुछ दिन जंगल में घूम आएगी. कुछ कंद-मूल खाएगी तो रोग-शोक से दूर रहेगी.‘
मैं मां की बात को अंतिम सत्य मानकर चुप रहता.
जाती हुई सर्दियों के दिन थे. मैं एक कमरे के कोने में बैठा
दसवीं बोर्ड की तैयारियों के बोझ में गाफिल था. शाम का वक्त था और लक्ष्मी कुछ
अजीब तरह से ‘मैंह-मैंह’ की पुकार मचा रही थी. उसकी इस विचित्र आवाज़ से मेरा ध्यान
लगातार भंग हो रहा था. तभी मां कमरे में आई और बोली, ‘सुन बेटा, कल सुबह लक्ष्मी
को बीरा गूजर के रेवड़ में भेज देना, मुझके कल जल्दी अस्पताल जाना है.‘ मां तो
कहकर चली गई, लेकिन मेरे दिलो-दिमाग में उथल-पुथल मच गई. मुझे अचानक जैसे
ब्रह्मज्ञान हुआ और सर्दी के बावजूद मैं पसीने में नहा गया. ओफ्फो, मां लक्ष्मी
की आवाज़ को इस कदर पहचानती है... मां को लक्ष्मी के रोग-शोक की तरह दूसरी दैहिक
इच्छाओं की भी उसकी आवाज़ से ख़बर लग जाती है. उस दिन के बाद तो मुझे पक्का विश्वास
हो गया कि मां और लक्ष्मी के बीच आवाज़ ही एक सेतु है, जिसके माध्यम से वे
एक-दूसरे से गहरी जुड़ी हैं.
पिछले करीब पंद्रह सालों में लक्ष्मी ने दो दर्जन से अधिक
बच्चे दिए. कई बार तो एक साथ दो-दो भी. मैं सोचता हूं कि अगर लक्ष्मी की सब
संतानें हमारे पास रहतीं तो हमारे यहां करीब तीन सौ बकरे-बकरियों का रेवड़ हो जाता.
मां ने अच्छा ही किया जो सब बांट दिए. इतने छोटे घर में उन सबको रखते कैसे? शहर के जिस हिस्से में हमारा घर है, वह
इलाका कभी कच्ची बस्ती हुआ करता था. लक्ष्मी के घर में आने से कुछ साल पहले
सरकार ने यहां प्लॉट काट कर कॉलोनी बना दी तो हमें सिकुड़कर अस्सी गज के दायरे में
अपना घर बनाना पड़ा.
मां उस वक्त भी इतनी उदास नहीं थी जब अपने ही हाथों बनाए घर
को तोड़कर फिर से बनाना था. मैंने कहा ना कि मां के चेहरे पर ऐसी उदासी आखिरी बार
मैंने नानी की मौत से पहले देखी थी. पिछले आठ-दस दिन से लक्ष्मी को पता नहीं क्या
हो गया है. उसकी हर आवाज़ से उसके दुख-दर्द को समझने वाली मां का ज्ञान जाने कहां
खो गया है?... शुरु-शुरु में
लक्ष्मी के नथुनों से लसैला-बदबूदार रेंट निकलने लगा. मां ने सोचा कि सर्दी लग गई
है तो सर्दी की दवा शुरु कर दी. कोई फायदा नहीं हुआ. फिर लक्ष्मी को दस्त हो गए.
मां ने दस्तों की दवा पिलाई. लेकिन लक्ष्मी की न तो सर्दी गई और ना ही दस्तों
में कमी आई. लक्ष्मी की रेंट और दस्तों से घर में भयानक बदबू फैलने लगी. हम बच्चे
कुछ कहते तो मां डांट देती. एक दिन पिताजी ने भी कह ही दिया कि इस बदबू में रहना
मुश्किल है. मां को गुस्सा आ गया. उसने लक्ष्मी की जीवन भर की सेवाओं का जो बखान
किया वो पिताजी को चुप करने के लिए काफी था. आखिर में पिताजी ने कहा कि अगर खुद की
दवा-दारू से कोई फायदा नहीं हो रहा तो डॉक्टर या बैद बुलाओ.
लेकिन माँ ज़िन्दगी में पहली बार एक ओझा को घर लेकर आई. उसने
काँसे की थाली में नींबू और कई सारी चीजें रखकर चाकू से काटीं, मन्त्र बुदबुदाते हुए थाली में कई आड़ी-तिरछी
रेखाएं चाकू की नोंक से खींची और यह कह अपनी फीस ले चलता बना कि अगर सुबह तक ठीक न
हो तो डॉक्टर को दिखा देना. झाड़-फूंक से लक्ष्मी कहाँ ठीक होने वाली थी. आखिर जब
सुबह लक्ष्मी की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ तो माँ जानवरों के अस्पताल से एक
डॉक्टर को घर लेकर आई. डॉक्टर ने लक्ष्मी की हालत देख माँ से पूछा, 'माई, कभी इसके टीके लगवाए कि नहीं?' माँ को कुछ समझ में नहीं आता देख डॉक्टर ने कहा, 'जैसे
हम अपने बच्चों को बीमारियों से बचाने के लिए टीका लगवाते हैं, वैसे ही जानवरों को भी टीके लगाए जाते हैं. क्या आपने कभी लगवाए?' माँ का चेहरा उतार गया था. रूआँसे स्वर में बोली, 'मुझे
तो पता ही नहीं था डाक्साब, जानवरों के भी टीके लगते हैं. अब
क्या होगा?'
डॉक्टर ने पूछा, 'कितने साल की है तुम्हारी लक्ष्मी?'
माँ ने मोनू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा, 'इससे कुछ महीने ही बड़ी है. अबके फागुन में यह पंद्रह बरस का हो जाएगा.'
डॉक्टर ने कहा, 'माई तुम्हारी बकरी अब अपनी उम्र पूरी कर चुकी है.' यह कहकर डॉक्टर अपना बैग उठाकर चल दिया. माँ वहीँ घुटनों में सर देकर बैठ गई.
मोहल्ले भर में बात फ़ैल चुकी थी कि लक्ष्मी अपनी आखिरी साँसे
गिन रही है. ऐसे में पता नहीं किसके मुँह से यह बात निकली और माँ तक पहुँची कि
आखिरी वक़्त में जानवर को कष्ट में मारने देने से अच्छा है कसाई को बेच दो. कुछ
पैसे भी मिल जाएंगे और बिचारी बकरी के कष्ट भी दूर हो जाएंगे.
माँ ने सुना तो बौरा गई.
"जब ज़िन्दगी में इसके बच्चों तक को मैंने
नहीं बेचा तो माँ को क्यों बेचूँ? जैसे घर के बुज़ुर्ग आखिरी
वक़्त काया के कष्ट भोगते हैं, यह भी भोग लेगी."
उस दिन से माँ का चेहरा उदासी में डूबा हुआ है. रात-दिन माँ
लक्ष्मी की सेवा-सुश्रुषा में लगी रहती है. अब माँ किसी भी वक़्त दहाड़ मारकर रो
पड़ेगी. जैसे नानी की मौत की खबर सुनकर रोई थी.
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प्रेमचंद गांधी
जयपुर में 26 मार्च, 1967 को जन्म.
कृतियां : ‘इस सिंफनी में’ और ‘चांद के आईने में’ (कविता) ‘संस्कृति का समकाल’ (निबंध) ‘विश्व की प्रेम कथाएं (अनुवाद) प्रकाशित. समसामयिक और कला, संस्कृति के सवालों पर
निरंतर लेखन. कई पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तंभ लिखे. सभी महत्वपूर्ण पत्र-पत्रिकाओं
में रचनाएं प्रकाशित. कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई और राजेंद्र बोहरा
सम्मान. सांस्कृतिक लेखन के लिए पं. गांकुलचंद्र राव सम्मान. अनुवाद, सिनेमा और
सभी कलाओं में गहरी रूचि. विभिन्न सामाजिक आंदोलनों में सक्रिय भागीदारी. कुछ
नाटक भी लिखे, जिनमें रामकथा के स्त्रीपाठ के रूप में चर्चित नाटक ‘सीता लीला’ का
मंचन. टीवी और सिनेमा के लिए भी काम किया. दो बार पाकिस्तान की सांस्कृतिक
यात्रा.
संपर्क : 220, रामा हैरिटेज, सेंट्रल स्पाइन विद्याधर नगर,
जयपुर-302 039 मो.09829190626
वाह, बहुत सुन्दर कहानी
जवाब देंहटाएंप्रेमचंद गांधी की संवेदनशीलता को नमन।
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