भूमंडलोत्तर कहानी की दूसरी किश्त में आकांक्षा पारे की कहानी और
युवा आलोचक राकेश बिहारी का आलेख ...
शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट
आकांक्षा पारे
मैंने कुछ नहीं
किया. मैं बस गेम जीतने ही वाला था. काउंटर स्ट्राइक
के तीन ग्रेड पूरे होने आए थे. मेरा कंसोल मेरे बस में नहीं था. लेफ्ट-राइट कीज मूव करते हुए मैं खुद भी उसी गति से
दाएं-बाएं हो रहा था. आप
जान भी नहीं सकते कि कंसोल को कंट्रोल
करना कितना मुश्किल होता है. लेकिन वह...वह मूर्ख मेरे कंट्रोल
से बाहर होती जा रही थी. स्क्रीन पर धड़ाधड़ यूएस सोल्जर टेरेरिस्टों का सफाया कर रहे थे. अगर साउंड लाउड न हो तो, गेम में एक्साइटमेंट लाना इंपासिबल है. वह लगातार चीख रही थी, 'आवाज कम करो, लैपी बंद कर दो, पिछले छह घंटे से तुमने घर में शोर-शराबा कर रखा है. पूरे एक हफ्ते से ऑफिस के लंच टाइम में, ऑफिस खत्म होने के बाद, छुट्टी के दिन, पूरी-पूरी रात जाग कर मैंने काउंटर स्ट्राइक गेम खेलना सीखा था. मेरा कुलीग वी. प्रकाश मुझसे तीन हफ्ते से
इस गेम में जीत रहा
था. मैंने पूरे चौबीस गेम उससे हारे थे.
कल किसी भी सूरत में मुझे उसे काऊंटर स्ट्राइक गेम में
हराना था. वह जीत की कीमत समझ ही नहीं समझती थी. उसे पता था कि हम दोनों की ही टीम के पास कोई नया प्रोजेक्ट नहीं था. हम दोनों
ही बेंच पर थे. बेंच
पर यानी किसी नए प्रोजेक्ट आने के
इंतजार में. यानी कंपनी में ही बेकार की हैसियत से अपना टाइम पास करते रहना. मैंने उसे 'म्यूट. करने की बहुत कोशिश की. लेकिन वह बहुत लाउड हो रही थी. डॉल्बी साउंड की तरह हर कोने से वह मुझे
बार-बार लैपी बंद कर
देने के लिए दबाव बना रही थी. मेरे
कंसोल के बटन ने आखिरी सोल्जर के हाथ में गन थमाई और...आखिरी टेरेरिस्ट बस खत्म होने को था उसने मेरे हाथ
से कंसोल छीन लिया. आप
समझ रहे हैं? समझ रहे हैं आप...मैं गेम जीत रहा था. और उसने कंसोल छीन लिया.
वह लैपी शट डाउन करने के लिए झपटी, उसे म्यूट करने की सारी कोशिश के बीच
मैंने...सिर्फ
कंप्यूटर में फाइल हटाने का परमानेंट
आप्शन यूज किया,
शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट.
जी हां. वह मेरा कुलीग था और हम एक ही प्रोजेक्ट पर काम कर रहे थे. सेम डेस्क शेयर करते थे. बात वह कम ही करता था. ज्यादातर
तो वह फेसबुक पर ही
रहता था. पर हमारे यहां तो यह सब नार्मल
है. सभी फेसबुक पर चैट करते रहते हैं. हम लोग तो अपने ग्रुप को
लंच पर चलने के लिए भी 'व्हॉट्स एप. पर ही बुलाते हैं. अगर किसी को कुछ कहना हो
तो भी इंट्रा नेट पर मैसेज देते हैं. वैसे हर डेस्क पर इंटरकॉम है पर जब सभी की चैट आन हो तो रिंग कौन करे. बाकी तो मैं उसके
बारे में ज्यादा नहीं
जानता. उसकी वाइफ से मैं कभी मिला नहीं. वह ज्यादा सोशल
नहीं था. वह
कभी कंपनी की आउटिंग में भी नहीं आया.
बस मुझे तो इतना ही पता है.
सुदीप मलिक! हां मैं उसका बैचमेट हूं. हम इंडियन टेक्निकल इंस्टीट्यूट में साथ ही पढ़ते थे. पहले मैं और वह एक ही कंपनी
में थे. लेकिन फिर
मुझे नेट साल्यूशंस में जॉब मिल गई तो
मैं यहां चला आया. मुझे वैसे भी साफ्टवेयर बनाने से ज्यादा
नेटवर्किंग में दिलचस्पी थी. फेसबुक पर कभी-कभी वह मेरे स्टेटस को लाइक करता था. वैसे कॉलेज में मेरी दोस्ती उससे सेकंड सैम के
भी बाद हुई थी. वैसे
अच्छा लड़का था लेकिन थोड़ा खब्ती थी.
मेरा मतलब... पागल नहीं था. जब वह आया था खूब बातें करता था. खूब मूवी देखने जाते थे. लेकिन धीरे-धीरे वह
कंप्यूटर की दुनिया में
इतना इनवॉल्व होता गया की किसी से बात
ही नहीं करता था. हमेशा बस कंप्यूटर लैब में ही बैठा रहता था. 'ऊप्स. का तो वह बेहतरीन बंदा था. 'ऊप्स?. ओह आपरेटिंग सिस्टम को हम यही बोलते हैं.
थर्ड सैम में था हमको यह सब्जेक्ट. हमारी क्लास में ऊप्स का एक बेहतरीन बंदा था शांतनु भट्टाचार्य. वो दोनों शर्त लगा कर लिगो
फ्लैग एंड्स खेलते
थे. लेकिन सुदीप को तो कोई हरा ही नहीं
पाया आज तक. दोनों जब देखो कंप्यूटर लैब में ही रहते थे. शांतनु से दोस्ती के बाद सुदीप भी सबसे कटता चला
गया. बस इतना ही जानता
हूं मैं उसे. बाकी कल पेपर में पढ़ा तो
पता चला. सैड. अनुप्रिया हमने दो बैच जूनियर थी. वैसे वो भी खत्री थी पक्का नहीं पता की उन दोनों की लव
मैरिज थी या अरेंज. मुझे
शादी का कार्ड नहीं आया था तो मैं गया
नहीं था.
ओह वह 'गीक. मलिक. हम तो उसे इसी नाम से पुकारते थे.
एक बार उसने डेटा स्ट्रकचर के पेपर को फोड़
दिया था. आई मीन ट्वेंटी आउट ऑफ ट्वेंटी ले कर आया था. क्या कमांड थी बंदे की सबजेक्ट पर. 'कंप्यूटर वर्म. था वह. ऐसे लोगों को गीक कहा जाता है. यू
नो टेक्नीकल लैंग्वेज में. कोई नया गेम चाहिए, कंप्यूटर मलिक. कोई नया प्रोग्राम
लिखना है,
गीक मलिक. किसी प्रोग्रोम को डीकोड करना
है, मलिक. यानी हर मर्ज की दवा था मलिक. सारी मैं आपको समझा नहीं रहा पर
मुझे लगा पुलिस से
कुछ भी छुपाना नहीं चाहिए इसलिए मैं
आपको एक-एक डीटेल दे रहा हूं. आप हमारे बैच के किसी भी लड़के से पूछिए वह यही कहेगा की गीक मलिक के हाथ हवा
की रफ्तार से कीबोर्ड
पर चलते थे. मैंने बिना माउस की मदद
कीबोर्ड से काम करना दरअसल उसी से सीखा था. क्या गजब की स्पीड थी
उसकी कीबोर्ड पर. कभी माऊस को हाथ ही नहीं लगाता था. क्या एक से एक गेम डाउनलोड करता था वो नेट से. उसका लैपी तो भरा रहता
था गेम से. साले से
मैं कभी भी 'वल्र्ड ऑफ वॉर
क्राफ्ट.
गेम नहीं जीत पाया. जब से कॉलेज छोड़ा तब से तो मैंने कंप्यूटर पर कोई गेम खेला ही नहीं है.
वैसे वह हेल्पफुल था.
जब बेंगलौर में मैंने स्फ्टि सॉफ्टवेयर
जॉइन की थी तो तीन-चार दिन मैं उसी के घर पर रूका था. मैंने फेसबुक पर मैसेज पोस्ट किया था की मुझे दो-तीन
दिन रहने की जगह
चाहिए. पोस्ट पर उसी ने सबसे पहले
रिप्लाय कर अपने यहां रहने का ऑफर दिया था. उसकी वाइफ भी
अच्छी थी. पर दोनों में बात कम ही होती थी. मैं जितने दिन उनके साथ रहा वह अपने लैपी पर काम करता रहता था और उसकी वाइफ
कभी
बरामदे में अकेली बैठी रहती थी तो कभी
अकेले शॉपिंग पर निकल जाती थी. बट स्ट्रेंज. लगता नहीं
की सुदीप ने ऐसा किया होगा.
अरे मेरी तो रोज बात होती थी उससे फेसबुक पर. एक बार मेरी यूएस की फ्लाइट थी. ऑन साइड जा रहा था मैं तीन महीने के लिए. फ्लाइट
डिले थी सो मैंने
अपने स्मार्ट फोन से ट्वीट किया. कमीना
रात के तीन बजे भी अपने लैपी पर लगा हुआ था. तुरंत व्हॉट्स एप पर मैसेज किया, 'जाते ही नए गेम की सीडी भेजियो.. मैंने कहा, देखूंगा तो बोला किसी
डीकोडिंग में फंसेगा तो फिर सोच लेना. जब मैंने उससे वादा किया तब जा कर माना की मेरी मदद करेगा. वैसे हमारे पूरे ग्रुप
में कोई भी कहीं
फंसता था तो वही हमें उससे निकालता था.
कोड क्रेक करने में तो उसका जवाब नहीं था. पर वह किसी का सिर
क्रेक करेगा...ओह गॉड मैं तो सोचना भी नहीं चाहता.
आप रामास्वामी सर से भी मिले थे? गीक मलिक की तो उनसे कभी नहीं पटी. वैसे क्या बताया उन्होंने? सुदीप तो उनको 'पी जीरो प्रोसेसर. कहता था. ओह गॉश. जब उसने रामास्वामी सर को ये नाम दिया था तो हम लोग तो
हंसते-हंसते पागल हो गए थे. वह थे भी ऐसे ही. पी
वन प्रोसेसर की तरह स्लो. अब तो पी फाइव का जमाना है लेकिन वह अब भी प्रोसेसर वन की तरह ही बिहेव करते हैं. सुदीप को तो पी
फाइव की तरह चीजें
पसंद थीं. फास्ट. रामास्वामी सर को 'नर्ड. स्टूडेंट पसंद थे. 'नर्ड्स. यानी वही चश्मा लगाने वाले, स्टूडियस से. किताबों
के अलावा जिन्हें कुछ सूझता ही नहीं. जो हॉस्टल के कमरे से
लेक्चर रूम में जाते हैं और लेक्चर रूम से हॉस्टल आ जाते हैं. हमारे हॉस्टल में तो नडर्स और गीक दोनों के अलग-अलग ग्रुप थे. नडर्स चिरकुटों की
दुनिया हमेशा बायनरी में ही चलती थी.
बायनरी यानी जीरो-वन. यानी यस या नो. यानी कम पढ़ाई या ज्यादा पढ़ाई. मैं आपको बोर तो नहीं कर रहा न? मुझे लगा डीटेलिंग देने से आपको शायद ज्यादा मदद मिले. मैं आपको एक मजेदार किस्सा सुनाता
हूं, एक बार ऐसे ही एक नर्ड की हम रैगिंग ले रहे थे. हमने उससे कहाए गाना सुनाओ, उसने कहा नहीं आता. हमने कहा, अच्छा डांस करके
दिखाओ, उसने कहा नहीं आता. हमने कहा, कोई फिल्म का डायलॉग ही सुना दे, पता है वह क्या बोला? 'मैंने आज तक कोई फिल्म देखी ही नहीं.. तब हमने कहा चल जो तेरे को आता है वोई कर दे. तो उसने एक पीजे
(पूअर जोक) मारा. हमने
पूछा, ये कहां सुना बे. तो बोला, 'मैथ्स टुडे में छपा था सर.. सुदीप हंसा और बोला साला 80.85 माइक्रोप्रोसेसर तू तो हमेशा पी जीरो
प्रोसेसर का प्यारा रहेगा रे. और बताऊं हुआ भी यही.
अभी तो उसने एक मस्त नया टैब खरीदा था. उसका प्लान था, आई फोन-5 लॉन्च होते ही वह उसे
भी खरीद लेगा. ही इज क्रेजी अबाउट गैजेट्स.
देखिए सर, जहां तक सुदीप मलिक की बात है वह हमारे और एम्पलॉई जैसा ही था. हमारे यहां लगभग सात हजार एम्पलॉई हैं. हम किसी भी एम्पलॉई का उतना ही रेकॉर्ड रखते हैं जितना जरूरी होता है. बाकी पसर्नल लाइफ से हमें क्या करना है सर. हमारी कंपनी साढ़े सात एकड़ में फैली है. लश ग्रीन कैंपस. पूरे बेंगलौर में इससे अच्छा कैंपस किसी कंपनी का नहीं है. हमने यहां एम्पलॉइज के लिए सारी सुविधाएं दी हुई हैं सर. यहां स्वीमिंग पूल है, इनडोर गेम फेसेलिटी है, कैंटीन है, एक शानदार कैफेटेरिया है, जिम है, योगा सेंटर है, थिएटर है...आप यह मत सोचिए मैं कंपनी का प्रचार कर रहा हूं. लेकिन आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको दिखाता हूं. हर फ्लोर पर टी-कॉफी मशीन्स हैं, पूरी बिल्डिंग सेंट्रली एयरकंडीशंड है. यहां तक की टॉयलेट और कॉरीडोर में भी. हर डेस्क पर एपल मैक सिस्टम हैं सर. सभी को कंपनी की तरफ से लैपी भी दिए गए हैं. ताकि वक्त पडऩे पर ये लोग वर्क एट होम कर सकें.
देखिए सर, जहां तक सुदीप मलिक की बात है वह हमारे और एम्पलॉई जैसा ही था. हमारे यहां लगभग सात हजार एम्पलॉई हैं. हम किसी भी एम्पलॉई का उतना ही रेकॉर्ड रखते हैं जितना जरूरी होता है. बाकी पसर्नल लाइफ से हमें क्या करना है सर. हमारी कंपनी साढ़े सात एकड़ में फैली है. लश ग्रीन कैंपस. पूरे बेंगलौर में इससे अच्छा कैंपस किसी कंपनी का नहीं है. हमने यहां एम्पलॉइज के लिए सारी सुविधाएं दी हुई हैं सर. यहां स्वीमिंग पूल है, इनडोर गेम फेसेलिटी है, कैंटीन है, एक शानदार कैफेटेरिया है, जिम है, योगा सेंटर है, थिएटर है...आप यह मत सोचिए मैं कंपनी का प्रचार कर रहा हूं. लेकिन आप मेरे साथ चलिए, मैं आपको दिखाता हूं. हर फ्लोर पर टी-कॉफी मशीन्स हैं, पूरी बिल्डिंग सेंट्रली एयरकंडीशंड है. यहां तक की टॉयलेट और कॉरीडोर में भी. हर डेस्क पर एपल मैक सिस्टम हैं सर. सभी को कंपनी की तरफ से लैपी भी दिए गए हैं. ताकि वक्त पडऩे पर ये लोग वर्क एट होम कर सकें.
लेकिन फिर भी सर ये टैकीज सिवाय कैंटीन में जाने के और कहीं नहीं जाते. हमारे डायरेक्टर सर कई बार एड्रेस कर चुके हैं सर
की सब अपना काम खत्म
कर वक्त पर घर जाएं. लेकिन ये लोग
देर-देर तक रात में यहीं रहते हैं सर. कहते हैं, कंपनी का प्रोजेक्ट है, डेडलाइन पास में है इसलिए प्रोग्राम लिख रहे हैं. पर मैं एक बात बताऊं सर अगर ये लोग चाहें न तो सुबह नौ से शाम छह बजे तक
आराम से काम कर सकते
हैं. लेकिन करते ही नहीं हैं. इन लोगों
को न सर कंप्यूटर पर बैठने की लत लग गई है. मस्त एसी में बैठते
हैं, दिन भर आमंड, लैमन, तुलसी फ्लेवर की चाय
पीते हैं और रात
को खूब गेम और फिल्में डाउनलोड करते
रहते हैं. यहां 5
एमबीपीएस की स्पीड से डेटा ट्रांसफर कर सकते हैं सर! 5 एमबीपीएस! घर पर ये सुविधा कहां मिलेगी सर. सर्वर वालों ने कई बार शिकायत भी की है की पूरा लैन सिस्टम गेम और फिल्मों
से भर जाता है,
पर इन लोगों से पूछे कौन. इनका टीम लीड भी यही सब करता रहता है तो
अपनी टीम से क्या
कहेगा. यदि किसी के पास फॉरेन क्लाइंट का
असाइनमेंट है तो वह तो रुकेगा पर उसके साथ दो-चार ऐसे ही फालतू
में रूक जाते हैं. अब वो मिस्टर मलिक के बारे में तो आप उसकी टीम के लीडर से पूछेंगे तो ज्यादा पता चलेगा सर.
मैं उस कॉलेज में डेटा स्ट्रक्चर पढ़ाता था. अभी तीन साल पहले ही रिटायर्ड हुआ हूं. मुझे अफसोस है कि हम अपने छात्रों को सिस्टम आपरेट करना तो सिखाते हैं लेकिन सिस्टम भी उन्हें आपरेट करेगा यह सिखाने की हमारे पास कोई व्यवस्था नहीं है. हमारे कॉलेज की शानदार बिल्डिंग है, बड़ा खेल का मैदान है. इनडोर-आउटडोर दोनों तरह के गेम के लिए अच्छी सुविधाएं हैं. फिर भी मैदान खाली पड़े रहते हैं. ज्यादातर स्टूडेंट भारी परदों से ढकी उस कंप्यूटर लैब में अपना समय गुजारते हैं, जहां पता ही नहीं चलता कब दिन ढला, कब बारिश हुई, कब खूबसूरत शाम बीत गई. लैब में हर स्टूडेंट अपनी दुनिया में गाफिल है. उसे अपने आस-पड़ोस से भी कुछ लेना देना नहीं है. कॉलेज के चारों हॉस्टल वाई-फाई हैं. रही-सही कसर यहां पूरी हो जाती है. कंप्यूटर स्क्रीन के अलावा वे दुनिया को किसी और माध्यम से समझना ही नहीं चाहते.
मैं उस कॉलेज में डेटा स्ट्रक्चर पढ़ाता था. अभी तीन साल पहले ही रिटायर्ड हुआ हूं. मुझे अफसोस है कि हम अपने छात्रों को सिस्टम आपरेट करना तो सिखाते हैं लेकिन सिस्टम भी उन्हें आपरेट करेगा यह सिखाने की हमारे पास कोई व्यवस्था नहीं है. हमारे कॉलेज की शानदार बिल्डिंग है, बड़ा खेल का मैदान है. इनडोर-आउटडोर दोनों तरह के गेम के लिए अच्छी सुविधाएं हैं. फिर भी मैदान खाली पड़े रहते हैं. ज्यादातर स्टूडेंट भारी परदों से ढकी उस कंप्यूटर लैब में अपना समय गुजारते हैं, जहां पता ही नहीं चलता कब दिन ढला, कब बारिश हुई, कब खूबसूरत शाम बीत गई. लैब में हर स्टूडेंट अपनी दुनिया में गाफिल है. उसे अपने आस-पड़ोस से भी कुछ लेना देना नहीं है. कॉलेज के चारों हॉस्टल वाई-फाई हैं. रही-सही कसर यहां पूरी हो जाती है. कंप्यूटर स्क्रीन के अलावा वे दुनिया को किसी और माध्यम से समझना ही नहीं चाहते.
रोबोट इंसानों की तरह बनाए जा रहे हैं और इंसान रोबट बनता जा रहा है. रोबोट इंसान की तरह लगें इसके लिए दुनिया भर में नए-नए
प्रयोग चल रहे हैं.
एक मनोचिकित्सक की हैसियत से मैं जो
सोचता हूं वह यही है कि मशीनों के बीच रहना, मशीनों के बीच ही खाना, उन्हीं के कल-पुर्जों से गपशप करना वहीं सो जाना ही ऐसी समस्या की जड़ है. एक युवा कंप्यूटर इंजीनियर ने जब अपनी पत्नी
की हत्या कर दी तो
हम सब जागे हैं. यह मामला ठंडा हो जाएगा
और हम फिर अपने-अपने काम में इस किस्से को भूल जाएंगे. आप किसी
और कार्यक्रम की एंकरिंग में व्यस्त हो जाएंगी. अखबार किसी और विषय पर फीचर या खबर लिखेंगे और हमारी बातों को चार लाइन के
कोट में खत्म कर दिया
जाएगा. लेकिन मूल समस्या तब भी वहीं की
वहीं रहेगी. कोई समझना ही नहीं चाहता कि समस्या की जड़ कहां
है. कार्ल माक्र्स चाहते थे कि समाज डी-क्लास हो. पर ये कंप्यूटर की दुनिया ने तो क्लास क्या सामाजिकता ही खत्म कर दी
है. और...
आप देख रहे थे हमारी विशेष पेशकश, मशीनी मानव (!) हमारे स्टूडियो में थे
प्रसिद्ध मनोविज्ञानी प्रकाश दलाल और इंडियन टेक्निकल इंस्टीट्यूट के प्रोफेसर जी. के. बक्षी. हम यहां लेंगे छोटा सा ब्रेक और
ब्रेक के बाद जुड़ेगे
सीधे बेंगलौर से जहां हमारे संवाददाता
बताएंगे सुदीप मलिक केस की आज की छानबीन के बारे में. जाइएगा
नहीं...हम बस अभी हाजिर हुए.
आपको जिसने भी कहा है कि मेरा उससे अफेयर था. बिलकुल गलत कहा है. हां वह मुझे अच्छा लगता था. वह और लड़कों की तरह लड़कियों
से फ्लर्ट नहीं करता
था न ही उन्हें कॉफी पीने के लिए
इनवीटेशन देता फिरता था. मेरे मन में उसके लिए सॉफ्ट कॉर्नर था. बेंगलौर शिफ्ट होने से पहले वह पूना में ही
मेरी कंपनी में जॉब
करता था. लेकिन तब तक मैं उससे बात करना
बंद कर चुकी थी. कैंपस सिलेक्शन में उसका और मेरा सिलेक्शन एक
साथ एक ही कंपनी में हुआ था. लेकिन बाद में उसे बेंगलौर में अच्छा ऑफर मिला तो वह वहां चला गया. कॉलेज की बात अलग थी.
फिफ्थ सैम के तुरंत बाद
की बात है, सैम ब्रेक में वह घर नहीं जा रहा था. मैंने भी तीन दिन बाद का
रिजर्वेशन लिया था. मुझे लग रहा था शायद फोर्थ सैम
में मेरा एक पेपर रूक जाएगा. इसलिए रिजल्ट देखने के लिए मैं रूक
गई थी. टाइम पास के लिए मैं उसके साथ वर्ल्ड ऑफ वॉर क्राफ्ट खेल रही थी. इस गेम में खूब सारे फाइटर्स होते हैं.
आपको जितने ज्यादा पॉइंट मिलते जाएंगे आप उतने ही
ज्यादा वैपन ले सकते हैं. जिसके पास ज्यादा वैपन, जाहिर सी बात है वो गेम जीत जाएगा. हम
दोनों मजे-मजे में वह गेम खेल रहे थे. मैं गेम जीत रही थी.
जैसे ही मेरे एट पॉइंट हुए मैं उठ गई. यह सोच कर की बहुत देर से कमरे में बैठे हैं. लेकिन वह अचानक मुझ पर झपट पड़ा. मैं
बुरी तरह डर गई. उसने
मुझसे कहा मैं तब तक कमरे से बाहर नहीं
जा सकती जब तक वह यह गेम दोबारा खेल कर जीत नहीं जाता. मुझे कमरे
में घुटन हो रही है,
मैंने कहा. लेकिन उसने मुझे नहीं जाने दिया. उसके कमरे में हमेशा गहरे रंग के परदे खिंचे रहते थे. वह
अक्सर अपने कमरे में
ही रहता था. मैं भागना चाहती थी. पर
उसने मेरी एक नहीं सुनी. मैंने जल्दी से जानबूझ कर वह गेम हारा और दौड़ती हुई वहां से निकल गई. उसके बाद मैं
उसके कमरे में कभी
नहीं गई न मैंने उससे बात की. मुझे लगता
था कि वह मुझसे प्यार करता है, क्योंकि पूरी क्लास में वह सिर्फ मुझ से ही बात किया करता था. लेकिन धीरे-धीरे मैंने समझा वह बस अपने कंप्यूटर से ही प्यार कर सकता
है. लैन सिस्टम से
मूवी कॉपी करना और देखना, नए गेम डाउनलोड करना और नए प्रोग्राम
लिखना बस वह इसके
अलावा कुछ करना नहीं चाहता था. वह
लाइब्रेरी से कभी बुक इशू नहीं कराता था. हमेशा ई-बुक डाउनलोड कर के ही पढ़ता था. एक बार वह क्लास में नोट्स
की कॉपी के पन्ने
पलटने के बजाय उसे ऊंगली से स्क्रोल कर
रहा था. वह अपनी कॉपी के साथ टच पैड की तरह बर्ताव कर रहा था. तब
मैं समझ गई की इससे दूर रहना ही ठीक है. जब मैं उससे कुछ कहना चाहती थी, तो वह कहता था, अभी मुझे बिलकुल डिस्टर्ब मत करो.
अक्सर हमारी लड़ाई हो जाया करती थी. मैं कहती थी, जब देखो यह प्लास्टिक पीटा करते हो. स्क्रीन से सिर उठा कर कभी मेरी शक्ल भी देख लिया करो. अरे
मैं तुमसे बोल रही हूं. सुन रहे हो. मैं
बक नहीं रही. जब देखो लैपटॉप में सिर दिए बैठे रहते हो. लेकिन
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था. धीरे-धीरे मैंने उससे बात करना कम कर दी लेकिन उसने कोई परवाह नहीं की. मुझे आश्चर्य हुआ था जब
मैंने सुना था कि वह
शादी कर रहा है. अनुरीता हमारी जूनियर
थी. बहुत ही हंसमुख लड़की थी. उसे बाहर घूमना, लोगों से बात करना, दोस्ती करना पसंद था. सुदीप इसके बिलकुल
उलट था. मुझे
आश्चर्य होता है कैसे अनुरीता सुदीप के
झांसे में आ गई और शादी कर ली. अनुरीता कई बार अपनी कलीग को
बताती थी कि कैसे सुदीप पूरा-पूरा दिन कमरे से बाहर नहीं निकलता. कैसे वह उसे हमेशा इग्नोर करता है. मुझे यह सब इसलिए मालूम है
क्योंकि मैं उसकी
कलीग को जानती हूं. मुझे कोई आश्चर्य
नहीं की उसने बेसबॉल के बैट से अनुरीता का सिर फोड़ दिया. फिर उसके टुकड़े कर डीप फ्रीजर में बंद कर ताला लगा
कर चल दिया. और अपने
स्मार्ट फोन से फेसबुक पर मैसेज पोस्ट
करता रहा,
ट्वीट करता रहा. वह इतना बेरहम, वहशी हो सकता है. बिलकुल हो सकता है.
तमाम बयानों, गवाहों, सबूतों और मुजरिम के इकबालिया बयान से
यह सिद्ध होता है कि मुलजिम सुदीप मलिक ने
ही अपनी पत्नी अनुरीता सिंह की बेसबॉल के बैट से हत्या की और
उसके छोटे-छोटे टुकड़े काट कर प्लास्टिक में बांध कर उन्हें डीप फ्रीजर में रख दिया. मुलजिम के मेडिकल परीक्षण में ऐसी कोई
मानसिक बीमारी का लक्षण
दिखाई नहीं दिया जिससे उसकी सजा में कमी
की जाए. सिवाय इसके की उसे कंप्यूटर पर खेले जाने वाले हिंसक
खेल खेलने की लत है. जिसमें उसे किसी की भी दखलंदाजी ना-काबिले बर्दाश्त है. मुलजिम समाज से बिलकुल कट चुका है और
उसे अपने किए पर कोई
पछतावा भी नहीं है. उसने इस कत्ल में
जिस बेरहमी का परिचय दिया है वह क्षमा योग्य नहीं है. लिहाजा कोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है की उसे ताजीराते
हिंद दफा 302
के तहत फांसी की सजा दी जाती है.
उसका ध्यान जज की बात सुनने के बजाय कोने में लटक रही एक मकड़ी पर अटक था. मकड़ी लटक कर छत पर जाती और फिर झूल कर दोबारा छत
पर पहुंच रही थी.
जितनी बार मकड़ी ऐसा करती उतनी बार उसकी
ऊंगलियां टेबल पर एक विशेष अंदाज से ऊपर या नीचे ऊठ रही थीं. इस
करतब से महीन तारों का एक छोटा सा जाल दीवार पर हल्की रोशनी में चमक रहा था. किसी की भी ओर बिना देखे उसने कहा, 'वर्ल्ड वाइड वेब.. ठंडापन उसकी आंखों में था. जिसमें न दुख था न ग्लानि. लकड़ी की मेज-कुर्सी
के ऊपर झूलते लैंप की
रोशनी बारी-बारी से कभी किसी भाग को
रोशन कर रही थी तो ठीक उसी वक्त दूसरे भाग को अंधेरे में डुबो रही थी. टाइपराइटर की खट-खट कमरे में बसी
शांति को धकेलने के लिए
पूरी शिद्दत से जुटी हुई थी. 'आप लोग कंप्यूटर इस्तेमाल नहीं करते? इस जमाने में भी टाइप राइटर?. उसने
इस हिकारत से कहा जैसे टाइपराइटर का इस्तेमाल हत्या से बड़ा अपराध हो. 'तुम्हारी फांसी की
सजा की प्रति टाइप की जा रही है.. जेलर की आवाज में उसकी आंखों जितना ही ठंडापन था.
'ओह..
'तुम्हें सुबह चार बजे तुम्हें उठना है. तुम्हारी कोई आखिरी ख्वाहिश?.
'अं...अं...न.
'श्योर.
'अं...श्योर तो नहीं. पर कहीं इंटरनेट कनेक्शन होगा क्या? निंजा एंड ग्लैडिएटरर्स गेम का फिफ्थ पार्ट आने वाला था. सोच रहा हूं
एक बार चैक कर
लेता..
_____
शिफ्ट+कंट्रोल+ऑल्ट=डिलीट - (कंप्यूटर से हमेशा के लिए फाइल डिलीट करने के लिए इस्तेमाल किया जाने वाला विकल्प.)
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इस कहानी पर राकेश बिहारी का आलेख यहाँ पढ़ें
Adbhut katha .....takniki duniya ne aadani ko uski samvedanao se hatakar mahaz ek yantra me tabdil kar diya hai lekin is bat ka na to use koi afsos hai aur na hi koi pachtava....kya yah aane vale khatarnak vakt ki aahat hai? badiya kissagoi .....pata nahi hindi me aisi kahaniya kyon nahi aati hain ....
जवाब देंहटाएंहक़ीक़त बयान करती मार्मिक कहानी
जवाब देंहटाएंआधुनिक युग की दास्ताँ ... रोबोट से होते जा रहे इंसान, अंतरजाल, कम्प्युटर में डूबे .. विडियो गेमिंग की लत के शिकार हो कर दुनिया की हकीकत से दूर वीडियो के पात्रों में खुद को ढाल कर धीरे धीरे मानसिक रूप से बीमार हो जाते है, ये खेल ही इनके लिए वास्तविक जीवन हो जाता है जिसके लिए वास्तविक जीवन की बलि चढ़ा देते है ...यह आज की सत्यता है ... बच्चे वीडियो खेलते हुए गन चलाते हुए गेम में खून खराबा करते ही दिखाई देते है... उनमें होने वाले मानसिक बदलावों को यह कहानी वस्तुस्तिथि दर्शा रही है .... कहानी बड़े सलीके से लिखी गयी है, बहुत रोचक है ... कुछ इंग्लिश के शब्दों का भी बखूबी इस्तेमाल है जिनको कहानी में इस तरह से समझाया गया है की कहानी की रोचकता बढती है....... कम्प्युटर की दुनिया के एक नायाब कहानी ... आभार समालोचन, धन्यवाद अरुण जी इसे साझा करने के लिए
जवाब देंहटाएंआस्था का "पीर" हर कहीं है लेकिन वर्चुअल वर्ल्ड में होना किसी भी अतिवादि से ज्यादा गंभीर मसला है. ये तंद्रा भी टुटी है कि-"साफ़्ट्वेयर" ग्याता के अंतस में कोई वैचारिक वैशिष्ट्य़ का सौता फ़ुट रहा होता है.....ये साफ़्ट्वेयर का "पीर" तब और दरिद्र होगा जब ये बारिश की फ़ुहारों को अपनी स्क्रिन पर भोगेगा,भावानओं का स्पंदन क्या होता है ये अभागा की-बोर्ड के बटन में महसुस करेगा.....और अंत में ये ई-कचरे की तरह फ़ेंक दिया जाएगा...
जवाब देंहटाएंआकांक्षा जी आपने विस्तार से एक सेल्युलाईड खाका खींचा है जो एक कडी चेतावनी देता है कि-"यदि वर्चुअल खतरे आप की कोख में पनप रहे है तो उसे किसी प्रकृति की वाडी में ही प्रजनन कराएं"
इस ठंडे समय की विसंगतियों को ठीक तरह से रेखांकित करती कहानी। उपभोक्ता और मशीनी संस्कृतियों के बीच हमारी संवेदनाएं भी काष्ठ हुई हैं।
जवाब देंहटाएंआकांक्षा जी की कहानियों में हमारे समय की सौंध है।
राकेश बिहारी जी कहानियों पर खूब मन से लिख रहे हैं। अरुण जी आपको और दोनों लेखकों को बधाई और शुभकामनाएं।
वर्तमान समय की एक शानदार कहानी...
जवाब देंहटाएंसादर,
प्रांजल धर
बिलकुल नई जमीन की कहानी. समालोचन का शुक्रिया पढवाने के लिए. पहले पढने से मैं चूक गया था.
जवाब देंहटाएंरोबोट इंसानों की तरह बनाए जा रहे हैं और इंसान रोबट बनता जा रहा है. रोबोट इंसान की तरह लगें इसके लिए दुनिया भर में नए-नए प्रयोग चल रहे हैं. एक मनोचिकित्सक की हैसियत से मैं जो सोचता हूं वह यही है कि मशीनों के बीच रहना, मशीनों के बीच ही खाना, उन्हीं के कल-पुर्जों से गपशप करना वहीं सो जाना ही ऐसी समस्या की जड़ है.
जवाब देंहटाएंरोबोट बनती जा रही पीढ़ी की कहानी ...क्या कोई राह है? बधाई आकांक्षा।
यह कहानी एक खतरनाक भविष्य का ऐलान है। सोशल साइट्स ने जहाँ पूरी दुनिया हमारे आँगन में समेट है वहीं घर में साथ रह रहे सदस्यों को किसी दूसरी दुनिया के प्राणियों जैसा अजनबी बना दिया है। नये गैजेट्स हमे लगातार आत्म परक लापरवाह और स्वार्थी बना रहे है। यह एक बेहतरीन कहानी है।
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