उपन्यासों का आधुनिक राष्ट्र
राज्य से गहरा नाता है, एक तरह से वे आधुनिक समय के महाकाव्य हैं. बेनेडिक्ट एंडरसन
ने राष्ट्र को ‘कल्पित जनसमुदाय’ माना है, इतिहासकार पार्थ चटर्जी कहते हैं- 'राष्ट्र अगर कल्पित समुदाय है तो वह किसकी
कल्पना का समुदाय है.' उपन्यास इस समुदाय की गाथा ही नहीं है उसकी आलोचना भी है.
लेटिन अमेरिका के महत्वपूर्ण उपन्यासकार Mario Vargas Llosa के नोबल व्याख्यान का हिंदी अनुवाद सरिता शर्मा ने बड़े परिश्रम से किया है. लोसा को २०१० के साहित्य के नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका. इस सम्बोधन में उपन्यास ही नही राष्ट्र के भी सरोकार शामिल हैं.
लेटिन अमेरिका के महत्वपूर्ण उपन्यासकार Mario Vargas Llosa के नोबल व्याख्यान का हिंदी अनुवाद सरिता शर्मा ने बड़े परिश्रम से किया है. लोसा को २०१० के साहित्य के नोबल पुरस्कार से नवाज़ा जा चुका. इस सम्बोधन में उपन्यास ही नही राष्ट्र के भी सरोकार शामिल हैं.
मारियो वर्गास लोसा का नोबेल व्याख्यान:
पढ़ने और उपन्यास की प्रशंसा में
मैंने कोचाबम्बा, बोलीविया में
डी ला साल अकादमी में ब्रदर
जुस्तिनिआनो की कक्षा में, पांच साल की उम्र में
पढ़ना सीखा था. यह मेरे साथ हुई सबसे महत्वपूर्ण घटना है. लगभग सत्तर साल बाद भी मुझे
अच्छी तरह याद है कि कैसे किताबों में शब्दों को छवियों में बदलने के जादू ने मेरे
जीवन को समृद्ध किया जिससे मैं समय और स्थान की बाधाओं को तोड़कर समुद्र के नीचे कप्तान
नीमो के साथ बीस हजार लीग यात्रा कर सकता था, गोपनीय रिचेलियू के दिनों में दी आर्तान्यान, एथोस, पोर्तोज और आर्मिस के साथ उन षड्यंत्रों के
खिलाफ लड़ सकता था जिनसे रानी को खतरा था, या खुद को अपनी
पीठ पर मेरियस की लाश को ले जाने वाले ज्यां वालज्यां में तब्दील कर सकता था जिसे पेरिस
की नाली में ठोकर लगती है.
पढ़ने से सपने जीवन बन गए और जीवन सपने में बदल गया और साहित्य
का संसार लड़कपन में ही मेरी पहुंच के भीतर हो गया. मेरी माँ ने मुझे पहली बात यह बताई
कि मैं पढ़ी हुई कहानियों को आगे बढाऊं क्योंकि उनका अंत मुझे उदास कर दिया करता था
या मैं उसे बदलना चाहता था. और शायद मैंने बिना इस बात का अहसास किये इसे साकार करने
में अपना जीवन गुजार दिया: जैसे- जैसे मैं बड़ा हुआ, परिपक्व, और वृद्ध हुआ, जिन कहानियों ने मेरे बचपन को उमंग और रोमांच भर दिया था, उनके समय को आगे बढ़ाता गया.
काश मेरी मां यहाँ होती जो ऐसी महिला थी जिनकी आंखें अमादो नेर्वो
और पाब्लो नेरुदा की कवितायेँ पढ़ कर नम हो जाया करती थी. बड़ी नाक और चमचमाती गंजे
सिरवाले मेरे दादा पेद्रो को भी यहाँ होना चाहिए था जो मेरे गीतों की सराहना किया करते
थे और चाचा लूचो को भी जिन्होंने मुझे दिलोजान से पूरी लेखन में झोंकने की सलाह दी, हालांकि उस समय और स्थान में साहित्य से लेखकों को बहुत लाभ
नहीं मिल पा रहा था. अपने पूरे जीवन में मैंने अपने साथ ऐसे लोगों को खड़े पाया जो मुझे
प्यार करते थे और प्रोत्साहित करते थे और जब मुझे संदेह होता था उनके विश्वास ने मुझे
अपने प्रति भरोसा जगाया. उनकी वजह से और निस्संदेह अपने अड़ियल रवैय्ये और कुछ सौभाग्य
के चलते मैं अपना सर्वाधिक वक्त लेखन के जुनून, बुराई और चमत्कार को समर्पित करने में सक्षम हुआ हूँ और मैंने ऐसे एक समानांतर
जीवन का निर्माण किया जहाँ हम बुरे वक्त में शरण ले सकते हैं, जिसमें असाधारण को सामान्य
और साधारण को विलक्षण बना सकते हैं, जो अराजकता
को दूर करता है, कुरूपता को सुन्दर बनाता है, पल को स्थायित्व देता है और मौत को एक गुजरते हुए तमाशे में
बदल देता है.
कहानियां लिखना आसान नहीं था. योजनायें शब्दों में ढलते ही कागज
पर मुर्झा जाया करती थी, विचार और छवियां विफल
हो रहे थे. उन्हें जीवंत बनाने के लिए क्या किया जाये? सौभाग्यवश ऐसे दिग्गज और शिक्षक मौजूद थे जिनसे सीखा जा सकता था और ऐसे उदाहरण
थे जिनका पालन किया जा सकता था. फ्लाबेर ने मुझे सिखाया कि प्रतिभा अटल अनुशासन और
लंबा धैर्य है. फॉकनर ने समझाया कि शैली - लेखन और संरचना –कथ्य को सशक्त या कमजोर बना सकती है. मर्तोरेल, सर्वंतेस, डिकेंस, बाल्जाक, टालस्टाय, कॉनरेड, थॉमस मान ने बताया
कि उपन्यास में गुंजाइश और महत्वाकांक्षा उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी कि शैलीगत निपुणता
और आख्यान की रणनीति. सार्त्र से सीखा कि शब्द कृत्य हैं और वर्तमान समय और बेहतर विकल्पों
वाला कोई उपन्यास, नाटक
या निबंध, इतिहास की धारा को बदल सकता है. कामू और ओरवेल
के अनुसार नैतिकता से विहीन साहित्य अमानवीय है और मौलरौ से जाना कि वीरता और महाकाव्य
वर्तमान में उतने ही संभव हैं, जितने अर्गोनोट्स,
ओडिसी और इलियड के समय में थे.
अगर इस भाषण में मैं उन सभी लेखकों को संबोधित करूँ जिनसे मैंने
थोडा बहुत या बहुत कुछ सीखा तो उनकी छाया हमें अंधकार में डुबो देगी. वे अनगिनत हैं.
उन्होंने कहानी के शिल्प के रहस्यों को उजागर करने के अलावा, मुझे मानवता की अथाह गहराई का पता लगाने, उसके साहसिक कारनामों को सराहने और उसकी बर्बरता पर आतंक महसूस
करने के लिए बाध्य किया. वे मेरे सबसे उपकारशाली मित्र थे जिन्होंने मेरे लेखन को जीवन
दिया और जिनकी किताबें में मैंने पाया कि कि ख़राब से ख़राब परिस्थितियों में उम्मीद
बची रहती है और जीवित रहना प्रयास करने के लायक है सिर्फ इसी वजह से कि बिना जीवन के
हम कहानियों को पढ़ नहीं सकते और न ही उनकी कल्पना कर सकते हैं.
कई बार मैं सोचता हूँ मेरे जैसे देशों में, जहां पाठक बहुत कम थे, इतने गरीब और अनपढ़
थे , इतना अन्याय था और संस्कृति कुछ लोगों का विशेषाधिकार थी,
क्या वहां लेखन करना आत्ममुग्धकारी विलासिता नहीं थी. हालाँकि
इन आशंकाओं ने कभी भी मुझे लेखन से हताश नहीं किया और उस दौरान भी लिखना जारी रखा जब मेरा ज्यादातर वक्त आजीविका कमाने में गुजर
जाया करता था. अगर साहित्य के पनपने के लिए
पहले यह शर्त होती कि समाज उच्च संस्कृति, स्वतंत्रता,
समृद्धि और न्याय प्राप्त कर ले, तो यह कभी अस्तित्व में नहीं होता. लेकिन साहित्य के कारण, इसके द्वारा चेतना
को आकार दिए जाने से, जो इच्छायें और लालसायें
यह प्रेरित करता है और सुंदर कल्पना की यात्रा से लौटने पर यथार्थ से हमारा मोहभंग
करने की बदौलत, सभ्यता अब उस समय की तुलना में कम क्रूर है
जब कथाकारों ने अपनी कहानियों से जीवन को मानवीय गुणों से भरना शुरू किया था. अगर हमने अच्छी पुस्तकें न पढ़ी होती तो हम बदतर, ज्यादा कट्टरपंथी होते, इतने बेचैन नहीं होते, अधिक विनीत होते और
आलोचकनात्मक भाव भी मौजूद नहीं होता जोकि हमें प्रगति की ओर अग्रसर करता है. लेखन की
तरह पढ़ना भी जीवन की अपर्याप्तताओं का विरोध करना है. जब हम कथा में उसे देखते हैं
जो जीवन में नहीं है, तो चाहे यह कहने या जानने की जरूरत न हो, हम यह कह रहे होते हैं कि जीवन यथारूप में मानव की स्थिति की
नींव यानी सम्पूर्णता की हमारी प्यास को बुझाता नहीं है और इसे बेहतर होना चाहिए. हम
कथाओं का आविष्कार ऐसे कई जीवन जीने के लिए करते हैं जो हम जीना चाहते हैं जबकि हमें
जीने के लिए मुश्किल से एक जिंदगी मिली है .
साहित्य के बिना हमें जीवन को जीने योग्य बनाने वाली आजादी के
महत्व के बारे में कम जानकारी होती. जब तानाशाह द्वारा विचारधारा या धर्म को रौंद डाला जाता है तब जीवन नर्क में बदल जाता है. वे सब लोग
जो नहीं मानते हैं कि साहित्य न हमें सिर्फ सौंदर्य और खुशी के सपने में डुबो देता
है बल्कि हमें हर प्रकार के उत्पीड़न के प्रति सजग करता है, उन्हें स्वयं से पूछना चाहिए कि सभी शासन जो पालने से कब्र तक नागरिकों के व्यवहार
को नियंत्रित करने के लिए कृतसंकल्प होते हैं, वे साहित्य से इतना क्यों डरते हैं कि उसे दबाने के लिए सेंसरशिप लागू करते हैं
और स्वतंत्र लेखकों पर कड़ी नजर रखते हैं. ऐसा वे इसलिए करते हैं क्योंकि वे कल्पना
को पुस्तकों में अबाध रूप से भटकने की इजाजत देने के जोखिम को जानते हैं जब पाठक वास्तविक
दुनिया में फैले अंधकारवाद और भय की तुलना गल्प को संभव बनाने वाली आजादी से करता है
तो कथा साहित्य कितना बगावतपूर्ण हो सकता है. वे ऐसा चाहें या न चाहें, उन्हें पता हो या न हो, जब कहानियों के लेखक कहानियों का आविष्कार करते हैं, तो असंतोष फैलाते हैं और दर्शाते हैं कि दुनिया को बुरी तरह से बनाया है और कल्पना
का जीवन हमारी दैनिक दिनचर्या की जिन्दगी से ज्यादा समृद्ध है. वस्तुतः अगर कथा साहित्य
नागरिकों की संवेदनशीलता और चेतना में जड़
जमा लेता है तो उनके लिए शोषित होना कठिन बना देता है और वे पूछताछ करने वालों और जेलरों के झूठ को मानने से इनकार कर देते हैं जो उन्हें
विश्वास दिलाते हैं कि सलाखों के पीछे वे अधिक सुरक्षित और बेहतर जीवन बिता सकते हैं.
अच्छा साहित्य विभिन्न लोगों के बीच पुल का काम करता है और हमें आनंद, पीड़ित, या आश्चर्य महसूस कराकर
हमें अलग करतने वाले भाषाओं, विश्वासों,
आदतों, रीति रिवाजों और पूर्वाग्रहों
को लाँघ कर एकजुट कर देता है. जब कप्तान अहाब को बड़ी सफेद व्हेल समुद्र में दफना देती
है ,तो टोक्यो , लीमा और टिम्बकटू
में पाठकों के दिलों में उसी तरह की दहशत होती है जैसे तब होती थी जब एम्मा बोवारी
संखिया निगल लेती है, अन्ना करेनिना खुद
को ट्रेन के सामने कूद जाती है और जुलिएन सोरेल
मचान पर चढ़ जाती है, " एल सुर" में शहरी डॉक्टर जुआन दालमान एक ठग के चाकू का सामना करने के लिए पम्पा की सराय के बाहर निकल जाता है
या हमें अहसास होता है कि कोलामा, पेद्रो के गाँव
के सभी निवासियों की मृत्यु हो जाती है, तो सब पाठकों
के दिल में समान रूप से दहशत होती है चाहे वे बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ईसा मसीह, अल्लाह, -किसी की भी
पूजा करते हों या नास्तिक हों, चाहे वे नास्तिकहों, एक जैकेट और टाई पहनते हों, या जलाबा, कीमोनो या बोम्बाचा पहनते हों. साहित्य मानवीय विविधताओं के भीतर
भाईचारा बनाता है और अज्ञान,विचारधाराओं, धर्मों, भाषाओं और मूर्खता के कारण
पुरुषों और महिलाओं के बीच खड़ी की गयी
दीवारों को तोड़ देता है.
हर काल की अपनी भयावहता होती है. हमारा समय कट्टरपंथियों,
आत्मघाती आतंकवादियों का समय है जिन्हें विश्वास है कि वे लोगों
की हत्या करके स्वर्ग चले जायेंगे और बेगुनाहों का खून करके वे सामूहिक तिरस्कार का
बदला ले सकते हैं, अन्याय को ख़त्म कर सकते हैं, मिथ्या धारणाओं को सच में बदल सकते हैं. दुनिया भर में,
हर दिन, अनगिनत पीड़ितों का
बलिदान उन लोगों द्वारा किया जाता है, जिन्हें लगता
है कि उनके पास परम सत्य है. हम सोचते थे कि अधिनायकवादी साम्राज्य के पतन के बाद,
एक साथ रहने से शांति, बहुलवाद और मानव अधिकारों में बढ़ोतरी होगी
और दुनिया होलोकास्ट, नरसंहारों, हमलों और विनाशक युद्धों को पीछे छोड़
देगी. उसमें से कुछ भी आशा के अनुरूप नहीं हुआ है. कट्टरता द्वारा उकसायी जाने वाली
बर्बरता नए रूपों में पनप रही है और सामूहिक विनाश के हथियारों के प्रसार के चलते,
हम इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकते कि कुछ पागल उद्धारकों
का कोई छोटा सा गुट किसी दिन एक परमाणु से
उथल पुथल मचा सकता है. हमें उन्हें नाकाम करना है, उनका सामना करना है और उन्हें हराना है.
वे बहुत अधिक नहीं हैं हालाँकि उनके अपराधों के कोलाहल से दुनिया
गूंज उठती है उनके द्वारा दिखाए गए दुःस्वप्न हमें भयभीत कर देते हैं. हमें उनसे डरना
नहीं चाहिए जो हमारी आजादी को छीनना चाहते हैं जिसे हमने सभ्यता के लंबे अर्से में
प्राप्त किया गया है. हम उदार लोकतंत्र की रक्षा करें जो कमियां होने के बावजूद राजनीतिक
बहुलवाद, सह -अस्तित्व, सहिष्णुता, मानवाधिकारों, आलोचना के प्रति सम्मान, वैधता, स्वतंत्र चुनाव,
सत्ता में प्रत्यावर्तन और उन मूल्यों का प्रतीक है जो हमें जंगली जीवन से बाहर निकाल कर एकजुट कर रहा है और
हम सुंदर, साहित्य द्वारा निर्मित परम जीवन के निकट
ले जाता है हालाँकि हम इसे कभी नहीं प्राप्त नहीं कर पाएंगे. हम लेखन करके और साहित्य
पढ़कर इस परम जीवन की खोज करने लायक बन सकते हैं. जनसंहार करने वाले धर्मांधों का सामना
करके हम सपने देखने के अपने अधिकार की रक्षा कर सकते हैं और अपने सपनों को हकीकत में
बदल सकते हैं.
मैं जवानी में, अपनी पीढ़ी
के कई लेखकों की तरह, मार्क्सवादी था और मानता था कि समाजवाद शोषण
और सामाजिक अन्याय का हल है जो मेरे देश लैटिन अमेरिका में और तीसरी दुनिया के बाकी
हिस्सों में खतरनाक रूप धारण करते जा रहे थे. सांख्यवाद और समष्टिवाद के साथ मेरा मोहभंग
होने और जैसा उदार लोकतान्त्रिक मैं हूँ और बनने की कोशिश में हूँ, उसकी प्रक्रिया कठिन
और धीमी थी जिसके कारण ये थे- क्यूबा की जिस क्रांति के प्रति मैं शुरू में उत्साहित
था, उसका सोवियत संघ के सत्तावादी, सीधे मॉडल में रूपांतरण
हो जाना, गुलाग के कंटीले तारों की बाड़ को पार कर
पाने में कामयाब होने वाले असंतुष्टों की गवाही, वारसा संधि के देशों द्वारा चेकोस्लोवाकिया पर आक्रमण किया जाना और रेमंड एरन,
ज्यां फ्रांस्वा रेवेल, यशायाह बर्लिन और कार्ल पॉपर जैसे विचारक
थे जिनकी बदौलत में लोकतांत्रिक संस्कृति और खुले समाज का पुनर्मूल्यांकन कर पाया हूँ.
वे श्रेष्ठ व्यक्ति उस समय स्पष्टता और अदम्य साहस का उदाहरण थे, जब पश्चिम के बुद्धिजीवियों ने अवसरवाद के परिणामस्वरूप सोवियत
समाजवाद या उससे भी बदतर चीनी सांस्कृतिक के विश्राम दिन की खूनी चुड़ैलों के जादू के आगे घुटने टेक दिए थे.
मैं लड़कपन में किसी दिन पेरिस आने का सपना देखा करता था क्योंकि
फ्रेंच साहित्य की चकाचौंध में मुझे लगता था कि वहाँ रहते हुए और बालजाक, स्तेंधाल, बुद्लेयर और प्रुस्त
के देश की हवा में सांस लेने से मुझे एक असली लेखक बनने में मदद मिलेगी और अगर मैं
पेरू छोड़कर नहीं गया तो मैं सिर्फ रविवार और छुट्टियों के दिनों का छद्म लेखक बना
रहूँगा. और यह सच है कि फ्रांस और फ्रेंच संस्कृति ने मुझे अविस्मरणीय सबक सिखाये हैं.
उदाहरण के लिए यह कि साहित्य जितना एक कर्म है उतना ही अनुशासन भी है और लेखन नौकरी और हठ भी है. मैं वहाँ तब रहता था जब सार्त्र और कामू जीवित
थे और लेखन कर रहे थे. वे दिन लोनेस्को, बेकेट,
बाताइए के लिखने और कोइरानडेल ब्रेख्त के थियेटर और फिल्मों
इंगमार बर्गम्यान की फिल्मों, ज्यां विलार के लोकप्रिय
राष्ट्रीय रंगमंच और ज्यां-लुई बारोल्त के ओडियन की खोज करने, नयी लहर और नव उपन्यास और भाषणों, आन्द्रे मालरौ की सुंदर साहित्यिक कृतियों के दिन थे, जब जनरल दा गॉल के प्रेस सम्मेलन यूरोप में सबसे शानदार नाटकीय प्रदर्शन हुआ करते
थे. लेकिन शायद मैं फ्रांस का सबसे ज्यादा आभारी लैटिन अमेरिका की खोज के लिए हूँ.
वहाँ मैंने जाना कि पेरू विशाल समुदाय का एक हिस्सा था जो इतिहास,
भूगोल, सामाजिक और राजनीतिक
समस्याओं, होने के एक विशेष स्वरूप में और उसके द्वारा बोली और लिखी जाने वाली मधुर भाषा
से जुडा हुआ था. और उन्हीं वर्षों में, वहां एक नया
और सशक्त साहित्य लिखा जा रहा था. वहाँ मैंने,
बोर्हेस, ओक्टेवियो पाज़, कोर्ताजार,
गार्सिया, मार्केज, फ़ुंटेस, काबरेरा इन्फोंते,
रुफलो, ओनेती कर्पेंतिये,
एडवर्ड्स, दोनोसो और अन्य कई
लेखकों को पढ़ा जिनका लेखन स्पेनिश भाषा के आख्यान में क्रांतिकारी बदलाव ला रहा था
और जिनके कारण यूरोप और विश्व के बड़े हिस्से को पता चला कि लैटिन अमेरिका सिर्फ केवल
तख्ता पलट, तानाशाहों के नाटकों, दाढ़ीवाले छापामारों, मैंबो के मराकास और चा चा चा का देश ही नहीं था, बल्कि विचारों, कलात्मक रूपों वाला महाद्वीप था जहाँ प्राकृतिक
सौन्दर्य होने के साथ साथ वैश्विक भाषा बोली जाती थी.
उस समय से लेकर अब तक लैटिन अमेरिका ने लडखडाहट और भूलों के बावजूद प्रगति की है,
हालांकि जैसा कि सीज़र वैलेजो ने एक कविता, ‘सूखी घास’ में कहा है,
‘भाइयो, अभी बहुत कुछ किया
जाना बाकी है.’ हम पहले की तुलना में तानाशाही से कम पीड़ित
हैं, केवल क्यूबा और उसके नामित उत्तराधिकारी, वेनेजुएला तथा बोलीविया
और निकारागुआ की तरह कुछ छद्म लोकप्रियतावादी हास्यास्पद लोकतंत्र जैसे तानाशाह बचे
हैं. लेकिन बाकी महाद्वीप में लोकतंत्र एक व्यापक लोकप्रिय सर्वसम्मति के समर्थन से
चल रहा है, और हमारे इतिहास में हमारे पास पहली बार,
ब्राजील, चिली, उरुग्वे, पेरू, कोलंबिया, डोमिनिकन गणराज्य,
मेक्सिको और लगभग सम्पूर्ण
मध्य अमेरिका की तरह वामपंथी और दक्षिणपंथी हैं जो वैधता, आलोचना करने की स्वतंत्रता, चुनाव और सत्ता में उत्तराधिकार का सम्मान करते हैं. यह सही मार्ग है और अगर यह
इस पर चलता रहता है, कपटी भ्रष्टाचार का मुकाबला करता है और दुनिया
के साथ एकीकृत होना जारी रखता है तो लैटिन अमेरिका भविष्य का महाद्वीप बने रहने की
बजाय और वर्तमान का महाद्वीप बन जाएगा.
मैंने वास्तव में, यूरोप में कभी
कहीं भी एक विदेशी की तरह महसूस नहीं किया.
मैं जिन स्थानों में रहता रहा, पेरिस, लंदन, बार्सिलोना,
मैड्रिड, बर्लिन, वाशिंगटन, न्यूयॉर्क,
ब्राजील या डोमिनिकन गणराज्य में रहा, मैंने सभी जगह अपनापन महसूस किया है. मुझे हमेशा ऐसा ठिकाना
मिल गया, जहाँ मैं शांतिपूर्वक रह सकता था,
काम कर सकता था, बातें जान सकता
था, सपनों को साकार कर सकता था, दोस्त और पढ़ने के लिए अच्छी किताबें और
लिखने के लिए विषय तलाश कर सकता था . मुझे नहीं लगता है कि मेरे अनजाने में दुनिया
का नागरिक बनने से अपने ही देश के लिए मेरी जड़ें
कमजोर हो गयी हैं जोकि मुझे लगता है बहुत महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि अगर ऐसा
होता तो मेरे पेरू के अनुभव लेखक के रूप में मेरा पोषण नहीं करते और हमेशा मेरी कहानियों
में विद्यमान नहीं होते, हालाँकि वे पेरू से
बहुत दूर घटित हुए नजर आते हैं. इसके बजाय मुझे लगता है कि देश के बाहर इतने लंबे समय
तक रहने से उससे मेरा जुड़ाव और भी मजबूत हो गया है, उसके प्रति दृष्टिकोण और पुरानी यादें बढा चढ़ा कर कही बातों से अलग करके यादों
को जीवंत रखती हैं. जिस देश में हमारा जन्म हुआ, उससे प्रेम करने के
लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है, लेकिन किसी भी अन्य
प्यार की तरह यह दिल का एक सहज कार्य होना
चाहिए जो प्रेमियों, माता पिता और बच्चों को और दोस्तों को आपस में जोड़ता है.
मेरे अंदर पेरू गहराई में पैठा हुआ है क्योंकि उस देश में मैं पैदा हुआ, पला बढा, और बचपन और जवानी के
उन अनुभवों को जीया जिन्होंने मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा और मेरे लेखन को मजबूत बनाया,
जहाँ मैंने प्यार,
बैर, ख़ुशी, दुःख अनुभव किया और सपने देखे. वहाँ जो कुछ होता है,
वह मुझे अन्यत्र कहीं घटित घटना से ज्यादा प्रभावित और उद्वेलित करता है. मैं यह कामना नहीं की है और न ही इसे खुद
पर इसे थोपा है, यह बस स्वतःस्फूर्त है. कुछ हमवतनों ने मुझ
पर देशद्रोही होने का आरोप लगाया है और मैं तब अपनी नागरिकता को खोने के कगार पर था
जब मैंने पिछली तानाशाही के दौरान दुनिया की
लोकतांत्रिक सरकारों को, राजनयिक और आर्थिक
प्रतिबंधों वाले शासनों को दंडित करने के लिए
कहा था चूँकि मैंने हर तरह की तानाशाही का विरोध किया है चाहे वह पिनोसेट हो,
फिदेल कास्त्रो हो,
अफगानिस्तान में तालिबान हो, ईरान में इमाम हों,
दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद हो या, बर्मा (अब म्यांमार कहा जाता है) के वर्दीधारी
क्षत्रप हों. और अगर मुझे लगता है पेरू एक
बार फिर तख्तापलट का शिकार हो गया जो हमारे कमजोर लोकतंत्र का सफाया कर देगा तो मैं ऐसा फिर से करूँगा हालाँकि मेरी दुआ है कि नियति
और पेरुनिवासी ऐसा न होने दें. जैसा कि अपने
संकीर्ण नजरिये से दूसरों को पहचानने के आदी कुछ लेखकों ने लिखा है, यह एक क्रुद्ध आदमी का सोचा समझा भावनात्मक आवेग नहीं था. यह
मेरे इस दृढ़ विश्वास के चलते है कि एक तानाशाही
देश के लिए बुराई का प्रतिनिधित्व करती है, क्रूरता और भ्रष्टाचार और उन गहरे घावों
का स्रोत है जो लंबे समय तक बने रहते हैं, देश के भविष्य
में जहर घोल दिया जाता है, हानिकारक आदतों और
प्रथाओं को उत्पन्न करता है जो पीढ़ियों तक चलती रहती हैं और लोकतांत्रिक पुनर्निर्माण
में विलम्ब हो जाता है. यही कारण है कि हमें बिना किसी हिचकिचाहट के तानाशाही से आर्थिक
प्रतिबंधों सहित अपने पास उपलब्ध सभी संसाधनों के साथ लड़ना चाहिए. यह अफसोस की बात
है कि लोकतांत्रिक सरकारें उन पर राज करने वाली तानाशाही का हिम्मत से सामना करने वाले
क्यूबा में डमास दे ब्लैंको, वेनेजुएला के विपक्ष,
या आंग सान सू और लियू जियाबो देशों की हौसलाअफजाई करने की बजाय
उत्पीडकों के सुर में सुर मिला रही हैं, चैन से बैठी
हैं. अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले वे बहादुर लोग हमारे लिए भी संघर्ष कर
रहे हैं.
मेरे एक हमवतन, जोस मारिया
अर्गेदास ने, पेरू को "हरेक के खून" का देश कहा
जाता है, मैं समझता हूँ कि कोई और सूत्र इसे बेहतर
परिभाषित नहीं कर सकता है: हम इसे पसंद करें या नहीं करें, हम सभी पेरुवासियों
में यह देखने को मिलता है चार मूल बिन्दुओं से निस्सृत परंपराओं, नस्लों, मतों और संस्कृतियों
का समग्र है. मुझे अपने आप पर पूर्व हिस्पैनिक
संस्कृतियों का वारिस होने पर गर्व है जिसके बनाये वस्त्र और और पंख नाज़्का और पराकास ने पहने तथा मोसिकन या इनकाई सेरामिक्स दुनिया में सबसे शानदार संग्रहालयों में
प्रदर्शित किये जाते हैं, माचू पिचू,
ग्रैन चिमु, चान चान, केलाप, सिपान के कारीगर,
ला ब्रुजा तथा एल सोल और ला लूना के कब्रिस्तान, और स्पेनियार्ड जो काठी बैग, तलवार, और घोड़ों के साथ, पेरू में ग्रीस, रोम, जूदो- ईसाई परंपरा, पुनर्जागरण सर्वेंतिस,
केवेंदो और गोंगोरा ले कर आये और कास्टाइल की कठोर भाषा को एंडीज
ने मधुर बनाया. और स्पेन के साथ अफ्रीका आया जिसने अपनी ताकत, अपने संगीत और चमकती
हुई कल्पना के साथ पेरू की विविधता को समृद्ध बनाया. अगर हम कुछ छानबीन करें तो पाएंगे
कि पेरू, बोर्गस के आलेफ की तरह, पूरी दुनिया का एक छोटा प्रारूप है. एक देश के लिए असाधारण विशेषाधिकार
की बात है कि उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है क्योंकि वह अनेक से मिलकर बना है.
अमेरिका की विजय निश्चित रूप से, सभी विजय अभियानों की तरह क्रूर और हिंसक
थी और हमें इसकी निंदा करनी चाहिए लेकिन हमें
यह नहीं भूलना चाहिए कि जिन लोगों ने लूट और अपराध में लिप्त ज्यादातर लोग हमारे पडदादा,
लकड़दादा स्पेनवासी थे जो अमेरिका आये और अमेरिकी तौर- तरीकों को अपनाया, वे लोग नहीं जो अपने देश में रहे. इसलिए आलोचना की जगह आत्म - आलोचना की जानी चाहिए. चूंकि हमने अपनी आजादी
स्पेन से दो सौ साल पहले प्राप्त की थी, जिन्होंने पूर्ववर्ती
उपनिवेशों में सत्ता संभाली उनहोंने मूल इंडियंस को मुक्त करने और पुरानी गलतियों को
सुधारने की बजाय विजेताओं के रूप में उतने ही लालच और क्रूरता के साथ उनका शोषण करना
जारी रखा और कुछ देशों में, उन्हें भगा दिया और
नष्ट कर दिया. हमें यह पूरी स्पष्टता से कहना चाहिए: दो सदियों के लिए स्वदेशी आबादी
की मुक्ति की विशेष जिम्मेदारी हमें सौंपी गयी थी
और हमने इसे पूरा नहीं किया है. यह
लैटिन अमेरिका के सभी देशों में एक अनसुलझा
मुद्दा बना हुआ है. इस बदनामी और शर्म की बात के लिए एक भी तर्क नहीं है.
मुझे स्पेन से पेरू जितना प्यार है और मैं उसका ऋणी और आभारी हूँ. अगर स्पेन नहीं होता तो मैं इस मंच तक नहीं पहुँच पाता या प्रसिद्ध लेखक
बन पाता और शायद मैं उन अभागे साथी लेखकों की तरह अधर में लटकाहुआ भटकता होता जिनकी प्रतिभा को भावी पीढ़ी सौभाग्य,
प्रकाशक, पुरस्कार और पाठक न
मिल पाने के कारण कभी नहीं जान सकेगी हालांकि यह मानना दिल को बहलाना है. मेरी सभी पुस्तकें स्पेन में प्रकाशित हुई मैं मुझे
अतिरंजित सम्मान मिला और मेरे दोस्त कार्लोस, बराल, कारमेन बाल्सेल्स के साथ- साथ अन्य कई लोग
मेरी कहानियों को पाठक मिल जाने को लेकर ईर्ष्यालु थे. मैं जब अपनी राष्ट्रीयता खोने
की कगार पर था तब स्पेन ने मुझे एक दूसरी राष्ट्रीयता दी. मैं हमेशा पेरूवासी होने
और स्पेनिश पासपोर्ट रखने के बीच थोड़ी सी भी असंगति कभी महसूस नहीं होती है क्योंकि
मैंने महसूस किया है कि न सिर्फ मेरे मामले में बल्कि इतिहास, भाषा और संस्कृति जैसी जरूरी वास्तविकताओं को देखते हुए भी स्पेन
और पेरू एक ही सिक्के के दो पहलू हैं.
मैं स्पेन में जितने समय रहा, उसमें से वे पाँच वर्ष सबसे शानदार
वर्ष लगते हैं, जो मैंने 1970 के दशक की शुरुआत में दुलारे बार्सिलोना में बिताये . फ्रेंको
की तानाशाही अभी भी सत्ता में थी और गोलियां चल रही थी, लेकिन तब तक यह एक
मृतप्राय जीवाश्म था और विशेष रूप से संस्कृति
के क्षेत्र में यह पहले जैसा नियंत्रण
बनाए रखने में असमर्थ था. दरारें दिखाई देने लगी थी और झिर्रियां खुलने लगी थी जिनपर सेंसर
बोर्ड पर्दा नहीं डाल सकता था और उनके माध्यम
से स्पेनिश समाज ने नये विचारों, किताबों,
सोच या सोच की धाराओं और तब तक विध्वंसक बताकर निषिद्ध किये गए कलात्मक मूल्यों और रूपों को ग्रहण किया
था. किसी और शहर की तुलना में बार्सिलोना ने पहल की इस शुरुआत का सबसे ज्यादा
लाभ उठाया और विचारों और रचनात्मकता के सभी क्षेत्रों में एक सराहनीय उत्साह का अनुभव
किया. यह स्पेन की सांस्कृतिक राजधानी बन गया जो एक
ऐसा स्थान था जहाँ आने वाली आज़ादी की आहटें सुनी जा सकती थी. और, एक अर्थ में, यह चित्रकारों, लेखकों, प्रकाशकों और लैटिन अमेरिकी देशों से बड़ी संख्या में आये कलाकारों को देखते
हुए लैटिन अमेरिका की सांस्कृतिक राजधानी भी थी जो या तो बार्सिलोना में बस गए थे या बार्सिलोना से बाहर
आते जाते रहते थे: aअगर आप हमारे समय में कवि, उपन्यासकार, चित्रकार या संगीतकार बनना चाहते
थे तो यही वह जगह थी जहाँ आपको होना चाहिए था. मेरे लिए वे भाईबंदी, दोस्ती, कथानकों और उपजाऊ बौद्धिक गतिविधियों के अविस्मरणीय साल थे. जिस तरह कभी पेरिस
को माना जाता था, उसी तरह बार्सिलोना बेबल का टावर था एक सार्वभौमिक सर्वदेशीय शहर, जहां नागरिक युद्ध के दिनों के बाद से पहली बार रहना और काम करना उत्साहवर्धक था. स्पेनिश और लैटिन
अमेरिकी लेखकों में मेलजोल और भाईचारा था. नागरिक युद्ध के दिनों के बाद से, स्पेनिश और लैटिन अमेरिकी लेखकों में मेलजोल और भाईचारा था.
वे एक दूसरे को एक ही परंपरा के धारक मानते थे और एक जैसे कार्य से और निश्चितता
से जुड़े हुए थे: तानाशाही का अंत आसन्न था और लोकतान्त्रिक स्पेन में संस्कृति
प्रमुख नायक होगा.
हालांकि यह बिल्कुल
उस तरह नहीं हुआ, स्पेन का तानाशाही
से लोकतांत्रिक देश में परिवर्तन आधुनिक समय की सबसे अच्छी कहानियों में से एक रहा, इससे उदाहरण दिया गया
कि अगर अच्छी भावना और विवेक प्रबल हो और राजनीतिक
प्रतिद्वद्वंदी सार्वजनिक हितों के लिए सांप्रदायिकता को भुला दें तो जादुई यथार्थवाद के उपन्यासों जैसी शानदार घटनाएं
घट सकती हैं. स्पेन का अधिनायकवाद से आज़ाद देश, अल्प विकसित से समृद्ध राष्ट्र, तीसरी दुनिया
के आर्थिक विरोधाभासों और असमानता से देश में बदलना जिसमें मध्यम वर्ग था जिसका
यूरोप में एकीकरण होकर कुछ वर्षों में उसकी लोकतांत्रिक संस्कृति को अपना लेने से पूरी
दुनिया चकित रह गयी और स्पेन के आधुनिकीकरण में तेजी आयी है. मेरे लिए इसे इतने निकट
से अनुभव करना भावुकतापूर्ण और शिक्षाप्रद रहा है जिसे मैं दिल से महसूस कर सकता हूँ.
मैं उग्रता से उम्मीद करता हूँ कि राष्ट्रवाद, जोकि आधुनिक दुनिया और स्पेन की लाइलाज महामारी है, इस कहानी के सुखांत को बर्बाद न करे. मुझे राष्ट्रवाद, जो प्रांतीय विचारधारा है या यों कहें उस धर्म के हर रूप से घृणा है, जो अदूरदर्शी है और बौद्धिक क्षितिज को घटा देता है ,
अपने हृदय में जातीय और जातिवाद पूर्वाग्रह छुपाये रखता है,
क्योंकि यह किसी के जन्मस्थान की आकस्मिक घटना के नैतिक और सात्विक
विशेषाधिकार को सर्वोच्च मूल्य में परिवर्तित कर देता है. धर्म के साथ- साथ राष्ट्रवाद भी, इतिहास में सबसे खतरनाक रक्तपात का कारण रहा है जैसा कि दो विश्व युद्धों में और
मध्य पूर्व में हाल में हुए रक्तपात के दौरान हुआ. लैटिन अमेरिका के राष्ट्रवाद को बल्कनीकरण करने तथा लड़ाइयों और विवादों में
निरर्थक रक्तपात करने से सबसे ज्यादा नुकसान
हुआ है, क्योंकि विशाल संसाधनों का इस्तेमाल इमारत
स्कूलों, पुस्तकालयों, और अस्पतालों का निर्माण करने की बजाय हथियारों को खरीदने में कर दिया गया.
हमें अंध राष्ट्रवाद और इसके द्वारा 'अन्य' के अस्वीकरण, जो हमेशा हिंसा का मूल है, को ऐसी देशभक्ति मानकर भ्रमित नहीं होना चाहिए जोकि उस
धरती के लिए प्रेम की सम्मानपूर्ण उदार भावना है जहाँ हम पैदा हुए थे, जहां हमारे पूर्वजों रहे थे, जिस भूमि पर हम रहते
थे, जहां हमने शुरुआती सपने
देखे थे, भूगोल और प्रियजनों का परिचित परिदृश्य और
वे घटनायें हैं जो एकांत के खिलाफ मोरचा यानी स्मृति के मील के पत्थर बन गयी हैं और
एकांत में हमें सुकून देती हैं. मातृभूमि का अर्थ झंडे, गान या द्योतक नायकों के बारे में जोशीले भाषण नहीं है, बल्कि यह उन कुछ लोगों और स्थानों से बना है और जो हमारी यादों को उदासी और गर्मजोशीभरी
पुलक से झंकृत कर देता है कि हमें लगता है हम कहीं भी हों, हमारे पास लौटने की एक जगह है.
मेरे लिए पेरू अरेक्पेनोस है जहाँ मैं पैदा हुआ, लेकिन कभी रह नहीं सका मगर वह एक ऐसा शहर है जिसके बारे में
मेरी मां, दादा– दादी और चाचाओं और चाचियों ने उनकी यादों
और इच्छाओं के माध्यम से मुझे बताया. चूंकि
मेरे पूरे परिवार के खानाबदोश लोग अरेक्पेनोस की तरह अपने भटकते हुए अस्तित्व के दौरान
व्हाइट सिटी को हमेशा अपने साथ लिए फिरते रहे. मैंने रेगिस्तान में प्यूरा,
मस्कट पेड़ों और मेरी जवानी के दिनों में प्युरियाई द्वारा एक
"किसी और के पैर" जो सुंदर, उदासीभरा नाम
है, कही जाने मांदों में मुझे पता चला कि बच्चों को दुनिया में सारस
नहीं लाते बल्कि स्त्री- पुरुष ऐसे काम करके पैदा करते हैं जिसे नैतिक पाप माना जाता
है. सैन मिगुएल अकादमी और वेराइटी थियेटर में मैंने पहली बार अपने लिखे नाटक का मंचन होते हुए देखा था. मैंने लीमा के मिराफ्लोर्स
में डिएगो फेरे और कोलोन के कोनों, जिन्हें हम खुशहाल
पड़ोस कहते थे, में शॉर्ट पैंट की जगह लंबी पतलून पहनी,
जहाँ अपनी पहली सिगरेट से धूम्रपान किया, नृत्य करना, प्यार करना और लड़कियों
को दिल में जगह देना सीखा था. सोलह साल की उम्र में ला क्रोनिका के धूलभरे स्पंदित
संपादकीय कार्यालयों में, मैंने एक पत्रकार के
रूप में अपनी जगह बनायी जो ऐसा काम था जिसने
किताबों की तरह साहित्य के साथ- साथ मेरे लगभग
पूरे जीवन पर कब्जा कर रखा है, मुझे अधिक समय तक जिन्दा रखा, दुनिया को बेहतर जानना सिखाया, हर जगह से और हर वर्ग
के पुरुषों और महिलाओं के साथ होने की प्रेरणा
दी वे चाहे उत्कृष्ट, अच्छे, बुरे या घिनौना कैसे
भी लोगों हों. लिओनिसिया प्राडो सैन्य अकादमी में मैंने यह सीखा कि पेरू मैं था जहां
छोटे मध्यम वर्ग का गढ़ था जहां मैं तब तक बंद और संरक्षित रहता रहा था, बल्कि एक विशाल, प्राचीन,
द्रोही, असमान देश था,
जिसे सभी प्रकार के सामाजिक तूफानों ने हिलाकर रख दिया था. काविदा
के गुप्त कक्षों में मुट्ठीभर मार्कोस छात्रों के साथ, हमने विश्व क्रांति की तैयारी की. और पेरू स्वतंत्रता आंदोलन में मेरे दोस्त हैं
जिनके साथ हमने तीन साल तक बम, ब्लैकआउट और आतंकवादी हत्या के बीच में लोकतंत्र और स्वतंत्रता की संस्कृति की रक्षा के
लिए काम किया था.
पेरू मेरी टेढ़ी नाकवाली
मेरी चचेरी बहन पेट्रीसिया है जिससे मुझे पैंतालीस साल पहले शादी करने का सौभाग्य मिला
था जो मेरी सनक, पागलपन और गुस्सा और नखरे झेलती है जो मुझे
लिखने के लिए मदद करता है. उसके बिना मेरा जीवन बहुत पहले एक अशांत बवंडर में खो गया होता, और अलवारो, गोंजालो, मोर्गन और हमारे अस्तित्व का विस्तार छह पोते-पोतियाँ जो नहीं
हुए होते तो हमरे मन को ख़ुशी नहीं मिलती. वह सब काम करती है और बहुत अच्छी तरह से करती
है. वह समस्याओं को हल करती है, अर्थव्यवस्था का प्रबंधन,
अव्यवस्था को ख़त्म करती है, पत्रकारों और दखल देने वाले लोगों से दूर रखती है, मेरे समय का ध्यान रखती है, मुलाकातों और यात्राएं
का कार्यक्रम बनाती है, सूटकेस पैक करती और
खोलती है, और इतनी उदार है कि जब वह सोचती है कि वह मुझे डांट रही है, तो वह मेरी सबसे ज्यादा तारीफ कर रही होती है: "मारियो, आप केवल एक काम अच्छा कर रहे हैं और वह है लिखना."
अब हम साहित्य की बात
करें. बचपन का स्वर्ग मेरे लिए एक साहित्यिक
मिथक नहीं है बल्कि एक वास्तविकता है जिसमें मैं कोचाबाम्बा में तीन आंगनों वाले पारीवारिक
मकान में रहा था और वहां मज़ा आया था और जहाँ मैं अपने चचेरे भाइयों और स्कूल के दोस्तों
के साथ टार्जन और सल्गारी की कहानियों को पेश कर सकता था. पिउरा के प्रान्त में चमगादड़
ऊंचाई पर टंगे होते थे और मौन परछाइयां उस गर्म देश की तारोंभरी रातों को रहस्यमयी
बना दिया करती थी. मेरे पिता की मृत्यु हो
गई और स्वर्ग चले गए थे क्योंकि उन वर्षों के दौरान, लेखन मेरे लिए ऐसा खेल था जिसका मेरा परिवार जश्न मनाता था, एक मनोहर कार्य था जिससे मुझे प्रशंसा मिलती थी. मैं पोता ,भतीजा और बिना बाप का बेटा था क्योंकि मेरे पिता का स्वर्गवास
हो चुका था. वह लम्बे थे और नौसेना की वर्दी में दिखते थे जिनका फोटो मेरी रात की मेज
पर सजा हुआ था. सोने के लिए जाने से पहले प्रार्थना किया करता था चूमता था. पिउरा की
एक सुबह - मुझे नहीं लगता है मैं अभी तक इस सदमे
से उबरा हूँ-- मेरी मां ने रहस्योद्घाटन किया कि वह सज्जन वास्तव
में जिंदा थे. और कहा कि हम उसी दिन से लीमा में उनके साथ रहने के लिए जा रहे थे. मैं
तब ग्यारह साल का था और उस पल से सब कुछ बदल
गया. मैंने अपनी मासूमियत को खो दिया और अकेलेपन, प्राधिकरण, वयस्क जीवन और भय से रूबरू हुआ. मेरा मोक्ष अच्छी किताबें पढ़ने और उन दुनियाओं
में शरण लेने में था जहां जीवन शानदार, गहन, एक के बाद एक जोखिम भरा था. मैं स्वतंत्र महसूस कर सकता था और
फिर से खुश हो सकता था. और यह लेखन गुपचुप किया जाता था मानो मैं किसी वर्जित जुनून
में लगा हुआ था जिसके बारे में बताया नहीं जा सकता था. साहित्य एक खेल मात्र नहीं रह
गया था. यह भागने, विपरीत परिस्थितियों का विरोध करने,
असहनीय से बच निकलने का एक तरीका और मेरे जीने का कारण बन गया
था. तब से अब तक, हर परिस्थिति में मैंने जब भी खुद को निराश,
हारा हुआ या निराशा की कगार पर महसूस किया, तब खुद को शरीर और आत्मा से कथाकार के रूप में ढाल लेने से मुझे
सुरंग के अंत में प्रकाश नजर आया मानो डूबे हुए
जहाज से आदमी को पालकी में किनारे पर लाया जा रहा हो.
हालांकि यह बहुत मुश्किल है और मुझे खून पसीना बहाने और हर लेखक
की तरह कभी- कभी कल्पना के शुष्क मौसम यानी
मानसिक पक्षाघात के खतरे का महसूस करने के लिए के लिए मजबूर करता है मुझे जीवन का उतना
आनंद और किसी काम से नहीं मिला जितना महीने और साल लगाकर एक कहानी बनाने, उसकी अनिश्चित शुरुआत करने से लेकर जिये हुए अनुभव की छवियों
की स्मृति का भंडार, जो बेचैनी, उत्साह और दिवास्वप्न में बदलकर एक परिकल्पना के रूप में अंकुरित होता है,
छायाओं के उत्तेजित बादल को कहानी में इस्तेमाल करने का निर्णय
लेने से मिला. फ्लोबेर ने कहा है, "लेखन जीने का
एक तरीका है,". हाँ, बिल्कुल सही है. भ्रम और खुशी और दिमाग में विचारों की चिंगारियां बिखेरने वाली
आग के साथ जीना, असभ्य शब्दों के साथ तब तक संघर्ष करना जब
तक वे काबू में ना आ जाएँ, एक शिकारी की तरह व्यापक दुनिया की खोज करना, भ्रूण कथा को खिलाने के लिए वांछनीय शिकार तलाश करना,
हर कहानी की लालची भूख को तुष्ट करना, जो बढ़ जाने पर बाकि सब कहानियों को खा जाना चाहेगी. चक्कर महसूस
करने लगे एक जब लिखा जाने वाला उपन्यास आकार लेता है और अपने दम पर जीना शुरू करने
लगता है तो लगता है कि पात्र चलते फिरते हैं,
कार्य करते हैं, सोचते हैं,
महसूस करते हैं, सम्मान और ध्यान
दिए जाने की मांग करते हैं, जिन पर मनमाने ढंग
से व्यवहार थोपना संभव नहीं रह गया है, जिन्हें उनकी
स्वतंत्र इच्छा से वंचित करने पर वे ख़त्म हो जायेंगे या उन्हें मनाने से कहानी अपनी
शक्ति खो देगी- यह ऐसा अनुभव है जो मुझे अब भी उतना ही परेशान करता ,है जितना इसने पहली बार किया था और यह उतना ही सम्पूर्ण और सम्मोहक
अनुभव है मानो उस महिला से प्रेमालाप किया जाये जिससे आप दिनों, सप्ताहों और महीनों से लगातार प्रेम करते आ रहे हों.
कथा के बारे में बात करते हुए मैंने उपन्यास के बारे में बहुत
बात की और थिएटर के बारे में बहुत कम, जो इसके पूर्वप्रतिष्ठित
रूपों में से एक है. उसे महत्व न देना अन्यायपूर्ण होगा. थियेटर किशोरावस्था में, मेरा पहला प्यार था, मैंने जब, लीमा में सेगुरा थियेटर में आर्थर मिल का
नाटक ‘डेथ ऑफ़ ए सेल्समेन’ का मंचन देखा था, जिसने मुझे भावनात्मक रूप से उद्वेलित किया और मेरे लेखन
इनकाओं के साथ एक नाटक लिखने के लिए प्रेरित किया.अगर 1950 के दशक में लीमा में एक नाट्य आंदोलन चल रहा होता तो मैं उपन्यासकार की बजाय नाटककार बन गया होता. मगर ऐसा नहीं था और इस कारण मैं कथा की ओर अधिक से अधिक मुड गया.
लेकिन थिएटर के लिए मेरा प्यार कभी समाप्त नहीं हुआ, यह एक प्रलोभन और एक पुरानी यादों की तरह उपन्यासों की छाया में
दुबका हुआ ऊंघता रहा, विशेष रूप से तब जब
मैं कोई दिलचस्प नाटक देखता था. 1970 के दशक के अंत में मेरी जिस सौ वर्षीय परदादी मामाये ने अपने
जीवन के अंतिम वर्षों में खुद को अपनी आसपास की वास्तविकता से अलग- थलग करके यादों
और कथा में शरण ली थी, उसने मुझे एक कहानी
सुझायी. और मुझे पूर्वाभास था कि वह कहानी थिएटर के लिए थी और स्टेज पर ही यह महान
कथाओं का उल्लास और वैभव प्राप्त कर सकेगी. मैंने एक इसे नौसिखिये के उत्साह से लिखा
था. नायिका की भूमिका में नोर्मा आलियांद्रो को देखकर इसके मंचन का लुत्फ़ उठाया और
इसलिए उसके बाद से, मैं कई बार उपन्यास और निबंध के बीच में झूलता
रहा. और मुझे यह भी कहना है कि मैंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि सत्तर साल की उम्र
में मैं अभिनय करने के लिए स्टेज पर चढूँगा (या कहना चाहिए कि लुढकूंगा). यही कारण
है कि लापरवाह साहसिक कारनामे से मुझे पहली बार अपने ही मांस और हड्डियों में चमत्कार
अनुभव हुआ क्योंकि जिसने जीवन कथा लेखन में
बिताया है वह दर्शकों के सामने कुछ ही घंटों के लिए कथा के पात्र पात्र को सजीव
करे. मैं अपने प्यारे दोस्तों निदेशक जोआन ओले का, ग्यारहवें और अभिनेत्री एयिताना का सांचेज़ गिजोन का (आतंक के बावजूद) आभारी हूँ
जिन्होंने मुझे उन लोगों के साथ शानदार अनुभव साझा करने के लिए प्रोत्साहित किया.
साहित्य जीवन के एक मिथ्या प्रतिनिधित्व है फिर भी यह हमें जीवन
को बेहतर समझने में मदद करता है, उस भूलभुलैया में ले
जाता है जहां हम पैदा हुए, जहाँ से गुजरते हैं, और मर जाते हैं. यह
उन पराजयों और कुंठाओं की क्षतिपूर्ति करता है जो हमें वास्तविक जीवन में पेश आती हैं
और इसकी वजह से हम कम से कम आंशिक रूप से समझने कर सकते हैं कि जो चित्रलिपि विद्यमान है, वह मनुष्य के विशाल
बहुमत के लिए है और मुख्यतः हममें से वे जो निश्चितताओं से अधिक संदेह उत्पन्न करते
हैं, लोगों के समक्ष अपनी विकलता को उत्कृष्टता, व्यक्तिगत और सामूहिक नियति, आत्मा, इतिहास की सार्थकता या निरर्थकता और इधर
- उधर के तर्कसंगत ज्ञान कबूल करते हैं.
मैं हमेशा अनिश्चित परिस्थिति की कल्पना करके मुग्ध हो जाता
हूँ जिनमें हमारे पूर्वज जो जानवरों से बहुत अलग नहीं हैं, अभी हाल ही में पैदा हुई भाषा में गुफाओं
में आग के इर्द गिर्द बैठकर रात को संवाद करते होंगे, जहाँ बिजली गिरने, तूफ़ान की गडगडाहट
और गुर्राते हुए जानवरों के खतरे से कांपते हुए वे कहानियां बनाने और सुनाने लगे होंगें.
वह हमारे भाग्य का महत्वपूर्ण क्षण था क्योंकि कथाकार की आवाज और कल्पना से मंत्रमुग्ध
आदिम जाति के उन हलकों में सभ्यता शुरू हुई
और वह लम्बा रास्ता, धीरे - धीरे हमें मानवीयकरण और स्वायत्त व्यक्ति
का आविष्कार करने के लिए नेतृत्व करने के लिए प्रेरित करेगा, उसे जनजाति से अलग करेगा, विज्ञान की खोज करने, कला, कानून, स्वतंत्रता और प्रकृति
के अंतरतम कोनों की जांच करने, मानव शरीर, अंतरिक्ष, और सितारों की यात्रा करने करने के लिए प्रेरित करेगा. उन कहानियों,
कथाओं, मिथकों, किंवदंतियों ने दुनिया के रहस्यों और खतरों से भयभीत उन श्रोताओं
को नए संगीत की तरह पहली बार मंत्रमुग्ध किया
होगा जहाँ सब कुछ अज्ञात और खतरनाक था. उन हमेशा सावधान रहने वाले लोगों के लिए यह
अनुभव शांत कुंड के शीतल जल में स्नान जैसा होगा जिनके लिए जीने का अर्थ हमेशा प्राकृतिक
तत्वों से बचने के लिए शरण लेना, शिकार करना और बच्चे
पैदा करना होता होगा. तब से वे कहानियां सुनने से उत्साहित होकर मिल कर सपने देखने
लगे, अपने सपनों को साझा करने लगे , वे अस्तित्व के बंधन से मुक्त हो गये , और क्रूर कार्य के भंवर से मुक्त हो गये
और उनकी जिंदगी सपनों, खुशी, कल्पना और क्रांतिकारी
योजनाओं से भर गयी: बंधन तोड़कर बाहर निकलना, बदलना और सुधार करना हो गयी जो उन इच्छाओं और महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करना
था जिन्होंने उन्हें कल्पित जीवन को जीने को जगाया और अपने आसपास व्याप्त रहस्यों को हटाने के लिए जिज्ञासा पैदा की.
यह कभी भी बाधित नहीं होने वाली प्रक्रिया तब समृद्ध हुई जब
लेखन शुरू हुआ और कहानियों को सुनने के अलावा
पढ़ा भी जा सकता था, साहित्य ने उन्हें स्थायित्व प्रदान कर दिया है. इसीलिए इसे लगातार तब तक दोहराया जाना
चाहिए, जब तक नई पीढियां इसके बारे में आश्वस्त न
हो जाएँ: कथा मनोरंजन मात्र नहीं है, यह संवेदनशीलता
को बढाती है और आलोचनात्मक भावना को जगाती है. यह एक परम आवश्यकता है ताकि सभ्यता का
अस्तित्व बना रहे, हममें जो सबसे अधिक मानवीय गुण है उसका नवीकरण और संरक्षण किया जा सके.
ताकि हम अलगाव की बर्बरता में नहीं लौट जाएं और जीवन विशेषज्ञों की व्यावहारिकता बनकर
न रह जाये जो चीजों को गहराई से देखते हैं मगर लेकिन चारों ओर की और पूर्ववर्ती चीजों
की उपेक्षा कर देते हैं और पहले की तरह जीते रहते हैं. ताकि हम जिन मशीनों का आविष्कार
करते हैं, उनसे सेवा लेने की बजाय उनके सेवक और दास न बने रहें. और क्योंकि साहित्य
के बिना एक दुनिया इच्छाओं या आदर्शों से रहित और अपमानपूर्ण दुनिया होगी, ऐसी दुनिया जिसमें स्वचालित व्यक्ति हमें इससे वंचित कर दे जो
इंसान को वास्तव में इंसान बनता है: अपने दायरे से बाहर निकलकर हमारे सपनों से निर्मित
अपने से अलग लोगों की दुनिया में प्रवेश करना है.
गुफा से गगनचुंबी इमारत तक के लिए, गदा से सामूहिक विनाश के हथियारों तक, जनजाति के घिसे
पिटे जीवन से वैश्वीकरण के युग तक, साहित्य की कथाओं ने
मानव अनुभवों को बढा दिया है, हमें सुस्ती,
आत्मलीनता, परित्याग के सामने
झुकने से रोकता है. और किसी भी वजह से इतनी बेचैनी के बीज नहीं बोये, हमारी कल्पना और इच्छाओं
को परेशान नहीं किया, जितना कि साहित्य के कारण हमें मिले एक जीवन
काल्पनिक जीवन जोड़ने से हुआ ताकि हम महान साहसिक कारनामों में मुख्य पात्र बन सकें
और हमें इतना जुनून वास्तविक जीवन कभी नहीं देगा. साहित्य के झूठ हमारे माध्यम से सत्य
बन जाते हैं. साहित्य के झूठ हमारे माध्यम से सत्य बन जाते हैं. हमारे माध्यम से साहित्य
सत्य बन जाता है, पाठकों में बदलाव आता है, कथाओं की भूलों के माध्यम से लालसायें उभरती हैं, जो औसत दर्जे की वास्तविकता पर स्थायी रूप से प्रश्न चिन्ह लगा
देती हैं. साहित्य वह जादू टोना है जो हमें वह प्राप्त करने की आशा प्रदान करता है,
जो हमारे पास नहीं है,
वह बनाता है जो हम नहीं हैं, असंभव अस्तित्व तक ले जाता है, जहाँ लगता है कि हम
बुतपरस्त देवताओं की तरह एक ही समय में नश्वर और अनन्त हैं. साहित्य हमारी आत्माओं
में गैर अनुरूपता और विद्रोह भर देता है, जो उन सभी साहसिक
कारनामों की प्रेरणा हैं जिन्होंने मानवीय रिश्तों में हिंसा में कमी लाने में योगदान
दिया है. हिंसा में कमी आयी है. वह समाप्त नहीं हुई है. चूंकि सौभाग्य से, हमारी कहानी हमेशा अधूरी रहेगी. इसीलिए हमें सपने देखते रहना है, पढ़ते और लिखते रहना है, जो हमारे नश्वर हालत को सुधारने,
समय की टूट- फूट को हराने और असंभव को संभव में बदलने का सबसे
प्रभावी तरीका है.
Nobel
Lecture
अरुण देव जी मारियो वर्गास लोसा के नोबल - सम्बोधन के अनुवाद को समालोचन में शामिल करने के लिए शुक्रिया. स्वतंत्रता दिवस पर यह और भी सार्थक है क्योंकि असली आज़ादी सोच का विस्तार करना है. प्रभात रंजन की पोस्ट से इस लेखक के बारे में ज्यादा जानने की उत्सुकता हुई और इस नोबल संबोधन पर नजर पड़ी. हर लेखक को इसे यह जानने के लिए जरूर पढना चाहिए कि कोई बड़ा पुरस्कार मिले तो कितनी सहजता और विनम्रता से बोलना है. मारियो वर्गास लोसा ने अपने बचपन, घर परिवार , समकालीन लेखकों और देश के हालात पर बहुत आत्मीयता से प्रकाश डाला है.
जवाब देंहटाएंअनुवाद इतना अच्छा है कि आप पढ़ते जाते है.
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा अनुवाद ..सरिता को बधाई और शुभकामनाएं ..धन्यवाद अरुण जी पढवाने के लिए
जवाब देंहटाएंसरिता जी के अनुवाद का मैं मुरीद हूँ. सबसे पहले तो बधाई सरिता जी के लिए, जिन्होंने हमें अपने प्रिय रचनाकार के नोबेल संबोधन से परिचित कराया. लोसा की आपबीती बिलकुल अपने जैसे लगती है. रचना हमें आपस में कितना जोडती है, यह उदगार पढ़ कर मालूम हुआ. अरुण भाई का आभार यह बेहतरीन नोबेल उदगार पढवाने के लिए.
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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