सुलोचना वर्मा की कविताएँ
उन दिनों
नहीं उगे थे मेरे दूध के दांत उन
दिनों
फिर भी समझ लेती थी माँ मेरी हर एक
मूक कविता
जिसे सुनाती थी मैं लयबद्ध होकर हर
बार
जैसे पढ़ा जाता है सफ़ेद पन्ने पर ढूध
से लिखी इबारत को
ममता की आंच में स्पष्ट हो उठता था
मेरा एक-एक शब्द
माँ ने अपनी कविता में मुझको कहा चाँद
और उस चाँद से की मेरी नज़र उतारने की
गुज़ारिश
चाँद ने बदले में लिख डाली कविता
अपनी रौशनी से मुझ पर
उन दिनों चाँद पर एक औरत
दोनों पाँव पसारे
रेशमी धागों से गेंदरा सिला करती थी
जिसके किनारों पर लगे होते थे
मेरी माँ की साड़ी के ज़री वाले पार
कुआं
मुझे परेशान करते हैं रंग
जब वे करते हैं भेदभाव जीवन में
जैसे कि मेरी नानी की सफ़ेद साड़ी
और उनके घर का लाल कुआं
जबकि नहीं फर्क पड़ना था
कुएं के बाहरी रंग का पानी पर
और तनिक संवर सकती थी
मेरी नानी की जिंदगी साड़ी के लाल होने
से
मैं अक्सर झाँक आती थी कुएं में
जिसमे उग आये थे घने शैवाल भीतर की
दीवार पर
और ढूँढने लगती थी थोड़ा सा हरापन नानी
के जीवन में
जिसे रंग दिया गया था काला अच्छी तरह
से
पत्थर के थाली -कटोरे से लेकर, पानी के गिलास तक में
नाम की ही तरह जो देह था कनक सा
दमक उठता था सूरज की रौशनी में
ज्यूँ चमक जाता था पानी कुएं का
धूप की सुनहरी किरणों में नहाकर
रस्सी से लटका रखा है एक हुक आज भी
मैंने
जिन्हें उठाना है मेरी बाल्टी भर
सवालों के जवाब
अतीत के कुएं से
कि नहीं बुझी है नानी के स्नेह की
मेरी प्यास अब तक
उधर ढूँढ लिया गया है कुएं का विकल्प
नल में
कि पानी का कोई विकल्प नहीं होता
और नानी अब रहती है यादों के अंधकूप
में !
घर से भागी हुई लड़की
घर से भागी हुई लड़की
चल पड़ती है भीड़ में
लिए अंतस में कई प्रश्न
डाल देती है संदेह की चादर
अपनापन जताते हर शख्स पर
पाना होता है उसे अजनबी शहर में
छोटा ही सही, अपना भी एक कोना
रह रहकर करना होता है व्यवस्थित
उसे अपना चिरमार्जित परिधान
मनचलों की लोलुप नज़रों से बचने के लिए
दबे पाँव उतरती है लॉज की सीढियां
कि तभी उसकी आँखें देखती है
असमंजस में पड़ा चैत्र का ललित आकाश
जो उसे याद दिलाता है उसके पिता की
करती है कल्पना उनकी पेशानी पर पड़े बल
की
और रह रहकर डगमगाते मेघों के संयम को
सौदामनी की तेज फटकार
उकेरती है उसकी माँ की तस्वीर
विह्वल हो उठता है उसका अंतःकरण
उसके मौन को निर्बाध बेधती है प्रेयस
की पदचाप
और फिर कई स्वप्न लेने लगते हैं आकार
पलकों पर तैरते ख्वाब के कैनवास पर
जिसमें वह रंग भरती है अपनी पसंद के
यादें, अनुभव, उमंग और आशायें
प्रत्याशा की धवल किरण
और एक अत्यंत सुन्दर जीवन
जिसमें वह पहनेगी मेखला
और हाथ भर लाल लहठी
जहाँ आलता में रंगे पाँव
आ रहे हों नज़र
कैसे तौले वह खुद को वहाँ
सामाजिक मापदंडों पर
पीहर
बाटिक प्रिंट की साड़ी में लिपटी लड़की
आज सोती रही देर तक
और घर में कोई चिल्ल पो नहीं
खूब लगाए ठहाके उसने भाई के चुटकुलों
पर
और नहीं तनी भौहें उसकी हँसी के आयाम
पर
नहीं लगाया "जी" किसी
संबोधन के बाद उसने
और किसी ने बुरा भी तो नहीं माना
भूल गयी रखना माथे पर साड़ी का पल्लू
और लोग हुए चिंतित उसके रूखे होते
बालों पर
और एक लम्बे अंतराल के बाद, पीहर आते ही
घरवालों के साथ साथ उसकी मुलाक़ात हुई
अपने आप से, जिसे वो छोड़ गयी थी
इस घर की दहलीज पर, गाँव के चैती मेले में
आँगन के तुलसी चौड़े पर, और संकीर्ण पगडंडियों में
मेरे जैसा कुछ
नहीं हो पायी विदा
मैं उस घर से
और रह गया शेष वहाँ
मेरे जैसा कुछ
पेल्मेट के ऊपर रखे मनीप्लांट में
मौजूद रही मैं
साल दर साल
छिपी रही मैं
लकड़ी की अलगनी में
पीछे की कतार में
पड़ी रही मैं
शीशे के शो-केस में सजे
गुड्डे - गुड़ियों के बीच
महकती रही मैं
आँगन में लगे
माधवीलता की बेलों में
दबी रही मैं
माँ के संदूक में संभाल कर रखी गयी
बचपन की छोटी बड़ी चीजों में
ढूँढ ली गयी हर रोज़
पिता द्वारा
ताखे पर सजाकर रखी उपलब्धियों में
रह गयी मैं
पूजा घर में
सिंहासन के सामने बनी अल्पना में
हाँ, बदल गया है
अब मेरे रहने का सलीका
जो मैं थी, वो नहीं रही मैं.
बीता हुआ वक़्त
क्या बाँधा किसी ने उस इकलौते कुत्ते
को
मरुथल में काटा जिसने ऊँट पर बैठे
इंसान को
और जिंदगी की अदालत में मुजरिम बना
वक़्त
क्या वक्त इतना था बुरा कि मिले उसे
सजा उम्रकैद की
और दर्ज होकर रह जाए उसका बुरा होना
इतिहास में
फिर मान ले मानदण्ड लोग अपने बचाव की
खातिर उसे
क्या ज़िक्र हुआ किसी किताब में उन
करोड़ों लोगों का
जो चढ़े ऊँटों पर एक नहीं, कई बार
और जिन पर नहीं किया हमला किसी कुत्ते
ने
काश हम सीख पाते कि हादसों से इतर हैं
घटती
सुंदर घटनाएं भी जीवन में
कि बीता हुआ वक़्त गुज़र नहीं पाता
ठहर जाता है हमारी स्मृतियों में
____________________________
सुलोचना वर्मा
३
अक्टूबर १९७८
(जलपाईगुड़ी, पश्चिम बंगाल)
कॅंप्यूटर
विज्ञान के क्षेत्र मे कार्यक्रम प्रबंधक
आगमन
तेजस्विनी सम्मान
डी
-१ / २०१ , स्टेलर सिग्मा, सिग्मा-४, ग्रेटर
नॉएडा, २०१३१०
९८१८२०२८७६ / verma.sulochana@gmail.com
कवितायें अच्छी पठनीय उल्लेखनीय हैं
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कवितायेँ।
जवाब देंहटाएंअच्छी और सहज कविताएँ , विशेषकर पीहर, कुआँ और बीता हुआ वक़्त. कवियित्री को बधाई.
जवाब देंहटाएंबधाई तेज
जवाब देंहटाएंकंडवाल मदन मोहन
बीता हुआ वक्त
हटाएंमेरे जैंसा कुछ
पीहर
घारसे भागी लड़कियां
माशा अल्लाह हैं सुलोचना जी!
कंडवाल मोहन मदन
सुन्दर कवितायेँ।
जवाब देंहटाएंवाकई में !
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कवितायेँ ..........
जवाब देंहटाएंसुलोचना वर्मा एक बेहतरीन कवियत्री हैं, ........सारी कवितायेँ विस्मृत करती हैं .........शानदार / जानदार !!
जवाब देंहटाएंभरे मन से रची
जवाब देंहटाएंभरी भरी कविताएं
बेहतरीन और मन से जुडती रचनायें .
जवाब देंहटाएंप्रभावी लेखन खासकर उन दिनो और पीहर पर इसका यह आशय नही कि घर से भागी ...या मेरे जैसा कुछ यूं ही स्मृति से गुजर गईं.
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