सहजि सहजि गन रमैं : मृत्युंजय















  







देखियत कालिंदी अति कारी… 

(क)


धान की न जाने कै तरह की फसल
सिर झुकाये बालियाँ सुनहिल खड़ी हैं

पान के भीटे सलोने,
महक उठती नम हवा की साँस जिनकी हरी खुशबू से
अनगिनत मछलियों से भरे हैं
जल-थाल-पोखर-झील-ताल-तलाब-नद-सागर
कोदो पत्तियों का कसैला सा मधुर स्वाद
पान का स्थान लेता बालवृन्दों के लिए
और बखीर, साँवे भात से लटपट

पुरवाइयों को छोर पकड़ा कर नखत पुरुबा
बादलों की आर्द्र चादर गार जाती है
सोख लेते खेत-पाती-आम-ऊसर-ढ़ोर-डंगर
चर-अचर-जड़-जीव-जंगम सब जिसे मन भर

वह कदम का पेड़ जिसकी डाल पर झूले पड़े
सखियों संग जहाँ अठखेलियाँ करती प्रिया
कमल के पत्र जिनपर भात खाया पेटभर
जिनपर ढुरकती जल बूँद मोती सदृश

बरगद की यह छाँह तृप्तिदाई, घनी, शीतल
और छोटे फल जिन्हें पशु-पक्षियों के साथ
तब मिल-बाँटकर खाया मनुष्यों ने
गर्व से निज पत्तियों का मुकुट धारे
सुपाड़ी, नारियल और खजूर के वृक्ष
मीठी निबौली से जमीं रसवान करते
शानदार दरख्त

इन पर पल रहे, संग चल रहे
कीट-तितली-फतिंगे, बहुवर्ण पक्षी
अनेकों पशु, मनुज की निम्न-बहुला वंश शाखा


(ख)

सब मर रहे तिल-तिल
सबको पीस कर चूरा बनाकर
गिन्नियों में ढालती आयातित मशीने
राजधानी की पॉश कॉलोनी में उगलती हैं विकास

सपने में भटकते हकीकत के टुकड़े
देश भीतर देश, समय के भीतर हजारों काल गतियाँ
यह सब देश यह सब काल पेशी में पकड़ लाये गए
पूँजी के रथ में जुतवाए गए
और यह चला नया रथ सूर्य का
चमक से अंधा बनाता सब जलाता
आठ घोड़े, आठ कोड़े
पुरबी मजूरों की पीठ पर 



(ग)

दोपहर की तेज लू में
सुलगते गुलमुहर की विरल छाया में
थक्के थक्के धूप के टुकड़े
फटे नक्शे की थिगलियों से
चिपचिपी काली सड़क पर

सतह पर छा रही हरित-आभाषी कुंभियाँ-जल की
अपनी मुलायम लचकती लंबी अंगुलियों से
गर्दन जकड़कर सरसराती धंस रही हैं
मृत मछलियाँ सतह पर उलट बिछ जाती
बाँक पर सूखे चिटखते जलचरों के गलफड़े

सब्ज़ सांवल सलोने छौने रसाल
जख्म टाँके खुरदुरे गोपाल बाल
जड़ों-शाखों-फलों-पल्लव-मंजरी पर
अब रसायन का विकट हमला हुआ
जहरिठ धुंवा नकली बादलों का भास देता
सोख लेता सूर्य-धरती हाथ से पोसे गए द्रव को
बदल देता सब टके में जादुई स्पर्श से

फसल की प्राणधारा नहीं बन पायी नहर
तूफान गति से उमगते हैं शहर के नाले उसी में
कूच करते लदे नागर कालिमा और आततायी गंध से श्लथ
देखियत कालिंदी अति कारी
टनों कचरे बोझ से पिसती
गलाजत वहन करती सर-ब-सर
अंतहीन उबकाइयों की नुकीली लपट
श्वासनलिका से लिपटती पॉलीथिन की लताएँ

विकसित आंकड़ों के रोपवे पर सरसराते
विषैले धुवें से लिथड़े पहाड़ों की ऊँचानो से
विकासी वारुणी छककर
लड़खड़ाते डगमगाते उतरते हैं नदी-नद
जिनकी गोद खेले बढ़े उमगे
सभ्यता के शिशु कभी
पुलकित किलक आवाज मधुरिम बाँसुरी के सुर
नाद निनाद औ अनुनाद
जहां पर एक संग खाये बटोरे फूल-फल-आखेट
अब नदी के वे पुराने शिशु नदी की धार में ही
प्रवाहित हुए उनकी चीख की आवाज पानी के तले
दफना रहे पर्यावरणविद-अफसर, भगीरथ के नए वंशज
कौड़ियों के वास्ते नीलाम कर दें नदी,
बांध डालें रास्ते बीच से ही काट दें धारा

द्वीपों दिगंतों देश के दर्प भरे दल्लों ने
प्रकृति के दुग्ध कोशों में गड़ाए
विष भरे निज क्लोजपीले दाँत नोकीले
मुँदी-मुँदी आँखों से देख रही माँ इन औलादों को
परशुराम को ज्यों देखा हो रेणुका ने
फरसे से कटी हुई गर्दन के रक्त में लहूलुहान


[घ]

सारे वृक्ष काटे जा चुके
सारी नदी सोखी जा चुकी
सारे खनिज लूटे जा चुके
सारी हवा काली हो चुकी
सारे गाँव जंगल मर चुके
सारी प्रकृति माज़ी हो चुकी


[ङ]

सारी तीसरी दुनिया बनी परमाणुविक गड्ढा
जिस पर खड़ा होगा अमेरीकी सैन्य अड्डा


[च]

सिंगूर नंदीग्राम में जगतसिंहपुर में
दादरी औ कुडनकुल्लम में
नियमगिरी छत्तीसगढ़ में
आँखों में लहू की लताएँ
पनप उट्ठी दहक उट्ठी भट्ठियाँ
बांग्ला, तमिल, ओड़िआ,
कुई, हिन्दी खड़ी बोली
सब ज़बानों में
गूँजता है वही गीत-


[छ]

गाँव छोड़ब नाहीं, जंगल छोड़ब नाहीं !



काव्यशास्त्र विनोदेन...

बाज़ारों सरकटे चमकीले बुत पसरे
चेहरे पर स्वर्ण परत हर दंगे बाद पुती
सुंदरता क्या वाहियात चीज निकली !

भीतर भीतर सड़ते उफनाते हैं ख्याल
गंध प्राणलेवा के ऊपर से यह सिगार
अ-लंकृति भी क्या वाहियात चीज निकली !

समय प्रतिगामी हुआ
हत्यारे प्रगतिशील
तुलना भी क्या वाहियात चीज निकली !

मुक्ति नैपकिन हुई
सुपरमॉल कल्पवृक्ष
उपमा भी क्या वाहियात चीज निकली !

बेसी की फचर फच्च
काम पड़े मुंह माटी
कविता भी क्या वाहियात चीज निकली !

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साहित्य और शास्त्रीय संगीत में रूचि और गति रखने वाले मृत्युंजय ने पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर की रसयात्रा का अंगेजी से हिंदी में अनुवाद किया है. हिन्दी आलोचना में कैनन निर्माण पर इलाहाबाद विश्वविद्यालय से शोध-कार्य पूरा कर उड़ीसा के कटक विश्वविद्यालय में अध्यापन कार्य कर रहे हैं.
087 63 642481 

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  1. अपने जैसा अकेला कवि मृत्‍यंजय। सधी भाषा, सधा विचार। सीधी लक्ष्‍य पर जा लगती कविताएं, न कोई अतिरिक्‍त विस्‍तार....भटकाव को बहुत दूर का शब्‍द है। पहली कविता की भाषा पर वीरेन डंगवाल का कुछ प्रभाव लेकिन एक दौर की कविभाषा शायद ऐसे ही पायी जाती है, इसलिए यह प्रभाव एक सकारात्‍मक प्रभाव.....हो सकता है किसी को यह प्रभाव न मिले। कुल मिलाकर ये कविताएं हासिल हैं आज की कविताओं का। मैं आजकल मनोज झा, मृत्‍युजंय और महेश वर्मा की कविताओं को बाकी छप रही कविताओं से बहुत अलग पाता हूं, तीनों के भीतर कविता भरपूर पकती है, पकना जैसे डाल पर लगे-लगे कोई फल पकता है औरों को सहज उपलब्‍ध होने से पहले। महेश और मृत्‍यंजय के कविता संग्रह की कमी अब सालने लगी है।

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  2. सभी कवितायेँ कमोबेश चलन से 'अलग'-अनूठी ,बगैर शब्दों की फिजूलखर्ची के हर विचार एक परिपक्व और व्यक्तिगत व्यक्त में भी सार्वभौमिकता का स्वाद चखाता लेकिन आख़िरी कविता काव्यशास्त्र विनोदें ...लाज़वाब ..शुक्रिया समालोचन

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  3. सुंदर और सटीक. शब्दों का चयन विषय से बांधे रखता है और चकित करता है.

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  4. रामजी राय
    कोदो पत्तियों का कसैला सा मधुर स्वाद
    पान का स्थान लेता बालवृन्दों के लिए
    और बखीर, साँवे भात से लटपट
    बहुत नहीं लेकिन पुरानी सारी यादें जागती पंक्तियाँ इनके साथ
    सारे वृक्ष काटे जा चुके
    सारी नदी सोखी जा चुकी
    सारे खनिज लूटे जा चुके
    सारी हवा काली हो चुकी
    सारे गाँव जंगल मर चुके
    सारी प्रकृति माज़ी हो चुकी
    कलेजा जैसे कट-कट जा रहा हो। जियो और काल के भाल पर लिखो मृतुंजय!

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  5. मृत्युंजय औरों से एकदम अलग तरह की कविताएं रच रहे हैं. कथ्य के अनुरूप मुहावरा पाठक को कसकर पकड़े रखता है.
    ढेर सारी शुभकामनाएं, उन्हें.

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  6. मुक्ति नैपकीन हुई
    सुपर मॉल कल्पवृक्ष
    उपमा भी क्या वाहियात चीज निकली !
    सुन्दर । अच्छी कविता । जल जंगल ज़मीन की लूट ने कहाँ लाकर खड़ा कर दिया है !

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  7. मृत्युंजय जी की कविता निस्संदेह हमारे समय के यथार्थ को बिल्कुल नए ढंग से और बहुत ही सघनता के साथ व्यक्त करती हैं.जटिल कथ्य को शैली की ताजगी के साथ प्रस्तुत करना किसी भी कलाकार के लिए चुनौती होता है .मृत्यंजय जी इस चुनौती का बखूबी सामना करते हैं.बाजारवाद का विरोध करने के लिए वे जिस भाषा और मुहावरों का प्रयोग करते हैं वह उसी जमीन से खड़ी होती है जिसके लिए लड़ाई लड़ी जा रही है.प्रस्तुति के लिए समालोचन को धन्यवाद और कवि को बधाई.

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  8. दीपक सिन्हा22 नव॰ 2013, 11:08:00 pm

    बिम्बों और प्रतीकों से प्रकृति,और मानव के आतंरिक सम्बन्ध ,मानव का स्वार्थ,साथ ही उसकी उत्कठ महत्वकांक्षा और प्रतिरोध का स्वर ,को एक साथ लाने कि कला अगर किसी नवोदित कवि को सीखनी हो तो वह निर्वार्ध गति से और निर्भीकता के साथ दौड़ कर मृतुन्जय के पास चला जाय.उसकी सारी समष्याओं का हल संभव होगा


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  9. kahaN nigaah nahiN,aam aadami ke dard saNjona aur use amerika tak le jaanaa, BHAI laajawaab,dil ki kahooN to alfaaj nahin kucha kehne ko,aapne meri ray maaNgi maiN to kucha bhee nahiN, par shukragujaar huN.

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  10. बढ़िया ..तीखी मर्मभेदी .......सवाल है कि कवितायें ..प्रशंसा भी क्या वाहियात चीज निकली :(

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  11. म्रत्युन्जय की कवितायात्रा , भाव से ले कर भाषा तक , अपने निरन्तरता और ताजगी के कारण भारी उम्मीद जगाती है .

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