कथा - गाथा : कायांतर











कहानी 
कायांतर             

जयश्री रॉय


फूलमती को ललिता ने  पहली बार सिया सुंदरी के दक्खिन घाट पर देखा था. गौने के बाद बिगेसर के पीछे-पीछे बजरे से उतरते हुये- पीली साड़ी, सुर्ख लहठी और बड़ी-सी टिकुली में अरहर की पकी बाली-सी झमर-झमर करती. रुपा की बुंदकी सरीखी आंखों में झिलिर-मिलिर कौंध थी, जाने वह डरी हुई थी कि खुश...

जैसे पूरा गांव ही उतर आया था घाट पर नईकी दुलहिन को देखने. अवधूत की नानी इनमें सबसे आगे थी,  अपने पोते की पीठ पर बेताल की तरह सवार होकर टूटे ऐनक की कमान साधती हुई - "हाय दादा. दुलहिन त एकदम करियट्ठी हई. "

लहेरिन सास ने बहू-बेटे के सामने आरती की थाल फिरायी तो बहू खिस्स से हंस पड़ी. बिगेसर ने आंख गरम कर अपनी मेहरारु की ढलकती घूंघट छाती तक खींची तो गीतहरिन औरतों ने मंगल गीत गाते-गाते एक-दूसरे को टहोके लगाये. उसी दिन से गांव-जवार में मशहूर हो गया- बिगेसर-बो के लच्छन ठीक न है.

कुछ ही दिनों बाद छत पर दोपहर के घाम में बैठकर गीले बाल सुखाते हुये ललिता ने देखा था- बिगेसर अपनी झोपड़ी के आंगन में फूलमती को दौड़ा-दौड़ाकर बांस के फट्टे से पीट रहा है  "ललनवा के संग का कर रही थी रे खचरी, खेसारी के खेत में? जंगल में जिलेबी तोड़ने गई थी कि छिनरई करने?"  सरकंडे की टाटी धकेलकर फूलमती बाप रे बाप, माई गे माईकरती हुई गोहाल के अंदर भाग गई थी. दूर से ही ललिता ने देखा था, उसका खूने-खून कपार. उधर नीम खैरे बिगेसर की महतारी अपना कपार पीटती हुई थहराकर बैठ गई थी - "अरे अभगला. अब मार-कुटम्मस से का होगा रे. हम त कहबे करते थे कि एकर लच्छन ठीक नहीं है. शहर के लरकी, ठेठर-बैसकोप देखती है, मूरी उघार के बीच बाजार चलती है बेलज्जी. मगर तब त मऊगी के परेम में उभचुभा रहा था. अब भुगतो. भंडुअई करे के लेल ई नगरनट्टिन का गौना करा के हमरा माथा पर धर दिया...."

बिगेसर के दरवाज़े पर एक छोटी-मोटी भीड़ जुट गई थी. सब उचक-उचककर अंदर झांक रहे थे. तमाशा देख रहे थे. सौ-पचास घरों के इस छोटे-से गांव में ऐसे दृश्य बहुत आम है. रोज़ ही कोई ना कोई अपनी बीवी-बहू की पिटाई करते हुये दिख जाता हैं. बिगेसर की दुलहिन नई है इस गांव में, इसलिये लोगों में उसको लेकर थोड़ी बहुत उत्सुकता है. वह भी इन्ही दो-चार दिनों के लिये.

मगर ऐसे दृश्य ललिता को आज भी उद्वेलित करते हैं. वह शहर की लड़की है- पढ़ी-लिखी. बी ए पास है. इस गांव के मिडल स्कूल में चौथी से लेकर सातवीं कक्षा के बच्चों को पढ़ाती है. उसका पति त्रिभुवन अदालत में क्लर्क है. रोज़ शहर आता-जाता है. ललिता इन दिनों उम्मीद से है. कुछ महीनों में उसे प्रसव के लिये मायके जाना है. इन दिनों वह बहुत भावुक रहती है. बात-बात पर रोना आता है. ऐसी बातें उसे परेशान कर देती हैं.

दूसरे दिन सुबह फूलमती उसके दालान में मसूर फैला रही थी. कल की मारपीट का उसके चेहरे पर कोई चिन्ह नहीं था. सुबह की धूप की तरह उजली, झकझक. ललिता के छोटे-मोटे काम वह कर दिया करती है. काम से ज़्यादा बात करती है. हाथ के साथ मुंह भी चलता रहता है उसका पटर-पटर. कितनी सारी बातें उसकी - "सुना आप इंगरेजी पढे हैं. आपको मोटर चलाना आता है? एक बार हमको भी सैर कराईएगा मोटर में?" ललिता स्वेटर बुनती हुई उसके चेहरे की कादो-सी रंगत पर धूप की झिलमिल देखती रही थी. जाने ग़रीब किस ख़ुशी में यूं छलकी पड़ रही थी.

"तुझे तेरे पति ने मारा ना कल?"  ललिता के सवाल पर फूलमती सकुचा कर सूप फटकने लगी थी - " वो जरा... का है ना, फलानाजी को गुस्सा बहुत आता है, हथछुट्टा है जरा..." उसका संकोच देख कर ललिता ने बात बदल दी थी.

फूलमती उनके घर रोज़ आती है काम के लिये. कभी ढेकी में धान-चावल कूटना तो कभी गोबर पाथना. धूप के आंगन छोड़ने तक काम करती है और जब अनाज की कोठरी का अनगढ़ साया आंगन के सहजन को धीरे-धीरे संवलाने लगता है, कुयें की जगत पर बैठकर अपना आंचल पसारकर वह ललिता की सास से रोटी, गुड़, सत्तू की लोई लोकती है. ललिता देखती है और आंखें फेर लेती है. ऐसे दृश्य देखकर जाने क्यों उसे ग्लानि होती है. आदमी आदमी को इतना बेइज्जत करे... उसको नहीं सुहाता. छाती में कुछ गड़ता है शूल की तरह. मायके में बिनोवा भावे के शिष्य रह चुके उनके बाबूजी तो हमेशा उसका साथ देते मगर मां उलाहने देती रहती थी उठते-बैठते - " तेरे दिमाग़ में किताबें ठुंस गयी हैं. कभी इन मरे काले अक्षरों से बाहर निकल कर भी देख, नून-तेल का भाव पता चले जरा. दुनियादारी भी कोई चीज़ होती है लल्ली." वह कन्फेशन ऑफ़ द क्वीनमें फ्रांस की महारानी मारी एंटोनेट की कहानी पढ़ते हुये अपने कमरे की खिड़की से बाहर देखती - "इफ पियुपल डोंट गेट ब्रेड टू इट, लेट देम इट केक.." उसे गिलोटिन में कट कर इधर-उधर लुढ़कते हुये सैकड़ों नरमुंड दिखते. वह सिहर कर अपनी क़िताब बंद कर एक तरफ पटक देती. मगर उसके शब्द उसका पीछा नहीं छोड़ते - "जब लाखों-करोड़ों भूखे-नंगे लोग एक साथ उठ खड़े होंगे, अन्याय के ऊंचे महल-अटारी ध्वस्त हो जायेंगे...

विचारों का बोझ सबसे बड़ा बोझ होता है, इसलिये वह अपनी थकान को समझती है. लोग इसे उसके उम्मीद में होने के साथ जोड़ कर देखते हैं मगर वह इसे नाउम्मीदी का हश्र मानती है. मन का आकाश होना और देह का पिंजरा होना उसका असली संताप है. और ऊपर का बोझ यह कि उसे चीखना नहीं आता. जो रो-कोस कर अंदर का मैल धो-बुहार लेते हैं वे हल्के हो जाते हैं. मगर वो तो अपने ही जाल की मछली है, अपने ही कांटे में बिंधी है. उसकी मुक्ति कहां. लोग देह भर गहने में उसका मलिन, उदास रुप समझ नहीं पाते. मगर वह अपना असली रुप चीन्हती है. मन को सोने की आभा नहीं, भीतर की हुलास निखारती है. वह कहां से लाये यह सब. अपने सुख के छोटे-से नीड़ में सुरक्षित बैठ कर फूलमती जैसी औरतों के अपरिमित दुखों का साक्ष्य बनने के लिये वह अभिशप्त है. जब मन करता है सब तोड़-दल कर ढेला-ढेला कर दे, मौन का कुलुप मुंह में जड़ कर वह अपनी कोठरी की चारदीवारी की सुरक्षा में आ छिपती है.            

फूलमती अपढ़ है लेकिन कितनी जहीन है. आंख उठते ना उठते इशारा समझ जाती है, ज़मीन पर कोरी उंगली से घर-गृहस्थी का सारा हिसाब कर लेती है. उसे सोहर, कजरी, चैती के साथ फिल्मों के हज़ार गीत आते हैं. ललिता के आंगन में ट्युशन के लिये जमा हुये बच्चों से सुन-सुन कर उसे दो तक का पहाड़ा और ढेर सारी कवितायें जबानी याद हो गयी है. ललिता किसी बच्चे से सवाल करती है और अपनी उछाह में जवाब देती है फूलमती. इसके लिये ललिता उसे कितनी बार डांट चुकी है कि बीच में जादा बोला नहीं करते. मगर उस फुहड़िया पर इसका कोई असर नहीं होता. उस समय तो दांत चिंयार देती है मगर दूसरी बार फिर वही हरकत.

क्या उमर रही होगी उसकी. यही कोई चौदह-पन्द्रह साल. खिच्चा भुट्टे की तरह उसके भीतर से बचपन का दूध पूरी तरह सूखा नहीं था अभी. अक़्सर गोयठा डालना या ढेकी कूटना बीच में छोड़कर गांव के बच्चों के साथ जंगलों में भाग जाती. कभी हड्डा-बिढ़नी पकड़ कर उन्हें सुतली से बांध हवा में उड़ाती फिरती तो कभी किसी के धूप में डाले अचार-कसौंझी चुराकर खाती. एक बार जब उनकी बानर सेना ने काना चौबे के भदैया मक्के के खेत को जंगली सूअर के माफिक खोद कर रख दिया था, उसकी शिकायत पर बिगेसर ने बांस की करची से उसे धुनिया की तरह धुन दिया था- 'चोरी-छिनरपना त तुम्हारा बंदे नहीं होता है. भर दोपहर कट्ठा के कट्ठा खेत ताम के आते हैं. भूख, गर्मी, घाम से माथा गनगनाता रहता है, . ऊपर से रोज कोनो न कोनो से इसका झगरा फरियाना. पता नहीं दिमाग कब ठिकाना लगेगा."  

मार खाकर फूलमती संझा-बाती तक सरकंडे की ढेर पर बैठी काना चौबे को कोसती-गरियाती रही थी – 'अरे मुदइया, खचरा, हरामी का जना. कोन खजाना खाली कर दिये उसका? दू गो  मकई तोड़ लिये त परान जाता है. एतना मार खिलाया भंडुवा. कोढ़ी फूटेगा साला को. गू गींज-गींज कर मरेगा..".
लहेरिन सास ने ही आकर फिर उसका कन्ना-रोहट बंद करवाया था- "बाभन को गाली देती है. गांव में रोटी-पानी बंद करवायेगी लबरी. चल अंगना के भीतर." चुप होने के बाद भी वह देर तक ढोर-डंगर की तरह सोसियाती रही थी.

मगर दूसरे दिन ललिता के पास गई तो फिर से तरोई का एकदम टटका पीला फूल. बनफूल तेल से चुपड़े बालों में लाल फीता और कपार जोड़कर सिक्का भर सेनूर का टीका. बहुत खुश. ललिता कभी कहती इतना बड़ा टीका. तो वह हंस पड़ती-  'ई तो जनाना सब का सिंगार है.' आज ललिता ने पहले दिन के बाबत पूछा तो हंस कर टाल गई- "जाने दो दीदी. जलनडाही सास... कुछ न कुछ करबे करेगी. मरद के साथ फाओ में मिली है तो सहना ही है."

ललिता ने उसके हाथ पर पड़ी नीली धारियों और घावों पर हल्दी-चूना लेपा था. थोड़ी देर चुप रहकर फूलमती रोने लगी थी. उसे इस तरह भरभरा कर रोते देख ललिता घबरा गयी थी- "अब रोती काहे को है? का कर दिये हम?"

बड़ी देर बाद नाक सिनकते हुये तलहथी से आंखें पोंछते वह किसी तरह बोली थी "दीदी. अब ई प्यार-दुलार सहता नहीं. बस मार-दुत्कार का आदत हो गया है. बचपन में माय मर गई थी. बाप तीन महीने के भीतर सौतेली माय ले आया. समझो चुरईल का दुसरा रुप. ऊ हमको उठते-बैठते सताती और बाप भट्टी से दारु ढकोर कर पलानी में बेसुध पड़ा रहता. एक भाई, सो भी साहूकार का पतलचट्टा. ऊपर से गांजाखोर भी. बचपने से खराब संघत में पर गया था. दस साल के उमर में ही सौतेली माय ने रेजा-कामिन के काम में लगा दिया था. तो बस हाड़ तोड़ काम, मार आउर दुख. बस एही तो मिला है जिनगी भर... उहाँ चाहे इहाँ...

ललिता का मन गीला हो गया था उसकी कहानी सुन कर. ऐसी ही कितनी फूलमतियाँ इस जमीन पर आये दिन जीवन का आंख भर सपना लेकर हरियाती और धीरे-धीरे ऊसर होती जाती हैं... नयी उमर की उछाह में गुड्डी बनकर आकाश की ओर लपकती हैं और फिर सूत कट कर नीचे आ गिरती हैं. उसे अपनी सहेली मधुमिता याद आती है. कुछ-कुछ ऐसी ही- फूलमती जैसी- बुरे लक्षणों वाली. भर दुपहरी छत पर चढ़ कर गुड्डी लूटना, चबर-चबर बोलना, बतीसी निकाल कर हंसना. ऊपर से दो गरम बोरसी जैसी आंखें. तरेर कर देखती थी सीधे-सीधे सबकी आंखों में. हर बात का उल्टा जवाब. मां कहती थी उसके साथ नहीं रहना. ठीक नहीं वो. तुझे गलत-सलत बातें सिखायेगी. मगर ललिता को उसकी बातें अच्छी लगती थी. खास कर उसकी अंगीठी जैसी आंखें. वही आंखें शादी के बाद साल भर में ही जैसे बुझ गई थीं... सोचकर आज भी ललिता का मन बोझिल हो उठता है. मुंडेर की चंचल गौरैया किस तरह घर-गृहस्थी के पिंजरे में उड़ना तो दूर, चहकना तक भूल जाती है. गौने के बाद मधुमिता बार-बार भाग कर मायके आती रही, मां-बाप, भाई से आसरा मांगती रही, मगर सबने समझा-बुझा कर उसे हर बार ससुराल के नरक में दुबारा भेज दिया. ललिता को उसकी गोरी देह पर उसके बर्बर, विकृत पति के दांत-नाखूनों के साथ सास-ननद के द्वारा दागे गये जख्म के दाग याद आते. हर बार ससुराल लौटते हुये मधुमिता की मूक अनुनय से कातर आंखें, मुड़-मुड़ कर पीछे देखना- जाने किस आस से... ऐसे समय में ललिता को महसूस होता था वह कितनी असमर्थ, असहाय है. उसके जाने के बाद दिनों तक अपने कमरे में पड़ी वह रोती रहती थी. लगता था, हाथ-पांव में जंज़ीर पड़े हैं. जब भगवान ने पंख नहीं दिये तो मन को चिड़िया क्यों बनाया, क्यों छाती भर आकाश दिया...

इसी तरह शादी के बाद दो साल बीते थे और आखिर मधुमिता के ससुराल से वह चिट्ठी आई थी जिसका आना लगभग तय ही था- मधुमिता अपने ससुराल में खाना बनाते हुये स्टोव के फटने से जल कर मर गई. मधुमिता के मां-बाप को उसके अंतिम दर्शन तक नहीं करने दिया गया था. सब जानते थे, मधुमिता को मार दिया गया है मगर क्या हुआ? कुछ भी तो नहीं... बस एक और लड़की... लड़कियों की इस देश में कोई कमी थोड़े ना है. साल घूमते न घूमते मधुमिता के पति ने फिर शादी रचा ली थी. जाने उस दूसरी लड़की के साथ क्या हुआ. ललिता अक्सर सोचती थी, मधुमिता की मौत के जिम्मेदार क्या सिर्फ उसके ससुराल वाले ही थे? अन्याय दुनिया करती है और खुश रहती है, उस पर तो बस अपनी चुप्पी भारी पड़ती है.

फूलमती को उस दिन चुप कराकर ललिता ने इसके बाद उसे खाने के लिये छोवा गुड़ के साथ मूढ़ी दिया था. वह कुयें के जगत पर चुक्की-मुक्की बैठी मुंह भर-भर कर खाती रही थी. जैसे दिनों से कुछ खाया ना हो. ललिता के पूछने पर उसने कहा था सास ठीक से खाना नहीं देती. कल रात भी नहीं दिया. उसे गोहाल में सोना पड़ा नई वाली बछिया के पास. ललिता के कुरेद कर पूछने पर लज्जा से सर हिलायी थी- 'हां. फलानाजी प्यार करते हैं. कितना भी मारे-पीटे, रात को जरुर... ललिता समझी थी- वही मर्दों वाला प्यार जो अधिकतर औरतों के हिस्से आता है..."

इसके कुछ दिन बाद चूड़ियों का खांचा ले कर सुबह-सुबह गांव की फेरी पर निकलती हुई उसकी सास ने बताया था, फूलमती के पांव भारी हैं. सुनकर जाने क्यों ललिता खुश नहीं हो पाई थी. उसे फूलमती का साड़ी को धोती की तरह बांध कर तपती दुपहरी में गांव के बच्चों के साथ शीतला मैया के थान के पीछे गुल्ली-डंडा, कंचा खेलना या लट्टू नचाना याद आया था. उस दिन राम सिंघासन के खेत से बूँट झंगरी निकालकर खाते हुये फिर पकड़ी गई थी. अपनी इन हरकतों के कारण

कितनी बार पिट चुकी थी वह. अब क्या खेल पायेगी कभी इस तरह से. उसे बच्चे की नहीं, गुड़ियों की ज़रुरत है अभी. एक और कच्चा घड़ा टूटा, एक और बचपन गया...

ललिता ने अपने पति से रात को सोते समय यह बात कही तो वह टाल गया- इस में नई बात क्या है. होती रहती है. फिर हंस कर उसकी नाक दबाई थी- तुम भी तो मां बनोगी. ज़्यादा सोचा मत करो... ललिता ने प्रतिवाद करने की कोशिश की थी- दोनों एक ही बात है का. उसकी उमर भी तो देखिये... बच्ची है. सुन कर उसका पति करवट बदल कर सो गया था- 'इन गांव-जवार के अनपढ़ लोगों से क्या उम्मीद करती हो. ज़िन्दगी क़िताबी नहीं होती लाली. ज़मीन पर उतरो...' ललिता एकबार फिर चुप रह गई थी. क्या उसके जीवन में ये क़िताबें सिर्फ पढ़ कर रख देने के लिये हैं. अलमारी की शोभा बढ़ाने के लिये...

ज़्यादा शिकायत करती तो पति कहता खुद ही तो इस बज्जर गांव में रहने की ज़िद्द पर अड़ गई और अब परेशान होती हो. उसकी बात सुन कर ललिता को चुप हो जाना पड़ता है. बात सही है. शादी के बाद उसका पति शहर चला जाना चाहता था. उसे लगता था पटना शहर की लड़की होने के कारण ललिता को इस गांव में अच्छा नहीं लगेगा. मगर उसके पिता के मरने के बाद ललिता उनके स्कूल की जिम्मेदारी उठाने की जिद्द पर अड़ गई. ललिता के ससुर इस गांव में कई सालों से एक मीडिल स्कूल चला रहे थे.

शादी के बाद उनके जीवन के कुछ दिन बहुत सुंदर बीते थे. कहां-कहां घूमने गये थे दोनों. पति चाहता था कश्मीर जाना मगर वह पहले अपना बिहार ही अच्छी तरह घूम कर देखना चाहती थी. लोग दुनिया-जहान देख लेते हैं, बस अपनी जगह से अनजान रह जाते हैं. हाजीपुर जिले में उनका गांव पड़ता है. इसके उत्तर में मुज्जफ्फरपुर, दक्षिण में पटना, पूर्व में समस्तीपुर तो पश्चिम में सारन. इन इलाकों के सभी नामी जगह उन्होंने देखे थे. गणतन्त्र की धरती वैशाली के स्तूप, सीता मैया की जन्मभूमि और उससे लगा जनकपुर धाम जो नेपाल में पड़ता है. संयोग से जब वे वहाँ गए, विवाह पंचमी का मेला लगा था. राम-जानकी का वैसा विवाहोत्सव फिर उंसने कभी नहीं देखा... केला, लीची, आम के बाग, हेला बाज़ार के पास रामभद्र में रामचौरा मंदिर, गंगा-गंडक के संगम पर कोनहरा घाट... इस घाट पर होती पूजा के दृश्यों ने जहां मन को मोहा था वही जलती चिताओं ने भीतर विषाद भर दिया था. जीवन-मृत्यु के धूप-छांही रुप ने इस तीर्थ स्थान की स्मृति को अद्भुत बना दिया है उसके लिये. गंगा किनारे राजासन में स्थित महादेव मठ देखने के बाद वे हाजीपुर माहनार रोड पर पड़ने वाले जाधुआ में मामू-भानजा मज़ार पर भी गये थे. उस मज़ार पर बांधे गए धागे के साथ की गई मन्नत अब जाकर कबूल हुई थी... अपने भरते हुये जिस्म की तरफ देख कर ललिता अक्सर सोचती है. गंगा-गंडक के संगम पर पैगोडा स्टाईल में नक्काशीदार लकड़ी से बने नेपाली मंदिर की दीवार पर उकेरे गये प्रेमी युगल के केलिरत दृश्यों की छवि तो अब तक उसके मानस में खिंची हुई है. नई-नई दुल्हन के रुप में इन्हें देख वह अपने पति के सामने कितनी लजाई थी. पातालेश्वर मंदिर तथा बटेश्वरनाथ मठ जाना हो नहीं पाया था उस बार. बहुत प्राचीन शिव मंदिर. उसके पति ने कहा था वहां फरवरी-मार्च में मनाये जाने वाले बसंत पंचमी में उसे घूमने ले जायेंगे. महा शिवरात्रि का एक माह तक चलने वाला मेला भी दिखायेंगे. उस समय ससुरजी की अचानक से तबियत बिगड़ने से उन्हें यात्रा के बीच से ही गांव लौट आना पड़ा था. इसके कुछ दिन बाद ही उनका देहांत हो गया था.

दिन-दिन देह से भारी होते हुये उसने कभी अपनी छत से तो कभी खिड़की से फूलमती को गोबर पाथते, जंगल से लकड़ियां बीन कर लाते या अपनी सास, पति से पिटते-रोते, झगड़ते हुये देखा था. उसका उनके यहां आना भी इन दिनों बहुत कम हो गया था.

कार्तिक महीने में बारिश के थिराते-थिराते छठ की धूम मचने लगी. ललिता की सास व्रत रखती हैं. उसके पांव भारी होने से उसकी सास ने फूलमती को मदद के लिये बुला लिया था. गर्भ के शुरुआती दौर में वह अभी तक हल्की-फुल्की थी. झट से उनकी बात मान गई थी. 'नहाए-खाए' के दिन एकदम भोरे-भोर सिया सुंदरी में डुबकी लगा कर घर के काम-काज में हाथ बंटाने हाजिर हो गई थी. उसका उत्साह देखते बनता था. घर का भीतरी आंगन गोबर से लीपा था, पूरा इलाका झार-झूर कर साफ किया था. पूजा के हर काम में उसका यूं हाथ बंटा सकना ललिता को अच्छा लगा था. छठ सही मायने में लोक पर्व है, जिसमें सबका बराबरी का हिस्सा होता है. दूसरे त्योहारों की तरह ये बाभनों या ऊंची जात वालों की बपौती नहीं. इसमें उनकी धौंस नहीं चलती. दहलीज पर रंगोली डालती हुई फूलमती मुझे अपनी हुलस में समझाती रही थी- एक्को दिन सूरज देवता न उगे तो दुनिया जहान में अन्हार छा जायेगा. धरती से जीवन खतम हो जायेगा. देखा जाय तो उ सबसे बड़ा भगवान हुये, उनका पूजा खूब मन लगा के  करना चाहिए. तभिए दीन-दुनिया में तरक्की होगा."  ललिता कौतुक से भर कर उसकी बातें सुनती रही थी.. सच, हमारे देश के ये अद्भुत लोक पर्व अपने छोटे-छोटे नियमों और परम्परओं से एक साधरण से साधारण अपढ़ मनुष्य को भी जीवन-जगत की बडी-बड़ी गंभीर, गूढ़ बातें कितनी सहजता और आसानी से सिखा जाते हैं.

'खरना' के दिन मेरी सास ने सभी व्रतिनों की तरह सारे दिन का उपवास रखा था. शाम को पूजा के बाद खीर, रोटी और केले का नेओज काढ़ा गया था. फूलमती अपने हिस्से का प्रसाद  पोटली में बांध कर खुशी-खुशी घर ले गई थी.

छठ व्रत के कठिन नियमों और ढेर सारे कामों के बीच दूसरे दिन ना जाने क्यों फूलमती मदद के लिये नहीं आई थी. अपने छत्तीस घंटे के लंबे निर्जला उपवास के दौरान नहाते-धोते, पूजा-पाठ करते और रातों को फर्श पर कम्बल बिछा कर सोते हुये ललिता की सास बीच-बीच में बड़बड़ाती रही थी- 'इनके लिये जितना भी करो, ई छोटजतिया लोग कभी उपकार नहीं मानता.' एक-दो बार किसी को फूलमती की खबर लेने भेजा भी तो उसने आकर बताया मकान में ताला पड़ा है.

बहुत मुश्किल से सब ने मिलकर किसी तरह पूजा सम्पन्न करवाया. प्रसाद के लिये ठेकुआ बनाना, कसार बांधना... फिर सांझ को घाट जाकर अस्त होते सूर्य को अर्घ्य चढ़ाना... रंग-बिरंगे पताकाओं से सजे नदी के घाट, रोशनियां, बजते लाउड स्पीकर, लोगों की भीड़ और औरतों के सम्मिलित कंठ से गाये जाने वाले गीत- " ऊ जे केरवा जे फरले घवोद से... ओ पर सूगा मेरराए…"  

ललिता काम करते, सजते-संवरते और सब के साथ मिल कर हंसते-गाते ही थक कर चूर हो गई थी. देर रात उसके पति और दोनों देवर जब घाट पर हाथी बैठाने के लिये जाने लगे तो वह चाह कर भी जा न सकी. ऐसा शायद पहली बार हुआ था वर्ना वह बचपन से इस त्योहार के हर काम में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेती रही थी. खास कर सुबह के अर्घ्य से पूर्व देर रात को घाट पर हाथी बैठाने को ले कर वह बहुत उत्साहित रहा करती था... कितना सुंदर और अद्भुत दृश्य होता है वह... पाँच पाँच गन्नों के सुरक्षा घेरे के बीच सिर पर मिट्टी के दो-दो कलश सम्हाले किसिम-किसिम के हाथी महाराज... हाथी और कलश के कांधे पर झिलमिलाते दीप... और इनके चारों तरफ सजे मिट्टी के प्यालों में छोटे-छोटे ठेकुए, नन्हे-नन्हे कसार, चीनिया केले, कागजी नींबू.... वातावरण में फैलता धूप और अगरबत्ती का पवित्र सुवास... रोशनी, खुश्बू और उत्साह का दूर-दूर तक फैला  एक अंतहीन साम्राज्य और गंगा के भाप उठते पावन जल में हिलकोरे लेती इस दृश्य की सुंदर छायाकृतियाँ... तीन दिन लबे इस पर्व का यह दृश्य उसे सबसे ज्यादा मनमोहक लगता है, लेकिन आज उसकी हिम्मत नहीं हुई... अब वह सीधे सुबह के अर्घ्य के समय ही जाएगी.

सूरज को अर्घ्य चढ़ा कर सुबह घाट से लौटते हुये फूलमती के घर के बाहर भीड़ देख कर ललिता अपनी सास के साथ रुक गई थी. उसने देखा- फूलमती आंगन में लोट-लोट कर विलाप कर रही थी. उसके जटा जैसे बाल धूल में लिथड़े हुए थे. बाद में पता चला था, राम सिंघासन के केले के बगान का काम छोड़कर बिगेसर दो पैसे ज़्यादा कमाने के लोभ में फतुहा की किसी दवा फैक्ट्री में काम करने लगा था. राम सिंघासन की पूछताछ के डर से फूलमती भी अपनी सास के साथ कई दिनों से गांव से भागी हुई थी. परसो सुबह-सुबह राम सिंघासन के लोगों ने बिगेसर को कहीं से ढूंढ़ कर बहुत बुरी तरह पीटा था. उसकी हालत खराब थी. किसी ने उसे हाजीपुर सदर अस्पताल पहुंचाया था मगर वहां उसकी हालत देखकर डॉक्टर ने उसे पी एम सी एच ले जाने के लिये कह दिया था. महात्मा गांधी सेतु पर अठारह  घंटे से जाम लगा था. एम्बुलेंस का सायरन भी कोई काम नहीं आ सका था. बीचे रास्ते बिगेसर मर गया. खून बहुत बह गया था उसका. लेकिन जाम ऐसा कि बिगेसर की लाश भी दूसरे ही दिन घर आई थी. लाश का चेहरा देख कर सब डर गये. काला बिगेसर एक दम फीका हो चला था, देह में एक बूंद खून नहीं. आंख भी जैसे उबला अंडा.

बिगेसर की मां छाती कूट-कूट कर कभी अपनी बहू को कोस रही थी तो कभी बैन लगा कर रो रही थी - "अभगला. दू पइसा जादा के लोभ में गांव छोड़ कर गया... केतना बार कहा अपना बूढ़ महतारी का कहना मानो, पर नही. राम सिंघासन के आदमी-जन से चोरा-नुका के केतना दिन रहता... ऊ का किया न किया इस बात में कुच्छों नहीं रखा है... जो दोस होता है गरीबे का होता है. दू रोटी सधाने के लिये जनम भर का जुआ गले में डालना पड़ता है. लो अब जिनगिए का जुआ कान्हा से उतर गया. एही लिए त कह रहे थे कि कहीं जाय से कुछ न होगा. बचना चाहता है तो चुपचाप जा कर ओकर गोड़ में नाक रगड़ कर थूक चाट ले...

दो दिन बाद शहर से लौटकर त्रिभुवन ने बताया था बिगेसर के काम छोड़ कर जाने से राम सिंघासन बहुत नाराज़ था. उसने थाना में उसके खिलाफ चोरी करके भागने का रिपोर्ट लिखवा दिया था और अफवाह भी फैला दी थी कि बिगेसर डाकू बन गया है और डाकुओं के आपस की लड़ाई में ही मारा गया. सुन कर ललिता दंग रह गई थी. खुले आम ऐसा अन्याय-अत्याचार और कहीं कोई सुगबुगाहट तक नहीं. पूरा गांव अनजान बना अपने-अपने घरों में दुबका हुआ था.

अब हर दो दिन में फूलमती के दुआर पर पुलिस की जीप आ कर रुक रही थी. देर-देर तक पूछताछ और राम सिंघासन की कोठी में थाना स्टाफ की दावत. कुछ ही दिनों में फूलमती के आंगन से उसके दो खस्सी और दस मुर्गे-मुरगियां गायब हो गयीं. एक दिन फूलमती की सास को अकेली देख कर ललिता ने फूलमती के बारे में पूछा तो उसने बताया- 'फूलमती को थानावाला सब पूछताछ के लिये सुबह-सुबह जीप में उठा ले गया है'. उस दिन फूलमती अपने घर नहीं लौटी थी. सारा गांव उसके नाम पर थू-थू कर रहा था. दूसरे दिन ललिता ने उसे अपने आंगन में चुपचाप बैठे हुये देखा था. उसके बार-बार बुलाने पर भी फूलमती ने कोई जवाब नहीं दिया था. उस समय फूलमती का चेहरा आषाढ़ के मेघ-सा काला दिख रहा था. देख कर ललिता का दिल बैठ गया.

इसके बाद फूलमती को जब-तब थाना बुलाया जाने लगा था. उसका बच्चा भी नुकसान हो गया. गांव के अधिकतर लोगों से उनकी बोलचाल बंद हो गयी थी. गांव वालों ने उन्हें एक घर करके रख दिया था. ललिता का सातवां महीना चल रहा था. उसकी सास उसे फूलमती से ज़्यादा मेल-जोल रखने से मना करती रहती थी. ललिता का वैसे भी कहीं आना-जाना बहुत कम हो गया था. किसी तरह अपना स्कूल चला रही थी.

फूलमती को लेकर आये दिन गांव में कोई ना कोई कहानी सुनने को मिलती. पनभरियां चटखारे ले-लेकर उसकी बातें एक-दूसरे से सांझा करतीं तो शाम को गांव के चौपाल में भी मर्दों के बीच उसी की कथा-कहानी गुलजार रहती. कोई कहता फूलमती डायन विद्या सीख रही है. रोज रात गांव के श्मशान में जा कर पूरी तरह नंगी होकर नर मुंडों की ढेर पर बैठ कर प्रेत साधना करती है, सर के बल उल्टी खड़ी हो कर पांव के दोनों तलवे में दीये बाल कर भोर रात तक नाचती है... जितने मुंह उतनी बातें.

एक दिन गौरी प्रसाद की बहू बीच पंचायत घूंघट काढ़ के आ खड़ी हुई कि फूलमतिया उसके दुआर पर रोज सुई से टांका हुआ नींबू, लत्ता का गुड़िया और सेनुर फेंक जाती है. इसीसे उसका बऊआ बीमार पड़ा है और ठीके नहीं हो रहा. दो और जनानियों ने भी यही शिकायत की. सरपंच ने फूलमती की सास को बुलाकर धमकाया. सास ने सब सुन घर जाकर फूलमती की रही-सही तोड़ कर मार-कुटम्मस की, पूरे गांव ने बड़े चाव से एक डायन को पिटते हुये देखा. उस दिन ललिता डॉक्टर को दिखाने शहर गई हुई थी. दूसरे दिन खबर सुनकर दोपहर के निर्जन में सबकी आंख बचाकर उसके घर जा कर देखा था, फूलमती एक कोने में गठरी बनी पड़ी हुई थी. बुखार से तमतमाता हुआ चेहरा, पूरी देह में लाल-नील धारियां... ललिता के बार-बार पुकारने पर भी आंख नहीं खोल पाई थी. पड़ी-पड़ी गोंगियाती रही थी. फूलमती की सास पलानी पर बैठ कर बड़बड़ा रही थी – 'ई भतरखऊकी, चुरईल हमरा बेटा के त खाईए गई, अब हमको भी खाईए के छोरेगी..." ललिता का जी कसैला हो आया था. पन्द्रह साल की एक बच्ची डायन, पतुरिआ, भतरखऊकी और जाने क्या-क्या... उजड़ी मांग, रूखे बाल, बिवाई पड़े पांव और सारे शरीर पर मार-पीट के निशान. एक बार ललिता ने उससे पूछा भी था कि वह अपने नैहर क्यों नहीं चली जाती. सवाल सुन कर फूलमती अजीब ढंग से मुस्कुराई थी- "कहां जाएँगे बहूजी. औरत जात का कही कोई घर नहीं होता, बस एक ठेकाना होता है, मिला तो मिला..."

ललिता अपने कमरे में बैठी-बैठी फूलमती की सास की गालियों का पथार बिछाना सुनती रहती- "रांड होकर भी इ खचरी का सौक कम नहीं होता. छापा का साड़ी चाहिये, केश में गमकौआ तेल चाहिये. चटोरिन का जीभ भी कम लम्मा नहीं है. पूरा डेढ़ गज का है. लपलपाता रहता है रात-दिन." पहले रात-दिन बोलने-झगड़ने वाली फूलमती इन दिनों एकदम चुप हो गई थी. सर झुकाकर या तो अपने पैर के अंगूठे से आंगन की मिट्टी खोदती रहती या काठी के झाड़ूं बांधती रहती. उसकी हरदम दिपदिपाने वाली आंखों के साथ जैसे उसकी जुबान भी गूंगी हो गई थी.

प्रसव से एक महीने पहले ललिता अपने मायके चली गई थी. इसके बाद उसे पता नहीं चला उसके पीछे कितनी बार कितनों ने फूलमती को भिनसार दिशा-मैदान जाते हुये या मवेशियों के लिये घास काटते हुये कभी नासनी के खेत में तो कभी तरोई के मचान के नीचे खींच लिया था; गांव वालों ने कभी गांव में बीमारी फैलने के कारण तो कभी किसी के बच्चे के बीमार पड़ जाने के कारण उसे डायन कह कर पीटा था, उसके बाल काट लिये थे या उसे पूरे गांव में मुंह काला करके घुमाया था. अपने मायके में प्यार-दुलार के बीच रहते हुये ललिता को रह-रह कर उसकी याद आती मगर वह करती भी तो क्या. बस अपना मन मसोस कर रह जाती.

एक सुंदर, तंदुरुस्त बच्चे को जन्म देने के छ्ह महीने बाद ललिता अपने ससुराल लौटी थी और लौट कर एक अजीब नज़ारा देखा था- फूलमती की झोपड़ी के भीतर-बाहर लोगों की उमड़ती हुई भीड़ और फूलमती मैया की जैका गगनभेदी उदघोष. सास ने बताया था, फूलमती पर देवी आने लगी है. दूर-दूर से लोग उसके दर्शन करने आते हैं. वह सबकी मन्नत पूरी करती है, हारी-बीमारी की अचूक औषध देती है. जो एक पांव पर आता है वह दो पांव पर लौटता है देवी के अस्थान से. उस दिन एक मुर्दे को जिन्दा कर दिया दो लात में. ललिता की सास ने बताया था फूलमती मैया के आशीर्वाद देने का ढंग भी निराला होता है. ना फल ना भभूत. बस लात और गालियां. ऐसी-ऐसी गंदी गालियां कि सुनने वालों के कान लाल हो जाते हैं. सबको माई के सामने जा कर साष्टांग लेटना पड़ता है. जिस पर माई प्रसन्न होती है उसके माथे, पीठ, कंधे पर धमाधम लात मारते हुये गाली-गलौज से उसके सात पुस्तों का श्राद्ध करती है फिर उसका झोंटा पकड़कर अपने आंगन से बाहर निकाल देती है. सिर्फ छोटे बच्चों को अपनी गोद में लेकर झुलाती है और लोरी गाती है. फूलमती मैया के लात का प्रसाद पाकर भक्त जन धन्य हो जाते हैं. मैया को चढ़ावे में सिर्फ लाल साड़ी, कुमकुम और बेला के फूल की वेणी चढ़ाई जा सकती है. मिठाई में गर्म बुंदिया और गुड़ की जलेबी. मैया रुपये-पैसे को हाथ भी नहीं लगाती. भक्त जन उनके दुआर के बाहर रेजगारी की ढेर लगा कर जाते हैं. सारी रात मैया की कोठरी से सिक्कों की खन-खन और खिल-खिल हंसी की आवाज़ सुनाई पड़ती है. फूलमती के इस नये अवतार की कथा सुन कर ललिता का चेहरा उजला हो उठा था- देवी के दर्शन उसे भी करना है.

दूसरे दिन गुरुवार था. यह देवी का दिन माना जाता है. नहा-धो कर लाल साड़ी, वेणी और सिन्दूर की डिब्बी ले कर ललिता अपने बच्चे के साथ फूलमती मैया के दर्शन करने सुबह-सुबह उसकी झोपड़ी गई थी. उस समय फूलमती का घर-आंगन दूर-दूर से आये हुये श्रद्धालुओं से खचाखच भरा हुआ था. जिस समय ललिता फूलमती की कोठरी में दाखिल हुई थी वह अपने पैरों के नीचे दंडवत पड़े हुये राम सिंघासन को लात से कोंचते हुये गंदी-गंदी गालियां बक रही थी. उस समय कितना भयंकर हो रहा था उसका रुप- जब फूल-सी चढ़ी हुईं लाल-लाल आंखें, सिंदूर से लिसरा हुआ कपाल और खुले हुये मेघ-से काले, घने बालों की जटा में गूंथी ताज़े बेला की महकती हुई वेणी. साड़ी भी टह-टह लाल. देख कर ललिता सिहर उठी थी. राम सिंघासन को कोढ़ फूटा था और उसी से निजात पाने की आशा लिये वह देवी के भीषण पदाघात सहता हुआ उनके श्री मुख से बरसने वाली भयंकर गालियों का भक्ति भाव से श्रवण करता हुआ दांत भींचे पड़ा हुआ था. भीषण प्रहार से अब तक उसका पूरा मुंह सूजकर कोहड़े की तरह दिख रहा था. दोनों आंखें मुंद कर प्राय: बंद हो गई थीं. सारे लोग जिनमें थाना दारोगा शंकर पासवान, नीलमणि पांडे, सरपंच की बहू सुमति और जाने कौन-कौन... हाथ में चढ़ावे की डलिया लिये इस अद्भुत दृश्य को चुपचाप भक्ति भाव से देख रहे थे.

राम सिंघासन को पीट-पीट कर बेहाल करने के बाद देवी फिर नकिया कर बोलते हुये झूमने लगी थी- मुझे सिन्दूर दे, वेणी दे, लाल साड़ी दे...

ललिता अपने नवजात बच्चे को लेकर आगे बढ़ी थी और उसे झूमती हुई फूलमती की गोद में डाल दिया था. ललिता पर दृष्टि पड़ते ही फूलमती अचानक से चुप हो गई थी. उसके चेहरे पर उस समय ना जाने कैसा भाव था. मानो देवी एकदम से मानवी हो कर ज़मीन पर उतर आई हो- वही पुरानी फूलमती- गरीब, दुखी, असहाय... ललिता ने उसकी मांग में खूब गाढ़ा करके सिन्दूर भरा था, उसके बालों में फूल की वेणी सजाई थी और लाल बनारसी खोल कर उसे ओढ़ा दिया था. सिन्दूर-कुमकुम से सजी फूलमती कितनी सुंदर लग रही थी उस समय. अंधियारी कोठरी में उसके रुप का टह-टह इंजोर. दोनों की आंखें मिली थी और एक साथ आंसुओं से भर आई थीं. उसी समय चारों ओर से रमरति मैया की जैका उद्घोष हुआ था. पीछे से ललिता की सास ने अधीर हो कर ललिता को टहोका लगाया था- जल्दी से मैया से वरदान मांग लो बहू- सुख, सम्पत्ति, आरोग्य... बच्चे को धीरे-धीरे झुलाती हुई फूलमती की ओर गीली, चमकती हुई आंखों से देख कर ललिता ने धीरे से कहा था- मुझे कुछ नहीं चाहिये, मैं अपनी देवी के लिए खुश हूँ.

ललिता की सास पीछे से ललिता के कंधे दबा कर उसे फूलमती के पैरों पर जबरन झुकाने लगी थी. मगर फूलमती ललिता को बीच में ही रोक कर उसके सीने से लग गई थी. उसे अपने अंकवार में लेती हुई ललिता जानती थी, फूलमती चुपचाप रो रही है. उसने उसे और कस कर अपनी बांहों में समेट लिया था. वह नहीं चाहती थी कि किसी को पता चले फूलमती रो रही है. रोती साधारण औरतें हैं, फूलमती की तरह देवियां नहीं.   
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इस कहानी पर आलोचक राकेश बिहारी का आलेख
जेंडर और जाति काया के भीतर, काया से बाहर    



जयश्री रॉय
18 मईहजारीबाग (बिहार)
अनकही, ...तुम्हें छू लूं जराखारा पानी (कहानी संग्रह)औरत जो नदी हैसाथ चलते हुये, इक़बाल (उपन्यास), तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) प्रकाशित
युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012 प्राप्त
पता : तीन माडमायनाशिवोलीगोवा - 403 517

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  1. साधरण औरतें रोती हैं देवियाँ नहीं ..........पंक्ति सारी पीड़ा सारी दास्ताँ बयान कर देती है .......औरत से देवी तक के सफ़र को तय करना आसान नहीं होता .........जाने कितनी मौत मरती है एक औरत तब इस मुकाम पर पहुँचती है..........एक चीत्कार को समेटे ........मगर सुनने के लिए कहीं किसी स्त्री का जिंदा होना भी जरूरी होता हैवर्ना दमघोंटू जीवन अन्दर ही अन्दर कैसे एक स्त्री का दाहसंस्कार कर देता है उसका प्रतीक है -----कायांतर यानि स्त्री में स्त्री का प्रवेश और फिर उसमे खुद की खोज ............अनेक अर्थ समेटे कहानी पितृसत्ता, पितृसोच के दुष्परिणाम को दर्शाती है तो दूसरी तरफ अंधविश्वास की भेंट चढ़े समाज का चित्रण करती है वहीँ अमानवीय दशाओं में गुजरती जिंदगियों का हाहाकारी चित्रण करती है ...........और एक वक्त आता है जब तोडनाजरूरी होता है ऐसी रूढ़ियों को शायद जीने के. लिए. जरूरी है. जैसे. लोहा ही लोहे. को.काटता.है.वैसे ही एक वक्त आता है जब इंसान इतना मजबूर हो जाता है कि न चाहते हुए भी उसको ऐसा कदम उठाना पड़ जाता है .........जाने कितने स्याह पक्षों को समेटे है कहानी जिन्हें हम देख कर जान कर भी अनदेखी कर जातेहैं

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  2. निशब्द हूँ । कहानी आँखों को ही नहीं अंतस को भी भिगोती है और पाठक को टीसते भावों और पीड़ा में गूँथकर अपने साथ बहा ले चलती है । फूलमती की विवशता और ललिता के ममत्व से ओतप्रोत यह कहानी पाठक को कठपुतली सा नचाकर एक साथ हँसने रोने को विवश करती है।

    अंत चमत्कृत करता है ।

    बधाई लेखिका को ।

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  3. गौरवेश कुमार25 मार्च 2015, 9:11:00 pm

    किसी कहानी की समीक्षा पर प्रतिक्रिया करना कठिन है. मैंने कायांतर को पढ़ना ही उचित समझा. कोई भी कहानी काल्पनिक नहीं हो सकती, उसका कहीं न कही सच्चाई से सम्बन्ध होता ही है. कायान्तर पढ़ते समय मैं बिल्कुल उन गावों के समीप था, जहाँ मैंने ऐसी घटना को घटित होते देखा है. कहानी का क्रम लगातार चलता रहा है. कहानी पढ़ते समय कब खत्म हुवा पता ही नहीं चला. मुझे ऐसा लगा कि मैं भी फूलमती के गांव का वासी हुँ. कहानी कथाकार के सोच को भी दर्शाती है. स्त्री की गहरी संवेदना को दर्शाती यह कहानी आज के परिप्रेक्ष में युवा पीढ़ियों के लिए एक गहरी सीख भी है. बहुत ही संवेदनात्मक एवं मार्मिक कहानी है. आप ऐसे ही लिखते रहिये… बहुत-बहुत शुभकामनाएँ।

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  4. संवेदना को भीतर तक छूनेवाली मार्मिक कहानी। हर दृश्य, हर विवरण कहानी को आगे बढ़ाने वाले, उसमें नया अर्थ भरने वाले। लोकेल पर इतनी महीन पकड़ बहुत कम ही कहानियों में मिलती है। फूलमती का दुःख जैसे भीतर धंस गया। लोक में डूब कर स्त्री संसार की दुर्दशाओं को कितनी सच्चाई से थाहती है यह कहानी। पाठक ऐसी ही कहानियों को खोजता है जो सीधे उसके हृदयद्वार पर दस्तक दे। ग्रामीण परिवेश पर लेखिका की पकड़ चकित करने वाली है। लेखिका और समालोचन दोनों को बधाई।

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  5. जॉयश्रीजी की यह कहानी उनके नए कहानी संग्रह कायान्तर में पढ़ चुकी हूँ। कल इस पर राकेश बिहारीजी का आलेख भी पढ़ा। कहानी ने पहले भी छुआ था मगर इस आलेख ने जैसे इसे बेहतर समझने के लिए एक नयी दृष्टि प्रदान की। कहानी जितना दिमाग में हलचल पैदा करती है उतना ही सम्वेदना को भी छूती है। फूलमती कोई एक स्त्री नहीं है। वह इस देश की करोड़ों बदनसीब औरतों की प्रतिनिधि है। और यह औरत किसी वर्ग विशेष की ही नहीं है। हर वर्ग की स्त्रियों की कमोबेश यही स्थिति है। किसी न किसी स्तर पर वे प्रताड़ित और पीड़ित हैं। मन की दमित इच्छाएं कभी किसी स्थिति विशेष में किस रूप में सतह पर उभर कर आती है। फूलमती का सिन्दूर मांगना, लाल साड़ी मांगना स्त्री मन की शृंगार के प्रति सनातन लगाव का प्रतीक है साथ ही पितृसत्ता के वर्चस्व का नकार भी! उसका शृंगार जीवन में किसी पुरुष की उपस्थिति का मोहताज नहीं।
    कथा की दूसरी विशेषतायें हैं आंचलिक शब्दों का प्रयोग, ग्राम्य जीवन का चित्रण, लोकपर्व का चित्रात्मक वर्णन! वर्णनात्मकता इस कहानी को बहुत जीवंत बना देती है जो कहानी की प्रवाह को भी एक सहज गति देती है। मिटटी की सोंधी खूशबू से भरी इस कहानी ने अंतर्मन को छू लिया। समालोचन और जॉयश्री रॉय को बहुत बधाई!

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  6. Exceptionally powerful! this is a masterpiece and one of the most emotionally poignant, tender, gripping, and heart wrenching story. I can't express in words how brilliantly you have written the thoughts of a deprived,oppressed and agonized girl and enormous cruelity, bittertruth and injusticof our evil society...i felt the unimaginable pain, the fear,heatread.. ..i was deeply involved in it..it is full of depth about the humain soul...Joyshree i am spellbound and speechless! you always transport me into a different world your every words reverberate in every drop of my soul..there is an invaluable quality in your writing..wise beyond words..an overwhelming emotion..that drowned my soul with deep emotions.. just finished reading ..and i am filled with tears..this unique unforgettable story left me with an inexpressible feeling of sadness.. it will remain with me.. hats off to you!

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  7. वंदना का कहा ही मेरा कहा मान लीजिये ,कहानी के लिए शुक्रगुजार हूँ.

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  8. बहुत अच्छी कहानी पढ़ते हुए भीतर तक थरथराहट होने लगती है , मार्मिक

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  9. कायांतर कहानी के रूप में एक दस्तावेज है जो समाज की परत-दर-परत उधेड़ते हुए निरंतर सवालों की बौछार करता है और बीच-बीच में संवेदनाओं को छूते हुए कई बार भावुक कर देता है।
    कहानी का ताना-बाना ऐसे शोषित समाज को कंेद्र में रखते हुए बुना गया है, जिसमें हर स्तर पर स्त्री को अमानवीय पीड़ाओं का सामना करना पड़ता है, उसके आत्मसम्मान का कोई मूल्य नहीं होता, कभी उसे डायन बताया जाता है तो कभी देवी! एक अबोध बालिका द्वारा वासना के क्षणों को ही मर्द का प्रेम मान लिया जाता है और उसी के जाल में फंसकर वह हर रोज अपमानित होती है, तिरस्कारित होती है। थाने में बलात्कार और अंत में अवसाद का शिकार होकर जब दैवीय शक्ति बन जाती है पुरूष का लतियाकर-गरियाकर अपनी कंुठा निकालती है।

    हमारे पितृसत्तात्मक समाज में कुछेक प्रतिशत औरतों की तरक्की को ही देखकर मान लिया गया है कि औरत की स्थिति अब सुधर चुकी है किंतु यह हजारों मील के सफर में उठे दो कदम से अधिक कुछ नहीं है। मधुमिता हो या फूलमती या ललिता, हर नारी के लिए मन का आकाश होना और देह का पिंजरा होना ही उसकी वास्तविक कष्ट है। वह ऐसा कुछ नहीं कर सकती, जो पुरूष की हरकतों से मेल खाता हो। उसे कोसना चाहिए उस ईश्वर को जिसने उसके मन को चिड़िया बनाकर छाती सा आसमां दिया। इसमें पुरूष का भला क्या दोष?

    आंचलिकता का पुट लिए कायांतर को कहने का अंदाज लेखिका जयश्री राय की अपनी विशेष शैली है, जिसमें गहन निरीक्षण शक्ति के साथ उनकी नैसर्गिक प्रतिभा के सहज दर्शन होते हैं। एक संपूर्ण कहानी को रचने के लिए लेखिका को मेरी ओर से बधाई और कामना कि वे ऐसे ही लिखती रहें।

    उमेश कुमार.

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  10. विभूति कुमार28 मार्च 2015, 2:50:00 am

    जयश्री जी
    नमस्कार ।
    आपकी कहानी ..कायांतर .. पढ़ी । मै चकित हूँ कि आपको गंवई शब्दों का इतना समृद्ध भंडार कहाँ से मिला । कहानी में कल्पना आरोप नहीं के बराबर है । गाँव में आज भी फूलवती है जिसके जीवन ने कभी कोई फूल नहीं खिला । सच कहा जाय तो मुद्दा गाँव का न होकर महिलाओं की आर्थिक निर्भरता है । शहरों में भी मजदूर महिलाओं की स्थिति कमोबेश यही है । स्त्री स्वतंत्रता का मार्ग शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता के गलियारों से गुजरता है ।
    भारतीय समाज में स्त्री इतनी दमित है कि ललिता सबकुछ जानते हुए भी मूकदर्शक है । यह चुप्पी बाकी कमजोर महिलाओं के दमन के लिये एक हद तक ज़िम्मेदार है । फूलवती के हक में ललिता को भी आगे आना होगा ।
    जयश्री जी , आपको सफल कहानी के लिये पुनः बधाई ।

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  11. सुदेश आर्य28 मार्च 2015, 2:56:00 am

    Joyshree Roy सखी !! कहानी पढ़कर आंखों के कोरों से दो बूंद आंसू टपक पड़े ! कब से पढ़ना चाह रही थी लेकिन क्या करूं टाइम ही नहीं मिलता.....!! लगा कि कहनी नहीं पढ़ रही वरन समाज की सब औरतों की पीड़ा से अंतर्मन छिलता जा रहा है !!
    इसके साथ ही कहानी से इतर मेरा सवाल है कि महिलाएं पोजेसिव क्यों होती हैं ? सिमोन का कहना है कि ......आज महिलाओं को दो आजादी चाहिए. आर्थिक आजादी और देह से आजादी। देह से आशय है, नारी को बचपन से ही समझा दिया जाता है कि देह ही उसकी मूल पूंजी है, देह की शुचिता गई तो कुछ भी ना बचेगा। और फिर सारा जीवन नारी का संघर्ष इस पूंजी की हिफाजत में ही गुजर जाता है। पुरुष पर देह की शुचिता लागू नहीं होती है। समाज भी उसकी दैहिक पूंजी की स्वतंत्रता को लेकर मुक्त है। बल्कि समाज का बड़ा हिस्सा तो पुरुष देह की पूंजी के बार बार अशुद्ध होने को महिमा मंडित भी करता है। और हैरानी की बात तो यह है कि इस महिमामंडन की साजिश में मां, बहन और पत्नी भी शामिल होती हैं।
    यहीं मैं मानती हूं कि नारी तभी पोजेसिव होती है, जब उसकी आर्थिक निर्भरता खतरे में होती है..? और उसे लगता है कि पति के तौर पर मिले पुरुष के संरक्षण से निकली तो उसकी देह की पूंजी की शुचिता खतरे में पड जाएगी। और यहीं आकर मैं सोच में पड़ती हूं कि महिला का पजेसिव होना कितना वास्तविक है,? कितना समर्पण है ? और कितना उसकी खुद की जरूरत? और एक ऐसी जरूरत, जिसके लिए महिला को बाध्य किया गया है।

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  12. आवरण में जीती है औरतें अपनी पीड़ा और खुद के होने के अर्थ को अनदेखा कर अपनों और समाज के द्वारा दी हुई जिंदगी को,
    फिर चाहे उसे अपने आत्मसम्मान का चीड़ हरण भी करवाना पड़ जाए।
    Joyshree Roy नें अपनी कहानी में एक अदृश्य परिवर्तन को बहुत ही संवेदनशीलता के साथ दिखाया।
    कि एक बार फिर ये साबीत किया कि हमारे समाज में स्त्री का दर्जा या तो अबला दासी है या देवी है
    उसे एक औरत होने का न तो अधिकार है न स्वतंत्रता है।
    कहानी की पृष्ठभूमि हमारे समाज के एक विशेष वर्ग पर होने के बावजूद प्रत्येक औरत के जीवन की दशा को इंगित करती है।
    बहुत बहुत बधाई जाॅयश्री तुम्हें समाज को आईने के सम्मुख लाने के लिये।

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  13. Kaayaantar padh liya...ek achhi kahani ke liye aapko badhaai! Bashaa par ghazab ki pakad hai..Rakesh ji ne achha likha hai..lagta hai aap ek badi rachna likhengi.Likhte rahiye.

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  14. आशीष पाण्डेय बाबा30 मार्च 2015, 2:00:00 am

    Joyshree Roy मैंने आपकी कायांतर कहानी पढ़ी। पहले तो मुझे आश्चर्य हो रहा है कि गोवा जैसे स्टेट में रहने के बावजूद आप इतनी ठेठ वज्र देहाती भाषा में कैसे उतर सकीं। कहानी वाकई बेहद ही मार्मिक और प्रशंसनीय है।
    इक्कीसवीं सदी के चश्मे को लगाने के कारण हम बहुत सी ऐसी चीजों को यह कहकर इग्नोर कर देते हैं कि यह तो पुरानी बाते हैं या फिर यह तो फलां जमाने में होता था। पर कहीं न कहीं यह सारी चीजें आज भी सुलग रही हैं। कहीं वह राख के ढेर के भीतर तो कहीं बाहर जैसे भी हैं पर उपस्थित हैं। वह चाहे डायन के नाम से हों या देवी के। बचपन में लिपटी बालिका वधू फूलमती के स्वाभाविक खिलंदड़ेपन को चरित्रहीनता का और थाने, खेत, खलिहान में न जाने कितनों के वीर्य, स्वेद, मिट्टी-धूल से लिथड़ा उसकी देह कैसे देवी के रूप में पवित्र हो जाती है। एक्यूप्रेशर विधि की तरह यह कहानी हमारे मन की संवेदनाओं के उन सभी प्वाइंट्स को दबाती हुई चलती है जहां से दर्द उठकर पूरे शरीर को झनझना देता है। तेज सी चलने वाली कहानी में कहीं कोई धार नहीं दिखती बस ऐसे लगता है जैसे इतनी पीर के साथ इस दर्द को बहाया गया है कि वह ऊपर ही ऊपर बहकर नहीं निकलता बल्कि भीतर तक रिसते हुए पहुंचता है और भिगो जाता है। ‘छिनरई’ करने के नाम पर पति-सास से कुटम्मस पाती फूलमती को खेत में, मचान में भोर में दोपहर में खींच लेने वाले मर्द बड़े गुनहगार हुए या वह बच्ची जो अपने बचपन में ही ‘मेहरारू’ के नाम पर रात भर मर्दानगी के नीचे पिसने को लाचार है। संवेदना और पीड़ा, भाव और करूणा के सहारे बुनी गई ‘कायांतर’ शुरू में मामूली सी रेखाओं से उभरकर अंत तक पहुंचते-पहुंचते इतनी गझिन और भारी हो जाती है कि रात को देवी की कोठरी से आने वाली खिल खिल हंसी और ललिता के सामने उसके आंसू दोनों एक होकर इतना मर्मांतक प्रहार करते हैं कि हम खुद अपनी आंखें झुका लेते हैं कि आज भी ऐसा हो रहा है तो बौद्धिक, तार्किक फलाना ढेकाना कहकर डींग मारने वाले समाज में हम कितने खोखले हैं। जो आज भी नारकीय जीवन में जिंदगियों को सड़ते-गलते पिसते नुचते खसोटते देखते हैं। कहानी इतना शर्मिंदा और आत्मलोकन करने को मजबूर करती है कि अंत में फूलमती के आंसू जैसे एक झन्नाटेदार तमाचा मारते हैं। वहीं गांव, समाज के ठेकेदार जो एक मासूम बच्ची को बालिका वधू और फिर बालिका वधू को ‘छिनरई’ करने वाली कलंकिनी और फिर विधवा, फिर ‘भतरखउनी, चुरइल, डायन, टोनही’ के बाद जबरन गांव भर की लिजलिजे, गिजगिजे वीर्य से भरने वाला ‘गटर’ और अंत में उन्हीं को लतियाने वाली देवी। वाकई यह कायांतर झांकने पर मजबूर करता है सोचने पर मजबूर करता है कि कहीं अपने आसपास किसी फूलमती को देवी बनने की इस सारी प्रक्रिया को चुपचाप देखने के कारण हम भी तो उसके कायांतर में उसके नारीत्व के अंतिम संस्कार के दोषी तो नहीं। यही इस कहानी की सार्थकता है। बेहद ही धारदार ढंग से एक मामूली से लगने वाले बहुत बड़े सवालों को उठाने के लिए साधुवाद।

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