परिप्रेक्ष्य : शिल्प की कैद से बाहर : अशोक कुमार पाण्डेय














पुरुषोत्तम अग्रवाल की कहानी  'नाकोहस'  पर 
राकेश बिहारी का आलेख- 'कहानी कहने की दुविधा और मजबूरी के बीच' आपने पढ़ा.

अपने आलोचनात्मक आलेख 'शिल्प की कैद से  बाहर' के माध्यम से  इस कहानी पर संवाद को आगे बढ़ा रहे हैं अशोक कुमार पाण्डेय.





शिल्प की कैद से बाहर               
अशोक कुमार पाण्डेय


मय का बदलना अक्सर महसूस नहीं होता. उसे कुछ प्रतीकों के सहारे पढ़ना होता है. और यह “पाठ” भी क्या होता है? दरअसल यह जितना पढ़ी जाने वाली चीज़ में होता है उतना ही उस ज़मीन में भी जिस पर खड़ा हो के उसे पढ़ा जा रहा है. यानी हमारी अपनी “नज़र” पर. बकौल साहिर “ले दे के अपने पास फ़क़त एक नज़र तो है/ क्यूं देखें ज़िन्दगी को किसी की नज़र से हम.” यू आर अनंतमूर्ति की मृत्यु के बाद के उल्लास और पटाखों को कोई गौर से देखे तो यह किताब जालाये जाने, लेखकों पर हमलों, मक़बूल फ़िदा हुसैन की पेंटिंग्स फाड़े जाने के क्रम में तो थे लेकिन अपनी अभिव्यक्ति और सार में यह एक “गुणात्मक छलांग” थी. महात्मा गांधी की मृत्यु पर बंटी मिठाइयों के बाद यह पहला सार्वजनिक गिद्धभोज था, याद कीजिए हुसैन के मरने पर भी यह दृश्य नहीं देखा गया था. इस तरह यह एक पुख्ता प्रतीक था, हमारी ज़मीन से देखें तो फासिज्म के विजय उद्घोष का और उनकी ज़मीन से देखें तो अच्छे दिनों का. “नाकोहस” इसी नई हकीक़त का एक आख्यान है.
नाकोहस का कोई अर्थ नहीं बनता. अर्थ बनाने की कोई सचेत कोशिश भी नहीं दिखती. कहानी में वह अपनी उपस्थिति से जैसे रीढ़ की हड्डियों में एक सिहरन पैदा कर देता है, अपने नाम मात्र से इसके विपरीत वह एक अर्थहीन पदबंध लगता है. यही इसकी व्यंजना है. दक्षिणपंथ के अपने तंत्र में उपस्थित ऐसी संरचनाएं, जो बाहर से दिखती ही नहीं, जिनका अस्तित्व एक सभ्य समाज में निरर्थक है, पूरे समाज को इतने गहरे प्रभावित करती हैं. आप देखिये प्रशांत भूषण पर आक्रमण करने वालों के हाथ में भगत सिंह सेना का बैनर था. भगत सिंह और साम्प्रदायिक ताक़तों का बैनर! मनसे को याद कीजिए. तर्कबुद्धि कहेगी, एकदम निरर्थक, एकदम बकवास. अनुभव कहेगा, हिंसक, भयानक, हत्यारे! जिसे कहानी की अनुपस्थिति कहा जा रहा है, वह इस नए समय की उपस्थिति है. जहाँ सब कुछ इतना आवेगहीन, ठंढा और पूर्वनिर्धारित है कि कोई कुतूहल नहीं जगाता, कोई कथानक, कोई उतार चढ़ाव नहीं, एक सीधी सपाट रेखा पर चलता हुआ वह स्वाभाविक सा लगता चला जाता है. धीरे धीरे फासिज्म का दर्शन स्वीकार्य होता चला जाता है. हम मान कर चलते हैं कि “भड़काऊ भाषणों” या “दंगों” या “स्नूपिंग” के कितने भी सबूत आ जाएँ, केस हो जाएँ लेकिन कुछ होना नहीं है. हम न पुलिस की कार्यवाही की प्रतीक्षा करते हैं न अदालत के आदेश का. गोएबल्स की ज़रुरत तक ख़त्म होती जाती है और लोग पहली बार ही आत्मविश्वास से बोला गया झूठ सच की तरह स्वीकार कर लेते हैं.  ज़ाहिर है, इस आख्यान को भी ऐसा ही होना था. यह न उतार चढ़ाव और किस्सागोई की शक्ल में आ सकता था, न ही किसी एकालाप की शक्ल में. चेखव की एक कहानी “एक क्लर्क की मौत” याद आती है. कोई मार्केज की क्रानिकल भी याद कर सकता है और कामू की द स्ट्रेंजर भी. नाकोहस का निरर्थक होना और इस क़दर प्रभावी होना अपने आप में एक व्यंजना रचता है, जिसे डी. डी. एल. जे. जैसी उतार चढ़ाव और रोमांच से भरी कहानी की मांग के साथ समझना मुश्किल है.
कहानी की एकदम शुरुआत को देखिये. सुकेत स्वप्न में गजग्राह के मिथक का नया रूप देख रहा है. इसमें नया क्या है? नया है गज की हत्या के इर्द गिर्द “ज़िन्दगी का हस्ब मामूल चलते रहना.” हिन्दू मिथकों का प्रयोग यानी साम्प्रदायिक जैसा हास्यास्पद आरोप तो खैर मुझे विवेचनीय ही नहीं लगता, लेकिन दो चीज़ें यहाँ देखने वाली हैं, इसलिए कि मैं जहाँ खड़ा हूँ वहां से इस कहानी के पाठ के लिए वे बहुत मूलभूत हैं.
पहला, ईसाई पिता का अपने पुत्र (जो अब कम से कम पचास साल का तो होगा ही कहानी के हिसाब से) को रघु नाम देना. कहानी के एक अन्य पाठ में यह आलोचक बन्धु को बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता से प्रभावित होना लगा है. यह आरोप मुझे वैसे ही लग रहा है जैसे कोई कहे कि शरद जोशी रिवर्स लव जिहाद के संघी नारे से प्रभावित होकर इरफाना जी से विवाह को उद्धत हुए थे. अव्वल तो क्या किसी ईसाई का रघु या ऐसा कोई नाम होना सचमुच इतना अस्वाभाविक है? खुशवंत सिंह के उपन्यास अ ट्रेन टू पाकिस्तान में एक पात्र है इक़बाल. वह गाँव के भाई जी को इक़बाल सिंह, एक मोना सिख लगता है लेकिन सब इन्स्पेक्टर को इक़बाल खान. क्यों लगता है, प्रबुद्ध पाठकों को यह बताना मुझे ज़रूरी नहीं लगता. कबीर खान और दीपक कबीर और कबीर राजोरिया और कबीर बेदी हमारे समाज में जाने कितने हैं. फेसबुक के ज़रिये मिले एक मित्र हैं मोहित खान. अब किसी रसखान की कृष्णभक्ति या रघुपति सहाय के फ़िराक हो जाने या किसी ब्राह्मण शायर के शीन काफ़ निज़ाम हो जाने का क़िस्सा क्या सुनाना? मेरी गुजरात पोस्टिंग के दौरान मेरी सहकर्मी थी मनीषाबेन क्रिश्चियन. दिल्ली में मेरे एक सहकर्मी हैं विजय दीप मसीह. मेरी अपनी बेटी वेरा के नाम से ही अधिक जानी जाती है. हिन्दू मिथकों से प्रभावित ईसाइयों/मुसलमानों या इसके उलट के किस्से भी हमारे समाज में इतने अनुपस्थित तो नहीं तो रघु मसीह या रघु क्रिश्चियन नाम से इस क़दर चौंका जाए? यह चौंकना दरअसल नाकोहस के उस गिरगिट की याद दिलाता है जो कहानी में एक जगह कहता है, “एक आरोप तुम पर अपनी पहचान छिपाने का है.” .गुलजार की काफी पहले लिखी कहानी धुंआ में चौधरी चाहता है कि उसे जला दिया जाय. यह किन्हें नागवार गुजरता है? गरबा नवरात्रों में देवी दुर्गा की पूजा अर्चना है. उसमें बुतपरस्ती से इंकार करने वाले मुसलमानों का शामिल होना जिन्हें आपत्तिजनक लगता है वे कौन लोग हैं?  पहचानों के नशे में इस क़दर मदहोश हो जाना कि उनमें किसी अंतरण, किसी व्यतिक्रम के होने को अस्वीकार कर देना या संदेह की नज़र से देखना तो नाकोहस का ही नज़रिया है! इसके उलट यह होना और इस होने को रेखांकित करना उस खाई के अस्तित्व का अस्वीकार और प्रश्नांकन है जिसकी उपस्थिति दक्षिणपंथ की उपस्थिति के लिए प्राण तत्व है.
यह कहानी वही करती है और यही वह दूसरी बात है जिसे मैं रेखांकित करना चाहता हूँ जब खुर्शीद कहता है, “मेरे नाम को लेके उर्दूआइये मत” या जब रघु अपने सपनों में हिन्दू मिथकों के सहारे दुहस्वप्नों से गुजरते हुए देखता है कि मनुष्यों की ज़िन्दगी तो हस्ब मामूल चल ही रही है, देवताओं को भी उस गज को बचाने की कोई फ़िक्र नहीं तो यह एक तरफ़ उन पार्थक्य के उन बाड़ों को तोड़ते हैं जिनके बिना दक्षिणपंथ का कोई अस्तित्व ही नहीं तो दूसरी तरफ़ उस संवेदनहीन हो चुके समाज को रेखांकित  करते हैं जिसके लिए एक लेखक की मृत्यु पर हो रहे नृत्य में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं. यह संवेदनहीनता नाकोहस के उसी दर्शन से निकली है जिसके अनुसार मनुष्य का काम है कमाना, खाना और आनंद मनाना. ज़ाहिर है कि चंद बुद्धिजीवियों और ऐसे लोगों को छोड़ दें तो यह निरर्थक और अतार्किक नाकोहस जनता की बहुसंख्य आबादी को अपने प्रभाव में ले चुका है. देवताओं का न आना उन मिथकों का टूटना और उस विश्वास का दरकना है. इसे “यम या देवता की फ़िक्र में दुबला होते” देखने वाली “आलोचना” को कैसे स्वीकार किया जाय? 
अब दिक्कत यह है कि जब इस आलोचना में (अब यह आलोचना के रूप में छपी है तो मजबूरन उसे आलोचना कहना पड़ रहा है, आप मेरी मज़बूरियाँ समझ रहे होंगे) यह कहा जाता है कि “कहानी बस इतनी सी है कि तीन मित्र लेखकों को प्रतिक्रियावादी शक्तियां अपने यहाँ बुला के धमकाती है” तो मुझे फिर से  हठात “एक क्लर्क की मौत” याद आती है जिसकी कहानी बकौल आलोचक महोदय “सिर्फ” इतनी हो सकती है कि “एक क्लर्क से एक बेवकूफी होती है और वह मर जाता है!”  क्या कहानी का पाठ ऐसे किया जाता है? क्या कहानी केवल घटनाओं में होती है? क्या संवादों का होना न होना कोई अर्थ नहीं रखता? फिर एक रुका हुआ फैसला जैसी फिल्म के कथानक पर क्या कहा जाएगा? उसका क्या सिर्फ इतना पाठ हो सकता है कि “एक जूरी बैठी और उसने मुलजिम को रिहा कर दिया.” कहानी का आलोचक नहीं मैं, सिर्फ एक पाठक हूँ लेकिन यह स्वीकार करना मुश्किल है कि किसी कहानी का ऐसे पाठ किया जा सकता है. इस तरह के पाठ के लिए तो बड़े से बड़े उपन्यास के पहले चंद पन्ने और फिर अंत के चंद पन्ने पढ़ लिए जाएँ तो बहुत है. फिर क्या यह एक वाक्य भी संगत है? “बुला के धमकाना” और कहानी में उन्हें ले जाने का दृश्य, स्वप्न और यथार्थ के बीच का वह द्वंद्व, नाकोहस के अधिकारी द्वारा इस तरह रखा जाना कि वे आमने सामने हों पर उसकी मर्ज़ी के अलावा कोई बात न सुन सकें, क्या इन सब को सिर्फ “धमकाना” कहके चलता किया जा सकता है? क्या यह कथित आलोचना पढ़ते हुए ऐसा नहीं लगता कि जैसे आरोप पहले तय कर लिए गए हैं और फिर उन्हें जगह जगह पर रख दिया गया है? इसी वजह से मैं उस पाठ को दुःख और क्षोभ के साथ कुपाठ कह रहा हूँ.
साम्प्रदायिकता के मसले को और ख़ास तौर पर भारतीय समाज के भीतर इस मसले को बहुत यांत्रिक तरीके से समझने और लागू करने की कोशिशें नाकाम हुई हैं. धर्म और उसके प्रतीक थाल में सजा के दक्षिणपंथियों को नहीं सौंपे जा सकते. एक ख़ास तरह की देशज आधुनिकता जो हमारे यहाँ विकसित हुई है और एक ख़ास तरह का जो सहज समभाव इस देश में रह रहे तमाम धर्मों के मानने वालों के बीच में विकसित हुआ है उसे तोड़कर ही दक्षिणपंथ अपने इरादे में सफल होता है. आज ज़रुरत उस पर फैसला सुनाने की जगह या उसे किसी यांत्रिक तरह से कहानियों में लाने/बहिष्कृत करने की जगह समझने और अपनी लड़ाई का हिस्सा बनाने की है. मुझे यह कहानी उस दिशा में आगे बढ़ी हुई लगती है.
शिल्प पर मैं संक्षेप में बात करते हुए अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा. कोई शिल्प अंतिम नहीं होता. न छंदबद्धता अंतिम थी न ही मुक्तछंद. न इतिवृत्तात्मकता अंतिम शिल्प था न ही आज का प्रचलित कहानी का शिल्प. असल बात यह है कि लेखक जो कहना चाह रहा है वह कहने में सफल है या नहीं. नई बात कहने के लिए अक्सर नया शिल्प गढ़ना पड़ता है. दलित विमर्श ने अभी बहुत हाल में यह सिद्ध किया है. क्या दलित विमर्श पर पहला हमला शिल्प और भाषा को लेकर ही नहीं किया गया था? पिछले दिनों आई गुंटर ग्रास की जिस कविता ने राजनीतिक हलकों में उफान पैदा किये उसे क्या आलोचक शिल्प के आधार पर ही खारिज नहीं कर रहे थे? मैंने बात एक नए समय के पदचाप से शुरू की थी, मुझे लगता है इस नए समय में कविता, कहानी ही नहीं लेख और टिप्पणियों तक को नए तरीके से कहना हमें सीखना पड़ेगा. निकोलाई चेर्नीश्वेश्यकी अगर स्तो जिलायेत के पहले पचासेक पन्ने उस तरह लिखने की जगह स्वीकार्य और प्रचलित शिल्प में लिखते तो हम उस युगांतरकारी उपन्या से परिचित ही नहीं हो पाते. शिल्पों की क़ैद में मृतात्मायें निवास करती हैं. ज़िंदा मनुष्य इसे तोड़कर बाहर निकलता है.
और हमें ज़रुरत ज़िंदा मनुष्यों की है.
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अशोक कुमार पाण्डेय :
 २४-जनवरी १९७५आजमगढ़ (उत्तर-प्रदेश)
वाम की राजनीति और जनांदोलनों में भागीदारी

कविताएँ, कहानियाँ, लेख, अनुवाद, संपादन   
लगभग अनामंत्रित (२०११), और प्रलय में लय जितना (२०१४) कविता संग्रह प्रकाशित
कविताओं का अंग्रेजी, नेपाली, बांग्ला, मराठी सहित कई भाषाओं में अनुवाद
शोषण के अभयारण्य, मार्क्स : जीवन और विचार तथा मार्क्स और उनका दर्शन  प्रकाशित.
आईना - .दर – आईना (काव्य-आलोचना)शीघ्र प्रकाश्य
युवा संवाद पत्रिका के जनकविता अंक तथा कल के लिए के अदम गोंडवी विशेषांक का संपादन
ई – पत्रिका असुविधा, दखल प्रकाशन और युवा पत्रिका आगाज़ का समन्वय और संचालन

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  1. 'नकोहस' एक रूपकथा है ,एक फैंटेसी है जिसका एक-एक दृश्य गंभीर अर्थ रखता है या यूँ कहें कि कहानी का रोम-रोम कुछ बोलता है ,कुछ संकेत करता है जिसे किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त सरसरी तौर पर पढने वाले नहीं ग्रहण कर सकते। जाहिर है वे लोग जो भी है लेकिन उनकी रूचि इसे समझने में नहीं है और न वे चाहते हैं कि कोई इसे समझे।

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  2. शिल्प पर मैं संक्षेप में बात करते हुए अपनी बात ख़त्म करना चाहूँगा. कोई शिल्प अंतिम नहीं होता. न छंदबद्धता अंतिम थी न ही मुक्तछंद. न इतिवृत्तात्मकता अंतिम शिल्प था न ही आज का प्रचलित कहानी का शिल्प. असल बात यह है कि लेखक जो कहना चाह रहा है वह कहने में सफल है या नहीं. नई बात कहने के लिए अक्सर नया शिल्प गढ़ना पड़ता है.

    अंत तक आते आते तो आलोचक ने हद ही कर दी। अब फैंटेसी भी नया शिल्प हो गया जिसे नाकोहस में गढ़ा गया है। यह आलोचना है या प्रशास्ति?

    राजीव रंजन, रीवा

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  3. नाकोहस’ एक बड़े फलक की कहानी है, जिसमें व्यक्ति की स्वतंत्र चेतना पर मंडरा रहे आसन्न खतरों को चिन्हित किया गया है | इनमें से कई खतरे इस समाज को अपनी गिरफ्त में ले भी चुके हैं, और कई की पकड़ हमारे समाज की गिरेबान पर बस पहुँचने ही वाली है | दुःख की बात यह है कि हमारा यह समाज ऐसे आसन्न खतरों से न सिर्फ अनभिज्ञ और अनजान हैं, वरन उन्हें स्वयं ही अपने तक आने के लिए रास्ता भी दे रहा है | कहानी ‘नेशनल कमीशन आफ हर्ट सेंटीमेंट्स’ (नाकोहस) के बहाने हमारे समाज में विचार और अभिव्यक्ति के लिए कम होती जा रही ‘जगह’ की तरफ ईशारा करती है | और साथ में यह भी, कि जो आज ‘नाकोहस’ की भूमिका में हैं, वर्तमान समाज में उनका कद कितना बड़ा होता जा रहा है | हम भौतिक रूप से तो आजाद दिखाई देते हैं, लेकिन मानसिक रूप से गुलामी की स्थिति में पहुँचते जा रहे हैं | स्थिति ऐसी बनती जा रही है, जिसमें हमारे लिए कुछ भी व्यक्त कर पाना असंभव होता जायेगा | जाहिर है कि ऐसे में हमारे भीतर सोचने की पूरी प्रक्रिया ही बाधित हो जायेगी | और तब क्या हम नहीं जानते हैं कि जिस समाज में सोचने, विचारने और व्यक्त करने की क्षमता नहीं रह जाती है, वह समाज जीवित व्यक्तियों का समाज नहीं, वरन मृत व्यक्तियों का समाज हो जाता है | इतिहास में ‘अन्धकार युग’ का उदाहरण हमारे सामने है | कहना न होगा कि इस कहानी ने हमारे सामने कई ऐसे सवाल छोड़े हैं, जिनसे बचकर निकलना किसी भी समाज के लिए आत्मघाती होगा |

    अशोक भाई के लेख में अपनी आवाज शामिल करता हूँ | एक अच्छे लेख के लिए बधाई |

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  4. यह “पाठ” भी क्या होता है? दरअसल यह जितना पढ़ी जाने वाली चीज़ में होता है उतना ही उस ज़मीन में भी जिस पर खड़ा हो के उसे पढ़ा जा रहा है.

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  5. (मेरे पास समीक्षा की भाषा नही है अशोक दा) लेकिन Purushottam Agrawal सर की उस कहानी में ऐसा कुछ है जो 'समझ में आने/न आने' से परे उसे विशिष्ट बनाता है।मेरी बेटी ने (जो अभी साहित्य के LKG में है) जब उसे पढ़ा तो बाद में कभी मैने पूछा कि 'समझ में आई?' तो उसने कहा कि 'पापा, ये कहानी दिमाग में तो नही लेकिन खून में कहीं घुल रही है।जब भी अखबार में या तमाम मीडिया में कोई खतरनाक बयान, पाकिस्तान भेजने की धमिकयां या "कहां गये हरामखोर सेक्युलर... जा कर बचायें कश्मीरियों को" इत्यादि देखती हूँ तो 'नाकोहस'सामने आ जाती है। उसका गिरगिट अपनी जीभ लपलपाने लगता है और रीढ़ की हड्डी गायब सी हो रही मालूम होती है।'
    वो सही कह रही है अशोक दा?

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  6. बहुत कुछ लिख सकता हूँ मैं नाकोहस के बारे में . लोग यह भी जान लें कि इस कहानी को पढने के बाद मैंने जिस समय अपनी वॉल पर प्रशंसात्मक स्टेटस डालते हुए इसके पढ़े जाने की सिफ़ारिश की थी उस समय तक मैं केवल लेखक के साहित्य से ही परिचित था. फेसबुक पर मित्रता भी बाद में हुई. मिला आज तक नहीं हूँ. कहानी मुझे बहुत भाई थी. मुझे डर लगा था कि वाकई ऐसा हो सकता है. खैर,यहाँ मेरा तात्पर्य अपनी बात को आगे बढ़ा कर कुछ और जोड़ना नहीं है. मैं महज़ एक बात यहाँ ध्यान में लाना चाहता हूँ. अशोक आज़मी की वॉल पर जिनका इससे सामना न हुआ हो वे कहानी के सम्प्रेषण के सन्दर्भ में इस टिपण्णी को देख लें " उस कहानी में ऐसा कुछ है जो 'समझ में आने/न आने' से परे उसे विशिष्ट बनाता है।मेरी बेटी ने (जो अभी साहित्य के LKG में है) जब उसे पढ़ा तो बाद में कभी मैने पूछा कि 'समझ में आई?' तो उसने कहा कि 'पापा, ये कहानी दिमाग में तो नही लेकिन खून में कहीं घुल रही है।जब भी अखबार में या तमाम मीडिया में कोई खतरनाक बयान, पाकिस्तान भेजने की धमिकयां या "कहां गये हरामखोर सेक्युलर... जा कर बचायें कश्मीरियों को" इत्यादि देखती हूँ तो 'नाकोहस'सामने आ जाती है। उसका गिरगिट अपनी जीभ लपलपाने लगता है और रीढ़ की हड्डी गायब सी हो रही मालूम होती है।" यह कहना है अखिलेश शांडिल्य की बेटी का और उन्होंने इसे अशोक आज़मी की वाल पर चर्चा के दौरान पोस्ट किया.इसके पहले मृदुला गर्ग ने इसकी तारीफ़ की थी लेकिन मैं वह बात नहीं करना चाहता. मेरा कहना मात्र यह है कि जब एक विकासमान समझ की बच्ची इस कहानी को महसूस कर सकती है तो कुछ अन्य लोग क्या इसमें वाकई असफल हो रहे हैं या स्वयं को असफल हुआ प्रदर्शित कर रहे हैं ?

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  7. साहित्य पर बात होनी चाहिए, संवाद बना रहना चाहिए यह साहित्य और पाठक समाज की सेहत के लिए अच्छा है। यह कहानी पाठकों को उकसा रही है, उन्हें सोचने पर विवश कर रही है यह भी उसके सामर्थ्य को दर्शाता है। कहानी के साथ एक टिपण्णी जोड़ कर कहानी के पक्ष में एक दृष्टि विशेष के निर्माण की कोशिश की गयी हो शायद मगर यह पूरी तरह अपने ध्येय में सफल नहीं हो सकती। जहां पाठकों का एक वर्ग इस बात के प्रभाव में आ सकता है वही एक बहुत बड़ा वर्ग अपनी समझ और विवेक से ही किसी कहानी विशेष के प्रति अपनी राय कायम करता है। जहां कुछ लोगों को यह कहानी अच्छी लग रही है वही कुछ लोगों को उबाऊ, बोझिल। मिली-जुली प्रतिक्रया है। हमें सभी की बात सुननी चाहिए और सारे मतों का सम्मान करना चाहिए। इस बहस का एक फ़ायदा यह है कि अब यह कहानी खूब पढी जायेगी।

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  8. I always compare literature with food. I could dis-like the food for the same reason for which Mr. Basant Jaitly likes it. (He could like the food because it contains Garlic and Ginger. And I could dislike it for the same reason). Similarly the very reasons that Mr. Jaitly likes this story for others could dislike. That is why there is no final comment in literature. A helthy discussion is always welcome.

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  9. I am not against anybody's likes or dislikes. This is a discussion where the story is being assessed from a different standpoint. I have no objection if anyone like or dislikes a food or a story or anything else for that reason but am against imputing motives on a cook or a writer. I am not forcing anyone to like the story. In fact I cannot do it. I am simply raising some different questions dear Tejendra Sharma sir.

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  10. Mr sharma is absolutely correct. A follower of NAKOHAS will dislike this story exactly for the same reason why a victim or potential victim of NAKOHAS will like it.

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  11. नाकोहस पढ़ते हुए कभी जार्ज आरवेल का 1984 और कभी अल्डस हॅक्सले का ब्रेव न्यू वर्ल्ड लगातार याद आता रहा - लगा उन बिम्बों का भारतीयकरण कर दिया गया है। नाकोहस के लेखक ने धीमी गति के समाचार शैली मे उस निगेटिव यूटोपिया की ओर इंगित किया है जो हमे कई दशकों से अजगर की तरह लीलता जा रहा है ... अजगर के मुंह मे दबे इंसान से कथाकार कह रहा है - अरे तुम्हे अजगर खा रहा है..... यह बताने के लिये धन्यवाद ....

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  12. ये कहानी नहीं है , आलोचना है |

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  13. कहानीकार को यह अधिकार होना चाहिए कि कथानक और कथा-शिल्प वह स्वयं तय करे। किसी कहानी में क्या होता तो अच्छा होता या कैसे लिखी जानी चाहिए थी, यह बहस आलोचना का मुद्दा न हो तो बेहतर है। टिप्पणी इस बात पर अवश्य होनी चाहिए कि कहानी मेरे या समाज के लिए उपयोगी है या नहीं। यद्यपि हमारे मतभेद यह बताते हैं कि हम जागरूक हैं, यही जागरूकता हमें जागृत पाठक बनाती है, लेकिन जब आलोचना लेखन की विधा पर होती है तो मुझे आश्चर्य लगता है।

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