पेंटिग : रामकुमार
संभावना शुरुआत की रचनाशीलता के सामर्थ्य से ही अपना पता देने लगती है, उसमें समकाल से अलहदा कोई न कोई ऐसी चीज जरुर होती है जो चमकती है और ध्यान खींचती है. सरोकारों के वाज़िब दबाव रचनाओं को प्रभावशाली बनाते हैं. अंकिता आनंद की इन कविताओं पर सोचते हुए लगा ‘यही कि कोई उन्हें ना बताए,/ कि हमें चाहिए क्या.’
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समय-समय की बात
क्यों इन्सान को इतना समय लगता
है
अपनी धूल झाड़ खड़े होने में,
जबकि हाथ झाड़ते उसे तनिक देर
नहीं लगती?
संशय और सम्पूर्णता
किसी का होना हम कई वजहों से
नकार सकते हैं.
अपने जीवन में उसकी उपस्थिति
स्वीकारने का अर्थ होता है
खुद को हज़ार सफाईयाँ देना, खुद सवाल खड़े
करना और फिर जवाबों से मुँह चुराना -
जिस ज़मीर को हाल ही में झाड़-पोंछ, साफ़-पाक़ कर फ़ख्र से घूम रहे थे,
उस बेचारे दागी को एक नए सिरे
से होनेवाली शिनाख्त के लिए भेजना.
ऐसे में यही हल नज़र आता है कि
बार-बार गोल-गोल घूम चक्कर खाने से बेहतर है
बात को हँसी में उड़ा दें.
पर फिर उसी का न होना
इतने संशयहीन पैनेपन से भेदता
है
जितना संपूर्ण हो सकता है
सिर्फ किसी गलती का एकाकीपन.
आत्मीय
वो तो शुक्र है आज आपने
खुलासा कर दिया
कि आप मेरे आत्मीय हैं
और व्यर्थ की औपचारिकता छोड़ मुझ
पर अपने अधिकार ले लिए.
वरना कमबख्त ये मेरी
आत्मा तो बड़ी घुन्नी निकली,
आज तक मुँह में दही
जमाए बैठी थी, बताईए ज़रा!
व्यतीत
इंतज़ार करते हुए वक्त नहीं, हम बीतते
हैं
और इंतज़ार करानेवाला सोचता
रह जाता है
कि जितना छोड़ गया था
उससे कम कैसे?
मिस की चेतावनी
क्या करोगे नहीं पढ़ोगे तो?
रिक्शा चलाओगे?
फेल होके स्कूल से नाम कट जाएगा,
फिर बैठे रहना चरवाहा विद्यालय
में.'
हम डर गए, पढ लिए.
अब कोई और चलाता है रिक्शा,
कोई और बैठे रहता है चरवाहा विद्यालय में.
आख़िर इन लड़कियों को चाहिए क्या?
यही कि कोई उन्हें ना बताए,
कि उन्हें चाहिए क्या.
दिल्ली से दरभंगा दूर
इन रोशनियों से जी ही नहीं भरता,
यूँ
चिराग तो हमारे घर भी जलता है.
कीटाणु
'क्या आप जानते
हैं?
आपके घर में
फ़र्श के ऊपर,
कालीन के नीचे,
टॉयलेट के पीछे,
नसों को खींचे, मुट्ठियाँ भींचें,
आप पर हमला करने को
तैयार हैं
सैकड़ों, लाखों, करोड़ों कीटाणु?'
जी? जी, नहीं.
अब रेंगते वक्त इन
बातों का खयाल ही कहाँ रहता है?
गलती से मिस्टेक
हम बस ज़रा हट के दिखना चाह
रहे थे,
आपने तो हटा ही दिया.
सौदा
'इस बार संतरे हर
जगह महंगे हैं.'
अच्छा, भैया, आप कहते हैं तो मान लेती हूँ.
नहीं, ऐसी निरी
नहीं कि शक ना आया हो मन में,
पर ठगे जाने का डर गौण था
विश्वास करने की क्षमता
को खो देने के भय के सामने.
तफरी
सड़कों की ख़ाक छानना ज़रूरी है,
ताकि घर को चाय के साथ आपका इंतज़ार करने का मौका मिले.
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अंकिता आनंद आतिश नाट्य समिति और
पीपल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स की सदस्य हैं. आतिश का लक्ष्य है नाटक
के ज़रिये उन मुद्दों को सामने लाना जो अहम् होते हुए भी मुख्य विचारधारा में स्थान
नहीं पाते. इससे पहले उनका जुड़ाव सूचना के अधिकार के राष्ट्रीय अभियान, पेंगुइन बुक्स और समन्वय: भारतीय भाषा महोत्सव
से था. यत्र –तत्र कविताएँ प्रकाशित.
anandankita2 @gmail.com
anandankita2
अपने पीछे अभिव्यंजनात्मक अध्याहांर छोडती ये सूत्रात्मक रचनाएँ पूरी मानवीय संवेदनाओं के साथ तात्त्विक तथ्यों के खोज की भूमि को निर्मित करती है.
जवाब देंहटाएंअंकिता आनंद के पास बेहद खास भाषा है। उनकी काव्य पंक्तियाँ याद रह जाने वाली होती हैं।
जवाब देंहटाएंकविता की भाषा है इनके पास .. इन छोटे कविता टुकड़ों से संकेत मिलता है कि कमाल का लिख सकती हैं .. स्वागत इसलिए कर सकता हूँ कि स्त्री नाद से बची कविताएं लेकर आ रही है एक स्त्री.
जवाब देंहटाएंप्रश्न करती और प्रश्नों को जन्म देती कवितायेँ । बेहद उम्दा ।
जवाब देंहटाएंशायक से सहमत।
जवाब देंहटाएंइतना जोड़ना कवि को बुरा नहीं लगेगा कि पंक्तियां अभी सूक्तियां बनने की ओर चली जा रही हैं।
यहां कविता बहुत बड़ी सम्भावना है।
आगे और पढ़ना होगा तो जानेंगे।
शुभकामनाओं के साथ।
Areyy wahh :*
जवाब देंहटाएंअच्छा है. हम खुश हुए लेकिन ज़रा से ...
जवाब देंहटाएंकुछ बात है, जिसे अभी और होना है.
जवाब देंहटाएंBahut achchhi kavitain! Badhai aur Shubhkaamnain!
जवाब देंहटाएंसरल शब्दों में बेहतरीन अभिव्यक्ति .
जवाब देंहटाएंyeh itne saral shabdon mein hain ki maine bohot enjoy kiya! :) - janani
जवाब देंहटाएंभाषा अच्छी है.
जवाब देंहटाएंआगे इसमें कितनी कविता आ पाती है, इसे देखने के लिए समय देना चाहिए.
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