1857 का संघर्ष न केवल इतिहास के लिए बल्कि साहित्य के लिए भी एक चुनौती है. इतिहास में जहाँ इसके महत्व को कम करके इसे स्थानीय विद्रोह के रूप में देखा गया, आधुनिकता और रूढ़िवादिता के द्वैत में परखा गया, वही साहित्य में इसकी स्मृतियां धुंधली की गयीं और आज उस संघर्ष को भुलाने तक की बातें कही जा रही है. यह गदर अपनी मिलीजुली प्रवृतियों के कारण जहाँ एक ओर धार्मिक संक्रमण का शिकार है वहीँ इसमें साम्राज्यवाद और सामन्तवाद के विरुद्ध भी चेतना सक्रिय दिखती है. इसकी व्याख्या और इसके मूल्यांकन की आवश्यकता आज भी शेष है. महान उर्दू शायर ग़ालिब ने गदर की चर्चा ‘दस्तम्बू’ में की है. इसी को आधार बनाकर पंकज पराशर ने हिंदी प्रदेश में इसके यथार्थ को देखने की कोशिश की है.
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ग़दर के विद्रोह का
यथार्थ और हिंदी प्रदेश
(संदर्भः मिर्ज़ा ग़ालिब का रोचनामचा ‘दस्तंबू’)
पंकज पराशर
यूं तो उर्दू शायरी में दर्दो-ग़म के लिए बार-बार मीर तक़ी मीर
को याद किया जाता है,
‘नवाए
मीर सुनाओ बहुत उदास है रात’, लेकिन
ग़ालिब ने जिस दौर में यह लिखा था, ‘तज़किरा देहलि-ए-मरहूम का ऐ दोस्त न छेड़’ वह उस देहली की बात है, जो अंग्रेज़ों की चढ़ाई और आज़ादी की
लड़ाई के रहनुमा आख़िरी मुग़ल बादशाह की बेदस्तोपाई पर आंसू बहा रही थी. मिर्ज़ा ग़ालिब
की अज़मत की पहली पहचान ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना अल्ताफ हुसैन हाली ने की
है. ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली लिखते हैं, ‘ग़दर के ज़माने में मिर्ज़ा देहली से, बल्कि घर से भी बाहर नहीं निकले.
ज्यों ही बग़ावत का उपद्रव उठा, उन्होंने
घर का दरवाजा बंद कर लिया और एकांत कक्ष में ग़दर के हालात लिखने शुरू किए. हालांकि
देहली-विजय के बाद महाराजा पटियाला की तरफ से मरहूम हक़ीम महमूद ख़ाँ और उनके
पड़ोसियों के मकान पर,
जिनमें
मिर्ज़ा ग़ालिब भी थे,
सुरक्षा
के लिए एक पहरा बैठ गया था. इसलिए वे विजयी सिपाहियों की लूट-खसोट से सुरक्षित रहे.
मगर फिर भी उनको तरह-तरह की तक़लीफ़ें उठानी पड़ीं.’
सन् 1857 की क्रांति के दौरान मिर्ज़ा ग़ालिब
कई तरह की मुश्किलों से गुज़रे. अपने इस तजुर्बे को ग़ालिब ने 11 मई, 1857 से लेकर 31 जुलाई, 1858 तक दस्तंबू नामक डायरी में
दर्ज़ किया है,
जिसकी
भाषा फ़ारसी है. ग़ालिब की यह डायरी जब छपकर आयी तो वह उर्दू गद्य का ऐसा प्रतिमान
बन गयी,
जिसके
नक़्श-ए-क़दम पर बाद में उर्दू के अदीब चलते रहे. निराला ने दुःख गझिन होने पर कहा
था, ‘हो गया व्यर्थ जीवन, मैं रण में गया हार’ या ‘मरा हूं हज़ार मरण.’ ग़ालिब ग़दर के वक़्त किन हालात से
गुज़र रहे थे,
‘मुझे
क्या बुरा था मरना गर एक बार होता.’ 1857 के ग़दर के हालात को जिस तरह मिर्ज़ा
ने दर्ज़ किया है,
उससे
उनकी वाबस्तगी के साथ-साथ चश्मदीदगी का पता भी चलता है. अपने एक दोस्त को लिखे ख़त
में उस वक़्त की दिल्ली और उससे मुतास्सिर ख़ुद के हालात को बयान करते हुए मिर्ज़ा
फरमाते हैं,
‘पूछो
कि ग़म क्या है?
ग़म-ए-मर्ग, ग़म-ए-फ़िराक़, ग़म-ए-रिज़्क, ग़म-ए-इज़्जत?’ क्या-क्या नहीं झेलना पड़ा उन्हें.
ख़त में आगे लिखते हैं, ‘हक़ीक़ी मेरा एक भाई दीवाना होकर मर
गया. उसकी बेटी,
उसके
चार बच्चे,
उनकी
मां यानी मेरी भावज जयपुर में पड़े हैं. इस तीन बरस में एक रुपया उनको नहीं भेजा.
भतीजी क्या कहती होगी कि मेरा भी एक चचा है. जहां अगनिया (संपन्न) और उमरा के
अजवाज (पत्नियां) व औलाद भीक मांगते फिरें और मैं देखूं. इस मुसीबत की ताब लाने को
जिग़र चाहिए.’
ग़ालिब
की आँखों के सामने दिल्ली बदल रही थी. उनके दोस्तों को बरतानवी हुक़्मरानों के
द्वारा मारा-पीटा और फांसी पर चढ़ाया जा रहा था. वतन से बेवतन किया जा रहा था. यह
तसव्वुर ही दिल को झकझोर कर रख देती है कि ग़ालिब यह सब झेल रहे थे और ख़ुद को
बेग़ुनाह साबित करने के लिए ब्रिटिश हुक़्मरानों की जी-हुज़ूरी कर रहे थे. कभी ग़ालिब
ने बहुत फ़ख़्र से कहा था कि, ‘सौ पुश्त से है पेशा-ए-आबा सिपहगरी’ उन्हीं ग़ालिब को हालात ने यह लिखने
को मज़बूर कर दिया,
‘वो
ताब ओ मज़ाल वो ताक़त नहीं मुझे.’
मीर,
निराला, नजरूल इस्लाम, मंटो, ब्रेख़्त, भुवनेश्वर-दुनियावी पाखंड को
बर्दाश्त न कर सकने और समझौतावादी रुख़ अख़्तियार करने से इनकार करने के कारण पागल
हो गये,
लेकिन
मिर्ज़ा ग़ालिब पागल नहीं होने के लिए अभिशप्त थे. मीर के पिता सूफी थे और उन्हें
विरासत में विदेहवादी संस्कार मिला था, जबकि
ग़ालिब, मीर के मुक़ाबले भौतिक दुःखों से
ज़्यादा संतप्त रहे. ग़ालिब के जीवन की एक घटना बेहद दिलचस्प और चर्चित है. एक रोज़
कुछ गोरे सैनिक मिर्ज़ा के मकान में घुस आए थे. राजा के सिपाहियों ने बहुत रोका, मगर उन्होंने कोई दया नहीं की. ग़ालिब
अपनी डायरी ‘दस्तबूं’ में लिखते हैं, ‘उन्होंने अपनी शराफ़त के कारण घर से
असबाब को बिल्कुल नहीं छेड़ा, मगर
मुझे मय चंद पड़ोसियों के कर्नल ब्राउन के सामने, जो मेरे मकान के क़रीब हाजी
कुतुबुद्दीन सौदागर के घर में ठहरे थे, ले
गए. कर्नल ने बहुत नरमी और इंसानियत से हमारा हाल पूछा, और हमको विदा कर दिया.’
मिर्ज़ा ने हालांकि यह मुआमला चंद अल्फ़ाज में निबटा दिया है.
लेकिन सचाई यह है कि मिर्ज़ा जब कर्नल ब्राउन के सामने गये तो बेहद दिलचस्प वाक़या
पेश आया. वे कर्नल ब्राउन के सामने गये तो उस वक़्त एक विशेष पगड़ी उनके सिर पर थी, जो आमतौर पर तत्कालीन मुसलमान नहीं
पहनते थे. मिर्ज़ा का नया ढंग देखकर कर्नल ने उनसे सवाल किया, ‘वेल, तुम मुसलमान?’ मिर्ज़ा ने तुरंत कहा, ‘आधा.’ कर्नल ने आश्चर्यचकित होकर पूछा, ‘इसका क्या मतलब?’ मिर्ज़ा ने अगले ही पल जवाब दिया, ‘जनाब, शराब पीता हूं, सूअर नहीं खाता.’ कर्नल यह सुनकर हँसने लगा. फिर हँसते
हुए पूछा कि,
‘तुम
सरकार की फ़तह के बाद पहाड़ी पर क्यों हाज़िर नहीं हुए?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘मैं चार कहारों का अफ़सर था, वे चारों मुझे छोड़कर भाग गये.
क्योंकर हाजिर होता?’
उसके
बाद निहायत मेहरबानी से मिर्ज़ा और उनके तमाम साथियों को कर्नल ने विदा कर दिया.
11
फरवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने नवाब वाज़िदअली शाह
को गद्दी से बेदख़ल करके कलकत्ता के मटिया बुर्ज में नज़रबंद कर दिया. 10 जुलाई, 1856 में बादशाह के सबसे बड़े बेटे तथा
उनके वारिस मिर्ज़ा फ़खरू की मौत हो गयी. यानी 1856 में मिर्ज़ा ग़ालिब के दोनों सहारे
ख़त्म हो गए. इसके अगले वर्ष मई 1857
में सैनिकों ने विद्रोह कर दिया, जिसकी
वज़ह से अस्सी साला,
नाममात्रा
के बादशाह बहादुरशाह ज़फर पर मुकदमा चला और उन्हें रंगून भेज दिया गया. जहां उन्हें
इंतक़ाल के बाद ‘दो ग़ज ज़मीं भी न मिली कू-ए-यार में.’ बादशाह जफ़र के सबसे बड़े बेटे खि़जर
सुलतान मेज़र हडसन की गोली के शिकार बन गए. यह तथ्य अब जगज़ाहिर है कि 1857 की क्रांति में स्वतंत्राता सैनिकों
द्वारा अंग्रेजी शासन का कार्यालय भी लूट लिया गया. इसके बाद हिंदुस्तान की जो
हालत हो गयी थी उसे कारण मिर्ज़ा की ‘पिंसन’ बंद हो गई.
उनकी बेगम उमराव ने हिफ़ाज़त के ख़्याल से अपने सारे गहने-जे़वर, क़ीमती कपड़े और बाक़ी दूसरी चीज़ें ग़दर
के दिनों में काले मियां के यहां रखवा दिया था. सोचा था कि काले मियां फ़कीर और पीर
हैं, इस वज़ह से सारा सामान उनके यहां
महफ़ूज रहेगा. मगर ग़दर में स्वतंत्रता-सैनिकों की शिकस्त के बाद अंगेज़ों द्वारा
योजनाबद्ध ढंग से दिल्ली की जो लूटमार की गयी, उसमें बदकिस्मती से काले मियां का घर
भी बच नहीं सका. बदकिस्मती से जो कुछ चीज़ें बच गयी थीं, वह भी हाथ से चली गई. इसके बाद ग़ालिब
अपनी गृहस्थी और औलादों से भी मुंह चुराने लगे और तय यह किया कि पत्नी उमराव बेग़म
को लोहारू भेज दिया जाए और खु़द देहली में तन्हा रहें. कारण यह था कि लोहारू स्टेट
से उन्हें पचास रुपया माहवार मिलता था, सो
इतने में वहां रहकर उनकी बीवी-बच्चे का गुज़ारा हो जाने का इमकान था. अंत में तय यह
किया कि सबको लोहारू भेज देने के बाद मिर्जा भी दिल्ली छोड़कर कहीं और जाएंगे, लेकिन रामपुर के नवाब फ़िरदौस मकान से
ख़ूसूसी तआल्लुक होने के कारण कुछ और ही हुआ.
हुआ यह कि बचपन के दिनों में जब नवाब रामपुर तालीम के सिलसिले
में दिल्ली आए हुए थे,
उस
वक़्त वे ग़ालिब से फारसी पढ़ते थे. सन् 1857
में रामपुर के तख़्त पर युवा नवाब फ़िरदौस तख़्तनशीं हुए. चूंकि ग़ालिब बीवी-बच्चों को
लोहारू भेजने के बाद दिल्ली छोड़ने का इरादा तकरीबन कर चुके थे. तभी उनके दोस्तों
ने उन्हें यह राय दी कि क्यों नहीं वे नवाब रामपुर को अपने हाल के बारे में लिखते
हैं? दोस्तों का यह मशविरा ग़ालिब को ठीक
लगा और उन्होंने तत्काल एक ख़त लिखकर रामपुर रवाना कर दिया. ग़ालिब के इस ख़त का
नवाब रामपुर ने तुरंत जवाब दिया. 16
जुलाई, 1859 को उन्होंने ख़त लिखकर मिर्ज़ा को यह
इत्तला भिजवायी कि उन्हें सौ रुपया माहवार बिला-नागा मिलता रहेगा. नवाब रामपुर
द्वारा तयशुदा यह रकम मिर्ज़ा को ता-उम्र मिलती रही. मुफ़लिसी में जो उन्होंने लिखा
था, ‘अब इस मामूर-ए-क़हत- ए-ग़म-ए-उल्फत है/हमने यह माना कि दिल्ली में रहें पर
खाएंगे क्या?’
उसका
इंतजाम हो गया और नवाब रामपुर के इस ख़त के मिलने के बाद ग़ालिब दिल्ली में ही बने
रहे. फ़िलवक़्त उनकी पैसे की मुश्किलें दूर हो गईं.
8
सितंबर,
1857 को
अंग्रेज़ों ने दोबारा दिल्ली पर कब्ज़ा ज़मा लिया. याद रहे कि 11 मई को स्वतंत्रता-सैनिकों ने दिल्ली
पर कब्ज़ा जमा लिया था,
लेकिन
चार महीने तक चले लंबे संघर्ष के बाद अंततः अंग्रेज दिल्ली पर कब्ज़ा करने में
क़ामयाब हो गए. 1857 के विद्रोह के कारणों की पड़ताल
करते हुए सर सैयद अहमद खां ने ‘असबाबे
बगावते हिंद’
नाम की
एक किताब लिखी,
जो
किसी हिंदुस्तानी के द्वारा ग़दर पर लिखी गई पहली किताब है. अज़ीब यह है कि सर सैयद
अमहद खां साहब जहां एक तरफ विद्रोह की वजहों को पूरी हमदर्दी के साथ देखते हैं, वही दूसरी तरफ ग़दर की सख़्त लहजों में
मज़म्मत भी करते हैं. यह ज़िक्र यहां इस वज़ह से भी ज़रूरी है कि सर सैयद अहमद खां और
मिर्ज़ा ग़ालिब में एक प्रकार की तनातनी चलती रहती थी और सर सैयद मिर्ज़ा को सम्मान नहीं
देते थे. बाद में हालांकि उनके संबंध थोड़े ठीक हुए, लेकिन घनिष्ठ नहीं हुए. सो, सर सैयद ने ग़ालिब को क़ाबिल-ए-जिक्र
नहीं समझा.
मिर्ज़ा की डायरी ‘दस्तबूं’ एक चश्मदीद शख़्स का किया हुआ कलमबंद
बयान है, इसलिए ग़दर के दरम्यान दिल्ली की
हालत का बयान उन्हीं आँखों से देखिए, ‘पूरा
शहर उस वक्त मुसलमानों से खाली हो गया.’ मिर्ज़ा
के हिंदू दोस्तों के अलावा जो उनके पास बराबर आते रहते थे और हर तरह से वे उनका
दुःख दूर करते थे. कोई उनका गमख़्वार नहीं था. ऐसे ही वक़्त में उनके छोटे भाई का
इंतकाल हुआ था,
दिल्ली
के हालात क्या थे,
ग़ालिब
की ही जुबानी सुनिए,
‘ऐसा
लगता है जैसे मज़दूर और ज़मीन खोदने वाले इस शहर में रहते ही नहीं थे. हिंदू लोग
मृतक के शरीर को नदी के किनारे जला सकते थे, परंतु मुसलमान तो बाहर निकलने की
हिम्मत भी नहीं कर सकते. भले ही वे सामूहिक रूप से या दो-तीन व्यक्तियों के सहारे
कंधों पर मुर्दा निकालें,
उन्हें
इसकी अनुमति नहीं. ऐसे में सवाल यह उठता है कि वे किस प्रकार अपने मुर्दों को नगर
से बाहर ले जाकर मिट्टी दें?’ इसी
स्थिति के कारण ग़ालिब ने अपने भाई को बेशिनाख्त लाश की तरह मिट्टी दी, ‘पटियाला के एक सिपाही को आगे-आगे
लेकर दो नौकरों की सहायता से हम लाश को बाहर लाए. उन्होंने लाश को धोया और मेरे घर
से कपड़ों के दो-तीन टुकड़े लेकर लाश को लपेटा. फिर घर के पास वाली मस्ज़िद की ज़मीन
खोदकर लाश को दफ़्न किया और वापस आ गए.’
इस वाकये के बाद ग़ालिब अंदर से टूटने लगे. जब आमदनी का कोई
ज़रिया न रहा और पंद्रह महीने तक पेंशन भी बंद रही तो मिर्ज़ा बिस्तर और कपड़े
बेच-बेचकर जीवन-बसर करने लगे. इस बात का उन्हें कुछ ज़्यादा ही डर लगा रहता कि एक
दिन जब सारे कपड़े उनके बिक जाएंगे तब वे क्या खाएंगे? उस पर तुर्रा ये कि, ‘इस बुरे वक़्त में जो लोग हमेशा
कुछ-न-कुछ लाभ उठाते रहे हैं, मुर्ग़े
की भांति असमय ही हृदय विदारक आवाज़ निकालकर मेरी रूह को दुःख पहुंचाते हैं और मुझे
और भीतर से तोड़ देते हैं.’
बार-बार
उन्हें तकलीफ़ें मिलती रहीं. मिर्ज़ा ग़ालिब ने इसके बावजूद इनसानियत और नेकनीयती का
दामन नहीं छोड़ा.
मिर्ज़ा के शागिर्द ‘हाली’, ‘यादगारे ग़ालिब’ में लिखते हैं, ‘दिल्ली के मशहूर लोगों में से एक तो
मिर्ज़ा के दिली दोस्त थे और ग़दर के बाद जिनकी हालत बेहद ख़राब थी, एक रोज़ छींट का फ़रे-गुल पहने हुए
मिर्ज़ा से मिलने आए. मिर्ज़ा ने कभी उनको मलीदा या ज़ामादार वगैरह के चोगों के सिवाए
हल्का-कपड़ा पहने नहीं देखा था. छींट का फ़रे-गुल उनके बदन पर देखकर उनका दिल भर आया.
उनसे पूछा कि,
ये
छींट का फरे गुल कहां से ली? मुझे
ये बहुत भली मालूम होती है. आप मुझे भी फ़रे-गुल के लिए ये छींट मंगवा दें.’ तब उनके दोस्त न फ़रमाया, ‘फ़रे-गुल आज़ ही बनकर आया है और मैंने
इसी वक़्त उसको पहना है. अगर आपको पसंद है, तो यही हाज़िर है.’ जी तो चाहता है इसी वक़्त आपसे छीनकर
पहन लूं,
मगर
जाड़ा शिद्दत से पड़ रहा है,
आप
यहां से मक़ान तक क्या पहनकर जाएंगे? मिर्ज़ा
ने कहा,
फिर
इधर-उधर देखकर खूंटी पर से अपना मलीदे का नया चोगा उतारकर उन्हें पहना दिया, और इस खूबसूरती के साथ वह चोगा उनकी
नज़र किया. जैसे बाद में निराला गरीबों, दोस्तों
के लिए करते थे.
हाली के इस चश्मदीद बयान से यह भी पता चलता है कि मिर्ज़ा अपने
दोस्तों का किस तरह ख़्याल रखते थे. ग़ालिब ने कितना ख़ूब फ़रमाया, ‘हम कहां के दाना थे, किस हुनर में यकता थे/ बेसबब हुआ ‘ग़ालिब’ दुश्मन आसमां अपना.’ विडंबना देखिये कि मिर्ज़ा इस शेर में
फ़रमाते हैं कि हम कोई चतुर और चालाक आदमी नहीं थे और न ही किसी कला में ही
अद्वितीय थे. ऐसी दुःखद स्थिति में भी भाग्य अकारण ही ग़ालिब का दुश्मन हो गया. शहर
कोतवाल ने अपनी दुश्मनी निकालने के लिए जुआ खेलने का कसूरवार ठहरते हुए उन्हें
गिरफ्तार कर लिया और उन्हें छह महीने तक जेल में रहना पड़ा. हाली ने तो यहां तक
लिखा है कि यह एक बड़े षड्यंत्र का प्रतिफल था. इरादा तो ग़ालिब को ख़त्म कर देने का
था. शुक्र है कि उनके रकीब इतने में ही मान गए-‘हुआ है शाह का मुसाहिब, फिरे है इतराता/ वगर्ना शहर में ‘गालिब’ की आबरू क्या है.’ उन्हें खुद भी यह अहसास था कि शहर के
लोग यह मानते हैं कि ‘शायर तो वह अच्छा है, पर बदनाम बहुत है.
‘बदनामियां एक-पर-एक उनकी शख़्सियत में लोग जोड़ते ही रहे, कभी-कभी तो बेहद ख़राब-ख़राब ग़ालियां लिखकर उनको ख़त में भेजते थे. जिसके कारण लिफ़ाफ़ा खेलते वक़्त हाथ कांपने लगते थे. ‘दस्तंबू’ के आखि़र में पहुंचकर मिर्ज़ा लिखते हैं, ‘पिछले साल मई के महीने से लेकर जुलाई, सन् 1858 तक की रिपोर्ट मैंने लिखी है. पहली अगस्त से क़लम रोक लिया है.’ अगर इतने वक़्त के ही हालात-ए-हाज़रा को कोई विश्वसनीय तरीके़ से देखना चाहता है, तो उसके लिए ‘प्रोफ़ेशनल हिस्टोरियन’ से कहीं ज़्यादा मौजूं है ग़ालिब के ‘दस्तंबू’ नामक फारसी में लिखी उनकी डायरी को पढ़ना. जहां इतिहास का यथार्थ तो है ही, सत्ता और समाज की संवेदना की गहन पड़ताल भी है.
---------------------‘बदनामियां एक-पर-एक उनकी शख़्सियत में लोग जोड़ते ही रहे, कभी-कभी तो बेहद ख़राब-ख़राब ग़ालियां लिखकर उनको ख़त में भेजते थे. जिसके कारण लिफ़ाफ़ा खेलते वक़्त हाथ कांपने लगते थे. ‘दस्तंबू’ के आखि़र में पहुंचकर मिर्ज़ा लिखते हैं, ‘पिछले साल मई के महीने से लेकर जुलाई, सन् 1858 तक की रिपोर्ट मैंने लिखी है. पहली अगस्त से क़लम रोक लिया है.’ अगर इतने वक़्त के ही हालात-ए-हाज़रा को कोई विश्वसनीय तरीके़ से देखना चाहता है, तो उसके लिए ‘प्रोफ़ेशनल हिस्टोरियन’ से कहीं ज़्यादा मौजूं है ग़ालिब के ‘दस्तंबू’ नामक फारसी में लिखी उनकी डायरी को पढ़ना. जहां इतिहास का यथार्थ तो है ही, सत्ता और समाज की संवेदना की गहन पड़ताल भी है.
पंकज पराशर
एम. फिल., पी-एच.डी (जे.एन.यू)
पुनर्वाचन (कथा-आलोचना) आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला से
२०१२ में
अनुवाद, कविता टिप्पणियों के संग्रह प्रकाशित
संप्रतिः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिंदी
विभाग में अध्यापन
0-96342 82886./ईमेलः pkjppster@gmail.com
पुनर्वाचन (कथा-आलोचना) आधार प्रकाशन प्रा. लि., पंचकूला से
२०१२ में
अनुवाद, कविता टिप्पणियों के संग्रह प्रकाशित
संप्रतिः अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिंदी
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 07-01-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1882 में दिया जाएगा
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
मिर्ज़ा पर आपका आलेख सहेज लिया है.
जवाब देंहटाएंAccha aalekh, pasand aaya. Pankaj ji ko hardik saadhuwaad.
जवाब देंहटाएंDr.Vijendra Pratap Singh 7500573935
very good and true story of galib,
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